मानस चर्चा "नारद जानेउ नाम प्रतापू"
नारद जानेउ नाम प्रतापू।जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू।
अर्थात् - श्रीनारदजीने नामका प्रताप जाना। जगन्मात्रको हरि प्रिय हैं, हरिको हर प्रिय हैं और हरि तथा
हर दोनोंको नारदजी प्रिय हैं ॥
'नारद जानेउ नाम प्रतापू' कैसे ? इसी ग्रन्थमें इसका एक उत्तर मिलता है। नारदको दक्षका शाप था कि वे किसी एक स्थानपर थोड़ी देरसे अधिक न ठहर सकें। यथा- 'तस्माल्लोकेषु ते मूढ न भवेद् भ्रमतः पदम्।' अर्थात् सम्पूर्ण लोकोंमें विचरते हुए तेरे ठहरनेका कोई निश्चित स्थान न होगा। परन्तु हिमाचलकी एक परम पवित्र गुफा जहाँ गंगाजी बह रही थीं, देखकर ये वहाँ बैठकर भगवन्नामका स्मरण ज्यों ही करने लगे, त्यों ही शापकी गति रुक गयी, समाधि लग गयी । यथा -
'सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी ।
सहज बिमल मन लागि समाधी ॥'
इन्द्रने डरकर इनकी समाधिमें विघ्न डालनेके लिये कामको भेजा। उसने जाकर अनेक प्रपंच किये, पर
'काम कला कछु मुनिहि न व्यापी ।'
नारदके मनमें न तो काम ही उत्पन्न हुआ और
न उसकी करतूतिपर उनको क्रोध हुआ। यह सब नाम स्मरणका प्रभाव था, जैसा कहा है-
'सीम कि चापि सकै कोउ तासू।
बड़ रखवार रमापति जासू ॥ '
परन्तु उस समय दैवयोगसे वे भूल गये कि यह स्मरणका प्रभाव एवं प्रताप है। उनके चित्तमें अहंकार आ गया कि शंकरजीने तो कामहीको जीता था और मैंने तो काम और क्रोध दोनोंको जीता है। उसका फल जो हुआ
उसकी कथा विस्तारसे ग्रन्थकारने आगे दी ही है। भगवान्ने अपनी मायासे उनके लिये लीला रची जिसमें उनको काम, लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार सभीने अपने वश कर लिया । माया हटा लेनेपर प्रभुके चरणोंपर त्राहि-त्राहि करते हुए गिरनेपर प्रभुकी कृपासे इनकी बुद्धि ठीक हुई और इन्होंने
जाना कि यह सब नामस्मरणका ही प्रताप था इसीसे अवतार होनेपर उन्होंने यह वर माँग लिया कि 'रामनाम सब नामोंसे श्रेष्ठ हो', श्रीरामनामके वे आचार्य और ऋषि हुए। गणेशजी, प्रह्लादजी, व्यासजी आदिको नामका प्रताप आपने ही तो बताया है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें