रविवार, 24 मार्च 2024

।।शार्दूलविक्रीडितम् छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

    ।।शार्दूलविक्रीडितम् छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

      यह उन्नीस वर्णों वाला समवृत्त वर्णिक छंद है। यह वृत्त/छंद अति छंद परिवार का अतिधृति छंद है।काव्य में शार्दूलविक्रीडित अत्यन्त प्रसिद्ध छन्द हैं। संस्कृत जगत में इस छन्द में अगणित श्लोक है।समवृत्त होने के कारण चारों चरण समान लक्षण युक्त हैं। इसके प्रत्येक चरण में 19 तथा चारों चरणों में कुल 76 वर्ण होते हैं। 
लक्षण - 
सूर्याश्वैर्यदि मः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम्।
 या
सूर्याश्वैर्मसजस्तता: सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम् ।”
व्याख्या:
             शार्दूलविक्रीडित में शार्दूल का अर्थ बब्बर शेर
और विक्रीडित का अर्थ उसकी क्रीड़ा अर्थात् उछल कूद। शायद इस छंद में वर्णों की उछल कूद को देखकर ही
हमारे आचार्यों ने इसका नाम 'शार्दूलविक्रीडित' रखा है।
इस छन्द में जो इस प्रकार का भाव व्यक्त किया गया है वही बात उसके लक्षण में 'व्यक्त होता है - सूर्याश्वैर्यदि मः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम्' अब प्रश्न उठता
कि इसका गायन करते समय आपकी साँस कहाँ-कहाँ विश्राम लेगी तो इसका उत्तर छन्द के लक्षण 'सूर्याश्वैर्यदि शब्द में प्राप्त होता है। जिसमें सूर्य और अश्व इन दो
शब्दों से जो सांकेतिक संख्या है उन संख्या वाले अक्षर पर साँस विराम लेगी। 
  अब सूर्य कहते है आदित्य को, हमारे पुराणों में जिनकी संख्या 12 बताई गयी है।धार्मिक और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी अदिति से उत्पन्न हुवे इसलिए आदित्य कहलाए जिनके नाम हैं : विवस्वान्, अर्यमान, पूषा, त्वष्टा, सविता, भाग,धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम अर्थात् भगवान वामन।इन्हीं के आधार पर
वर्ष के 12 मास नियत हैं ।इस प्रकार 'शार्दूलविक्रीडित छन्द में प्रथम विराम/यति प्रत्येक चरण के 12वें वर्णों पर होगी।
     अब दूसरा विश्राम 'अश्व' संख्या पर होगी।
 ऋग्वेद में कहा गया है- ‘सप्तयुज्जंति रथमेकचक्रमेको अश्वोवहति सप्तनामा’ यानी सूर्य एक ही चक्र वाले रथ पर सवार होते हैं, जिसे 7 नामों वाले घोड़े खींचते हैं. सूर्य के रथ में जुते हुए घोड़ों के नाम हैं- ‘गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति।ये 7 नाम 7 प्रकार के वैदिक छंदों के भी हैं।
इसलिए इस छन्द में द्वितीय विराम/ यति सातवें अक्षरअर्थात् प्रत्येक चरण के अंतिम वर्ण 12+7=19वें वर्णों पर होगी ।
परिभाषा:
     जिस श्लोक/पद्य के प्रत्येक चरणों में मगण, सगण, जगण, सगण, तगण , तगण और एक गुरु के क्रम में वर्ण हो और बारह एवं सात वर्णों पर यति हो उसमें। शार्दूलविक्रीडितम् छंद होता है।
उदाहरण:
  SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
1:याकुन्देन्दुतुषार हार धवला या शुभ्रवस्त्रवृता,
 SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
यावीणा वरदण्डमण्डितकरा याश्वेतपद्मासना।
 SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
याब्रह्माच्युतशंकरप्रभृति भिर्देवैः सदा वदिन्ता,
SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
सामांपातुसरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥

2: खर्व स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरम् , प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्ध मधुप व्यालोल गण्डस्थलंम् । दंताघात विदारि तारि रूधिरैः सिन्दूरशोभाकरम् ,
वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम् ।।

3:यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके,
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा,
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शंकरः पातु माम्‌॥

4:ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमल प्रध्वंसनं चाव्ययं
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।
संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्‌॥

5: पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञान भक्तिप्रदं, 
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरशुभम् । 
श्रीमदामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये,
ते संसार पतङ्ग घोर किरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥

6:यास्यत्यद्य शंकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया, 
कण्ठः स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलषश्चिन्ताजडं दर्शनम् 
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्यौकसः, 
पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनयाविश्लेषदुःखैर्नवैः॥
    उक्त सभी श्लोकों में प्रथम श्लोक की भांति ही उनके सभी चरणों में क्रमशः मगण, सगण, जगण, पुन: सगण, उसके बाद दो तगण तथा अन्त में एक गुरू वर्ण हैं और 12वें एवं 7वें वर्णों के बाद यति हैं। अतः सभी 
शार्दूलाविक्रीडित छन्द के श्लोक हैं। 

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं परिभाषा 
संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण=

माँ विद्या वर दायिनी भगवती, तू बुद्धि का दान दे |

माँ अज्ञान मिटा हरो तिमिर को, दो ज्ञान हे शारदे ||

हे माँ पुस्तक धारिणी जगत में, विज्ञान विस्तार दे |

वाग्देवी नव छंद हो रस पगा, ऐसी नयी ताल दे ||
।।धन्यवाद।।

शनिवार, 23 मार्च 2024

।।मन्दाक्रांता छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

मन्दाक्रांता छंद
            संस्कृत में मन्दाक्रांता का अर्थ है
"धीमे कदम रखना" या "धीरे-धीरे आगे बढ़ना"।
ऐसा माना जाता है कि इसका प्रयोग 
महाकविकालिदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ
मेघदूत में सर्वप्रथम किया था।मंदाक्रांता 
छंद अत्यष्टि वर्ग में आता है।
लक्षणः- 
मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ गयुग्यम्।।
व्याख्या :- 
       जिस वृत्त/छंद के प्रत्येक चरण में क्रमशः 
मगण भगण  नगण तगण तगण  और दो गुरु
के क्रम में  वर्ण हो और  लक्षण में प्रयुक्त
अंबुधिरसनगैः  के अनुसार अंबुधि: से  चार
महासागर  ऐतिहासिक रूप से नामित  हैं: 
अटलांटिक, प्रशांत, भारतीय और आर्कटिक।
(हालाँकि, अधिकांश देश - जिनमें संयुक्त
राज्य अमेरिका भी शामिल है - अब दक्षिणी 
अंटार्कटिक को पांचवें महासागर के रूप में
मान्यता देते हैं।)
    रस से छः दैनिक जीवन के रस नामित हैं :
मधुर (मीठा),अम्ल (खट्टा),लवण (नमकीन),
कटु (चरपरा) ,तिक्त (कड़वा या नीम जैसा) 
और कषाय (कसैला)। 
     नगैः से सात भारतीय  प्रसिद्ध पर्वत हैं: 
हिमालय ,अरावली, विन्ध्याचल, रैवतक ,
महेन्द्र, मलय और सहयाद्रि
       इस प्रकार अंबुधि, रस और नग के क्रम में 
प्रत्येक चरण में क्रमशः चार,छः और सात वर्णों 
पर यति होती है। यह समवृत्त  छंद है इसके 
प्रत्येक चरण में 17 वर्ण पूरे छंद में कुल 
68 वर्ण होते है। इस प्रकार इस छंद की 
परिभाषा बन रही है।
परिभाषा:
    जिस वृत्त/छंद के प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण भगण नगण तगण तगण और दो गुरु के क्रम में
वर्ण हो और प्रत्येक चरण में चार छः और सात 
वर्णों पर यति हो उसे मंदाक्रांता छंद कहते हैं।
          अब हम उदाहरणों को व्याख्या सहित 
देखेगें लेकिन उससे पहले हमें हमेशा याद रखना
 है कि इस नियम/श्लोक के अनुसार अन्तिम वर्ण 
लघु होते हुवे भी छंद की आवश्यकता के अनुसार विकल्प से हमेशा गुरू माना जाता है।
वह नियम विधायक श्लोक है..

सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा ॥

उदाहरण:
मगण भगण नगण तगण तगण दो गुरु
SSS  SII    I I I   SSI   SSI  S S
1.शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
   विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् ।
   लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
   वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥

दूसरे उदाहरण के रुप में मेघदूतम का पहला श्लोक देखते है:

    S S S   S I I  I I I  S S I  S S I  S S
2.कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्त:,
शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः ।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ॥
 
   दोनों उदाहरणों में इनके प्रथम चरण के अनुसार 
ही क्रमशः मगण भगण नगण तगण तगण और 
दो गुरु के क्रम में वर्ण  हैं तथा प्रत्येक चरण में 
क्रमशः चार छः और सात वर्णों पर यति  भी है
 अतः मंदाक्रांता छंद  है।
      जरा दूसरे उदाहरण में ध्यान दे कि इसके
तीसरे और चौथे चरण का अंतिम वर्ण लघु हैं 
लेकिन "सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च  तथा पादान्तगोऽपि वा ॥"
के अनुसार वे गुरु माने जायेगें इस बात का
 हमेशा ध्यान रखना है।

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं परिभाषा 
संस्कृत की तरह ही हैं। आइए एक विद्वान की
हिंदी में  बताए  इस लक्षण को भी देख लेते हैं 
जिनका अर्थ पूर्व बताए गए व्याख्या और 
परिभाषा की तरह ही है।
हिन्दी में लक्षण:
“माभानाता,तगग” रच के, चार छै सात तोड़ें।
‘मंदाक्रान्ता’, चतुष पद की, छंद यूँ आप जोड़ें।।
उदाहरण:
1.लक्ष्मी माता, जगत जननी, शुभ्र रूपा शुभांगी।
विष्णो भार्या, कमल नयनी, आप हो कोमलांगी।।
देवी दिव्या, जलधि प्रगटी, द्रव्य ऐश्वर्य दाता।
देवों को भी, कनक धन की, दायिनी आप माता।।
 
 2.“तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम लाली।
पंछी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में।”
।।धन्यवाद।।

रविवार, 10 मार्च 2024

।।शिखरिणी छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

शिखरिणी 
       यह सत्रह अक्षरों/वर्णों  का  समवृत्त
 जाति का अत्यष्टि छंद है। 
लक्षण - 
रसैः रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलागः शिखरिणी। 
व्याख्या:
        शिखरिणी छंद भारत के सौंदर्य,संस्कृति,
भूमि, गौरव और धीर-गम्भीर भावों को  को 
व्यक्त करने वाला विशेष छंद है। इसमें चार 
चरण होते हैं।प्रत्येक चरणों में यगण, मगण, 
नगण, सगण, भगण और लघु एवं गुरु के क्रम
में सत्रह-सत्रह अक्षर होते हैं। 
     अब प्रश्न उठता है श्वास का विराम/यति 
कहाँ करें ? तो इसके उत्तर में आचार्य ने कहा
है कि- रसै: रुद्रैश्छिन्ना अर्थात् रस एवं रुद्र की
संख्या पर श्वास का विराम अर्थात् यति होगा।
    प्रथम यति रसै: पर अर्थात् यहाँ पर रस का
प्रयोग पाकशाला में प्रयुक्त रसों तिक्त, कषाय, 
लवण, मधुर, अम्ल एवं कटु ये छः रस हैं।इस
 प्रकार छः वर्णों पर प्रथम यति होगा ।
     द्वितीय यति अर्थात् विराम 'रुद्र' अर्थात् रुद्र 
भगवान शंकर के  स्वरूप के  जो नाम है वे 11 
हैं जो शिवपुराण के अनुसार निम्नलिखित हैं..
कपाली,पिंगल,भीम,विरूपाक्ष,विलोहित,शास्ता,
अजपाद,अहिर्बुध्न्य,शम्भु,चण्ड और भव।
इस प्रकार द्वितीय यति प्रत्येक पाद/चरण के
अन्त में17वें अक्षर पर होगा।
     इसका तात्पर्य यह है कि शिखरिणी छन्द के 
प्रत्येक चरण के प्रथम छठें अक्षर के बाद
श्वास रुकती है और द्वितीय 11 अक्षर के बाद 
अर्थात् चरण के अन्त में श्वास रुकती है।
इस प्रकार कुल मिलाकर शिखरिणी छन्द के में 
कुल 17×4=68 वर्ण होते हैं।
परिभाषा=
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में एक यगण 
(।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ), एक नगण (।।।), 
एक सगण (।।ऽ), एक भगण (ऽ।।), एक
 लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ)  के क्रम में वर्ण
हो तथा छठे और ग्यारहवें वर्णों पर यति हो
तो  शिखरिणी छंद कहते हैं।
उदाहरण -  
   । ऽ ऽ   ऽ ऽ ऽ  ।।।  । । ऽ     ऽ । ।     । ऽ
1."न मन्त्रं नो यन्त्रं, तदपि च न जाने स्तुतिमहो,
  न चाह्वानं ध्यानं, तदपि च न जाने स्तुतिकथा ।
  न जाने मुद्रास्ते, तदपि च न जाने विलपनं,
  परं जाने मात, स्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ।।”
     उक्त  श्लोक के प्रत्येक चरण में प्रथम चरण
की ही तरह एक यगण (।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ),
एक नगण (।।।), एक सगण (।।ऽ), एक भगण
(ऽ।।), एक लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ) के क्रम में
वर्ण हैं तथा छठे और ग्यारहवें वर्णों के बाद यति
 है इसलिए इसमें शिखरिणी छंद है।
हिन्दी:
     हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं 
परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।
उदाहरण:
    यहाँ एक अति सुंदर भारत वंदन 
का उदाहरण है:
 । ऽ ऽ    ऽ ऽ ऽ   ।।।  । । ऽ  ऽ । ।  । ऽ
बड़ा ही प्यारा है, जगत भर में भारत मुझे।
सदा शोभा गाऊँ, पर हृदय की प्यास न बुझे।।
तुम्हारे गीतों को, मधुर सुर में गा मन भरूँ।
नवा माथा मेरा, चरण-रज माथे पर धरूँ।।1।।
यहाँ गंगा गर्जे, हिमगिरि उठा मस्तक रखे।
अयोध्या काशी सी, वरद धरणी का रस चखे।।
यहाँ के जैसे हैं, सरित झरने कानन कहाँ।
बिताएँ सारे ही, सुखमय सदा जीवन यहाँ।।2।।
   उक्त पद्य  के प्रत्येक चरण में प्रथम चरण
की ही तरह एक यगण (।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ),
एक नगण (।।।), एक सगण (।।ऽ), एक भगण
(ऽ।।), एक लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ) के क्रम में
वर्ण हैं तथा छठे और ग्यारहवें वर्णों के बाद यति
 है इसलिए इसमें शिखरिणी छंद है।

।। धन्यवाद।।

।। पञ्चचामर छंद हिन्दी और संस्कृत में।।

पञ्चचामर छंद 

अन्य नाम: नराच, नागराज 
पञ्चचामर एक सोलह अक्षरी छंद है।
इसमें 8/8 या 4/4 वर्णों पर यति
होती है।यह प्रमाणिका का दोगुना
होता है,जैसा कि कहा भी गया है...

प्रमाणिका- पदद्वयं वदन्ति पंचचामरम्'।
 
लक्षण:
जरौजरौततौजगौचपंचचामरंवदेत_।
परिभाषा=
जब किसी श्लोक या पद्य के प्रत्येक 
चरण में जगण(ISI), रगण(SIS), 
जगण(ISI), रगण(SIS), जगण(ISI)
और गुरु(S) के क्रम में 16×4=64,
वर्ण हों तब पञ्चचामर छंद होता है।
इस प्रकार हम पाते है कि इस छंद
के प्रत्येक चरणों में लघु गुरू लघु 
गुरू के क्रम में 16×4=64 वर्ण होते हैं।

उदाहरण:

रावण कृत शिवतांडव स्त्रोत्र इसका
सर्व श्रेष्ठ उदाहरण है।
आइए इसका प्रथम श्लोक देखते हैं..

I S I S I S I S I   S I S I S I  S
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले,
I S   I S  I S I  S I  S I S I S I S
गलेऽवलम्ब्यलम्बितांभुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
I S I S I S I S I S I S I S I S
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
I  S I S I  S  I S I S I S I S I S
चकारचण्डताण्डवंतनोतुनःशिवःशिवम्॥

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के
लक्षण एवं परिभाषा संस्कृत 
की तरह ही हैं।
उदाहरण=

 1.जु रोज रोज गोप तीय कृष्ण संग धावतीं। 

  सु गीति नाथ पाँव सों लगाय चित्त गावतीं।।

  कवौं खवाय दूध औ दही हरी रिझावतीं। 

 सुधन्य छाँड़ि लाज पंच चामरै डुलावतीं।। ' 
 

2.तजो न लाज शर्म ही, न माँगना दहेज़ रे,

करो सुकर्म धर्म ही, भविष्य लो सहेज रे। 

सुनो न बोल-बात ही, मिटे अँधेर रात भी,

करो न द्वेष घात ही, उगे नया प्रभात भी।।

   ।। धन्यवाद ।।




शनिवार, 9 मार्च 2024

।।प्रमाणिका छंद ।।

प्रमाणिका  छंद 
साधारण वार्णिक छंद का यह प्रथम 
भेद है। इसका अन्य नाम: प्रमाणी, 
निगालिका और नागस्वरूपिणी है। 
प्रमाणिका एक अष्टाक्षरी छंद है।
इसके बारे में कहा भी गया है..

अष्टाक्षरी प्रमाणिका,
छंद अकेला भाय।
गेय छंद यही अद्भुत,
लघु गुरु बना सुहाय।।

लक्षण=
ज़रा लगा प्रमाणिका। 
       या
प्रमाणिका जरौ लगौ।
व्याख्या..
जरा या जरौ का अर्थ है जगण और रगण 
अर्थात् I S I तथा  S I S और लगा या लगौ 
का अर्थ है लघु गुरू I S इस प्रकार प्रमाणिका 
छंद में I S I S I S I S के क्रम में प्रत्येक 
चरणों में 8-8 वर्ण होते हैं।

परिभाषा=

जब श्लोक या पद्य के प्रत्येक चरणों में जगण
रगण लघु गुरू के क्रम में 8×4=32 वर्ण हो
तब प्रमाणिका छंद होता है।
उदाहरण :
I S I   S I S I   S  I S I   S I S I   S
नमामि भक्तवत्सलं, कृपालुशीलकोमलम्।
I  S I   S  I S I  S     I S I S    I S I S
भजामि ते पदाम्बुजं, अकामिनां स्वधामदम्॥

यहाँ हम देखते हैं कि 
I S I S I S I S के  क्रम में प्रत्येक चरणों
में 8-8 वर्ण हैं। अतः यहाँ प्रमाणिका छंद है।

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं परिभाषा 
संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण=
   I S I   S I S I   S  I S I   S I S I   S
1.सही-सही उषा रहे , सही-सही दिशा रहे ।
   I S I   S I S I   S  I S I   S I S I   S
 नयी-नयी हवा बहे,  भली-भली कथा कहे।। 

2.जगो उठो चलो बढ़ो, सभी यहीं मिलो खिलो। 
 न गाँव को कभी तजो,  न देव गैर का भजो ।।

छायावादी कवि जय शंकर प्रसाद जी की
यह रचना प्रमाणिका छंद का अद्भुत उदाहरण है ..

3.हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
 स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती॥
 अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है,  बढ़े चलो बढ़े चलो॥
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ,विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के,रुको न शूर साहसी॥
अराति सैन्य सिन्धु में, सुबाड़वाग्नि से जलो।
प्रवीर हो जयी बनो, बढ़े चलो बढ़े चलो॥
      ।।धन्यवाद।।

।।वसन्ततिलका छंद हिन्दी एवं संस्कृत में।।




 वसन्ततिलका

   काव्य जगत में वसन्ततिलका वृत्त
बहुत ही प्रसिद्ध है प्रायः सभी कवि इस 
वृत्त से काव्य रचने की इच्छा करते हैं
क्योंकि यह सुनने में अत्यंत मधुर है 
जिससे काव्य सौन्दर्य बढ़ता है।
वसन्ततिलका के बहुत से नामान्तर
विद्यमान है जैसा कि इस कारिका से
प्राप्त होता है-

सिंहोन्नतेयमुदिता मुनि काश्यपेन । 
उद्धर्षिणीति गदिता मुनि सैतवेन ।
रामेण सेयमुदिता मधुमाधवीति।
 
अर्थात् वसन्ततिलका का काश्यप के 
मत में सिंहोन्नता नाम है, सैवत के मत
में उद्धर्षिणी नाम और राम के मत
में माधवी नाम है।यह शक्वरी परिवार
का छंद है।वसन्ततिलका छन्द को
प्रायः दो नामों से स्मरण किया जाता है। 
कुछ लोग इसे वसन्ततिलकम् तो कुछ
लोग इसे वसन्ततिलका कहते है।
दोनों ही नाम छन्द शास्त्र में प्रचलित है। 
केवल अन्तर इतना है कि वसन्ततिलकम् 
नंपुसकलिंग में है तथा वसन्ततिलका
स्त्रीलिंग में प्रयुक्त शब्द होता है । 

इस छन्द का विशेष परिचय देने के
लिये एक छोटी सी ऐतिहासिक कहानी
बताता हूँ।
 
ग्यारहवीं शताब्दी के इतिहास में
मालवा के नरेश, भोज देवजी थे।
वे बहुत बड़े पंडित एवं विद्वान थे।
उन्होंने 84 ग्रन्थों की रचना किया था। 
उन्होंने एक नियम बना दिया था कि
हमारी राजधानी धारा नगरी में कोई
भी मूर्ख व्यक्ति न रहें। जो भी निवास 
करें वह पंडित विद्वान या कवि हो ।
संयोग वश एक दिन उनके सिपाहियों
ने एक जुलाहे को पकड़ कर उनके
समक्ष लाया और बोले कि:
हे राजन! यह कुछ भी नहीं जानता है 
अर्थात् मूर्ख है इसलिए इसके दण्ड की
व्यवस्था की जाय । किन्तु राजा ने सोचा
कि बिना परीक्षा किये दण्ड की व्यवस्था 
नहीं करनी चाहिए। इसलिए उसने जुलाहे
से पूछा- हे जुलाहे ! जो सिपाही कह रहे हैं
वह ठीक है ?
तो जुलाहे ने काव्य में उत्तर
देते हुए कहा-

  S S I  S I I   I S I I S I S S
"काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि
यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि।
भूपाल - मौलि-मणि- रंजित- पादपीठ:
हे साहसांक ! कवयामि वयामि यामि ।।"

इस प्रकार इन पक्तियों में 
वसन्ततिलका छंद का प्रयोग इतने
सुन्दर शब्दों के संयोजन के साथ
किया गया था। जिसको सुनकर
सभी दंग रह गये और राजा उसकी
शब्दयोजना को सुनकर इतना 
प्रसन्न हो गये कि उसको नगर में
रहने की सुन्दरतम् व्यवस्था करते
हुए पुरस्कृत किया ।

लक्षण- 
"उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः।
  या
ज्ञेया वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ।
अर्थात्..
जानो वसन्ततिलका तभजा जगागा।
इस प्रकार इस छंद की 
परिभाषा:
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमश:
तगण, भगण, जगण,जगण एवं दो गुरु 
वर्ण के क्रम में 14 वर्ण हों, 
वह वसन्ततिलका छन्द कहलाता है। 

अब हम उदाहरणों को व्याख्या
सहित देखेगें:
लेकिन उससे पहले
हमें हमेशा याद रखना है कि इस
नियम के अनुसार  किसी भी छंद
के किसी भी चरण का अन्तिम
वर्ण लघु होते हुवे भी छंद की 
आवश्यकता के अनुसार विकल्प से 
हमेशा गुरु माना जाता है। इसलिए
किसी भी छंद के किसी भी चरण
का अंतिम वर्ण  यदि नियमानुसार 
गुरु होना चाहिए और संयोग से वह
लघु है तो इस नियम  के अनुसार वह
गुरु ही माना जायेगा।
वह नियम विधायक श्लोक है...

सानुस्वारश्च दीर्घश्च 
विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च 
तथा पादान्तगोऽपि वा ॥

उदाहरण - 
    S S I S I I I S I I S I S S
1.लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तं
   रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम् ।
   उद्यद्दिवाकरकरोज्ज्वलकायकान्तं
   विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि ।।

2.पापान्निवारयति योजयते हिताय 
  गुह्यान् निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति। 
  आपद्गतं च न जहाति ददाति काले 
  सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः॥ 

3.फुल्लं वसन्त तिलकं तिलकं वनाल्याः,
  लीलापरं पिककुलं कलमत्र, रौति।
  वात्येष पुष्पसुरभिर्मलायाद्रि वातो,
  याताहरिः समधुरां विधिना हताः स्मः ।।

4.नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये 
  सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
  भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे 
  कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ 

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण
एवं परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण:⁠

1-भू में रमी शरद की कमनीयता थी ।
 ⁠नीला अनन्त - नभ निर्मल हो गया था ।
 ⁠थी छा गई ककुभ मे अमिता सिताभा ।
 ⁠उत्फुल्ल सी प्रकृति, थी प्रतिभात होती ॥

2-प्राणी समस्त सम हैं, यह भाव राखूँ।
   ऐसे विचार रख के, रस दिव्य चाखूँ।।
   हे नाथ! पूर्ण करना, मन-कामना को।
   मेरी सदैव रखना, दृढ भावना को।।
 ।। धन्यवाद ।।

।।मालिनी छंद संस्कृत एवं हिन्दी में।।

मालिनी

   मालिनी शब्द का अर्थ माला धारण करने वाली
रमणी है।यह वृत्त अर्थात् छंद "अतिशक्वती" 
परिवार का भाग है।
लक्षण-
“ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोंकैः ।
व्याख्याः-
        ननमयययुतेयं अर्थात् यह छंद दो नगण, 
एक भगण,दो यगण से युक्त होता है। दूसरे शब्दों
में जिस श्लोक/पद्य के प्रत्येक चरण में क्रमश: 
नगण, नगण, मगण,यगण एवं यगण के क्रम में
वर्ण हो उस श्लोक/ पद्य में मालिनी छंद होता है।
             अब प्रश्न उठता है कि विराम कब तो 
उत्तर है 'भोगिलोकैः' अर्थात् भोगि और लोकै: 
के बाद।
अब समझते है भोगि और लोकै: को।
        भोगि  शब्द बना है भोग से,भोग कहते है 
साँप की कुण्डली को और भोग से युक्त होने के 
कारण साँप का एक नाम है ‘भोगि'।इस प्रकार 
भोगि शब्द का अर्थ सर्प या नाग होता है। हमारे 
धर्मग्रंथों के आधार पर संस्कृत साहित्य में सर्पोंं 
अर्थात् नागों की संख्या 8  बतायी गई है जो
 निम्न हैं: 
अनंत(शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म,शंख और कुलिक अतः स्पष्ट है पहला
विराम भोगि अर्थात् आठवें अक्षर के बाद आयेगा।
          इसके पश्चात् दूसरा विराम लोकै:अर्थात् 
लोक के पश्चात् आयेगा विष्णु पुराण के अनुसार
अतल, वितल, सुतल, रसातल,तलातल, महातल 
और पाताल नाम के 7 लोक हैं।अतः स्पष्ट है कि 
दूसरा विराम सातवें अक्षर के बाद होगा।
         इस प्रकार इस वृत/ छंद  में आठवें एवं 
सातवें अक्षर के बाद यति होती है।यह समवृत्त 
है अत: चारों चरणों में समान लक्षण होते हैं। 
प्रत्येक चरण में 15 अक्षर होते हैं अतः चारों 
चरणों में 60 अक्षर हुवे।
परिभाषा:
         जिस  समवृत्त छंद के प्रत्येक चरणों में 
क्रमश: नगण, नगण, मगण,यगण एवं यगण के 
क्रम में वर्ण हो तथा आठवें एवं सातवें अक्षर के 
बाद यति हो उसे मालिनी छंद कहते हैं।
उदाहरण. 
इस प्रसिद्ध श्री हनुमान वंदना को आप
उदाहरण के रूप में जरूर देखें, समझें 
और याद करें...
  I I I  I I I  S S S  I S S  I S S
  अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
  I I I   I I I  S S S  I S S  I S S
  दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
  I I I  I I I  S S S  I S S  I S S
  सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
  I I I  I I I  S S S  I S S  I S ( I/S)
  रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।
        यहाँ नमामि में मि को देखें यह स्पष्ट 
लघु दिख रहा है लेकिन:
 सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा ॥
के पादान्तगोऽपि वा के अनुसार किसी भी छंद 
के किसी भी चरण का अन्तिम वर्ण लघु होते
हुवे भी छंद की आवश्यकता के अनुसार विकल्प 
से हमेशा गुरू माना लिया जाता है। 
    अतः यहाँ मि गुरु वर्ण माना जा रहा है और
 इस श्लोक के प्रत्येक चरण में प्रथम चरण के
 अनुसार ही क्रमश: नगण, नगण, मगण, यगण 
एवं यगण के क्रम में वर्ण विधान है तथा इसमें 
प्रथम यति आठ पर और द्वितीय यति सात 
वर्णों पर हैं अतः यहाँ मालिनी छन्द है। 

हिन्दी...

हिन्दी में भी मालिनी छंद के लक्षण
एवं परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण-
 I I I    I I I    S S S   I S S   I S S
प्रिय-पति वह मेरा , प्राणप्यारा कहाँ है।
दुख-जलधि निमग्ना ,का सहारा कहाँ है।
अब तक जिसको मैं, देख के जी सकी हूँ।
वह हृदय हमारा ,नेत्र-तारा कहाँ है॥
      इस पद्य के प्रत्येक चरण में प्रथम चरण के
अनुसार ही क्रमश: नगण, नगण, मगण, यगण 
एवं यगण के क्रम में वर्ण विधान है तथा इसमें 
प्रथम यति आठ पर और द्वितीय यति सात 
वर्णों पर हैं अतः यहाँ मालिनी छन्द है। 
।। धन्यवाद।।