दक्षसुतन्ह उपदेसिन्ह जाई ।
तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन्ह घाला ।
कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥
अर्थात् उन्होंने नारदजीने जाकर दक्षके पुत्रोंको उपदेश दिया ( जिससे) उन्होंने दक्ष के पुत्रों ने फिर लौटकर ( घरका मुँह भी) न देखा ॥ चित्रकेतुका घर उन्होंने ही चौपट किया। फिर कनककसिपु (हिरण्यकशिपुकी) भी ऐसी ही दशा की ॥ आखिर यहां चित्रकेतु कौन है उनका घर नारद जी ने कैसे चौपट किया आइए इस पर आज हम चर्चा करते हैं। नारद जी के बारे में इस संदर्भ में इन श्लोकों को देखते हैं।श्लोक ये हैं –
नारदस्तत्र वै ययौ ॥
कूटोपदेशमाश्राव्य तत्र तान्नारदो मुनिः।
तदाज्ञया सर्वे पितुर्न गृहमाययुः ॥
ददौ तदुपदेशं ते तेभ्यो भ्रातृपथं ययुः ।
आययुर्न पितुर्गेहं भिक्षुवृत्तिरताश्च
विद्याधरश्चित्रकेतुर्यो बभूव पुराकरोत्।
स्वोपदेशमयं दत्त्वा तस्मै शून्यं च तद्गृहम्॥
प्रह्लादाय स्वोपदेशान्हिरण्यकशिपोः परम् ।
दत्त्वा दुःखं ददौ चायं परबुद्धिप्रभेदकः ॥ '
अर्थात् दक्षके सुतोंको दो बार ऐसा कूट उपदेश दिया कि फिर वे घर न गये, भिक्षावृत्ति-मार्ग ग्रहण कर लिया। उनके पास स्वयं जाकर उपदेश दिया। विद्याधर चित्रकेतुको वैराग्यका उपदेश देकर उसका घर सूना कर दिया । प्रह्लादको उपदेश देकर हिरण्यकशिपुद्वारा उसे बहुत दुःख पहुँचवाया । अतः वे दूसरोंकी बुद्धिके भेदक हैं।इनकी इसी बल से चित्रकेतु भी भगवान्को प्राप्त हुआ ।
चित्रकेतुका अज्ञान और देहाभिमान इन्होंने मिटाया, हिरण्यकश्यपु नृसिंह भगवान् के दर्शनसे कृतार्थ हुआ।'
अब हम जानते हैं चित्रकेतु की कथा
'चित्रकेतुकी कथा' यह है कि- शूरसेन देशमें चित्रकेतु सार्वभौम राजा था । इसके एक करोड़ रानियाँ थीं-
परंतु न तो कोई पुत्र ही था और न कन्या ही ।
एक दिन श्रीअंगिरा ऋषिजी विचरते हुए राजाके यहाँ आ पहुँचे । राजाने प्रत्युत्थान, पाद्य, अर्घ्यद्वारा पूजनकर
उनका आतिथ्य सत्कार किया । राजासे कुशल प्रश्न करते हुए ऋषिजीने कहा- 'राजन् ! तुम्हारा आत्मा कुछ
असंतुष्ट - सा देख पड़ता है। किसी इष्ट पदार्थकी अप्राप्तिसे दुःखित हो ? तुम चिन्तित - से जान पड़ते हो, क्याकारण है?' राजाने अपना दुखड़ा सुनाया कि 'बिना एक पुत्रके मैं पूर्वजोंसहित नरकमें पड़ रहा हूँ, कृपा करके
वह उपाय कीजिये जिससे पुत्र पाकर दुष्पार नरकसे उत्तीर्ण हो सकूँ।' मुनिने त्वाष्ट्र चरु तैयार कर उससे त्वष्टा
देवताका पूजन कराया और राजाकी ज्येष्ठ और श्रेष्ठ पटरानी कृतद्युतिको उस यज्ञका अवशिष्ट अन्न देकर
कहा 'इसे खा लो' । फिर राजासे कहा कि इससे एक पुत्र होगा, परंतु उससे तुमको हर्ष और शोक दोनों होंगे।
ऋषि यह कहकर चले गये । पुत्र उत्पन्न होनेपर राजाने बहुत दान दिये । पुत्रवती होनेके कारण राजाकी प्रीति
इस - रानीसे बढ़ती गयी जिससे और रानियोंके हृदयमें डाह होने लगा । वे सोचतीं कि हम दासियोंसे भी गयीं
गुजरीं, हमसे अधिक मंदभागिनी कौन होगी। वे सवतका सौभाग्य न देख सकती थी - न सह सकती थीं।
एक बार पुत्र सो रहा था, माता किसी कार्यमें लगी थी। सवतोंने अवसर पाकर बच्चेके ओठोंपर विषका फाया फेर दिया, जिससे उसके नेत्रोंकी पुतलियाँ ऊपर चढ़ गयीं और वह मर गया। इसकी माँको सवतोंके द्वेषका पता भी न था। बहुत देर होनेपर माताने धायसे राजकुमारको जगा लानेको आज्ञा दी, धायने जाकर देखा तो चीख मारकर मूर्छित हो गिर पड़ी। रानी यह देख दौड़ी, कोलाहल मच गया। रानी - राजा दोनोंका शोक उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया,
महाशोकसे विलाप प्रलाप करते हुए वे मोहके कारण मूर्छित हो गये ।ठीक इसी अवसरपर श्रीअंगिराऋषि और नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महर्षि अंगिरा और नारदजी राजाको यों समझाने लगे कि - हे राजाओंमें श्रेष्ठ ! सोचो तो कि जिसके लिये तुम शोकातुर हो वह तुम्हारा कौन है
और पूर्वजन्ममें तुम इसके कौन थे और आगे इसके कौन होगे ? जैसे जलके प्रवाहके वेगसे बालू (रेत) बह-
बहकर दूर-दूर पहुँचकर कहाँ से कहाँ जा इकट्ठा हो जाती है, इसी प्रकार कालके प्रबल चक्रद्वारा देहधारियोंका
वियोग और संयोग हुआ करता है। जैसे बीजमें कभी बीजान्तर होता है और कभी नहीं, वैसे ही मायासे पुत्रादि
प्राणी पिता आदि प्राणियोंसे कभी संयोगको प्राप्त होते हैं और कभी वियोगको । अतएव पिता-पुत्र कल्पनामात्र
हैं। वृथा शोक क्यों करते हो? हम, तुम और जगन्मात्रके प्राणी जैसे जन्मके पूर्व न थे और मृत्युके पश्चात्
न रहेंगे, वैसे ही इस समय भी नहीं हैं । राजाको ज्ञान हुआ, इस प्रकार कुछ सान्त्वना मिलनेपर राजाने हाथसे आँसू पोंछकर ऋषियोंसे कहा – 'आप दोनों अवधूत-वेश बनाये हुए कौन हैं? आप ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं जो हम सरीखे पागलोंको उपदेश देनेके लिये जगत् में विचरते रहते हैं। आप दोनों मेरी रक्षा करें। मैं घोर अन्धकारकूपमें डूबा पड़ा हूँ। मुझे ज्ञान - दीपकका प्रकाश दीजिये ।' अंगिरा ऋषिने दोनोंका परिचय दिया और कहा कि - 'तुम भगवान् के भक्त और ब्रह्मण्य हो, तुमको इस प्रकार शोकमें मग्न होना उचित नहीं । तुमपर अनुग्रह करनेहीको हम दोनों आये हैं। पूर्व जब मैं आया था तब तुमको अन्य विषयोंमें मग्न देख ज्ञानका उपदेश न दे पुत्र ही दिया, अब तुमने पुत्र पाकर स्वयं अनुभव कर लिया कि गृहस्थको कैसा संताप होता
है। स्त्री, घर, धन और सभी ऐश्वर्य सम्पत्तियाँ यों ही शोक, भय, सन्तापको देनेवाली नश्वर और मिथ्या हैं।
ये सब पदार्थ मनके विकारमात्र हैं, क्षणमें प्रकट और क्षणमें लुप्त होते हैं। इनमें सत्यताका विश्वास त्यागकर
शान्ति धारण करो ।' देवर्षि नारदजीने राजाको मन्त्रोपनिषद् - उपदेश किया और कहा कि इसके सात दिन धारण करनेसे संकर्षण- भगवान्के दर्शन होंगे। फिर सबके देखते नारद मुनि मरे हुए राजकुमारके जीवात्मासे बोले- 'हे जीवात्मा ! अपने पिता, माता, सुहृद्, बान्धवोंको देख । वे कैसे संतप्त हैं। अपने शरीरमें प्रवेशकर इनका
संताप दूर कर । पिताके दिये हुए भोगोंको भोगो और राज्यसिंहासनपर बैठो।' लड़का जी उठा और बोला कि -
'मैं अपने कर्मानुसार अनेक योनियोंमें भ्रमता रहा हूँ। किस जन्ममें ये मेरे पिता-माता हुए थे ? क्रमश: सभी
आपसमें एक-दूसरेके भाई, पिता, माता, शत्रु, मित्र, नाशक, रक्षक इत्यादि होते रहते हैं। ये लोग हमें पुत्र मानकर शोक करनेके बदले शत्रु समझकर प्रसन्न क्यों नहीं होते ? जैसे सोना, चाँदी आदिके व्यापारियोंके पास सोना- चाँदी आदि वस्तुएँ आती-जाती रहती हैं, वैसे ही जीव भी अनेक योनियोंमें भ्रमता रहता है। जितने दिन जिसके साथ जिसका सम्बन्ध रहता है उतने दिन उसपर उसकी ममता रहती है। आत्मा नित्य, अव्यय, सूक्ष्म, स्वयंप्रकाशित है। कोई उसका मित्र वा शत्रु नहीं।"
वह जीव फिर बोला कि मैं पांचाल देशका राजा था, विरक्त होनेपर मैं एक ग्राममें गया। इस मेरी माताने भोजन
बनाने के लिये मुझे कण्डा / सुखी लकड़ी दिया, जिसमें अनेकों चीटियाँ थीं, ध्यान दिए बिना मैंने आग लगा दी। वे सब चीटियाँ मर गयीं। मैंने शालग्रामदेवका भोग
लगाकर प्रसाद पाया। वही चीटियाँ मेरी सौतेली माताएँ हुईं। प्रभुको अर्पण होनेसे एक ही जन्ममें सबने मुझसे
बदला ले लिया, नहीं तो अनेक जन्म लेने पड़ते-
'प्रभु राखेउ श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस ।'
अब इस देहसे मेरा सम्बन्ध नहीं।
यह सब माया कर परिवारा।
प्रबल अमिति को बरनै पारा॥
सुत बित लोक ईषना तीनी।
केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥
इतना कह जीव शरीरसे निकल गया। राजाको ज्ञान
प्राप्त हुआ। उसने राज्य छोड़ दिया । नारदमुनिने संकर्षणभगवान्का मन्त्र दिया, स्तुतिमयी विद्या बतायी। सात दिन जप करनेपर शेषभगवान्का दर्शन हुआ। आपको एक विमान मिला, जिसपर चढ़कर आप आकाशमार्गपर घूमते थे। पार्वतीजीके शापसे आप वृत्रासुर हुए। वृत्रासुर के बारे में प्रसंगवश आगे चर्चा होगी।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।
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