मानस चर्चा "अजामिल गज और गणिका की कथा"
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ । भये मुकुत हरि - नाम- प्रभाऊ ॥
अर्थात् - अजामिल, गजेन्द्र और गणिका – ऐसे पतित भी भगवान्के नामके प्रभावसे मुक्त हो गये ॥
उत्तम भक्तोंकी गिनती श्रीशिवजीसे प्रारम्भ की। यथा - ' महामंत्र जोई जपत महेसू ।' और शिवजीहीपर समाप्त की । यथा - 'सुमिरि पवनसुत पावन नामू ।' श्रीहनुमान्जी रुद्रावतार हैं, यथा-
'रुद्रदेह तजि नेह बस, बानर भे हनुमान ॥
जानि रामसेवा सरस समुझि करब अनुमान ।
पुरुषा ते सेवक भए, हर ते भे हनुमान ॥'अर्थात् 'महामंत्र जोई जपत महेसू' से 'सुमिरि पवनसुत' तक उच्च
कोटिके भक्तोंको गिनाया, अब पतितोंके नाम देते हैं जो नामसे बने ।
'अपत' की गिनती अजामिलसे प्रारम्भ करके अपनेमें समाप्ति की । गोस्वामीजीने अपनी गणना भक्तोंमें
नहीं की। यह उनका कार्पण्य है।
'अजामिल' की कथा श्रीमद्भागवत स्कन्ध ( ६ अ० १, २) में, भक्तिरसबोधिनी टीकामें विस्तारसे है। ये कन्नौज के एक श्रुतसम्पन्न ( शास्त्रज्ञ ) सुस्वभाव और सदाचारशील तथा क्षमा, दया आदि अनेक शुभगुणोंसे विभूषित ब्राह्मण थे। एक दिन यह पिता की आज्ञा से जब वनमें फल, फूल, समिधा और कुशा लेने गए, वहाँसे इनको लेकर लौटते समय वनमें एक कामी शूद्रको एक वेश्यासे निर्लज्जतापूर्वक रमण करते देख ये कामके वश हो गए उसके पीछे इन्होने पिताकी सब सम्पदा नष्ट कर दी, अपनी सती स्त्री और परिवारको छोड़ उस कुलटाके साथ रहने और जुआ, चोरी इत्यादि कुकर्मोंसे जीवनका निर्वाह
और उस दासीके कुटुम्बका पालन करने लगे । इस दासीसे उनके दस पुत्र थे। अब वे अस्सी वर्षके हो
चुके थे।संयोग वश एक साधुमण्डली ग्राममें आयी, कुछ लोगोंने परिहाससे उन्हें बताया कि अजामिल बड़ा सन्तसेवी धर्मात्मा है। वे उसके घर गये तो दासीने उनका आदर-सत्कार किया । उनके दर्शनोंसे अजामिल की बुद्धि फिर सात्त्विकी हो गयी। सेवापर रीझकर साधुओं ने इनसे कहा कि जो बालक गर्भ में है उसका नाम 'नारायण' रखना। इस प्रकार सबसे छोटेका नाम 'नारायण' पड़ा। यह पुत्र उनको प्राणोंसे प्याराथा। अन्तकालमें भी उनका चित्त उसी बालकमें लग गया। उन्होंने तीन अत्यन्त भयंकर यमदूतोंको हाथोंमें पाश लिये हुए अपने पास आते देख विह्वल हो दूरपर खेलते हुए पुत्रको 'नारायण, नारायण' कहकर पुकारा । पुकारते ही तुरन्त नारायण- पार्षदोंने पहुँचकर यमदूतोंके पाशसे उन्हें छुड़ा दिया। भगवत् - पार्षदों और यमदूतोंमें वाद-विवाद हुआ। उसने पार्षदोंके मुखसे वेदत्रयीद्वारा प्रतिपादित सगुण धर्म सुना । भगवान्का माहात्म्य सुननेसे उसमें भक्ति उत्पन्न हुई। वह पश्चात्ताप करने लगा और भगवद्भजनमें आरूढ़ हो
भगवल्लोकको प्राप्त हुआ। श्रीशुकदेवजी कहते हैं कि पुत्रके मिस भगवन्नाम उच्चारण होनेसे तो पापी
भगवद्धामको गया तो जो श्रद्धापूर्वक नामोच्चारण करेंगे उनके मुक्त होनेमें क्या सन्देह है ? -
'नाम लियो पूत को पुनीत कियो पातकीस।'
'म्रियमाणो हरेर्नामगृणन्पुत्रोपचारितम् । अजामिलोप्यगाद्धाम किं पुनःश्रद्धया गृणन् ॥'
अब हम गज की कथा सुनते हैं --
'- क्षीरसागरके मध्यमें त्रिकूटाचल है। वहाँ वरुणभगवान्का ऋतुमान् नामक बगीचा है और
एक सरोवर भी । एक दिन उस वनमें रहनेवाला एक गजेन्द्र हथिनियोंसहित उसमें क्रीड़ा कर रहा था । उसीमें
एक बली ग्राह भी रहता था । दैवेच्छासे उस ग्राहने रोषमें भरकर उसका चरण पकड़ लिया। अपनी शक्तिभर
गजेन्द्रने जोर लगाया। उसके साथके हाथी और हथिनियोंने भी उसके उद्धारके लिये बहुत उपाय किये पर उसमें समर्थ न हुए। एक हजार वर्षतक गजेन्द्र और ग्राहका परस्पर एक-दूसरेको जलके भीतर और बाहर खींचा- खींची करते बीत गये । अन्ततोगत्वा गजेन्द्रका उत्साह, बल और तेज घटने लगा और उसके प्राणोंके संकटका समय उपस्थित हो गया— उस समय अकस्मात् उसके चित्तमें सबके परम आश्रय हरिकी शरण लेनेकी सूझी और उसने प्रार्थना की -
'यः कश्चनेशो बलिनो ऽन्तकोरगात्प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम्। भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्भयान्मृत्युः प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥' अर्थात् जो कालसर्पसे भयभीत भागते हुए व्यक्तिकी रक्षा करता है, जिसके भयसे मृत्यु भी दौड़ता रहता है, उस शरणके देनेवाले, ईश्वरकी मैं शरण हूँ। यह सोचकर वह अपने पूर्वजन्ममें सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्रका जप करने लगा । यथा -
' जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ।'
स्तुति सुनते ही सर्वदेवमय भगवान् हरि प्रकट हुए। उन्हें देखते ही बड़े कष्टसे अपनी सूँड़में एक कमलपुष्प ले उसे जलके ऊपर उठा भगवान्को 'नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ।' इस प्रकार " हे नारायण ! हे अखिल गुरो ! हे भगवन्! आपको नमस्कार है" कहकर प्रणाम किया। यह सुनते ही भगवान्, गरुड़ को भी मन्दगामी समझ उसपरसे कूद पड़े और तुरन्त ही उसे ग्राहसहित सरोवरसे बाहर निकाल सबके देखते-देखते उन्होंने चक्रसे ग्राहका मुख फाड़ गजेन्द्रको छुड़ा दिया। पूर्वजन्ममें यह ग्राह हूहू नामक गन्धर्वश्रेष्ठ था और गजेन्द्र द्रविड़ जातिका इन्द्रद्युम्न नामक पाण्ड्य देशका राजा था। वह मनस्वी राजा एक बार मलयपर्वतपर अपने आश्रम में मौनव्रत धारणकर श्रीहरिकी आराधना कर रहा था। उसी समय दैवयोगसे अगस्त्यजी शिष्योंसहित वहाँ पहुँचे। यह देखकर कि हमारा पूजा - सत्कार आदि कुछ न कर राजा एकान्तमें बैठा हुआ है, उन्होंने उसे शाप दिया कि - 'हाथीके समान
जडबुद्धि इस मूर्ख राजाने आज ब्राह्मणजातिका तिरस्कार किया है, अतः यह उसी घोर अज्ञानमयी योनिको
प्राप्त हो। इसीसे वह राजा गजयोनिको प्राप्त हुआ । भगवान्की आराधनाके प्रभावसे उस योनिमें भी उन्हें
आत्मस्वरूपकी स्मृति बनी रही। - अब भगवान्के स्पर्शसे वह अज्ञानबन्धनसे मुक्त हो भगवान्के सारूप्यको
प्राप्त कर भगवान्का पार्षद हो गया ।हूहू गन्धर्वने एक बार देवल ऋषिका जलमें पैर पकड़ा; उसीसे उन्होंने उसको शाप दिया कि तू ग्राहयोनिको प्राप्त हो । भगवान्के हाथसे मरकर वह अपने पूर्व रूपको प्राप्त हुआ और स्तुति करके अपने लोकको गया । गजेन्द्रके संगसे उसका भी नाम
चला । गजेन्द्रका 'गजेन्द्रमोक्ष' स्तोत्र प्रसिद्ध ही है। विनयमें भी कहा है- 'तरयो गयंद जाके एक नायँ ।'
अब गणिका की कथा को भी सुन ही लेते हैं।
पद्मपुराणमें गणिकाका प्रसंग श्रीरामनामके सम्बन्धमें आया है। सत्ययुगमें एक रघु नामक वैश्यकी जीवन्ती नामकी एक परम सुन्दरी कन्या थी । यह परशु नामक वैश्यकी नवयौवना स्त्री थी । युवावस्था में ही यह विधवा होकर व्यभिचारमें प्रवृत्त हो गयी। ससुराल और मायका दोनोंसे यह निकाल दी गयी। तब वह किसी दूसरे नगरमें जाकर वेश्या हो गयी। यह वह गणिका है। इसके कोई सन्तान न थी । इसने एक व्याधासे एक बार एक तोतेका बच्चा मोल ले लिया । और उसका पुत्रकी तरह पालन करने लगी। वह उसको 'राम राम' पढ़ाया करती थी। इस तरह नामोच्चारणसे दोनोंके पाप नष्ट हो गये । पद्म पुराण के अनुसार- 'रामेति सततं नाम पाठ्यते सुन्दराक्षरम् ॥ रामनाम परब्रह्म सर्वदेवाधिकं महत् । समस्तपातकध्वंसि स शुकस्तु सदा पठन् ॥
नामोच्चारणमात्रेण तयोश्च शुकवेश्ययोः । विनष्टमभवत्पापं सर्वमेव सुदारुणम् ॥ दोनों साथ-साथ इस प्रकार रामनाम लेते थे। फिर किसी समय वह वेश्या और वह शुक एक ही समय मृत्युको प्राप्त हुए । यमदूत उसको पाशसे बाँधकर ले चले, वैसे ही भगवान्के पार्षद पहुँच गये और उन्होंने यमदूतोंसे उसे छुड़ाया। छुड़ानेपर यमदूतोंने मारपीट की। दोनोंमें घोर युद्ध हुआ । यमदूतोंका सेनापति चण्ड जब युद्धमें गिरा तब सब यमदूत भगे। भगवत् पार्षदोंने तब जयघोष किया। उधर यमदूतोंने जाकर धर्मराजसे शिकायत की कि महापातकी भी रामनामके केवल रटनेसे भगवान्के लोकको चले गये तब आपका प्रभुत्व कहाँ रह गया ? इसपर धर्मराजने उनसे कहा - ' दूताः स्मरन्तौ तौ रामरामनामाक्षरद्वयम् । तदा न मे दण्डनीयौ तयोर्नारायणः प्रभुः ॥ संसारे नास्ति तत्पापं यद्रामस्मरणैरपि । न याति संक्षयं सद्योदृढं शृणुत किंकराः ॥ ' हे दूतो । वे 'राम,
राम' ये दो अक्षर रटते थे, इसलिये वे मुझसे दण्डनीय नहीं हैं। उनके प्रभु श्रीरामजी हैं। संसारमें ऐसा कोई
पाप नहीं है जो रामनामसे न विनष्ट हो, यह तुमलोग निश्चय जानो । — वे दोनों श्रीरामनामके प्रभावसे मुक्त
हो गये । यथा - 'रामनामप्रभावेण तौ गतौ धाम्नि सत्वरम् ॥'
एक 'पिंगला' नामकी वेश्याका प्रसंग भी इस प्रकार है कि एक दिन वह किसी प्रेमीको अपने स्थानमें लानेकी इच्छासे खूब बन-ठनकर अपने घरके द्वारपर खड़ी रही। जो कोई पुरुष उस मार्ग से निकलता उसे ही समझती कि बड़ा धन देकर रमण करनेवाला कोई नागरिक आ रहा है, परन्तु जब वह आगे निकल जाता तो सोचती कि अच्छा अब कोई दूसरा बहुत धन देनेवाला आता होगा। इस प्रकार दुराशावश खड़े-खड़े उसे जागते-जागते अर्धरात्रि बीत गयी । धनकी दुराशासे उसका मुख सूख गया, चित्त व्याकुल हो
गया और चिन्ताके कारण होनेवाला परम सुखकारक वैराग्य उसको उत्पन्न हो गया । वह सोचने लगी कि -
ओह! इस विदेहनगरीमें मैं ही एक ऐसी मूर्खा निकली कि अपने समीप ही रमण करनेवाले और नित्य रति
और धनके देनेवाले प्रियतमको छोड़कर कामना पूर्तिमें असमर्थ तथा दुःख, शोक, भय, मोह आदि देनेवाले,
अस्थिमय टेढ़े-तिरछे बाँसों और थूनियोंसे बने हुए, त्वचा, रोम और नखोंसे आवृत, नाशवान् और मल-मूत्रसे
भरे हुए, नवद्वारवाले घररूप देहोंको कान्त समझकर सेवन करने लगी। अब मैं सबके सुहृद्, प्रियतम, स्वामी,
आत्मा, भवकूपमें पड़े हुए कालसर्पसे ग्रस्त जीवोंके रक्षकके ही हाथ बिककर लक्ष्मीजीके समान उन्हींके साथ
रमण करूँगी । यह सोचकर वह शान्तिपूर्वक जाकर सो रही और भजनकर संसार सागरसे पार हो गयी।
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भऐ मुकुत हरि नाम प्रभाऊ' ।।
जैसे अग्निको जानो या न जानो वह छूनेसे
अवश्य जलावेगी वैसे ही होठोंके स्पर्शमात्रसे नाम सर्व शुभाशुभकर्मोंको नष्टकर मुक्ति देगा ही । अजामिल
पतितोंकी सीमा था, इसीसे उसका नाम प्रथम दिया। ग्रन्थके अन्तमें भी कहा है कि ये सब नामसे तरे ।
यथा - 'गनिका अजामिल - व्याध-गीध-गजादि खल तारे घना । आभीर जमन किरात खस श्वपचादि अति अघरूप
जे ॥ कहि नाम बारक तेऽपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥'
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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