रविवार, 2 जून 2024

मानस चर्चाबंदौं मुनिपदकंज

मानस चर्चा
बंदौं मुनिपदकंज, रामायन जेहिं निरमयेउ ।
सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषन सहित ॥
इस सोरठे के माध्यम से गोस्वामीजी ने अपने ग्रंथ के साथ ही साथ महर्षि वाल्मीकिजीकी महत्ता को प्रतिपादित किया है। आइए हम इसी के बहाने रामायण और रामचरितमानस दोनों के महत्त्व और वाल्मीकिजी के ज्ञाताज्ञात जीवन पर चर्चा करें।
      सबसे पहले तो  यहाँ गोस्वामीजी वाल्मीकिजीकी 'स्वरूपाभिनिवेश वन्दना' करते हैं जिससे मुनिवाक्य श्रीमद्रामायणस्वरूप हृदयमें प्रवेश करे। नमस्कार करते समय स्वरूप, प्रताप, ऐश्वर्य, सेवा जब मनमें समा जाते हैं तो उस नमस्कारको 'स्वरूपाभिनिवेश वन्दना' कहते हैं।
यह सोरठा को शेखर कवि के इस श्लोकका अनुवाद है।
'नमस्तस्मै कृता येन रम्या रामायणी कथा ।
सदूषणापि निर्दोषा सखरापिसुकोमला ॥'
  अर्थात् यह रामायण  कठोरतासहित है। क्योंकि इसमें अधर्मियोंको दण्ड देना पाया जाता है, कोमलतायुक्त है क्योंकि इसमें विप्र, सुर, संत, शरणागत आदिपर नेह, दया, करुणा करना पाया जाता है, मंजु है क्योंकि उसमें श्रीरामनामरूप लीलाधामका वर्णन है जिसके कथन, श्रवणसे हृदय निर्मल हो जाता है,दोषरहित है क्योंकि अन्य ग्रन्थका अशुद्ध पाठ करना दोष है और इसके पाठमें अशुद्धताका दोष नहीं लगता, दूषण भी इसमें हितकारी ही है, क्योंकि अर्थ न करते बनना दूषण है सो दूषण भी इसमें नहीं लगता, पाठ और अर्थ बने या न बने इससे कल्याण ही होता है, क्योंकि इसके एक-एक अक्षर के उच्चारणसे महापातक नाश होता है। प्रमाण भी है---
'चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् । 
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥'
काव्यके दोष उसमें नहीं हैं। अथवा सखर है अर्थात् श्रीरामजीका सखारस इसमें वर्णित है। सुग्रीव, गुह और विभीषणसे सखाभाव वर्णित है। कोमल, मंजु और दोषरहित तीनों विशेषण सखाभावमें लगेंगे। कोमल सुग्रीवके सम्बन्धमें कहा, क्योंकि उनके दुःख सुनकर हृदय द्रवीभूत हो गया, अपना दुःख भूल गया। गुहकी मित्रताके सम्बन्ध 'मंजु' कहा क्योंकि उसको कुलसमेत मनोहर अर्थात् पावन कर दिया। दोषरहित दूषणसहित विभीषणके सम्बन्धसे कहा । शत्रुका भ्राता और राक्षसकुलमें जन्म दूषण हैं, उन्हें दोषरहित किया । 
मुनिकृत रामायण का तो यहां एक रूपक है वास्तव में गोस्वामीजी का रामचरित मानस सभी दोषोंसे सर्वथा मुक्त है। झूठ बोलना या लिखना दोष है और सत्य बोलना या लिखना दोष नहीं है, परन्तु अप्रिय सत्य दोष तो नहीं किंतु दूषण अवश्य है । इसीसे मनुने कहा है, 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्' और मानसमें भी कहा है, 'कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी ।'  गोस्वामीजी मुनिकी रामायणको 'मंजु' और अपनी भाषारामायणको 'अति मंजुलमातनोति' कहा है। आप देखें ----
नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचि दन्यतोअपि
स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा
भाषा निबंधमति मंजुल मातनोति।।
  'बंदौं मुनिपदकंज रामायन जेहि निरमयेउ' रामायण  बनाने वाले वाल्मीकिजी मुनि भी थे और आदिकवि भी । ये श्रीरामचन्द्रजीके समयमें भी थे और इन्होंने श्रीरामजीका उत्तरचरित पहलेहीसे रच रखा था । उसीके अनुसार श्रीरामजीने सब चरित किये। इन्होंने शतकोटिरामचरित छोड़ और कोई ग्रन्थ रचा ही नहीं। अब हमें यह जानना है कि ये मुनि हैं कौन ? कहीं इनको भृगुवंशमें उत्पन्न प्रचेताका वंशज कहा है।  स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड वैशाखमासमाहात्म्यमें श्रीरामायणके रचयिता वाल्मीकिकी कथा इस प्रकार है कि ये पूर्वजन्ममें व्याध थे। इनको महर्षि शंखने दया करके वैशाखमाहात्म्य बताकर उपदेश किया कि तुम श्रीरामनामका निरन्तर जप करो और आजीवन वैशाखमासके जो धर्म हैं उनका आचरण करो, इससे वल्मीक ऋषिके कुलमें तुम्हारा जन्म होगा और तुम वाल्मीकि नामसे प्रसिद्ध होगे । यथा -
' तस्माद् रामेति तन्नाम जप व्याध निरन्तरम् ।
धर्मानेतान् कुरु व्याध यावदामरणान्तिकम् ॥'
'ततस्ते भविता जन्म वल्मीकस्य ऋषेः कुले । वाल्मीकिरिति नाम्ना च भूमौ ख्यातिमवाप्स्यसि ॥' 
उपदेश पाकर व्याधने वैसा ही किया । एक बार कृणु नामके ऋषि बाह्यव्यापारवर्जित दुश्चर तपमें निरत हो गये। बहुत समय बीत जानेपर उनके शरीरपर दीमककी बाँबी जम गयी इससे उनका नाम वल्मीक पड़ गया। इन वल्मीक ऋषिके वीर्यद्वारा एक नटीके गर्भसे उस व्याधका पुनर्जन्म हुआ। इससे उसका नाम वाल्मीकि हुआ जिन्होंने रामचरित गान अपने रामायण ग्रंथ में किया।जिनका रामायण सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषन सहित है अतः हम इस मुनि श्रेष्ठ के चरण कमल की वंदना करते हैं।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें