मानस चर्चा "गुर के बचन प्रतीति न जेही"
प्रसंग है,--
नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसौ भवन ऊजरौ नहिं डरऊँ
गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥
अर्थात् –इसी प्रकार मैं पार्वती नारदजीका उपदेश न छोडूंगी। घर बसे या उजड़े, मुझे इसका डर नहीं है।
जिसको गुरुके वचनोंमें विश्वास नहीं है, उसे स्वप्नमें भी सुख और सिद्धि वा, सुखकी सिद्धि सुलभ नहीं
हो सकती ॥
सप्तर्षियोंने नारदजीको बुरा-भला कहा । यह पार्वतीजीको बहुत बुरा लगा। इसीसे प्रारम्भमें ही वे उनको बताये देती हैं कि देवर्षि नारद हमारे गुरु हैं, उनके वचन हमारे लिये पत्थरकी लकीरके समान हैं, टाले नहीं टल सकते। 'नारद बचन न मैं परिहरऊँ' कहकर फिर उसका कारण बताती हैं कि 'गुर के बचन प्रतीति न जेही । 'नारद' शब्द ही गुरुत्वका द्योतक है; क्योंकि
'गुशब्दस्त्वन्धकारस्तु रुशब्दस्तन्निरोधकः ।अन्धकारनिरोधित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते ॥'
के अनुसार हृदयके अन्धकारके नाश करने वाले को 'गुरु' कहते हैं । हृदयका अन्धकार अज्ञान है। अज्ञानका नाश आत्म-परमात्म-ज्ञानसे ही होता है और आत्म-परमात्म-ज्ञान जिनके द्वारा हो, वे ही 'गुरु'
हैं। अत: 'गुर बिनु होइ कि ज्ञान' के अनुसार ज्ञानदाता 'गुरु' कहे जाते हैं और 'नारं ज्ञानं ददातीति नारदः' अर्थात्
'नार' ज्ञान जो दे उसका नाम 'नारद' है। इस व्युत्पत्तिसे नारद और गुरु शब्द एकार्थवाची होनेसे नारदजीको
'गुरु' कहा और 'गुरोराज्ञा गरीयसी' तथा 'आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया' भी रघुवंश में कहा गया है, के
अनुसार 'नारद बचन न मैं परिहरऊँ। और गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥ कहा
श्रीगुरुवाक्यपर शिष्यका ऐसा ही दृढ़ विश्वास रहना चाहिये। विश्वासका धर्म दृढ़ता है, यथा 'बटु बिश्वास
अचल निज धर्मा।' वह अवश्य फलीभूत होगा इसमें सन्देह नहीं । शिष्यमें आचार्याभिमान होना परम गुण है,
इष्टप्राप्तिका सर्वोपरि उपाय है और परम लाभ है। 'सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ' । भाव कि मनुष्योंकी कौन कहे, देवताओंको भी स्वप्नमें भी सुख और सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। देवराज इन्द्र और चन्द्रमा - ये लोकपाल भी गुरुकी अवज्ञा करनेसे दुःखी ही हुए ।
शिवपुराणमें गुरुवचनपर चार श्लोक हैं। उनके अनुसार भी गुरु के वचनों पर जिनको प्रतीति नहीं है उनको दुःख ही दुःख होता है और जिनको प्रतीति है उन्हें सुख
होता है। यथा-
'गुरूणां वचनं पथ्यमिति वेदविदो विदुः ।
गुरूणां वचनं सत्यमिति यद्धृदये न धीः ।
इहामुत्रापि तेषां हि दुःखं न च सुखं क्वचित् ॥
गुरूणां वचनं सत्यमिति येषां दृढा मतिः ।
तेषामिहामुत्र सुखं परमं नासुखं क्वचित् ॥
सर्वथा न परित्याज्यं गुरूणां वचनं द्विजाः ।
गृहं वसेद्वाशून्यं स्यान्मे हठस्सुखदस्सदा ॥' (
नारदजीसे पार्वतीजीने तप करनेका उपदेश होनेपर उनसे पंचाक्षरी - मन्त्र भी लेकर उनको गुरु किया
था। यथा—‘रुद्रस्याराधनार्थाय मन्त्रं देहि मुने हि मे । न सिद्ध्यति क्रिया कापि सर्वेषां सद्गुरुं विना । इति श्रुत्वा
वचस्तस्याः पार्वत्या मुनिसत्तमः । पंचाक्षरं शम्भुमन्त्रं विधिपूर्वमुपादिशः । यह शिवपुराण कहता है।
अर्थात् जब पार्वतीजीने कहा कि बिना सद्गुरुके सिद्धि नहीं होती; अतः आप मुझे शिवाराधनका मन्त्र दें, तब
नारदजीने उनको पंचाक्षरी मन्त्र दिया, उसका प्रभाव बताया, ध्यान बताया।इस तरह वे विधिपूर्वक गुरु हुए थे। और जो भी हमारा गुरू हैं उसके प्रति शिष्यों के मन में सदा ही यह भाव होना ही चाहिए कि
गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें