बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

सुन्दरकाण्ड

।।श्री गणेशाय नमः।।
 श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
पञ्चम सोपान
सुन्दरकाण्ड
श्लोक
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।1।।
नान्यास्पृहारघुपतेहृदयेऽस्मदीये
सत्यंवदामिचभवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।2।।
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुंज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानंवानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तंवातजातंनमामि।।3।।
जामवंत के बचन सुहाए।सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।
तबलगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।सहि दुख कंद मूल फल खाई।।
जब लगि आवौं सीतहि देखी।होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।
 बार बार रघुबीर सँभारी।तरकेउ पवनतनय बल भारी।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना।।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।तैं मैनाक होहि श्रमहारी।।
दो0- हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।1।।
जात पवनसुत देवन्ह देखा।जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा।।
राम काजु करि फिरि मैं आवौं।सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।।
तब तव बदन पैठिहउँ आई।सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।
कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा।।
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा।।
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मै पावा।।
दो0-राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।2।।
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।।
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें।।
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।
गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।
अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा।।
छं=कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।3।।
दो0-पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।3।।
मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।
पुनि संभारि उठि सो लंका। जोरि पानि कर बिनय संसका।।
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।
बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता।।
दो0-तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।4।।
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही।।
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।।
गयउ दसानन मंदिर माहीं।अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।
सयन किए देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।।
दो0-रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ।।5।।
लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।
मन महुँ तरक करै कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा।।
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।।
बिप्र रुप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।।
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई।।
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी।।
दो0-तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।6।।
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
तामस तनु कछु साधन नाहीं।प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।
दो0-अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।7।।
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।।
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।।
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता।।
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ।।
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।
कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।।
दो0-निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।8।।
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई।।
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा।।
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।।
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी।।
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा।।
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही।।
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।।
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।।
सठ सूने हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।।
दो0- आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन।।9
सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।
नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी।।
स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।।
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।।
चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं।।
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा।।
सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।।
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई।।
मास दिवस महुँ कहा न माना।तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।।
दो0-भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद।।10।।
त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका।।
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना।।
सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।।
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।।
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई।।
यह सपना में कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं।।
दो0-जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच।।11।।
त्रिजटा सन बोली कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी।।
तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई।।
आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई।।
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी।।
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।।
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी।।
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलहि न पावक मिटिहि न सूला।।
देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा।।
पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी।।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका।।
नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना।।
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता।।
सो0-कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब।
जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ।।12।।
तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी।।
जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई।।
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई।।
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कहि सो प्रगट होति किन भाई।
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ।।
राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।
नर बानरहि संग कहु कैसें। कहि कथा भइ संगति जैसें।।
दो0-कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।13।।
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयउ तात मों कहुँ जलजाना।।
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी।।
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता।।
बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।
देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
जनि जननी मानहु जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।
दो0-रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर।।14।।
कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता।।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।
कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं।।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।।
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।।
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई।।
दो0-निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु।।15।।
जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई।।
रामबान रबि उएँ जानकी। तम बरूथ कहँ जातुधान की।।
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।।
मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।।
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा।।
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।
दो0-सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।16।।
मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी।।
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना।।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता।।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी।।
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।
दो0-देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।17।।
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा।।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।।
नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी।।
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।।
सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे।।
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।
दो0-कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।18।।
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना।।
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।
चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा।।
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई।।
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया।।
दो0-ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।19।।
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा।।
तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ।।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए।।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।।
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।
दो0-कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।20।।
कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहिं के बल घालेहि बन खीसा।।
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही।।
मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।।
सुन रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया।।
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा।
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन।।
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता।
हर कोदंड कठिन जेहि भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली।।
दो0-जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।21।।
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई।।
समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।।
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।मारहिं मोहि कुमारग गामी।।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।
बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।
जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई।।
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै।।
दो0-प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।22।।
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम्ह करहू।।
रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।।
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषण भूषित बर नारी।।
राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं।।
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।।
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही।।
दो0-मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।23।।
जदपि कहि कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी।।
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।।
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।।
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना।।
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना।।
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए।
नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता।।
आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई।।
सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर।।
दो–कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ।।24।।
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।।
जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई। देखेउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई।।
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना।।
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना।।
रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।।
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।।
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी।।
पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघु रुप तुरंता।।
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं। भई सभीत निसाचर नारीं।।
दो0-हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।25।।
देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला।।
तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहि अवसर को हमहि उबारा।।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई।।
साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं।।
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।।
उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।।
दो0-पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।26।।
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।।
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ।।
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।।
मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।।
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना।।
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।।
दो0-जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।27।
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी।।
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा।।
हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।।
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा।।
मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी।।
चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा।।
तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए।।
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।।
दो0-जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।28।।
जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई।
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा।।
आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।।
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी।।
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा।।
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई।।
दो0-प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।।29।।
जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रेलोक उजागर।।
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।।
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।।
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।
दो0-नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।30।।
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।।
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी।।
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहि अपराध नाथ हौं त्यागी।।
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा।।
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।।
नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी।
सीता के अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।
दो0-निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।31
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना।।
बचन काँय मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।।
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी।।
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं।।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता।।
दो0-सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।32।।
बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।
सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर।।
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा।।
कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना।।
साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।
दो0-ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल।।33।।
नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।।
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी।।
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना।।
यह संवाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा।।
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा।।
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा।।
अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे।।
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी।।
दो0-कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।34।।
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गरजहिं भालु महाबल कीसा।।
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना।।
राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।।
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना।।
जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती।।
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं।।
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई।।
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहि बानर भालु अपारा।।
नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी।।
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।।
छं0-चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे।।
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं।।1।।
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई।।
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी।।
दो0-एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।35।।
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।जब ते जारि गयउ कपि लंका।।
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।नहिं निसिचर कुल केर उबारा।।
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई।।
दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी।।
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी।।
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहु।।
समुझत जासु दूत कइ करनी। स्रवहिं गर्भ रजनीचर धरनी।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई।।
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।।
दो0–राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।36।।
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी।।
सभय सुभाउ नारि कर साचा।मंगल महुँ भय मन अति काचा।।
जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।।
कंपहिं लोकप जाकी त्रासा।तासु नारि सभीत बड़ि हासा।।
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।चलेउ सभाँ ममता अधिकाई।।
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई।।
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू।।
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।नर बानर केहि लेखे माही।।
दो0-सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।37।।
सोइ रावन कहुँ बनि सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।।
अवसर जानि बिभीषनु आवा।भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा।।
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।बोला बचन पाइ अनुसासन।।
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।मति अनुरुप कहउँ हित ताता।।
जो आपन चाहै कल्याना।सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।।
सो परनारि लिलार गोसाईं।तजउ चउथि के चंद कि नाई।।
चौदह भुवन एक पति होई।भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई।
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।।
दो0- काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।38।।
तात राम नहिं नर भूपाला।भुवनेस्वर कालहु कर काला।।
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।ब्यापक अजित अनादि अनंता।।
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।।
जन रंजन भंजन खल ब्राता।बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।।
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।प्रनतारति भंजन रघुनाथा।।
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।भजहु राम बिनु हेतु सनेही।।
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।।
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन।।
दो0-बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।39(क)।।
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात।।39(ख)
माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना।।
तात अनुज तव नीति बिभूषन।सो उर धरहु जो कहत बिभीषन।।
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ।।
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी।।
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।नाथ पुरान निगम अस कहहीं।।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।।
तव उर कुमति बसी बिपरीता।हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।।
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी।।
दो0-तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।40।।
बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी।।
सुनत दसानन उठा रिसाई।खल तोहि निकट मुत्यु अब आई।।
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा।।
कहसि न खल अस को जग माहीं।भुज बल जाहि जिता मैं नाही।।
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।अनुज गहे पद बारहिं बारा।।
उमा संत कइ इहइ बड़ाई।मंद करत जो करइ भलाई।।
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।रामु भजें हित नाथ तुम्हारा।।
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ।।
दो0=रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मै रघुबीर सरन अबनजाउँ देहु जनि खोरि।।41।।
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं।।
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी।।
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।।
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं।।
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।।
जे पद परसि तरी रिषिनारी। दंडक कानन पावनकारी।।
जे पद जनकसुताँ उर लाए।कपट कुरंग संग धर धाए।।
हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मै देखिहउँ तेई।।
दो0= जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।42।।
एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा।।
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।।
ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए।।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई।।
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।।
जानि न जाइ निसाचर माया।  कामरूप केहि कारन आया।।
भेद हमार लेन सठ आवा।राखिअ बाँधि मोहि अस भावा।।
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।मम पन सरनागत भयहारी।।
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।सरनागत बच्छल भगवाना।।
दो0=सरनागत कहुँ जे तजहिंनिज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।43।।
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।
पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।।
जौं पै दुष्टहदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई।।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
भेद लेन पठवा दससीसा।तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।।
जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।।
जौं सभीत आवा सरनाई। रखिहउँ ताहि प्रान की नाई।।
दो0=उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत।।44।।
सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर।
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।नयनानंद दान के दाता।।
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।।
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।स्यामल गात प्रनत भय मोचन।।
सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा।।
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता।।
नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता।।
सहज पापप्रिय तामस देहा।।जथा उलूकहि तम पर नेहा।।
दो0-श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।45।।
अस कहि करत दंडवत देखा।तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।।
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।बोले बचन भगत भयहारी।।
कहु लंकेस सहित परिवारा।कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।
खल मंडलीं बसहु दिनु राती।सखा धरम निबहइ केहि भाँती।।
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती।।
बरु भल बास नरक कर ताता।दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया।।
दो0-तब लगि कुसल न जीव कहुँसपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।46
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।लोभ मोह मच्छर मद माना।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।धरें चाप सायक कटि भाथा।।
ममता तरुन तमी अँधिआरी।राग द्वेष उलूक सुखकारी।।
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।।
अब मैं कुसल मिटे भय भारे।देखि राम पद कमल तुम्हारे।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा।।
दो0–अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज।।47।।
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही।आवे सभय सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा।तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी।मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसें।लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।
दो0- सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।48।।
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें।।
राम बचन सुनि बानर जूथा।सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।।
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।नहिं अघात श्रवनामृत जानी।।
पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा।।
सुनहु देव सचराचर स्वामी।प्रनतपाल उर अंतरजामी।।
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।
अब कृपाल निज भगति पावनी।देहु सदा सिव मन भावनी।।
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा।।
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं।मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।
दो0-रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड।।49(क)।।
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।49(ख)।
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना।।
निज जन जानि ताहि अपनावा।प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।।
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।सर्बरूप सब रहित उदासी।।
बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक।।
सुनु कपीस लंकापति बीरा।केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।।
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती।।
कह लंकेस सुनहु रघुनायक।कोटि सिंधु सोषक तव सायक।।
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।बिनय करिअ सागर सन जाई।।
दो0-प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।50।।
सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।।राम बचन सुनि अति दुख पावा।।
नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।।
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।।
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।।
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।सिंधु समीप गए रघुराई।।
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।।
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।पाछें रावन दूत पठाए।।
दो0-सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं  सरनागत पर नेह।।51।।
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।।
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने।।
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।अंग भंग करि पठवहु निसिचर।।
 सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।बाँधि कटक चहु पास फिराए।।
बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे।।
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना।।
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोडाए।।
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती।।
दो0-कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार।।52।।
तुरत नाइ लछिमन पद माथा।चले दूत बरनत गुन गाथा।।
कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए।।
बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता।।
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी।  जाहि मृत्यु आई अति नेरी।।
करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जब कर कीट अभागी।।
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई।।
जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी।।
दो0–की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।53।।
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।।
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।।जातहिं राम तिलक तेहि सारा।।
रावन दूत हमहि सुनि काना।कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना।।
श्रवन नासिका काटै लागे।राम सपथ दीन्हे हम त्यागे।।
पूँछिहु नाथ राम कटकाई।बदन कोटि सत बरनि न जाई।।
नाना बरन भालु कपि धारी।बिकटानन बिसाल भयकारी।।
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा।।
अमित नाम भट कठिन कराला।अमित नाग बल बिपुल बिसाला।।
दो0-द्विबिद मयंद नील नलअंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।54।।
ए कपि सब सुग्रीव समाना।इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना।।
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रेलोकहि गनहीं।।
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।पदुम अठारह जूथप बंदर।।
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं।।
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।आयसु पै न देहिं रघुनाथा।।
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला।।
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।।
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका।।
दो0–सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम।।55।।
राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर। तब भ्रातहि पूँछेउ नय नागर।।
तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं।।
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा।।
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।।सागर सन ठानी मचलाई।।
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।।
सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें।।
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।।समय बिचारि पत्रिका काढ़ी।।
रामानुज दीन्ही यह पाती।नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।।
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन।सचिव बोलि सठ लाग बचावन।।
दो0-बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।56(क)।।
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल  खल कुल सहित पतंग।।56(ख)
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई।।
भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा।।
कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।।
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा।।
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।।
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही।।
जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे।
जब तेहिं कहा देन बैदेही।चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।।
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।।
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई।।
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।।
बंदि राम पद बारहिं बारा।मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा।।
दो0-बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।57।।
लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती।।
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी।।
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा।।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा।।
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला।उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
मकर उरग झष गन अकुलाने।जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना।।
दो0-काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।58।।
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी।इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जसअहई। सो तेहि भाँति रहे सुख लहई।।
प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।।
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई।।
दो0-सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।59।
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाई रिषि आसिष पाई।।
तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे।  तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
मैं पुनि उर धरि प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ।।
एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी।।
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा।।
देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।।
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनाव।चरन बंदि पाथोधि सिधावा।।
छं0-निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ।।
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना।।
दो0-सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।60।।
इति श्रीमद्रामचरितमानसे
सकलकलिकलुषविध्वंसने
पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।
।।हरि ॐ तत्सत।।



मंगलवार, 24 अक्तूबर 2023

√💐केला के पर्यायवाची💐

💐केला के पर्यायवाची💐
कुंजरावसा भानुफल गजवसा मृत्युपुष्प।अशुमत्फला तंतुविग्रह कदली वृहत्तपुष्प।।
मोचा मधुरा हि वारण रम्भा व मुक्तसार।
काष्ठीला मंजिफला च केला के पर्याय।।
नोट:-आइये केला के निम्न पर्यायवाची शब्दों 
को विस्तार से समझ लेते है----
1-कुंजरावसा और गजवसा केला के अद्भुत 
पर्याय हैं।कुंजर और गज का अर्थ हाथी  
भी होता है ।
2-भानुफल को सूर्यफल भी कहा जाता है।
3-मृत्युपुष्प ,केला का पौधा एक बार पुष्प 
और फल देने के बाद मर जाता है इसलिए 
इसे मृत्युपुष्प कहा जाता है।गन्ने को भी 
मृत्युपुष्प कहा जाता है।
4-कदली,काले और लाल रंग का एक हिरन
जिसका स्थान महाभारत आदि ग्रंथों में 
कंबोज देश लिखा गया है भी होता है।
कमलगट्टा और पताका को भी कदली 
कहा जाता है। 
5- वृहत्तपुष्प केले के पुष्प बड़े होते है इसलिए
 इसे वृहत्तपुष्प कहते हैं।
6-मोचा,सेमलऔर सहजन को भी कहते हैं।
7-मधुरा केले के मीठा होने के कारण कहा 
जाता है।
8-वारण,किसी बात को न करने का संकेत
या आज्ञा, निषेध,मनाही रोक, रुकावट, 
बाधा और हाथी को भी वारण कहते हैं।
8- रम्भा स्वर्ग लोक की अप्रतिम सुन्दरी 
अप्सरा का भी  नाम है जिसकी उत्पत्ति
 सागर मंथन से मानी जाती है।
विशेष:-दूसरे दोहे  में हि, व, च, के
और पर्याय शब्द पद पूर्ति के लिए
आये है  बाकी दोनों दोहों के शेष
सभी सोलह पद अर्थात शब्द केला 
के पर्यायवाची हैं।
 ।।धन्यवाद।।

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

।।शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं।।

जय श्री राम जय हनुमान-मानस-चर्चा में आप का स्वागत है आज का विषय है
रामचरितमानस पंचम सोपान
सुन्दरकाण्ड का  प्रथम श्लोक ,श्लोक आप जानते ही हैं :
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।
अपने आप में कितने लौकिक-अलौकिक भावों से भरा है यह श्लोक आइए हम इसके एक-एक शब्दों पर गौर करते हुवे इसके भावों को समझने का प्रयास करते हैं।  हम  "शान्तं" से ही प्रारम्भ करते हैं --
"शान्तं"क्या है?शान्तं कौन है? इसका प्रयोग प्रथमतःक्यों हुआ है ? इन प्रश्नों  का उत्तर खोजते हैं तो पाते हैं कि शान्तं आज की जरूरत है आज का अस्त्र-शस्त्र है।सारा विश्व आतंकवाद की चपेट में आता हुआ जब युद्ध की भीषण विभीषिका की ओर अग्रसर हो तो शान्तं हथियार से हर आतंकवादियों को शान्तं करने के लिए हर समय हर धीर-वीर प्रशांत योद्धा/राजनीतिज्ञ को इसकी अतिआवश्यकता है ताकि वह आतंकवादियों को समूल नष्ट कर उन्हें पाठ पढ़ा सके। शान्तं संज्ञा नहीं, नाम नहीं, बल्कि विशेषण है,पर किसका? निःसंदेह राम का है। राम शान्तं हैं इसका विभिन्न उदाहरण जगत जानता है, जैसे विश्वमोहिनी प्रकरण में देवर्षि नारद के क्रोध के समय का शान्त स्वभाव,त्रिदेवों की परीक्षा के समय ब्रम्हर्षि भृगु द्वारा वक्षस्थल पर प्रघात के समय का शान्त स्वभाव और भगवान परशुराम के प्रकरण में राम के शांत स्वभाव को जगत जानता ही है। क्या शान्तं  नाम की विशेषता है, तो नाम की विशेषता बताने वाला यह शब्द सबसे पहले क्यों ? शांत अगर किसी का नाम है तो क्या वह हमेशा शांत रहता है- बिल्कुल नहीं। एक महासागर  का नाम है प्रशांत महासागर तो क्या इस महासागर में कभी तूफान नहीं आता,आता ही रहता है। हमारे पड़ोसी देश में एक बहुत बड़ा शहर है इस्लामाबाद ,जिसका हिंदीअर्थ होता है"शांति नगर" तो क्या वह शांति रखता है बिल्कुल नहीं, वह तो आतंक का कारखाना है। तो नाम से तो कोई फर्क नहीं पड़ता।विशेषता से फर्क पड़ सकता है।अब सिद्ध है कि यहाँ शान्तं शब्द का  प्रयोग राम के  विशेषण के रूप में किया गया है। राम कितने शांत है  पहले यह देखें:-
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा 
न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे 
सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥
यह शांत राम का गुण है राम की विशेषता है  तभी तो :-
राज सुनाइ दीन्ह बनबासू।
सुनि मन भयउ न हरस हरासू।।
शांत रस ईश्वर है :- 
बैठे सोह कामरिपु कैसे।
धरे सरीरु शांत रस जैसे।।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात शान्तं इस सोपान के आगे की सभी घटनाओं के लिए बहुत बड़ी आवश्यकता है:-
क्योंकि हनुमान जी को आगे पग-पग पर जितनी समस्याओं और आतंकवादियों से दो चार हाथ होना
हैं उसके लिए स्वामी और स्वामी के गुणों से  प्रेरणा लेकर ही तो विपरीत परिस्थितियों में  भी शांति से प्रशान्त महासागर की तरह धीर वीर-गम्भीर होकर
दुश्मन के कैंप में घुसकर तूफान लाना है उसके हर एक समर्थक का नाश करना है ,उसके हर एक अड्डे को
नष्ट-भ्रष्ट करना है,तहस-नहस  करना है।साथ ही साथ शांति से माँ सीता का पता लगाना है।शायद इन्हीं सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर प्रथमतः शान्तं शव्द का प्रयोग किया गया है और मानव मात्र को शान्तं बनकर आजीवन सम-विषम परिस्थितियों में आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा भी दी गयी है।शान्तं एक जीवन जीने का मंत्र भी तो है कि अगर कोई व्यक्ति गुस्से में है तो हमें शांति से काम लेना चाहिए,अगर हम भी गुस्सा करेंगे तो बात बिगड़ सकती है। ऐसा लगता है कि इन्हीं सभी कारणों से शान्तं का सर्व प्रथम प्रयोग हुआ है। अब हम आगे बढ़ते हैं दूसरे शब्द "शाश्वतं" की तरफ जो  शान्तं के बाद प्रभु श्रीराम की दूसरी विशेषता है। हम यो कहे कि ईश्वर की जिस दूसरी विशेषता में गोस्वामीजी की प्रणति है वह है 'शाश्वतं' की विशेषता।ईश्वर समय नहीं है, इटर्निटी है, समयांत शून्य है।महाकाल की अवधारणा ही यह है कि वह काल को अतिक्रान्त करता है। तो वे राम जिन्हें हम पूज रहे हैं वे किसी अवधि में सीमित राम नहीं हैं। वे शाश्वत हैं। उन्हें इतिहास में नहीं बाँधा जा सकता। उनकी सदैवता और अक्षुण्णता को पहचानना ही रावण-दृष्टि से मुक्ति है। दो इटर्निटी हैं: Parte Ante जिसका अर्थ है : an infinite extent of time before the present. औऱ parte post यानी कि an infinite extent of time after the present.  इस प्रकार राम दोनों ही अनंतों में हैं। लेकिन रावण उन्हें उनकी सनातनता और अव्ययता में देख ही नहीं पाता। विभीषणजी उसे  सावधान भी करते हैं "तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला।" राम को समय के किसी बिन्दु पर स्थित नश्वर मनुष्य की तरह
देखने की भूल न करें बल्कि उनको समयांत शून्यता में देखें। मनोभौतिकी में एक काल त्रुटि होती है, रावण भी एक काल त्रुटि कर रहा है और विभीषण की चेतावनी भी उसी के प्रति है। ईश्वर समय का आलिंगन करे तो यह नहीं समझ लेना कि वह समय के पार नहीं है । ईश्वर के अज्ञात तट हैं, अज्ञात क्षितिज । शाश्वतता एक सकारात्मक शब्द है लेकिन उसकी दो नकारात्मक व्याख्याएँ हैं। एक जिसका कोई आरम्भ नहीं है। दो जिसका कोई अंत नहीं है। लेकिन जिसकी चमक और ताक़त सबमें निहित है, जो पार्थिव चीज़ों के पारदर्शी घूँघट से भी झाँक सकता है उसे तो समझें। अमरता की सबसे अच्छी परिभाषा एक गूँगे-बहरे व्यक्ति ने दी थी : It is the lifetime of the Almighty. यह ईश्वर का जीवनकाल है । तो ईश्वर समय में नहीं है । वह तो समय का लेखक है। ईश्वर ने समय को रचा।ईश्वर ने स्पेस रचा पदार्थ को भी रचा होगा। लेकिन ईश्वर का स्वयं का कोई ड्यूरेशन नहीं है, वह निरवधि है। ईश्वर न तो काल से बाधित है, न इससे परिमित । रावण ईश्वरत्व को तो देख ही नहीं पाता क्योंकि उसकी गति वर्तमान में ही है। उसकी पहुँच (एक्सेस) न तो अतीत में है, न भविष्य में। राम पदार्थ नहीं कि वे समय में हों । गोस्वामीजी के राम " ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥" हैं। उनकी कोई आरम्भिकी (जिनेसिस) नहीं है,गोस्वामीजी नहीं कहते कि आरम्भ में सिर्फ़ शब्द था।इन द बिगिनिंग वास द वर्ड।वे तो उन्हें अनादि कहते हैं,शाश्वत कहते है।जिनेसिस और बिगिनिंग जैसी चीज़ें ईश्वर की व्याख्या नहीं कर सकतीं।गोस्वामीजी यह नहीं कह रहे कि राम, रावण से अधिक बूढ़े हैं, Aged हैं, वे कह रहे हैं कि राम, एजलेस हैं। ‘कालहु कर काला' हैं। ईश्वर जो पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना रोक सकता है, काल की गति उस पर निर्भर है। ईश्वर अतिप्राकृत शक्तियों की मदद से अपनी इच्छा पूरी कर सकता है। राम शाश्वत इसलिए नहीं कि वे मनुष्य के दिमाग़ की उपज हैं  जिन्हें आदि और अंत का पता न चले बल्कि वे अनादि हैं, नेति नेति हैं। जीवन ही समय है। To live is time. ऐसा कोई समय नहीं जब जीवन-घटनाएं (life events) न हो और ऐसी कोई जीवन घटना नहीं जब समय न हो। ध्यान रखें कि राम 'सिर्फ़ मानव' हैं,  जिन्हें राक्षसी शक्तियों पर जीत का भरोसा  है। नर वानर केहि लेखे माहि के भ्रम में रावण राम के आंतरिक ऐश्वर्य की गणना नहीं कर पाता, जो रावण की असफलता है।अपने शत्रु को कम आँकना वैसे भी बेवकूफ़ी है ।गोस्वामीजी के राम यदि नंगे पैर हैं, यदि वे आम आदमी की तरह बोलते दिखते हैं तो क्या उनके असाधारणत्व से आँख हटा लेना योग्य होगा? यह ग़लती अक्सर होती है। यदि हम ईश्वर से बात करते हैं तो वह प्रार्थना है। यदि ईश्वर हमसे बात करे तो वह पागलपन है, मनोरोग है, उन्माद है। राम का तापस होना या मानवीय होना रावण के लिए एक ग़लत रणनीति अपनाने का कारण बन जाता है। शाश्वतं का बोध होने पर वह थोड़ा गंभीर भी होता,लेकिन नररूप राम को देखकर वह भरमा जाता है । वह नहीं जानता कि ईश्वर की शाश्वतता सिस्टर्न के पानी जैसी नहीं है कि उसी जल का पुनर्चक्रण हो, बल्कि सदा प्रवाही निर्झर जैसी है जिसका पानी बसी और गंदा नहीं होता, सदा ताज़ा होता है। रावण को भी विकृत अर्थों में ही सही, प्यास उसी शाश्वतं की ही है। उसके वरदान की अभीप्सा में वही बात है : हम काहू के मरहि न मारे । लेकिन यह सिस्टर्न वाली शाश्वतता है जो ईश्वर की तरह सुन्दर शाश्वतता नहीं है : यह  क्षणे क्षणेयन्नवतामुपैति.तदेव रूपं रमणीयतायाः.. वाली है । इसलिए यह अपने अपवाद भी छोड़ती है : 'हम काहू के मरहि न मारे। वानर मनुज जात दुइ बारे ।' क्योंकि यह तो उन अपवादों को अपना आहार मानती है : वानर मनुज अहार हमारा' । उसी 'अहार' से रावण की हार तय हो जाती है।शाश्वतं की व्याख्या करते हुए गोस्वामीजी ने अन्यत्र लिखा है : महिमा निगमु नेति कहि कहई।जो तिहुँ काल एकरस अहई।।गोस्वामी तुलसीदासजी अक्षर, अनवरत,अविरल,चिरंतन, ध्रुव, नित्य,अविराम, सनातन, निरंतर और अविरत ईश्वर को प्रणाम करते हैं। यह वह ईश्वर है जिसका कोई उत्तराधिकारी नहीं है। प्राणी के बारे में कहा जा सकता है कि वह था और होगा, ईश्वर तो सदा 'बस' है और है। वह तो शाश्वतं से शाश्वतं तक है। He is blessed from everlasting to everlasting"। भगवान के मूड स्विंग्स नहीं होते। वह सच्चिदानंद है। भगवान समयहीन नहीं है। यदि वह धरती (स्पेस) पर अवतीर्ण होता है तो वह समय में भी साक्षात्कृत होता है क्योंकि समय और आकाश अलग-अलग नहीं हैं। वे सह सापेक्ष हैं, बिना देश के समय नहीं हो सकता। इसलिए अवतार के समकालीन लोग हो सकते हैं, ब्रह्म के समकालीन नहीं । राम के समकालीन रावण है, लेकिन रावण ब्रह्म के समकालीन नहीं है। इसलिए ब्रह्म जब राम के रूप में अवतार लेता है तो वह योजना भी बनाता है, समय सीमाएँ भी रचता है और उन्हें क्रियान्वित भी करता है ।जो लोग अवतार को इतिहास न बताकर काल्पनिक पात्र बताते हैं, वे अवतार के समय में उतरने के बुनियादी फ़र्क़ की उपेक्षा करते हैं। पुण्यात्मा को, 'अनघं' और अनघं  को'शाश्वतं' होना ही चाहिए । अनघं का स्वभाव ही है शाश्वतता। जो सत्ता निश्चय ही अजात और अमृत है वह मरणशीलता को कैसे प्राप्त हो सकती है? मरण रहित वस्तु कभी मरणशील नहीं हो सकती क्योंकि किसी के स्वभाव का विपर्यय नहीं होने वाला : अजाताह्यूमृतो धर्मो मर्त्यनां कथमेश्यति। न भवत्यमृतं मर्त्य न मर्त्यममृतं तथा । प्रकृतेरन्यथाभावो न कथंचिद्भविष्यति ।गोस्वामीजी के राम यदि 'शाश्वत' हैं तो इन्हीं अर्थों में कि उनकी  चेतना मरणशील नहीं थी । यदि शाश्वत का अवधान न रहे तो हमें अपना क्षितिज ही अंतरिक्ष नज़र आएगा। अंतरिक्ष जिसका अन्त नहीं है, में टूटते हुए तारे को देखकर हमें अपनी नित्य चंचल हैसियत का आभास होता है। हम ज़िन्दगी को बक्से में बंद देखने के आदी हो चले हैं।गोस्वामीजी  इसी कारण हमारी आदतों को झटका देते हैं ।उस दिन जब हमारी मृत्यु होगी, सूर्य वैसे ही उगेगा । हवा वैसे ही चलेगी। वैसी ही बनी रहेगी लोगों की चहलक़दमी । नदियों की धार वैसे ही बह रही होगी। वैसे ही गूँज रही होंगी मन्दिरों में घंटियाँ, मस्जिदों में अजान।हम हमेशा से एक बायोजिओकेमिकल चक्र का हिस्सा थे। उस दिन भी उसी में घुल गए होंगे । मिट्टी से मिट्टी में,राख से राख में । यह भी एक सातत्य है, यह भी एक निरन्तरता।शाश्वतं की साक्षी है।जब बात"अप्रमेयं" की आती है तब हमें जानना चाहिए की शाश्वतं की परिणति ही है अप्रमेयं।आदि अंत कोउ जासु न पावा।मति अनुमानि निगम अस गावा। तुलसी के इस अप्रमेयं शब्द के भाव को कभी कवि इकबाल ने ऐसे व्यक्त किया था : जेहन में जो घिर गया लाइन्तहा क्यों कर हुआ?जो समझ में आ गया वो खुदा क्यों कर हुआ ? अप्रमेयं
का अर्थ यह भी है कि ईश्वर अगणितीय Non-mathematical है।लेकिन गोस्वामीजी राम को अप्रमेय क्यों कह रहे हैं ? राम तो सगुण हैं और साकार हैं, राम तो सशरीर हैं,सावयव हैं । राम तो गोचर हैं और समूर्त भी है । राम के कलेवर और काया पर, राम के वर्ण और वपु पर, राम के विग्रह और छवि पर मुग्ध
गोस्वामीजी ने स्वयं पृष्ठ पर पृष्ठ भरा हैं। फिर सुन्दरकांड की शुरुआत में ही तुलसी उन्हें अप्रमेय क्यों बोल रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं और हमें भी पुनः स्मरण कराते हैं कि इस अंगी के भीतर एक अंगहीन है। इस कायिक के भीतर एक अकाय है।इस देही के भीतर एक देहातीत है । राम कोई गणितीय प्राप्तांक नहीं है। ईश्वर के साथ हिसाब किताब नहीं चलता। ईश्वर जोड़-जुगाड़, जोड़-तोड़ नहीं है । ईश्वर योग है। ईश्वर घटान नहीं है।वह घट घट वासी है। ईश्वर क्षयन नहीं है, अक्षय है । ईश्वर बाकी नहीं है, बैलेंस है।ईश्वर गुणा नहीं है,गुणी या गुणातीत है। ईश्वर भागफल नहीं है, भाग्यफल है।भाग नहीं,महाभाग है। ईश्वर अंक नहीं है, अक्षर है । ईश्वर संख्या नहीं है, सांख्य है। ईश्वर रैम (रैंडम एक्सेस मेमोरी) या रौम ( रीड ओनल मेमोरी) नहीं है, राम है। रमे हैं रोम रोम में राम | ईश्वर कूट्टक(अलजब्रा) नहीं है, कूटस्थ है । त्रिकोणमिति नहीं त्रिधामा,त्रिप्रद, त्रिलोकेश, त्रिविक्रम और त्रिनाभ है। क्षेत्रमिति नहीं, क्षेत्रज्ञ है। अल्गोरिद्म नहीं, रिद्म है। इस जगत की लय है। पंजी नहीं, पर्जन्य है। कैश नहीं केशव है ।वह न अंक है न दशमलव वह शून्य है। उसे कैसे कैलिब्रेट करेंगे? ईश्वर में क्या जोड़ा जा सकता है? ईश्वर से क्या घटाया जा सकता है? ईशावास्य उपनिषद् ने यही कहा गया है : "ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।"यह वह अखिलेश है जिसके बारे में कहा गया है :- Wherever there is a where, God is there. इसी क्रम में  "अनघं" आता है। "अनघं"
 के बारे में तो आप इन पक्तियों  को सुनें-समझें -
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय।और करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥ गोस्वामीजी
के राम निष्पाप हैं ।शान्तं, शाश्वतं, अप्रमेयं ये विशेषताएं पहले आती हैं, अनघं का विचार उसके बाद ।गोस्वामीजी अधिक प्रचलित पाप शब्द का इस्तेमाल न कर उसके एक पर्याय 'अघ' का इस्तेमाल करते हैं ।अनघ शब्द का अर्थ निर्दोष, त्रुटिरहित, सुन्दर, खूबसूरत, सुरक्षित, विशुद्ध, कलंकरहित व जिसे चोट न लगी हो, होता है। अनघ से तुलसी का आशय निष्पाप से ही रहा हो, यह ज़रूरी नहीं ।देखने की बात यह है कि
हमारे यहाँ निर्दोषता और विशुद्धता ही पापहीनता मानी गई। कुछ इसी तर्ज़ पर बच्चन ने कहा :'पुण्य की है जिसको पहचान। उसे ही पापों का अनुमान । सदाचारों से जो अनभिज्ञ ।दुराचारों से वो
अनजान।' पाप अज्ञान है।ज्ञान अघ मर्षण करता है,  ज्ञान  पाप का बोध कराता है।हमारे यहाँ कहा गया
है कि 'न ज्ञानेन विना मोक्षो' । 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम्शिवगीता के अनुसार अज्ञान हृदय नाशो मोक्ष:।पाप-बोध ईश्वर के क़रीब ही ले जाता है: 'मत्समा
पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि ।एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु।' मो समान को पातकी तुम समान रघुबीर। भारतीय भक्त की तो नित्य प्रार्थना ही यह है :पापोऽहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः। त्राहि मां पुण्डरीकाक्ष सर्वपाप हरो भव । पाप की पहचान मुक्ति का श्रीगणेश है। हम कहते हैं 'अपराधसहस्राणि क्रियन्ते अहिर्निशं मया। वाल्मीकिजी  कहते हैं : 'अवश्यमेव लभते फलं पापस्य कर्मणः।'  ईश्वर पापी के भी पाखंड को पहचान लेता है । पापी की मुक्ति एक बार संभव है पर  पाखंडी की नहीं । जो पाप को निरन्तर जस्टिफाई करता है वह ईश्वर के पास सिर्फ़ यही संदेश भेजता है कि मैं अभी अपने कीचड़ और कल्मष में ही मस्त हूँ, मुझे आपकी ज़रूरत नहीं है ।लेकिन जो अपने पाप को पहचान लेता है और उसके प्रायश्चित की ओर कदम  रखता है, ईश्वर उसकी ओर उन्मुख हो ही जाता है। ईश्वर हमसे पाप के श्रृंगार की अपेक्षा नहीं करता ।।सत्य अपने साथ तामझाम लेकर नहीं चलता।गोस्वामीजी किसी अमूर्त ईश्वर को अनघं नहीं कहते, वे राम को अनघं कहते हैं। क्या अवतारी राम पापमुक्त हो सकते हैं? क्या बालि-वध और शूर्पणखा के नाक-कान काटने की घटनाएँ सुन्दरकांड से पहले की नहीं हैं? तो क्या राम सुन्दरकांड में अनघं कहलाने के अधिकारी हैं? गोस्वामीजी का जवाब यह  है कि असुरों को मारने से पाप नहीं लगता, क्योंकि वे अपने ही पाप के द्वारा मारे जाते हैं।आप इन पक्तियों  को ज़रूर देखें:बिस्व द्रोह रत यह खल कामी।निज अघ गयउ कुमारग गामी॥ सुन्दरकांड से पूर्व तक जो प्रभु राम के जिन दो कार्यों पर कुछ लोग दो विवाद करते  हैं, उनमें से एक कार्य  है बालि का  वध है और
दूसरा शूर्पणखा का अंग भंग। क्या ये पाप थे? ये कार्य
व्याख्या के फर्क से पाप हो सकते हैं। कुछ विद्वान बालि-वध में राम का स्वार्थ देखते हैं। लेकिन यदि राम स्वार्थी होते तो वे सत्तासीन से मैत्री करते या सत्ताहीन से? वे वंचित कर दिए गए व्यक्ति के साथ खड़े होते या उस अत्यन्त शक्तिशाली के साथ खड़े होते जिससे रावण भी युद्ध में परास्त और अमानित हुआ था। सुन्दरकांड में हनुमानजी बालि से रावण की भिड़ंत की व्यंग्यात्मक याद दिलाकर रावण को चिढ़ाते भी हैं: समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥
 तो यदि राम का उद्देश्य रावण के विरुद्ध अपनी स्वार्थ सिद्धि का होता तो उसमें उनका तार्किक सहयोगी, उनका नेचुरल अलाई बालि ही होता, सुग्रीव नहीं। उनके लिए बालि प्रस्तुत होता भी सहज और सुलभ । लेकिन राम 'डिस्पज़ेस्ड'को चुनते हैं। राम का बालि से कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं था। लेकिन वंचितों को उनका हक़ दिलाने के लिए कृतसंकल्पित राम के लिए स्वार्थ नहीं, सिद्धांत महत्वपूर्ण था। राम की भगवत्ता और पुरुषार्थ सत्तासीनों का संघ बनाकर प्रतिपक्षी सम्राट से लड़ने में सिद्ध नहीं होनी थी ।उनकी खासियत तो 'नृप दल मद गंजा' में है, वे राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण करने वाले हैं। वे क्यों नहीं भरत से अयोध्या की सेना बुला लेते ? वे बालि के साधनों से ही नहीं, अपने पितृराज्य की सम्पन्नता से भी विरत रहते हैं। उनकी तथाकथित शरणागति है क्या? वह  है डिस्पज़ेस्ड की, डिस्एडवांटेज़्ड की मदद करना । वह  है निर्वासित और बेदखल की सहायता करना। वे जान-बूझकर यह कठिन रास्ता चुनते हैं। बल्लाल कवि ने भोज प्रबन्ध में शायद उन जैसों के लिए ही लिखा था : 'क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे' यानी महापुरुषों की कार्यसिद्धि सत्व से होती है, उपकरणों से नहीं। राम का सत्व क्या है। वे कमजोरों को एकता के सूत्र में बांधते हैं।बालि तो व्यक्तिगत रूप से ही इतना समर्थ था कि राम को रावण से निपटने के लिए एक उसी का सहायता  पर्याप्त थी। लेकिन राम एक पद्दलित जनजाति का आत्म-गौरव बहाल करते हैं, एक पूरी जनजाति में स्फूर्ति पैदा करते हैं। किसी व्यक्ति विशिष्ट की सहायता पाने की जगह वे वनवासियों के वृन्द को साथ लेते है। रावण अपराजेय नहीं था । सहस्रबाहु और बालि उसे हरा चुके थे।जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥ समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥राम के लिए कूटनीति की माँग यह होती कि वे बालि को साथ ले लेते । अंगद तो तब भी उन्हें मिलता। लेकिन राम कूटनीति की मांग का उत्तर देने नहीं आए, वे अपने आदर्श की मांग का उत्तर देने आए हैं। इस कारण कूटनीति के शॉर्टकट उन्हें नहीं लुभाते । सुग्रीव को बालि का पदाघात या विभीषण को रावण का पदाघात बंधुत्व की भावना को भूलकर लोगों को पद्दलित करने का रूपक है। ये पद्दलित लोग उस राम को अपना सहारा मानते हैं, जिसके पदस्पर्श से पाषाण में भी चेतना का संचार हो गया था ।राम ने जीवन में उस भूमिका को स्वीकार नहीं किया, जो समाज ने उन पर थोपा था। उन्होंने कैकेयी के वरदानों में अपनी एक नई पहचान निर्मित करने का अवसर देखा। उन्होंने राजवंश को यह मौका नहीं दिया कि वह उन्हें परिभाषित करे। उन्हें अपने चरित की स्थापना करनी थी। वे वंशगत विरासत को कबूल लेते तो उसके साथ उन सीमाओं को भी ढोते। उन्हें अपना एक 'पर्सोना' खुद रचना था। यदि वे उन सीमाओं को ढोते तो उन सीमाओं की सुविधा और सरलता में  न तो उनका पुरुषार्थ सिद्ध होता और न ही भगवत्ता सिद्ध  होती। वे जब अयोध्या से बाहर निकले तो वे एक राज्य की सरहदों से ही बाहर नहीं निकले; एक प्रदत्त भूमिका, एक परिनिर्मित व्यक्तित्व की सरहदों से भी बाहर निकले। उन्होंने जब वस्त्र बदले तो तपस्वी के वल्कल वस्त्र पहने जो एक आइकॉन है। रामचरितमानस की कथा बायोग्राफी नहीं है, वह जन-समर्थन के लिए एक राजकुमार द्वारा अपने आप को पुनरान्वेषित करने की कथा है। यह राजतंत्र के बीच जनतंत्र की स्थापना है।
जहाँ इन्सान मैनीपुलेट किया जा सकने वाला वोट
नहीं है बल्कि वह संघर्ष में अपने नायक के साथ-साथ
है। राम अपना डिस्पज़ेशन चुनते हैं । वे वंचित होते हैं ताकि वंचितों के साथ सहानुभूति कर सकें। जब उनका पहला स्वचेतन निर्णय  स्वार्थ का नहीं था तो सुग्रीव से मैत्री कैसे स्वार्थपूर्ण हो सकती थी ? जब तक राम के पास सीता की शक्ति थी तब तक उन्हें कभी ओट लेने तक की ज़रूरत नहीं पड़ी, बाद में जनशक्ति साथ  मिलने से भी वह नौबत कभी न आई, सिर्फ़ बालि के वक़्त ओट ली गई लेकिन आज की कवर फायर के युग में युद्ध की उस स्ट्रेटेजी को समझना अधिक मुश्किल नहीं है। युद्ध के दौरान अब तो नित्य प्रति ही ओट ली जाती है और इस युग में रहते हुए हम राम के एक बार ओट ले लेने पर उनके प्रति कितने मोटिव्ज़ आरोपित कर लेते हैं ।राम में बालि से लड़ने की शक्ति और सामर्थ्य है,यह तो उन्होंने  सुग्रीव को एक  ही बाण से अनेक वृक्षों का छेदन करके बता दिया।दुंदुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥उनकी ईमानदारी कोई भोंथरा हथियार नहीं है । रावण को हराने से राम बड़े नहीं हुए जैसे बालि बड़ा नहीं हुआ, सहस्रबाहु नहीं हुआ। राम तब राम हुए जब उन्होंने वानरों-रीछों का साथ लिया । रावण की पूर्व पराजयों और इस पराजय में यही अंतर है। इसकी सामाजिक सार्थकता स्पष्टतः अधिक है। अब उसके पूर्व हुए एक और विवादास्पद कृत्य की चर्चा कर लें वह है शूर्पणखा का अंग भंग । उसे भी राम का 'पाप' कहा जाता है। ऐसे कि जैसे शूर्पणखा राम के पास न आई हो, राम स्वयं उसके पास गए हों । आरोप यह है कि जब उसने प्रेम प्रस्ताव किया तो राम उसे शिष्टतापूर्वक मना कर देते, उसे लक्ष्मण को 'रेफर' करने और उसके नाक-कान कटवाने की अत्यन्त उग्र प्रतिक्रिया की क्या ज़रूरत थी? कुछ लोग कहते हैं कि सीता अपहरण और राम युद्ध की नींव यहीं पड़ी । अतुल अजनबी का एक शेर है : बुनियाद साज़िशों में यक़ीनन शरीक थी ।वरना फिर ऐसे कैसे ये दीवार गिर गई । आज के फ्री सेक्स के ज़माने में राम की प्रतिक्रिया कुछ-कुछ तालिबानी लगती है। मॉरल सेंसरशिप की अति।लेकिन कुछ चीज़ों पर ध्यान धर लें। सेक्स की स्वच्छन्दता और स्वैराचार जिसका रूपायन शूर्पणखा में होता है, गोस्वामीजी के जान-बूझकर किए गए प्रयास की तो नहीं है न, ये कविता के अपने दबाव से उस प्रसंग में सूपनखा  का  स्वभाव अंकित हुआ है। वह कहती है : मनु माना कछु तुम्हहि निहारी  सेक्स का मनमानापन। 'देखि बिकल भइ जुगल कुमारा' वह दोनों राजकुमारों को देखकर काम से पीड़ित होती है। उसे तो अपनी भूख मिटानी है। इसलिए राम यदि लक्ष्मण के पास या लक्ष्मण उसे राम के पास रेफर करते हैं तो वे उसका मज़ाक उड़ाने का आरंभ नहीं करते । यह शुरुआत तो स्वयं शूर्पणखा ने किया है। वह  तो दोनों को ही देखते  ही कामाग्नि से दग्ध हो गई है । इसी कारण  गोस्वामीजी उसका परिचय 'दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी' के रूप में कराते हैं। रूप तो शूर्पणखा ने शृंगार प्रसाधन की माया से सुन्दर बना ही लिया था । 'रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई ।'  ईश्वर रूप-सौन्दर्य धारण करने वालों के द्वारा नहीं वरा जाता, वह तो उनके द्वारा वरा जाता है जो 'सुन्दरता कह सुन्दर करई', जो सौन्दर्य को भी सुन्दर करती है। कुछ सज्जनों को यह राम का झूठ लगता है जब वे शूर्पणखा को'अहइ कुआर मोर लघु भ्राता' कहकर लक्ष्मण के पास भेज देते हैं। उनका कहना है कि लक्ष्मण कुँआरे नहीं थे,उनकी उर्मिला से शादी हो चुकी थी । फिर उन्हें कुमार कहने का क्या मतलब ? ये सज्जन दो चीज़ें नहीं देखते एक कि कुमार शब्द का प्रयोग राजकुमार के अर्थ में 'देखि विकल भइ जुगल कुमारा'में हुआ तो 'अहइ कुआर' का अर्थ 'ये राजकुमार' के रूप में भी हो सकता है। दूसरे, स्वयं शूर्पणखा जब विवाहिता होते हुए भी राम से यह साफ़ झूठ बोल देती है :- कि तातें अब लगि रहिउँ कुमारी।मनु माना कछु तुम्हहि निहारी॥
 तो राम के यह कहने में हर्ज क्या है कि जैसे तुम कुमारी हो, वैसे ये कुमार हैं। जो औरत अभी-अभी यह बोल रही कि 'तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग विधि रचा विचारी',वह अब लक्ष्णम से एक्सचेंज पर तैयार हो गई। ऐसी स्त्री के राक्षसी स्वभाव को क्या राम लक्ष्मण नहीं पहचान गए होंगे। लक्ष्मण ने ‘रिपु भगिनी जानी' के बावजूद भी मृदुलता से ही उसे टरकाया । उन्होंने उसे राम का असली परिचय भी दिया। प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा । लेकिन तब भी उस दुर्बुद्धि को समझ में नहीं आया । राम-लक्ष्मण ने कुछ छुपाया नहीं, न उसे भ्रमित किया। हालांकि उसकी परीक्षा लेकर उसके राक्षसत्व की पुष्टि अवश्य कर ली । तब जाकर शूर्पणखा अपनी वाली पर आती है,अपनी असलियत पर, अपनी औक़ात पर । 'रूप भयंकर प्रगटत भई' उसका पाखंड खुल गया । जो शृंगार की स्मोकस्क्रीन थी उसे भेदकर भीतर की कुरूपता सामने आ गई। यही शूर्पणखा जब रावण को अपनी पीड़ा सुनाती है, तो वह रति-दान की अपनी प्रार्थना और प्रयास का उल्लेख अपने भाई से नहीं करती । वह राम-लक्ष्मण को स्त्री पर हाथ उठाने वाले कायर भी नहीं कहती जैसे कि आजकल के कुछ सज्जन लोग कहने लगे हैं। वह उन्हें 'पुरुष सिंघ बन खेलन आए' ही कहती है। अपनी सेक्सुअल अभिप्रेरणाओं का उल्लेख अपने भाई से करने में संकोच हो या अपने प्रति अन्याय को एकतरफा बताने की मंशा हो, वह मूल घटना प्रसंग को गोल कर जाती है। वह राम-लक्ष्मण को "परम धीर धन्वी गुन नाना।" "अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता" ही कहती है। वह आधुनिक आलोचकों की तरह अपने भाई से यह नहीं कहती कि राम ने उसके स्त्रीत्व का अपमान किया है। वह रावण को यह कहकर भड़काती है कि 'सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा ।' यह बात सिर्फ़ भड़काने की नहीं है कुछ हद तक सच भी है क्योंकि लक्ष्मण स्वयं उससे 'रिपु भगिनी' जानकर ही पेश आते हैं और उसे ‘नाक, कान बिनु' करने में एक संदेश भेजते हैं : ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि । शूर्पणखा राम रावण के बीच अकारण नहीं आ
गई। अपनी हरकतों से वह माध्यम बनी। उसे सीता पर
विशेष डाह रहा कि जिसके रहते राम ने उसे आँख
उठाकर भी नहीं देखा बल्कि जब राम बोले भी तो
'सीतहि चितइ कही प्रभु बाता' के अनुसार सीताजी की ओर देखकर ही बोले।यह सीता के प्रति राम की निष्ठा और अनन्यता तो थी लेकिन इसका स्रोत सीता को समझकर शूर्पणखा ने रावण के मन में यह कहकर उत्सुकता जगाई कि 'रूप रासि विधि नारि सँवारी।रति सत कोटि तासु बलिहारी' । यह शूर्पणखा का बदला लेने का अपना तरीका था । रावण 'हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ' की बात कर शूर्पणखा की लगाई आग में जलना स्वीकार कर लेता है। इस पूरे प्रसंग में (शूर्पणखा के बदले वाले ) राम के नारी अत्याचार वाली थियरी को कहीं स्थान नहीं है । रावण सीता को इसलिए नहीं हरता कि वह शूर्पणखा के अपमान का मूल स्रोत थी बल्कि इसलिए कि वह सौ करोड़ रतियों से ज्यादा सुन्दर थी । रावण कहानी के उतने ही अंश से प्रेरित हो सकता था जितनी उसे सुनाई गई थी। जो उसे बताया ही न गया उसे रावण की प्रेरणा कैसे कहा जा सकता है? आलोचक चाहते हैं कि कलियुग में तो बलात्कार का प्रयास कटुतम रूप से दंडित हो, लेकिन त्रेता में उसे सहा जाना चाहिए क्योंकि वह नारी की ओर से था । रूप भयंकर प्रगट करने और सीता को डराने का आशय क्या था ? लक्ष्मण राम उसे दंडित नहीं करते यदि वह अपने इस भयंकर रूप में आती नहीं क्योंकि उसके पूर्व तो उसे मृदुता से टरकाने की बात चल रही थी । उसके लगातार आग्रह ने लक्ष्मण को उसे प्रकारान्तर से निर्लज्ज कहने की प्रेरणा दी।लेकिन उसे भी वश में करते हुए लक्ष्मण ने इतना ही
बोला कि तुम्हें वह चुनेगा जो तृण तोड़कर लज्जा को
त्याग देगा। अब शूर्पणखा के अमर्ष का क्षण आया ।
अब उसके अपनी असलियत में आने का क्षण आया ।
इसलिए बाद में वह लक्ष्णम के लाघव का शिकार बनी ।
अब उसे राम - लक्ष्मण के अस्तित्व का अर्थ भी समझ
में आ गया | रावण को वह यही अर्थ बताती है । समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी । वह राम को पापी नहीं कहती बल्कि अतुलित बल प्रताप दोउ भ्राता।खल बध रत सुर मुनि सुखदाता।शब्दों द्वारा 'पापियों के बध करने वाले रूप' मेंउनका वर्णन करती है। इसलिए शूर्पणखा-प्रसंग को शूर्पणखा के पाप की तरह न देखकर राम-लक्ष्मण के पाप की तरह देखना सेक्सुअल परमिसिवनेस की हद है। शूर्पणखा की सी हरकतों को समाज निर्मात्री हरकतें नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि इस तथाकथित पाप का आरोप भी राम पर चिपकता नहीं ।इस प्रकार राम निर्विवाद शाश्वत अनघं हैं। अब बात 
"गीर्वाण शान्तिप्रदं या निर्वाणशान्तिप्रदं" की आती
 है  जो  बताती है कि राम की एक और विशेषता  है कि वे देवताओं को शान्ति प्रदान करते हैं और भक्तों को मोक्ष। असुर मारि थापहिं सुरन्ह ।और ‘जब जब नाथ सुरन्ह दुख पायो ।नाना तनु धरि तुम्हहि नसायो।।' ईश्वर का अवतार ही साधुओं के परित्राण और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए होता है। भले लोग अक्सर ही दुष्टों द्वारा सताए जाते है ,हमेशा ही सताए जाते है। दुर्जन स्वभाव से ही सज्जनों के शत्रु होते हैं। देवता-सम भले व्यक्ति जितना उन्हें समझाते हैं उतना ही उनका अत्याचार बढ़ता जाता है। चाणक्य का
कहना है कि ‘न दुर्जनः साधुदशामुपैति वहुप्रकारैरपि
शिक्ष्यमाणः।आमूलसिक्त: पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो
मधुरत्वमेति ।।' दुर्जन को यदि अच्छी-अच्छी शिक्षा दी
जाए तब भी वह साधु नहीं हो सकता। जैसे नीम के पेड़
को यदि दूध और घी से सींचा जाए तो भी वह मधुर नहीं
होगा। इसलिए देव-स्वरूप को उनके हाथों शान्ति नहीं
मिलती, वे उनके अत्याचार और संत्रास के शिकार
रहते हैं। तब राम जैसा ही कोई, उन भले मानसों को
शान्ति दे पाता है। क्या लगता है ? देवता भले मनुष्य
नहीं हैं । शास्त्रों में देवताओं की चार विशेषताएँ बताई गई हैं,एक, देवताओं का पैर धरती से ऊपर रहता है। जमीन को छूता नहीं। दूसरा, देवता पलक नहीं झपकाते ।तीसरा, देवताओं को पसीना नहीं आता। चौथा, देवता
की परछाई नहीं बनती, उनकी देह पारदर्शी होती है । इन चारों विशेषताओं का भले आदमियों के संदर्भ में अर्थ क्या है? दरअसल धरती को न छूना पार्थिव आकर्षणों से, भौतिक प्रलोभनों से अस्पर्शित रहना है। कीच में कमल की तरह विरत और उपराम ।दूसरी विशेषता सतत जागरूकता की है, इटर्नल विजिलेंस की। या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । वैसे भी लोगों के दुःख और दुर्दशाके कारण भले लोग स्लीपलेस नाइट्स बिताते ही हैं। तीसरी विशेषता पसीना न आने की है।इसका अर्थ हुआ उनके आचरण में छिद्र न होने का।छिद्रान्वेषियों की भरसक कोशिशों के बावजूद भला
आदमी यथासंभव अपने व्यवहार में छिद्र न रखने की
कोशिश करता है। उसे मालूम रहता है कि उसके छिद्रों
के आधार पर ही उसे ब्लैकमेल किया जा सकता है।
संस्कृत की एक कहावत है 'छिद्रेष्वनर्थाः बहुली भवन्ति'यानी छिद्रों के विद्यमान होने पर अनर्थ बहुगुणित हो जाता है। अपने कर्तव्य में छिद्र न छोड़ने वाला देवता
है। उसका मन निष्कलुष होता है । वह मैल का न सृजन
करता है, न उत्सर्जन।उसमें मनो मालिन्य भी नहीं होता।चौथी विशेषता है पारदर्शिता।देव तुल्य आदमी में कुटिलता नहीं होती।वह ऋजु होता है।आर्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है: जो ऋजु है, एक सौ अस्सी डिग्री की सरल रेखा वाला । ऋग्वेद कहता है :- सुगा ऋतस्य पंथा, ऋतका रास्ता सरल है। सरल आदमी के रथ की वल्गा स्वयं पार्थसारथी आकर थामते हैं। पारदर्शी आदमी के आर-पार देखा जा सकता है। उसमें गोप्य नहीं होता, वह जैसा भीतर है, वैसा बाहर है। उसके भीतर सत्व का ही प्रकाश है ।वह छायाओं के पीछे नहीं भागता ।वह 'छाया मत छूना मन, होगा दुःख दूना' की चेतावनी का ही नहीं पालन करता, स्वयं भी छायाओं के कारोबार में कोई योगदान नहीं करता।प्रभु राम भले लोगों को, देवस्वरूप लोगों को उनके जीवनकाल में शान्ति देते हैं। भले लोगों की प्रकृति रक्षा करती है। भले लोग अपने आसपास क़िले और दुर्ग नहीं बनाते। वे तो खुले और पारदर्शी होते हैं। दुष्ट लोग इसी का फ़ायदा उठाते हैं, उन्हें तरह-तरह से त्रस्त करते हैं। भले लोगों को उनकी दुरभिसंधियों और कपटपूर्ण चालों का भान भी नहीं होता लेकिन तब वे क्या सर्वथा असुरक्षित हैं? डिफेन्सलेस? नहीं, ऐसे मामले में ही तो ईश्वर करता है, सीधा हस्तक्षेप।भगवान वचन देते हैं : निर्भय होहु देव समुदाई, इन्हीं अर्थों में तुलसी के राम गीर्वाण शान्तिप्रदं हैं । वे साक्षी होने मात्र के लिए नहीं हैं। वे अपने दखल की घोषणा सुग्रीव के साथ भी करते हैं और विभीषण के साथ भी ।वे सत्ता के समीकरण पलट देते हैं । ईश्वर गज की भी मदद करता है और द्रौपदी की भी । वह दरिद्रनारायण ,भले लोगों की, सरल, अबोध और निश्छल लोगों की मदद के लिए दौड़ा चला आता है। जब वे सहज विश्वासी लोग अपने प्रति हो रहे क्रूर षड्यंत्रों से अनजानअपने सत्कार्यों में दत्तचित लगे रहते हैं तब उनके कमज़ोर कोने को ढँकने का काम वही ईश्वर करता है । मनुष्य अपनी गणना से जितने मोर्चों को सम्भालेगा,उतने ही संभलेंगे। लेकिन दैत्यों की साज़िशें एक से अधिक मोर्चों और कोणों पर चलती हैं जो कई बार निष्कपट मनुष्य की गिनती के बाहर रहती हैं। वहाँ उन स्थानों पर ईश्वर ही ढाल बनकर आता है। राम का नाम स्मरण, राम के प्रति निष्ठा जो भी रखता है, उसकी रक्षा  राम करते ही है। 'करउँ सदा तिन्ह के रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी।।यह कहा जा सकता है कि सिर्फ़ 'गीर्वाण शान्तिप्रदं ही क्यों कहा गया ? राम तो साधु और असाधु दोनों को ही गति देते हैं।निर्वाण तो वे दुष्टों को भी देते हैं। राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्वान।मारीच के प्रति तो राम की विशेष करुणा रही है । जिस तरह से अहिल्या को तारा, उसी तरह से ताड़का को भी । 'दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा ।' लेकिन फ़र्क़ यह है कि अहिल्या को उन्होंने जड़ से चेतन किया और ताड़का को चेतन से जड़ किया । साधु को जीवन में शान्ति देते तो असाधु को मरने के बाद।रावण का यही भरोसा तो है 'प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ' इसलिए प्रत्यक्षतः तो वे देवताओं को ही शान्तिप्रदं हैं। बार-बार राक्षसों से परेशान देवता विष्णु के पास पहुँचते हैं, शिव के पास पहुँचते हैं, शक्ति के पास पहुँचते हैं, ब्रह्मा के पास पहुँचते हैं। देवताओं को परेशान होना ही है।लेकिन राम सरीखे लोग उनका सतत आश्वासन हैं ।
तुलसी के गीर्वाण शान्तिप्रदं का एक और महत्त्वपूर्ण
आयाम है। गीर्वाण देवता हैं, लेकिन देवता और दैत्य
कोई अलग-अलग रेस (प्रजाति) नहीं हैं।जैसे कुछ स्वनाम धन्य  बताते हैं कि ब्राह्मणवादी संस्कृति के लिए राम-कथा चली जबकि यह नहीं बताते कि ब्राह्मणवादी संस्कृति एक महापंडित ब्राह्मण रावण को ही राक्षस क्यों बताती है ?ऋषि पुलस्त्य का वंशज, सामवेद का ज्ञाता, शिवभक्त रावण किस चक्कर के चलते एक ग़ैर ब्राह्मणवादी और रेशियलअर्थों में अनार्य के रूप में इन नए इतिहासविज्ञ-शूरों द्वारा प्रतिष्ठित किया गया, ये वे ही जानें ।हमें तो रामावतार उनके पूर्व के अवतारों के समय में चले देवासुर संग्रामों के अनेकानेक प्रसंगों का ही विस्तार नज़र आता है। निशिचर का अर्थ तो शिवजी के मुख से तुलसी ने बालकांड में ही स्पष्ट करा दिया था : बाढ़े खल बहु चोर जुआरा।जे लंपट परधन परदारा।मानहिं मातु पिता नहिं देवा।साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ।जिन्ह के यह आचरन भवानी।ते जानहु निसिचर सब प्रानी ।।
पाठ्यान्तर से निर्वाण शान्तिप्रदं भी मिलता है।
हिन्दुओं में निर्वाण ब्रह्म से सायुज्य है,जन्म-मरण के
चक्र से मुक्ति,सुख,दुःख,पीड़ा,वेदना आदि से मुक्ति,
सच्चिदानन्द ब्रह्म में सारूप्य,मोक्ष की प्राप्ति है। निर्वाण कोई ऐसा पद नहीं है जो पहले अस्तित्व में नहीं था और अब है।वह हमेशा ही है।सिर्फ़ हमारे नैतिक और आध्यात्मिक अँधेरे के चलते यह हमारे प्रज्ञा चक्षुओं की पकड़ में नहीं आता।वह आत्मानन्द है, वह ब्रह्मानन्द है, वह स्वरस है, वह तथागति है, वह हंसत्व है, वह कैवल्य है, वह एक अव्याकृत अवस्था है, वह तुरीय है।वह बंध में डालने वाले सभी पाशों से परिमोक्षण है।जब तक पाश है,जीव पशु है। उससे मुक्त होने को ही निर्वाण कहा गया है।यहाँ इस प्रसंग में ध्यान रखने योग्य यह बात है कि सुन्दरकांड में जहाँ हनुमानजी जान-बूझकर नागपाश में फँसते हैं, वहाँ तुलसी ने याद किया है कि हनुमानजी तो उस हस्ती के सेवक हैं जिसे जपने से भवबंधन कट जाते हैं। इसलिए राम की निर्वाण शान्तिप्रदं के रूप में स्मृति इस अध्याय की शुरुआत में ही कर ली गई कि जो विपाशन और विमोचन, मुक्तकरण और अनाबद्धन की पूजा करता है वह हनुमानजी  के चिर-स्वतंत्र स्वभाव से आश्वस्त रहता है।निर्वाण का अर्थ बंधनों से छूटना है लेकिन ये बंधन क्या सिर्फ़ लोभ, मोह, मत्सर के बंधन हैं या वे बंधन भी जो देश, काल और गुरुत्वाकर्षण के रूप में इस संसार में जनम लेते ही हम पर आरोपित होते हैं।हाँ इन सभी बंधनों से मुक्ति देते हैं हमारे राम।
ब्रह्माशंभु फणीन्द्रसेव्यमनिशं की बात आते ही ये पक्तियाँ याद आ ही जाती हैं:
सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान। नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥
गोस्वामीजी राम को ब्रह्मा, शंभु और शेषजी से निरन्तर सेवित कहते हैं । ब्रह्मा, विष्णु और शंभु की त्रिमूर्ति GOD के तीन अक्षर क्रमशः जेनेरेटर, ऑपरेटर और डिस्ट्रायर की व्याख्या करते हैं। विष्णु के अवतार राम ब्रह्मा, शंभु और शेष की लगातार सेवा के योग्य हैं। जाम्बवान के रूप में ब्रह्मा,हनुमान के रूप में शंभु और लक्ष्मण के रूप में शेष राम अवतार की सेवा में आए हैं। ब्रह्मा से ऊपर के ब्रह्मलोक, शंभु से मर्त्यलोक और फणीन्द्र से पाताल या नागलोक, इस प्रकार तीनों लोकों से सेव्य बताया गया है।तुलसी उस राम को प्रणाम करते हैं जो ब्रह्मा, शंभु और शेष जी से निरन्तर सेवित हैं। राम की माधुर्य रूप से सेवा में ब्रह्मा जाम्बवान बनकर आए हैं। सीता की खोज की अवधि निकल जाने पर जब अंगद मृत्युभय से ग्रस्त हो जाते हैं तब जाम्बवान ही उन्हें ब्रह्मा वाला ज्ञान देते हैं। तात राम कहुँ नर जनि मानहु ।निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु । हम सब सेवक अति बड़भागी ।संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी। जाम्बवान यहाँ सेवा के वचन पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये सत्य वचन हैं, लिप सर्विस नहीं । उनके वचन प्रबोधते हैं, उद्बोध करते हैं। वे न केवल राम की वास्तविकता से अवगत कराते हैं बल्कि स्वयं वानरों को भी उनके जीवनार्थ बताते हैं कि 'सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि', यानी सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य, सार्ष्टि और सायुज्य सब प्रकार के मोक्षों को त्यागकर राम की सेवा में साथ रहने वाले सगुणोपासक हैं वानर । वे हनुमान को भी उनके जीवन सत्य और उनके अस्तित्व अभिप्राय का ज्ञान कराते हैं । 'कहहि
रीछपति सुनु हनुमाना।का चुप साधि रहेहु बलवाना। पवन तनय बल पवन समाना ।बुधि बिबेकबिग्यान निधाना ।' ब्रह्मा को ऊर्ध्वलोक का प्रतीक माना गया है। मायूस और अवसाद ग्रस्त बैठे वानरों का,अंगद और हनुमान का उत्साह बढ़ाने में, उनके मनोत्थान में मदद कर जाम्बवानजी अपनें ब्रह्मत्व को  सार्थक भी करते  हैं। सुन्दरकांड में कथाक्रम का प्रारंभ ब्रह्मा से यानी जामवंत से ही होता है।"जामवंत के बचन सुहाये।लंकाकांड में भी शुरू-शुरू में ही "सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह। नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरहिं॥" कहकर सेतुबंधन के रूपक की पूरी
व्याख्या कर देते हैं। वे ही नल, नील और वानरों के
समूहको निर्देशित करते हैं। रावण को राम का रहस्य
तो क्या, जामवंत का रहस्य भी समझ में नहीं आता।
वह अंगद को कहता है : जामवंत मंत्री अति बूढ़ा।सो
कि होइ अब समरारूढ़ा। लेकिन वही जामवंत युद्ध में
महाप्रतापी मेघनाद की क्या हालत करते हैं'अस कहि
तरल त्रिसूल चलायो।जामवंत कर गहि सोइ धायो।
मारिसि मेघनाद कै छाती।परा भूमि घुर्मित सुरघाती। पुनि रिसान गहि चरन फिरायो।महि पछारि निज बल देखरायो।बर प्रसाद सो मरइ न मारा ।तब गहि पद लंक पर डारा ।जामवंत की बूढ़ी हड्डियों में इतना बल था कि वे रावणके युवा पुत्र की यह हालत कर देते हैं। राम का वृद्ध सेवक रावण के युवा युवराज से अधिक शक्तिशाली है।यह शक्ति सेवा का फल है। जामवंत राम की सत्य वचन से सेवा करते हैं। वे वक्तृता के धनी हैं लेकिन कोरी वक्तृता के नहीं । 'जामवंत रीछ हैं और ब्रह्मा सृजन करने वाले ।अंग्रेजी का शब्द बीअर इसकी व्याख्या करता है। बीअर का अर्थ रीछ तो होता है, बीअर का एक अर्थ बच्चों को संसार में लाना भी होता है। बीअर का शीतनिद्रित होकर पुनः सक्रिय होना दुनिया भर की पौराणिकियों में पुनरुन्मेष व पुनर्जीवन का प्रतीक माना गया । जामवंतजी भी बार-बार वानर यूथ में उत्साह का संचार करते हैं ।
शंभु भी माधुर्य - भाव से राम की सेवा में अहर्निश प्रस्तुत हैं- हनुमान रूप में । इसे यों नहीं समझना चाहिए कि इस बहाने से गोस्वामीजी ने अपने आराध्य की तुलना में सभी को उनका सेवक बता दिया है।यहाँ महत्वपूर्ण शब्द है 'सेव्य' और 'अनिशं' जिन पर हम बाद में चर्चा करेंगे। फिलहाल यहाँ हम शिव तत्त्व की पहचान कर लें। ब्रह्मा अपर और फणीन्द्र पाताल लोक के आयामों की ओर इंगित करते हैं तो शिव मध्य में हैं : मृत्युलोक में।शिव मध्य में हैं क्योंकि वे हैं ही विषमताओं का समाहार । शिव हैं तो योगी, ध्यानस्थ ।लेकिन वे घर बार वाले हैं। यदि सम्पूर्ण परिवार किसी एक का है तो  ओ  है शिवजी का । विष्णु के अवतारों के परिवार हैं लेकिन स्वयं विष्णु ऐश्वर्य रूप में सिर्फ़ लक्ष्मीपति हैं। शिव की पत्नी पार्वती बराबर की भूमिका निभाती हैं। वे हमेशा शिव के बराबर और साथ दिखाई पड़ती हैं जबकि लक्ष्मी विष्णु के चरण कमलों की ओर। एक तो इसका कारण यह रहा होगा कि पार्वती और लक्ष्मी दोनों अपने-अपने रूपक का भी निर्वाह करती हैं । शिव के साथ शक्ति का होना, पुरुष के साथ प्रकृति का होना,एक्स के साथ वाय क्रोमोसोम का होना है बराबर में होना।अर्धनारीश्वर की संकल्पना तो यह है कि उन्हें न केवल बराबर होना है बल्कि संयुक्त भी होना है। शिव और शक्ति में भेद पैदा करना मूर्खता है। उनके लिंग स्वरूप में योनि का सान्निध्य है। विष्णु की लक्ष्मी उनके चरणों में है, इसका मतलब यह नहीं कि नारी का स्थान नर के चरणों में है। रूपक यह है कि विष्णु जीवन हैं और लक्ष्मी के स्वामी हैं। पतन तब होता है कि जब लक्ष्मी आपकी स्वामिनी हो जाए। Money is a good servant but a bad master.धन को भृत्य स्वामी के उपयोगितावादी सम्बन्ध में न देखकर पति-पत्नी के आत्मीय सम्बन्ध में तो देखा गया लेकिन रूपक यह भी कहता है कि सम्पदा को सिर नहीं चढ़ाना है।लक्ष्मी के सर पर न चढ़ने का यह एक वैयक्तिक अर्थ होगा, लेकिन इसका एक सामाजिक अर्थ भी है। लक्ष्मी टॉप-हेवी नहीं होनी चाहिए। वह जीवन और समाज विकृत है जहाँ लक्ष्मी शीर्ष के कुछ चुनिंदा लोगों तक सुरक्षित है। दस शीर्ष और दशानन में क्या फ़र्क़ है? दशानन होना सम्पत्ति का टॉप हेवी होना है और यह विष्णु लक्ष्मी के द्वारा प्रस्तुत आदर्श के सर्वथा विपरीत है जहाँ लक्ष्मी को नीचे के सभी वर्गों की सेवा करनी है, हमारे समाज के निचले स्तरों तक लक्ष्मी को पहुंचना होगा। रावण और राम इसलिए दो सर्वथा भिन्न आदर्श हैं । शिव के भभूत,गज चर्म, नंगे बदन, फक्कड़ जीवन की तुलना में विष्णु का पूरा परिवेश वैभवशाली है लेकिन वैभव निचले स्तरों तक पहुंचता है तो विष्णुत्व है, यदि टॉप हेवी रह जाता है तो रावणत्व है । विष्णु का लक्ष्मी को सिर के पास रखकर ट्रिकल डाउन थ्योरी चलाने का कोई इरादा नहीं है। वे तो लक्ष्मी को उन्हीं की सेवा करने को कहेंगे जिन्हें पुरुष सूक्त में पुरुष का पैर कहा गया था। सभी को पवित्र करने वाली गंगा विष्णु के इसी पद से निकली है। सुन्दरकांड में विभीषण जब रावण की लात खाता है तो उसे राम के ये पैर ही अपनी शरण लगते हैं। वहीं वह उन पदों के महात्म्य का बखान करता है। अलंकारप्रियो विष्णुः अभिषेकप्रियः शिवः यहाँ  विष्णु के वैभव और शिव की विभूति  का सुन्दर चित्रण  है। बहरहाल शिव योगी होते हुए भी एक अच्छा ख़ासा पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हैं और उसका अर्थ यह भी है कि यदि पत्नी हमारी शक्ति है तो परिवार भवसागर की बाधा नहीं है। शिव में मुझे बहुत से धर्म झाँकते हुए से लगते हैं। उनके चाँद में इस्लामत्व है, उनके त्रिशूल के शूल को सीधा कर दें तो क्रॉस बन जाता है, उनकी जटाओं में सिक्खत्व है, उनकी ध्यानावस्थित मुद्रा में जैनत्व है, उनकी अभय और वर मुद्रा में बुद्धत्व | विषमताओं के समाहार में यह भी कि हैं वो तो गौर वर्ण के हैं  लेकिन उनकी नीलवर्णी मूर्तियाँ ही अधिक दिख पड़ती हैं, नीलकंठ तो वे हैं ही । वे सरूप भी हैं और लिंग रूप में अरूप भी ।उनके महायोग में स्थैर्य का चरम है और वे स्थाणु की तरह पूजे भी जाते हैं। लेकिन उनके नटराजत्व में गति का चरम भी है। कहते हैं कि उनसे 108 नृत्य निःसृत हुए। वे आशुतोष भी हैं और रुद्र भी । वे भोलेनाथ भी हैं और अघोर भी। शिव के डमरू को नादब्रह्म का रूपक माना जाता है। ॐ का उद्गम, देवभाषा का भी, भाषा मात्र का भी। कैसे अन्त का यह अधिदेव शुरुआतें करता है नृत्य की, शब्द की । आश्चर्य नहीं कि गोस्वामीजी ने अपने रचनारंभ में ही उन्हें याद किया।इसी डमरू से स्ट्रिंग थ्योरी या एम. थ्योरी के वाइब्रेशंस हुए हैं, इसी नृत्य से अणु-अणु में वह कृत्य है, इतना ही जितना सितारों में है। समुद्र की तरंगों में वह नर्तन है, मस्तिष्क के दोलन में वह है, ज्वालामुखी स्फोट के कंप में वह है और तूफ़ानों में भी, बिजली की कड़क में वह है और इन्द्रियों व प्राण की आवाज़ में भी।नदियों के बहने से लेकर पर्वतों के ढहने में भी । परीक्षा के पहले हृदय की बढ़ गई धड़कन में वह है, प्रलय के वक्त तत्वों के मिश्रण में वह है । शिव के त्रिशूल के तीन निशानों पर कौन है ? तीन अपवित्रताएँ : अनव (अहं), कर्म (फलप्रत्याशा वाला) और माया (भ्रम) ? या तीन एषणाएँ : भूमि, स्त्री और स्वर्ण ? या तीन वासनाएँ: लोकवासना, देहवासना और शास्त्रवासना ?या तीन पुर; इच्छा, क्रिया और ज्ञान। या स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर  ? या इड, ईगो या सुपर ईगो के ? या संचित, आगमि और प्रारब्ध जनित कर्म ? शिव के माथे का  यह त्रिपुण्ड क्या है? वे सत, रजस और तम की तीन रेखाएँ हैं या प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय के तीन रूप, या  उदात्त,अनुदात्त और स्वरित्र के तीन स्वर हैं। महाभारत के कर्ण पर्व में त्रिपुरारि के त्रिपुर स्वर्ग में स्वर्ण के, वायु में चाँदी के और पृथ्वी पर लोहे के बने बताए गए हैं।सब कुछ सही होने के बावजूद भी अपमानित और अनादृत, शोषित और पीड़ित दलितों के बीच में हैं शिव । हनुमानजी के रूप में शिव उन्हीं जनजातियों के बीच माधुर्य भाव से आते हैं। हनुमान वेद विशारद हैं। राम फणीन्द्र के द्वारा भी सेवित हैं। फणीन्द्र के अवतार लक्ष्मण हैं जो ऐश्वर्य रूप से विष्णु की निरंतर सेवा शेषनागजी के रूप में करते हैं लेकिन माधुर्य स्वरूप में रामावतार के वक़्त उनकी सेवा का अवसर नहीं छोड़ना चाहते हैं और लक्ष्मण बनकर मैदान में उतर आते हैं। लंका  कांड में रावण ब्रह्मदत्त प्रचंड शक्ति चलाता है जो लक्ष्मण जी की ठीक छाती में लगती है : अनंत उर लागी सही। हनुमानजी लक्ष्मणजी को उठाकर राम के पास ले आते हैं। तब राम लक्ष्मण को उनके स्वरूप की याद दिलाते हैं : कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता ।तुम्ह कृतान्त भच्छक सुर त्राता।  हे भाई, हृदय में समझो, तुम काल के भी भक्षक और देवताओं के रक्षक हो ।इतना कहते ही 'सुनत बचन उठि बैठ कृपाला' कहा गया । अपने स्वरूप में लक्ष्मण शेषनाग के अवतार हैं और उन्हें हमेशा अपनी आंतरिक शक्ति पर भरोसा रहा है । सुन्दरकांड में वे 'देव' या भाग्य को एक बाहरी शक्ति मानकर कहते हैं नाथ दैव कर कवन भरोसा।सोषिअ सिन्धु करिअ मनरोसा।मन की इस शक्ति पर विश्वास उन्हें इसीलिए है क्योंकि उनकी कुंडलिनी जागृत है।वे शेषनाग साइको फिज़िकल एनर्जी का रूपक हैं। वे एक पोटेंशियल ऊर्जा हैं और उन्हें राम से, विष्णु से, जीवन से अलग नहीं माना जा सकता। कुंडलिनी ऊर्जा हमारी चेतना की तरह है  यह भी जीवन-रचना करती है। लेकिन यह लक्ष्मण के अनुतत्व को पहचानने के लिए काफ़ी नहीं । लक्ष्मण को पहचानने के लिए कुछ सूत्र स्वयं गोस्वामीजी  ने दिया हैं लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार ।लक्ष्मण शेष की तरह फुफकार भी करते हैं।माखे लखनु कुटिल भइँ भौहें।रदपट फरकत नयन रिसौहें। वह फुफकार उनका स्वभाव है। भरत के चतुरंगिणी सेना समेत आने की खबर सुनने पर 'अति सरोष माखे लखनु' के रूप में पुनः वे तमतमाते हैं । जनक की सभा में वे भगवान(राम)से कहते हैं 'जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं।कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं'  यहाँ लक्ष्मण शेषावतार होने से यह सब स्वभाव से बोल रहे हैं, अभिमान से नहीं : 'कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू' । उनके क्रोध ('डगमगानि महि दिग्गज डोले') में उनके उसी कॉस्मिक स्वरूप का वर्णन है। इसलिए धनुष भंग के समय चरन चापि ब्रह्माण्डु' की बात कही गई है । वे शेष हैं तो कड़वा सत्य बोलते हैं। परशुराम को वे 'कटुवादी' लगते भी हैं।  परशुराम उन्हें जाने बिना'विष रस भरा कनक घटु जैसे' कह देते हैं। लक्ष्मण इसी बात पर हँसते हैं 'सुनि लछिमन बिहसे बहुरि ' । लक्ष्मण इसलिए हँसते हैं क्योंकि परशुराम उनके वास्तविक स्वरूप को जाने बिना निन्दा में ही सहज सत्य कह गए हैं। शेष विष रस भरे तो होंगे ही लेकिन यह वह विष नहीं है जो अहितकारी हो ।यह  शेष  विष्णु के आश्रय हैं,  शिवजी के वक्षः स्थल पर हैं . 'यस्योरसि व्यालराट।' इससे गोस्वामीजी एक बार फिर शैव वैष्णव एकता के संकेत देते हैं। जब राम वन गमन के लिए तैयार होते हैं तो लक्ष्मण कहते हैं : मोरे सबइ एक तुम्ह स्वामी । दीनबंधु उर अन्तरजामी । वे यह बात सिर्फ़ माधुर्य के लिए नहीं कह रहे बल्कि ऐश्वर्य रूप की ओर इशारा करने के लिए भी बोल रहे होंगे ।लक्ष्मण निषाद के साथ जब बातें करते हैं तो उनके इस शेष वाले रूप का अर्थ और समझ में आता है। 'सपने होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ ।जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ।विष्णु के सदा साथ रहने वाले शेष उनके प्रपंच तंत्र या माया को भी सबसे ज्यादा समझते होंगे । इस वैराग्य के साथ ही शेषनाग में लोक हितकारी फुफकार कम नहीं है । सुग्रीव के मद में डूबने की बात हो या रावण को 'आवा कालु तुम्हार' की चेतावनी हो, लक्ष्मण हर जगह अपनी इस फुफकार को दिखाते हैं।  यहाँ शेषनाग के मधुर रूप  को लक्ष्मणजी निषादराज से बताते हैं जानिअ तबहिं जीव जग जागा ।जब सब विषय विलास बिरागा। नाग की क्षिप्रता (swiftness) शूर्पणखा के नाक-कान काटने वाले प्रसंग में दिखती है : लछिमन अति लाघवँ सो नाक-कान बिनु कीन्हि । लक्ष्मण Lax-man नहीं हैं । वे फुर्तीले हैं। द्रुत और तत्पर । एक पर्याय अनंत रह ही गया है। उनका रहस्य न मेघनाद को समझ में आता है न रावण को। दोनों शक्ति लगने के बाद उनके मूर्छित शरीर को उठाने का प्रयत्न करते हैं और दोनों ही से नहीं उठते किंतु हनुमान दोनों बार उनके सामने से उन्हें सहज ही उठाकर ले जाते हैं और इस जगदाधार पर मेघनाद व रावण विस्मय करते रह जाते हैं। ब्रह्मा,शंभु और फणीन्द्र किसी सर्विस सेक्टर में नहीं लगे हुए हैं। राम से उनके रिश्ते मुवक्किल के नहीं हैं।यह तो ऐसी सेवा है जिसमें न प्रत्याशा है, न कोई शर्त । इनके रिश्ते तो हज़ारों अदृश्य तागों से बँधे हुए हैं। यह सेवा नित्यप्रति की है। यह कोई स्पेअर टाइम में की जाने वाली सेवा नहीं है। यह तो अहर्निश सेवा है।
दूसरे ‘ब्रह्माशंभुफणीन्द्रसेव्यमनिशं' की टीका जितनी
ब्रह्मा, शिव या शेषनाग पर है, उतनी राम पर भी ।
'सेवित' न कहकर 'सेव्य' कहना राम की योग्यता पर
टीप दर्ज़ करना है कि मूल प्रश्न अर्हता का प्रश्न है । कि
राम यह डिज़र्व करते हैं, क्योंकि वे अपने अस्तित्व की
संकीर्ण परिधियों को अतिक्रांत कर 'गीर्वाण शान्तिप्रदं '
के लिए कृतसंकल्प और कटिबद्ध हैं, इसलिए इन तीनों
की अक्षय शक्तियों का सतत सिंचन राम को ऊर्जस्वित
किए रहता है।अब बात वेदान्तवेद्यं पर विचार करते हैं।
ज्ञानगम्य जय रघुराई की बात कहने वाले गोस्वामीजी  राम को वेदान्तवेद्यं कहते हैं। वे वेदान्त से जानने योग्य हैं लेकिन वेदान्त क्या है? वेदों का अन्त नहीं,  बल्कि वेदों का लक्ष्य है । वेद भारत का सनातन प्रमाण हैं। वेदान्तवेद्यं कहकर  गोस्वामीजी हमें याद कराते हैं कि हमारे पास एक बड़ा बौद्धिक संसाधन मौजूद है जो  'तिलों में तैल की भाँति सुप्रतिष्ठित है'। :तिलैषु तैलवद् वेदे वेदान्तः सुप्रतिष्ठितः ।और भी 'न वेदान्तात् प्रबलं मानमीक्ष्यते' वेदान्त से अधिक प्रबल प्रमाण है ही नहीं। वेदान्त सिर्फ ज्ञान नहीं है।गोस्वामीजी  जब अवतारी राम को वेदान्तवेद्यं बोल रहे हैं तो वे उस ज्ञान की बात नहीं कर रहे जो अरण्यों और कंदराओं में, हिमालय की शृंखलाओं में उपलब्ध रहस्य है। वे उस अनुभव की बात कर रहे हैं जो गरीब की झोपड़ी में, शबरी के आश्रम में, दिन- प्रतिदिन के जीवन में हमें स्फूर्त करता है, जो हममें सत्यमेव जयते नानृतं का मनोबल विकसित करता है। यह वेदान्त किसी की छाया से दूषित नहीं होता क्योंकि यह आता ही द्वैत की उस परछाई को हटाकर है जो हमारी दृष्टि में दुविधा पैदा करती है। यह वेदांत व्यवहार मांगता है। विवेकान्द कहा करते थे कि वेदांत का आलोक घर-घर ले जाओ, प्रत्येक जीवात्मा में जो ईश्वरत्व अंतर्निहित है, उसे जगाओ । ज्ञान या बौद्धिक स्तर पर वेदान्त की स्वीकृति और व्यवहार में उपभोक्तावादी ऐषणाओं की गुलामी - ये नहीं चलेगा । ज्ञान के स्तर पर वेदान्त का अद्वैत व्यवहार के स्तर पर निषाद, केवट, शबरी को गले लगाकर और उनके जूठे बेर खाकर ही प्रमाणित होगा। वेदान्त या वेद को पलायनवादी कहने वाले यह नहीं देखते कि कृष्ण और राम दोनों ने उससे जीवन सक्रियता की प्रेरणा पाई । गीता का कर्मयोग तो है ही, योग वाशिष्ठ राम के बारे में ही एक कथा बताता है, जो वेदान्त-प्रेरित है। तदनुसार भगवान राम को संसार से तीव्र वैराग्य हुआ और वे विरक्त जीवन जीने के लिए तत्पर हो गए तो महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि राम, तुम संसार का त्याग क्यों करते हो । संसार क्या ब्रह्म से भिन्न चीज़ है? आलोचकों द्वारा यह नहीं देखा गया कि ‘जगन्मिथ्या' कहने वाला ‘अमृतस्य पुत्राः वयम्' भी कह रहा है । वेदान्त उस मूल अमृत स्रोत से हमें जोड़ रहा है। उससे जुड़कर ही राम उस रावण को मार सकेंगे जिसकी नाभि में अमृत है । ब्रह्म वह जो विश्व की नाभि है और अपने स्वरूप मात्र में अमृत है, रावण वह है कि जिसकी नाभि में अमृत है, जो विश्व में विस्तृत और व्याप्त नहीं है, वह एक ऐसी ऊर्जा नहीं है जो कण-कण में हो और अपने स्वरूप में भले बदल जाए, लेकिन संहति में नहीं । ब्रह्म को इसीलिए अमृतगर्भ कहा गया है। रावण अमृत-तत्व का भी कैपिटलाइजेशन करता है। उसे वह कण-कण में नहीं बिखराता, अपनी नाभि में समेटे हुए है। इसीलिए गर्भ में अमृत होते हुए भी वह अमृतगर्भ अर्थात्  ब्रह्म राम का विपरीत ध्रुव है । मनु ने  बाहुबल से कमाकर खाए हुए अन्न को अमृत और भीख में मिले अन्न को मृत कहा था- मृतंस्याद्याचितं भैक्ष्यममृतंस्या कदाचितं। पुरुषार्थी जीवनोन्मुख  वेदान्त का प्रकट कर्माचरण हैं  राम।तभी तो गोस्वामीजी  के राम  वेदान्तवेद्यं  हैं।
विभुम् को सुनते है आदिशंकराचार्य के विचारों में।
आदिशंकराचार्य  ने भक्ति की पंच स्वरूपा स्थितियाँ बताई थीं। उनमें से तीसरी है :‘साध्वीनैज विभुम्’। यह एक ऐसी स्थिति है जैसी कि किसी पतिव्रता की अपने पति के प्रति प्रेम और निष्ठा की स्थिति होती है। लेकिन यहाँ गोस्वामीजी  का विभुम् सर्वव्यापकता का विभुम् है। शिवाष्टकम् में यही विभुम् है- प्रभुं प्राणनाथम् विभुं विश्वनाथम्।विष्णु पुराण में 'मनसैव जगत सृष्टिं संहारं च करोति या।' कह कर विष्णु भगवान के इसी ‘विभु’ स्वरूप का वर्णन है जिसमें वह अपने संकल्प मात्र से जगत का सृजन और संहार करता है। विभुं ईश्वर का वह गुण है जिसके द्वारा वह ब्रह्मांड को - उसके सभी अंगों को एक साथ अपनी उपस्थिति से सर्वत्र भरता है। ईश्वर का अंश,  ईश्वर - हर स्थान पर मौजूद है। इसका शायद एक अर्थ हमारे लिए यह है कि ईश्वर से बचकर नहीं जा सकते, ईश्वर से छुप नहीं सकते, ईश्वर से पलायन नहीं किया जा सकता है।यदि हम पाप कर रहे हैं तो वह हमें देख रहा है।ईश्वर एक अनलिमिटेड कंपनी है। ऐसा साथ जो असीमित है। एलन टर्नर का कहना है कि‘गॉड इज़ नॉट प्रेजेंट इन ऑल स्पेस ही इज़ प्रेजेंट टू ऑल ऑफ़ स्पेस ।' यानी हमारे आकाश के प्रत्येक बिन्दु में उस विभु की पूर्ण व्याप्ति है। हर समय उसके सामने है।हर स्थान उसके सामने है। कण कण में परमात्मा है।हमने उन्हें अंतर्यामी, घटघटवासी, चराचरगुरु,जगन्निवास, विश्वंभर, विश्वात्मा जैसे नाम इसी कारण दिए । श्वेताश्वर उपनिषद् में इसे 'व्याप्तं सर्वमिदं जगत्' के रूप में व्याख्यायित किया गया । कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तल में इसे 'या स्थिता व्याप्य विश्वम' कहा । गोस्वामीजी ने राम की विभुता दिखाने के लिए एक बड़ा रोचक प्रसंग चुना है । वह समय जब सारे देवता अपने संकटमोचक भगवान श्री हरि को पुकार रहे हैं और विमर्श कर रहे हैं कि वे कहाँ मिलेंगे। तब कोई कहता है कि वे वैकुंठ में मिलेंगे तो कोई कहता है क्षीरसागर में। भगवान शंकर उस  अस्त-व्यस्त  भीड़ , जिसमें हर कोई कुछ बोल रहा है मौका पाकर एक वचन के ज़रिए देवताओं की आँखे खोल देते हैं। वेकहते हैं 'हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना। देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं। अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी। 'ईश्वर सर्वतोवृत्त है, इसे कितने मधुर तरीक़े से यहाँ समझाया गया है। देवता ईश्वर के दर्शन ही तब कर पाएँगे जब वे सर्वतोदिक् परमात्मा के इस रहस्य को समझें । राम विश्ववेदा हैं, वे सबके मन की बात जानते हैं। वे ऊपर नीचे अन्दर बाहर, इधर उधर, कहीं भी, गली गली, गाँव गाँव, चप्पे चप्पे में जिधर तिधर, नगरी नगरी, द्वारे द्वारे चहुँ ओर विराजते हैं।'विभुं' सिर्फ़ सार्वत्रिक व्याप्ति की भौतिकता  नहीं है, वह सर्वज्ञानी  और।सर्वशक्तिमान होने की भी स्थिति है।  कुछ लोगों का मानना है कि ईश्वर के सर्वज्ञाता होने और मनुष्य के स्वतंत्र संकल्प के बीच अंतर्विरोध है। ईश्वर का 'ज्ञान' हमारी चयन - स्वतंत्रता फ्रीडम ऑफ़ च्वाइस को प्रभावित करता हो, यह ज़रूरी नहीं है। ईश्वर को हमारी क्रियाओं का ही नहीं, हमारी चीज़ों का ज्ञान होने की बात कही गई है। ईश्वर हमारे कारनामे ही नहीं, हमारी भावनाएँ और विचार भी जानता है। बिना किसी सेंसरी डेटा के। बिना दुनिया के साथ किसी तरह की भौतिक अन्तः क्रिया के। ईश्वर का जानना सीधा है। क्या एक ग़ैर-भौतिक सत्ता जानती है? मनुष्य एक भौतिक सत्ता है, अतः उसे आंशिक ज्ञान ही उपलब्ध है। चूंकि ज्ञान मस्तिष्क की विशेषता है तो 'विभुं' कोई प्रज्ञावान ही होगा। कोई आब्जेक्ट नहीं, सब्जेक्ट । कोई थिंग नहीं, कोई बिइंग |दूसरे विभु शब्द के आधार पर प्रारंभ से ही भारतीय दर्शन में एक उदारवाद चलता रहा जो बहुत प्रगतिशील था । विभु यदि सर्वव्यापकत्व का गुण है तो जातिगत ऊँच नीच या रेसिस्ट बातें कैसे चल सकती हैं? विभु तो अणु में भी है। मनुष्य चाहे किसी भी वर्ण, धर्म,जाति का हो, वह तो 'अमृतस्य पुत्राः' है। इसलिए राम निषाद, केवट, शबरी, गीध, वानर में किसी भी किस्म का भेदभाव या छुआछूत नहीं करते।ऋग्वेद में इस विभुं को हज़ारों आँख वाला और हज़ारों पैर वाला कहा गया जो विश्व को सर्वतः स्पर्श करता हुआ दस अंगुल आगे गया हुआ है:सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिँसर्वतः स्पृत्वाઽत्यतिष्ठद्दशाङगुलम्।।
ऐसा विभुं संकीर्णताओं में कैसे फँसेगा। जिनमें हमारे कुछ बंधु  फँसाना चाहते हैं? स्कंद पुराण में  'श्रीराम शरणं समस्त जगतां' कहा  गया है। जब श्री रामचन्द्र समस्त संसार को शरण देने वाले हैं तो उसमें से किसी जाति विशेष को बहिष्कृत नहीं किया जा सकता । शंकराचार्य ने निर्वाणष्टक में ‘न मे जातिभेदः'क्यों कहा था।भागवत ने 'सर्वभूतप्रियो हरिः'अर्थात् भगवान को सभी प्राणी प्रिय हैं, कहा। विभु की अवधारणा जात-पांत और मजहब के सकरेपन के विरुद्ध सक्रिय होती है। वह पेड़-पौधों, पशुओं, तितली- झींगुर की भी  दुनिया में  भी है, सर्वत्र वही तो है।
रामाख्यं कह कर गोस्वामी तुलसीदासजी राम कहे जाने वाले ईश्वर को प्रणाम करते हैं। ईश्वर एक अमूर्त सिद्धांत की तरह गोस्वामीजी का अभिप्रेत नहीं है।वे समझते है कि वे जिस धर्म का प्रतिपादन करना चाह रहे हैं, उसकी सबसे अच्छी अनुशंसा किसी दर्शन की किताब से नहीं होगी बल्कि एक ऐसे चरित्र, एक ऐसे जीवन के प्रमाण से होगी जो हमें प्रेरित कर सके। शंकराचार्यजी कहा है : 'स्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभिधीयते ।' अपने स्वरूप के अनुसंधान को ही ‘भक्ति' कहते हैं। गोस्वामीजी 'मायामनुष्यं' के मनुष्य रूप को दिखाना चाह रहे हैं। अपने जैसा ही ईश- स्वरूप दिखाने की यह कोशिश इसलिए है क्योंकि सत्य उनके लिए किसी शब्द का उच्चारण नहीं है। वे उसे जिया जाता हुआ दिखाना चाहते है जो हमारे दैनिक जीवन में समाहित हो। हमारी दिनचर्या में व्यवहृत हो । ईश्वर के रहस्य की उलटबाँसियाँ आख्या नहीं बन सकती हैं। इसलिए तुलसी ने एक चरित ढूँढ़ा और उसी में ईश्वरीय गुणों की आभा दिखाई। वे विश्वास नहीं करवाना चाहते हैं, वे दिखाना चाहते हैं। इस मायने में वे कुछ-कुछ  महात्मा गौतम के क़रीब है। जो आओ और मानो (कम एंड बिलीव) की जगह आओ और देखो (कम एंड सी) की बात करते है। जैसे बुद्धदर्शन में कहा जाता है : यदि मेरी बंद मुट्ठी में मोती है तो मेरा यह बताना कि मेरे पास मोती है, सामने वाले के लिए विश्वास का प्रश्न पैदा करता है। लेकिन यदि अपनी मुट्ठीमैं खोल दूँ तो सामने वाला स्वयं देख लेता है कि मुट्ठी में मोती है, तब वह अविश्वास का प्रश्न ही नहीं रह जाता । गोस्वामीजी ने यही किया है। उनका सगुण ईश्वर, उनका राम  मोती वाली मुट्ठी का खुलना है।गोस्वामीजी ने राम की झाँकी दिखाई ।रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं काइल।जो आँख में ही न उतरा वो लहू क्या है । गोस्वामीजी ने ब्रह्म को हमारी आँख में उतार दिया। उन्होंने राम के इतने विज़ुअल्स दिए कि वे आज हिन्दुस्तानी चेतना में रच-बस गए हैं। वे हर प्रसंग और संदर्भ में हमें अनुप्राणित करते हैं ।वे एक आइकॉन और एक इमेज देते हैं। अमूर्त की गीली मिट्टी से अपनी प्रतिभा के बल पर वे एक जीवन्त प्रतिमा तैयार करते हैं।एक कवि का आत्मविश्वास। भारतीय समाज की कर्कशताओं को खत्म कर एक समन्वित रूप देने की कोशिश। उनके राम वहाँ हैं जहाँ द्वैत खत्म हो जाते हैं: 
मैं अरु मोर तोर मैं माया । मैं और मेरा, तू और तेरा
यही माया है । राम की कथा सुना रहे भगवान शंकर कहते हैं:-पुरइनि सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म।मायाछन्न न देखिअ जैसे निर्गुन ब्रह्म ।यानी घने कमल के पत्तों की आड़ में कमल का जल्दी पता नहीं चलता जैसे माया से ढँके रहने के कारण निर्गुण ब्रह्म नहीं दिखता।देखना और दिखाना यह गोस्वामीजी के लिए ज़रूरी था । मध्यकाल में माया का तमिस्र तो और भी सघन हो चला था। इसलिए निर्गुण ब्रह्म की जगह राम की आख्या ज़रूरी थी। उन्होंने दर्शन को देखने के लिए
पर्याप्त नहीं माना बल्कि दृष्टांत उनके हिसाब से ज़रूरी
हो गया था । अवतार का अर्थ है कि तर्क नहीं, साक्ष्य
आया है। अवतार का अर्थ है कि सिद्धांत नहीं, साहचर्य
और सहभागिता आई है।  गोस्वामीजी इस ज़रूरत को महसूस कर रहे थे। सौभाग्य से उन्हें राम मिल गए। मैं इस अँधेरे के दिल में उतरने वाला था। ये तू कहाँ से लिए रोशनी निकल आया। सभी निकलते हैं इस मोह जाल से मरकर। मेरा नसीब कि मैं जीते जी निकल आया। राम की रोशनी ने उनकी रोशनाई को जगमगाया । उस प्रकाश-पथ पर उन्होंने भारतीय अन्तःकरण को ले चलने की सोची। एक छवि की रचना. बल्कि पुनर्रचना क्योंकि चल रहे पाखंड के प्रति 
धर्मनिरपेक्षतावादियों को यह स्वीकारना कठिन पड़ता।
जो व्यक्ति अपने समय की आलोचना इतने निष्ठुर और 
निर्मम तरीक़े से करता है जो हर समय ही प्रासंगिक 
लगती है,  सुनिए तुलसी की फटकार : जे जनमे कलिकाल कराला।करतब बायस बेष मराला ।चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े ।कपट कलेवर कलि मल भाँड़े ।बंचक भगत कहाइ राम के । किंकर कंचन कोह काम के। : क्या आपको ये शब्द
आज भी चरितार्थ होते नहीं लगते । लेकिन 'रामाख्यं' का अर्थ यह नहीं है कि राम एक आख्यान या एक गल्प मात्र थे और इतिहास में नहीं थे।आख्या का अर्थ उक्ति या व्याख्या है। आख्या का अर्थ ऐतिहासिक और प्रसिद्ध है। आख्याति का अर्थ है कथन। आख्यान कथन, वर्णन, वृत्तांत, बात, कहानी, पुराणकथा, मिथक कुछ ही हो सकता है। आख्यायिका कहानी, किस्सा, छोटी कहानी, पुराणकथा, वृत्तांत है।रामाख्यं राम की गोस्वामीजी के द्वारा की गई व्याख्या भी है।राम के इतिहास में होने के बारे में संदेह करने की जगह नये इतिहासकार अब ज्योतिर्विधागत डेटिंग का सहारा ले रहे हैं। गोस्वामीजी  तो स्वयं इसे 'रघुनाथगाथा' कह ही  रहे हैं। वे
तो रामचरितमानस के प्रारंभ में ही 'तिन्ह कहुँ मधुर
कथा रघुवर की' कहते हैं, 'करिहउँ रघुपति कथा सुहाई 'कहते हैं, वे कहते हैं 'जागबलिक जो कथा सुहाई', वे कहते हैं 'कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी' और यह क्रम लगातार चलते हुए जब मानस के अंत तक पहुँचता है तो तुलसी कहते हैं :- 'मति अनुरूप कथा मैं भाषी',' 'राम कथा गिरिजा मैं बरनी' । वे इतिहास नहीं लिख रहे हैं । वे स्टोरी टेलिंग में व्यस्त हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे राम की अनैतिहासिकता पर कोई अंतिम निर्णय कर रहे हैं। वे तो एक महाकाव्य का सृजन कर रहे हैं । इतिहास लिखने की जगह वे एक इतिहास बना रहे हैं ।लोग कहते हैं कि इतिहास राख की बाल्टी है ।माना । लेकिन विकल्प फिर भी हमारे पास हैं, कि हम
इस राख को कीचड़ की तरह मलें, विभूति की तरह
धारण करें, या यह देखें कि कैसे इसी राख से हमारी
आहत और निस्पन्द सभ्यता और राष्ट्रीय चेतना का
फीनिक्स पक्षी पुनर्जीवित हो सकता है। 
जगदीश्वरं जगत का ईश्वर,सभी जगह ईश्वर । सर्व खल्विदं ब्रह्म । गोस्वामीजी ने जगदीश्वरं की उपाधि के साथ भारतीय विश्वास प्रणाली के एक बड़े आधार को उल्लिखित किया हैं । इस विश्वास प्रणाली ने प्राचीन समय से ही दुनियाभर को प्रभावित किया है।गोस्वामीजी
 जो 'सीय राममय सब जग जानी' या 'ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी । सत चेतन घन आनंद रासी' की बात करते हैं, वे पदार्थ के इतने बड़े प्रेमी नहीं हैं। क्या कभी देखा गया है कि कोई चीज़ स्वयं का ही कारण हो क्योंकि तब उसे अपने से ही पहले होना होगा जो सम्भव हीं आसपास भी नहीं हैं। 'जगदीश्वरं' का तर्क प्रकृति और खगोल के उत्सव का तर्क है । इस जगत सर्वस्व से एकात्म होना ईश्वर से मिलना है । ईश्वर को घटघटवासी, जगदात्मा, जगन्नाथ, त्रिभुवनेश्वर, त्रिलोकीश्वर, विश्वंकर, विश्वंभर, विश्वकर्मा, विश्वनाथ, विश्वपाल, विश्वात्मा, विश्वाधिप, विश्वेश्वर, सर्वांतर्यामी, सर्वेश्वर कहकर हम इसी बात की स्वीकारोक्ति करते हैं कि ईश्वर से एकाकार होने का अर्थ विश्व या जगत से एकाकार होना है, उस चिन्मयी शक्ति से सायुज्य जो इस पदार्थ को अर्थ देती है।जब जगत और ईश्वर का ऐक्य है। वैदिक विचार था : ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत - इस सारे संसार के सभी पदार्थों में ईश्वर व्याप्त है अर्थात् सब कुछ ईश्वरमय है। क्या यही अल्बर्टआईंस्टीन की 'जागतिक धार्मिक भावना' (कास्मिक रिलीज़स फीलिंग) थी? कबीर जब कहते थे कि 'जहँ-जहँ भगति कबीर की तहँ-तहँ राम निवास' तो क्या वे इसी तरह की अनुभूति नहीं करते थे ? विश्व में ईश्वर की आभा को देखने वाले उसके प्रति उपभोगवादी जीवनदृष्टि नहीं रख पाएँगे। न वे उसका बाज़ार बना पाएँगे। तब वे उसे सस्टेनेबल बनाएँगे-'यह नीड़ मनोहर कृतियों का' तब उस स्थिति में नहींआएगा कि बसंत खामोश हो जाए। तब ज़हरीले रसायनों से धरती की उर्वरा शक्ति पर हमला न किया जाएगा ।तब धरती जल-संग्रह के काम आएगी, जल-उत्खनन के नहीं ।तब , एक सच्चा अस्ति-भाव या आस्तिकता होगी ।
सुरगुरुं स्वयं में बहुत कुछ समाहित किया हुवा है।
पूर्वी सभ्यताओं में गुरु का महत्व बहुत अधिक रहा है। भोले बाबा अपनी वेदान्त छंदावली में कहते हैं कि:-
गुरु कीन कृपा भव त्रास गई । मिट भूख गई छुट प्यास गई। तुलसीदासजी भगवान राम को ‘सुरगुरुं' कहते हैं, अपने समय के अति प्रचलित सद्गुरु शब्द का इस्तेमाल वे नहीं करते। कबीर-वाणी तो उनके समय में और ज्यादा ही गुंजित रही होगी । सतगुरु की महिमा अनन्त,तो भी तुलसी राम को सद्गुरु न कहकर सुरगुरु
क्यों कह रहे हैं? क्या सद्गुरु ब्रह्मर्षि जैसी कोई चीज़ है
और सुरगुरु राजर्षि जैसी? क्या यह कोई वशिष्ठ - विश्वामित्र जैसा द्वन्द्व हो सकता है? ऐसे 'देव' वाली दिव्यता तो 'गुरु' में है ही। स्वयं तुलसी मानस के शुरू में ही कह देते हैं : 'श्री गुरु पद नख मनि मगन जोती । सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।' दिव्य सृष्टि तो है ही । यह दिव्य प्रकाश भी है, सहजोबाई यही कहती हैं :- 'सहजो गुरु दीपक दिया, रोम रोम उजियार।तीनों लोक दृष्टा भये,मिट्यो परम अंधियार।'
दरअसल स्कन्द पुराण की गुरु गीता हो या
द्वयोपनिषद- दोनों में गुरु की अंधकार का नाश करने
वाली भूमिका ही रेखांकित हुई है :-
गुकारस्त्वन्धकारः स्याद् रुकारस्तेज उच्यते
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुदेव न संशयः ।।
'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार और 'रु' का अर्थ
है तेज । अज्ञान का नाश करने वाला तेजरूप ब्रह्म गुरु
ही है, इसमें संशय नहीं है । द्वयोपषिद् का कहना है :
गुशब्दस्त्वन्दकारः स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधकः ।
अन्धकारनिरोधत्वाद् गुरु रित्यभिधीयते ।।
कि 'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार । और 'रु' का
अर्थ है उसका 'निरोधक' । अंधकार का निरोध करने से
-'गुरु' कहा जाता है। 'महामोह तम पुंज जासु बचन
रबि कर निकर',।भारत में देवताओं के गुरु के रूप में यदि इस शब्द की व्याख्या की जाती है तो क्या इसका अर्थ यह है कि भगवान राम को बृहस्पति की भूमिका सौंपी जा रही है  बृहस्पति हमारे शास्त्रों में देवताओं के गुरु हैं वैसे ही जैसे दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य हैं । देवताओं के गुरु होने से बृहस्पति इस स्थिति में पहुँचे कि गुरु नाम ही उन पर रूढ़ हो गया ‘देवानां च ऋषिणां च गुरुं कांचन सन्निभम् । बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम् ।' लेकिन सुरगुरु के रूप में गोस्वामीजी
राम को बृहस्पति की तरह नौ ग्रहों में से एक नहीं बनाना चाह रहे होंगे । ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेजस इन छः विशेषताओं से सम्पन्न विष्णु देवताओं में श्रेष्ठ हैं। सुरगुरु की कल्पना भी ऋग्वैदिक  है : परमं पदं सदा
पश्यन्ति सुराया :- सभी सुर (देवता) भगवान विष्णु के
पैरों की ओर देखते हैं । ऐतरेय ब्रह्मण भी उन्हें देवाधिदेव के रूप में देखता है। चूँकि शिव और विष्णु का एकात्म है, इसलिए आश्चर्य नहीं कि 'वंदे शुम्भुमुमापतिं सुरगुरुं के रूप में शिव-वंदना भी की गई है । ' सुंदर कांड भी रुद्रावतार हनुमान का कांड है। राम को कहा भी गया है- स एष पूर्वेषामपि गुरुः ।लेकिन सुरगुरु के इन पारम्परिक अर्थों के अलावा मुझे लगता है कि इसका एक सीधा सादा अर्थ भी है। पूर्व में हम गीर्वाण के प्रसंग में देवताओं को भले आदमियों के अर्थ में व्याख्यायित कर चुके हैं। लेकिन भले व्यक्तियों को भी प्रबोधन और निर्देशन की आवश्यकता होती है। वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में गुणों की समष्टि की संज्ञा देवता हैं। राम वही करते हैं। ये देवता ही हैं जो पृथ्वी पर रीछ और वानर के रूप में उतरे हैं । उनके अवतार से पूर्व की पृष्ठभूमि ही यही थी :-गगन ब्रह्मबानी सुनि काना ।
तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ।।
तब ब्रह्माँ धरनिहिं समुझावा ।
अभय भई भरोस जियँ आवा ।।
निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ |
बानर तनु धरि धरि महिं हरि पद सेबहु जाइ ||
और यह होता भी है :-
बनचर देह धरी छिति माहीं।
अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ।।
गिरिं तरु नख आयुध सब बीरा ।
हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ।।
ये भले लोग पृथ्वी पर यहाँ वहाँ फैल जाते हैं
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रुचि रूरी' । अभी 'निज निज' है क्योंकि अभी 'सुरगुरु' का साथ नहीं मिला है। भले लोगों की अच्छाइयाँ बिखरी हुई हैं। बुरे तो मिल बैठते हैं । चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह । उनके बीच तो एका हो जाता है। उनकी गैंग और बैंड बन जाते हैं। माघ शिशुपाल वध में कहते हैं सुसंहतैर्दधदपि धाम नीयते तिरस्कृतिं बहुभिरसंशयं परै': 'तेजस्वी व्यक्ति भी संगठित होकर आए हुए बहुत से शत्रुओं द्वारा निश्चित रूप से तिरस्कृत कर दिया जाता है।' राम को यह सच्चाई पता है, सज्जन के एकांत स्वभाव की सच्चाई । यह स्थिति अंततः सज्जनों के अहित में ही कार्य करती है। अतः वे उस सज्जनता को एक दिशा, एक उद्देश्य, एक प्रयोजन देने का गुरुतर दायित्व निबाहते हैं। माना कि सज्जन को सत्ता में बैठे मदांध लोग तिनके के समान समझते हैं। लेकिन भगवान श्रीराम तिनकों से ऐसी रस्सी बनाना जानते हैं कि जो सत्ता के मदांध और मतवाले हाथी को बाँध सके । राम लोक संग्रह करते हैं। एकनाथ ने एकनाथी भागवत में कहा है : अभेद-भक्ति, वैराग्य और ज्ञान का स्वयं आचरण करके उसी मार्ग पर दूसरों को ले आने का नाम ही लोकसंग्रह है। राम के गुरुत्वाकर्षण का यही कारण है। वे भाषण या उपदेश से नहीं प्रबोधते, आचरण का आदर्श रखते हैं। राम के नाम पर कोई गीता नहीं है, वे अपने जिए हुए से शिक्षित और दीक्षित करते हैं,करते आए है और करते रहेगें।
मायामनुष्यं भी हैं राम।
ईश्वर मनुष्य बना, मनुष्य भी फिर से ईश्वर बनेगा:-
गोस्वामीजी यहाँ  स्वयं अपने द्वारा पूर्व में कहे गए 'निज इच्छा प्रभु अवतरइ' 'माया मानुष रूपिणौ रघुबरौ'
 ‘मम इच्छा कह दीनदयाला' को । 'इच्छामय नरवेष सँवारे' को पुनः  मायामनुष्यं  रूप में देख रहे हैं।
 माया भगवान की दासी के रूप में भी बालकांड के अंतर्गत तुलसी द्वारा वर्णित की गई है।राम माया से जब मनुष्य बने थे और शिशु लीला करने लगे थे और जब उन्होंने 'रोदन ठाना' था, जब कौशल्या 'कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना।मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना'
इहा उहा दुइ  बालक देखा।मतिभ्रम मोर की आन बिसेषा। में व्यस्त थीं गोस्वामीजी ने उसे सिसु
चरित पुनीत' कहा है। क्या कारण है कि कौशल्या को
राम में और यशोदा को कृष्ण में उनके बचपन में विराट
के दर्शन होते हैं? यह सिर्फ़ पूत के पाँव पालने में
दिखना नहीं है बल्कि बच्चे में ब्रह्म का होना है। दूसरी
ओर ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया के रूप में अवतरण के वक़्त ही उनकी स्तुति होती है। बिप्र धेनु सुर संत हित लिन्ह मनुज अवतार।निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ।कौशल्या बचपन में जब राम का विराट रूपदेखती हैं तो वे यह भी देखती हैं कि सब प्रकार से
बलवती माया भगवान के सामने अत्यन्त भयभीत होकर हाथ जोड़े खड़ी है : देखी माया सब विधि गाढ़ी। अतिसभीत जोरें कर ठाढ़ी।।युद्ध में राक्षस बार-बार माया से भ्रमित करते हैं और राम माया को किंचित् अवकाश देने के बाद अपने पक्षधरों को निर्भ्रान्त करते हैं। माया बिगत भए सब हरखे बानर जूथ। प्रभु छन महुँ माया सब काटी ।रघुवीर एकहिं तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी । राम मायामनुष्यं हैं, लेकिन मायावी नहीं हैं। वे काकभुशुंडि को बताते हैं : मम माया सम्भव संसारा। जीव चराचर बिबिध प्रकारा। गरुड़ भी माया के इस प्रभुकृत रूप को न समझ पाने के कारण संभ्रम में फँसते हैं और स्वयं काकभुशुंडि भी। लेकिन ज्ञान होने पर काकभुशुंडि गरुड़ को समझाते हैं : ‘माया बस्य जीव अभिमानी। ईश बस्य माया गुन गानी ।' और यह भी 'पुनि रघुवीरहि भगति पिआरी।माया खलु नर्तकी बिचारी' । इसलिए अवतार यदि मनुष्य लीला करता है तो वह उसका निर्वाचन है। वह माया के पाश में नहीं है बल्कि माया का भी प्रयोक्ता है। माया के उस स्पैल को वह किसी सबक़ के लिए इस्तेमाल करता है। राम मेघनाद की तरह टुच्चे जादुई तमाशे नहीं करेंगे । 'देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना ।करै लाग माया विधि।नाना।।  जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला।डरपावै गहि स्वल्प सपेला। शिवजी और ब्रह्माजी तक बड़े-छोटे सभी जिनकी अत्यन्त बलवान माया के वश में हैं, नीचबुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाएँगे तो क्या परिणाम होगा : जासु प्रबल माया बस सिव बिरंचि बड़ छोट।ताहि दिखावइ निसिचर निज माया महि खोट । ईश्वर का तो एक ही बाण ऐसे टुच्चे जादुओं को ख़त्म कर देने के लिए पर्याप्त है : 'एक बान काटी सब माया।' इसी प्रसंग में तुलसी आगे कहते हैं : 'सदा स्वतंत्र एक भगवाना ।' यहाँ गोस्वामीजी की उसी मायामनुष्यं के लिए प्रणति है। तुलसी प्राकृत जन गुनगाना' से चिढ़ते हैं लेकिन इस 'मायामनुष्यं' की स्तुति करने में उन्हें कोई उम्र नहीं है। राम की भौतिक ऊर्जा में जो ईश्वरीय अनुतत्व है, उसने 
गोस्वामीजी को क़लम उठाने पर मजबूर किया । गोस्वामीजी का माया मनुष्य दरअसल माया
से मुक्त मनुष्य है। राम एक साधारण इंसान नहीं हैं।
अंगद रावण के इसी भ्रम का खंडन करते हैं: रामु मनुज
बोलत असि बानी ।गिरहिं न तब रसना अभिमानी ।नारद-पुराण का यह आत्मविश्वास व्यर्थ नहीं था कि जो
भारत वर्ष में जन्म लेकर पुण्यकर्मों से विमुख होता है,
वह अमृत का कलश छोड़कर विष का पात्र अपनाता
है। 'संप्राप्य भारते जन्म सुकर्मसु पराङ्मुखः ।पीयूष कलसं त्यक्तवा विषभाण्डं स मार्गति ।इसलिए भारत में अद्भुत रूप से कर्मठ लोग हैं।भारत में अवतार पापों को उधार लेने के लिए नहीं आता, वह तो विनाशाय च दुष्कृताम् आता है। वह करुणा को भी वितरित करता है, लेकिन वह 'दैत्यं दाश्यते' और 'पौलस्त्यं जयते' भी आता है। गोस्वामीजी के शब्दों में 'बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुजअवतार' लेकिन वह उस भारतीय सैद्धान्तिकी को क्षतिग्रस्त नहीं करता जहाँ 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' की भावना है, जहाँ 'कर्मयोगो विशिष्यते' की स्वीकृति है, जहाँ 'कुर्वन्नपि न लिप्यते'का आदर्श है। गोस्वामीजी
 झूठा आश्वासन नहीं देंगे । वे तो कहेंगे : करमप्रधान विश्व रचि राखा ।जो जस करहि सो तस फल चाखा।, यह 'यथा बीजं तथा निष्पत्तिः' (जैसा बीज वैसा फल का चाणक्य सूत्र भारतीय मनीषा को काफ़ी लम्बे समय से प्रभावित करता आया है। कृपया देखिए 'यः कुरुते स भुंक्ते' की मान्यता, संयुक्त निकाय का 'यादिसं वपते बीजं तादिसं हरते फलं' वाला प्राकृत पर्याय,  राम मनुष्य हैं ।राम मनुष्य मात्र नहीं है । अंगद इन सत्ताओं के सतही अर्थ ही समझने वालों को मूर्ख कहते हैं । वे रावण को कहते हैं :राम मनुज कस रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा। पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा।अन्नदान अस रस पीयूषा।बैनतेय खग अहि सहसानन।चिंतामनि पुनि उपल दसानन ।सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा । कि क्यों रे दुष्ट मूर्ख! श्री रामचंद्रजी मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी हैं ? और गंगाजी क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है ? और श्रीरघुनाथ जी की अखण्ड भक्ति क्या (और लाभों जैसा ही) लाभ है?
इसी क्रम में अंगद हनुमान के बारे में भी रावण को
सावधान करते हैं : सेन सहित तव मन मथि बन उजारि
पुर जारि ।कस रे सठ हनुमान कपि गयउ तो तव सुत
मारि ।। वे कहते हैं कि पहचान, हनुमान जी क्या सिर्फ़
वानर हैं?यह है कि हम नहीं । राम एक जीवनी नहीं हैं, एक क्रिया है और एक प्रभाव भी। राम का नर रूप उनकी बायोग्राफ़ी है, लेकिन राम की प्रभा अनंत को संबोधित करती है। राम की जैविक शारीरिक संरचना से आगे एक उनकी आत्मा है, एक उनका अध्यात्म | वह क्या है? मायामनुष्यं के रूप में राम उसी जिज्ञासा और शोध का विषय हैं। 
हरिं के सन्दर्भ में एक प्रसिद्ध उक्ति है:-
अहो चित्रमहो चित्रमहो चित्रमिदं द्विज |
हरिनाम्निस्थिते लोकः संसारे परिवर्तते ।।
यह बड़े आश्चर्य की बात है, बड़ी अद्भुत बात है, बड़ी विचित्र बात है कि संसार में हरि का नाम रहते हुए भी लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार में चक्कर काटते हैं। क्या यहाँ 'रघुवर' शब्द के साहचर्य से 'हरि' श्रीरामजी के भक्त- कलेश-हरण की विशेषता इंगित है ? क्लेश हरतिति हरिः।भगवान को हरि कहा जाता है क्योंकि वे अपने भक्तों को अपनी वास्तविक प्रकृति और निज आध्यात्मिक स्वरूप का ज्ञान करा के उनके अज्ञान का हरण करते हैं। अंग्रेज़ी की'हरमनि' (harmony) शब्द उसी हरि की स्मृति से गुंजित है। हरमनिक का अर्थ भी 'अ फ्लूट लाइक साउंड' है, बाँसुरी जैसी आवाज़ । कृष्ण की धुन जो ऐक्य और लय को संभव करती है। सभी का आश्रय स्थल। सभी की शरण है वो । इसी शरण में सारे पाप- ताप और क्लेश छूट जाते हैं । 'हरिर्हरति पापानि' या 'कथ्यते स हरिर्नित्यं भक्तानां क्लेशनाशनः' इसी के आधार पर यह विश्वास भी व्यक्त हुआ होगा : जाति पांति पूछे ना कोई।हरि को भजै सो हरि का होई ।
हरि और हर की मूल धातु 'ह' ही है जिसका अर्थ
है हरने वाला, दूर करने वाला, ले जाने वाला। ईश्वर
हमसे क्या हर ले जाएगा? हमारे पास दुःख, चिन्ता और अहंकार के अलावा है क्या ? ईश्वर हमारा दुरित दूर करने के अलावा और क्या दूर करेगा ? ईश्वर हमारा
हृदय ले जाएगा? वह चिन्तापहारक है । वह हृदय का
ताप हरता है, हड़पता नहीं डलहौजी की हड़प नीति की तरह । सुग्रीव की जगह सुग्रीव को, विभीषण की जगह विभीषण को दे देता है । वह संकटहरण है, वह आपके बैंक बैलेंस का आहरण नहीं करेगा । वह वित्तापहारक नहीं है। ऐसाव्यक्ति जो अपने राज्य अभिषेक की पूर्व संध्या पर घर-बार छोड़ दे, जो बालि और रावण को हराकर भीउनकी सत्ता पर स्वयं काबिज़ न हो, ऐसे व्यक्ति को मायावी स्वर्णमृग के पीछे भागते हुए क्यों बताया गया है? ‘मायामनुष्यं' को मायामृग ने छल दिया ?तपस्वी राम स्वर्णमृग के पीछे भागेंगे? वे उसका रहस्य ज़रूर जानना चाहेंगे लेकिन वित्तापहरण के लिए नहीं ।वे  सोने के मृग के पीछे नहीं भाग रहे हैं, एक स्वायत्त वन्य जीवन में सोना उनके किसी विनिमय के काम नहीं आता। लेकिन इस विचित्र मृग का कौतूहल अवश्य ही अदम्य है। आकर्षण स्वर्णमुद्रा का नहीं है, स्वर्णमृग का है। स्वर्ण का स्वभाव तो निक्षेप का है, गति का नहीं । स्वर्णमृग कुलांचे कैसे मार रहा है ? राम  उस जिज्ञासा के पीछे जाएंगे, न कि स्वर्ण के पीछे। जिसके साथ स्वयं लक्ष्मी है, उसे स्वर्ण का मोह क्यों होगा? लेकिन यहां तो स्वयं लक्ष्मी प्रेरणा दे रही हैं उस स्वर्णमृग के वास्ते । राम
शब्द जिस 'रम' धातु से बना है, उसका अर्थ तो ठहरना,
रुकना, रमना, आराम करना होता है लेकिन राम का
जीवन तो चरैवेति चरैवेति की कथा है। मृग के पीछे ही
नहीं भटके वे अगनित दुर्गम स्थानों को पार किए ।
जिसे सहस्राब्दियों तक लोगों के मन और आत्मा में
रमना था, उसको ज़िन्दगी में स्वयं ठौर न थी, ठिकाना
न था । गोस्वामीजी ने बालकांड की शुरुआत में ही कह दिया था:वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिं।राम कहाने वाले भगवान हरि की मैं वंदना करता हूं। बालकांड में ही हरि को कलयुग के पापों को हरने वाले के रूप में याद किया गया है। श्री हरि के यश का गान करने का विचार तुलसी आगे भी प्रकट करते हैं : गावहिं हरि जस कलि मल हारी।'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की धारणा को स्वीकार करने वाले तुलसी के हरि शब्द में हीअनंतता का प्रतिनिनाद गुंजित है।शास्त्रों में इन्द्र, सूर्य और सिंह को भी हरि कहा गया है और विष्णु, कृष्ण और राम को भी।जीवन की हरीतिमा से जुड़े हुए हैं ये समस्त पर्याय।इन्द्र की वर्षा भी उस हरियाली के लिए उतनी ही ज़रूरी है जितनी सूर्य की ऊष्मा जिससे फ़ोटोसिन्थेसिस संभव होती है।विष्णु तो साक्षात् जीवन है- राम और कृष्ण उन्हीं के रूप । उस हरीतिमा में हरि ही प्रत्यक्ष होते हैं। प्रकृति में उन्हीं की आभा फूट पड़ती है। राम का जीवन इसी हरित का चुनाव है।भवन से वन तक उनकी यात्रा सजावट से सहज तक की यात्रा है, नुमाइश से निसर्ग तक। 14 साल तक प्रकृति का साहचर्य।प्रकृति जिसका एक नाम अदिति भी है । अदिति से ही देवत्व फलित होता है । हरि हर्षित करते हैं तो इसी शस्य श्यामलता से पाई शक्ति के आधार पर । उनका ऊर्जायन इसी हरियाली के बीच हुआ। एक वह समय था जब अरण्य में शिक्षा पाया बटुक दीक्षित होकर समाज में लौटता था। एक समय यह है कि समाज में शिक्षित होकर हमारा युवा समाज से ही कट जाता है। वन में बॉटनी ही नहीं सीखी जाती थी, वनस्पतिशास्त्र बल्कि बोधि और संबोधि के अन्य प्रकार भी उपलब्ध होते थे।राम, बुद्ध और महावीर तीनों प्रासाद की जगह प्रकृति को चुनते हैं। ऐसा करके वे दिए हुए और मिले हुए का उपभोग करने की जगह जीवन को एक एडवेंचर बनाते हैं। कुछ तो होगा कि जिसके कारण तुलसी को हरिप्रिया कहते हैं, वृक्ष को हरिद्रु, हरियाली, तीज और हरियाली अमावस्या प्रकृति की पूजा के पर्व हैं, उनमें हरि को तो उपस्थित होना ही है। जब देवउठनी ग्यारस पर तुलसी की पूजा होती है और आँवला नवमी आदि कितने ही वृक्ष संबंधी त्योहार मनाए जाते हैं तो सभी में हरि ही झाँकते हुए प्रतीत होते हैं। कुछ तो होगा कि दूब को हरितालिका कहा गया । हल्दी को हरिद्रा, कदंब को हरिप्रिय, जवाकुसुम को हरिवल्लभा, पीपल को हरिवास,शाक-सब्ज़ी को हरितक, मृग को हरिण, रत्न को हरितोपल, कुशघास को हरिदर्भ और पत्तों में जीवन की तरह मौजूद क्लोरोफिल को हरतिल । पृथ्वी पर चलने वाली बीर बहूटी में हरि की स्मृति है जब उसे हरिहूति कहा गया । आकाश में चंद्रमा में उनकी झलक देखी गई जब हरिणांक/मृगांक कहा गया । जब हक़ीक़त में हरिसिंगार लहलहाया तो उसमें वे थे। जब कल्पना को साकार करने वाले कल्पवृक्ष के नीचे बैठे तो याद आया कि वह तो हरिचंदन है। समुद्र की सुलभ मछली हरिपृष्ठा है तो नाग की दुर्लभ मणि हरिनग । विश्व में विष्णु को व्याप्त देखने वाली इस मानसिकता ने प्रकृति को प्रभु की सत्ता से चर्चित पाया तो जगह-जगह उनकी याद के दीपक जलाए।कदम्ब को हरिप्रिय या तुलसी को हरिप्रिया कहने के पीछे पौराणिक कथाएँ हैं लेकिन उनके पीछे वृक्ष और वन को उपभोक्तावादी दृष्टि की जगह एक श्रद्धा और आत्मीयता देने का भाव भी है। आम को शिववल्लभ कहने या देवदार को देवदारु कहने, पलाश को ब्रह्मद्रुम कहने और बबूल को ब्रह्मशल्य कहने, मौलसिरी को महापाशुपत कहने और सहजन को कृष्णबीज कहने, साल को देवधूप कहने और बरगद को शिवाह्वय कहने, कमल को विष्णुपद कहने और गुलदाउदी को शिववंती कहने, चमेली को स्वस्तिका कहने, सूरजमुखी को आदित्य भक्ता कहने और पीपल को देवसदन कहने वाली इस संस्कृति के बुनियादी अभिप्राय क्या थे ? क्या ये पागल और बचकानी दुनिया थी या इसके पागलपन में भी एक 'मेथड' थी और इसके बचकानेपन में भी एक तजुर्बा था ? सिर्फ़ पौधों को ये नाम देकर अपने पर्यावरण प्रेम की पूर्ति करने का मक़सद नहीं था ? जुगनू को इंद्रगोप और
बीरबहूटी को इंद्रवधू कहने वाले ये संस्कार छोटे-छोटे
कृमि-कीट को सम्मानित करते थे। पलटू साहब को
'हरि' पर यही विश्वास तो था : 'हरि को भजै सो बड़ा
है जाति न पूछे कोय।सूरदास को भी यही भान था :
हरि, हरि, हरि सुमिरौ सब कोई । ऊँच नीच हरि गनत न दोई।। तो ये छोटे-छोटे कीड़े भी ईश्वर के नाम-संस्पर्श से अनुप्राणित थे । वे तुच्छ न थे। ईश्वर के रूपों में से थे । मनुष्यों से यह नाम- कल्पना पशुओं को जोड़ रही थी।वह अंतर्निर्भरता और  सिम्बाओसिस के वैज्ञानिक सिद्धांत की काव्याभिव्यक्ति थी । इसलिए इसने पृथ्वी का ही एक पर्याय हरिप्रिया रखा । प्रकृति और परमात्मा का यह युगल हमारी सैद्धांतिकी में निरंतर रहा। बावजूद इस अंतर के कि प्रकृति की परिणतियाँ होती हैं, परमात्मा का प्रसाद होता है ।
 लेकिन आज हम  प्रकृति को जिस  तरह नंगा कर,प्रकृति का दोहन कर  जिस उपभोक्तावाद को  पनपाया है वह अनंत का अपमान है। उपभोक्ता वाद वर्तमान और भविष्य को अधिकतम विपन्न कर रहा है। 
हम अपने नाती-पोतों के क़र्ज़दार बन रहे हैं । वहाँ टाइम की इटर्निटी से टकराहट है। प्रकृति में परमपुरुष की उपस्थिति के मायने एक सस्टेनेबल विकास के मायने हैं कि बिना इस व्याप्ति के, बिना हरि की इस मौजूदगी के विश्व एक वंध्या भूमि है।
वंदेऽहं की अद्भुत वंदना को हम समझते हैं :-
वंदना में प्रशस्ति, पूजा और आराधना का भाव है। नवधा भक्तिः अर्चन, आत्मनिवेदन, कीर्तन, दास्य,
पादसेवन,श्रवण, सांख्य और स्मरण के साथ वंदन को भी शामिल करती है।वंदना श्रद्धा भी है।आजकल कई लोग इसे झुकने के अर्थ मात्र  में ले रहे हैं और वंदे मातरम् के वंदे शब्द को लेकर एक अच्छी-ख़ासी बहस की शुरुआत हो गई है और इस शब्द में मूर्तिपूजा (Idolatory) भी ढूँढ़ ली गई है।गोस्वामीजी की कालजयी कृति में यह शब्द आना ही था ताकि इस बहाने हम इस विवाद की जड़ तक पहुँच सकें। पूजा के साथ झुकने का भाव बाइबिल से पैदा हुआ। झुकने की बात हमारे यहाँ न पूजा में थी, न वंदना में ? दास्य भाव की भक्ति तो क्या हमारे यहाँ साख्य भाव की भक्ति भी चली है। मातृभाव, बालभाव किन-किन रूपों में हमारे यहाँ वंदना नहीं होती। वंदना में माधुर्य भाव भी हो सकता है: अधरं मधुरं वचनं मधुरं और सेवकाई भी मधुर हो सकती।  क्या ‘वंदे' शब्द मूर्तिपूजा को बढ़ावा देता है, यह
एक प्रश्न है और दूसरा यह कि क्या मूर्ति अपने आप में
कोई ऐसी तिरस्करणीय चीज़ है कि सभ्यताओं ने उसे
तोड़ने में सदियाँ ख़र्च कीं। 'वंदे' में जयोद्गार या जयघोष
है : जैकारा। क्या वंदे शब्द को शब्दकोश में जय-
जयकार के पर्याय के रूप में नहीं देखा गया? उसमें
कहाँ मूर्तिपूजा हुई? दूसरे : 'वंदे' का एक अन्य शब्दकोशीय अर्थ है- नमन्, नमस्ते, नमामि, नमोनमः । क्या सामने जुहार लगाना मूर्तिपूजा है ? बंदगी क्या 'वंदे' से नहीं मिलती-जुलती? आगे बढ़ें , वंदन पर आएँ । इसमें संस्तवन,वरण, प्रशंसन और पूजन की अर्थ - ध्वनियाँ हैं । वंदन आरती के अर्थ में भी लिया जाता है, यह सही है और यहाँ हमें सामने कहीं मूर्ति दिखाई देती है। वंदन में प्रार्थना भी है। वंदन स्तोत्र भी है। वंदन में ही वंदना भी है जो षोडषोपचार सूची- अर्घ्य, पाद्य, आचमन, आवाहन,आसन, गंध, तांबूल, दीप, धूप, नैवेद्य, परिक्रमा, पुष्प,मधुपर्क, यज्ञोपवीत, वस्त्राभरण और स्नान के साथ में शामिल है। भगवान को मूर्ति नहीं, जीवंत व्यक्ति की तरह मानकर ये सारे उपचार किए जाते हैं। मूर्ति को वास्तविक भगवान नहीं किन्तु उनके रिप्रेज़ेंटेशन के रूप में देखा जाता है। किसी वस्तु में ईश्वर का रिप्रेज़ेंटेशन यदि मूर्तिपूजा है तो क्या क़ुरान, जीसस की मूर्ति और चित्र इसी तरह से प्रातिनिधिक नहीं हैं? मूर्तिभंजन से क्या हिन्दुओं का ईश्वर मरा? पत्थर में ईश्वर था लेकिन ईश्वर पत्थर नहीं था। क्या महमूद ग़ज़नवी के पास ऐसी कोई तलवार थी जो इस अच्युत और अक्षर, इस अव्यय और अविकारी को मार पाती ? क्या औरंगज़ेब के पास कोई ऐसा हथियार था जो उस नित्य और निरन्तर, उस मृत्युंजय और मरणातीत का ख़ात्मा कर पाता ? यदि भारतीयों का ईश्वर पत्थर में होता तो उसे तो अभी तक निपट जाना चाहिए था । उसके साथ-साथ निपट जाना था उस समाज को जो मूर्ति के ‘फाल्स गॉड' को पूजता था। जब आराध्य ही न होगा तो आराधक कैसे बचेगा? लेकिन हुआ कुछ उलटा । यह समाज तो लगभग उन्हीं टर्म्स में परिभाषित होने लगा जिनमें उस अमर्त्य और अविनश्वर को परिभाषित किया जाता था--सनातन । कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी मर गए मारने वाले।आदमी एक सेंसरी बिइंग है और मूर्ति आदमी की इस विशेषता का उपयोग कर उसे भगवत् भजन में एकाग्र करती है। मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा का एक पृथक अध्याय है । यह वह अतिसंवेदनशील समाज है जहाँ पत्थर की भी प्रतिष्ठा है, यह वह श्रद्धा है जो पत्थरों को जीवंत कर देती है। यहाँ शिला को राम छू देते हैं तो अहिल्या प्रसंग घटित होता है। यहाँ हिरण्यकश्यप प्रहलाद को पत्थर में परमात्मा की असंभावना का उपालंभ देता है तो नृसिंह प्रकट होते हैं । पत्थरों के परिप्रेक्ष्य में जान-बूझकर इस अद्भुत कथाओं के ज़रिए किन लोगों का मुँह चिढ़ाया जा रहा है? शालिग्राम और शिवलिंग की पूजा के ज़रिए यह संस्कृति क्या स्वयं यह नहीं जता रही है कि आग्रह रूप का है ही नहीं? यह कैसे संभव हुआ कि जो पत्थरों में आत्मा देखते है वे ही एक सहिष्णु और अनाक्रामक राष्ट्र बना पाए और जो पत्थरों को तोड़ते-फोड़ते रहे उनके क्रूसेड और जेहादों से विश्व त्रस्त हो गया?
करुणाकरं है हमारे राम ।
राम को 'करुणाकर राम नमामि मुदा' के रूप में गोस्वामीजी ने अन्यत्र भी याद किया।ईश्वर की पहचान करुणा से है और इस सुंदरकांड के संदर्भ में राम की पहचान भी करुणा से ही है। करुणा एक उद्रेक है, यह साधी गई चीज़ नहीं है, यह मन के भीतरी स्रोत का स्वाभाविक उच्छलन है। मन का यह भीतरी हिस्सा इस बात का प्रतीक है कि सृष्टि का यह ताना-बाना एक हीआत्मा का विस्तार है। मनुष्य उसी एक पूर्ण का अंश है। उसमें से किसी एक भी टुकड़े का दरकना उस
पूर्ण के खंडित होने का उपक्रम है। यह पूर्ण ईश्वर के द्वारा व्याप्त है और इसलिए किसी भी तरह का टूटना ईश्वर की उस व्याप्ति का व्यतिरेक है। मनुष्य तो अपने आसपास अपनी एक जेल खड़ी करता है जहाँ वह दूसरों से जुदा होकर अपनी अहंकृति और स्वार्थपरता की क़ैद काटता है। मनुष्य का यदि प्यार और ममत्व भी है तो अपने संबंध और परिचय के एक छोटे से दायरे में है। इस वृत्त को विस्तृत करना ईश्वर के अधिकाधिक नज़दीक होना है। ईश्वरत्व के नज़दीक एक ही पैशन की क़ीमत है- वह है कम्पैशन । बट्रेंड रसेल कहते थे कि ज़िन्दगी में तीन आवेग ही उन्हें अपने वश में किए रहे। एक प्यार की प्यास, दूसरी ज्ञान की खोज और तीसरी पीड़ाओं के प्रति करुणा । रसेल कहते थे कि पहले दो आवेग उन्हें ऊपर आकाश की ओर ले जाते हैं- upwards to the heavens जबकि तीसरा उन्हें ज़मीन पर लौटा लाता है। भगवान अवतार लेकर पृथ्वी पर उतरता है तो इसी करुणा के कारण । वस्तुतः ईश्वर की करुणा का दृश्य-पटल आकाश नहीं है, धरती है।
इसलिए ईश्वर भी पार्थिव होकर इस पृथ्वी पर आता है। दूसरी ओर जब मनुष्य करुणावान होता है तो वह सृष्टि से एकसूत्र होता है जो ईश्वरमय है। इसलिए करुणा मनुष्य के लिए एक ऊर्ध्वगामी भावना है। पृथ्वी के दुर्दान्त दुर्भिक्षों में बच्चों-बूढ़ों का दर्द समझना और यंत्रणाओं को झेल रहे अबोधों और निर्दोषों।की मदद करना संसार के मायाजाल में उलझना नहीं है बल्कि उस माया को अतिक्रांत करना है। यह सिर्फ़ मनुष्यों तक सीमित होना नहीं है। भगवान राम की वन में दोस्ती जिनसे होती है, वे संघर्ष की राह में उनके साथी हैं। जिनसे उनका हार्दिक संवाद चलता है वे तरु, पल्लव, पशुवृंद सब इस करुणा के वृत्त में आते हैं। वे आजकल के उन विज्ञानवादियों की तरह नहीं हैं जो पशुओं पर अपनी प्रयोगशाला में इस आधार पर प्रयोग करते हैं क्योंकि वे हमारे जैसे हैं और जब उनसे पूछा जाता है कि क्या ऐसा करना नैतिक है तो कहते हैं कि वो तो इसलिए कि वे हमारे जैसे नहीं हैं। तर्क के इस अंतर्विरोध पर विज्ञान खड़ा हुआ है। राम का हाथ तो गिलहरी पर भी पूरे स्नेह से फिरता है, लेकिन हमारी बात और है । ईश्वर चिड़ियों से प्यार करता है तो उनके लिए पेड़ बनाएगा।आदमी उनसे प्यार करेगा तो पिंजरा बनाएगा । जिस तरह से हमने पशु-पक्षियों के साथ व्यवहार किया है, यदि उन पशु-पक्षियों के पास धर्म की कोई संकल्पना होती तो वो निश्चित ही शैतान के स्वरूप की अभिकल्पना आदमी के आकार में ही करते । राम की संगत पशुओं को देवत्व के स्तर तक उठा देती है, लेकिन हम पशुओं के क़त्ल को धर्म का नाम देते हैं। एक पशु ने एक महान मनुष्य की जगह स्वयं को बलि के लिए क्या प्रस्तुत किया तो, उसके लिए मनुष्यों की भावी पीढ़ियाँ कृतज्ञ होनी चाहिए थीं, लेकिन रिवाज़ यह चल पड़ा कि उसकी पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों का एक ख़ास दिन क़त्लेआम होता है। वे फ़र्क़ यों करते हैं कि क्या पशु तर्क कर सकते हैं या क्या वे बात कर सकते हैं लेकिन जेरेमी बेंथम कहते है कि असली प्रश्न यह है कि क्या वे दर्द सहते हैं? क्या उन्हें पीड़ा की अनुभूति होती है? जो इस अनुभूति से तादात्म्य, जो इस वंदना से व्यग्र है वही राम है। करुणाकर वह है जो जीवन से एकात्म है। जीवन के किसी भी रूपाकार से । वहाँ फार्म नहीं फीलिंग महत्वपूर्ण है। राम की संगति अस्तित्व का उत्सव है, अस्तित्व मात्र का : मोर चकोर कीर वर बाजी।पारावत मराल सब ताजी । नारायण पंडित ने हितोपदेश में धर्म की परिभाषा ही यह की थी:को धर्मों ? भूतदया अर्थात प्राणी मात्र पर दया ही धर्म है।चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ गुरु भी यह कहते थे : दया धर्मस्य जन्मभूमिः यानी दया धर्म की जन्मभूमि है। कबीर ने 'जहाँ दया तहँ धर्म है जहाँ लोभ तहँ पाप' और तुलसी ने 'दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान' कहा।तुकाराम बोले 'धर्म भूतांचीत दयाः । वाल्मीकि ने कहा : आनृशंस्यं परो धर्मः ( दया करना सबसे बड़ा धर्म है और वेदव्यास ने कहा 'अनुक्रोशो हि साधूनां महद्धर्मस्य लक्षण (सज्जन पुरुषों के लिए दया करना ही महान धर्म का लक्षण है। जब करुणा को धर्म का पारिभाषिक स्वरूप माना गया तो धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा को क्या कहेंगे ? मनुष्य जब धर्म के नाम पर किसी भैंसे को या किसी बकरे को नीचे बाँधकर बलि देता है तो क्या उम्मीद करता है? कि ऊपर बैठा ईश्वर उसकी प्रार्थना सुनकर उस पर दया करे कि जब वह मनुष्य स्वयं अपने से नीचे पर दया नहीं कर रहा है। 1963 तक तो ओकलोहामा तक में मुर्गों की लड़ाई प्रतिबंधित थी। फिर एक न्यायाधीश महोदय आए और उन्होंने निर्णय दिया कि चिकन को जानवर नहीं माना जा सकता। अतः निर्दयता विरोधी क़ानून उन पर लागू नहीं होंगे । ईश्वर के सृजन को, उसके जीवन को जीवन माना जाए या नहीं, इसे परिभाषित करने का अधिकार हमने ले लिया है। यदि अस्तित्व के चिरंतन संघर्ष के लिए जानवरों को काट डालना जायज़ है, तो फिर इसी तर्क पर अपराधियों, दुश्मनों, शोषक पूँजीपतियों को भी हलाल या हलाक किया जाना चाहिए। मैंने देखा है कि जब हुसैन की कृति को लेकर कुछ संगठनों ने तोड़फोड़ की तो लोगों ने कहा कि यह संस्कृति नहीं है। लेकिन हुसैन की कृति तो फिर भी एक मनुष्य की रचना है, लेकिन कोई निरीह पशु तो ईश्वर की कृति है। उसके प्रतिदिन, आँखों देखे, दिनदहाड़े मारे जाने को हम कौनसी संस्कृति कहेंगे? कृति और संस्कृति के सुविधावादी फ़र्क़ कर लिए गए हैं जहाँ मनुष्य की कृति ईश्वर की कृति से ज़्यादा बड़ी हो गई है। राम बार-बार करुणाकर के वैश्विक आयामों का पता देते हैं : गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्हीं जो जाचत जोगी। राम इस पक्षी को मुक्ति देते हैं, लेकिन हम पक्षी को पिंजरा देते हैं। विलियम ब्लेक ने कहा था A Robin Redbreast in a cage,Puts all Heaven in a Rage. पश्चिमी दुनिया में करुणा के वृत्त के दायरे में भी सभ्यता की प्रगति के साथ विस्तार हुआ। पहले एक तरह की जनजातीय नैतिकता का घेरा था, जहाँ अपनी जनजाति के बाहर के लोगों को लूटा या मारा जा सकता था,लेकिन अपनी जनजाति के लोगों को संरक्षण था । संरक्षण का यह वृत्त धीरे-धीरे और फैला लेकिन अभी डेढ़ सौ-दो सौ साल पहले काले लोग उसमें शामिल नहीं थे और उन्हें पकड़ा, बेचा और 'शिप' किया जा सकता था।ऑस्ट्रेलिया में बसने वाले गौरांगों ने आदिम जनजातियों के लोगों को पिस्सुओं की तरह मारा । जैसे-तैसे दासता और उपनिवेशीकरण का वह दौर ख़त्म हुआ तो हम विज्ञान के उस युग में आए जहाँ जानवरों को एक शोध सामग्री की तरह इस्तेमाल किया जाता था और जहाँ जानवरों की चीर फाड़ ने मानव-ज्ञान को जितना बढ़ाया, मानव-चरित्र को उससे ज़्यादा गिराया और जहाँ व्हेल,चीता, सील सरीखे कितने ही प्राणियों को हमने मिटने के कगार पर पहुँचा दिया । करुणा के वृत्त का यह विस्तार अभी शेष है। राम सच्चे करुणाकर हैं क्योंकि उनके भाव-बोध में एक सर्वसमावेशिता है। राम का पशु-पक्षियों से संवाद : 'हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी।तुम्ह देखी सीता मृगनैनी' इस रूप में पहचाना जाता रहा है कि यह उनकी भाव-विहलता का उदाहरण है। लेकिन जो पुरुष अपनी प्रकृति में रचा-बसा हो, जिसका प्रकृति से अभेद हो- वहाँ खग, मृग, मधुकर भी उसकी संवेदना के सह-धारक (co-sharer) हैं। पशु-पक्षी कीट-तरु सब अच्छी तरह से संप्रेषण में समर्थ हैं और वे संप्रेषण करते भी होंगे लेकिन हमें उनके संवाद - संकेत समझ में नहीं आते।  राम के साथ ऐसा नहीं है। यह प्रकृति तो उन्हीं का लीला - विलास है। इसलिए वे उनसे संवाद-संबोधन कर लेते हैं, करुणा के वृत्त का अधिकतम विस्तार उनमें है। जब तक हम पशुओं और विहंगों का शिकार करते हैं तब तक हम बर्बरता की आदिम अवस्था से बाहर निकले ही नहीं। हमारी करुणा हमें विश्वास देती है कि जिस तरह से मैं पंखों, फरों, चमड़े और रोमों के बीच ढँके एक हृदय की बात सुन रहा हूँ, वे भी मेरे मन की बात समझ रहे होंगे: खंजन सुक कपोत मृग
मीना।मधुर निकर कोकिला प्रवीना- सब इसके साक्षी
हैं। सहृदयता वस्तुतः सह-हृदयता है ।यदि मानव प्राणियों पर करुणा नहीं दिखाएगा तो देवतागण मानव पर करुणा नहीं दिखाएँगे।कई लोग यह कहते हैं कि यदि राम इतने ही करुणावान और एकात्म होते तो रावण से झगड़ा  क्यों होता? इस प्रश्न के बहुत से उत्तर हैं और तर्क भी पूरी प्रभावशीलता के साथ दिए भी गए हैं करुणा का अर्थ निष्क्रिय होना नहीं है, वह पापियों को हमारे साथ और दूसरों के साथ कुछ भी करते रहने की छूट देना नहीं । करुणा कमज़ोरी नहीं है, शक्ति है। यह वह शक्ति है जो विश्व में व्याप्त पीड़ा की सही प्रकृति को पहचानने से पैदा होती है, कि जब हम उस पीड़ा के निर्भीक साक्षी बनते हैं, तब हम निस्संकोच अन्याय का नाम धरते हैं और अपने पास उपलब्ध सारे कौशल के साथ उसका सशक्त प्रतिकार करते हैं । इसलिए राम की करुणा राम की कायरता नहीं बन पाती है। राक्षस भी करुणा के पात्र रहे। 'शरणागत पर नेह' का आदर्श राम ने हमेशा निभाया। अपनी करुणा के वृत्त में उन्होंने वर्गीकरण की रेखाएँ नहीं खींचीं। करुणा तो आम आदमी में भी होती है। किसी में अपनी जाति, धर्म या देश के लोगों के प्रति करुणा होती है, लेकिन अन्य जाति, धर्म या देश के प्रति नहीं। किसी में अपने मित्रों के प्रति है, बाकी के प्रति नहीं । हर जगह एक विभाजक रेखा है। रेखा के एक तरफ़ के लोगों के प्रति हमारे मन में करुणा है, लेकिन रेखा के दूसरी तरफ़ के लोगों के लिए नहीं । राम ऐसी कोई विभाजक रेखा नहीं पालते  वे विश्व-नागरिक हैं, लेकिन उनकी करुणा असावधान नहीं है। जो सकारात्मक ऊर्जा को व्युत्पन्न और प्रोत्साहित करे, ऐसी करुणा ही राम की चारित्रिक पहचान है। करुणा कोई 'इमोशनल लव' नहीं है । जगदाधार राम की करुणा उनकी प्रज्ञा प्रेरणा है।यह उनका कर्म-यज्ञ है। कई लोगों ने यज्ञ को करुणा की जगह क्रूरता की संघटना के रूप में परिभाषित किया और इस आधार पर भारतीय संस्कृति को निंदनीय बनाने-बताने की चातुरी भी की जबकि यजुर्वेद में स्पष्टतः कहा गया : ‘अध्वरे समि धीमहि' यह 'अध्वर' यज्ञ का पर्याय है। अध्वर का अर्थ ही हिंसा रहित कर्म है। आज मज़े की बात यह है कि जो मांसाहारी देश हैं- उनके तत्कथित बुद्धिजीवी यज्ञ को क्रूरकर्मा गतिविधि बताते नहीं थकते। 1000 साल की नान-वेज़ ग़ुलामी के बावज़ूद इस देश में यज्ञों का इतना सत्व शेष है कि आज भी दुनिया के 70% शाकाहारी भारतीय ही हैं जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में सिर्फ़ 1 से 2.8% तक ही शाकाहारी लोग हैं। मनुष्य की मूल प्रकृति है शाकाहार । यदि किसी जंगल में गाय की लाश पड़ी हो तो भेड़िए और तेंदुए आकर्षित होते हैं किन्तु मनुष्य विकर्षित होता है। यदि किसी बच्चे को एक सेब और एक ज़िन्दा चिकन दिया जाए तो वह बच्चा सेब को खाता है, चिकन के साथ खेलता है। इस तरह मनुष्य की स्वभावगत करुणा को अब स्वीकारा जाने लगा है। ईश्वर तो करुणा-सिन्धु है । इस्लाम में उसके इसी गुण का स्वीकार है जब ईश्वर को रहमान या रहीम कहा गया। ईश्वर की प्रथमतम स्मृति इस्लाम में करुणाकर और दयालु के रूप में है। हालाँकि करुणा में सिर्फ़ दया ही नहीं होती, प्रेम भी होता है करुणा दूसरे के दुख में प्रवेश है- उसके अंतरतम् में संपूर्ण और गहन प्रवेश।इसीलिए लार्ड बायरन ने आँसू की परिभाषा 'ओस' के रूप में की थी। इसलिए मुझे करुणा और कविता की प्रक्रिया एक जैसी लगती है। खुद को स्थगित कर दूसरे के अंतरतम् में प्रवेश । इसलिए यह आश्चर्य नहीं कि कविता का आरम्भ ही करुणा से हुआ। ‘मा निषाद् प्रतिष्ठां त्वमगमः' कवि करुणा का प्रथम पुष्प था ।मनुष्य की करुणा उसकी विशेषता है- उसके मनुष्य होने की क्योंकि वह उसमें चेतना के होने का सबूत है। करुणा रोबोटिक नहीं हो सकती, करुणा आत्मा की एंटी-टॉक्सिन है। करुणा आत्मा पर अनेक-।अनेक कारणों से चढ़ गए ज़हर के रसायनों को निष्क्रिय करती है। यह हमारे पापों की औषधि है। जो भी स्वार्थपरता और दुराचार हमारी आत्मा को मथता रहता है, सही मौके पर पात्र व्यक्ति के प्रति दिखाई गई हमारी करुणा हमें उस मंथन से बाहर निकालती है। भगवद् गीता में इसीलिए करुणा को अज्ञान के अँधेरे को नष्ट करने वाला कहा गया।भगवान राम करुणाकर हैं। उनका जीवन करुणा का एडवेंचर है। करुणाकर होना करुणावान होने से थोड़ा भिन्न है। करुणा का यह अक्षय स्रोत होता है ।करुणावान तो स्वयं भी कभी करुणा का पात्र हो सकता है । यदि मानव प्राणियों पर करुणा नहीं दिखाएगा तो देवतागण मानव पर करुणा नहीं दिखाएँगे। लेकिन राम करुणा के दान-प्रतिदान के चक्र में नहीं हैं और इसलिए वे करुणाकर हैं। उनके पास तो यही निधि है और वे इसे ही लुटाते चल रहे हैं।
रघुवरं भूपाल चूड़ामणिं में 
रघुवर कौन?सामान्यतः सभी जानते है।रघु कुल में सर्वश्रेष्ठ। पर एक भाव और है:- रघु कहते हैं प्राणी मात्र को और वर का अर्थ श्रेष्ठ ,वरदान ,कल्याणकारी भी माना गया अतः अन्य भाव होते हैं-सभी प्राणियों में श्रेष्ठ, सभी का कल्याण करने वाला।भूपाल के साथ ही साथ
गोस्वामीजी ने यह भी कहा कि 'भूपमौलि मनि मंडल धरनी ।' इस प्श्लोक में  राम के वंश और सभी राजाओं में राम के श्रेष्ठ होने के संबंध में सामान्य कथन  है। यहाँ  राम को इतिहास में इंगित किया गया  है।  भारत की परम्परा राम को देवता नहीं, ईश्वर कहती है।ऐसा ईश्वर
जिसकी एक जीवनी है, बायोग्राफ़ी है। जो प्रेम में पड़ता है,घायल होता है और अंत में मरता भी है। ऐतिहासिक झलक के रुप में हमें सोचना ही चाहिए कि क्या
' रामायण के माली और सुमाली अफ्रीका के माली और सोमालिया देशों से कभी संबंधित रहे हैं? अफ्रीकन लोगों को कुशाइत कहने में क्या कुश का कोई ऐतिहासिक संबंध ज़िम्मेदार है? क्यों कुश के पिता इथियोपिया में 'हाम ( राम का अपभ्रंश) कहलाते हैं? क्या मारीच और मारीशस में कोई संबंध है? क्या इन सभी चीज़ों को तुक्केबाज़ी माना जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि राम के इतिहास को नकारकर हम एक ग्लोबल सभ्यता और संस्कृति को ही नकार रहे हैं। कहीं धर्म का भी तो कोई वैश्वीकरण कभी हुआ तो नहीं ? विज्ञान और वैश्वीकरण का तो चोली-दामन का साथ है। बिना विज्ञान के ग्लोबलाइज़ेशन संभव नहीं है। विज्ञान की इतनी प्रगति कि ग्लोबलाइज़ेशन हो सके, अब जाकर कहीं संभव हो पाई है। लेकिन क्या धर्म ने इतनी प्रगति बहुत पहले तो नहीं कर ली थी ? राम के वनों में घूमते रहने की वह स्मृति roam(भटकना) जैसे अंग्रेज़ी शब्द में क्या शेष रह गई है? इटली का 'रोम' नगर क्या राम की किसी स्मृति का स्वीकार है ?  इटली में एट्रस्कन सभ्यता की पेंटिंग्स में दशरथ की तीन रानियों के पुत्रकामेष्टि यज्ञ प्रसंग, राम-लक्ष्मण सीता वनगमन प्रसंग, सेना संग राम को मनाने के लिए जाते हुए भरत के चित्र मिले हैं, रावण - विभीषण-सीता के अशोक वाटिका प्रसंग, सुग्रीव को धमकाते लक्ष्मण, अश्वमेध के घोड़े को पकड़ते हुए लव-कुश के चित्र भी मिले हैं। ब्रिटेन में रामिस्गेट ( रामघाट ), रामिस्डेन (रामस्थान ), रामफोर्ड जैसे स्थान हैं। ध्यान दीजिए कि रावण के अत्याचारों से व्यथित पृथ्वी गाय का रूप धारण करके विष्णु के पास पहुँची थी । यानी रावण के ज़ुल्मों के ग्लोबल प्रपोशंस थे । वह ऐसा नहीं था कि पृथ्वी के एक छोटे से टुकड़े पर रावण के अपकर्म चल रहे थे। यह भी ध्यान दें कि रघुवर के संबंध में 'भूपाल' शब्द का इस्तेमाल है। बात भू की हो रही है, एक छोटे-से हिस्से की नहीं राम भूपाल चूड़ामणि हैं, राजाओं में श्रेष्ठ हैं। राम के लिए 'नृपति' शब्द का प्रयोग न कर गोस्वामीजी  ने'भूपाल' शब्द का प्रयोग किया है ।चूड़ामणि अपने आप में एक अलंकार है।गोस्वामीजी के राम राजाओं में भी चूड़ामणि की तरह सुशोभित होते हैं। 'भूपाल चूड़ामणि' राम के परिचय की कतार में आखिरी है, राम का प्रथम परिचय नहीं है।गोस्वामीजी राजा के विभिन्न पर्यायों में से भूपाल का प्रयोग ही करते हैं। वे क्षत्रपति का प्रयोग नहीं करते। भूपाल से मिलते-जुलते धराधीश या भूपति या महीपति जैसे नाम देकर भी मालिक होने के भाव का समर्थन नहीं करना चाहते । वे नरपति, नराधिप, नरेश जैसे किसी शब्द का भी प्रयोग नहीं करते क्योंकि राम को मनुष्यों का स्वामी कहना भी इसी प्रसंग में तुलसी को नहीं रुचा होगा । गोस्वामीजी स्वामित्व या सत्ता या आधिपत्य या प्रभुत्व के आधार पर राजा को नहीं जाँचते। स्वत्वाधिकारिता उनकी नज़र में एक छोटीचीज़ है। राजा का पता तो उसकी अनुरक्षण की शक्ति से लगता है। इस बात से कि वह कितना और कैसा पालन-पोषण कर सकता है। राजा युद्ध लड़ते हैं, कर वसूलते हैं- आधुनिक युग में तो उनके कार्यों का दायरा और भी विस्तृत हो गया है। गोस्वामीजी
राजा के विध्वंसात्मकपक्ष को अपना निकष नहीं बनाते। किसने कितने परमाणु बमों का जखीरा इकट्ठा कर लिया है, इसकी चौधराहट से रामत्व को नहीं आँका जाएगा। सनातन संस्कृति में राजा का आदर्श प्रजापालन रहा है बल्लाल कवि ने कहा है-- 
हिरण्यधान्यरत्नानि धनानि विविधानि च।
तथान्यदपि यत्किंचित्प्रजाभ्यः स्युर्महीभृताम् ।।
सुवर्ण, धन्य, रत्न तथा अनेक प्रकार के धन और
अन्य जो कुछ भी राजाओं का होता है, वह प्रजाजनों के
लिए होता है । चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है :
'प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्'- प्रजा के
सुख में ही राजा का सुख और प्रजा के हित में ही
राजा को अपना हित समझना चाहिए । तिरुवल्लुवर ने
कहा था : 'अनाथानां नाथो गतिरगतिकानां व्यसनिना' वही मनुष्य वास्तविक नृपति है जो अनाथों का नाथ है और निरुपायों का अवलंब है, तुलसी ने भी
कहा : जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी ।सो नृप अवसि नरक अधिकारी । नारायण पंडित ने हितोपदेश में कहा था : 'प्रजां संरक्षित नृपः' राजा प्रजा की रक्षा करता है । तुलसीदासजी राजा को विधायी और रचनात्मक रूप में रेखांकित करते हैं। लेकिन क्या सभी राजा भूपाल हैं? क्या राम को संपूर्ण पृथ्वी का शासक बताना कवि का उद्देश्य है? यदि ऐसा है तो राम के समकालीन राजा क्या थे? राम का भूपाल होना सम्पूर्ण ग्लोब का राजा होना नहीं है। वह भूमि के रत्नों की और प्राकृतिक संसाधनों की लूट करने की शासन पद्धति से पृथक होना है। तुलसीदास के राम भूपाल हैं तो इस विशिष्ट अर्थ में कि वे पृथ्वी का शोषण नहीं कर रहे, वे उसका पालन-पोषण और संवर्धन कर रहे हैं। तुलसी राम राजा को प्रजापालक नहीं कह रहे, वे उसे ज़्यादा समग्रतावादी रूप से देखते हुए भूपाल कह रहे हैं । वे शासन शैलियाँ जो प्राकृतिक संसाधनों के एकांत शोषण पर आधारित हैं, राम के वैपरीत्य में पड़ती हैं। रावण की शासन-शैली ऐसी ही थी । ऐसा कहा गया है कि रावण ने देवताओं को बंदी बना रखा था। ये देवता प्रकृति की शक्तियों का ही दैवीकरण होने का परिणाम थे। रावण का राज्य नेचुरल रिसोर्सेज़ के अंधाधुंध शोषण का राज्य रहा आया होगा। जिस तरह से आज खनिजों का अंधा उत्खनन हमें इस स्थिति में ले आया है कि बहुत से खनिजों के निक्षेप दो से ज़्यादा भावी पीढ़ियों के लाभार्थ मिलेंगे ही नहीं, जिस तरह से आज बहुत से पौधे और जीव हमेशा के लिए फूड चेन से ग़ायब हो गए हैं, जिस तरह से ओजोन परत का छेद इतना बड़ा हो गया है जितना संपूर्ण नॉर्थ अमेरिका है और जैसे पृथ्वी अल्ट्रा वायलेट किरणों से संत्रस्त है- वैसे ही पृथ्वी उस वक़्त भी भारी परेशान और विचलित रही होगी। इसीलिए रावण के अत्याचारों से क्षुब्ध होकर वह विष्णु के पास गई थी । पृथ्वी है क्या ? यह वही है कि जिसे यजुर्वेद में सुक्ष्मा च असि शिवा चासि योना चासि सुषदा चास्यूर्जस्वती चासि पयस्वती च - यह पृथ्वी बल देने वाली है, कल्याण करने वाली है, आनंद दायक है, बैठने के लिए श्रेष्ठ स्थान देने वाली है, अन्न और दुग्ध से युक्त है। एक भोजपुरी लोकोक्ति है कि ज़मीनिए क देहल रोटी खाइल जाला' (पृथ्वी की दी रोटी खाई जाती है)। वेंडेल बैरी की परिभाषा है : The earth is what we all have in common. यानी पृथ्वी यदि है तो वह सबके साथ होने में ही है। वह कुछ लोगों के विशेषाधिकार में नहीं है। एक रावण के लोभ में नहीं है, मोनोपली में नहीं है। वह सभी की आवश्यकताएँ पूरी कर सकती है, किंतु एक रावण का लालच पूरा करना उसके लिए संभव नहीं है। मार्शल मैकलुहान ने 1964 में कहा था कि इस स्पेसशिप अर्थ पर कोई यात्री नहीं है, हम सभी इसके जहाज़ी (क्रू) हैं। ‘मैं पृथ्वी हूँ। आप पृथ्वी हैं। यह पृथ्वी मर रही है और हम सब इसके हत्यारे हैं।' संस्कृत में कहा गया है : 'बहुरत्ना वसुंधरा' | भास ने कहा : 'अहो पच्छान्नरत्नता
पृथिव्याः' - 'अहा, पृथ्वी में कैसे रत्न छिपे पड़े है।'
लेकिन इन रत्नों के साथ इमारा व्यवहार किस तरह का
है? भूपाल चूड़ामणि' राम का प्रादर्श नहीं है। विकास की‘पर्यावरणीय स्थिरता' ज़रूरी है। यह स्थिरता तेज़ी से
ख़त्म हो रही है। उदाहरण के लिए जैसे-जैसे विश्व की
आबादी बढ़ रही है, रिनुएबल ताज़ा पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता कम होती जा रही है।  यजुर्वेद ने अपने पहले ही मंत्र में हमें सावधान किया था : 'स्तेनः वः मा ईशत अपशंसः मा '(चोर तुम्हारा स्वामी न बन पाए, पापी भी नहीं बने)। लेकिन राज्य कर्म की मर्यादाओं का जो ह्रास हुआ, उसमें जगह-जगह यह स्थिति पैदा हुई कि सफ़ेदपोश चोरों ने ही नहीं, बल्कि अपराधियों ने भी शासन तंत्र पर कब्ज़ा जमा लिया । सत्ता तक और सत्ता के शीर्ष तक पहुँचने के लिए चोरी और पाप की सीढ़ियों का इस्तेमाल होने लगा । यजुर्वेद के दृष्टा ऋषि ने सबसे पहले ही इस बारे में चेताया था। इसी पहले मंत्र में वे आगे कहते हैं : अस्मिन् गौपतो ध्रुवा स्थात अर्थात् इस पृथ्वी पालक की छत्रछाया में स्थित होकर रहो । यह पृथ्वीपालक भूपाल है । यही पृथ्वी को स्थैर्य दे सकता है। नागरिकों को भी । गोपतों का एक अर्थ इन्द्रियों का स्वामी होता है । वही शासक जो जितेन्द्रिय है, वही भूपाल हो सकता है।  तुलसी "भूपाल” के जरिए पृथ्वी और ईश्वर की पहचान कराते हैं।अनेक पौधों का पृथ्वी पर से निशान मिटते जाना राम के भूपालन के आदर्श से हमारे स्खलित होते जाने का सबूत है। राम तो वे हैं जिन्हें गिलहरी से भी स्नेह है। बायो डायवर्सिटी- जैव विविधता ही राम की सेना है । आज हालत यह है कि सन 1500 से लेकर अभी तक 100 तरह की चिड़ियाएँ ही पृथ्वी से हमेशा को विलुप्त हो गईं। 1200 चिड़ियाओं की प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर हैं। अब न वो एलीफेंट बर्ड हैं और न वो सफ़ेद पंखों वाली सैंडपाइपर । औद्योगिक क्रांति के बाद से जीवों के लुप्त होने ने जो रफ़्तार पकड़ी है, दुनिया के जैविक इतिहास में उसका कोई सानी नहीं है। लाखों की संख्या में में प्रजातियाँ विलुप्त हुई हैं या दुर्लभ हो गई हैं। उनका ग़ायब होना हमारी खाद्य - शृंखला को ही अस्त- व्यस्त नहीं करता, हमारी पर्यावरण प्रणाली को भी अस्थिर बनाता है। जो राम रीछ, भालुओं, बंदरों के साथ घूमते थे, उन्हीं के देश में कितना ही वन्य जीवन ख़त्म हो गया। राम की कथा को संप्रति संदर्भ में व्याख्यायित न करने का दुष्परिणाम यह रहा कि उनकी पूजा भी जारी रही और उनके मित्र वनचरों का विनाश भी । चीता या शेर या एशियाई हाथी या जाइंट पेंडा या तेंदुआ सबको वैसे ही स्नेह भरे स्पर्श की आवश्यकता है जिससे जटायु की आत्मा को शांति पहुँची थी ।  बंगाल में त्यौहारों के मौसम में 25000 चिड़ियाएँ इसलिए मार दी जाती हैं क्योंकि ड्रमों पर उनके पंख लगाने हैं।  एक अन्य उदाहरण लें । ओज़ोन परत में हुए छेद का। अल्ट्रावायलट के जैविक प्रभावों का। इसके
मानव स्वास्थ्य से लेकर जीव-जंतुओं, वनस्पति पर
पड़ने वाले कुप्रभावों का । उससे बढ़ रहे स्किन कैंसर
का। जो अर्थव्यवस्थाएँ या शासन पद्धतियाँ क्लोरो-
फ्लोरो कार्बन या हेलोकार्बन आधारित जीवनशैली को
बढ़ावा दे रही हैं क्या वे धरती के पोषण की पक्षधर हैं?
लेकिन हमारी विलासितापूर्ण जीवनशैली पर इससे क्या फ़र्क पड़ेगा? वनवासी राम की पूजा हो सकती है, लेकिन उनकी जीवनशैली आज के ज़माने में अनुकरणीय क्यों नहीं है? एक तीसरा आयाम पृथ्वी के पोषण के विरुद्ध होने वाली आधुनिक कार्रवाइयों में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का है । जो पृथ्वी पर जीवन के लिए बड़ा ख़तरा कहा है। आतंकवाद और प्रति आतंकवाद भी उतना बड़ा ख़तरा हैं। ये सब पृथ्वी को संकटग्रस्त करने वाली चीज़ें हैं। स्मरण करें कि रामावतार से पूर्व भी पृथ्वी विपदाग्रस्त थी। प्राकृतिक संसाधनों का जो अंधाधुंध दोहन उस वक्त रावण के द्वारा किया जा रहा था, उसे रवि, शशि, पवन, वरुण, अग्नि को दास बनाने के रूप में संकेतित भी किया गया। प्रकृति के दिव्यत्व को राक्षसों के दासत्व में परिणत करने के प्रतीकार्थ क्या हैं? “नवहिं आइ नित चरन विनीता । " इसके परिणाम क्या हैं? “अतिसय देखि धर्म के ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी” यह धर्म क्या था ? को धर्मो? भूतदया। भू के व्याकुल होने की स्थिति क्या है?  हमारे धर्म ग्रंथों में कि राक्षसों के मरते ही प्रकृति अर्थात पृथ्वी की सुखद सामान्य स्थिति हो जाना बताया जाता है ? चाहे दुर्गा सप्तशती में शुंभ का मरना हो या रामायण में रावण का! क्यों पृथ्वी ही इस 'असुविधाजनक सत्य' (एन इन्कन्वीनिएंट ट्रुथ) को बताया जाता है, अल गोर के वृत्त चित्र की तरह। यदि राक्षसों के मारे जाने के बाद नदियाँ ठीक तरह से बहने लगती हैं । पृथ्वी की व्याकुलता तब भी है जब 50 एकड़ प्रति मिनट की गति से वर्षा वन नष्ट हो रहे हों । क्या पृथ्वी का गौ रूप लेना सिर्फ़ कल्पना पर दबाव है? । भर्तृहरि नीतिशतक में कहते हैं- 'राजन्दु धुक्षसि यदि क्षितिर्धनुमेनां' - हे राजन यदि तुम पृथ्वी रूपी गाय को दुहना चाहते हो तो प्रजा रूपी बछड़े का पालन-पोषण करो- तेनाध वत्समिव लोकमंमु पुषाण। राम यही करते हैं। इसी कारण वे भूपाल हैं। नहीं तो क्या कारण है कि धरती और देवताओं को भयभीत जानकर ब्रह्म-वाणी जब अवतार लेने की घोषणा करती है तो कहती है : हरिहउँ सकल भूमि गरुआई ।निर्भय होहु देव समुदाई' कि 'मैं धरती का सारा बोझ हर लूँगा । देव वृन्द
निर्भय हो जाएँ ।' उसके बाद ब्रह्माजी भी भू को समझातेहैं : 'तब ब्रह्मा धरिनिहि समुझावा ।' रामावतार का कारण भू की यह विकलता है। यानी यह एक ऐसा संकट है जिसके ग्लोबल प्रपोशंस हैं। यह कोई साधारण आपदा नहीं है। इस आपदा से विश्व को राम ही मुक्ति दिला सकते हैं। राम को इसी कारण 'भूपाल चूड़ामणि' कहा गया है। जीवों पर दया धर्म है, वही भूपालन है। वाल्मीकि भी यही कहते हैं : 'आनुशंस्यं परो धर्मः' - दया करना सबसे बड़ा धर्म है । वेदव्यास यही कहते हैं- अनुक्रोशो हि साधूनां महद्धर्मस्य लक्षणम्- सज्जन पुरुषों के लिए दया करना ही महान धर्म का लक्षण है।
यह तो तुलसीदास भी जानते थे कि इस संसार में
मच्छर हाथी के प्रतिस्पर्धी नहीं बन सकते । वेंकटनाथ
वेदान्तदेशिक ने अपनी पुस्तक संकल्प सूर्योदय में यही
कहा था- 'न हि जगति भवति मशको मातंगस्य प्रतिस्पर्धी । 'अतः लौकिक राजाओं के बीच राम को किसी स्पर्धा में खड़ा करना उनका उद्देश्य नहीं था। उन्होंने तुलनात्मक (कंपेरिटव) या श्रेष्ठतामूलक (सुपरलेटिव) शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया है। वे राजाओं में श्रेष्ठ नहीं कहते, वे राजाओं  के चूड़ामणि कहते हैं। राम को तुलना या प्रतियोगिता की लौकिक तराज़ुओं में तोलना भी राम का निरादर है। उन्होंने यह भी नहीं कहा कि राम से बड़ा और कोई नहीं । वे राजाओं को नीच, मध्यम या उत्तम की श्रेणी में बाँटने का भी कोई प्रयास नहीं करते । वे तो
चाणक्य के उस सूत्र पर चल रहे हैं : नास्त्यर्थः पुरुषरत्नस्य अर्थात् पुरुष रत्न का कोई मोल नहीं होता है। राम के राज्य का आयाम ही दूसरा है । विनोबाजी कहते हैं : 'रामराज्य याने प्रेमयोग और साम्ययोग- प्रेम और समत्व' ।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे यों परिभाषित किया हैं : “लोक की रक्षा 'सत' का आभास है, लोक का मंगल ‘परमानंद’ का आभास है। इस व्यावहारिक 'सत्' और आनंद का प्रतीक है राम-राज्य" । 
'साकेत के स्वामी राम जैसे आपने साकेत का
शासन किया है, वैसा सुन्दर प्रशासन और कहाँ देखने
को मिलेगा? ग्रामीण, नागरिक और सारे देशवासी भाव
से धनी होकर काननवासी मुनियों को आनंद प्रदान
किया करते थे। प्रतिमास तीन बार यथेष्ट वर्षा हुआ
करती थी। लोग सभी विद्याओं में पारंगत हुआ करते
थे । सभी लोग दीर्घायु होकर निराडंबर और निर्मल
जीवन व्यतीत किया करते थे। ऐसा साधुवाद प्राप्त
करने वाला राज्य और कहाँ पाया जाएगा ।' वाल्मीकि ने भी इसी तरह रामराज्य की चर्चा की है।
काले वर्षति पर्जन्यः सुभिक्षंविमला दिशः ।
हृष्टपुष्टजनाकीर्ण पुरं जनपदास्ताथा ।।
नाकाले म्रियते कश्चिन्न व्याधिः प्रणिनां तथा ।
नानर्थो विद्यते कश्चिद् रामे राज्यं प्रशासति ।।
‘श्री राम के शासन करते समय मेघ समय पर
वर्षा करते थे। सदा सुकाल रहता था । सम्पूर्ण दिशाएँ
प्रसन्न थीं। नगर व जनपद हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरे रहते
थे। किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती थी, प्राणियों को
कोई रोग नहीं सताता था और कोई उपद्रव नहीं खड़ा
होता था । ' यह स्थिति भूमि की उर्वरा शक्ति
और पोषण क्षमता की स्वर्णिम स्थिति का परिचय देती
है । यह वैसा नहीं है कि इंद्र का श्रेय इंदिरा ले ले। यह
ऐसा है कि प्रकृति से समन्वय, संतुलन और समरसता
की स्वाभाविक परिणति हो- भूपालन ।लंका काण्ड का यह प्रथम श्लोक भी इन्ही विशेषताओं को कह रहा है।
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्।।
इस श्लोकके पहिले दो पदों में निर्गुणरूप और पिछले दो पदोंसे सगुणरूप का वर्णन किया गया है, इस
भाँति राम के  सगुण-निर्गुण दोनों रूपों  का चित्रण किया गया है और चूड़ामणि शब्द देकर चूड़ामणि प्राप्तिकी कथा का होना ध्वनित किया। इस प्रकार यह श्लोक आगे की सभी कथाओं का सार भी हैऔर भविष्य का ज्ञान भी।धन्यवाद।जय श्री राम जय हनुमान।।इति।।