बुधवार, 26 जून 2024

मानस चर्चा "मातु पिता गुर प्रभु कै बानी"

मानस चर्चा "मातु पिता गुर प्रभु कै बानी"
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी।
बिनहि बिचार करिअ सुभ जानी ॥ 
अर्थात् माता, पिता, गुरु और स्वामीकी बात बिना ही विचारे शुभ जानकर करनी  मान लेनी चाहिये ॥ 
'मातु पिता ' बचपनमें माताकी आज्ञा, कुछ बड़े होनेपर घरसे बाहर निकलनेपर पिताकी आज्ञा, पाँच वर्ष बाद गुरुसे पढ़नेपर गुरुकी आज्ञा और पढ़-लिखकर
लोक-परलोक दोनोंमें सुख के लिये जीवनपर्यन्त प्रभु अर्थात् अपने स्वामी  मालिक की आज्ञा माननेसे प्राणीका भला होता है । महाभारत शान्तिपर्वमें भीष्मपितामहजीने युधिष्ठिरजीसे कहा है कि दस श्रोत्रियोंसे बढ़कर आचार्य हैं। दस आचार्योंसे बड़ा उपाध्याय विद्यागुरु है। दस उपाध्यायोंसे अधिक महत्त्व रखता है पिता और दस पिताओंसे अधिक गौरव है माताका । परंतु मेरा विश्वास है कि गुरुका दर्जा माता- पितासे भी बढ़कर है। माता-पिता
तो केवल इस शरीरको जन्म देते हैं, किंतु आत्मतत्त्वका उपदेश देनेवाले आचार्यद्वारा जो जन्म होता है वह दिव्य है, अजर-अमर है। मनुष्य जिस कर्मसे पिताको प्रसन्न करता है, उसके द्वारा ब्रह्मा भी प्रसन्न होते हैं तथा जिस बर्तावसे वह माताको प्रसन्न कर लेता है उसके द्वारा परब्रह्म परमात्माकी पूजा सम्पन्न होती है।  । गुरुओंकी पूजासे देवता, ऋषि और पितरों की भी प्रसन्नता होती है, इसलिये गुरु परम पूजनीय है।इसलिये गुरु माता - पितासे भी बढ़कर पूज्य है। माता, पिता और गुरु कभी भी अपमानके योग्य नहीं। उनके किसी भी कार्यकी निन्दा नहीं करनी चाहिये।' पुनः माता, पिता और गुरु सदा अपने पुत्र या शिष्यका कल्याण ही चाहेंगे, वे कभी बुरा न चाहेंगे। अतः 'बिनहि बिचार करिअ सुभ जानी' कहा।
'बिनहि बिचार करिअ ' भाव यह है  कि विचारका खयाल मनमें आनेसे भारी पाप लगता है; जैसा कि 
'उचित कि अनुचित किये बिचारू ।
धरमु जाइ सिर पातक भारू ॥ '  
'सुभ जानी' का भाव यह है कि अनुचित भी यदि हो तो भी आज्ञा पालन करनेवालेका मंगल ही होगा, उसे कोई
दोष नहीं देगा। अतः उसे मंगलकारक जानकर करना चाहिये। हमारे ग्रंथों में अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं आप ऋषि धौम्य और उनके शिष्य आरुणि,उपमन्यु, वेद आदि की   कथाओं को से हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। चलिए हम उपमन्यु की कथा सुना ही देते है।बाकी पुनः।
उपमन्यु महर्षि आयोद धौम्य के शिष्यों में से एक थे। इनके गुरु धौम्य ने उपमन्यु को अपनी गाएं चराने का काम दे रखा थ। उपमन्यु दिनभर वन में गाएं चराते और सायँकाल आश्रम में लौट आया करते थे।
एक दिन गुरुदेव ने पूछा- "बेटा उपमन्यु! तुम आजकल भोजन क्या करते हो?" उपमन्यु ने नम्रता से कहा- "भगवान! मैं भिक्षा माँगकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "वत्स! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दें तो उसे ग्रहण करना चाहिए।" उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य कि श्रद्धा को दृढ़ करना था, अत: वे भिक्षा का सभी अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों बाद जब गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम आजकल क्या खाते हो?" तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपनी भिक्षा माँग लाता हूँ।" महर्षि ने कहा- "दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्म के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगने वालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।"
उपमन्यु ने कहा- "जो आज्ञा।" उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बंद कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा, तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं गायों का दूध पी लेता हूँ।" महर्षि बोले- "यह तो ठीक नहीं।" गाएं जिसकी होती हैं, उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिए।" उपमन्यु ने दूध पीना भी छोडं दिया। थोड़े दिन बीतने पर गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लाते और गायों का दूध भी नहीं पीते तो खाते क्या हो? तुम्हारा शरीर तो उपवास करने वाले जैसा दुर्बल नहीं दिखाई पड़ता।" उपमन्यु ने कहा- "भगवान! मैं बछड़ों के मुख से जो फैन गिरता है, उसे पीकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "बछ्ड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकर तुम्हारे लिए अधिक फैन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृत्ति भी उचित नहीं है।" अब उपमन्यु उपवास करने लगे। दिनभर बिना कुछ खाए गायों को चराते हुए उन्हें वन में भटकना पड़ता था। अंत में जब भूख असह्य हो गई, तब उन्होंने आक के पत्ते खा लिए। उन विषैले पत्तों का विष शरीर में फैलने से वे अंधे हो गए। उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। गायों की पदचाप सुनकर ही वे उनके पीछे चल रहे थे। मार्ग में एक सूखा कुआँ था, जिसमें उपमन्यु गिर पड़े।
गुरूजी उसके साथ निर्दयता के कारण ऐसा बर्ताव नही करते थे वह तो उसे पक्का बनाना चाहते थे | कछुआ रहता तो जल में है किन्तु अन्डो को सेता रहता है इसी से अंडे वृधि को प्राप्त होते है | इसी प्रकार उपर से तो गुरूजी ऐसा बर्ताव करते थे भीतर से सदा उन्हें उपमन्यु की चिंता लगी रहती थी |
जब अंधेरा होने पर सब गाएं लौट आईं और उपमन्यु नहीं लौटे, तब महर्षि को चिंता हुई। वे सोचने लगे- "मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार से बंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दु:खी होकर वह भाग तो नहीं गया।" उसे वे जंगल में ढूँढ़ने निकले और बार-बार पुकारने लगे- "बेटा उपमन्यु! तुम कहाँ हो?"
उपमन्यु ने कुएँ में से उत्तर दिया- "भगवान! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।" महर्षि समीप आए और सब बातें सुनकर ऋग्वेद के मंत्रों से उन्होंने अश्विनीकुमारों की स्तुति करने की आज्ञा दी। स्वर के साथ श्रद्धापूर्वक जब उपमन्यु ने स्तुति की, तब देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार वहाँ कुएँ में प्रकट हो गए। उन्होंने उपमन्यु के नेत्र अच्छे करके उसे एक पदार्थ देकर खाने को कहा। किन्तु उपमन्यु ने गुरुदेव को अर्पित किए बिना वह पदार्थ खाना स्वीकार नहीं किया। अश्विनीकुमारों ने कहा- "तुम संकोच मत करो। तुम्हारे गुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किए बिना पहले हमारा दिया पदार्थ प्रसाद मानकर खा लिया था।" उपमन्यु ने कहा- "वे मेरे गुरु हैं, उन्होंने कुछ भी किया हो, पर मैं उनकी आज्ञा नहीं टालूँगा।" इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उन्हें समस्त विद्याएँ बिना पढ़े आ जाने का आशीर्वाद दिया। जब उपमन्यु कुएँ से बाहर निकले, महर्षि आयोद धौम्य ने अपने प्रिय शिष्य को हृदय से लगा लिया।
चूंकि हम रामचरितमानस  की ही चर्चा करते हैं इसलिए हम मानस से भी इसकी पुष्टि कर ले और  इनके महत्त्व को  भी  देख ले गोस्वामीजी ने लिखा है---
'गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें ।
चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ॥' 
और भी देखें 
'परसुराम पितु अग्या राखी' ।
मारी मातु लोक सब साखी॥
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ।
पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥
अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥
'तुम्ह सब भाँति परम हितकारी।
अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी।।
अर्थात्
माता-पिता आदि सब आप ही हैं, आपने सब प्रकार हमारा हित किया और कर रहे हैं; जैसा  कि - 
'राममातु पिता सुतु बंधु औ संगी सखा गुरु स्वामि सनेही । रामकी सौहँ भरोसो है राम को राम-रंगी-रुचि राचौं
न केही । ' और तो और हम हमेशा गाते  ही है
'त्वमेव माता च पिता त्वमेव 
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥'—
आप ने सब भाँति हमारा परम हित किया है जैसे कि - भस्मासुरसे रक्षा की, कालकूटको अमृत कर दिया;
स्पष्ट कहा  गया है
'नाम प्रभाउ जान सिव नीको। 
कालकूट फल दीन्ह अमी को।'
इस चौपाई में पुत्र, शिष्य और सेवकके धर्म उपदेश किये गये हैं। बालकोंको श्रीशंकरजीकी शिक्षापर ध्यान देना चाहिये ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

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