शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

कोयल के पर्यायवाची


काकपाली  श्यामा पिक, बसंतदूत कोयल।
मदनशलाका कलघोष,कोकिला ही कोकिल।।1।।
कुहुकिनी की कुहू कुहू जग अपना कर लेत।
वनप्रिया सारंग सहित, सारिका  खुशी देत।।2।।
सारिका (मैना को भी) 
   cuckoo

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

मानस चर्चा
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये 
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे 
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ 
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
गोस्वामीजी कहते ही हैं कि मुझे कोई दूसरी इच्छा नहीं है, लेकिन जिस तरह से 'नान्या' को इस श्लोक में प्रथम शब्द के रूप में ध्वनित और रेखांकित किया गया है, उससे अर्थ के बहुत से फूल बिखरते हैं। ‘स्पूहा' और 'काम' में बहुत फर्क है। काम दोष है, स्पृहा नहीं। काम बांधेगा, स्पृहा मुक्त करेगी। काम जीवन में संचय करेगा, जबकि गोस्वामीजी की स्पृहा जीवन में समेटकर ठूंस-ठूंस कर सब कुछ अपने पास भर लेने की नहीं है। वे तो उसे अतिक्रांत करना चाहते हैं। काम मद है, उत्तेजना है। लेकिन तुलसी की स्पृहा चेतना है, जागरण है। काम द्वैत है, यह स्पृहा अनन्यता की है। काम ऊर्जा का स्खलन है, यह स्पृहा ऊर्जा की उत्स्फूर्ति । इच्छा का भी अपना एक दुष्चक्र है।  लोग जीवन की एक छोटी सी अवधि
में हजारों इच्छाएं करते हैं। गोस्वामीजी एक के अलावा
दूसरी किसी इच्छा की बात नहीं करते। आदमी की
पहचान इच्छाओं की संख्या से नहीं, इच्छाओं की गुणवत्ता से होती है। संख्याएं कई बार हमारी जीवन-शक्ति की में 'लीक्स' बन जाती हैं- उनसे थोड़ा-थोड़ा कुछ रिसता रहता है। कई बार वे लीक ही नहीं, ब्रेक भी हो जाती हैं। गोस्वामीजी जब नान्या स्पृहा की बात करते हैं तो वह संख्या के विरुद्ध सांख्य का विद्रोह ही नहीं है, वह जीवन को परिचलित और परिभाषित करने वाली एक केन्द्रीय थीम की बात भी करते हैं।वे एकमात्र अनन्य स्पृहा की बात करते हैं। यह बहुत से विकल्पों के बीच तौल करने की स्थिति नहीं है, क्योंकि गोस्वामीजी  की स्पृहा है ही अतुलनीय । स्पृहाओं की सांख्यिकी में गोस्वामीजी नहीं उलझते । इच्छाओं के बहुत ही
सघन जंगल में आदमी रास्ता भी भूल सकता है।
इसलिए गोस्वामीजी इच्छा को विशेषीकृत कर देते हैं और एकल भी । गोस्वामीजी इस श्लोक में स्पृहा और काम के जिन द्वन्द्वों का चित्र खींचते हैं वहाँ वे और बात भी स्थापित करते चलते हैं । वह यह कि बात सिर्फ कर्म की पवित्रता की ही नहीं, इच्छा की पवित्रता की भी है। कर्म तो बाहरी आलोक है, लेकिन इच्छा एक अन्तः दीप्ति है।
हे रघुपते! मेरे हृदय में और कोई इच्छा नहीं है।
अन्य कुछ नहीं अर्थात् ऋद्धि सिद्धि, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष कुछ भी नहीं चाहता, -
'अर्थ न धर्म न काम रुचि गति न चहउँ निर्वान । जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन ॥'
और भी देखें:-
 'चहउँ न सुगति सुमति संपति कछु रिधि सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु रहित अनुराग राम पद बढ़ौ अनुदिन अधिकाई 
 ऋग्वेद ने तो बहुत पहले ही कहा था : 'मनुष्य विभिन्न कामनाओं से घिरा रहता है', लेकिन गोस्वामीजी ने जैसे सारी स्पृहाओं और इच्छाओं को एक ही केन्द्र में विलयित कर दिया है। सामान्यतः इच्छाएं एक तनाव निर्मित करती हैं। वे हमारी अब तक की आश्वस्ति को जैसे माया बना देती हैं। इच्छा या तो समर्पण मांगेगी या प्रतिरोध । कहीं अनुताप का तनाव होगा, कहीं अधूरेपन का, कहीं संदेह और चिन्ताएं, कहीं दमन। वीतिच्छ जातक में कहा गया : 'इच्छा हि अनन्तगोचराः' कि इच्छा की गति अनंत है।  गोस्वामीजी ने तो और ज्यादा सुस्पष्ट तरीके से जाना था कि इच्छाएं क्रमशः क्षरण करती हैं। 'कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा' प्रसादजी के शब्दों में "सर्ग इच्छा का है परिणाम," इच्छा के बिना संसार तो फ्रीज हो जाएगा - न जीने का कारण होगा, न मरने का । कई बार तो हम इच्छा 'करते' नहीं हैं, बस सहसा पाते हैं अपने अंदर, कि यह एक गुप्त इच्छा कहीं पल सी रही थी । कहीं लगता है कि इच्छाओं का, कम से कम कुछ इच्छाओं का, एक स्वतंत्र गुप्त जीवन है, कुछ इच्छाएं तो स्वतः स्फूर्त हुआ करती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि इच्छाओं में अन्तःसंघर्ष हो । कई बार अपनी इच्छाओं के संपूर्ण पैटर्न से ही आपको एक तरह की जुगुप्सा-सी हो जाती है। कई बार इच्छा का सामाजिक स्वीकार प्रतिबन्धित होने पर हम उसका दमन कर लेंगे और उसे ही 'नान्या स्पृहा' की स्थिति समझेंगे।
कालीदासजी ने अभिज्ञानशाकुन्तल
में यही कहा : 'पिण्ड खजूर से अरुचि उत्पन्न हुए
व्यक्ति को इमली की इच्छा होती है। लेकिन यह भी
'नान्या स्पृहा' की स्थिति नहीं है। प्रतिस्थापन हो जाता है
लेकिन इच्छाएं बनी रहती हैं : 'दमे मर्ग तक रहेंगी
ख्वाहिशें।यह नीयत कोई आज मर जाएगी ।'
मृत्यु- पर्यन्त कामनाओं का क्रम । बल्कि दुरतिक्रम। प्राकृत के आचारांग में कहा गया "कामा दुरतिकम्मा" कामनाओं का पार पाना बहुत कठिन है। कई बार जिंदगी की व्यस्तताओं में कई इच्छाएं अदृश्य भी हो जाती हैं। कई बार इच्छाएं जैसे छाया भर की तरह ही शेष रह जाती हैं,उनका रूपाकार गायब हो जाता है। 
‘नान्या स्पृहा' की स्थिति तब आती है जब हम
अपनी समस्त इच्छाओं को सिकोड़कर किसी एक ही
लाइफ - डिफाइनिंग चीज पर केन्द्रित कर देते हैं। क्या सुन्दर कहा गया है:- न जातु कामःकामानामुपभोगेन शाम्यतिहविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते - कि विषय भोग की इच्छा विषयों का उपभोग करने से कभी शान्त नहीं सकती। घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्ज्वलित होने वाली आग की भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है।अष्टावक्रजी  ने इसे स्पृहा का गलना कहा है : 'क्व धनानि क्व मित्राणि गलिता स्पृहा ।जब मेरी इच्छा गल गई तब कहां धन है, कहां मित्र हैं, कहां मेरे विषयरूपी दस्यु ( लुटेरे) हैं, कहां शास्त्र हैं और कहां विज्ञान है! वही मस्तराम का भाव : चाह नहीं, चिंता नहीं, मनवां बेपरवाह।जाको कछू न चाहिए, सो जग साहंसाह। 
मनुस्मृति कहती है : 'अकामस्य क्रिया काचिद्
दृश्यते नेह कर्हिचित्। यद्यद्धि कुरुते किंचित् तत्तत्
कामस्य चेष्टितम्'- इस संसार में इच्छा के बिना
किसी मनुष्य का कोई काम कभी भी नहीं दिखाई देता।
मनुष्य जो कुछ करता है, वह सब इच्छा के कारण।
'इच्छा को लोग एक भाव समझते हैं, लेकिन जरा ध्यान
से देखें तो इच्छा एक अभाव है। किसी चीज का न
होना, कोई अपूर्णता ।' शिवानंद कहते हैं कि 'डिज़ायर
इज़ पावर्टी'  इच्छा दरिद्रता है।इच्छा की यात्रा को तो हृदय में पहुंचना ही है क्योंकि वह स्वयं उद्भूत भी वहीं से होती है: 'भुवनं मनसो नान्यदन्यन्न हृदयान्मनः । अशेषा हृदये तस्मात् कथा परिसमाप्यते' कि संसार मन से भिन्न नहीं है, मन हृदय से भिन्न नहीं है, अतः समस्त कथा हृदय में ही समाप्त होती है । इच्छा की 'डीपनिंग' 'हृदयस्थो भगवान मंगलाय
तनो हरिः' तक ले जाएगी। यह इच्छा का समाहुतिकरण है। लेकिन गोस्वामीजी ने यह भी सिद्ध
किया कि इच्छा का आध्यात्मीकरण, इच्छा का
अवमानवीकरण नहीं है। हृदय में स्थित विष्णु का
साक्षात्कार विश्व से विलग नहीं करता । वह एकांतिक
(aloof) होना नहीं है। गोस्वामीजी  वह इच्छा
करते हैं जो सबसे सम्बन्ध जोड़ती है, न कि ऐसी कि जो
सम्बन्ध तोड़ती है। इसलिए वह विकास और विस्तार
को सुनिश्चित करने वाली स्पृहा रखते हैं, वह स्पृहा
जिससे मैथ्यू आर्नल्ड की वह पंक्ति सच लगने लगती है
: The same heart beats in every human
breast.  वही एक हृदय हर मानव वक्षस्थल में
धड़कता रहता है। बात इस हृदय की ही है और इसीलिए गोस्वामीजी  'हृदयेऽस्मदीये' शब्द के माध्यम से बस उसे ही रेखांकित करते हैं।  हृदयहीन मनुष्य से उपासना नहीं होती।गोस्वामीजी इच्छाओं का वास स्थान हृदय मानते हैं, लेकिन इस हृदय में इच्छाओं की भीड़ वे इकट्ठा नहीं करना चाहते। इच्छाओं की भीड़ इच्छाओं की एकाग्रता को, उनकी तीव्रता और उनके वेग को कम, भोथरा और दुर्बल कर देती है। गोस्वामीजी  चाह रहे हैं एक बिन्दु पर सारी ऊर्जाओं को मोड़ना, सीधे उस बिंदु पर जाना, न दायें देखना, न बायें। वे अनावश्यक कार्य ही नहीं, अनावश्यक कामनाओं से भी मुक्त होना चाह रहे हैं। शतपथ ब्राह्मण का निर्देश भी है : 'न ह्युक्तेन मनसा किंचन संप्रति शक्नोति कर्तुम्' कि अयुक्त मन से कुछ भी करना संभव नहीं है।
।।सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।।
मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अन्तरात्मा ही हैं।
तुलसी कई बार बड़े आग्रह के साथ कहते हैं। बालकांड की शुरुआत में वे कहते हैं- 'सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे', यहां भी उसी आग्रह के साथ कह रहे हैं कि 'मैं सत्य कहता हूँ।' मार्कण्डेय पुराण में भी यही कहा गया : 'सत्यं चोक्तं परो धर्मः स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः'  सत्य-
भाषण सबसे बड़ा धर्म है। सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है, बल्कि ऋग्वेद तो स्वर्ग क्या धरती कोभी सत्य प्रतिष्ठित मानता था- 'सत्योनोत्तमिता भूमिः' भूमि सत्य द्वारा प्रतिष्ठित है।गोस्वामीजी ने 'मैं' को वदामि कह कर सामने लाया हैं।फिर तत्काल कहते हैं : 'भवानखिलान्तरात्मा' यह कि आप सबके अन्तरात्मा ही हैं, न केवल
मेरे बल्कि सबके । इसलिए यह एक समस्वर 'मैं' है । इस 'मैं' की बौद्धिक, सामाजिक, सौन्दर्यशास्त्रीय
और मनोवैज्ञानिक संरचना 'भव' और 'अखिल' की
सुसंगति में है और इसलिए यह परिपूर्ण, समग्र व ईश्वर
से ज्यादा इन्टीग्रली जुड़ा हुआ है 'मैं' है ।
ऐसा लगता है कि गोस्वामीजी जितना व्यक्तिगत
साक्ष्य दे रहे हैं, उतना ही उस कॉस्मिक आर्डर की ओर
भी हमारा ध्यान खींचना चाहते हैं। वे एक आध्यात्मिक
और अंतर्मुखी लेकिन सर्वानुकूल और सनातन 'मैं' की
ओर से बोल रहे हैं। उनके बोलने में एक तरह की स्व-
चेतनता और स्व-संस्फूर्तता (Self-reflexivity) है,
लेकिन वह आत्मपरक चेतनता प्रकृति के भौतिक विश्व
और मनुष्यों के सामाजिक विश्व से जुदा नहीं कर दी गई
है। उनका 'मैं' किसी तरह के पक्षाघात से ग्रस्त नहीं है।
लेकिन वह इस मामले में अपनी पक्षधरता को जरूर
स्पष्ट कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यहां उनका एंगेजमेंट
है। यहां किसी तरह का औपचारिक तथ्य कथन नहीं है।
लेकिन यह 'मैं' किसी तरह की अस्मिताई भक्ति के रूप
में नहीं लिया जा सके, इसीलिए वे 'भवान
खिलान्तरात्मा'  'मैं' और 'अखिल' दोनों को एक सांस में बोलते हैं क्योंकि वे आत्म-रति में ग्रस्त होने का दूर तक भी संकेत नहीं देना चाहते। उनके 'मैं' और 'अखिल एक
दूसरे को प्रतिबिम्बित करते हैं। तुलसी के समेकन की
यह एक शैली है। कई बार लोग कहते हैं कि कविता में 'मैं' शैली छायावाद से आई। 'निराला' ने दावा भी किया कि 'मैंने ' 'मैं' शैली अपनाई। लेकिन उसके बहुत बहुत पहले गोस्वामीजी ने 'मैं' शैली को खूब जमकर अपनाया 
, 'मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा', 'मोरि ढिठाई', 'होइ हित मोरा','कबित बिबेक एक नहिं मोरें', 'सोइ भरोस मोरे मन
भावा', 'मम भनिति', 'तेहि बल मैं रघुपति गुन गाथा',
'ताते मैं अति अलप बखाने', 'सो उमेस मोहि पर अनुकूला'आदि ढेरों उदाहरण हैं। तुलसी के इन शुरुआती कथनोंमें 'मैं' का जबर्दस्त निदर्शन है। सोचिए कि एक पूरीपरंपरा है जो 'मैं' को खत्म करने पर तुली हुई है। यहां
तक कि कबीर भी 'मैं मैं मेरी जिनि करै, मेरी मूल
विनास / मेरी पग का पौंखड़ा, मेरी गल की फाँस'- कहे
बिना नहीं रहते। उसके सामने तुलसी उतने 'मैं' परक
हो रहे हैं, जितने मैंने ऊपर उदाहरण दिए। इसलिए
तुलसीदास के इस महाप्रबंध में अपनी तरह की एक
सब्जेक्टिविटी है। यह 'आत्मपरकता' अपने आप में
अहंकृति नहीं है बल्कि एक तरह से 'स्व' का उद्भावन
है, जयशंकर प्रसाद की कामायनी के आशा सर्ग की
पंक्तियों जैसा 'मैं हूं, यह वरदान सदृश / क्यों लगा
गूंजने कानों में / मैं भी कहने लगा, रहूँ मैं / शाश्वत
नभ के गानों में ।' भारत के दार्शनिक चिंतन में 'आत्मा'
पर और पश्चिमी चिंतन में 'सेल्फ' पर बहुत चर्चा हुई
है। तुलसी विकारी आत्म से अविकारी आत्मा तक की
दूरी एक ही पंक्ति में तय कर लेते हैं, 'सत्यं वदामि च
भवानखिलान्तरात्मा ।' तुलसी का 'मैं' दुनिया से
अन्तः क्रिया करता है, दुनिया को अनुभव करता है वे
जब भवानखिलान्तरात्मा की बात करते हैं, तो वे एक
तरह के विलयित या एकीकृत (यूनिफाइड) 'आत्म' की
बात करते हैं। वह एक अलग टुकड़ा नहीं है। उनके
पास एक सोचने वाला 'मैं' है जो अनुभव की गई चीजों
को अवधारणीकृत करता है। जब वह उन चीजों को
अवधारणा में बदलता है, ज्ञान और समझ का विकास
एक वृहत्तर स्तर पर होता है।
तुलसी जब यह कहते हैं कि आप सबके अन्तरात्मा
ही हैं तो वे पूरी कायनात में ईश- संचार देखते हैं, हमारे
यहां ईश्वर को अंतर्पुरुष, अंतर्यामी, घटघटवासी, जगदात्मा,विश्वंभर, विश्वात्मा, सर्वव्यापी, सर्वांतर्यामी आदि कहा गया तो वह भी इसीलिए कि वह सभी के भीतर है। यह सब कितना रहस्यमय है? आपके भीतर वह कौन सा तहखाना है जहां वह कोई बैठा हुआ है, वहां न तो नेत्र जाता है, न वाणी, न मन (न तत्र चक्षुर्गच्छति न
वाग्गच्छति नो मनः- केनोपनिषद् 1 / 3), वह कोई
जिसे न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न
पानी गला सकता है और न वायु सुखा सकता है। हमारे
भीतर एक जासूस है। हमारे भीतर एक साक्षी है। 'आत्मैव ह्वात्मनः साक्षी'- । इससे भागकर
कहां जाया जाएगा? हमारी सारी चतुराइयों के सामने
यह ‘निर्विकल्प'? साक्षात् न होने पर भी साक्षी, आत्मा
साक्षी विभु इसे शब्दों से गफलत में नहीं रखा जा सकता, यह 'अवाक' है । इसे भेष बदलकर नहीं भरमाया जा सकता। यह अव्यक्त और अशरीरी है। इसे मारा नहीं जा सकता कि चलो इसके वध के जरिये ही इससे पिंड छूटे । गीता  में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत!- हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है यही आत्मा परमात्मा है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश परमात्मा में गुंथा हुआ है । ( मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव-) 
'गीता में  भगवान कृष्ण यही तो कहते हैं: ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति - कि ईश्वर सभी प्राणियों के हृदयमें विराजमान है। 'सत्यं वदामि,' यथा- 'सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।' (१९) अखिलान्तरात्मा अन्तर्यामी हो, अतः सबकी जानते हो। यथा- 'अंतरजामी प्रभु
सब जाना। (७। ३६) प्रयच्छ दीजिये। रघुपुङ्गव रघुकुलमें श्रेष्ठ | यथा- 'रघुकुल दीपहिं चलेउ
लेवाई।' (अ० ३८), 'रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा।' (अ० ५२ ) [ 'निर्भरां इति । निर्भर भक्तिके दो
अर्थ होते हैं। एक तो परिपूर्ण, अविचल और अतिशय'। यथा-निर्भर प्रेम मगन मुनि ज्ञानी । कहि न
जाइ सो दसा भवानी ॥', 'अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई।', 'अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा प्रगटे हृदय हरन
भव भीरा ॥' (सुतीक्ष्णजीका प्रेम आ० १०), 'अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव। जेहि खोजत
जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोड पाव ॥' (उ० ८४), 'तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिये।
' (अत्रिजी। आ०) दूसरा अर्थ है-'वह भक्ति जिसमें मनुष्य अपनी शरीरयात्रा तथा आत्मयात्राके निर्वाहका
सम्पूर्ण भार श्रीजानकीनाथके चरणारविन्दोंमें समर्पण करके निश्चिन्त हो जाता है। यहाँ दोनों अर्थ हैं।
] कामादि दोष-काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर षट् विकार इन विकारोंके रहनेसे भगवान्को
प्राप्ति दुर्लभ है। कहा भी है- 'काम आदि मद दंभ न जाके। तात निरंतर मैं बस ताके ॥ (आ० १६)
अर्थात् उनके रहते हुए भगवान् श्रीराम हृदयमें निवास नहीं करते। इसीसे हृदयको कामादि दोषोंसे रहित
करनेकी प्रार्थना करते हैं। (पं० रामकुमारजी) [ विनयमें भी ऐसी ही प्रार्थना बारंबार की गयी है। यथा - 'लोभ
ग्राह दनुजेस क्रोध कुरुराज बंधु खल मार। तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार ॥' प्रथम 'काम'
शब्द देनेका भाव यह है कि षड् रिपुओंमें भक्तिका मुख्य बाधक यही है। यथा- 'तात तीन अति प्रवल
खल काम क्रोध अरु लोभ ।' इसीसे इनमें भी 'काम' को ही प्रथम कहा गया उत्तरार्द्धमें योग और
क्षेम दोनोंकी याचना की। 'भक्तिं प्रयच्छ' यह योग और 'कामादिदोषरहितं कुरु' यह क्षेम है। भक्तका
मन निर्मल होता है पर मायावश कुसङ्गादि पाकर उनका मन भी मैला हो जाता है, यह बाल० (१।
४) 'जनमन मंजु मुकुर मल हरनी' की टीकामें बताया गया है। देखिये भक्तप्रवर श्रीनारदजीके 'सहज बिमल
मन' में कामके जीतनेका अहङ्कार, विश्वमोहिनीकी प्राप्तिका लोभ और उसके न मिलनेपर क्रोध सभी विकार
उत्पन्न हो गये थे। काम-क्रोधादि भक्तोंके शत्रु हैं, सदा घातमें लगे रहते हैं। श्रीमुखवचन है- 'मोरे प्रौढ़
तनय सम ज्ञानी । बालक सुत सम दास अमानी ॥ दुहुँ कहँ काम क्रोध रिपु आही।' (३।४३ ८-९) इससे
भगवान् कहते हैं कि 'करउँ सदा तिन्ह के रखवारी। जिमि बालक राखड़ महतारी ॥' (३। ४३ ५) इसीसे
गोस्वामीजी भक्तिकी याचना करके उसकी कामादिसे रक्षा भी माँगते हैं।]
टिप्पणी- २ (क) 'नान्या स्पृहा' अर्थात् कोई काङ्क्षा नहीं है, यह कहकर अपनेको अकिंचन बताया
और इसकी पुष्टताके लिये 'सत्यं वदामि' और 'अखिलान्तरात्मा' कहा। इस प्रकार अपनेको भक्तिका अधिकारीठहराकर तब भक्ति माँगते हैं। क्योंकि जो कुछ नहीं चाहता वही भक्तिका अधिकारी है, उसीको भक्ति
मिलती है। यथा- 'बहुत कीन्ह प्रभु लषन सिय नहिं कछु केवट लेड़। बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल
बर देइ ॥' (२ | १०२) (ख) 'रघुपुङ्गव' कहकर निर्भर भक्ति माँगनेका भाव यह है कि जैसे आप रघुकुलमें
श्रेष्ठ हैं वैसे ही श्रेष्ठ भक्ति मुझे दीजिये। भक्ति ही माँगते हैं, क्योंकि इससे बढ़कर कोई लाभ नहीं है।
यथा- 'लाभ कि कछु हरि भगति समाना । जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ॥ (उ० ११२। ८)
प० प० प्र० - भक्तिं प्रयच्छ इति। यहाँ यह शंका होती है कि यह याचना इसी काण्डमें
क्यों की गयी? यह श्लोक श्रीरामवन्दना और श्रीहनुमान्जीकी वन्दनाके बीचमें क्यों रखा ? प्रथम शंकाके
समाधानके लिये पिछले चार काण्डोंका सिंहावलोकन अति संक्षिप्तरूपमें करना पड़ेगा। बालकाण्डमें कहा
है कि स्वान्तः सुखकी प्राप्ति चाहिये, इसके लिये स्वान्तःस्थ ईश्वरका दर्शन चाहिये। ईश्वर कौन हैं और
उनकी प्राप्तिका साधन क्या है यह 'रामाख्यं ईशं हरिम्' और 'यत्पादप्लवमेकमेव हि' से बताया। विश्वासावित
सात्त्विक श्रद्धासे धर्माचरण करनेसे वैराग्य होता है यह 'भरत चरित करि बिरति' से बताया। सद्गुरु
संत संगति बिना श्रद्धा, धर्म, वैराग्य और ज्ञानकी प्राप्ति नहीं यह बा० मं० श्लो० ३ का विषय अरण्यकाण्डमें
बताया। वैराग्यादि साधनोंकी प्राप्ति 'राम' महामन्त्रके अनुष्ठानसे होगी यह किष्किन्धाकाण्डमें कहा। जब
पूर्वोक्त साधनोंसे मोक्ष प्राप्तिकी शुभवासना भी निःशेष हो जाती है, तब वह भक्तिका अधिकारी बनता
हैं, यह इस श्लोकमें बताया।
दूसरी शंकाका समाधान यह है कि भक्तिका अधिकारी साधक यद्यपि प्रार्थना कर रहा है सही
तथापि केवल उसकी याचनापर भगवान् उसे वह अनुपम भक्तिरस थोड़े ही दे देंगे। वे देखते हैं कि
इसकी पीठपर कौन है, किसका सहारा लेकर यह आया है। किसी महान् भक्तका सहारा लेकर आया
होगा तो उसकी मुरव्वतसे देना ही पड़ेगा। अतः अगले श्लोकमें श्रीहनुमान्जीकी वन्दना है जो कैसे बलवान्
रक्षक हैं यह श्लोक तथा काण्डभरसे स्पष्ट है। भगवान् जिनके वशमें हैं वही पीठपर हैं। इससे यह
जनाया कि श्रीरामभक्तिकी प्राप्तिके लिये इनकी कृपाका सम्पादन आवश्यक है।
टिप्पणी - ३ 'कामादिदोषरहितं कुरु' कहनेका भाव कि मेरे हृदयमें श्रीसीता - अनुजसहित धनुषबाण
धारण करके बसिये, इससे कामादि निकट न आ सकेंगे। यथा- 'तब लगि हृदय बसत खल नाना। लोभ
मोह मत्सर मद नाना ॥ जब लगि उर न बसत रघुनाथा धरे चाप सायक कटि भाथा ॥' (५॥ ४७) इसीसे
अत्रि, शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि महर्षियोंने माँगा है कि 'अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर
राम। मम हिय बसहुँ ।' (३। ११), हृदि बसि राम काम मद गंजय । (७ ३४)
नोट-१ यह श्लोक वसन्ततिलकावृत्तमें है। इस वृत्तके प्रत्येक चरण चौदह-चौदह अक्षरके होते हैं।
तगण, भगण, दो जगण और अन्तमें दो वर्ण गुरु रहते हैं। मानसभरमें केवल दो वृत्त ऐसे आये हैं।
एक बालकाण्ड मं० श्लोक ७ में और दूसरा यहाँ । (बा० मं० श्लोक ७ देखिये )
उस क्षण हम इच्छा की आध्यात्मिकता को रिकवर करते हैं। तब इच्छा एक प्रार्थना बन जाती है। तब हमारी इच्छा हमारे 'डीपेस्ट सेल्फ' तक की यात्रा पूरी कर लेती है। तब हम वहीं प्रभु की छवि पाते हैं : रघुपते हृदयेऽस्मदीये | शाङ्गधर संहिता (पूर्वखंड 5/49) के
अनुसार 'हृदयं चेतना- स्थानभोजसश्चाश्रयो मतं' कि हृदय
क्व में विषयदस्यव/क्व शास्त्रं क्वं च विज्ञानं यदा में चेतना का स्थान है और ओज का आधार स्थल है।
धीरे ये सारे प्रश्न भारी होते जाते हैं। चेतना कब तक
झेले इन सवालों का भार, इनका दंश । अपने अस्तित्व
के अंतर्विरोधों का बोझ ?


केवल हिन्दी के छंद


चंचला छंद विधान – (वर्णिक छंद परिभाषा) <– 

“राजराजराल” वर्ण षोडसी रखो सजाय।
‘चंचला’ सुछंद राच आप लें हमें लुभाय।।

“राजराजराल” = रगण जगण रगण जगण रगण लघु
21×8 = 16 वर्ण प्रत्येक चरण का वर्णिक छंद। 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।

छा गयी सुहावनी बसंत की छटा अपार।

झूम के बसंत की तरंग में खिली बहार।।

कूँज फूल से भरे तड़ाग में खिले सरोज।

पुष्प सेज को सजा किसे बुला रहा मनोज।।

चौपाई

चौपाई मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। 
उदाहरण -
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुराग॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥
कुण्डलिया
कुण्डलिया विषम मात्रिक छंद है। इसमें छः चरण होते हैं अौर प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। उदाहरण -

कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

गीतिका 

गीतिका (छंद) मात्रिक सम छंद है जिसमें २६ मात्राएँ होती हैं। १४ और १२ पर यति तथा अंत में लघु -गुरु आवश्यक है। इस छंद की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हों तथा अंत में रगण हो तो छंद निर्दोष व मधुर होता है। उदाहरण-

खोजते हैं साँवरे को,हर गली हर गाँव में।
आ मिलो अब श्याम प्यारे,आमली की छाँव में।।
आपकी मन मोहनी छवि,बाँसुरी की तान जो।
गोप ग्वालों के शरीरोंं,में बसी ज्यों जान वो।।
छप्पय
छप्पय मात्रिक विषम छन्द है। यह संयुक्त छन्द है, जो रोला (11+13) चार पद तथा उल्लाला (15+13) के दो पद के योग से बनता है।उदाहरण-

डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर।
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर।
दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर।
सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर।
चौंकि बिरंचि शंकर सहित,कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ।।
सवैया
सवैया चार चरणों का समपद वर्णछंद है। वर्णिक वृत्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहा जाता है।सवैये के मुख्य १४ प्रकार हैं:- १. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखी, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी। उदाहरण-

मानुस हौं तो वही रसखान,बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो,चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को,जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥
सेस गनेस महेस दिनेस,सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड,अछेद अभेद सुभेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे,पचिहारे तौं पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ,छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
कानन दै अँगुरी रहिहौं,जबही मुरली धुनि मंद बजैहैं।
माहिनि तानन सों रसखान,अटा चढ़ि गोधन गैहैं पै गैहैं॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि,काल्हि कोई कितनो समझैहैं।
माई री वा मुख की मुसकान,सम्हारि न जैहैं,न जैहैं,न जैहैं॥

कवित्त

कवित्त एक वार्णिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में १६, १५ के विराम से ३१ वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के अन्त में गुरू वर्ण होना चाहिये। छन्द की गति को ठीक रखने के लिये ८, ८, ८ और ७ वर्णों पर यति रहना चाहिये। इसके दो प्रकार हैं:- 1.मनहरण कवित्त और घनाक्षरी। घनाक्षरी छंद के दो भेद हैं:- 1.रूप घनाक्षरी, 2.देव घनाक्षरी। उदाहरण-

नाव अरि लाब नहि,उतरक दाब नहि,
एक बुद्धि आब नहि,सागर अपार में।
वीर अरि छोट नहि, संग एक गोट नहि,
लंका लघु कोट नहि, विदित संसार में।।

मधुमालती (छंद)

मधुमालती छंद में प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 212 वाचिक भार होता है, 5-12 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है।उदाहरण -

होंगे सफल,धीरज धरो ,
कुछ हम करें,कुछ तुम करो ।
संताप में , अब मत जलो ,
कुछ हम चलें , कुछ तुम चलो ।।
विजात
विजात छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 222 वाचिक भार होता है, 1,8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है। उदाहरण -

तुम्हारे नाम की माला,
तुम्हारे नाम की हाला ।
हुआ जीवन तुम्हारा है,
तुम्हारा ही सहारा है ।।

मनोरम

मनोरम छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं ,आदि में 2 और अंत में 211 या 122 होता है ,3-10 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है।उदाहरण-

उलझनें पूजालयों में ,
शांति है शौचालयों में।
शान्ति के इस धाम आयें,
उलझनों से मुक्ति पायें।।

पुष्पिताग्रा

एक अर्धसम वृत्त जिसके पहले और तीसरे चरण में दो नगण, एक रगण और एक यगण होता है तथा दूसरे और चौथे चरण में एक नगण दो जगण, एक रगण और गुरु होता है । जैसे -

प्रभु सम नहिं अन्य कोइ दाता।
सुधन जु ध्यावत तीन लोक त्राता।
सकल असत कामना बिहाई।
हरि नित सेवहु मित्त चित्त लाई।

शक्ति (छंद)

शक्ति छंद में 18 मात्राओं के चार चरण होते हैं, अंत में वाचिक भार 12 होता है तथा 1,6,11,16 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य होता है। उदाहरण -

चलाचल चलाचल अकेले निडर,
चलेंगे हजारों, चलेगा जिधर।
दया-प्रेम की ज्योति उर में जला,
टलेगी स्वयं पंथ की हर बेला ।।

पीयूष वर्ष

पीयूष वर्ष छंद में 10+9=19 मात्राओं के चार चरण होते हैं,अंत में 12 होता है तथा 3,10,17 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है। यदि यति अनिवार्य न हो और अंत में 2 = 11 की छूट हो तो यही छंद 'आनंदवर्धक' कहलाता है।

उदाहरण-

लोग कैसे , गन्दगी फैला रहे ,
नालियों में छोड़ जो मैला रहे।
नालियों पर शौच जिनके शिशु करें,
रोग से मारें सभी को खुद मरें।।

सुमेरु

सुमेरु छंद के प्रत्येक चरण में 12+7=19 अथवा 10+9=19 मात्राएँ होती हैं ; 12,7 अथवा 10,9 पर यति होतो है ; इसके आदि में लघु 1 आता है जबकि अंत में 221,212,121,222 वर्जित हैं तथा 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण-

लहै रवि लोक सोभा , यह सुमेरु ,
कहूँ अवतार पर , ग्रह केर फेरू।
सदा जम फंद सों , रही हौं अभीता ,
भजौ जो मीत हिय सों , राम सीता।।

सगुण (छंद)

सगुण छंद के प्रयेक चरण में 19 मात्राएँ होती हैं , आदि में 1 और अंत में 121 होता है,1,6,11, 16,19 वी मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -

सगुण पञ्च चारौ जुगन वन्दनीय ,
अहो मीत, प्यारे भजौ मातु सीय।
लहौ आदि माता चरण जो ललाम ,
सुखी हो मिलै अंत में राम धाम।।

शास्त्र (छंद)

शास्त्र छंद के प्रत्येक चरण में 20 मात्राएँ होती हैं ; अंत में 21 होता है तथा 1,8,15,20 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -

मुनीके लोक लहिये शास्त्र आनंद ,
सदा चित लाय भजिये नन्द के नन्द।
सुलभ है मार प्यारे ना लगै दाम ,
कहौ नित कृष्ण राधा और बलराम।।

सिन्धु (छंद)

सिन्धु छंद के प्रत्येक चरण में 21 मात्राएँ होती है और 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -

लखौ त्रय लोक महिमा सिन्धु की भारी ,
तऊ पुनि गर्व के कारण भयो खारी।
लहे प्रभुता सदा जो शील को धारै ,
दया हरि सों तरै कुल आपनो तारै।।

बिहारी (छंद)

बिहारी छंद के प्रत्येक चरण में 14+8=22 मात्राएँ होती हैं,14,8 मात्रा पर यति होती है तथा 5,6,11,12,17,18 वीं मात्रा लघु 1 होती है। उदाहरण -

लाचार बड़ा आज पड़ा हाथ बढ़ाओ ,
हे श्याम फँसी नाव इसे पार लगाओ।
कोई न पिता मात सखा बन्धु न वामा ,
हे श्याम दयाधाम खड़ा द्वार सुदामा।।

दिगपाल (छंद)

दिगपाल छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं ;12,24 मात्रा पर यति होती है,आदि में समकल होता है और 5,8,17,20 वीं मात्रा अनिवार्यतः लघु 1 होती है।इस छंद को मृदुगति भी कहते हैं।उदाहरण-

सविता विराज दोई , दिक्पाल छन्द सोई
सो बुद्धि मंत प्राणी, जो राम शरण होई।
रे मान बात मेरी, मायाहि त्यागि दीजै
सब काम छाँड़ि मीता, इक राम नाम लीजै।।

सारस (छंद)

सारस छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं , 12,12 मात्रा पर यति होती है ;आदि में विषम कल होता है और 3,4,9,10,15,16,21,22 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं।उदाहरण-

भानु कला राशि कला, गादि भला सारस है
राम भजत ताप भजत, शांत लहत मानस है।
शोक हरण पद्म चरण, होय शरण भक्ति सजौ
राम भजौ राम भजौ, राम भजौ राम भजौ।।

गीता (छंद)

गीता छंद के प्रत्येक चरण में 26 मात्राएँ होती हैं; 14,12 पर यति होती है , आदि में सम कल होता है ; अंत में 21 आता है और 5,12,19,26 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं।उदहारण -

कृष्णार्जुन गीता भुवन, रवि सम प्रकट सानंद l
जाके सुने नर पावहीं, संतत अमित आनंद l
दुहुं लोक में कल्याण कर, यह मेट भाव को शूल l
तातें कहौं प्यारे कवौं, उपदेश हरि ना भूल ll

शुद्ध गीता

शुद्ध गीता छंद के प्रत्येक चरण में 27 मात्राएँ होती हैं ; 14,13 मात्रा पर यति होती है . आदि में 21 होता है तथा 3,10,17,24,27 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -

मत्त चौदा और तेरा, शुद्ध गीता ग्वाल धार
ध्याय श्री राधा रमण को, जन्म अपनों ले सुधार।
पाय के नर देह प्यारे, व्यर्थ माया में न भूल
हो रहो शरणै हरी के, तौ मिटै भव जन्म शूल।।

विधाता (छंद)

विधाता छंद के प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती है ; 14,14 मात्रा पर यति होती है ; 1, 8, 15, 22 वीं मात्राएँ लघु 1 होती हैं। इसे शुद्धगा भी कहते हैं। उदाहरण -

ग़ज़ल हो या भजन कीर्तन,सभी में प्राण भर देता ,
अमर लय ताल से गुंजित,समूची सृष्टि कर देता।
भले हो छंद या सृष्टा,बड़ा प्यारा 'विधाता' है ,
सुहानी कल्पना जैसी,धरा सुन्दर सजाता है।।

हाकलि

हाकलि एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 14 मात्रा होती हैं , तीन चौकल के बाद एक द्विकल होता है। यदि तीन चौकल अनिवार्य न हों तो यही छंद 'मानव' कहलाता है। उदाहरण -

बने बहुत हैं पूजालय,
अब बनवाओ शौचालय।
घर की लाज बचाना है,
शौचालय बनवाना है।।

चौपई

चौपई एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रयेक चरण में 15 मात्रा होती हैं, अंत में SI अनिवार्य होता है, कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इस छंद को जयकरी भी कहते हैं। उदाहरण :

भोंपू लगा-लगा धनवान,
फोड़ रहे जनता के कान।
ध्वनि-ताण्डव का अत्याचार,
कैसा है यह धर्म-प्रचार।।

पदपादाकुलक

पदपादाकुलक एक सम मात्रिक छंद है। इसके एक चरण में 16 मात्रा होती हैं,आदि में द्विकल अनिवार्य होता है किन्तु त्रिकल वर्जित होता है, पहले द्विकल के बाद यदि त्रिकल आता है तो उसके बाद एक और त्रिकल आता है,कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकान्त होते है।उदाहरण :

कविता में हो यदि भाव नहीं,
पढने में आता चाव नहीं।
हो शिल्प भाव का सम्मेलन,
तब काव्य बनेगा मनभावन।।

श्रृंगार (छंद)

श्रृंगार एक सम मात्रिक छंद है। इनके प्रत्येक चरण में 16 मात्रा होती हैं, आदि में क्रमागत त्रिकल-द्विकल (3+2) और अंत में क्रमागत द्विकल-त्रिकल (2+3) आते हैं, कुल चार चरण होते हैं,क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

भागना लिख मनुजा के भाग्य,
भागना क्या होता वैराग्य।
दास तुलसी हों चाहे बुद्ध,
आचरण है यह न्याय विरुद्ध।।

राधिका (छंद)

राधिका एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 13,9 पर यति होती है, यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है, कुल चार चरण होते हैं , क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :

मन में रहता है काम , राम वाणी में,
है भारी मायाजाल, सभी प्राणी में।
लम्पट कपटी वाचाल, पा रहे आदर,
पुजता अधर्म है ओढ़, धर्म की चादर।।

कुण्डल/उड़ियाना (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 12,10 पर यति होती है , यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है औए अंत में 22 आता है। यदि अंत में एक ही गुरु 2 आता है तो उसे उड़ियाना छंद कहते हैं l कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।

कुण्डल का उदाहरण :

गहते जो अम्ब पाद, शब्द के पुजारी,
रचते हैं चारु छंद, रसमय सुखारी।।
देती है माँ प्रसाद, मुक्त हस्त ऐसा,
तुलसी रसखान सूर, पाये हैं जैसा।।
उड़ियाना का उदाहरण :

ठुमकि चालत रामचंद्र, बाजत पैंजनियाँ,
धाय मातु गोद लेत, दशरथ की रनियाँ।
तन-मन-धन वारि मंजु, बोलति बचनियाँ,
कमल बदन बोल मधुर, मंद सी’ हँसनियाँ।।

रूपमाला

रूपमाला एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 24 मात्राएं होती हैं एवं 14,10 पर यति होती है, आदि और अंत में वाचिक भार 21 होता है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों में तुकांत होता है। इसे मदन भी कहते हैं। उदाहरण :

देह दलदल में फँसे हैं, साधना के पाँव,
दूर काफी दूर लगता, साँवरे का गाँव।
क्या उबारेंगे कि जिनके, दलदली आधार,
इसलिए आओ चलें इस, धुंध के उसपार।।

मुक्तामणि

मुक्तामणि एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 25 मात्राएं होतीं हैं और 13,12 पर यति होती है। यति से पहले वाचिक भार 12 और चरणान्त में वाचिक भार 22 होता है। कुल चार चरण होते हैं; क्रमागत दो-दो चरण तुकांत। दोहे के क्रमागत दो चरणों के अंत में एक लघु बढ़ा देने से मुक्तामणि का एक चरण बनता है। उदाहरण :

विनयशील संवाद में, भीतर बड़ा घमण्डी,
आज आदमी हो गया, बहुत बड़ा पाखण्डी।
मेरा क्या सब आपका, बोले जैसे त्यागी,
जले ईर्ष्या द्वेष में, बने बड़ा बैरागी।।

गगनांगना छंद

गगनांगना एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 25 मात्राएं होती हैं और 16,9 पर यति होती है एवं चरणान्त में 212। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :

कब आओगी फिर, आँगन की, तुलसी बूझती
किस-किस को कैसे समझाऊँ, युक्ति न सूझती।
अम्बर की बाहों में बदरी, प्रिय तुम क्यों नहीं
भारी है जीवन की गठरी, प्रिय तुम क्यों नहीं।।

विष्णुपद

विष्णुपद एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है। अंत में वाचिक भार 2 होता है। इसमें कुल चार चरण होते हैं एवं क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

अपने से नीचे की सेवा, तीर-पड़ोस बुरा,
पत्नी क्रोधमुखी यों बोले, ज्यों हर शब्द छुरा।
बेटा फिरे निठल्लू बेटी, खोये लाज फिरे,
जले आग बिन वह घरवाला, घर पर गाज गिरे।।

शंकर (छंद)

शंकर एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है एवं चरणान्त में 21। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों पर तुकांत होता है।उदाहरण :

सुरभित फूलों से सम्मोहित, बावरे मत भूल
इन फूलों के बीच छिपे हैं, घाव करते शूल।
स्निग्ध छुअन या क्रूर चुभन हो, सभी से रख प्रीत
आँसू पीकर मुस्काता चल, यही जग की रीत।।

सरसी

सरसी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 27 मात्राएं होती हैं औथ 16,11 पर यति होती है, चरणान्त में 21 लगा अनिवार्य है। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इस छंद को कबीर या सुमंदर भी कहते हैं। चौपाई का कोई एक चरण और दोहा का सम चरण मिलाने से सरसी का एक चरण बन जाता है l उदाहरण :

पहले लय से गान हुआ फिर,बना गान ही छंद,
गति-यति-लय में छंद प्रवाहित,देता उर आनंद।
जिसके उर लय-ताल बसी हो,गाये भर-भरतान,
उसको कोई क्या समझाये,पिंगल छंद विधान।।

रास (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 22 मात्रा होती हैं एवं 8,8,6 पर यति होती है अंत में 112। चार चरण होते हैं एवं क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :

व्यस्त रहे जो, मस्त रहे वह, सत्य यही,
कुछ न करे जो, त्रस्त रहे वह, बात सही।
जो न समय का, मूल्य समझता, मूर्ख बड़ा,
सब जाते उस, पार मूर्ख इस, पार खड़ा।।

निश्चल (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 23 मात्रा होती हैं एवं 16,7 पर यति होती है और चरणान्त में 21। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

बीमारी में चाहे जितना, सह लो क्लेश,
पर रिश्ते-नाते में देना, मत सन्देश।
आकर बतियायें, इठलायें, निस्संकोच,
चैन लूट रोगी का, खायें, बोटी नोच।।

सार (छंद)

सार एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 28 मात्राएं होतीं हैं और 16,12 पर यति होती है। अंत में वाचिक भार 22 होता है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

कितना सुन्दर कितना भोला,था वह बचपन न्यारा
पल में हँसना पल में रोना,लगता कितना प्यारा।
अब जाने क्या हुआ हँसी के,भीतर रो लेते हैं
रोते-रोते भीतर-भीतर,बाहर हँस देते हैं।।

लावणी (छंद)

लावणी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 30 मात्राएं होतीं हैं और 16,14 पर यति होती है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इसके चरणान्त में वर्णिक भार 222 या गागागा अनिवार्य होने पर ताटंक , 22 या गागा होने पर कुकुभ और कोई ऐसा प्रतिबन्ध न होने पर यह लावणी छंद कहलाता है। उदाहरण :

तिनके-तिनके बीन-बीन जब,पर्ण कुटी बन पायेगी,
तो छल से कोई सूर्पणखा,आग लगाने आयेगी।
काम अनल चन्दन करने का,संयम बल रखना होगा,
सीता सी वामा चाहो तो,राम तुम्हें बनना होगा।।

वीर (छंद)

वीर एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 31 मात्राएं होतीं हैं और 16,15 पर यति होती है। चरणान्त में वाचिक भार 21 होता है। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों पर तुकांत होते हैं। इसे आल्हा भी कहते हैं। उदाहरण :

विनयशीलता बहुत दिखाते,लेकिन मन में भरा घमण्ड,
तनिक चोट जो लगे अहम् को,पल में हो जाते उद्दण्ड l
गुरुवर कहकर टाँग खींचते,देखे कितने ही वाचाल,
इसीलिये अब नया मंत्र यह,नेकी कर सीवर में डाल l

त्रिभंगी

त्रिभंगी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 32 मात्राएं होतीं हैं और 10,8,8,6 पर यति होती है एवं चरणान्त में 2 होता है। कुल चार चरण होते हैं और।क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। पहली तीन या दो यति पर आतंरिक तुकांत होने से छंद का लालित्य बढ़ जाता है। तुलसी दास ने पहली दो यति पर आतंरिक तुकान्त का अनिवार्यतः प्रयोग किया है। उदाहरण :

तम से उर डर-डर, खोज न दिनकर, खोज न चिर पथ, ओ राही,
रच दे नव दिनकर, नव किरणें भर, बना डगर नव, मन चाही l
सद्भाव भरा मन, ओज भरा तन, फिर काहे को, डरे भला,
चल-चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला l

कुण्डलिनी (छंद)
कुण्डलिनी एक विषम मात्रिक छंद है। दोहा और अर्ध रोला को मिलाने से कुण्डलिनी छंद बनता है जबकि दोहा के चतुर्थ चरण से अर्ध रोला का प्रारंभ होता हो (पुनरावृत्ति)। इस छंद में यथारुचि प्रारंभिक शब्द या शब्दों से छंद का समापन किया जा सकता है (पुनरागमन), किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। दोहा और रोला छंदों के लक्षण अलग से पूर्व वर्णित हैं l कुण्डलिनी छंद में कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।

कुण्डलिनी = दोहा + अर्धरोला
उदाहरण :

जननी जनने से हुई, माँ ममता से मान,
जननी को ही माँ समझ, भूल न कर नादान।
भूल न कर नादान, देख जननी की करनी,
करनी से माँ बने, नहीं तो जननी जननी।।

वियोगिनी
इसके सम चरण में 11-11 और विषम चरण में 10 वर्ण होते हैं। विषम चरणों में दो सगण , एक जगण , एक सगण और एक लघु व एक गुरु होते हैं। जैसे -

विधि ना कृपया प्रबोधिता,
सहसा मानिनि सुख से सदा
करती रहती सदैव ही
करुण की मद-मय साधना।।


 मत्तगयन्द (मालती)
इस छन्द के प्रत्येक चरण में सात भगण (ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।) और अन्त में दो गुरु (ऽ) के क्रम से 23 वर्ण होते हैं;

जैसे-
ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ऽ। ।ऽ।। ऽऽ
“सेस महेश गनेस सुरेश, दिनेसहु जाहि निरन्तर गावें।
नारद से सुक व्यास रटैं, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावें।।”
सुन्दरी सवैया
इस छन्द के प्रत्येक चरण में आठ सगण (।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ) और अन्त में एक गुरु (ऽ) मिलाकर 25 वर्ण होते हैं;

जैसे-
।। ऽ।। ऽ।। ऽ। ।ऽ।। ऽ। ।ऽ। ।ऽऽ
“पद कोमल स्यामल गौर कलेवर राजन कोटि मनोज लजाए।
कर वान सरासन सीस जटासरसीरुह लोचन सोन सहाए। को
जिन देखे रखी सतभायहु तै, तुलसी तिन तो मह फेरि न पाए।
यहि मारग आज किसोर वधू, वैसी समेत सुभाई सिधाए।।”

यह छन्द मात्रा की गणना पर आधृत रहता है, इसलिए इसका नामक मात्रिक छन्द है। जिन छन्दों में मात्राओं की समानता के नियम का पालन किया जाता है किन्तु वर्णों की समानता पर ध्यान नहीं दिया जाता, उन्हें मात्रिक छन्द कहा जाता है। मात्रिक छन्दों का विवेचन इस प्रकार है-

 

रोला (काव्यछन्द)

यह चरण वाला मात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं तथा । व 13 मात्राओं पर ‘यति’ होती है। इसके चारों चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु रहने पर, इसे काव्यछन्द भी कहते हैं;

जैसे-
ऽ ऽऽ ।। ।।। ।ऽ ऽ ।ऽ ।।। ऽ = 24 मात्राएँ
हे दबा यह नियम, सृष्टि में सदा अटल है।
रह सकता है वही, सुरक्षित जिसमें बल है।।
निर्बल का है नहीं, जगत् में कहीं ठिकाना।
रक्षा साधक उसे, प्राप्त हो चाहे नाना।।

हरिगीतिका
यह चार चरण वाला सममात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं, अन्त में लघु और गुरु होता है तथा 16 व 12 मात्राओं पर यति होती है;
जैसे-
।। ऽ। ऽ।। ।।। ऽ।। ।।। ऽ।। ऽ।ऽ = 28 मात्राएँ।
“मन जाहि राँचेउ मिलहि सोवर सहज सुन्दर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेह जानत राव।।
इहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहिं पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली।।”

अथवा

‘हरिगीतिका’ शब्द चार बार लिखने से उक्त छन्द का एक चरण बन जाता है;

जैसे-
।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ = 28 मात्राएँ
हरिगीतिका, हरिगीतिका, हरिगीतिका, हरिगीतिका

वीर (आल्हा)
वीर छन्द के प्रत्येक चरण में 16, ।ऽ पर यति देकर 31 मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में । गुरु-लघु होना आवश्यक है;

जैसे-
।। ।। ऽ ऽऽ। ।।। ।। ऽ। ।ऽ ऽ ऽ।। ऽ। = 31 मात्राएँ
“हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय-प्रवाह।।”


सोरठा

सोरठा
सोरठा अर्ध सम मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उल्टा होता है। इसके विषम चरणों(प्रथम और तृतीय ) में 11-11 मात्राएँ और सम (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना उत्तम माना जाता है।
सोरठा छंद के द्वितीय तथा चतुर्थ चरण के आरम्भ में जगण का आना अच्छा नहीं माना जाता है।
उदाहरण -
1-जो सुमिरत सिधि होय,
  गननायक करिबर बदन।
  करहु अनुग्रह सोय, 
  बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1।।
2-जानि गौरि अनुकूल, 
   सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
   मंजुल मंगल मूल,
    बाम अंग फरकन लगे॥2।।
।।।धन्यवाद।।।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

वंदना में समानता

 मानस चर्चा 
लंकाकांड की वंदना और सुंदरकांड की वंदना में समानता :
लंकाकांड की वंदना आप सब जानते ही हैं: जो यो है:
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वंदे कंदावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥ 1॥
यहाँ के 'योगीन्द्रम् १, अजितम् २,
निर्विकारम् ३, भवभयहरणम् ४, कामारिसेव्यम् ५, ज्ञानगम्यम् ६, निर्गुणम् ७, रामम् ८, ईशम् ९, सुरेशम् १०,माया (तीतम्) ११, ब्रह्मवृन्दैकदेवम् १२, कन्दावदातम् १३, खलवधनिरतं रामम् १४, उर्वीशरूपम् १५ और वन्दे
१६ की जगह यहाँ
सुंदरकांड की वंदना है
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।
जिसमे शान्तम् १, शाश्वतम् २, अनघम् ३, निर्वाणशान्तिप्रदम् ४, ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यम् ५, वेदान्तवेद्यम् ६, विभुम् ७, रामाख्यम् ८, जगदीश्वरम् ९, सुरगुरुम् १०, मायामनुष्यम् ११, हरिम् १२, करुणाकरम् १३ रघुवरम्१४भूपालचूड़ामणीं१५ और वंदे१६ शब्द हैं।।
इस मिलानसे प्रभु श्री राम के विशेषणोंके भाव स्पष्ट हो जाते है।





रविवार, 21 अप्रैल 2024

।।प्रतिवस्तूपमा अलंकार(Typical Comparison)।।

प्रतिवस्तूपमा अलंकार-(TypicalComparison)
    प्रतिवस्तूपमा का शाब्दिक अर्थ है-प्रतिवस्तु अर्थात् प्रत्येक वस्तु में उपमा (सादृश्य या समानता)का होना।इस अलंकार में दो वाक्य रहते हैं, एक उपमेय वाक्य तथा दूसरा उपमान वाक्य। इन दोनों वाक्यों में साधारण धर्म एक ही होता है, परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है । 
परिभाषा:-
जहाँ उपमेय और उपमान के पृथक-पृथक वाक्यों में एक ही समानधर्म दो भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा जाय, वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है।
जैसे:- 
(अ)सिंहसुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी ? 
     क्या परनर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी ?

       यहाँ दोनों वाक्यों में पूर्वार्द्ध (उपमानवाक्य) का धर्म 'प्यार करना' उत्तरार्द्ध (उपमेय-वाक्य) में 'हाथ धरना' के रूप में कथित है।वस्तुतः दोनों का अर्थ एक ही है।
एक ही समानधर्म सिर्फ शब्दभेद से दो बार कहा गया है। अतः यहाँँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार है।

(आ)चटक न छाँड़त घटत हू, सज्जन नेह गँभीर ।

      फीको परे न बरु फटे, रंग्यो चोल रंग चीर ।

यहाँ ‘चटक न छाँडत’ तथा ‘फीको परै न ‘ में केवल शब्दों का ही अन्तर है, दोनों के अर्थ में समानता है । अत: यहाँ भी प्रतिवस्तूपमा है ।

    यह साधर्म्य, वैधर्म्यं और माला इन तीन रूपों में पाया जाता है।इन तीनों को हम उदाहरणों के माध्यम से समझते हैं। 

1-साधर्म्य प्रतिवस्तूपमा अलंकार

 (एक धर्मता या समानधर्मता बताने वाला)

जैसे :-(अ)सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।

        पारस परस कुधातु सुहाई।।

(आ) अरुनोदय सकुचे कुमुद 

       उडगन ज्योति मलीन।

       तिमि तुम्हार आगमन सुनि

       भये नृपति बलहीन।।

2-वैधर्म्यं प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(असमानता भिन्नता - गुण, धर्म या कर्तव्य की भिन्नता वैपरीत्य, विपरीतता विषमता, अन्तर बताने वाला) जैसे:-

सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपु।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहि प्रतापु।।

3-माला प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(एक तरह की चीजों का निरन्तर चलता रहने वाला क्रम)

सरुज सरीर बादि बहु भोगा।

बिनु हरि भगति जाइ जप जोगा।।

जाय जीव बिनु देह सुहाई।

बादि मोर बिनु सब रघुराई।।

काकु (वह विचित्र या परिवर्तित ध्वनि जो आश्चर्य, कष्ट, क्रोध, भय आदि के कारण मुँह से निकलती है। ऐसी बात जो अप्रत्यक्ष रूप से किसी का मन दुखाती हो को काकु  कथन माना जाता है।)द्वारा एक धर्म-सम्बंध वर्णन के कारण चौथा भेद भी माना  गया है-

4-काकु प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(अ)प्रिय लागिहि अति सबहि मम

      भनिति राम जस संग।

     दारु बिचारु कि करइ कोउ

     बंदिअ मलय प्रसंग


(आ)तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा।

       चोरहिं चाँदनि रात न भावा।।

यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न' शब्दों से और उपमान वाक्य में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है।

इस अलंकार के अन्य उदाहरण भी देखें _

1. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.

  हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.

2. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना तजे कलंक.

3. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.

त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..

4. तेज चाल थी चोर की गति न पुलिस की तेज


सोमवार, 15 अप्रैल 2024

।। विनोक्ति अलंकार।।

।।विनोक्ति अलंकार।।
परिभाषा:
जहाँ कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु के बिना
शोभा प्राप्त न होते हुए दिखाई जाय वहाँ 
विनोक्ति अलंकार होता है।

व्याख्या:

जहाँ पर उपमेय अर्थात् प्रस्तुत को किसी
अन्य वस्तु के बिना हीन अर्थात् अशोभन
या रम्य अर्थात् शोभन कहा जाता है वहाँ 
विनोक्ति अलंकार होता है।

दूसरे शब्दों में उपमेय अर्थात् प्रस्तुत को
शोभनीय या अशोभनीय बताने के लिए
जहाँ काव्य में बिना,विना, बिन,बिनु,विनु
ऋते,रीते, रिते ,रहित आदि शब्दों का 
प्रयोग होता है वहाँ विनोक्ति अलंकार 
होता है।अनेक विद्वानों ने शोभनीय के 
आधार पर शोभन विनोक्ति और 
अशोभनीय  के आधार पर अशोभन 
विनोक्ति नाम के  दो भेद भी बताया हैं।
जो शब्दों पर ध्यान देने मात्र से ही
आसानी से पहचाने जाते  हैं।

उदाहरण:-

1.जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु 
  चंद बिनु    जिमि       जामिनी।
  तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिन
  समुझि धौं जियँ         भामिनी।

2-राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा।
  हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
  बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ।
  श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥


3-जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।
 तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥


4-लसत न पिय अनुराग बिन
    तिय के सरस सिंगार।

5-भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ।
  राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
  बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। 
  सोह न बसन बिना बर नारी॥2॥


धन्यवाद

रविवार, 14 अप्रैल 2024

।।उदाहरण अलंकार ।।

।।उदाहरण अलंकार ।।
व्याख्या :
जहाँ दो वाक्यों का साधारण धर्म भिन्न
हो पर उसमें वाचक शब्द के द्वारा
समता बताया जाए वहाँ उदाहरण 
अलंकार होता है। 
विशेष ध्यान रखने योग्य बात है कि
 उदाहरण अलंकार में 
उपमेय वाक्य देने के बाद: जैसे,जैसी,तैसे,तैसी,जिमि,तिमि,
यथा,जथा,जस, तस आदि वाचक
 शब्दों का प्रयोग होता है और ये
 उदाहरण अलंकार की पहचान भी हैं।

परिभाषा:

जहाँ किसी बात के समर्थन में उदाहरण
किसी वाचक शब्द के साथ दिया जाय,
वहाँ उदाहरण अलंकार होता है।
उदाहरण:-

1-वे रहीम नर धन्य है, 
पर उपकारी अंग।
बाँटन वारे को लगे, 
ज्यों मेंहदी को रंग ।

2-जपत एक हरि-नाम के, 
पातक कोटि बिलाहिं।
ज्यों चिनगारी एक तें, 
घास-ढेर जरि जाहिं।।

3-जो पावै अति उच्च पद, 
ताको पतन निदान।
ज्यों तपि-तपि मध्याह्न लौं, 
असत होत है भान।।

4-एक दोष गुन-पुंज में,
 तौ बिलीन ह्वै जात।
  जैसे चन्द-मयूख में,
 अंक कलंक बिलात।।

5-हरित-भूमि तृन-संकुल, 
समुझि परहि नहिं पंथ।
जिमि पाखंड-बिबाद तें,
लुप्त होहिं सद्ग्रन्थ।।

6-नयना देय बताय सब,
 हिय को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, 
भली बुरी कही देत।।

7-निकी पै फिकी लगै,
 बिनु अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में,
 रस सिंगार न सुहात।।

8-बसै बुराई जासु तन,
ताही को सन्मान।
भलौ-भलौ को छाङियौ,
खोटे ग्रह जप दान।।

9-मन मलीन, तन सुंदर कैसे।
 विष रस भरा कनक-घट जैसे।।

10-उदित कुमुदिनी नाथ
     हुए प्राची में ऐसे
     सुधा-कलश
    रत्नाकर से उठता हो जैसे।

11-बूंद आघात सहै गिरी कैसे ।
  खल के वचन संत सह जैसे ।।

 12- छुद्र नदी भरि चलि उतराई।
       जस थोरेहुँ धन खल बौराई।

13- ससि सम्पन्न सोह महि कैसी ।
     उपकारी कै संपति जैसी ।।

14-कामिहि नारि पियारी जिमि
   लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
   तिमि रघुनाथ निरन्तर 
   प्रिय लागहु मोहि राम।।

।।।। धन्यवाद। ।।।।   

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

।।स्रग्धरा छन्द हिन्दी एवं संस्कृत में।

।।स्रग्धरा छन्द।।
छन्द का नामकरण
स्रग्धरा का अर्थ माला को धारण करने वाली है। इस छन्द में कवि अपनी बात को 'स्रक्' अर्थात् 'माला' रुप में विस्तार के साथ कहता है। यह एक ऐसा विशिष्ट छन्द है, जिसके इक्कीस अक्षरों का विभाजन यति की दृष्टि से
सात-सात अक्षरों में बराबर किया गया है और इस तरह सात-सात अक्षरों की समानाकार वाली तीन मालाएँ बन जाती है।
छन्द का लक्षण— 
गंगादास छन्दोमंजरी में स्रग्धरा का लक्षण देते हुए कहा है कि- 
'म्रभ्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम्' 
छन्द सूत्र में स्रग्धरा का लक्षण देते हुए कहा है कि-
"स्रग्धरा म्-रौभ् -नौ यौ य् त्रिः सप्तकाः।" 
लक्षणों की व्याख्या-
जिस छंद के प्रत्येक  चरणों में मगण रगण भगण नगण यगण यगण यगण के क्रम में वर्ण हो और "त्रिमुनियतियुता"मुनियों के क्रम से तीन बार यति हो उसे  स्रग्धरा छंद के नाम से जाना जाता है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार सप्तर्षि की उत्पत्ति इस सृष्टि पर संतुलन बनाने के लिए हुई। उनका काम धर्म और मर्यादा की रक्षा करना और संसार के सभी कामों को सुचारू रूप से होने देना है। सप्तर्षि अपनी तपस्या से संसार में सुख और शांति कायम करते हैं।सप्त ऋषियों के नाम हैं- कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज।इन सात ऋषियों को सप्तर्षि कहा जाता है। इस प्रकार यह छंद एक बहुत ही मर्यादित छंद है जिसके द्वारा मर्यादापूर्ण बातों की अभिव्यक्ति की जाती है।त्रिः सप्तकाः का भी यही अर्थ है की सात-सात वर्णों पर हर चरण में तीन-तीन बार यति होता है।प्रत्येक चरणों में इक्कीस वर्णों वाला यह एकल छंद है।यह अति छंद परिवार का प्रकृति छंद है।सच बात तो यह है कि जो अर्थ मालिनी और स्रग्विणी का है, वही अर्थ स्रग्धरा का भी है। केवल प्रकृति और प्रत्यय का अन्तर है। स्रग्धरा में दो शब्द है 'स्रक' एवं 'धरा' जिसमें स्रक का अर्थ है 'माला' और धरा का अर्थ है 'धारण करने वाली' । स्रग्धरा छन्द में जब कवि को ढेर सारा अभिप्राय या बहुत लम्बे वृतांत का वर्णन करना होता है या प्रभुत अर्थ को परस्पर समेटना होता है तब वह प्रायः इस छन्द का प्रयोग होता है।दीर्घ छन्दों में ओजभाव को प्रकाशित करने वाला छन्द स्रग्धरा है। 
परिभाषा :- 
जिस छंद के प्रत्येक चरणों में मगण रगण भगण नगण यगण यगण यगण के क्रम में अर्थात् S S S, S I S, S I I, I I I, I S S, I S S, I S S  के क्रम में वर्ण हो और सात-सात वर्णों पर हर चरण में तीन-तीन बार यति हो उसे स्रग्धरा छंद कहते है।
छन्द का उदाहरण-1-
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहतिविधिहुतं या हविर्या च होत्री,
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S   I S S  I S S
येद्वेकालंविधत्तः श्रुतिविषयगुणा यास्थिताव्याप्य विश्वम्।
S S S   S I S   S I I   I I I  I S S  I S S   I S S
यामाहुः सर्वबीज - प्रकृतिरितियया प्राणिनः प्राणवन्तः,
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः।।
उदाहरण-2-
S S S S I S S I I I I I I S S I S S I S S
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् ।
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
 मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
 वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥
उदाहरण-3-
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्‌।
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्‌॥
हिन्दी:- 

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण, परिभाषा एवम् विवरण संस्कृत की तरह ही है।
उदाहरण :-
काशी के आप वासी, शुभ यह नगरी, मोक्ष की है प्रदायी।
दैत्यों के नाशकारी, त्रिपुर वध किये, घोर जो आततायी।।
देवों की पीड़ हारी, भयद गरल को, कंठ में आप धारे।
देवों के देव हो के, परम पद गहा, सृष्टि में नाथ न्यारे।।
।।धन्यवाद।।


रविवार, 24 मार्च 2024

।।शार्दूलविक्रीडितम् छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

    ।।शार्दूलविक्रीडितम् छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

      यह उन्नीस वर्णों वाला समवृत्त वर्णिक छंद है। यह वृत्त/छंद अति छंद परिवार का अतिधृति छंद है।काव्य में शार्दूलविक्रीडित अत्यन्त प्रसिद्ध छन्द हैं। संस्कृत जगत में इस छन्द में अगणित श्लोक है।समवृत्त होने के कारण चारों चरण समान लक्षण युक्त हैं। इसके प्रत्येक चरण में 19 तथा चारों चरणों में कुल 76 वर्ण होते हैं। 
लक्षण - 
सूर्याश्वैर्यदि मः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम्।
 या
सूर्याश्वैर्मसजस्तता: सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम् ।”
व्याख्या:
             शार्दूलविक्रीडित में शार्दूल का अर्थ बब्बर शेर
और विक्रीडित का अर्थ उसकी क्रीड़ा अर्थात् उछल कूद। शायद इस छंद में वर्णों की उछल कूद को देखकर ही
हमारे आचार्यों ने इसका नाम 'शार्दूलविक्रीडित' रखा है।
इस छन्द में जो इस प्रकार का भाव व्यक्त किया गया है वही बात उसके लक्षण में 'व्यक्त होता है - सूर्याश्वैर्यदि मः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम्' अब प्रश्न उठता
कि इसका गायन करते समय आपकी साँस कहाँ-कहाँ विश्राम लेगी तो इसका उत्तर छन्द के लक्षण 'सूर्याश्वैर्यदि शब्द में प्राप्त होता है। जिसमें सूर्य और अश्व इन दो
शब्दों से जो सांकेतिक संख्या है उन संख्या वाले अक्षर पर साँस विराम लेगी। 
  अब सूर्य कहते है आदित्य को, हमारे पुराणों में जिनकी संख्या 12 बताई गयी है।धार्मिक और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी अदिति से उत्पन्न हुवे इसलिए आदित्य कहलाए जिनके नाम हैं : विवस्वान्, अर्यमान, पूषा, त्वष्टा, सविता, भाग,धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम अर्थात् भगवान वामन।इन्हीं के आधार पर
वर्ष के 12 मास नियत हैं ।इस प्रकार 'शार्दूलविक्रीडित छन्द में प्रथम विराम/यति प्रत्येक चरण के 12वें वर्णों पर होगी।
     अब दूसरा विश्राम 'अश्व' संख्या पर होगी।
 ऋग्वेद में कहा गया है- ‘सप्तयुज्जंति रथमेकचक्रमेको अश्वोवहति सप्तनामा’ यानी सूर्य एक ही चक्र वाले रथ पर सवार होते हैं, जिसे 7 नामों वाले घोड़े खींचते हैं. सूर्य के रथ में जुते हुए घोड़ों के नाम हैं- ‘गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति।ये 7 नाम 7 प्रकार के वैदिक छंदों के भी हैं।
इसलिए इस छन्द में द्वितीय विराम/ यति सातवें अक्षरअर्थात् प्रत्येक चरण के अंतिम वर्ण 12+7=19वें वर्णों पर होगी ।
परिभाषा:
     जिस श्लोक/पद्य के प्रत्येक चरणों में मगण, सगण, जगण, सगण, तगण , तगण और एक गुरु के क्रम में वर्ण हो और बारह एवं सात वर्णों पर यति हो उसमें। शार्दूलविक्रीडितम् छंद होता है।
उदाहरण:
  SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
1:याकुन्देन्दुतुषार हार धवला या शुभ्रवस्त्रवृता,
 SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
यावीणा वरदण्डमण्डितकरा याश्वेतपद्मासना।
 SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
याब्रह्माच्युतशंकरप्रभृति भिर्देवैः सदा वदिन्ता,
SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
सामांपातुसरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥

2: खर्व स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरम् , प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्ध मधुप व्यालोल गण्डस्थलंम् । दंताघात विदारि तारि रूधिरैः सिन्दूरशोभाकरम् ,
वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम् ।।

3:यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके,
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा,
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शंकरः पातु माम्‌॥

4:ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमल प्रध्वंसनं चाव्ययं
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।
संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्‌॥

5: पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञान भक्तिप्रदं, 
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरशुभम् । 
श्रीमदामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये,
ते संसार पतङ्ग घोर किरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥

6:यास्यत्यद्य शंकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया, 
कण्ठः स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलषश्चिन्ताजडं दर्शनम् 
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्यौकसः, 
पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनयाविश्लेषदुःखैर्नवैः॥
    उक्त सभी श्लोकों में प्रथम श्लोक की भांति ही उनके सभी चरणों में क्रमशः मगण, सगण, जगण, पुन: सगण, उसके बाद दो तगण तथा अन्त में एक गुरू वर्ण हैं और 12वें एवं 7वें वर्णों के बाद यति हैं। अतः सभी 
शार्दूलाविक्रीडित छन्द के श्लोक हैं। 

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं परिभाषा 
संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण=

माँ विद्या वर दायिनी भगवती, तू बुद्धि का दान दे |

माँ अज्ञान मिटा हरो तिमिर को, दो ज्ञान हे शारदे ||

हे माँ पुस्तक धारिणी जगत में, विज्ञान विस्तार दे |

वाग्देवी नव छंद हो रस पगा, ऐसी नयी ताल दे ||
।।धन्यवाद।।

शनिवार, 23 मार्च 2024

।।मन्दाक्रांता छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

मन्दाक्रांता छंद
            संस्कृत में मन्दाक्रांता का अर्थ है
"धीमे कदम रखना" या "धीरे-धीरे आगे बढ़ना"।
ऐसा माना जाता है कि इसका प्रयोग 
महाकविकालिदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ
मेघदूत में सर्वप्रथम किया था।मंदाक्रांता 
छंद अत्यष्टि वर्ग में आता है।
लक्षणः- 
मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ गयुग्यम्।।
व्याख्या :- 
       जिस वृत्त/छंद के प्रत्येक चरण में क्रमशः 
मगण भगण  नगण तगण तगण  और दो गुरु
के क्रम में  वर्ण हो और  लक्षण में प्रयुक्त
अंबुधिरसनगैः  के अनुसार अंबुधि: से  चार
महासागर  ऐतिहासिक रूप से नामित  हैं: 
अटलांटिक, प्रशांत, भारतीय और आर्कटिक।
(हालाँकि, अधिकांश देश - जिनमें संयुक्त
राज्य अमेरिका भी शामिल है - अब दक्षिणी 
अंटार्कटिक को पांचवें महासागर के रूप में
मान्यता देते हैं।)
    रस से छः दैनिक जीवन के रस नामित हैं :
मधुर (मीठा),अम्ल (खट्टा),लवण (नमकीन),
कटु (चरपरा) ,तिक्त (कड़वा या नीम जैसा) 
और कषाय (कसैला)। 
     नगैः से सात भारतीय  प्रसिद्ध पर्वत हैं: 
हिमालय ,अरावली, विन्ध्याचल, रैवतक ,
महेन्द्र, मलय और सहयाद्रि
       इस प्रकार अंबुधि, रस और नग के क्रम में 
प्रत्येक चरण में क्रमशः चार,छः और सात वर्णों 
पर यति होती है। यह समवृत्त  छंद है इसके 
प्रत्येक चरण में 17 वर्ण पूरे छंद में कुल 
68 वर्ण होते है। इस प्रकार इस छंद की 
परिभाषा बन रही है।
परिभाषा:
    जिस वृत्त/छंद के प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण भगण नगण तगण तगण और दो गुरु के क्रम में
वर्ण हो और प्रत्येक चरण में चार छः और सात 
वर्णों पर यति हो उसे मंदाक्रांता छंद कहते हैं।
          अब हम उदाहरणों को व्याख्या सहित 
देखेगें लेकिन उससे पहले हमें हमेशा याद रखना
 है कि इस नियम/श्लोक के अनुसार अन्तिम वर्ण 
लघु होते हुवे भी छंद की आवश्यकता के अनुसार विकल्प से हमेशा गुरू माना जाता है।
वह नियम विधायक श्लोक है..

सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा ॥

उदाहरण:
मगण भगण नगण तगण तगण दो गुरु
SSS  SII    I I I   SSI   SSI  S S
1.शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
   विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् ।
   लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
   वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥

दूसरे उदाहरण के रुप में मेघदूतम का पहला श्लोक देखते है:

    S S S   S I I  I I I  S S I  S S I  S S
2.कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्त:,
शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः ।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ॥
 
   दोनों उदाहरणों में इनके प्रथम चरण के अनुसार 
ही क्रमशः मगण भगण नगण तगण तगण और 
दो गुरु के क्रम में वर्ण  हैं तथा प्रत्येक चरण में 
क्रमशः चार छः और सात वर्णों पर यति  भी है
 अतः मंदाक्रांता छंद  है।
      जरा दूसरे उदाहरण में ध्यान दे कि इसके
तीसरे और चौथे चरण का अंतिम वर्ण लघु हैं 
लेकिन "सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च  तथा पादान्तगोऽपि वा ॥"
के अनुसार वे गुरु माने जायेगें इस बात का
 हमेशा ध्यान रखना है।

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं परिभाषा 
संस्कृत की तरह ही हैं। आइए एक विद्वान की
हिंदी में  बताए  इस लक्षण को भी देख लेते हैं 
जिनका अर्थ पूर्व बताए गए व्याख्या और 
परिभाषा की तरह ही है।
हिन्दी में लक्षण:
“माभानाता,तगग” रच के, चार छै सात तोड़ें।
‘मंदाक्रान्ता’, चतुष पद की, छंद यूँ आप जोड़ें।।
उदाहरण:
1.लक्ष्मी माता, जगत जननी, शुभ्र रूपा शुभांगी।
विष्णो भार्या, कमल नयनी, आप हो कोमलांगी।।
देवी दिव्या, जलधि प्रगटी, द्रव्य ऐश्वर्य दाता।
देवों को भी, कनक धन की, दायिनी आप माता।।
 
 2.“तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम लाली।
पंछी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में।”
।।धन्यवाद।।

रविवार, 10 मार्च 2024

।।शिखरिणी छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

शिखरिणी 
       यह सत्रह अक्षरों/वर्णों  का  समवृत्त
 जाति का अत्यष्टि छंद है। 
लक्षण - 
रसैः रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलागः शिखरिणी। 
व्याख्या:
        शिखरिणी छंद भारत के सौंदर्य,संस्कृति,
भूमि, गौरव और धीर-गम्भीर भावों को  को 
व्यक्त करने वाला विशेष छंद है। इसमें चार 
चरण होते हैं।प्रत्येक चरणों में यगण, मगण, 
नगण, सगण, भगण और लघु एवं गुरु के क्रम
में सत्रह-सत्रह अक्षर होते हैं। 
     अब प्रश्न उठता है श्वास का विराम/यति 
कहाँ करें ? तो इसके उत्तर में आचार्य ने कहा
है कि- रसै: रुद्रैश्छिन्ना अर्थात् रस एवं रुद्र की
संख्या पर श्वास का विराम अर्थात् यति होगा।
    प्रथम यति रसै: पर अर्थात् यहाँ पर रस का
प्रयोग पाकशाला में प्रयुक्त रसों तिक्त, कषाय, 
लवण, मधुर, अम्ल एवं कटु ये छः रस हैं।इस
 प्रकार छः वर्णों पर प्रथम यति होगा ।
     द्वितीय यति अर्थात् विराम 'रुद्र' अर्थात् रुद्र 
भगवान शंकर के  स्वरूप के  जो नाम है वे 11 
हैं जो शिवपुराण के अनुसार निम्नलिखित हैं..
कपाली,पिंगल,भीम,विरूपाक्ष,विलोहित,शास्ता,
अजपाद,अहिर्बुध्न्य,शम्भु,चण्ड और भव।
इस प्रकार द्वितीय यति प्रत्येक पाद/चरण के
अन्त में17वें अक्षर पर होगा।
     इसका तात्पर्य यह है कि शिखरिणी छन्द के 
प्रत्येक चरण के प्रथम छठें अक्षर के बाद
श्वास रुकती है और द्वितीय 11 अक्षर के बाद 
अर्थात् चरण के अन्त में श्वास रुकती है।
इस प्रकार कुल मिलाकर शिखरिणी छन्द के में 
कुल 17×4=68 वर्ण होते हैं।
परिभाषा=
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में एक यगण 
(।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ), एक नगण (।।।), 
एक सगण (।।ऽ), एक भगण (ऽ।।), एक
 लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ)  के क्रम में वर्ण
हो तथा छठे और ग्यारहवें वर्णों पर यति हो
तो  शिखरिणी छंद कहते हैं।
उदाहरण -  
   । ऽ ऽ   ऽ ऽ ऽ  ।।।  । । ऽ     ऽ । ।     । ऽ
1."न मन्त्रं नो यन्त्रं, तदपि च न जाने स्तुतिमहो,
  न चाह्वानं ध्यानं, तदपि च न जाने स्तुतिकथा ।
  न जाने मुद्रास्ते, तदपि च न जाने विलपनं,
  परं जाने मात, स्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ।।”
     उक्त  श्लोक के प्रत्येक चरण में प्रथम चरण
की ही तरह एक यगण (।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ),
एक नगण (।।।), एक सगण (।।ऽ), एक भगण
(ऽ।।), एक लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ) के क्रम में
वर्ण हैं तथा छठे और ग्यारहवें वर्णों के बाद यति
 है इसलिए इसमें शिखरिणी छंद है।
हिन्दी:
     हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं 
परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।
उदाहरण:
    यहाँ एक अति सुंदर भारत वंदन 
का उदाहरण है:
 । ऽ ऽ    ऽ ऽ ऽ   ।।।  । । ऽ  ऽ । ।  । ऽ
बड़ा ही प्यारा है, जगत भर में भारत मुझे।
सदा शोभा गाऊँ, पर हृदय की प्यास न बुझे।।
तुम्हारे गीतों को, मधुर सुर में गा मन भरूँ।
नवा माथा मेरा, चरण-रज माथे पर धरूँ।।1।।
यहाँ गंगा गर्जे, हिमगिरि उठा मस्तक रखे।
अयोध्या काशी सी, वरद धरणी का रस चखे।।
यहाँ के जैसे हैं, सरित झरने कानन कहाँ।
बिताएँ सारे ही, सुखमय सदा जीवन यहाँ।।2।।
   उक्त पद्य  के प्रत्येक चरण में प्रथम चरण
की ही तरह एक यगण (।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ),
एक नगण (।।।), एक सगण (।।ऽ), एक भगण
(ऽ।।), एक लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ) के क्रम में
वर्ण हैं तथा छठे और ग्यारहवें वर्णों के बाद यति
 है इसलिए इसमें शिखरिणी छंद है।

।। धन्यवाद।।

।। पञ्चचामर छंद हिन्दी और संस्कृत में।।

पञ्चचामर छंद 

अन्य नाम: नराच, नागराज 
पञ्चचामर एक सोलह अक्षरी छंद है।
इसमें 8/8 या 4/4 वर्णों पर यति
होती है।यह प्रमाणिका का दोगुना
होता है,जैसा कि कहा भी गया है...

प्रमाणिका- पदद्वयं वदन्ति पंचचामरम्'।
 
लक्षण:
जरौजरौततौजगौचपंचचामरंवदेत_।
परिभाषा=
जब किसी श्लोक या पद्य के प्रत्येक 
चरण में जगण(ISI), रगण(SIS), 
जगण(ISI), रगण(SIS), जगण(ISI)
और गुरु(S) के क्रम में 16×4=64,
वर्ण हों तब पञ्चचामर छंद होता है।
इस प्रकार हम पाते है कि इस छंद
के प्रत्येक चरणों में लघु गुरू लघु 
गुरू के क्रम में 16×4=64 वर्ण होते हैं।

उदाहरण:

रावण कृत शिवतांडव स्त्रोत्र इसका
सर्व श्रेष्ठ उदाहरण है।
आइए इसका प्रथम श्लोक देखते हैं..

I S I S I S I S I   S I S I S I  S
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले,
I S   I S  I S I  S I  S I S I S I S
गलेऽवलम्ब्यलम्बितांभुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
I S I S I S I S I S I S I S I S
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
I  S I S I  S  I S I S I S I S I S
चकारचण्डताण्डवंतनोतुनःशिवःशिवम्॥

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के
लक्षण एवं परिभाषा संस्कृत 
की तरह ही हैं।
उदाहरण=

 1.जु रोज रोज गोप तीय कृष्ण संग धावतीं। 

  सु गीति नाथ पाँव सों लगाय चित्त गावतीं।।

  कवौं खवाय दूध औ दही हरी रिझावतीं। 

 सुधन्य छाँड़ि लाज पंच चामरै डुलावतीं।। ' 
 

2.तजो न लाज शर्म ही, न माँगना दहेज़ रे,

करो सुकर्म धर्म ही, भविष्य लो सहेज रे। 

सुनो न बोल-बात ही, मिटे अँधेर रात भी,

करो न द्वेष घात ही, उगे नया प्रभात भी।।

   ।। धन्यवाद ।।




शनिवार, 9 मार्च 2024

।।प्रमाणिका छंद ।।

प्रमाणिका  छंद 
साधारण वार्णिक छंद का यह प्रथम 
भेद है। इसका अन्य नाम: प्रमाणी, 
निगालिका और नागस्वरूपिणी है। 
प्रमाणिका एक अष्टाक्षरी छंद है।
इसके बारे में कहा भी गया है..

अष्टाक्षरी प्रमाणिका,
छंद अकेला भाय।
गेय छंद यही अद्भुत,
लघु गुरु बना सुहाय।।

लक्षण=
ज़रा लगा प्रमाणिका। 
       या
प्रमाणिका जरौ लगौ।
व्याख्या..
जरा या जरौ का अर्थ है जगण और रगण 
अर्थात् I S I तथा  S I S और लगा या लगौ 
का अर्थ है लघु गुरू I S इस प्रकार प्रमाणिका 
छंद में I S I S I S I S के क्रम में प्रत्येक 
चरणों में 8-8 वर्ण होते हैं।

परिभाषा=

जब श्लोक या पद्य के प्रत्येक चरणों में जगण
रगण लघु गुरू के क्रम में 8×4=32 वर्ण हो
तब प्रमाणिका छंद होता है।
उदाहरण :
I S I   S I S I   S  I S I   S I S I   S
नमामि भक्तवत्सलं, कृपालुशीलकोमलम्।
I  S I   S  I S I  S     I S I S    I S I S
भजामि ते पदाम्बुजं, अकामिनां स्वधामदम्॥

यहाँ हम देखते हैं कि 
I S I S I S I S के  क्रम में प्रत्येक चरणों
में 8-8 वर्ण हैं। अतः यहाँ प्रमाणिका छंद है।

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं परिभाषा 
संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण=
   I S I   S I S I   S  I S I   S I S I   S
1.सही-सही उषा रहे , सही-सही दिशा रहे ।
   I S I   S I S I   S  I S I   S I S I   S
 नयी-नयी हवा बहे,  भली-भली कथा कहे।। 

2.जगो उठो चलो बढ़ो, सभी यहीं मिलो खिलो। 
 न गाँव को कभी तजो,  न देव गैर का भजो ।।

छायावादी कवि जय शंकर प्रसाद जी की
यह रचना प्रमाणिका छंद का अद्भुत उदाहरण है ..

3.हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
 स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती॥
 अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है,  बढ़े चलो बढ़े चलो॥
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ,विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के,रुको न शूर साहसी॥
अराति सैन्य सिन्धु में, सुबाड़वाग्नि से जलो।
प्रवीर हो जयी बनो, बढ़े चलो बढ़े चलो॥
      ।।धन्यवाद।।

।।वसन्ततिलका छंद हिन्दी एवं संस्कृत में।।




 वसन्ततिलका

   काव्य जगत में वसन्ततिलका वृत्त
बहुत ही प्रसिद्ध है प्रायः सभी कवि इस 
वृत्त से काव्य रचने की इच्छा करते हैं
क्योंकि यह सुनने में अत्यंत मधुर है 
जिससे काव्य सौन्दर्य बढ़ता है।
वसन्ततिलका के बहुत से नामान्तर
विद्यमान है जैसा कि इस कारिका से
प्राप्त होता है-

सिंहोन्नतेयमुदिता मुनि काश्यपेन । 
उद्धर्षिणीति गदिता मुनि सैतवेन ।
रामेण सेयमुदिता मधुमाधवीति।
 
अर्थात् वसन्ततिलका का काश्यप के 
मत में सिंहोन्नता नाम है, सैवत के मत
में उद्धर्षिणी नाम और राम के मत
में माधवी नाम है।यह शक्वरी परिवार
का छंद है।वसन्ततिलका छन्द को
प्रायः दो नामों से स्मरण किया जाता है। 
कुछ लोग इसे वसन्ततिलकम् तो कुछ
लोग इसे वसन्ततिलका कहते है।
दोनों ही नाम छन्द शास्त्र में प्रचलित है। 
केवल अन्तर इतना है कि वसन्ततिलकम् 
नंपुसकलिंग में है तथा वसन्ततिलका
स्त्रीलिंग में प्रयुक्त शब्द होता है । 

इस छन्द का विशेष परिचय देने के
लिये एक छोटी सी ऐतिहासिक कहानी
बताता हूँ।
 
ग्यारहवीं शताब्दी के इतिहास में
मालवा के नरेश, भोज देवजी थे।
वे बहुत बड़े पंडित एवं विद्वान थे।
उन्होंने 84 ग्रन्थों की रचना किया था। 
उन्होंने एक नियम बना दिया था कि
हमारी राजधानी धारा नगरी में कोई
भी मूर्ख व्यक्ति न रहें। जो भी निवास 
करें वह पंडित विद्वान या कवि हो ।
संयोग वश एक दिन उनके सिपाहियों
ने एक जुलाहे को पकड़ कर उनके
समक्ष लाया और बोले कि:
हे राजन! यह कुछ भी नहीं जानता है 
अर्थात् मूर्ख है इसलिए इसके दण्ड की
व्यवस्था की जाय । किन्तु राजा ने सोचा
कि बिना परीक्षा किये दण्ड की व्यवस्था 
नहीं करनी चाहिए। इसलिए उसने जुलाहे
से पूछा- हे जुलाहे ! जो सिपाही कह रहे हैं
वह ठीक है ?
तो जुलाहे ने काव्य में उत्तर
देते हुए कहा-

  S S I  S I I   I S I I S I S S
"काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि
यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि।
भूपाल - मौलि-मणि- रंजित- पादपीठ:
हे साहसांक ! कवयामि वयामि यामि ।।"

इस प्रकार इन पक्तियों में 
वसन्ततिलका छंद का प्रयोग इतने
सुन्दर शब्दों के संयोजन के साथ
किया गया था। जिसको सुनकर
सभी दंग रह गये और राजा उसकी
शब्दयोजना को सुनकर इतना 
प्रसन्न हो गये कि उसको नगर में
रहने की सुन्दरतम् व्यवस्था करते
हुए पुरस्कृत किया ।

लक्षण- 
"उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः।
  या
ज्ञेया वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ।
अर्थात्..
जानो वसन्ततिलका तभजा जगागा।
इस प्रकार इस छंद की 
परिभाषा:
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमश:
तगण, भगण, जगण,जगण एवं दो गुरु 
वर्ण के क्रम में 14 वर्ण हों, 
वह वसन्ततिलका छन्द कहलाता है। 

अब हम उदाहरणों को व्याख्या
सहित देखेगें:
लेकिन उससे पहले
हमें हमेशा याद रखना है कि इस
नियम के अनुसार  किसी भी छंद
के किसी भी चरण का अन्तिम
वर्ण लघु होते हुवे भी छंद की 
आवश्यकता के अनुसार विकल्प से 
हमेशा गुरु माना जाता है। इसलिए
किसी भी छंद के किसी भी चरण
का अंतिम वर्ण  यदि नियमानुसार 
गुरु होना चाहिए और संयोग से वह
लघु है तो इस नियम  के अनुसार वह
गुरु ही माना जायेगा।
वह नियम विधायक श्लोक है...

सानुस्वारश्च दीर्घश्च 
विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च 
तथा पादान्तगोऽपि वा ॥

उदाहरण - 
    S S I S I I I S I I S I S S
1.लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तं
   रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम् ।
   उद्यद्दिवाकरकरोज्ज्वलकायकान्तं
   विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि ।।

2.पापान्निवारयति योजयते हिताय 
  गुह्यान् निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति। 
  आपद्गतं च न जहाति ददाति काले 
  सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः॥ 

3.फुल्लं वसन्त तिलकं तिलकं वनाल्याः,
  लीलापरं पिककुलं कलमत्र, रौति।
  वात्येष पुष्पसुरभिर्मलायाद्रि वातो,
  याताहरिः समधुरां विधिना हताः स्मः ।।

4.नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये 
  सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
  भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे 
  कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ 

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण
एवं परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण:⁠

1-भू में रमी शरद की कमनीयता थी ।
 ⁠नीला अनन्त - नभ निर्मल हो गया था ।
 ⁠थी छा गई ककुभ मे अमिता सिताभा ।
 ⁠उत्फुल्ल सी प्रकृति, थी प्रतिभात होती ॥

2-प्राणी समस्त सम हैं, यह भाव राखूँ।
   ऐसे विचार रख के, रस दिव्य चाखूँ।।
   हे नाथ! पूर्ण करना, मन-कामना को।
   मेरी सदैव रखना, दृढ भावना को।।
 ।। धन्यवाद ।।

।।मालिनी छंद संस्कृत एवं हिन्दी में।।

मालिनी

   मालिनी शब्द का अर्थ माला धारण करने वाली
रमणी है।यह वृत्त अर्थात् छंद "अतिशक्वती" 
परिवार का भाग है।
लक्षण-
“ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोंकैः ।
व्याख्याः-
        ननमयययुतेयं अर्थात् यह छंद दो नगण, 
एक भगण,दो यगण से युक्त होता है। दूसरे शब्दों
में जिस श्लोक/पद्य के प्रत्येक चरण में क्रमश: 
नगण, नगण, मगण,यगण एवं यगण के क्रम में
वर्ण हो उस श्लोक/ पद्य में मालिनी छंद होता है।
             अब प्रश्न उठता है कि विराम कब तो 
उत्तर है 'भोगिलोकैः' अर्थात् भोगि और लोकै: 
के बाद।
अब समझते है भोगि और लोकै: को।
        भोगि  शब्द बना है भोग से,भोग कहते है 
साँप की कुण्डली को और भोग से युक्त होने के 
कारण साँप का एक नाम है ‘भोगि'।इस प्रकार 
भोगि शब्द का अर्थ सर्प या नाग होता है। हमारे 
धर्मग्रंथों के आधार पर संस्कृत साहित्य में सर्पोंं 
अर्थात् नागों की संख्या 8  बतायी गई है जो
 निम्न हैं: 
अनंत(शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म,शंख और कुलिक अतः स्पष्ट है पहला
विराम भोगि अर्थात् आठवें अक्षर के बाद आयेगा।
          इसके पश्चात् दूसरा विराम लोकै:अर्थात् 
लोक के पश्चात् आयेगा विष्णु पुराण के अनुसार
अतल, वितल, सुतल, रसातल,तलातल, महातल 
और पाताल नाम के 7 लोक हैं।अतः स्पष्ट है कि 
दूसरा विराम सातवें अक्षर के बाद होगा।
         इस प्रकार इस वृत/ छंद  में आठवें एवं 
सातवें अक्षर के बाद यति होती है।यह समवृत्त 
है अत: चारों चरणों में समान लक्षण होते हैं। 
प्रत्येक चरण में 15 अक्षर होते हैं अतः चारों 
चरणों में 60 अक्षर हुवे।
परिभाषा:
         जिस  समवृत्त छंद के प्रत्येक चरणों में 
क्रमश: नगण, नगण, मगण,यगण एवं यगण के 
क्रम में वर्ण हो तथा आठवें एवं सातवें अक्षर के 
बाद यति हो उसे मालिनी छंद कहते हैं।
उदाहरण. 
इस प्रसिद्ध श्री हनुमान वंदना को आप
उदाहरण के रूप में जरूर देखें, समझें 
और याद करें...
  I I I  I I I  S S S  I S S  I S S
  अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
  I I I   I I I  S S S  I S S  I S S
  दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
  I I I  I I I  S S S  I S S  I S S
  सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
  I I I  I I I  S S S  I S S  I S ( I/S)
  रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।
        यहाँ नमामि में मि को देखें यह स्पष्ट 
लघु दिख रहा है लेकिन:
 सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा ॥
के पादान्तगोऽपि वा के अनुसार किसी भी छंद 
के किसी भी चरण का अन्तिम वर्ण लघु होते
हुवे भी छंद की आवश्यकता के अनुसार विकल्प 
से हमेशा गुरू माना लिया जाता है। 
    अतः यहाँ मि गुरु वर्ण माना जा रहा है और
 इस श्लोक के प्रत्येक चरण में प्रथम चरण के
 अनुसार ही क्रमश: नगण, नगण, मगण, यगण 
एवं यगण के क्रम में वर्ण विधान है तथा इसमें 
प्रथम यति आठ पर और द्वितीय यति सात 
वर्णों पर हैं अतः यहाँ मालिनी छन्द है। 

हिन्दी...

हिन्दी में भी मालिनी छंद के लक्षण
एवं परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण-
 I I I    I I I    S S S   I S S   I S S
प्रिय-पति वह मेरा , प्राणप्यारा कहाँ है।
दुख-जलधि निमग्ना ,का सहारा कहाँ है।
अब तक जिसको मैं, देख के जी सकी हूँ।
वह हृदय हमारा ,नेत्र-तारा कहाँ है॥
      इस पद्य के प्रत्येक चरण में प्रथम चरण के
अनुसार ही क्रमश: नगण, नगण, मगण, यगण 
एवं यगण के क्रम में वर्ण विधान है तथा इसमें 
प्रथम यति आठ पर और द्वितीय यति सात 
वर्णों पर हैं अतः यहाँ मालिनी छन्द है। 
।। धन्यवाद।।

रविवार, 11 फ़रवरी 2024

।।तालाब के पर्यायवाची शब्द।।

।।तालाब के पर्यायवाची शब्द।।
दो दोहों में बाईस पर्यायवाची शब्द:
तालाब तलैया ताल,वापिका वापी सर।
सरसी पोखरा पोखर,जलयोजन सरोवर।।1।।
तड़ाग गड़ही जलाशय,बावड़ी पद्माकर।
मानसरोवर जलवान,हृद जोहड़ दह पुकर (पुष्कर)।।2।। 

।।आम के पर्यायवाची शब्द।।

 ।।आम के पर्यायवाची शब्द।।
 एक दोहे में बारह पर्यायवाची शब्द:
आम्र आंबा अतिसौरभ,अंब आम अमृतफल।
पिकबंधु कैरी सौरभ, च्युत(च्यूत)सहकार रसाल।।

✓।।घोड़ा के पर्यायवाची शब्द।।

।।घोड़ा के पर्यायवाची शब्द।।
दो दोहों में तेरह पर्यायवाची शब्द:
आशुविमानक तुरग हय, गति से देते खेत।
रविसुत तुरंगम तुरंग, सवार सदा सचेत।।1।।
घोटक घोड़ा बाजि (वाजि)हरि ,रखते शक्ति अनूप।
रविपुत्र सैंधव अश्व च, दिखते बहु स्वरूप।।2।

शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

।।तोटक छंद हिन्दी और संस्कृत में।।

।।तोटक छंद हिन्दी और संस्कृत में।।
तोटक को त्रोटक भी कहा जाता है।
यह जगती परिवार का प्रत्येक चरण
में 12 वर्ण × 4 चरण अर्थात् =
48 वर्णों का समवर्ण वृत्त छंद है।
यह "जगतीजातीय" परिवार का छंद
 है।इस छंद को बहुत धीमी गति
अर्थात् मन्द गति से पढ़ा जाता है। 
यह प्रमुख गयात्मक छन्द है
जो मुख्य रूप से नीति, भक्ति एवं
आदर्श पूरक रचनाओं
के लिये प्रयुक्त किया जाता है।

लक्षण:-

गंगादास छन्दोमंजरी में इस वृत्त
का लक्षण इस प्रकार दिया गया
है –   
वद तोटकमब्धिसकारयुतम्।
और वृत्तरत्नाकर में तोटक छन्द का
लक्षण इस प्रकार से प्राप्त होता है -

"इह तोटकमम्बुधिसैः प्रथितम् ।
अर्थात् सनातन धर्म की मान्यता के
अनुसार चार अंबुधि हैं।तोटकमम्बुधिसैः
का अर्थ हो रहा है तोटक चार सगण से
उक्त छंद है।
परिभाषा:
जिस छन्द के चारों चरणों में
चार-चार सगण हों उसे तोटक
छन्द कहते हैं । 
उदाहरण –
 I I S   I I S   I I S।   I I S
1-शशिना च निशा निशया च शशी,
  शशिना निशया च विभाति नभः।
    पयसा कमलं कमलेन पयः ,
   पयसा कमलेन विभाति सरः ॥

2-=मणिना वलयं वलयेन मणिर् ,
  मणिना वलयेन विभाति करः ।
   कविना च विभुर्विभुना च कविः, 
   कविना विभुना च विभाति सभा ॥

3-रवि रुद्र पितामह विष्णुनुतं,
  हरि चन्दन कुंकुम पंकयुतम्।
  मुनि वृन्द गणेन्द्र समानयुतम्,
  तव नौमि सरस्वती पादयुगम् ।।

4-कर कंकण केश जटा मुकुटम्,
  मणि माणिक मौक्तिक आभरणम्।
  गज नील गजेन्द्र गणादि पथिम्,
  मम तुष्ट विनायक हस्त मुखम् ॥

5-त्यज-तोटकमर्थं नियोगकरं,
  प्रमदादिकृतं व्यसनोपहतं।
  उपधाभिर्शुद्धमतिं सचिवं,
 नरनायक-भीरुकमायुदिकम् ॥

6-जय राम सदा सुख धाम हरे। 
  रघुनायक सायक चाप धरे।।
  भव बारन दारन सिंह प्रभो।
  गुन सागर नागर नाथ बिभो।।

7-अधरं मधुरं वदनं मधुरं
  नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
  हृदयं मधुरं गमनं मधुरं
  मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।

उक्त सभी उदाहरणों के प्रत्येक
पक्तियों में प्रथम पक्ति की ही
तरह चार सगण अर्थात्
 I I S I I S I I S I I S 
के क्रम वर्ण हैं अर्थात् तोटक छंद है।

हिन्दी:- 
हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण, 
परिभाषा एवम् विवरण संस्कृत की
तरह ही है।जैसे:

जब द्वादशवर्ण समासस हो।
तब तोटक पावन छन्दस हो।।

समासस का अर्थ चार सगण-
।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ । । ऽ । । ऽ अर्थात् 
जब किसी भी पद्य के चारों चरणों में
चार सगण-।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ । । ऽ । । ऽ  
के क्रम में वर्ण हों तो उस पद्य में
तोटक छंद होता है।
उदाहरण:
कलियुग का यह यथार्थ चित्रण 
तोटक का अद्भुत उदाहरण है:
1-बहु दाम सँवारहिं धाम जती। 
  बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती।।
  तपसी धनवंत दरिद्र गृही।
  कलि कौतुक तात न जात कही।।
  कुलवंति निकारहिं नारि सती। 
  गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती।।
  सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। 
  अबलानन दीख नहीं जब लौं।।
  ससुरारि पिआरि लगी जब तें।
  रिपरूप कुटुंब भए तब तें।।
  नृप पाप परायन धर्म नहीं।
  करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं।।
  धनवंत कुलीन मलीन अपी।
  द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।।
  नहिं मान पुरान न बेदहि जो।
  हरि सेवक संत सही कलि सो।।
  कबि बृंद उदार दुनी न सुनी।
 गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी।।
  कलि बारहिं बार दुकाल परै।
 बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।।
     
2-हनुमान करें हरि से विनती।
  सिय राम जपूँ बिन ही गिनती।
  प्रभु और न चाह रहे मन में।
  दिन रात रमूँ बस कीर्तन में।
उक्त सभी उदाहरणों के प्रत्येक 
पक्तियों में प्रथम पक्ति की ही 
तरह चार सगण अर्थात्
 I I S I I S I I S I I S 
के क्रम वर्ण हैं अर्थात् तोटक छंद है।
।।धन्यवाद।।


    


मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

।। द्रुतविलंबित छंद हिन्दी और संस्कृत में।।

।।द्रुतविलंबितछंद हिन्दी-संस्कृत में।।

यह जगती परिवार का प्रत्येक चरण
में 12 वर्ण × 4 चरण अर्थात् = 48 
वर्णों का समवर्ण वृत्त छंद है। 
इस परिवार को "जगतीजातीय"भी
कहते हैं। इस छंद को सुन्दरी तथा
हरिणीप्लुता के नाम से भी जाना 
जाता है। इस छन्द का प्रारम्भ तेज
गति से और अन्त विलम्ब से अर्थात् 
आराम से होता है। इसलिए इसे
द्रुतविलंबित छंद कहते हैं।

लक्षण:-

द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ 

परिभाषा :-

जिस छन्द के प्रत्येक चरण में एक
नगण (।।।), दो भगण (ऽ।।, ऽ।।)
और एक रगण (ऽ।ऽ) के क्रम में 
12-12 वर्ण होते हैं उसे
द्रुत विलम्बित छंद कहते हैं।

उदाहरण :-

 I I I   S I I  S I I S I S
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा 
 I I I    S I I  S I I    S I S
सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
 I I I    S I I  S I I    S I S
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ 
 I I I    S I I  S I I  S I S
प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्।

    उपर्युक्त छन्द के प्रत्येक पक्ति
में प्रथम पक्ति की तरह ही सभी
पक्तियों में नगण,भगण,
भगण और रगण के क्रम में 
12 -12 वर्णो के बाद यति है। 
अतः द्रुतविलंबित छंद है ।

हिन्दी में भी लक्षण और 
परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।

लेकिन कुछ विद्वानों ने इसका
लक्षण हिन्दी में इस प्रकार किया है।

(1) द्रुतविलम्बित सोह न भा भ रा
               या
(2)नभभरा” इन द्वादश वर्ण में।
   ‘द्रुतविलम्बित’ दे धुन कर्ण में।।

उदाहरण :-

    I I I   S I I   S I I  S I S
   दिवस का अवसान समीप था
   I I I    S I I    S I I   S I S    
   गगन था कुछ लोहित हो चला
    I I I  S I I    S I I।    S I S
   तरु शिखा पर थी अब राजती
     I I I  S I I    S I I     S I S
   कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा

        उपर्युक्त छन्द की प्रत्येक 
पक्तियों में नगण , भगण , भगण 
और रगण के क्रम में 12 -12
वर्णो के बाद यति है। इसलिए
यहाँ द्रुतविलम्बित छन्द है।
     ।।धन्यवाद।।

रविवार, 28 जनवरी 2024

।।सरस्वती स्तोत्र।।


।।सरस्वती स्तोत्र Saraswati Stotra 1।।
रविरुद्रपितामहविष्णुनुतं हरिचन्दनकुङ्कुमपङ्कयुतम्।
मुनिवृन्दगजेन्द्रसमानयुतं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥१॥
शशिशुद्धसुधाहिमधामयुतं शरदम्बरबिम्बसमानकरम् ।
बहुरत्नमनोहरकान्तियुतं तव नौमि सरस्वति पादयुगम् ॥२॥

कनकाब्जविभूषितभूतिभवं भवभावविभाषितभिन्नपदम्।
प्रभुचित्तसमाहितसाधुपदं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥३॥
भवसागरमज्जनभीतिनुतं प्रतिपादितसन्ततिकारमिदम्।
विमलादिकशुद्धविशुद्धपदं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥४॥
मतिहीनजनाश्रयपादमिदं सकलागमभाषितभिन्नपदम्।
परिपूरितविश्वमनेकभवं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥५॥
परिपूर्णमनोरथधामनिधिं परमार्थविचारविवेकविधिम्।
_|||
सुरयोषितसेवितपादतलं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥६॥

सुरमौलिमणिद्युतिशुभ्रकरं विषयादिमहाभयवर्णहरम्।
निजकान्तिविलोपितचन्द्रशिवं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥७॥
गुणनैककुलं स्थितिभीतपदं गुणगौरवगर्वितसत्यपदम्।
कमलोदरकोमलपादतलं तव नौमि सरस्वति पादयुगम् ॥८॥"
।।सरस्वती स्तोत्र Saraswati Stotra 2।।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला
या शुभ्रवस्त्रान्विता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा
या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युतशंकर
प्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती
 नि:शेषजाड्यापहा ।।1।।
आशासु राशीभवदंगवल्ली
भासैव दासीकृतदुग्धसिन्धुम ।
मन्दस्मितैर्निन्दितशारदेन्दुं
वन्देsरविन्दासनसुन्दरि त्वाम ।।2।।
शारदा शारदाम्भोज
वदना वदनाम्बुजे ।
सर्वदा सर्वदास्माकं
सन्निधिं सन्निधिं क्रियात ।।3।।
सरस्वतीं च तां नौमि
वागधिष्ठातृदेवताम ।
देवत्वं प्रतिपद्यन्ते
यदनुग्रहतो जना: ।।4।।
पातु नो निकषग्रावा
मतिहेम्न: सरस्वती ।
प्राज्ञेतरपरिच्छेदं
वचसैव करोति या ।।5।।
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमा
माद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां 
जाड्यान्धकारापहाम ।
हस्ते स्फाटिकमालिकां
च दधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं
 बुद्धिप्रदां शारदाम ।।6।।
वीणाधरे विपुलमंगलदानशीले, 
भक्तार्तिनाशिनि विरिंचिहरीशवन्द्ये ।
कीर्तिप्रदेsखिलमनोरथदे महार्हे, 
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम ।।7।।
श्वेताब्जपूर्णविमलासनसंस्थिते हे, श्वेताम्बरावृतमनोहरमंजुगात्रे ।
उद्यन्मनोज्ञसितपंकजमंजुलास्ये,
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम ।।8।।
मातस्त्वदीयपदपंकजभक्तियुक्ता,
ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय ।
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण, भूवह्निवायुगगनाम्बुविनिर्मितेन ।।9।।
मोहान्धकारभरिते ह्रदये मदीये,
मात: सदैव कुरु वासमुदारभावे ।
स्वीयाखिलावयवनिर्मलसुप्रभाभि:, 
शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम ।।10।।
ब्रह्मा जगत सृजति पालयतीन्दिरेश:, 
शम्भुर्विनाशयति देवि तव प्रभावै: ।
न स्यात्कृपा यदि तव प्रकटप्रभावे,
न स्यु: कथंचिदपि ते निजकार्यदक्षा: ।।11।।
लक्ष्मीर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी
तुष्टि: प्रभा धृति: ।
एताभि: पाहि तनुभिरष्टा
भिर्मां सरस्वति ।।12।।
सरस्वत्यै नमो नित्यं 
भद्रकाल्यै नमो नम: ।
वेदवेदान्तवेदांग
विद्यास्थानेभ्य: एव च ।।13।।
सरस्वति महाभागे 
विद्ये कमललोचने ।
विद्यारुपे विशालाक्षि
 विद्यां देहि नमोsस्तु ते ।।14।।
यदक्षरं पदं भ्रष्टं 
मात्राहीनं च यद्भवेत ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि
 प्रसीद परमेश्वरि ।।15।।