कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ * हित होई ॥
- कीर्ति, कविता/विद्या और ऐश्वर्य वही अच्छे हैं जो गंगाजीकी तरह सब के लिए हितकर हों।
'सुरसरि सम सब कहँ हित होई' इति । राजा भगीरथने जन्मभर कष्ट उठाकर तपस्या की तब गंगाजीको पृथ्वीपर ला सके, जिससे उनके 'पुरुखा' सगरके ६०,००० पुत्र जो कपिलभगवान् के शापसे भस्म हो गये थे तरे और आजतक सारे जगत्का कल्याण उनके कारण हो रहा है। उनके परिश्रम से पृथ्वीका भी हित हुआ। "धन्य देस सो जहँ सुरसरी" । गंगाजी ऊँच-नीच, ज्ञानी- अज्ञानी, स्त्री-पुरुष आदि सबका बराबर हित करती हैं । 'सुरसरि सम' कहनेका भाव यह है कि कीर्ति भी ऐसी हो जिससे दूसरेका भला हो । यदि ऐसे किसी कामसे नाम प्रसिद्ध हुआ कि जिससे जगत्को कोई लाभ न हो तो वह नाम सराहनेयोग्य नहीं । जैसे---
खुशामद करते-करते रायसाहब इत्यादि कहलाये अथवा प्रजाका गला घोंटने वा काटनेके कारण कोई पदवी
मिल जाय।
इसी तरह कविता/विद्या पवित्र हो अर्थात् रामयशयुक्त हो और सबके लिये उपयोगिनी हो, जैसे गंगाजल सभीके काम आता है। 'कविता' सरल हो, सबकी समझमें आने लायक हो, व्यर्थ किसीकी प्रशंसा के लिये न कही गयी हो, वरन्, "निज संदेह मोह भ्रम हरनी।करउँ कथा भव सरिता तरनी॥"' होते हुए 'सकल जनरंजनी हो ।'भव
सरिता तरनी' के समन हो, सदुपदेशोंसे परिपूर्ण हो । जो ऐश्वर्य मिले तो उससे दूसरोंका उपकार ही करे, धन हो
तो दान करें और अन्य धर्मोके कामोंमें लगावे । क्योंकि 'सो धन धन्य प्रथम गति जाकी ।' धनकी तीन गतियाँ कही
गयी हैं। दान, भोग और नाश ।सो धन धन्य प्रथम गति जाकी ।। 'कीर्ति, भनिति, भूति की समता गंगाजी से देनेका कारण यह है कि तीनों गंगाके समान हैं। कीर्तिका स्वरूप स्वर्गद्वार है और अकीर्तिका नरकद्वार । यथा—
'कीर्त्तिस्वर्गफलान्याहुरासंसारं विपश्चितः ।
अकीर्त्तिं तु निरालोकनरकोद्देशदूतिकाम् ॥
' अर्थात् कीर्ति स्वर्गदायक और अकीर्ति जहाँ सूर्यका प्रकाश नहीं है ऐसे नरककी देनेवाली है। अतएव सबकी चाह कीर्तिकी ओर रहती है। वाणी उसका नाम है जिसके कथनमात्रसे प्राणिमात्रका पाप दूर हो जाय ।
'तद्वाग्विस जनताघविप्लवः' भूति का अर्थ धन है । 'धनाद्धि धर्मः प्रभवति', 'नाधनस्य भवेद्धर्मः '
। पुन:, 'सुरसरि सम...' का भाव कि वेदादिका अधिकार सब वर्णोंको नहीं, प्रयागादि क्षेत्र एकदेशमें स्थित हैं, सबको सुलभ नहीं, इत्यादि और गंगाजी, गंगोत्तरीसे लेकर गंगासागरतक कीट-पतंग, पशु-पक्षी, चींटीसे लेकर गजराजादितक, चाण्डाल, कोढ़ी, अन्त्यज, स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, रंक - राजा, देव-यक्ष-राक्षस आदि सभीका
हित करती हैं। इसी तरह संस्कृत भाषा सब नहीं जानते, अतः इससे गिने चुने लोगों का ही हित है और भाषा सभी
जानते हैं उसमें जो श्रीरामयश गाया जाय तो उससे सबका हित होगा। यह अभिप्राय इसमें गर्भित है ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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