मानस चर्चा
बंदौ अवधपुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥
मैं अति पवित्र और कलियुगके पापोंको नाश करनेवाली श्री अयोध्यापुरी और श्रीसरयू नदीको
प्रणाम करता हूँ ॥
अवधपुरी अति पावनीहै,इसलिये 'कलिकलुष नसावनि'है।
स्पष्ट लिखा है
- 'देखत पुरी अखिल अघ भागा । बन उपबन बापिका
तड़ागा ॥' और सरयूजी तो 'कलिकलुष नसावनि' हैं, अतः वे भी अति पावनी हैं। प्रभु श्रीराम स्वयं कहते हैं- 'जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरयू पावनि ॥' वास्तव में देखा जय तो
दोनों ही है 'अति पावनि।'
हैं'कलि कलुष नशावनि'।
दोनोंकी एक ही स्थान पर वन्दना की गई है, पृथक्-पृथक् वन्दना नहीं है ।क्योंकि सरयूजी श्री अयोध्याजीका अंग हैं। 'अवधपुरी' कहकर थलकी और 'सरयूसरि' कहकर जल की।अर्थात् जल-थल दोनोंकी वन्दना की ।
महर्षि वाल्मीकिजीने भी कहा है
'कैलासपर्वते राम मनसा निर्मितं परम् ॥
ब्रह्मणा नरशार्दूल तेनेदं मानसं सरः ।
तस्मात्सुखाव सरसः सायोध्यामुपगूहते ॥
सरः प्रवृत्ता सरयूः पुण्या ब्रह्मसरश्च्युता । '
अर्थात् विश्वामित्रजी श्रीरामजीसे कहते हैं कि यह नदी ब्रह्माके मनसे रचे हुए मानस-सरसे निकली है । सरसे
निकलनेके कारण सरयू नाम हुआ। श्रीअयोध्या-सरयूका सम्बन्ध भी है। श्रीसरयूजी श्रीअयोध्याजीके लिये ही
आयी हैं। इसीसे उन्होंने आगे अपना नाम रहनेकी चिन्ता न की। गंगाके मिलनेपर अपना नाम छोड़ दिया ।
स्कन्दपुराण वैष्णवखण्ड अयोध्यामाहात्म्य में, श्री अयोध्याजी और श्रीसरयूजीका माहात्म्य इस प्रकार
कहा है- 'मन्वन्तरसहस्त्रैस्तु काशीवासेषु यत्फलम् । तत्फलं समवाप्नोति सरयूदर्शने कृते ॥
मथुरायां कल्पमेकं वसते मानवो यदि ।
तत्फलं समवाप्नोति सरयूदर्शने कृते ॥
षष्टिवर्षसहस्त्राणि भागीरथ्यावगाहजम् ।
तत्फलं निमिषार्द्धेन कलौ दाशरथीं पुरीम् ॥' अर्थात् हजार मन्वन्तरतक काशीवास करनेका जो फल है वह श्रीसरयूजीके दर्शनमात्रसे प्राप्त हो जाता है। मथुरापुरीमें एक कल्पतक वास करनेका फल सरयूदर्शनमात्रसे प्राप्त हो जाता है। साठ हजार वर्षतक गंगाजीमें स्नान करनेका जो फल है वह इस कलिकालमें श्रीरामजीकी पुरी श्री अयोध्या में आधे पलभरमें प्राप्त हो जाता है। और यह भी कहा गया है कि श्री अयोध्यापुरी पृथ्वीको स्पर्श नहीं करती, यह विष्णु चक्रपर बसी हुई है ।
'विष्णोराद्या पुरी चेयं क्षितिं न स्पर्शति द्विज ।
विष्णोः सुदर्शने चक्रे स्थिता पुण्यकरी स्थितौ ॥ '
फिर श्रीवचनामृत भी है-
'जा मज्ञ्जन ते बिनहि प्रयासा ।
मम समीप नर पावहिं बासा ॥
हमारे यहां सात पुरियाँ मोक्ष देनेवाली हैं। कहा गया है।
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका ।
द्वारावती तथा ज्ञेया सप्तपर्यश्च मोक्षदाः ॥'
ये सातों पुरियाँ विष्णुभगवान्के अंगमें हैं, इन सबोंमें श्री अयोध्यापुरी अग्रगण्य है। शरीरके अंगोंमें मस्तक सबसे ऊँचा होता है और सबका राजा कहलाता है।विष्णुभगवान् के अंगमें श्रीअयोध्यापुरीका स्थान मस्तक है । जैसा कि रुद्रयामल अयोध्यामाहात्म्य में लिखा है –
विष्णोः पादमवन्तिकां गुणवतीं मध्यं च कांचीपुरीं
नाभिं द्वारवतीं वदन्ति हृदयं मायापुरीं योगिनः । ग्रीवामूलमुदाहरन्ति मथुरां नासां च वाराणसीमेतद्
ब्रह्मपदं वदन्ति मुनयोऽयोध्यापुरीं मस्तकम् ॥'
पुनश्च यथा - 'कल्पकोटिसहस्राणां काशीवासस्य यत्फलम्। तत्फलं क्षणमात्रेण कलौ दाशरथीं पुरीम् ॥'
सब पावनी हैं और यह अति पावनी है । तीर्थराज प्रयाग
कहीं नहीं जाते, पर श्रीरामनवमीको वे भी श्री अवध आते हैं। यथा-जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। 'तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ॥' इसके प्रियत्वके विषयमें श्रीमुखवचन है कि 'जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जग जाना ॥ अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ । यह प्रसंग जानइ कोड कोऊ ।' फिर भला वह 'अति पावनि ' क्यों न हो ! करुणासिन्धुजी लिखते हैं कि जो पदार्थ राजस - तामस - गुणरहित है और केवल सात्त्विक गुणयुक्त है, वह 'पावन' कहा जाताहै और जो काल, कर्म, गुण, स्वभाव सबसे रहित हो वह 'अति पावन' है। आचार्य द्विवेदीजी कहते हैं - 'न योध्या कैश्चिदिति अयोध्या' अर्थात् चढ़ाई कर जिस पुरीको कोई जीत न सके वह अयोध्या है, इसीका अपभ्रंश
अवध है, ऐसी बहुतोंकी सम्मति है। 'न वधः कैश्चिदिति अवधः' अर्थात् किसीसे जो नष्ट न हो वह 'अवध' ।
तुलसीदासजी को तो यह 'अवध' नाम ऐसा पसन्द है कि मानस भरमें उन्होंने यही नाम रखा है। 'अयोध्या' यह नाम कहीं नहीं रखा, केवल एक स्थानपर आया है। यथा - 'दिन प्रति सकल अयोध्या आवहिं । देखि नगरु बिराग बिसरावहिं ॥' श्रीकाष्ठजिह्वास्वामीजीने 'रामसुधा' ग्रन्थके चौथे पदमें'अयोध्या' की व्याख्या यों की है।
'अवधकी महिमा अपरंपार, गावत हैं श्रुति चार।
विस्मित अचल समाधिनसे 'जो ध्याई, बारंबार ।
ताते नाम अयोध्या गायो यह ऋग बेद पुकार ॥
रजधानी परबल कंचनमय अष्टचक्र नवद्वार।
ताते नाम अयोध्या पावन अस यजु करत बिचार ॥ 'अकार यकार उकार देवत्रय ध्याई' जो लखि सार ।
ताते नाम अयोध्या ऐसे साम करत निरधार ॥
जगमग कोश जहाँ अपराजित ब्रह्मदेव आगार ॥
ताते नाम अयोध्या ऐसो कहत अथर्व उदार ॥ '
रुद्रयामल अयोध्यामाहात्म्यमें शिवजी कहते हैं-
'श्रूयतां महिमा तस्या मनो दत्त्वा च पार्वति ।
अकारो वासुदेवः स्याद्यकारस्ते प्रजापतिः ।
उकारो रुद्ररूपस्तु तां ध्यायन्ति मुनीश्वराः ।
सर्वोपपातकैर्युक्तैर्ब्रह्महत्यादिपातकैः ॥
न योध्या सर्वतो यस्मात्तामयोध्यां ततो विदुः । विष्णोराद्यापुरी चेयं क्षितिं न स्पृशति प्रिये ॥
विष्णोः सुदर्शने चक्रे स्थिता पुण्याकरा सदा।'
अर्थात् हे पार्वती ! मन लगाकर अयोध्याजीकी महिमा सुनो। 'अ' वासुदेव हैं। 'य' ब्रह्मा और 'उ' रुद्ररूप हैं ऐसा मुनीश्वर उसका ध्यान करते हैं। सब पातक और उपपातक मिलकर भी उससे युद्ध नहीं कर सकते; इसीलिये
उसकोअयोध्या कहते हैं।विष्णुकी यह आद्यापुरी चक्रपर स्थित है, पृथ्वीका स्पर्श नहीं करती।
'कलिकलुष नसावनि' । कलियुगके ही पापोंका क्षय करनेवाली क्यों कहा, पापी तो और युगों में भी होते आये हैं ? उत्तर यह है कि यहाँ गोस्वामीजीने और युगोंका नाम इससे न दिया कि औरोंमें सतोगुण - रजोगुण अधिक और तमोगुण कम होता है। पाप तमोगुणहीका स्वरूप है। कलियुगमें तमोगुणकी अधिकता होती है, सत्त्व और रज तो नाममात्र रह जाते हैं, जैसा उत्तरकाण्डमें कहा है- 'नित जुग धर्म होहिं सब केरे । हृदय राममाया के प्रेरे ॥
सुद्ध सत्त्व समता बिज्ञाना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ॥ सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा । सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस । द्वापर धर्म हरष भय
मानस ॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा । कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ॥' पुनः श्रीमुखवचन है कि 'ऐसे अधम मनुज खल कृतयुग त्रेता नाहिं । द्वापर कछुक बूंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ॥ ', 'कलि केवल मलमूल मलीना । पाप पयोनिधि जन मन मीना ॥ ' जब ऐसे कलिके कलुषकी नाश करनेकी
शक्ति है तो अल्प पाप विचारे किस गिनतीमें होंगे !
ऐसी है हमारी अयोध्या ,आइए हम पुनः अयोध्या की वंदना गोस्वामीजी के ही शब्दों में करते हैं
बंदौ अवधपुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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