रविवार, 23 जून 2024

मानस चर्चा "त्रिपुरारी"

मानस चर्चा "त्रिपुरारी"
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।चले भवन सँग दच्छकुमारी।
महादेव त्रिपुरारी क्यों कहलाते है।जानते है इन कथाओं के माध्यम से--
 शिवजी त्रिपुरारी हैं। उन्होंने त्रिपुरके मारनेमें बड़ी
सावधानतासे काम लिया था। इसी तरह वे लक्ष्यपर सदा सावधान रहते हैं।  ।
त्रिपुरासुर
श्रीमद भागवत महापुराण में कथा मिलती है कि एक बार जब देवताओंने असुरोंको जीत लिया तब वे महामायावी शक्तिमान् मयदानवकी शरणमें गये। मयने अपनी अचिन्त्य शक्तिसे तीन पुररूपी विमान लोहे, चाँदी और सोनेके ऐसे
बनाये कि जो तीन पुरोंके समान बड़े-बड़े और अपरिमित सामग्रियोंसे भरे हुए थे। इन विमानोंका आना-जाना
नहीं जाना जाता था। यथा -
 'स निर्माय पुरस्तिस्त्रो हैमीरौप्यायसीर्विभुः । दुर्लक्ष्यापायसंयोगा दुर्वितर्क्यपरिच्छदाः ॥'
 महाभारतसे पता चलता है कि ये तीनों पुर (जो विमानके आकारके थे) तारकासुरके तारकाक्ष, कमलाक्ष
और विद्युन्माली नामक तीनों पुत्रोंने मयदानवसे अपने लिये बनवाये थे । इनमेंसे एक नगर ( विमान) सोनेका
स्वर्गमें, दूसरा चाँदीका अन्तरिक्षमें और तीसरा लोहेका मर्त्यलोकमें था । ऋग्वेदके कौषीतमें और ऐतरेय ब्राह्मणोंमें त्रिकका वर्णन है। यथा -
 ' ( असुराः) हरिणीं ( पुरं) हादो दिविचक्रिरे। रजतां अन्तरिक्षलोके अयस्मयीमस्मिन् अकुर्वत् ॥' अर्थात् असुरोंने हिरण्मयी पुरीको स्वर्गमें बनाया, रजतमयीको अन्तरिक्षमेंऔर अयस्मयीको इस पृथ्वीलोकमें । तीनों पुरोंमें एक-एक अमृतकुण्ड बनाया गया था। इन विमानोंको लेकर वे असुर तीनों लोकोंमें उड़ा करते थे । अब देवताओंसे अपना पुराना वैर स्मरणकर मयदानवद्वारा शक्तिमान् होकर तीनों विमानोंद्वारा दैत्य उनमें छिपे रहकर तीनों लोकों और लोकपतियोंका नाश करने लगे। जब असुरोंका अत्याचार बहुत बढ़ गया तब सब देवता शंकरजीकी शरण गये और कहा कि
 ' त्राहि नस्तावकान्देव विनष्टांस्त्रिपुरालयैः । ' 
 ये त्रिपुरानिवासी असुरगण हमें नष्ट किये डालते हैं। हे प्रभो! हम आपके हैं, आप हमारी रक्षा करें। शंकरजीने
पाशुपतास्त्रसे अभिमन्त्रित एक ऐसा बाण तीनों पुरोंपर छोड़ा कि जिससे सहस्रशः बाण और अग्निकी लपटें
निकलती जाती थीं। उस बाणसे समस्त विमानवासी निष्प्राण हो गिर गये। महामायावी मयने सबको उठाकर
अपने बनाये हुए अमृतकुण्डमें डाल दिया जिससे उस सिद्ध अमृतका स्पर्श होते ही वे सब फिर वज्रसमान
पुष्ट हो एक साथ खड़े हो गये। जब-जब शंकरजी त्रिपुरके असुरोंको बाणसे निष्प्राण करते थे, तब-तब मयदानव
सबको इसी प्रकार जिला लेता था। शंकरजी उदास हो गये, तब उन्होंने भगवान्‌का स्मरण किया । उनको भग्न
संकल्प और खिन्नचित्त देख भगवान्ने यह युक्ति की कि स्वयं गौ बन गये और ब्रह्माको बछड़ा बनाकर
बछड़ेसहित तीनों पुरोंमें जा सिद्धरसके तीनों कूपोंका सारा जल पी गये। दैत्यगण खड़े देखते रह गये। वे सब
ऐसे मोहित हो गये थे कि रोक न सके। तत्पश्चात् भगवान्ने युद्धकी सामग्री तैयार की। धर्मसे रथ, ज्ञानसे
सारथी, वैराग्यसे ध्वजा, ऐश्वर्यसे घोड़े, तपस्यासे धनुष, विद्यासे कवच, क्रियासे बाण और अपनी अन्यान्य
शक्तियोंसे अन्यान्य वस्तुओंका निर्माण किया । इन सामग्रियोंसे सुसज्जित हो शंकरजी रथपर चढ़े और अभिजित् मुहूर्तमें उन्होंने एक ही बाणसे उन तीनों दुर्भेद्य पुरोंको भस्म कर दिया ।
दूसरा आख्यान भी मिलता है जो यो  है- 
त्रिपुरोंकी उत्पत्ति और नाशका एक आख्यान महर्षि मार्कण्डेयने किसी समय धृतराष्ट्रसे कहा था जो दुर्योधनने महारथी शल्यसे (कर्णपर्वमें) कहा है। उसमें बताया है कि तारकासुरके तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामके तीन पुत्र थे, जिन्होंने घोर तप करके ब्रह्माजीसे यह वर माँग लिया था कि 'हम तीन नगरोंमें बैठकर इस सारी पृथ्वीपर आकाशमार्गसे विचरते रहें । इस प्रकार एक हजार वर्ष बीतनेपर हम एक जगह मिलें। उस समय जब हमारे तीनों पुर मिलकर एक हो जायँ तो उस समय जो देवता उन्हें एक ही बाणसे नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्युका कारण हो ।' यह वर पाकर उन्होंने मयदानवके पास जाकर उससे तीन नगर अपने तपके प्रभावसे ऐसे बनानेको कहे कि उनमेंसे एक सोनेका, एक चाँदीका और एक लोहेका हो। तीनों नगर इच्छानुसार आ-जा सकते थे। सोनेका स्वर्गमें, चाँदीका अन्तरिक्षमें और लोहेका पृथ्वीमें रहा।
इनमेंसे प्रत्येककी लम्बाई-चौड़ाई सौ-सौ योजनकी थी। इनमें आपसमें सटे हुए बड़े-बड़े भवन और सड़कें
थीं तथा अनेकों प्रासादों और राजद्वारोंसे इनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इन नगरोंके अलग-अलग राजा थे।
स्वर्णमय नगर तारकाक्षका था, रजतमय कमलाक्षका और लोहमय विद्युन्मालीका । इन तीनों दैत्योंने अपने अस्त्र-
शस्त्रके बलसे तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लिया था । इन दैत्योंके पास जहाँ-तहाँसे करोड़ों दानव योद्धा
आकर एकत्रित हो गये। इन तीनों पुरोंमें रहनेवाला जो पुरुष जैसी इच्छा करता, उसकी उस कामनाको मयदानव
अपनी मायासे उसी समय पूरी कर देता था । यह तारकासुरके पुत्रोंके तपका फल कहा गया।
तारकाक्षका एक पुत्र 'हरि' था। इसने तपसे ब्रह्माजीको प्रसन्न कर यह वर प्राप्त कर लिया कि 'हमारे
नगरोंमें एक बावड़ी ऐसी बन जाय कि जिसमें डालनेसे शस्त्रसे घायल हुए योद्धा और भी अधिक बलवान्
हो जायँ।' इस वरके प्रभावसे दैत्यलोग जिस रूप और जिस वेषमें मरते थे उस बावड़ीमें डालने पर वे उसी
रूप और उसी वेषमें जीवित होकर निकल आते थे। इस प्रकार उस बावड़ीको पाकर वे समस्त लोकोंको
कष्ट देने लगे। देवताओंके प्रिय उद्यानों और ऋषियोंके पवित्र आश्रमोंको उन्होंने नष्ट-भ्रष्ट कर डाला । इन्द्रादि
देवता जब उनका कुछ न कर सके तब वे ब्रह्माजीकी शरण गये । ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे सब शंकरजीके पास
गये और उनको स्तुतिसे प्रसन्न किया। महादेवजीने सबको अभयदान दिया और कहा कि तुम मेरे लिये एक
ऐसा रथ और धनुष-बाण तलाश करो जिनके द्वारा मैं इन नगरोंको पृथ्वीपर गिरा सकूँ । देवताओंने विष्णु, चन्द्रमा और अग्निको बाण बनाया तथा बड़े-बड़े नगरोंसे भरी हुई पर्वत, वन और द्वीपोंसे व्याप्त वसुन्धराको ही उनका रथ बना दिया । इन्द्र, वरुण, कुबेर और यमादि लोकपालोंको घोड़े बनाये एवं मनको आधारभूमि बना दिया। इस प्रकार जब (विश्वकर्माका रचा हुआ) वह श्रेष्ठ रथ तैयार हुआ
तब महादेवजीने उसमें अपने आयुध रखे । ब्रह्मदण्ड, कालदण्ड, रुद्रदण्ड और ज्वर – ये सब ओर मुख किये
हुए उस रथकी रक्षामें नियुक्त हुए । अथर्वा और अंगिरा उनमें चक्ररक्षक बने । सामवेद, ऋग्वेद और समस्त
पुराण उस रथके आगे चलनेवाले योद्धा हुए। इतिहास और यजुर्वेद पृष्ठरक्षक बने । दिव्य वाणी और विद्याएँ
पार्श्वरक्षक बनीं। स्तोत्र, वषट्कार और ओंकार रथके अग्रभागमें सुशोभित हुए। उन्होंने छहों ऋतुओंसे
सुशोभित संवत्सरको अपना धनुष बनाया और अपनी छायाको धनुषकी अखण्ड प्रत्यंचाके स्थानोंमें रखा।
ब्रह्माजी उनके सारथी बने । भगवान् शंकर रथपर सवार हुए और तीनों पुरोंको एकत्र होनेका चिन्तन करने
लगे। धनुष चढ़ाकर तैयार होते ही तीनों नगर मिलकर एक हो गये । शंकरजीने अपना दिव्य धनुष खींचकर
बाण छोड़ा जिससे तीनों पुर नष्ट होकर गिर गये। इस तरह शंकरजीने त्रिपुरका दाह किया और दैत्योंको
निर्मूलकर त्रिलोकका हित किया।
वाल्मीकीयसे पता चलता है कि दधीचि महर्षिकी हड्डियोंसे पिनाक बनाया गया था और भूषण टीकाकारका
मत है कि भगवान् विष्णु बाण बने थे । जिससे त्रिपुरासुरका नाश हुआ । यही धनुष पीछे राजा जनकके यहाँ रख दिया गया था। दधीचिकी हड्डियोंसे दो धनुष बने, शार्ङ्ग और पिनाक । वाल्मीकीय रामायण  के
आधारपर कहा जाता है कि विष्णुभगवान्ने शार्ङ्गसे असुरोंको मारा और शंकरजीने तीनों पुरोंको जलाया । इस प्रकार से यह सिद्ध है की भगवान शंकर ने ही त्रिपुर और उनके असुरों का नाश किया इसलिए वे त्रिपुरारी कहलाए।
हर हर महादेव।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

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