मानस चर्चा "जागबलिक"
जागबलिक जो कथा सुहाई । भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई ॥
कहिहौं सोइ संबाद बखानी।सुनहु सकल सज्जन सुखु मानी।।
याज्ञवल्क्यजी ब्रह्माजीके अवतार हैं। इनकी कथा स्कन्दपुराणके हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्यके प्रसंगमें
इस प्रकार है- किसी समयकी बात है कि ब्रह्माजी राजस्थान राज्य के पुष्कर क्षेत्र में एक यज्ञ कर रहे थे। ब्रह्माजीकी पत्नी सावित्रीजीको आने में देर हुई और शुभ मुहूर्त बीता जा रहा था। तब इन्द्रने एक गोपकन्या /ग्वालिन अर्थात् अहीरिन को लाकर कहा कि
इसका पाणिग्रहणकर यज्ञ आरम्भ कीजिये । पर ब्राह्मणी न होनेसे उसको ब्रह्माने गौके मुखमें प्रविष्टकर है गौ की योनिद्वारा बाहर निकालकर ब्राह्मणी बना लिया; क्योंकि ब्राह्मण और गौका कुल शास्त्रमें एक माना गया है। फिर विधिवत् उसका पाणिग्रहणकर उन्होंने यज्ञारम्भ किया। यही गायत्री है। कुछ देरमें सावित्रीजी वहाँ पहुँचीं और ब्रह्माके साथ यज्ञमें दूसरी स्त्रीको बैठे देख उन्होंने ब्रह्माजीको शाप दिया कि तुम मनुष्यलोकमें जन्म लो और कामी हो जाओ । फिर सरस्वती अपना सम्बन्ध ब्रह्मासे तोड़कर वह तपस्या करने चली गयी । आप प्रमाण प्राप्त करना चाहते हो तो राजस्थान राज्य के पुष्कर क्षेत्र का भ्रमण कर लेवें। मां सावित्री के श्राप के कारण कालान्तरमें ब्रह्माजीने चारणऋषिके यहाँ जन्म लिया ।वहाँ याज्ञवल्क्य नाम हुआ। तरुण होनेपर वे शापवशात् अत्यन्त कामी हुए जिससे पिताने उनको घर से निकाल दिया।पागल-सरीखा भटकते हुए वे चमत्कारपुरमें शाकल्य ऋषिके यहाँ पहुँचे और वहाँ उन्होंने वेदाध्ययन किया। एक समय आनर्त्तदेशका राजा चातुर्मास्यव्रत करनेको वहाँ प्राप्त हुआ और उसने अपने पूजा- पाठके लिये शाकल्यको पुरोहित बनाया। शाकल्य नित्यप्रति अपने यहाँका एक विद्यार्थी राजा के यहां पूजा-पाठ करनेको भेज देते थे, जो
पूजा-पाठ करके राजाको आशीर्वाद देकर दक्षिणा लेकर आता था और गुरुको दे देता था। एक बार
याज्ञवल्क्यजीकी बारी आयी । यह पूजा आदि करके जब मन्त्राक्षत लेकर आशीर्वाद देने गये तब वह राजा विषयमें
आसक्त था, अतः उसने कहा कि यह लकड़ी जो पास ही पड़ी है इसपर अक्षत डाल दो। याज्ञवल्क्यजी अपमान
समझकर क्रोधमें आ आशीर्वादके मन्त्राक्षत काष्ठपर छोड़कर चले गये, दक्षिणा भी नहीं ली । मन्त्राक्षत पड़ते
ही काष्ठ में शाखापल्लव आदि हो आये। यह देख राजाको बहुत पश्चात्ताप हुआ कि यदि यह अक्षत मेरे सिरपर
पड़ते तो मैं अजर-अमर हो जाता। राजाने शाकल्यजीको कहला भेजा कि उसी शिष्यको भेजिये । परन्तु याज्ञवल्क्यजी कहा कि उसने हमारा अपमान किया इससे हम न जायँगे। तब शाकल्यने कुछ दिन और अन्य विद्यार्थियोंको भेजा ।राजा विद्यार्थियोंसे दूसरे काष्ठपर आशीर्वाद छुड़वा देता । परन्तु किसीके मन्त्राक्षतसे काष्ठ हरा-भरा न हुआ । यह देख राजाने स्वयं जाकर आग्रह किया कि याज्ञवल्क्यजीको भेजें, परन्तु इन्होंने साफ जवाब दे दिया । शाकल्यको इसपर क्रोध आ गया और उन्होंने कहा कि -
'एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् ।
पृथिव्यां नास्ति तद्द्द्रव्यं यद्दत्वा चानृणी भवेत् ॥' अर्थात् गुरु जो शिष्यको एक भी अक्षर देता है पृथ्वीमें कोई ऐसा द्रव्य नहीं है जो शिष्य देकर उससे उऋण हो जाय। उत्तरमें याज्ञवल्क्यजीने कहा-
'गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथे वर्तमानस्य परित्यागो विधीयते ॥'
अर्थात् जो गुरु अभिमानी हो, कार्य-अकार्य क्या करना उचित है, क्या नहीं को नहीं जानता हो ऐसे दुराचारीका चाहे वह गुरु ही क्यों न हो परित्याग कर देना चाहिये ।
तुम हमारे गुरु नहीं, हम तुम्हें छोड़कर चल देते हैं। यह सुनकर शाकल्यने अपनी दी हुई विद्या लौटा देनेको
कहा और अभिमन्त्रित जल दिया कि इसे पीकर वमन कर दो। याज्ञवल्क्यजीने वैसा ही किया। अन्नके साथ
वह सब विद्या उगल दी। विद्या निकल जानेसे वे मूढबुद्धि हो गये । तब उन्होंने हाटकेश्वरमें जाकर सूर्यकी
बारह मूर्तियाँ स्थापित करके सूर्यकी उपासना की। बहुत काल बीतनेपर सूर्यदेव प्रकट हो गये और वर माँगनेको
कहा। याज्ञवल्क्यजीने प्रार्थना की कि मुझे चारों वेद सांगोपांग पढ़ा दीजिये। सूर्यने कृपा करके उन्हें मन्त्र बतलाया जिससे वे सूक्ष्म रूप धारण कर सकें और कहा कि तुम सूक्ष्म शरीरसे हमारे रथके घोड़ेके कानमें बैठ जाओ, हमारी कृपासे तुम्हें ताप न लगेगी। मैं वेद पढ़ाऊँगा, तुम बैठे सुनना । इस तरह चारों वेद सांगोपांग पढ़कर सूर्यदेवसे आज्ञा लेकर वे शाकल्यके पास आये और कहा कि हमने आपको दक्षिणा नहीं दी थी, जो माँगिये वह हम आपको दे देगें। उन्होंने सूर्यसे पढ़ी हुई विद्या माँगी। याज्ञवल्क्यजीने वह विद्या उनको दे दी। जिससे वे और अधिक देदीप्यमान हो गए।इनकी दो स्त्रियाँ थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी । कात्यायनीके पुत्र कात्यायन हुए। छन्दोग्य उपनिषद् में इनकी बड़ी महिमा लिखी है। इन्होंनेजनकमहाराजकी सभा में छः मासतक शास्त्रार्थ किया है। ये धर्मशास्त्रादिके प्रधान विद्वान् हैं । भगवान्के ध्यानमें समाधि लगाने में अद्वितीय योगी हैं, इसीलिये इन्हें 'योगियाज्ञवल्क्य' कहते हैं। भगवद्भक्तोंमें प्रधान होनेसे पहले याज्ञवल्क्यका नाम लिया। प्रयागमें ऋषिसभाके बीच प्रथम रामचरित्रके लिये भरद्वाजहीने प्रश्न किया, इसलिये प्रधान श्रोता भरद्वाजका प्रथम नामोच्चारण किया ।मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज को सुनाई थी, वही राम कथा सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए सुनें।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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