सोमवार, 26 दिसंबर 2022

।।अन्योक्ति अलंकार।।

।।अन्योक्ति अलंकार।। 

               ।।अन्योक्ति अलंकार।। 
       जब काव्य में अप्रस्तुत का वर्णन करके प्रस्तुत का बोध कराया जाय तब  अन्योक्ति अलंकार होता है। 
अन्योक्ति में बात किसी दूसरे पर अर्थात अप्रस्तुत पर रखकर कही जाती है लेकिन कथन का लक्ष्य कोई दूसरा अर्थात् प्रस्तुत होता है।
अन्योक्ति' का अर्थ ही है "अन्य(अप्रस्तुत)को माध्यम बनाकर प्रस्तुत  के प्रति  उक्ति"।
 अर्थात्  इस अलंकार में कोई बात सीधे-सादे रूप में न कहकर किसी के माध्यम से कही जाती है। 
अन्योक्ति  का अन्य अर्थ यह  भी होता है कि वह कथन जिसका अर्थ साधर्म्य के विचार से कथित वस्तु के अतिरिक्त अन्य वस्तु पर घटाया जाय ।
अतः जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति को लक्ष्य कर कही जाने वाली बात दूसरे के लिए कही जाए, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है। सीधी सी बात है इस अलंकार में  कथन कहीं,निशाना कहीं होता है।
अन्योक्ति अलंकार को अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार की"सारूप्य निबंधना" का पर्यायवाची शब्द भी कहा जा सकता है।
परिभाषा:- 
जहाँ उपमान(अप्रस्तुत,अप्रत्यक्ष) के वर्णन द्वारा उपमेय (प्रस्तुत,प्रत्यक्ष) की प्रतीति कराई जाती है, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण:-
1.नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल।
अली कली ही सौ बिंध्यौ, आगे कौन हवाल।।
यहाँ पर अप्रस्तुत के वर्णन द्वारा प्रस्तुत का बोध कराया गया है अतः यहाँ अन्योक्ति अलंकार है। यहाँ उपमान ‘कली’ और ‘भौरे’ के वर्णन के बहाने उपमेय (राजा जय सिंह और उनकी नवोढ़ा नायिका) की ओर संकेत किया गया है।
2.दस दिन आदर पाइकै, करिले आपु बखान।
जौ लगि काग सराध पखु, तौ लगि तव सनमान ।
यहाँ थोड़े समय के लिए महत्त्व या सम्मान पाने वाला मनुष्य प्रस्तुत है तथा कौआ अप्रस्तुत है। कौए के माध्यम से आत्मप्रशंसा करने वाले व्यक्ति को घमण्ड से बचने तथा लोगों के साथ असम्मानजनक व्यवहार करने से रोका गया है।
3-स्वारथ  सुकृत न श्रम वृथा देखि विहंग विचारि।
   बाज पराये पानि परि , तू पच्छीनु न मारि॥
प्रस्तुत पद में बाज पक्षी के माध्यम से अन्य हिंदू राजाओं को जागृत करने का प्रयत्न किया गया है तथा अन्योक्ति के माध्यम से राजा जयसिंह और औरंगजेब की ओर संकेत किया गया है।
4-काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी
   तेरे ही नालि सरोवर पानी।
जल में उत्पति जल में वास ।
जल में नलिनी तोर निवास॥
इस पद में कबीर ने कमलिनी तथा उसके आसपास सरोवर के जल के वर्णन के द्वारा आत्मा तथा परमात्मा की एकता का बोध कराया है। कमलिनी की नाल सरोवर के जल में डूबी है अत: उसके मुरझाने का कोई कारण नहीं है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है, यह जल और कमलिनी के सम्बन्ध द्वारा बताया गया है।
अन्य उदाहरण भी देखें:
5- इहै आस अटकै रहत,अलि गुलाब के मूल।
   अइहैं बहुरि बसंत रितु  इन डारन के फूल।
6-माली आवत देखकर कलियन करें पुकार ।
    फूले-फूले चुन लिये, काल हमारी बार।।
7-कर लै सँघि सराहि कै सबैं रहे गहि मौन।।
    रे गंधी मति मंद तू गंवई गाहक कौन ॥
                   ।।। धन्यवाद।।।
 

शनिवार, 10 दिसंबर 2022

अनुपम का पर्याय

         ।।अनुपम का पर्याय।।
अपूर्व अनन्य अनोखा,अभूतपूर्व अनुपम।
अनूप अनुपमेय अतुल,उपमारहित निरुपम।।
अद्भुत अप्रतिम अनूठा,बेजोड़ अतुलनीय।
बेमिसाल हि लाजबाब, निराला अद्वितीय।।
           ।। धन्यवाद।।

रविवार, 4 दिसंबर 2022

अमृत के पर्यायवाची

          ।।अमृत के पर्यायवाची।।
श्रीबन्धु भक्तजा अमी, अमृत पियूष निर्जर।
दिव्यपदार्थ देवभोज्य, आबहयात नेक्टर।।
सुधा सोम सुरभोग मधु,शशिरस देवाहार।
जीवनोदक अमिय शुभा, हिरण्य त्रिदशाहार।।
            ।। धन्यवाद।।

मंगलवार, 29 नवंबर 2022

√कौवा/कौआ के पर्यायवाची शब्द

 ।।कौवा/कौआ के पर्यायवाची शब्द ।।
(1) प्रातर्भोक्ता शक्रजात, 
        आत्मघोष द्विक राग।।
    कौवा कागा क्रो काक
           करठ कागला काग।।
 (a) इस दोहे में राग शब्द को
     छोड़कर शेष सभी ग्यारह
     शब्द कौआ के पर्याय हैं।
(b)शक्रजात और शक्रज दोनों
    कौवा के पर्याय हैं इनका एक 
   अर्थ इन्द्रपुत्र जयन्त भी होता है ।
(c)कौवा को कौआ भी कहते है ।
(d)राजस्थानी में कौवा को कागला 
   तथा मारवाडी में हाडा कहा जाता
   है राजस्थान में  कहावत भी है 
  " मलके माय हाडा काळा " 
  अर्थात दुष्ट व्यक्ति हर जगह मिलते हैं।
 पहले दोहे में कागला मिल ही 
 गया है  दूसरे दोहे  में हाडा को देखेगें---
(2)धूलिजंघ हाडा पिशुन
               दिवाटन महालोभ ।
     नगरीवक शक्रज वायस
              लघुपाती महलोल।।
 इस दोहे के सभी दस
 शब्द कौआ के पर्याय हैं।
(a)सही शब्द महालोल है 
  मात्रापूर्ति के लिए महलोल
   किया गया है।
(b)वायस को बायस भी 
 कहा जाता है--- देखें--
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। 
होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
 और
सुरपति सुत धरि बायस बेषा। 
सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
             ।।।धन्यवाद।।।
प्रातर्भोक्ता शक्रजात, आत्मघोष द्विक राग।।
कौवा कागा क्रो काक,करठ कागला काग।।1।।धूलिजंघ हाडा पिशुन,दिवाटन महालोभ ।
नगरीवक शक्रज वायस,लघुपाती महलोल।।2।।

शनिवार, 26 नवंबर 2022

छन्द-Verse,Poem,Metre(Poetic Meter)

।।छन्द के सम्बन्ध में संपूर्ण जानकारी।।

सामान्य परिचय:-
छन्द पर चर्चा सर्वप्रथम ऋग्वेद 
में हुई है।
छन्द  के दो अर्थ हैं.
एक तो आच्छादनऔर 
दूसरा आह्लादन ।
छन्द की व्युत्पत्ति -
छदि संवरणे और चदि 
आह्लादने से मानी जाती है।
इस प्रकार विद्वानों के अनुसार छन्द
शब्द के मूल में 'चद्' धातु  है जिसका
अर्थ है 'आह्लादित करना',
'खुश करना','प्रसन्न करना',
'मनोरञ्जन करना'।
चद् से छद् और अन्त में छन्द बना।
"यः छंदयतिआह्लादयति च सः छन्दः।"
इसका धातुगत व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है -
'जो अपनी इच्छा से चलता है'।
इसी मूल से स्वच्छंद 
जैसे शब्द आए हैं। अत: छंद शब्द के
मूल में गति का भाव है।
     छ्न्द का हिन्दी में पर्याय पद्य,कविता 
और अंग्रेजी में (Verse,Poem,Metre
Poetic Meter) हैं।
आचार्य पिंगल द्वारा रचित छन्द शास्त्र
(छन्दःसूत्र) 
सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ है जिसे 
'पिंगलशास्त्र' भी कहा जाता है।
वास्तव में यही छन्द शास्त्र का 
मूल ग्रन्थ है।
यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो 
कविता की कसौटी ‘छन्द’ है। 
पद्यरचना का समुचित ज्ञान 
छन्दशास्त्र की जानकारी 
के बिना नहीं होता है।
   किसी वाङमय की समग्र सामग्री का
नाम साहित्य है। संसार में जितना 
साहित्य मिलता है ’ ऋग्वेद’ 
उनमें प्राचीनतम है। ऋग्वेद  
छंदोबद्ध ग्रंथ है।

अब हम देखते हैं की हिन्दी में
छंद की परिभाषा ...
परिभाषा:-वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की 
संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा 
यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से 
नियोजित पद्यरचना ‘'छन्द'’ कहलाती है। 

छन्द के अंग:-किसी भी छंद में गति, यति, 
मात्रा, वर्ण, तुक, लय , गण, और चरण 
ये 8 अंग होते हैं ।
1-गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है 
उसे गति कहते हैं।
2-यति - पद्य पाठ करते समय गति को 
तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है 
उसे यति कहते हैं।
3-मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय 
लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा 2 
प्रकार की होती है लघु और गुरु। 
ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा
लघु होती है तथा दीर्घ उच्चारण 
वाले वर्णों की मात्रा गुरु होती है। 
लघु मात्रा का मान 1 होता है और उसे
(।) चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है। 
इसी प्रकार गुरु मात्रा का मान मान 
2 होता है और उसे (ऽ)चिह्न से प्रदर्शित 
किया जाता है।
  सामान्यतः सभी व्यञ्जन वर्ण और स्वर 
वर्णों में अ, इ, उ  ऋ लृ लघु माने गये हैं।
आ ई ऊ ए ऐ ओ औ अं और अ: दीर्घ हैं।
दीर्घ वर्णों की पहचान हेतु यह 
श्लोक स्मरणीय है--
सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा ॥ 

4-वर्ण (अक्षर)-ध्वनि की छोटी से छोटी 
इकाई जिसे लिपि से व्यक्त किया जाता है, 
उन्हें वर्ण कहते हैं।मुँह से निकलने वाले
किसी भी ध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रत्येक 
भाषा की अपनी लिपि होती है । इस लिपि 
के माध्यम से ही ध्वनि को व्यक्त किया 
जाता है, इसे ही वर्ण कहते हैं ।
5-तुक - समान उच्चारण वाले शब्दों के
 प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः 
तुकान्त होते हैं।
6.लय-गति, यति के मेल को लय कहते है। 
 गति,यति को ध्‍यान में रखते हुये शब्‍द 
बोलने के प्रवाह को अथवा सुर 
(सा रे ग म प ध नी) के साथ तारतम्‍य 
बैठाते हुये संगत करना (गेयता का ढंग) 
लय कहलाता है ।
7-गण - मात्राओं और वर्णों की संख्या और 
क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह 
को एक गण माना जाता है, जिनकी 
संख्या 8 हैं - यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ)
, तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।)
, भगण (ऽ।।), नगण (।।।) और सगण
 (।।ऽ)।गणों को आसानी से याद करने का  
सूत्र है- यमाताराजभानसलगा। 
सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों 
के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ 
लघु और गुरू मात्राओं के सूचक हैं। 
जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना 
हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र 
से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने 
के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो 
अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।

‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृत्त में होता 
है मात्रिक छन्द इस बंधन से मुक्त होते हैं।
अब हम गणविधायक सूत्र को समझते हैं:

।   ऽ  ऽ  ऽ ।     ऽ  ।  ।  ।  ऽ

य मा ता रा ज भा न स ल गा

को समझने के लिए यह श्लोक है।

"आदिमध्यावसानेषु 

यरता यान्ति लाघवम् ।

भजसा गौरवं यान्ति 

मनौ तु गुरुलाघवम् ॥"

इसी बात को हिंदी के इस दोहे 

में देखते हैं ।

"आदि मध्य अन्तिम गुरु, 

भजस गणन में होय।

यरत गणन त्यौं लघु रहै, 

मन गुरु लघु सब कोय॥"

अर्थात् भगण जगण और सगण में

क्रमशः पहला दूसरा और अंतिम वर्ण

गुरु होते हैं तथा शेष लघु जैसे:

भगण SII जगण ISI सगण IIS 

इसी प्रकार यगण रगण तगण में

क्रमशः पहला दूसरा और अंतिम 

वर्ण लघु होते हैं तथा शेष गुरु जैसे:

यगण ISS रगण SIS तगण SSI 

तथा मगण  में सारे वर्ण गुरु एवं

नगण में सारे वर्ण लघु होते हैं।

शुभा अशुभ विचार –काव्य के प्रारम्भ

में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण

नहीं आना चाहिए। 

मनभय  शुभ तथा शेष जरसत 

अशुभ माने जाते हैं। 

वर्णवृत्त छन्दों की रचना में शुभ-

अशुभ का विचार नहीं किया जाता 

किन्तु मात्रिक छन्दों की रचना में शुभ-

अशुभ गणों का ध्यान रखा जाता है।

आइए हम गणों के बारे में विस्तार से 

जानते हैं:

 गण          चिह्न      उदाहरण     प्रभाव

यगण(य)    ISS       नहाना         शुभ

मगण (मा)  SSS     आजादी        शुभ

तगण(ता)   SSI       चालाक       अशुभ

रगण(रा)    SIS       पालना         अशुभ

जगण(ज)   ISI       वकील          अशुभ

भगण(भा)   SII      रासभ           शुभ

नगण(न)    III        विमल           शुभ

सगण(स)   IIS       विमला         अशुभ

8-चरण(पद/पाद)-प्रत्येक पदों के मध्य एक 

या एक से अधिक यति आता है । यति से 

विभाजित पद को ही चरण कहते हैं । 

प्रत्येक  छंद/पद्य में कम से कम 

दो चरण होतें हैं ।

छन्द के प्रकार-
1-मात्रिक छंद -मात्रा की गणना के आधार
 पर रचित छन्द ‘मात्रिक छन्द’ कहलाता है। 
मात्रिक छंद तीन प्रकार के होते हैं : -
(अ) सम (ब) अर्द्धसम और (स )विषम ।
(अ)सम मात्रिक छंद:-जिस मात्रिक छंद के 
सभी चरणों में एक समान मात्रा होती है उसे 
सम मात्रिक छंद कहते हैं जैसे:- अहीर 
(11 मात्रा) तोमर (12 मात्रा) मानव
 (14 मात्रा) अरिल्ल,पद्धरि/पद्धटिका,
चौपाई (सभी 16 मात्रा)पीयूषवर्ष, 
सुमेरु (दोनों 19 मात्रा) राधिका (22 मात्रा) 
रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी 24 मात्रा) 
गीतिका (26 मात्रा) सरसी (27 मात्रा) 
सार (28 मात्रा) हरिगीतिका (28 मात्रा) 
ताटंक (30 मात्रा) वीर या आल्हा 
(31 मात्रा) आदि।
(ब)अर्द्धसम मात्रिक छंद:- जिस मात्रिक छंद 
के विषम चरणों में अलग और सम चरणों 
में अलग मात्रा हो उसे
अर्द्धसम मात्रिक छंद कहते हैं 
जैसे:- बरवै (विषम चरण में- 12 मात्रा, 
सम चरण में- 7 मात्रा) दोहा
(विषम- 13, सम- 11) सोरठा 
(विषम -11 तथा सम में 13 ,दोहा का उल्टा) 
उल्लाला (विषम-15, सम-13) आदि।
(स)विषम मात्रिक छंद:- जिस मात्रिक छंद  
में चार से अधिक चरण हो (6 चरण हो) और 
वे एक समान नहीं  हो  उसे विषम मात्रिक 
छंद कहते  हैं जैसे :- कुण्डलिया 
(दोहा + रोला) छप्पय (रोला + उल्लाला)।
2-वर्णिक/ वर्णवृत्त छंद ː वर्णों की गणना पर 
आधारित छंद वर्णिक/वर्णवृत्त छंद 
कहलाते हैं।वर्णिक छंद के सभी चरणों में
वर्णो की संख्या समान होती हैं। 
जैसे - प्रमाणिका; स्वागता, भुजंगी, शालिनी, 
इन्द्रवज्रा, दोधक; वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, 
द्रुतविलम्बित, तोटक; वसंततिलका; 
मालिनी; पंचचामर, चंचला; मन्दाक्रान्ता, 
शिखरिणी, शार्दूल विक्रीडित, स्त्रग्धरा, 
सवैया, घनाक्षरी, रूपघनाक्षरी, 
देवघनाक्षरी, कवित्त/मनहरण। 
इसके दो प्रकार हैं-
(i) साधारण वार्णिक छंद-जिस छंद रचना 
के प्रत्येक चरण में अधिकतम 26 वर्ण तक 
होते हैं  वे साधारण वार्णिक छंद कहलाते हैं। 

    प्रसिद्ध छन्दों के नाम और उनकी
 मात्रा आदि को इन दोहों के माध्यम
से जानते हैं-

"अष्टाक्षरी प्रमाणिका, छंद अकेला भाय।
गेय छंद यही अद्भुत,लघु गुरु बना सुहाय।।"
"वर्ण ग्यारह के वर्णिक, गिनती में है सात।
इंद्रवज्रा है प्रथम, सहज शालिनी मात।। 
उपेन्द्रवज्रा स्वागता,रथोद्धता है साथ।
उपजाति भुजंगी युगल,अपनी गाते गाथ।।"
"वंशस्थ भुजंगप्रयात, बारह के हैं तात।
द्रुतविलंबित व तोटक, मिलकर करते बात।।"
"एक मात्र छंद चौदह, वसंततिलका वरन।
कवियों को सदा प्रिय यह,मानो मेरा कहन।।"
"मालिनी  है पन्द्रह की, सोलह पंच चामर।
चंचला भी सोलह की, चंचल नहीं पामर।।"
"मेघदूते मंद मंद मंदाक्रांता कहत।
मैं और शिखरिणी सत्रह युगल जोड़ी अभवत।।"
"शार्दूलविक्रीडित है एक उन्नीस लाल। 
स्रग्धरा धरा इक्कीस, आर्या का बहू भाल।।"
(ii)दण्डक वार्णिक छंद -जिस छंद रचना में 
प्रत्येक चरण में 26 से अधिक वर्ण होते हैं 
उसे दण्डक वर्णिक छंद कहा जाता है । 
3-मुक्तछन्द(Free verseयाvers libre) 
कविता का वह रूप है जो किसी छन्दविशेष 
के नियमों से नहीं बधा हो उसे मुक्त छन्द
कहते हैं।
मुक्तछन्द की कविता सहज भाषण जैसी 
प्रतीत होती है। हिन्दी में मुक्तछन्द की
परम्परा श्री सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला 
ने आरम्भ हुई।हिन्दी का मुक्त छन्द या 
मुक्त काव्य ,फ्रेंच का 'वर्सलिब्र',या ‘वर्स लिबेरे', 
अंग्रेजी का 'फ्री वर्स' या 'ब्लैकवर्स' के
 पर्यायवाची शब्द हैं। 'मुक्त काव्य' और 
'स्वच्छन्द काव्य' प्रयोगकालीन कविता के 
महत्त्वपूर्ण भेद हैं। ‘वर्स लिबेरे', को हम
स्वच्छन्द काव्य कह सकते हैं।इसे रबर 
या केंचुआ छंद भी कहते हैं। इसमे न  
तो वर्णों की गिनती और न ही मात्राओं की 
गिनती होती है।
जैसे :-वह आता दो टूक कलेजे के करता 
पछताता पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक ,
चल रहा लकुटिया टेक ,
मुट्ठी भर दाने को 
भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलता
दो टूक कलेजे को करता
पछताता पथ पर आता।
छंदो से संबंधित अति विशेष जानकारी:
1-वाचिक भार अर्थात लय को ध्यान में रखते
 हुए मापनी के किसी भी गुरु 2 के स्थान पर 
दो लघु 11 का प्रयोग किया जाना।
2-पिंगल के अनुसार , और  इन 
पाँचों अक्षरों को छंद के आरंभ में रखना 
वर्जित है, इन पाँचों को दग्धाक्षर कहते हैं। 
दग्धाक्षरों की कुल संख्या 19 है परंतु उपर्युक्त 
पाँच विशेष हैं। वे 19 इस प्रकार हैं:- फ़ङ्
3-परिहार
कई विशेष स्थितियों में अशुभ गणों अथवा 
दग्धाक्षरों का प्रयोग त्याज्य नहीं रहता। 
यदि मंगलसूचक अथवा देवतावाचक शब्द से
किसी पद्य का आरम्भ हो तो दोष-परिहार
हो जाता है। 
उदाहरण :
गणेश जी का ध्यान कर, अर्चन कर लो आज।
निष्कंटक सब मिलेगा, मूल साथ में ब्याज।।
उपर्युक्त दोहे के प्रारंभ में जगण है जिसे 
अशुभ माना गया है परंतु देव-वंदना के 
कारण उसका दोष-परिहार हो गया है।
4-द्विकल का अर्थ है दो मात्राओं  का समूह 
 जैसे 2 या 1/1मात्रा या वर्णों  वाले शब्द 
जैसे - खा, जा, ला, आ, का ,जल, चल,
 बन, धन इत्यादि।
त्रिकल का अर्थ है
 तीन मात्राओं का समूह जैसे- 2+1 या
 1+2 या 1+1+1 मात्रा वाले शब्द। 
चौकल का अर्थ  चार मात्राओं का 
समूह जैसे- है 2,+2 या 2+1+1 या 1+1+2 या 1+2+1 या 1+1+1+1 मात्रा वाले शब्द ।
5-ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के नवम् छन्द
 में ‘छन्द’ की उत्पत्ति ईश्वर से बताई गई है। 
6-लौकिक संस्कृत के छन्दों का जन्मदाता
 वाल्मीकि को माना गया है। 
7-आचार्य पिंगल ने ‘छन्दसूत्र’ में छन्द का
 सुसम्बद्ध वर्णन किया है, अत: इसे 
छन्दशास्त्र का आदि ग्रन्थ माना जाता है। 
8-छन्दशास्त्र को ‘पिंगलशास्त्र’ भी कहा जाता है।
9-हिन्दी साहित्य में छन्दशास्त्र की दृष्टि से
 प्रथम कृति ‘छन्दमाला’ है। 
10- ऋग्वेद  में 13 यजुर्वेद  में 8 और
अथर्ववेद में 5 छन्दों का प्रयोग मिलता है।
ऋग्वेद के प्रमुख 8 छन्द महत्त्वपूर्ण हैं 
जिनके कुल के छन्द प्रायः संस्कृत और 
हिन्दी में पाये जाते है जिन्हें
अधोलिखित तालिका द्वारा सरलता
 से समझा जा सकता है - 
क्रम छन्दनाम  वर्ण×चरण   अक्षर संख्या
1-  गायत्री        8×3             24
2-  उष्णिक्      7×4              28
3-  अनुष्टुप       8×4              32
4-   बृहती         9×4              36
5-   पड़क्तिः     10×4             40
6-   त्रिष्टुप        11×4             44
7-   जगती       12×4             48
8-  अतिजगति  13×4             52
विशेष:- शिव ताण्डव स्तोत्र, 
स्त्रोत्र काव्य में अत्यन्त लोकप्रिय है।
यह पंचचामर छन्द में आबद्ध है।
  ।।।धन्यवाद।।।


शनिवार, 19 नवंबर 2022

√।।वक्रोक्ति अलंकार।।

💐वक्रोक्ति अलंकार💐 

वक्रोक्ति शब्द वक्र+उक्ति के योग से
बना है,जिसका अर्थ है टेढ़ा कथन।
👍परिभाषा:-"अर्थात जब वक्ता के
कथन का श्रोता अन्य अर्थ ग्रहण करे
और ग्रहण किये गये अर्थ के अनुसार
व्यवहार,कथन या कार्य करे,तब वहाँ
वक्रोक्ति अलंकार होता है।" 
दूसरे शब्दों में जब एक व्यक्ति द्वारा 
कहे गये शब्द या कथन का दूसरा 
व्यक्ति जान-बूझकर दूसरा अर्थ 
कल्पित करें और अपने कल्पित 
अर्थ के अनुसार कथन या व्यवहार 
करें तब वहाँ वक्रोक्ति अलंकार 
होता है। 
👌प्रयोग
इस अलंकार का प्रयोग विशेषकर
हास-परिहास और व्यंग्यात्मक 
वार्तालाप  में किया जाता है।
💐आचार्य भामह ने वक्र शब्द
और अर्थ की उक्ति को 👍
काम्यअलंकार मानकर और 
💐आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को
 👍काव्य का जीवन मानकर इस
अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है।
‘शब्द’ और ‘अर्थ’ दोनों में ‘वक्रोक्ति
होने के कारण ‘श्लेष’ की तरह यहाँ
भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में
माना जाय या अर्थालंकार में।
💐आचार्य जयदेव ने इसे 
👍अर्थालंकार में स्थान दिया है।
इस अलंकार में श्लेष तथा काकु से 
वाच्यार्थ बदलने की कल्पना होती है।
👍‘काकु’व👍‘श्लेष’👍शब्दशक्ति 
के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को 
💐आचार्य मम्मट सहित अधिकतर
आचार्यो ने शब्दालंकार में ही स्थान 
दिया है।
💐वक्रोक्ति अलंकार में  इन चार बातों 
का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।उदाहरण  :-
👍एक कह्यौ ‘वर देत भव,
 भाव चाहिए चित्त’।
सुनि कह कोउ ‘भोले भवहिं 
भाव चाहिए ? मित्त’ ।
व्याख्या:-
किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; 
पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, 
भोले भव अर्थात शंकरजी को रिझाने
के लिए ‘भाव चाहिये’ ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके
रिझाने के लिए ‘भाव’ की भी
आवश्यकता नहीं है वे तो बिना 
भाव के ही प्रसन्न हो जाते हैं और 
वरदान दे देते हैं।
💐आचार्य रुद्रट ने  इसके दो भेद किये है-(1) श्लेष वक्रोक्ति अलंकार
(2) काकु वक्रोक्ति अलंकार
(1) श्लेष वक्रोक्ति अलंकार(चिपकाअर्थ)
श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेष वक्रोक्ति अलंकार 
(ii) अभंगपद श्लेष वक्रोक्ति अलंकार 
👍(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार
 उदाहरण:-
अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?
निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?
व्याख्या:-
यहाँ नायिका को नायक ने
‘गौरवशालिनी’ कहकर मनाना
चाहा है।नायिका नायक से इतनी
तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति
इस ‘गौरवशालिनी’ सम्बोधन से
चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे
एक नायिका का ‘गौरव’ देने के
बजाय ‘गौ’ (सीधी-सादी गाय,
जिसे जब चाहो तब पुचकारकर 
मतलब गाँठ लो), ‘अवशा’ (लाचार), 
‘अलिनी’ (यों ही मँडरानेवाली मधुपी
अर्थात भ्रमरी) समझकर लगातार 
तिरस्कृत किया था। नायिका ने
नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर 
प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग 
की उक्ति से यह कहा, ”हाँ, तुम मुझे ‘गौः+अवशा+अलिनी समझते हो।
👌विशेष:-यहाँ वक्रोक्ति को प्रकट
 करनेवाले पद ‘गौरवशालिनी’ में दो
 अर्थ (एक ‘हे गौरवशालिनी’ और
 दूसरा ‘गौः, अवशा, अलिनी’) श्लिष्ट
 होने के कारण यहाँ श्लेषवक्रोक्ति है।
 और, इस ‘गौरवशालिनी’ पद को
 ‘गौः+अवशा+अलिनी’ में तोड़कर
अर्थात भंग कर  दूसरा श्लिष्ट अर्थ
लेने के कारण यहाँ भंगपद 
श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।
👍(ii)अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति 
अलंकार- उदाहरण:-
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, 
कहाँ अपर है ?
उसने कहा, ‘अपर’ कैसा ?
वह उड़ गया, सपर है।
व्याख्या:-
यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा:
एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, 
अपर अर्थात दूसरा कहाँ है ?  
इस बात पर नूरजहाँ ने दूसरे
कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा:- 
अपर अर्थात बिना पंख का कैसा?
वह तो इसी कबूतर की तरह सपर
अर्थात पंख सहित था, सो  वह 
उड़ गया।यहाँ ‘अपर’ शब्द को बिना 
तोड़े ही ‘दूसरा’ और ‘बेपरवाला’ दो 
अर्थ लगने से अभंगश्लेष वक्रोक्ति 
अलंकार है।
-राधा-कृष्ण का कुछ 
हास-परिहास देखते हैं:-
1-कौन द्वार पर, राधे मैं हरि
क्या कहा यहाँ ? जाओ वन में।
व्याख्या:-
श्री कृष्ण ने दरवाजा खटखटाया
राधे ने पूछा कौन?
श्री कृष्ण उत्तर दिया "हरि"
अर्थात मैं कृष्ण हूँ।
राधिकाजी ने इसका अन्य 
अर्थ "बन्दर" निकाला और
अपने निकाले गये अर्थ में 
ही उत्तर दिया  तुम्हारा यहाँ
क्या काम,जंगल में जाओ।
2-कौन तुम ? मैं घनश्याम।
 तो बरसो कित जाय।।
-माँ लक्ष्मी-पार्वती का विनोद 
तो देखें ही-
 'भिक्षुक गो कितको गिरिजे ? '
 'सो तो मांगन को बलि द्वार गयो री।'
व्याख्या:-
यहाँ लक्ष्मीजी विनोद में पार्वतीजी
से पूछती है कि हे गिरिजा तुम्हारा
भिक्षुक अर्थात शिव कहाँ गए हैं ।
पार्वतीजी भी परिहास में उत्तर देती
हैं कि है लक्ष्मीजी भिक्षुक अर्थात 
विष्णु तो बलि के द्वार मांगने गये है |
(2) काकु वक्रोक्ति अलंकार
 (ध्वनि-विकार/आवाज में परिवर्तन)
कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ
 कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
अर्थात जहाँ पर उच्चारण के कारण
श्रोता वक्ता की बात का दूसरा अर्थ
अपने हिसाब निकाल लेता है, वहाँ
काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है।
काकु वक्रोक्ति में कंठ ध्वनि अर्थात्
बोलने वाले के लहजे में भेद होने के
कारण दूसरा अर्थ कल्पित किया जाता है।
उदाहरण-
1-कह अंगद सलज्ज जग माहीं। 
 रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। 
हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।।
2-जब रावण ने अंगद से अपनी
भुजाओं की शक्ति की डिंग मारी 
तब  अंगदजी कहते हैं- 
सो भुज बल राख्यो उर घाली।
जीतेउ सहसबाहु बलि बाली।
3-माता सीता यह कथन भी काकु
 वक्रोक्ति का शानदार उदाहराण है-
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
तुमहिं उचित तप मो कहँ भोगू।।
4-यह दोहा काकु वक्रोक्ति का 
अप्रतीम उदाहरण है-
काह न पावक जारि सक,
 का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल,
 केहि जग कालु न खाइ॥
5-आइए अब दैनिक जीवन के 
अपने बात-चीत में हास-परिहास 
करते हुवे इस अलंकार का प्रयोग
हम कैसे करते हैं इन उदाहरणों में देखें-
अ-’’उसने कहा जाओ मत, बैठो यहाँ।
मैंने सुना जाओ, मत बैठो यहाँ।’’
आ-आप जाइए तो। -(आप जाइए)
आप जाइए तो?-(आप नहीं जाइए)
इसी तरह,
इ-जाओ मत, बैठो।
जाओ, मत बैठो ।
ई-घोड़ा पकड़ो,मत जाने दो।
घोड़ा पकड़ो मत,जाने दो।
इस प्रकार यह अलंकार बहुत ही
उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है।
              ।।धन्यवाद।।


√।। स्वभावोक्ति अलंकार।।

  ।।स्वभावोक्ति अलंकार।।

जब काव्य में किसी वस्तु,व्यक्ति या 

स्थिति का स्वाभाविक वर्णन हो तब 

वहाँ स्वभावोक्ति अलंकार होता है। 

इस अर्थालंकार की  सादगी में ही 

चमत्कार रहता है। 

उदाहरण :

1. सीस मुकुट कटी काछनी 

कर मुरली उर माल।
इहि बानिक मो मन बसौ

सेदा बिहारीलाल।।

2. चितवनि भोरे भाय की

 गोरे मुख मुसकानि। 
लगनि लटकि आली गरे

चित खटकति नित आनि।।                  

  ।।धन्यवाद।।




।।उभयालंकार(संकर-संसृष्टि)।।

             ।।उभयालंकार।।

  जब काव्य में चमत्कार शब्द तथा अर्थ दोनों में स्थित हो तब उभयालंकार होता है।

    दूसरे शब्दों में जब एक ही जगह शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों हो तब उभयालंकार होता है।

उभयालंकार के  दो भेद हैं:-

1-संकर अलंकार और 

2-संसृष्टि अलंकार।

1-संकर अलंकार-जब काव्य में अनेक अलंकार दूध और पानी की तरह (नीर-क्षीर वत) मिले हुवे हो तब संकर अलंकार होता है।

    यहाँ दूध और पानी की तरह ही अलंकारों अलग करना कठिन होता है।

उदाहरण:-

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।

सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

यहाँ पद पदुम  में छेकानुप्रास और रुपक दोनों नीर-क्षीर की तरह ऐसे मिले है कि दोनों को अलग करना कठिन है इसलिए यहाँ  संकर अलंकार है।

2:संसृष्टि  अलंकार-जब काव्य में अनेक अलंकार तिल और चावल की तरह (तिल-तण्डुल वत)मिले हुवे होतब संसृष्टि अलंकार होता है। 

यहाँ तिल और चावल की तरह ही अलंकारों को अलग किया जा  सकता है।

उदाहरण:

जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।रामकरौ केहिभाँति प्रसंसा।मुनि महेस मन मानसहंसा।।

यहाँ पंकरुह पानि में उपमा,प्रेम जनु जाए में उत्प्रेक्षा,मुनि-महेस और मन-मानस में रुपक तथा पंक्तियों के अन्तिम पदवर्ण समान होने के कारण अन्त्यानुप्रास अलंकार तिल-तंडुल की तरह मिले हुवे हैं जिनको अलग किया जा सकता है इसलिए यहाँ  संसृष्टिअलंकार है।

                   ।।धन्यवाद।।

शनिवार, 12 नवंबर 2022

।।पुनरुक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश,पुनरुक्तिवदाभास और विप्सा अलंकार।।

पुनरुक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश पुनरुक्तिवदाभासऔर विप्सा अलंकार(आवृत्ति मूलक अलंकार)

1-पुनरुक्तिअलंकार और पुनरुक्तिप्रकाशअलंकार

पुनरुक्तिअलंकार और पुनरुक्तिप्रकाशअलंकार दोनों को विद्वानों ने एक ही माना है।हम इन्हें विस्तार से समझते है।

 जब काव्य  में प्रभाव लाने के लिए किसी शब्द की आवृत्ति एक ही अर्थ में की जाय तब वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।

 पुनरुक्ति,पुनः+उक्ति से बना है । इसका अर्थ होता है आवृति, पुनरावृति या दोहराना। एक ही शब्द की जब पुनरावृति की जाती है, तो उसे पुनरुक्ति या द्विरुक्ति कहते हैं। पुनरुक्त शब्दों की रचना मुख्यतः सार्थक शब्द की पुनरावृत्ति से होती है। इसमें संज्ञा,सर्वनाम,क्रिया विशेषण आदि की पुनः उक्ति की जाती है।

ध्यान रखें जब शब्दों के अर्थ भिन्न होते हैं तब यमक अलंकार होता है और जब शब्दों के अर्थ एक समान रहते है तब पुनरुक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण:-

1-मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।

जनम सिराने अटके-अटके।।

2-विहग-विहग,फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज।

3-मधुर वचन कहि-कहि परितोषी।

4-झूम-झूम मृदु गरज-गरज घनघोर।

5-पुनि-पुनि मोहि दिखाव कुठारू।

  चहत उड़ावन फूँक पहारू।।

6-राम-राम कहु बारम्बारा।

चक्र सुदर्शन है रखवारा।

7-राम-राम कहि राम कहि राम-राम कहि राम।

तनु परिहरि रघुपति बिरह रावु गयउ सुरधाम।।

8-पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात।

2-पुनरुक्ति-प्रकाश अलंकार

"जहाँ काव्य में प्रभाव लाया जाय शब्दों को दोहराकर।

हो वह पूर्ण अपूर्ण या अनुकरण वाचक।

सभी शब्द भेदों संज्ञा से विस्मयादिबोधक तक

विभक्ति सहित शब्दों से भी बनता पुनरुक्ति प्रकाशक।"


 जब विषय को प्रकाशित करने,अर्थ में रोचकता लाने अथवा उक्ति को परिपुष्ट करने के लिए किसी शब्द की आवृत्ति की जाय तब वहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार होता है।

अंग्रेज़ी में इन अलंकारों को 'टॉटोलोजी' (Tautology) कहा जाता है । फारसी तथा उर्दू में 'तजनीस मुकर्ररकहते हैं।

उदाहरण:-

1-ठौर-ठौर विहार करती सुन्दरी सुर नारियाँ

2-हमारा जन्मों जन्मों का साथ है

  जो हमेशा-हमेशा रहेगा।

3-बनि-बनि-बनि बनिता चलींगनि-गनि-गनि डगदेत ।

धनि-धनि-धनिअखियाँ,सुछवि सनि-सनि -सनि सुख लेत।।

4-भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।

मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।।

5-तात कपिन्ह सब निसिचर मारे।

महा महा जोधा संघारे।।

6-यह बृतांत दसानन सुनेऊ।

अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।।

3-पुनरुक्तवदाभास अलंकार

"पुनः उक्ति होने का केवल होता है आभास जहाँ।

पुनरुक्ति व पर्याय नहीं होता पुनरुक्तवदाभास वहाँ।।"

पुनः उक्त वद आभास

जब काव्य में शब्दों की पुनरुक्ति नहीं होती है केवल पुनरुक्ति का आभास होता है तब वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।  यहाँ आभासित शब्दों के अर्थअलग होते हैं।

उदाहरण:-

1-अली भौर गुंजन लगे,होन लगे दल-पात

जहँ तहँ फूले रुख तरु, प्रिय प्रियतम कहँ जात।।

अली का आभासित अर्थ भौरा पर यहाँ सखी।

पात का आभासित अर्थ दल अर्थात पत्ता पर यहाँ गिरना।

रुख का आभासित अर्थ तरु परन्तु यहाँ सूखा हुआ।

प्रिय का आभासित अर्थ प्रियतम परन्तु यहाँ प्यारे।

2-जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता।

कनक का आभासित अर्थ सुवर्ण पर यहाँ धतूरा।

3-दुल्हा बना बसंत बनी दुल्हन मन भायी।

बना का आभासित अर्थ दुल्हा पर यहाँ बनना।

बनी काआभासित अर्थ दुल्हन पर यहाँ बनना।

4-सुमन फूल खिल उठे, लखों मानस मन में।

सुमन=पुष्प  ,फूल काआभासित अर्थ पुष्प लेकिन यहाँ प्रसन्न।

मानसकाआभासित अर्थ मन लेकिन यहाँ मानसरोवर मन=अन्तर्मन

5-निर्मल कीरति जगत जहान

जगत काआभासित अर्थ संसार लेकिन यहाँ  जागृत  जहान=संसार

6-वंदनीय केहि के नहीं, वे कविन्द मति मान।

स्वर्ग गये हूँ काव्य रस, जिनको जगत जहान।।

जगत काआभासित अर्थ संसार लेकिन यहाँ  जानना,जहान=संसार

7-पुनि फिरि राम निकट सो आई।

फिरि का आभासित अर्थ पुनि लेकिन यहाँ लौटकर।

4-वीप्सा अलंकार

"आदर घृणा विस्मय शोक हर्ष युत शब्दों को दोहराये।

अथवा विस्मयादिबोधक चिह्नों से भाव जताये।

शब्द वा शब्द समूहों से विरक्ति घृणादि दर्शाये।

तह वीप्सा अलंकार बन जन जन को लुभाये।।"

जब काव्य में घृणा,विरक्ति, दुःख, आश्चर्य, आदर, हर्ष, शोक, इत्यादि  विस्मयादिबोधक भावों को व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति की जाए तब वीप्सा अलंकार होता है।

वीप्सा का अर्थ होता है –  दोहराना और पुनरुक्ति का भी अर्थ है द्विरुक्ति, आवृत्ति या दोहराना होता है इस भ्रम के कारण अनेक विद्वान दोनों को एक मान लेते हैं।लेकिन दोनो अलग-अलग हैं और दोनों में अन्तर है।

उल्लेखनीय है कि हिन्‍दी साहित्‍य में सर्वप्रथम भिखारीदास ने ‘वीप्सालङ्कार’ के नाम से इसे ग्रहण किया है।

 वीप्सा द्वारा मन का आकस्मिक भाव स्पष्ट होता है। 

हम अपने मनोभावों ( आश्चर्य,घृणा,हर्ष,शोक आदि)  को व्यक्त करने के लिए विभिन्न तरह के शब्दों ( छि-छि , राम-राम शिव-शिव, चुप-चुप, हा-हा,ओह-ओह आदि) का प्रयोग करते है। अतः काव्य में जहाँ इन शब्दों का  प्रयोग किया जाता है वहां वीप्सा अलंकार होता है। साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना है कि जब भी काव्य में किसी शब्द के बाद विस्मयादिबोधक चिह्न(!) पाया जाय वहाँ वीप्सा अलंकार होगा।

उदाहरण :-

1-चिता जलाकर पिता की, हाय-हाय मैं दीन!

नहा नर्मदा में हुआ, यादों में तल्लीन!

2-शिव शिव शिव कहते हो यह क्या?
ऐसा फिर मत कहना।
राम राम यह बात भूलकर,
मित्र कभी मत गहना।।
3-राम राम यह कैसी दुनिया?
कैसी तेरी माया?
जिसने पाया उसने खोया,
जिसने खोया पाया।।
4-उठा लो ये दुनिया, जला दो ये दुनिया।
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया।
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?’
5-मेरे मौला, प्यारे मौला, मेरे मौला…
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे

6-अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो

प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो -बढ़े चलो !

7-हाय ! क्या तुमने खूब दिया मोहब्बत का सिला।

8-धिक ! जीवन को जो पाता ही आया विरोध।

धिक ! साधन जिसके लिए सदा ही किया सोध।

9-रीझि-रीझि रहसि-रहसि हँसी-हँसी उठे।

साँसे भरि आँसू भरि कहत दई-दई।।

उक्त उदाहरणों से एक और बात स्पष्ट होती है कि वीप्सा अलंकार में शब्दों के दोहराव से घृणा या वैराग्य के भावों की सघनता प्रगट होती है।

                      ।।धन्यवाद।।  

सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

।।प्रतीप अलंकार।।

                प्रतीप अलंकार

   प्रतीप का अर्थ है - विपरीत अथवा उल्टा।

       जहाँ उपमेय का कथन उपमान के रूप में तथा उपमान का कथन उपमेय के रूप में कहा जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है।अर्थात जहाँ उपमेय को उपमान और उपमान को उपमेय बना दिया जाता है, तब वहाँ  प्रतीप अलंकार होता है। दूसरे शब्दों में --"जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय की तुलना में अपकर्ष प्रकट  होता है, वहाँ प्रतीप अलंकार होता है।"यह उपमा अलंकार का उल्टा होता है क्योंकि इस अलंकार में उपमान को लज्जित, पराजित या नीचा दिखाया जाता है और उपमेय को श्रेष्ट बताया जाता है।प्रतीप अलंकार के पाँच भेद हैं:-

(1)- जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान की तरह प्रयुक्त किया जाता है:-

जैसे:-

1-सखि! मयंक तव मुख सम सुन्दर।

2-बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।

  उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम।।

3-लोचन से अंबुज बने मुख सो चंद्र बखानु

(2)-जहाँ उपमान को उपमेय की उपमा के अयोग्य बताया जाता है:- 

जैसे:-

1-अति उत्तम दृग मीन से कहे कौन विधि जाहि।

(3)-जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के द्वारा निरादर किया जाता है अर्थात उपमेय के सामने उपमान को हीन दिखाया जाता  है, 

जैसे:-

1-तीछन नैन कटाच्छ तें मंद काम के बान।

2- बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं।

     सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥

(4)-जहाँ पहले उपमेय की उपमान के साथ समानता बताई जाय अथवा समानता की सम्भावना प्रगट की जाय तथा बाद में उसका खण्डन किया जाता है:-

जैसे:-

1-प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा।

सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥

बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं।

 सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥

(5)-जहाँउपमेय के होने की स्थिति में उपमान को व्यर्थ बताया जाता है:- 

जैसे:-

1-मुख आलोकित जग करे,कहो चन्द केहि काम।

2-दृग आगे मृग कछु न ये।

अन्य  प्रसिद्ध उदाहरण:-

1. चन्द्रमा मुख के समान सुंदर है।

 2. गर्व करउ रघुनंदन घिन मन माँहा।

  देखउ आपन मूरति सिय के छाँहा।।

3. जग प्रकाश तब जस करै। 

बृथा भानु यह देख।। 

4 .उसी तपस्वी से लंबे थे, 

देवदार दो चार खड़े ।“

5. जिन्ह के जस प्रताप के आगे।

ससि  मलीन रवि सीतल लागे।  

 6.नेत्र के समान कमल है।  

7.इन दशनों अधरों के आगे क्या मुक्ता है, विद्रुम क्या?

8. नाघहिं खग अनेक बारीसा। 

 सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा।।

9.भूपति भवन सुभायँ सुहावा।

 सुरपति सदनु न पटतर पावा॥

10-गरब करति मुख को कहा चंदहि नीकै जोई।

              ।।धन्यवाद।।

शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

।।अलंकार परिचय।।


अलंकरोति इति अलंकारः अर्थात् जो विभूषित करता हो वह अलंकार है। अलं  क्रियते अनेन इति अलंकारः अर्थात्  जिसके द्वारा किसी की शोभा होती है वह अलंकार है।
आचार्य जयदेव ने ‘‘चन्द्रालोक’’ में अलंकार को काव्य का नित्यधर्म माना है।
"अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती।।"
अर्थात् जो व्यक्ति काव्य को अलंकार से रहित स्वीकार करता है, वह अग्नि को उष्णता रहित क्यों नहीं कहता। तात्पर्य यह कि अलंकार काव्य का आधारभूत गुण है।
आचार्य दंडी  ने ‘‘काव्यादर्श’’ में अलंकार को काव्य
की शोभा को बढ़ाने वाला धर्म माना है।
"काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते।"
अर्थात् काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों को अलंकार कहते हैं
आचार्य भामह के अनुसार -“न कान्तम् अपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम्”।  अर्थात् आभूषणों के बिना जिस प्रकार नारी की शोभा नहीं होती उसी प्रकार बिना अलंकार के काव्य सुशोभित नहीं होता।
    इन्हीं बातों को आचार्य केशव ने भी इस प्रकार कहा है:
'जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरल सुवृत्त ।   भूषण बिनु न विराजई, कविता वनिता मित्त ।'
    अर्थात्  श्रेष्ठ गुणी होने पर भी कविता और बनिता(स्त्री) आभूषणों(अलंकारों) के बिना शोभा नहीं देते हैं।
आचार्य चिन्तामणि के अनुसार:
"सगुण अलंकार न सहित, दोष-रहित जो होई।
शब्द अर्थ बारौ कवित, बिवुध कहत सब कोई॥"

प्रसिद्ध समालोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है-
“भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप-गुण क्रिया का अधिक तीव्रता के साथ अनुभव कराने में सहायक उक्ति को अलंकार कहते हैं।" 
इस प्रकार हम पाते हैं कि अलंकार काव्य की शोभा में चार चाँद लगाने वाले कारक होते हैं। इसके
मुख्यत:  तीन भेद माने जाते हैं-- शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उभयालंकार। 
1. शब्दालंकार- शब्द के दो रूप होते हैं- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टि होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मक्ता होती है अर्थ का चमत्कार नहीं। इसीलिए जब शब्दालंकार में  किसी शब्द को हटाकर उसके स्थान पर उसका समानार्थी अथवा पर्यायवाची शब्द रख दिया जाय तो अर्थ में अन्तर न होने पर भी उसका आलंकारिक सौन्दर्य नष्ट हो जाता है।
शब्दालंकार कुछ वर्णगत होते हैं कुछ शब्दगत और कुछ वाक्यगत होते हैं।अर्थात् 
"जहाँ शब्द के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ  शब्दालंकार होता है ।"
शब्दालंकार के निम्न भेद माने गए हैं :अनुप्रास अलंकार, यमक अलंकार, पुनरुक्तिअलंकार, वक्रोक्ति अलंकार, श्लेष अलंकार, विप्सा अलंकारआदि।

2. अर्थालंकार-अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करने वाले अलंकार अर्थालंकार कहलाते हैं। यहाँ  जिस शब्द से जो अलंकार सिद्ध होता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्यायवाची शब्द रख देने पर भी वही अलंकार सिद्ध होताा है  क्योंकि अर्थालंकारों का संबंध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। अर्थात्

 "जहाँ अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ अर्थालंकार होता है ।"

अर्थालंकार पाँच प्रकार के होते हैं –

  1. सादृश्यमूलक अर्थालंकार
  2. विरोधमूलक अर्थालंकार
  3. शृंखलामूलक अर्थालंकार
  4. न्यायमूलक अर्थालंकार
  5. गूढार्थमूलक अर्थालंकार 

 इन पांचों के आधार अर्थालंकार के निम्नभेद हैं:उपमा अलंकार रूपक अलंकार उत्प्रेक्षा अलंकार दृष्टांत अलंकार संदेह अलंकार अतिश्योक्ति अलंकार उपमेयोपमा अलंकार प्रतीप अलंकार अनन्वय अलंकार भ्रांतिमान अलंकार दीपक अलंकार अपह्नुति अलंकार  व्यतिरेक अलंकार  विभावना अलंकार विशेषोक्ति अलंकार अर्थान्तरन्यास अलंकार उल्लेख अलंकार विरोधाभाष अलंकार असंगति अलंकार मानवीकरण अलंकार अन्योक्ति अलंकार काव्यलिंग अलंकार स्वभावोक्ति अलंकार आदि।

3.उभयालंकर:जहाँ चमत्कार शब्द तथा अर्थ दोनों में स्थित रहता है वहाँ उभयालंकार माना जाता है।

उभयालंकार के निम्न भेद माने गए हैं: संकर अलंकार और संसृष्टि अलंकार।

तीनों अलंकारों के विभिन्न भेदों को हम आगे विस्तार से पढ़ेंगे। 

                         ।। इति ।।



सोमवार, 8 अगस्त 2022

संस्कृत सूक्ति सुधा


श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, 
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्न तु चन्दनेन।।1
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।
लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते ।
लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ।।3।।
यानि कानी च मित्राणि कर्तव्यानि शतानि च ।
पश्य मूषिकमित्रेण कपोताः मुक्तबन्धनाः ।।4।।
उपायेन हि यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः ।
श्रृगालेन हतो हस्ती गच्छता पंक्ङवर्त्मना ।।5।। 
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवाणि नष्टमेव हि॥6।।
नखीनां च नदीनां श्रृंगीणां शस्त्रपाणीनाम्। 
विश्वासो नैव कर्तव्य: स्त्रीषु राजकुलेषु च।।7।।
वरयेत कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम् । 
रूपशीलां न नीचस्य विवाहः सदृशे कुलो।।8।।
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रु-संकटे।
 राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः।।9।।
अवश्यमेव  भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।।10।।
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥11।।
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ।।12।।

षड् दोषा: पुरूषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध: आलस्यं दीर्घसूत्रता॥13।।

विद्या ददाति विनयं,विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति,धनात् धर्मं ततः सुखम्॥14।।

परोपि हितवान् बन्धुर्बन्धु अपि अहितः पर: ।
अहितो देहजो व्याधि हितमारण्यमौषधम ।।15।।

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् ।
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् ।
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः।।

द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दॄढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ।।18।।

सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यं अप्रियम।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन:।।19।।

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥20।।

मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः।।21।।

पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं धनम्।
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम्।।22।।

देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।23।।

चन्दनं शीतलं लोके,चन्दनादपि चन्द्रमाः।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।24।।
वनानी दहतो वन्हे: सखा भवति मारुतः।
स एव दीपनाशाय कृशे कस्यास्ति सौहृदम।।25।।
जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे।
मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ।।26।।

न विश्वसेत्कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत्।
कदाचित्कुपितं मित्रं सर्वं गुह्यं प्रकाशयेत् ।।27।।

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।28।।

विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गॄहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मॄतस्य ।।29।।
व्यसने मित्रपरीक्षा शूरपरीक्षा रणाङ्गणे भवति।
विनये भॄत्यपरीक्षा दानपरीक्षाच दुर्भिक्षे।।30।।
महाजनस्य संसर्ग: कस्य नोन्नतिकारक:।
पद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम् ।।31।।
माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रतयं हितम् ।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धय:।।32।।
येषां न विद्या न तपो न दानं,
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । 
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, 
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।33।।
अन्यायोपार्जितं वित्तं दस वर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते चैकादशेवर्षे समूलं तद् विनश्यति।।34।।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।35।।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।36।।

काक चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा तथैव च।
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।37।।

ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्।।38।।

अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।39।।

वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं।।40।।

श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वान्हे चापरान्हिकम्।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम्।।41।।

यस्तु संचरते देशान् यस्तु सेवेत पण्डितान्।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि।।42।।

प्रदोषे दीपक : चन्द्र:,प्रभाते दीपक:रवि:।
त्रैलोक्ये दीपक:धर्म:,सुपुत्र: कुलदीपक:।।43।।

प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात तदैव वक्तव्यम वचने का दरिद्रता।।44।।
कृते प्रतिकृतं कुर्यात्ताडिते प्रतिताडितम्।
करणेन च तेनैव चुम्बिते प्रतिचुम्बितम्।।45।।

परस्वानां च हरणं परदाराभिमर्शनम्।
सचह्रदामतिशङ्का च त्रयो दोषाः क्षयावहाः।।46।।

यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत्।।47।।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।।48।।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते।।49।।

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति।।50।।

दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन।
मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:।।51।।

हस्तस्य भूषणं दानं, सत्यं कंठस्य भूषणं।
श्रोतस्य भूषणं शास्त्रमं,भूषनै:किं प्रयोजनम।।52।।
दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि।
एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते।।53।।

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं।
लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति।।54।।

अपि मेरुसमं प्राज्ञमपि शुरमपि स्थिरम्।
तृणीकरोति तृष्णैका निमेषेण नरोत्तमम्।।55।।

अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम्।।56।।

न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु:।
व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा।।57।।

न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।58।।

मातृवत परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्टवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पण्डितः।।59।।

धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा।
मित्राणाम् चानभिद्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः।।60

शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः।
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा।।61।।

काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम_।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।62।।

पृथ्वियां त्रीणि रत्नानि जलमन्नम सुभाषितम_।
मूढ़े: पाषाणखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।63।।

उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये।
पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनम्।।64।।

न स्वल्पस्य कृते भूरि नाशयेन्मतिमान् नरः।
एतदेवातिपाण्डित्यं यत्स्वल्पाद् भूरिरक्षणम्।।65।।

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।66।।

भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात अपि गरीयसी।।67।।

अग्निना सिच्यमानोऽपि वृक्षो वृद्धिं न चाप्नुयात्।
तथा सत्यं विना धर्मः पुष्टिं नायाति कर्हिचित्।।68।।

शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिं न गजे गजे।
साधवो नहि सर्वत्र,चंदन न वने वने।।69।।

विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्।।70।।

सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।।71।।
न विना परवादेन रमते दुर्जनोजन:।
काक:सर्वरसान भुक्ते विनामध्यं न तृप्यति।।72।। प्रथमेनार्जिता विद्या द्वितीयेनार्जितं धनं।
तृतीयेनार्जितः कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यति।।73।।
नन प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति ।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: ॥74।।सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्।सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।75।।
आयुर्वित्तं गृहच्छिद्रं मन्त्रमैथुनभेषजम्।दानमानापमानं च नवैतानि सुगोपयेत्।।76।।
मूर्खा यत्र न पूज्यते धान्यं यत्र सुसंचितम्।
दंपत्यो कलहं नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागतः।।77।।नीरक्षीरविवेके हंस आलस्यं त्वं एव तनुषे चेत।विश्वस्मिन अधुना अन्य:कुलव्रतम पालयिष्यति क:।।
अबन्धुर्बन्धुतामेति नैकट्याभ्यासयोगतः।यात्यनभ्यासतो दूरात्स्नेहो बन्धुषु तानवम्।।79।।यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निर्घषणच्छेदन तापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।80।।
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।81।।
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमभ्येति नापरीक्ष्य च विश्वसेत्।।82।।ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय।।83।।
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र दैवं सहायकृत्।।84।।
अष्टादस पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।85।।
सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः।सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्।।86।।
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः।
यत्रतास्तु न पूज्यंते तत्र सर्वाफलक्रियाः।।87।।अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्।अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम्।।88।।अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्।उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।89।।
स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान्सर्वत्र पूज्यते।।90।।दशकूपसमा वापी दशवापीसमा हृदः।
दशहृसमः पुत्रों दशपुत्रसमो द्रुमः ।।91।।
कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम्।।92।।अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ।।93।।आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण,
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्ध भिन्ना ,
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ।।94।।
चन्दनं शीतलं लोके,चन्दनादपि चन्द्रमाः ।चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।95।।
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति,
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः ।
आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः ,
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेया  ।।96।।
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु,
हंसा महीमण्डलमण्डनाय ।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां ,
 येषां  मरालैः सह विप्रयोग।।97।।
क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत् ।
 क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ।।98।।वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ।।99।।आहारनिद्राभयमैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो 
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥100।।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।।101।।दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
 उष्णो दहति चांगारः शीतः कृष्णायते करम॥102।।पिबन्ति नद्याः स्वयमेव नाम्भः,
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा ।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः ,
परोपकाराय सतां विभूतयः ।।103।।
शान्तितुल्यं तपो नास्ति तोषान्न परमं सुखम्।
नास्ति तृष्णापरो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः॥104।।अन्नदानं परं दानं विद्यादानमतः परम्।
अन्नेन क्षणिका तृप्तिः यावज्जीवं च विद्यया॥105।।गुणवन्तः क्लिश्यन्ते प्रायेण_ भवन्ति निर्गुणाः  सुखिनः। 
बन्धनमायान्ति शुकाःयथेष्टसंचारिणः काकाः।106।नास्ति विद्यासमं चक्षुः नास्ति सत्यसमं तपः।
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्।107।।अपूर्वः कोऽपि कोशोड्यं विद्यते तव भारति।
व्ययतो वृद्धि मायाति क्षयमायाति सञ्चयात्।108।।न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्ययेकृतेवर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशु:।।
मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते
कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिं
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥111।।

गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो,
बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः ।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायस:,
करी च सिंहस्य बलं न मूषकः ॥112।।

सेवितव्यो महावृक्षः फलच्छायासमन्वितः ।
यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन_निवार्यते ॥113।।

संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ।
उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा ॥114।।

विचित्रे खलु संसारे नास्ति किञ्चिन्निरर्थकम् ।
अश्वश्चेद् धावने वीरः भारस्य वहने खरः ॥115।।

सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते ।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ।।116।।

सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ।।117।।

पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः ।
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः ।।

अकीर्तिं विनयो हन्ति हन्त्यनर्थं पराक्रमः ।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम् ।।119

सर्वं परवशं दु:खं  सर्वं आत्मवशं सुखम_।
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुख-दु:खयो:।।120

कलहान्तानि हम्र्याणि कुवाक्यानां च सौहृदम् ।
कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मांन्तम् यशोनॄणाम्।।121

दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत् ।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥122।।

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्।।123।।

खल: सर्षपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥124।।

दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तॄतीया गतिर्भवति॥125

यादॄशै: सन्निविशते यादॄशांश्चोपसेवते ।
यादॄगिच्छेच्च भवितुं तादॄग्भवति पूरूष: ॥126।।

पदाहतं सदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति ।
स्वस्थादेवाबमानेपि देहिनस्वद्वरं रज: ॥127।।

सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो यत्र निवॄति: ।
तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते ॥128।।

आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म ।
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे:।।129।।

आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते ।
नीयते तद् वॄथा येन प्रमाद: सुमहानहो ॥130।।

योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका ।
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति ॥131।।

आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला ।
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत् ॥132।

परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नॄणाम्।

 धर्मे स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित् सुमहात्मन:।।133।।

उष्ट्राणां च विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा: ।

परस्परं प्रशंसन्ति अहो रुपमहो ध्वनि:।।134।।

ऊँटों के विवाह में गधे गाना गा रहे हैं। दोनों एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं।गधा ऊँट  की प्रशंसा में कहता है वाह ! क्या रुप है?ऊँट गधे की प्रशंसा में कहता है वाह! क्या आवाज है?वास्तव मे देखा जाए तो ऊँटों में  सौंदर्य के कोई लक्षण नहीं होते हैं और न  ही  गधों में अच्छी आवाज के। परन्तु कुछ लोग  उत्तम क्या है ? जानते ही नहीं और जो प्रशंसा करने योग्य नहीं है उसकी प्रशंसा करते हैं उन्हीं पर यह बहुत ही सटीक सूक्ति है।

आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं

 समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामा यं प्राविशन्ति सर्वे

 स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥135।।

न प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति ।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: ॥136।।

हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पंडितम् ॥137।।

एका केवलमर्थसाधनविधौ सेना शतेभ्योधिका नन्दोन्मूलन दॄष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम॥138

दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम् ।
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम् अविजानताम् ॥139।

अनालस्यं ब्रह्मचर्यं शीलं गुरुजनादरः ।

स्वावलम्बः दृढाभ्यासः षडेते छात्र सद्गुणाः ॥140।।

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।

अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ।।141।।

रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।

विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥142।।

मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥143।।

अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥144।।


                     ।।धन्यवाद।।

मंगलवार, 2 अगस्त 2022

मृत्युंज्यस्तोत्रं/भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी

                    ।।विनियोग।।

ॐ अस्य श्री सदाशिवस्तोत्र मन्त्रस्य मार्कंडेय ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः श्री साम्ब सदाशिवो देवता गौरी शक्ति: मम सर्वारिष्ट निवृत्ति पूर्वक शरीरारोग्य सिद्धयर्थे मृत्युंज्यप्रीत्यर्थे च पाठे विनियोग:॥

              ॥ अथ ध्यानम्‌ ॥
चंद्रार्काग्नि विलॊचनं स्मितमुखं पद्मद्वयांत: स्थितं
मुद्रापाशमृगाक्ष सूत्रविलसत्पाणिं हिमांशुप्रभम्‌ ।
कॊटींदुप्रगलत्‌ सुधाप्लुततनुं हारातिभूषॊज्वलं
कांतां विश्वविमॊहनं पशुपतिं मृत्युंजयं भावयॆत्‌।।
                 ।।पाठ।।
ॐरत्नसानुशरासनं रजताद्रिश्रृंगनिकेतनं शिण्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युतानलसायकम्।
क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदशालयैरभिवन्दितं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम: ।।
पंचपादपपुष्पगन्धिपदाम्बुजव्दयशोभितं भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम्।
भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशिनं भवमव्ययं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम: ।।
मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोहरं पंकजासनपद्मलोचनपूजिताड़् घ्रिसरोरुहम्।
देवसिद्धतरंगिणीकरसिक्तशीतजटाधरं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम: ।।
कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वर कुण्डलं वृषवाहनं नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम्।
अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं शमनान्तकं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजंगविभूषणं शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम्।
क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम्।
भुक्तिमुक्तिफलप्रदं निखिलाघसंघनिबर्हणं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
भक्तवत्सलमर्चतां निधिमक्षयं हरिदम्बरं सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनूपमम्।
भूमिवारिनभोहुताशनसोमपालितस्वाकृतिं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं संहरन्तमथ प्रपंचमशेषलोकनिवासिनम्।
क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमावृतं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।

ॐ रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकण्ठमुमापतिम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥नीलकण्ठं विरुपाक्षं निर्मलं निर्भयं प्रभुम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥कालकण्ठं कालमूर्तिं कालज्ञं कालनाशनम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥वामदेवं महादेवं शंकरं शूलपाणिनम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥
देव देवं जगन्नाथं देवेशं वृषभध्वजम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥गंगाधरं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥
भस्म धूलित सर्वांगं नागाभरण भूषितम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥आनन्दं परमानन्दं कैवल्य पद दायकम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो  मृत्यु: करिष्यति॥स्वर्गापवर्गदातारं सृष्टि स्थित्यंत कारणम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥प्रलय स्थिति कर्तारमादि कर्तारमीश्वरम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥
           ।।।फलश्रुति।।
मार्कंडॆय कृतं स्तॊत्रं य: पठॆत्‌ शिवसन्निधौ ।
तस्य मृत्युभयं नास्ति न अग्निचॊरभयं क्वचित्‌ ॥ शतावृतं प्रकर्तव्यं संकटॆ कष्टनाशनम्‌ ।
शुचिर्भूत्वा पठॆत्‌ स्तॊत्रं सर्वसिद्धिप्रदायकम्‌ ॥ 
मृत्युंजय महादॆव त्राहि मां शरणागतम्‌ ।
जन्ममृत्यु जरारॊगै: पीडितं कर्मबंधनै: ॥ 
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्व च्चित्तॊऽहं सदा मृड ।
इति विज्ञाप्य दॆवॆशं त्र्यंबकाख्यममं जपॆत्‌ ॥ 
नम: शिवाय सांबाय हरयॆ परमात्मनॆ ।
प्रणतक्लॆशनाशाय यॊगिनां पतयॆ नम: ॥ 
मार्कण्डेय कृतंस्तोत्रं यः पठेच्छिवसन्निधौ।
तस्य मृत्युभयं नास्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम्॥सत्यं सत्यं पुन: सत्यं सत्यमेतदि होच्यते।
प्रथमं तु महादेवं द्वितीयं तु महेश्वरम॥
तृतीयं शंकरं देवं चतुर्थं वृषभध्वजम्।
पंचमं शूलपाणिंच षष्ठं कामाग्निनाशनम्॥
सप्तमं देवदेवेशं श्रीकण्ठं च तथाष्टमम्।नवममीश्वरं चैव दशमं पार्वतीश्वरम्॥
रुद्रं एकादशं चैव द्वादशं शिवमेव च।
एतद् द्वादश नामानि त्रिसन्ध्यं य: पठेन्नरः॥ब्रह्मघ्नश्च कृतघ्नश्च भ्रूणहा गुरुतल्पग:।
सुरापानं कृतघन्श्च आततायी च मुच्यते॥
बालस्य घातकश्चैव स्तौति च वृषभ ध्वजम्।मुच्यते सर्व पापेभ्यो शिवलोकं च गच्छति।।
         ।।इति श्री मार्कण्डेयकृतं             मृत्युंज्यस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।
  ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।

     शिवजी की ये  मंत्र प्रसिद्ध हैं पहला पंचाक्षर मन्त्र ।।ॐ नम: शिवाय।। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ।।ॐ ह्रौं जू सः ॐ भूः भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌ उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जू ह्रौं ॐ ॥  इनके अलावा शिवजी केअन्य तंत्र- मंत्र भी हैं।

                         ।।धन्यवाद।।

श्री शिव अभिलाषाष्टक स्त्रोत्र/पुत्र प्राप्ति एवं सर्व कार्य प्रदाता शिव अभिलाष्टक स्तोत्र

श्री शिव अभिलाषाष्टक स्त्रोत्र

इस अभिलाषाष्टक नामक पवित्र स्तोत्र को तीनों समय भगवान शिव के समीप यदि पढ़ा जाय तो यह सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाला है । इस स्तोत्र का पाठ पुत्र,पौत्र और धन देनेवाला, सब प्रकार की शान्ति करनेवाला और सम्पूर्ण आपत्तियों का नाशक है । इतना ही नहींयह स्वर्गमोक्ष तथा सम्पत्ति देनेवाला भी है । एक वर्ष तक पाठ करने पर यह स्तोत्र पुत्रदान करनेवाला है, इसमें संदेह नहीं है। ऐसा स्वयं महादेवजी का कथन है ।

एकं ब्रह्मैवाद्वितीयं समस्तं
सत्यं सत्यं नेह नानास्ति किञ्चित्।
एको रुद्रो न द्वितीयोsवतस्थे
तस्मादेकं त्वां प्रपद्ये महेशम् ॥१॥
एकः कर्ता त्वं हि सर्वस्य शम्भो
नाना रूपेष्वेकरूपोsस्यरूपः ।
यद्वत्प्रत्यस्वर्क एकोsप्यनेकस्
तस्मान्नान्यं त्वां विनेशं प्रपद्ये ॥२॥
रज्जौ सर्पः शुक्तिकायां च रूप्यं
नीरः पूरस्तन्मृगाख्ये मरीचौ ।
यद्वत्तद्वत् विश्वगेष प्रपञ्चौ,
यस्मिन् ज्ञाते तं प्रपद्ये महेशम् ॥३॥
तोये शैत्यं दाहकत्वं च वह्नौ
तापो भानौ शीत भानौ प्रसादः ।
पुष्पे गन्धो दुग्धमध्ये च सर्पिः
यत्तच्छम्भो त्वं ततस्त्वां प्रपद्ये ॥४॥
शब्दं गृहणास्यश्रवास्त्वं हि जिघ्रेः
घ्राणस्त्वं व्यंघ्रिः आयासि दूरात् ।
व्यक्षः पश्येस्त्वं रसज्ञोऽप्यजिह्वः
कस्त्वां सम्यग् वेत्त्यतस्त्वां प्रपद्ये ॥५॥
नो वेदस्त्वां ईश साक्षाद्धि वेद
नो वा विष्णुर्नो विधाताखिलस्य ।
नो योगीन्द्रा नेन्द्र मुख्याश्च देवा
भक्तो वेद त्वामतस्त्वां प्रपद्ये ॥६॥
नो ते गोत्रं नेश जन्मापि नाख्या
नो वा रूपं नैव शीलं न तेजः ।
इत्थं भूतोsपीश्वरस्त्वं त्रिलोक्याः
सर्वान् कामान् पूरयेस्तद् भजे त्वाम्॥७॥
त्वत्तः सर्वं त्वं हि सर्वं स्मरारे
त्वं गौरीशस्त्वं च नग्नोsतिशान्तः ।
त्वं वै वृद्धः त्वं युवा त्वं च बालः
तत्किं यत्त्वं नास्यतस्त्वां नतोsस्मि ॥८॥

"इति श्री शिव अभिलाषाष्टक स्त्रोत्र संपूर्ण:"
नोट:-अतः संतान इच्छुक मनुष्य को विधिवत् यम नियमों का पालन करते हुए आठ श्लोकों वाले स्तोत्र के नित्य 108 पाठ एक वर्ष तक करने चाहिये। माता-पिता दोनों संयुक्त साधना करें तो शीघ्र कार्य सिद्ध होता है।
                 ।। धन्यवाद।।

बुधवार, 20 जुलाई 2022

√।।मैना के पर्यायवाची शब्द।।

    ।।मैना के पर्यायवाची शब्द।।
       (एक चौपाई में 11 पर्याय)
 कहें   चित्रपादा चित्रलोचना ।
 चित्राक्षि चित्रनेत्रा त्रिलोचना।।
 सारिका कलहप्रिया हि मदना। 
 सारी       मधुरालापा    मैना।।
इस चौपाई का पहला पद कहें और नवाँ पद हि पद पूर्ति के लिए आये हैं शेष सभी ग्यारह पद मैना के पर्याय हैं।
                 ।।   धन्यवाद   ।।  

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

।।गुरु के पर्यायवाची शब्द।।

 गुरु के पर्यायवाची शब्द – 
    (तीन सोरठे में 31 पर्याय)
शिक्षक आचार्य धीर ,बुद्धिमान विद्वान विज्ञ।
धीमान ब्राह्मण विप्र,विशेषज्ञ मर्मज्ञ प्रज्ञ सुज्ञ।।
ज्ञानी बुध मुदर्रिस ,उपाध्याय कथावाचक।
शास्त्रवेत्ता शास्त्रज्ञ,कोविद धीर अध्यापक।।
सुधी मनीषी  श्रेष्ठ ,व्याख्याता और पंडित।
गुरु द्विज उस्ताद सब, करें सदा हमें मंडित।।
            ।।धन्यवाद।।


रविवार, 26 जून 2022

।।गोस्वामी तुलसीदास समग्र विवेचन।।

             ।।गोस्वामी तुलसीदास।।
जन्म-स्थानऔर जन्म समय
    कविकुल कमल कलाधर भक्तशिरोमणि, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम परम पिता परमेश्वर के अनन्य भक्त,हिन्दी की बिन्दी को चटकीला बनाने वाले,माता हुलसी सुत तुलसी का सम्पूर्ण जीवन काल और जीवन कथा अद्भुत विविधता पूर्ण रहा।श्रीबेनीमाधव प्रणीत मूल गोसाई चरित तथा महात्मा रघुवरदास रचित तुलसीचरित में तुलसीदासजी का जन्म विक्रमी संवत् 1554 (सन् 1497 ई०) बताया जाता है। श्रीबेनीमाधवदास की रचना में गोस्वामी जी की जन्म तिथि श्रावण शुक्ल सप्तमी का उल्लेख है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित दोहा प्रसिद्ध है—
पन्द्रह सौ चौवन बिसै, कालिंदी के तीर।
श्रावण सुक्ला सप्तमी, तुलसी धरयो शरीर।।

        परन्तु जन श्रुतियों एवं सर्वमान्य तथ्यों के अनुसार   संवत 1589 (सन् 1532 ई०) राज्य उत्तर प्रदेश, क्षेत्र बुन्देलखण्ड  जिला चित्रकूट अब बांदा के अंतर्गत एक राजापुर गाँव है, वहाँ सरयूपारीण ब्राह्मण पिता पंडित आत्माराम दुबे एवं माता हुलसी के अद्भुत पुत्र  तुलसी का जन्म हुआ था।
इस सर्वमान्य तथ्य को परम श्रद्धेय पूज्यपाद गुरुदेव श्री राजेश्वरानंदजी ने अपनी अमृतमयी वाणी में इस प्रकार व्यक्त किया है:-
चित्रकूट सामिप्य प्राप्त पुर राजापुर अति पावन।रवितनुजा के तीर भूमि बुंदेलखंड मनभावन।
प्रगटे जहाँ जन्म ले तुलसी धन्य भई माँ हुलसी।
गुन गायक सीता रामजी के।।

प्रारम्भिक जीवनः-

आप पधारे रंगे हुवे श्रीराम भक्ति के रंग में।खुली आपकी वाणी पहली बार जन्म के संग में।मुख से भई मधुर धुनि राम-राम कोकिल सी।गुन गायक सीता रामजी के।।

आँख दिखाकर दुष्ट विधर्मी भक्त जनों को डाटे।किसके मुँह में दाँत जो बात हमारी काटे।

प्रगटे दाँत लेकर बत्तीस मची हलचल सी।

गुन गायक सीता रामजी के।।

   गुरुदेव राजेश्वरानंदजी के उक्त विचार और प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक माँ के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में बत्तीस दाँत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला रखा गया। रामबोला के जन्म के दूसरे ही दिन माँ का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ/ मुनिया नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।

  स्वयं तुलसी ने लिखा है कि वे बाल्यकाल से ही माता-पिता द्वारा परित्यक्त कर दिये गये तथा संतत्प एवं अभिशप्त की तरह इधर-उधर घूमा करते थे—

मातु पिता जग जायि तज्यो, विधि हूँ न लिख्यो कछु भाल भलाई।
बारे ते ललात बिलतात द्वार द्वार दीन, चाहत हौं चारि फल चारि ही चनक कौं।

    परन्तु समय सदा एक सा नहीं रहता, प्रभु कृपा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूँढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा तदुपरान्त वे उसे अयोध्या(उत्तर प्रदेश) ले गये और वहाँ  माघ शुक्ला पंचमी (शुक्रवार) को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पाँच  संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। वह एक ही बार में गुरु-मुख से जो सुन लेता, उसे वह कंठस्थ हो जाता। गुरु-शिष्य  शूकरक्षेत्र (सोरों) में कुछ दिन रहे जहाँ नरहरि बाबा ने शिष्य को राम-कथा सुनायी किन्तु वह उसे भली-भाँति समझ न आयी।जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है--
मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥
तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥

        समय करवट लेता रहा ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोडी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। एक बार तुलसीराम ने भयंकर अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में जा पहुँचे।

पहुँच प्रिया के सन्मुख तुलसी खड़े थे खोये-खोये।

रत्ना बोली मैं तो जागी आप अभी तक सोये।

त्यागो काम राम की भक्ति करो मेरे मनसी।

गुन गायक सीता रामजी के।।

सदगुरू चक्रवर्ति सुचि सरल संत श्री तुलसी।

सुनकर शुभ संदेश आपके मन में भाव भर आया।

प्रभु पद प्रीति प्रेरणादायिनी देवी को शीश नवाया।

चल दिये राम दरस हित लगन बड़ी आकुल सी।

गुन गायक सीता रामजी के।

 रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने लोक-लाज के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को तुलसीदास बना दिया। रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है:

लाज न आवत आपको , दौरे आयउ साथ।
धिक – धिक ऐसे प्रेम को, कहाँ कहौं मैं नाथ।।
अस्थि चर्म मय देह मम, तामें ऎसी प्रीति।
तैसी जो श्री राम में, होति न तब भवभीति ।।

देवी रत्नावली की बातों को सुनते ही उन्होंने उसी समय पत्नी को वहीं उसके पिता के घर छोड़ दिया और राम में लीन हो गये।लगभग 20 वर्षों तक इन्होंने समस्त भारत का व्यापक भ्रमण किया, जिससे इन्हें समाज को निकट से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। ये कभी काशी, कभी अयोध्या और कभी चित्रकूट में निवास करते रहे। अधिकांश समय इन्होंने काशी में ही बिताया।इसी बीच गोस्वामी तुलसीदास जी ने पूज्य गुरु नरहरिदास से सुनी कथा को मानव कल्याण हेतु महाकव्य रामचरितमानस का रुप दिया। काशी के सुप्रसिद्ध विद्वान श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित ने रामचरितमानस पर  बड़ी प्रसन्नता प्रकट किया और मानस के बारे में यह अद्भुत विचार व्यक्त किया--

आनन्दकानने ह्यास्मिंजंगमस्तुलसीतरुः।
कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥


 श्री हनुमानजी से भेट

         गोस्वामीजी काशी में रहकर जनता को राम-कथा सुनाने लगे। ऐसी  प्रसिद्ध किंवदंती  है कि कथा के दिनों रात्रि को शौच के बाद जब तुलसीदासजी लौटते थे उस समय उनके रास्ते में एक पेड़ था वहाँ किंचित ठहरते और लोटे के बचे जल को उस पेड़ के जड़ पर डाल देते ,उस पेड़ पर एक प्रेत रहता था, एक दिन मनुष्य की आवाज में  प्रेत  ने अपनी व्यथा कथा कहा और तुलसीदासजी से  वरदान माँगने को कहा। गोस्वामीजी ने उससे राम से मिलाने का आग्रह किया तो उसने अपनी मजबूरी  बतायी ।लेकिन राम से जो उन्हें मिलवा सकता है उनके बारे में बताने की ने बात की। ओ कौन   हनुमानजी। हनुमानजी कहाँ मिलेगें उसने  पता बतलाया।

यत्र यत्र रघुनाथ कीर्तनं 

तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्। 

वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं 

मारुतिं नमत राक्षसान्तकम्

।।राम चरित सुनिबे को रसिया।। 

अगला प्रश्न हम पहचानेगे कैसे- प्रेत ने बताया जो कथा में सबसे पहले आये सबसे बाद में जाये  वही हनुमानजी हैं।एक स्थान पर कथा शुरु होने वाली रही गोस्वामी जी पहुँचे,वहाँ पहले से एक कोढ़ी बैठा हुवा था ,कथा समाप्ति तक वह वही रहा ,सभी चले गये दो नहीं।गोस्वामी जी से कोढ़ीने जाने का निवेदन किया पर गोस्वामीजी ने उनसे निवेदन किया ,दोनों एक दूसरे से   निवेदन करते रहें अचानक गोस्वामी जी कोढ़ी के पैरों पर गिर गये कोढ़ी उन्हें हटाने लगा तब गोस्वामीजी ने निवेदन किया मैं आपको पहचान गया हूँ कृपया आप अपने मूल रुप का दर्शन देवें--फिर क्या-/

कंचन बरन बिराज सुबेसा।

कानन कुण्डल कुंचित केसा।

हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजे।

काँधे मूँज जनेऊ साजे।।

  हनुमान ‌जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्री राम का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्‌जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में दर्शन होंगें।" इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।

भगवान श्री राम से भेट

चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि एकाएक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमानजी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।

संवत्‌ 1607 की मौनी अमावश्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान  पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?"

मंदाकिनी तट रामघाट पर प्रगटे दशरथ नंदन।

बोले मधुर वाणी में धनुर्धर बाबा दे दे चंदन।

सुनकर दशा आपकी भई बहुत विह्वल सी।

सदगुरू चक्रवर्ति सुचि सरल संत श्री तुलसी।

श्री रघुवीर खड़े है सन्मुख तुलसी क्यों है रोता।

सफल करो दृग हनुमानजी बोले बनकर तोता।

शोभा रामचन्द्र की देखो नित्य नवल सी।

 हनुमान ‌जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:

चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥

तुलसीदास भगवान श्री राम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।। इस प्रकार  बाबा को भगवान के दर्शन हुवे।चित्रकूट में राम घाट पर तोतामुखी  हनुमानजी का मन्दिर और तुलसीदासजी का मन्दिर इस घटना के साक्षी हैं।

रचनाएँ

नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित निम्न ग्रन्थ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विरचित बताये जाते हैं--

1-रामचरितमानस 2-रामलला नहछू 3-वैराग्य-संदीपनी 4-बरवै रामायण 5-पार्वती-मंगल 6-जानकी-मंगल    7-रामाज्ञाप्रश्न 8-दोहावली  9-कवितावली              10-गीतावली 11-श्री कृष्ण गीतावली                    12-विनय पत्रिका 13-सतसई  14-छंदवाली          15-हनुमान बाहुक 16-हनुमान चालीसा आदि।

एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स' में ग्रियर्सन ने भी उपर्युक्त प्रथम बारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है।


साहित्य में स्थान :-

  सैकड़ो वर्ष पूर्व आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है - पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्णयति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है।

    वास्तव में तुलसीदासजी हिंदी – साहित्य की महान विभूति है ।उन्होंने रामभक्ति की मंदाकिनी प्रवाहित करके जन – जन का जीवन कृतार्थ कर दिया |  रस,भाषा, छन्द, अलंकार, नाटकीयता , संवाद – कौशल आदि सभी दृष्टियों से तुलसी का काव्य अद्वितीय है ।उनके साहित्य में रामगुणगान , भक्ति – भावना , समन्वय , शिवम् की भावना आदि अनेक ऐसी विशेषताएं देखने को मिलती है , जो उन्हें महाकवि के आसन पर प्रतिष्ठित करती है ।इनका सम्पूर्ण काव्य समन्वयवाद की विराट चेष्ठा है । ज्ञान की अपेक्षा भक्ति का राजपथ ही इन्हें अधिक रुचिकर लगता है।

तभी तो श्रीबेनीमाधव ने लिखा है---

बेदमत सोधि-सोधि कै पुरान सबै , संत औ असंतन को भेद को बतावतो ।

कपटी कुराही कूर कलिके कुचाली जीव, कौन रामनामहू की चरचा चलावतो ॥

बेनी कवि कहै मानो-मानो हो प्रतीति यह , पाहन-हिये में कौन प्रेम उपजावतो ।

भारी भवसागर उतारतो कवन पार, जो पै यह रामायन तुलसी न गावतो ॥

गोस्वामी तुलसीदास जी एक ऐसी महान विभूति जिनको पाकर कविता-कामिनी धन्य हो गयी तभी तो महाकवि हरिऔधजी ने  लिखा है---

कविता करके तुलसी न लेस ।

कविता लसी पा तुलसी की कला ।।

हिंदी साहित्य के कवियों के नाम आते हैं तो श्रेष्ठता का एक प्रश्न भी उठ खड़ा होता है. इस श्रेष्ठता के प्रश्न को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक दोहे से दूर करने की कोशिश की थी.

 सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केशवदास।

अबके कवि खद्योत सम जह-तह करत प्रकाश॥

मृत्यु

    तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। यह तथ्य सर्वमान्य है कि संवत्‌ 1680 (सन् 1623 ई०)  में सावन कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में निम्न दोहा भी प्रचलित है –

 संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर ।
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर।।

इस प्रकार  मानवता और समरसता का पुजारी हिन्दी साहित्य गगन का मार्तण्ड सदा सदा के लिए गोलोक अस्ताचल को अपना निवास बना लिया।


                ।।जय श्री राम।।


शुक्रवार, 24 जून 2022

√।।जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना पर सत्सङ्ग का प्रभाव।।।

  
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥  (1)मति-बुद्धि-सुमति(2)कीरति-कीर्ति-यश,(3)गति-सद्गति-मुक्ति,(4)भूति-विभूति-गौरवपूर्ण स्वरुप(ऐश्वर्य) और(5) भलाई-कल्याण-सौभाग्य इन पाँच अति महत्वपूर्ण चीजों की या यों कहें संसार में सर्वस्व की प्राप्ति कैसे और किसके प्रभाव से हो सकती है ----
 जानते है रामचरितमानस की इन पंक्तियों के आधार पर:-
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना।।
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
हम तो मनुष्य है यहाँ तो जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना।अर्थात सबकी बात ही कह दी गयी है- इन सभी को जानने के बाद हम मूल प्रश्न का जबाब स्वयं ही पा जायेगे देखते है--
1-(अ)जलचर -जड़- मैनाक पर सत्सङ्ग का प्रभाव
पुराणों के अनुसार इन्द्र से भयभीत मैनाक की रक्षा पवनदेव ने उसे समुद्र अर्थात जल को सौप कर किया था ।अब पवनदेव और समुद्रदेव के सत्सङ्ग के प्रभाव से उसने जब  हनुमानजी माता सीता  की खोज में बिना विश्राम किए आकाश मार्ग से जा रहे थे, तब उनसे अपनी सुंदर चोटी पर विश्राम के लिए निवेदन किया। उसकी बातें सुनकर हनुमानजी ने मैनाक को हाथ से छूकर प्रणाम किया । इस प्रकार सत्सङ्ग के प्रभाव से मैनाक पर प्रभु कृपा हुई।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥

1-(आ)जलचर-चेतन 
मकरी पर हनुमानजी के संग से,ग्राह पर गजेन्द्र के संग से,राघवमत्स्य पर कौशल्याजी के संग से प्रभु कृपा हुई।
और तो और सेतु बन्द के समय का दृश्य देखें  जब सभी जलचर कृत कृत्य हो गए-----
देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा।
प्रगट भए सब जलचर बृन्दा।।
2-(अ)थलचर-जड़-बृक्ष वन,पर्वत,तृण आदि पर
श्रीरामजी के संग का प्रभाव तो देखते ही बनता है--
बृक्ष- सब तरु फरे रामहित लागी।
              रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी।।
वन- मंगल रूप भयउ बन तबते।
      कीन्ह निवास रमापति जबसे।।
भूमि वन पंथ पहाड़-
धन्य भूमि बन पंथ पहारा।जहँ जहँ नाथ पाऊँ तुम्ह धारा।।
गुरु अगस्त्य के संग से विंध्याचल को परम पद मिला-
परसि चरन रज अचर सुखारी।भये परम पद के अधिकारी।।
2-(आ)थलचर-चेतन-शबरी,कोल-किरात,भील,पशु,वानर,मानव-विभीषण, शुक आदि पर सत्सङ्ग का प्रभाव अद्भुत है-- 
मतंग ऋषि के संग से शबरी का कल्याण और सद्गति सब जानते ही हैं।
श्री राम जी के संग से कोल-किरात वन्दनीय हो गये--
करि केहरि कपि कोल कुरंगा।बिगत बैर बिचरहिं सब संगा।।
धन्य बिहग मृग काननचारी।सफल जनम भये तुम्हहि निहारी।।
सुग्रीव,विभीषण, शुक को संसार जानता ही है कि सत्संग के प्रभाव से इन्हे कितनी कीर्ति आदि की प्राप्ति हुई।
3-नभचर(अ) जड़ की बात करें
 मेघ, वायु आदि पर  भक्तराज श्रीभरतजी के संग का प्रभाव है--- कि
किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात॥

3-नभचर(आ) चेतन की बात जाननी है तो
कागभुशुण्डिजी से भाग्यशाली कौन जिन पर विप्र और लोमश ऋषि के संग का प्रभाव रहा यही नहीं पंक्षीराज गरुण पर हुवे सत्सङ्ग के प्रभाव को देखें,इन दोनों को अगर छोड़ दे और जटायु तथा सम्पाति पर जो सत्सङ्ग के प्रभाव से ईश्वर कृपा हुई उस पर नजर डाले तो हमें  सहज ही आनन्द प्राप्त होता है।
अगर हम इनको  दूसरे प्रकार से देखें तो हमें और भी आनन्द मिलेगा ही जैसे-जलचर थलचर नभचर जड़ चेतन को क्रम से मिलाते हैं-मति कीरति गति भूति भलाई तो पाते हैं कि यहाँ यथासंख्य क्रमालंकार है
 (1)जहाँ जलचर राघवमत्स्य को माता कौशल्या के संग से मति अर्थात सुमति प्राप्त हुई।
(2) थलचर गजेन्द्र को कीरति मिली और वे अपने गजेन्द्रमोक्ष स्त्रोत्र से अमर हो गये
(3)नभचर जटायु को गति अर्थात सद्गति मिली
(4)जड़ माताअहिल्या जो पत्थर बनी थी उनको भूति मिली अर्थात देवी अहिल्या अपने पति की विभूति को पा गई
(5) चेतन तो असंख्य हैं- उदाहरण के लिए श्री सुग्रीव, जामवन्तजी,हनुमानजी आदि को इतनी भलाई मिली कि स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम परम पिता परमेश्वर श्री राम उनके ऋणी हो गये।
इस प्रकार की पञ्च बिभूति अर्थात संसार में सर्वस्व की प्राप्ति  कैसे?वो सब यही स्पष्ट कर दिया है बाबाजी ने-सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥अर्थात सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है।
और तो और
जो आपन चाहै कल्याना। 
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। 
तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥
अर्थात अगर हम अपना कल्याण चाहते हैं, पंच विभूति  सुजसु सुमति सुभ गति सुख या दूसरे शब्दों में मति कीरति गति भूति भलाई  चाहते है तो हमें 
सो परनारि लिलार गोसाईं। 
तजउ चउथि के चंद कि नाईं।। 
अर्थात पर स्त्री पर कुदृष्टि डालना छोड़ना ही होगा अन्यथा हमारी क्या गति होगी वह भी देख लें--- 
बुधि बल सील सत्य सब मीना।
बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना।।
कामी पुरुष का रावण के समान ऊपर बतायी गयी सभी विभूतियों सहित सर्वस्व  नाश हो जाता है। अगर हमें सभी विभूतियों को प्राप्त करना है और उन्हें बनाये रखना है तो हमें सत्सङ्ग करना होगा क्योंकि
बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। 
सोई फल सिधि सब साधन फूला
आइये हम प्रभु श्रीराम से प्रार्थना करें कि हमें उत्तम सत्संग की प्राप्ति हो और हमारे उनकी कृपा  ऊपर सदा बनी रहे ।
                 ।।जय श्रीराम।।