मंगलवार, 29 नवंबर 2022

√कौवा/कौआ के पर्यायवाची शब्द

 ।।कौवा/कौआ के पर्यायवाची शब्द ।।
(1) प्रातर्भोक्ता शक्रजात, 
        आत्मघोष द्विक राग।।
    कौवा कागा क्रो काक
           करठ कागला काग।।
 (a) इस दोहे में राग शब्द को
     छोड़कर शेष सभी ग्यारह
     शब्द कौआ के पर्याय हैं।
(b)शक्रजात और शक्रज दोनों
    कौवा के पर्याय हैं इनका एक 
   अर्थ इन्द्रपुत्र जयन्त भी होता है ।
(c)कौवा को कौआ भी कहते है ।
(d)राजस्थानी में कौवा को कागला 
   तथा मारवाडी में हाडा कहा जाता
   है राजस्थान में  कहावत भी है 
  " मलके माय हाडा काळा " 
  अर्थात दुष्ट व्यक्ति हर जगह मिलते हैं।
 पहले दोहे में कागला मिल ही 
 गया है  दूसरे दोहे  में हाडा को देखेगें---
(2)धूलिजंघ हाडा पिशुन
               दिवाटन महालोभ ।
     नगरीवक शक्रज वायस
              लघुपाती महलोल।।
 इस दोहे के सभी दस
 शब्द कौआ के पर्याय हैं।
(a)सही शब्द महालोल है 
  मात्रापूर्ति के लिए महलोल
   किया गया है।
(b)वायस को बायस भी 
 कहा जाता है--- देखें--
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। 
होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
 और
सुरपति सुत धरि बायस बेषा। 
सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
             ।।।धन्यवाद।।।
प्रातर्भोक्ता शक्रजात, आत्मघोष द्विक राग।।
कौवा कागा क्रो काक,करठ कागला काग।।1।।धूलिजंघ हाडा पिशुन,दिवाटन महालोभ ।
नगरीवक शक्रज वायस,लघुपाती महलोल।।2।।

शनिवार, 26 नवंबर 2022

छन्द-Verse,Poem,Metre(Poetic Meter)

।।छन्द के सम्बन्ध में संपूर्ण जानकारी।।

सामान्य परिचय:-
छन्द पर चर्चा सर्वप्रथम ऋग्वेद 
में हुई है।
छन्द  के दो अर्थ हैं.
एक तो आच्छादनऔर 
दूसरा आह्लादन ।
छन्द की व्युत्पत्ति -
छदि संवरणे और चदि 
आह्लादने से मानी जाती है।
इस प्रकार विद्वानों के अनुसार छन्द
शब्द के मूल में 'चद्' धातु  है जिसका
अर्थ है 'आह्लादित करना',
'खुश करना','प्रसन्न करना',
'मनोरञ्जन करना'।
चद् से छद् और अन्त में छन्द बना।
"यः छंदयतिआह्लादयति च सः छन्दः।"
इसका धातुगत व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है -
'जो अपनी इच्छा से चलता है'।
इसी मूल से स्वच्छंद 
जैसे शब्द आए हैं। अत: छंद शब्द के
मूल में गति का भाव है।
     छ्न्द का हिन्दी में पर्याय पद्य,कविता 
और अंग्रेजी में (Verse,Poem,Metre
Poetic Meter) हैं।
आचार्य पिंगल द्वारा रचित छन्द शास्त्र
(छन्दःसूत्र) 
सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ है जिसे 
'पिंगलशास्त्र' भी कहा जाता है।
वास्तव में यही छन्द शास्त्र का 
मूल ग्रन्थ है।
यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो 
कविता की कसौटी ‘छन्द’ है। 
पद्यरचना का समुचित ज्ञान 
छन्दशास्त्र की जानकारी 
के बिना नहीं होता है।
   किसी वाङमय की समग्र सामग्री का
नाम साहित्य है। संसार में जितना 
साहित्य मिलता है ’ ऋग्वेद’ 
उनमें प्राचीनतम है। ऋग्वेद  
छंदोबद्ध ग्रंथ है।

अब हम देखते हैं की हिन्दी में
छंद की परिभाषा ...
परिभाषा:-वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की 
संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा 
यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से 
नियोजित पद्यरचना ‘'छन्द'’ कहलाती है। 

छन्द के अंग:-किसी भी छंद में गति, यति, 
मात्रा, वर्ण, तुक, लय , गण, और चरण 
ये 8 अंग होते हैं ।
1-गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है 
उसे गति कहते हैं।
2-यति - पद्य पाठ करते समय गति को 
तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है 
उसे यति कहते हैं।
3-मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय 
लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा 2 
प्रकार की होती है लघु और गुरु। 
ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा
लघु होती है तथा दीर्घ उच्चारण 
वाले वर्णों की मात्रा गुरु होती है। 
लघु मात्रा का मान 1 होता है और उसे
(।) चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है। 
इसी प्रकार गुरु मात्रा का मान मान 
2 होता है और उसे (ऽ)चिह्न से प्रदर्शित 
किया जाता है।
  सामान्यतः सभी व्यञ्जन वर्ण और स्वर 
वर्णों में अ, इ, उ  ऋ लृ लघु माने गये हैं।
आ ई ऊ ए ऐ ओ औ अं और अ: दीर्घ हैं।
दीर्घ वर्णों की पहचान हेतु यह 
श्लोक स्मरणीय है--
सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा ॥ 

4-वर्ण (अक्षर)-ध्वनि की छोटी से छोटी 
इकाई जिसे लिपि से व्यक्त किया जाता है, 
उन्हें वर्ण कहते हैं।मुँह से निकलने वाले
किसी भी ध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रत्येक 
भाषा की अपनी लिपि होती है । इस लिपि 
के माध्यम से ही ध्वनि को व्यक्त किया 
जाता है, इसे ही वर्ण कहते हैं ।
5-तुक - समान उच्चारण वाले शब्दों के
 प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः 
तुकान्त होते हैं।
6.लय-गति, यति के मेल को लय कहते है। 
 गति,यति को ध्‍यान में रखते हुये शब्‍द 
बोलने के प्रवाह को अथवा सुर 
(सा रे ग म प ध नी) के साथ तारतम्‍य 
बैठाते हुये संगत करना (गेयता का ढंग) 
लय कहलाता है ।
7-गण - मात्राओं और वर्णों की संख्या और 
क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह 
को एक गण माना जाता है, जिनकी 
संख्या 8 हैं - यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ)
, तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।)
, भगण (ऽ।।), नगण (।।।) और सगण
 (।।ऽ)।गणों को आसानी से याद करने का  
सूत्र है- यमाताराजभानसलगा। 
सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों 
के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ 
लघु और गुरू मात्राओं के सूचक हैं। 
जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना 
हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र 
से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने 
के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो 
अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।

‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृत्त में होता 
है मात्रिक छन्द इस बंधन से मुक्त होते हैं।
अब हम गणविधायक सूत्र को समझते हैं:

।   ऽ  ऽ  ऽ ।     ऽ  ।  ।  ।  ऽ

य मा ता रा ज भा न स ल गा

को समझने के लिए यह श्लोक है।

"आदिमध्यावसानेषु 

यरता यान्ति लाघवम् ।

भजसा गौरवं यान्ति 

मनौ तु गुरुलाघवम् ॥"

इसी बात को हिंदी के इस दोहे 

में देखते हैं ।

"आदि मध्य अन्तिम गुरु, 

भजस गणन में होय।

यरत गणन त्यौं लघु रहै, 

मन गुरु लघु सब कोय॥"

अर्थात् भगण जगण और सगण में

क्रमशः पहला दूसरा और अंतिम वर्ण

गुरु होते हैं तथा शेष लघु जैसे:

भगण SII जगण ISI सगण IIS 

इसी प्रकार यगण रगण तगण में

क्रमशः पहला दूसरा और अंतिम 

वर्ण लघु होते हैं तथा शेष गुरु जैसे:

यगण ISS रगण SIS तगण SSI 

तथा मगण  में सारे वर्ण गुरु एवं

नगण में सारे वर्ण लघु होते हैं।

शुभा अशुभ विचार –काव्य के प्रारम्भ

में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण

नहीं आना चाहिए। 

मनभय  शुभ तथा शेष जरसत 

अशुभ माने जाते हैं। 

वर्णवृत्त छन्दों की रचना में शुभ-

अशुभ का विचार नहीं किया जाता 

किन्तु मात्रिक छन्दों की रचना में शुभ-

अशुभ गणों का ध्यान रखा जाता है।

आइए हम गणों के बारे में विस्तार से 

जानते हैं:

 गण          चिह्न      उदाहरण     प्रभाव

यगण(य)    ISS       नहाना         शुभ

मगण (मा)  SSS     आजादी        शुभ

तगण(ता)   SSI       चालाक       अशुभ

रगण(रा)    SIS       पालना         अशुभ

जगण(ज)   ISI       वकील          अशुभ

भगण(भा)   SII      रासभ           शुभ

नगण(न)    III        विमल           शुभ

सगण(स)   IIS       विमला         अशुभ

8-चरण(पद/पाद)-प्रत्येक पदों के मध्य एक 

या एक से अधिक यति आता है । यति से 

विभाजित पद को ही चरण कहते हैं । 

प्रत्येक  छंद/पद्य में कम से कम 

दो चरण होतें हैं ।

छन्द के प्रकार-
1-मात्रिक छंद -मात्रा की गणना के आधार
 पर रचित छन्द ‘मात्रिक छन्द’ कहलाता है। 
मात्रिक छंद तीन प्रकार के होते हैं : -
(अ) सम (ब) अर्द्धसम और (स )विषम ।
(अ)सम मात्रिक छंद:-जिस मात्रिक छंद के 
सभी चरणों में एक समान मात्रा होती है उसे 
सम मात्रिक छंद कहते हैं जैसे:- अहीर 
(11 मात्रा) तोमर (12 मात्रा) मानव
 (14 मात्रा) अरिल्ल,पद्धरि/पद्धटिका,
चौपाई (सभी 16 मात्रा)पीयूषवर्ष, 
सुमेरु (दोनों 19 मात्रा) राधिका (22 मात्रा) 
रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी 24 मात्रा) 
गीतिका (26 मात्रा) सरसी (27 मात्रा) 
सार (28 मात्रा) हरिगीतिका (28 मात्रा) 
ताटंक (30 मात्रा) वीर या आल्हा 
(31 मात्रा) आदि।
(ब)अर्द्धसम मात्रिक छंद:- जिस मात्रिक छंद 
के विषम चरणों में अलग और सम चरणों 
में अलग मात्रा हो उसे
अर्द्धसम मात्रिक छंद कहते हैं 
जैसे:- बरवै (विषम चरण में- 12 मात्रा, 
सम चरण में- 7 मात्रा) दोहा
(विषम- 13, सम- 11) सोरठा 
(विषम -11 तथा सम में 13 ,दोहा का उल्टा) 
उल्लाला (विषम-15, सम-13) आदि।
(स)विषम मात्रिक छंद:- जिस मात्रिक छंद  
में चार से अधिक चरण हो (6 चरण हो) और 
वे एक समान नहीं  हो  उसे विषम मात्रिक 
छंद कहते  हैं जैसे :- कुण्डलिया 
(दोहा + रोला) छप्पय (रोला + उल्लाला)।
2-वर्णिक/ वर्णवृत्त छंद ː वर्णों की गणना पर 
आधारित छंद वर्णिक/वर्णवृत्त छंद 
कहलाते हैं।वर्णिक छंद के सभी चरणों में
वर्णो की संख्या समान होती हैं। 
जैसे - प्रमाणिका; स्वागता, भुजंगी, शालिनी, 
इन्द्रवज्रा, दोधक; वंशस्थ, भुजंगप्रयाग, 
द्रुतविलम्बित, तोटक; वसंततिलका; 
मालिनी; पंचचामर, चंचला; मन्दाक्रान्ता, 
शिखरिणी, शार्दूल विक्रीडित, स्त्रग्धरा, 
सवैया, घनाक्षरी, रूपघनाक्षरी, 
देवघनाक्षरी, कवित्त/मनहरण। 
इसके दो प्रकार हैं-
(i) साधारण वार्णिक छंद-जिस छंद रचना 
के प्रत्येक चरण में अधिकतम 26 वर्ण तक 
होते हैं  वे साधारण वार्णिक छंद कहलाते हैं। 

    प्रसिद्ध छन्दों के नाम और उनकी
 मात्रा आदि को इन दोहों के माध्यम
से जानते हैं-

"अष्टाक्षरी प्रमाणिका, छंद अकेला भाय।
गेय छंद यही अद्भुत,लघु गुरु बना सुहाय।।"
"वर्ण ग्यारह के वर्णिक, गिनती में है सात।
इंद्रवज्रा है प्रथम, सहज शालिनी मात।। 
उपेन्द्रवज्रा स्वागता,रथोद्धता है साथ।
उपजाति भुजंगी युगल,अपनी गाते गाथ।।"
"वंशस्थ भुजंगप्रयात, बारह के हैं तात।
द्रुतविलंबित व तोटक, मिलकर करते बात।।"
"एक मात्र छंद चौदह, वसंततिलका वरन।
कवियों को सदा प्रिय यह,मानो मेरा कहन।।"
"मालिनी  है पन्द्रह की, सोलह पंच चामर।
चंचला भी सोलह की, चंचल नहीं पामर।।"
"मेघदूते मंद मंद मंदाक्रांता कहत।
मैं और शिखरिणी सत्रह युगल जोड़ी अभवत।।"
"शार्दूलविक्रीडित है एक उन्नीस लाल। 
स्रग्धरा धरा इक्कीस, आर्या का बहू भाल।।"
(ii)दण्डक वार्णिक छंद -जिस छंद रचना में 
प्रत्येक चरण में 26 से अधिक वर्ण होते हैं 
उसे दण्डक वर्णिक छंद कहा जाता है । 
3-मुक्तछन्द(Free verseयाvers libre) 
कविता का वह रूप है जो किसी छन्दविशेष 
के नियमों से नहीं बधा हो उसे मुक्त छन्द
कहते हैं।
मुक्तछन्द की कविता सहज भाषण जैसी 
प्रतीत होती है। हिन्दी में मुक्तछन्द की
परम्परा श्री सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला 
ने आरम्भ हुई।हिन्दी का मुक्त छन्द या 
मुक्त काव्य ,फ्रेंच का 'वर्सलिब्र',या ‘वर्स लिबेरे', 
अंग्रेजी का 'फ्री वर्स' या 'ब्लैकवर्स' के
 पर्यायवाची शब्द हैं। 'मुक्त काव्य' और 
'स्वच्छन्द काव्य' प्रयोगकालीन कविता के 
महत्त्वपूर्ण भेद हैं। ‘वर्स लिबेरे', को हम
स्वच्छन्द काव्य कह सकते हैं।इसे रबर 
या केंचुआ छंद भी कहते हैं। इसमे न  
तो वर्णों की गिनती और न ही मात्राओं की 
गिनती होती है।
जैसे :-वह आता दो टूक कलेजे के करता 
पछताता पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक ,
चल रहा लकुटिया टेक ,
मुट्ठी भर दाने को 
भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलता
दो टूक कलेजे को करता
पछताता पथ पर आता।
छंदो से संबंधित अति विशेष जानकारी:
1-वाचिक भार अर्थात लय को ध्यान में रखते
 हुए मापनी के किसी भी गुरु 2 के स्थान पर 
दो लघु 11 का प्रयोग किया जाना।
2-पिंगल के अनुसार , और  इन 
पाँचों अक्षरों को छंद के आरंभ में रखना 
वर्जित है, इन पाँचों को दग्धाक्षर कहते हैं। 
दग्धाक्षरों की कुल संख्या 19 है परंतु उपर्युक्त 
पाँच विशेष हैं। वे 19 इस प्रकार हैं:- फ़ङ्
3-परिहार
कई विशेष स्थितियों में अशुभ गणों अथवा 
दग्धाक्षरों का प्रयोग त्याज्य नहीं रहता। 
यदि मंगलसूचक अथवा देवतावाचक शब्द से
किसी पद्य का आरम्भ हो तो दोष-परिहार
हो जाता है। 
उदाहरण :
गणेश जी का ध्यान कर, अर्चन कर लो आज।
निष्कंटक सब मिलेगा, मूल साथ में ब्याज।।
उपर्युक्त दोहे के प्रारंभ में जगण है जिसे 
अशुभ माना गया है परंतु देव-वंदना के 
कारण उसका दोष-परिहार हो गया है।
4-द्विकल का अर्थ है दो मात्राओं  का समूह 
 जैसे 2 या 1/1मात्रा या वर्णों  वाले शब्द 
जैसे - खा, जा, ला, आ, का ,जल, चल,
 बन, धन इत्यादि।
त्रिकल का अर्थ है
 तीन मात्राओं का समूह जैसे- 2+1 या
 1+2 या 1+1+1 मात्रा वाले शब्द। 
चौकल का अर्थ  चार मात्राओं का 
समूह जैसे- है 2,+2 या 2+1+1 या 1+1+2 या 1+2+1 या 1+1+1+1 मात्रा वाले शब्द ।
5-ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के नवम् छन्द
 में ‘छन्द’ की उत्पत्ति ईश्वर से बताई गई है। 
6-लौकिक संस्कृत के छन्दों का जन्मदाता
 वाल्मीकि को माना गया है। 
7-आचार्य पिंगल ने ‘छन्दसूत्र’ में छन्द का
 सुसम्बद्ध वर्णन किया है, अत: इसे 
छन्दशास्त्र का आदि ग्रन्थ माना जाता है। 
8-छन्दशास्त्र को ‘पिंगलशास्त्र’ भी कहा जाता है।
9-हिन्दी साहित्य में छन्दशास्त्र की दृष्टि से
 प्रथम कृति ‘छन्दमाला’ है। 
10- ऋग्वेद  में 13 यजुर्वेद  में 8 और
अथर्ववेद में 5 छन्दों का प्रयोग मिलता है।
ऋग्वेद के प्रमुख 8 छन्द महत्त्वपूर्ण हैं 
जिनके कुल के छन्द प्रायः संस्कृत और 
हिन्दी में पाये जाते है जिन्हें
अधोलिखित तालिका द्वारा सरलता
 से समझा जा सकता है - 
क्रम छन्दनाम  वर्ण×चरण   अक्षर संख्या
1-  गायत्री        8×3             24
2-  उष्णिक्      7×4              28
3-  अनुष्टुप       8×4              32
4-   बृहती         9×4              36
5-   पड़क्तिः     10×4             40
6-   त्रिष्टुप        11×4             44
7-   जगती       12×4             48
8-  अतिजगति  13×4             52
विशेष:- शिव ताण्डव स्तोत्र, 
स्त्रोत्र काव्य में अत्यन्त लोकप्रिय है।
यह पंचचामर छन्द में आबद्ध है।
  ।।।धन्यवाद।।।


शनिवार, 19 नवंबर 2022

√।।वक्रोक्ति अलंकार।।

💐वक्रोक्ति अलंकार💐 

वक्रोक्ति शब्द वक्र+उक्ति के योग से
बना है,जिसका अर्थ है टेढ़ा कथन।
👍परिभाषा:-"अर्थात जब वक्ता के
कथन का श्रोता अन्य अर्थ ग्रहण करे
और ग्रहण किये गये अर्थ के अनुसार
व्यवहार,कथन या कार्य करे,तब वहाँ
वक्रोक्ति अलंकार होता है।" 
दूसरे शब्दों में जब एक व्यक्ति द्वारा 
कहे गये शब्द या कथन का दूसरा 
व्यक्ति जान-बूझकर दूसरा अर्थ 
कल्पित करें और अपने कल्पित 
अर्थ के अनुसार कथन या व्यवहार 
करें तब वहाँ वक्रोक्ति अलंकार 
होता है। 
👌प्रयोग
इस अलंकार का प्रयोग विशेषकर
हास-परिहास और व्यंग्यात्मक 
वार्तालाप  में किया जाता है।
💐आचार्य भामह ने वक्र शब्द
और अर्थ की उक्ति को 👍
काम्यअलंकार मानकर और 
💐आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को
 👍काव्य का जीवन मानकर इस
अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है।
‘शब्द’ और ‘अर्थ’ दोनों में ‘वक्रोक्ति
होने के कारण ‘श्लेष’ की तरह यहाँ
भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में
माना जाय या अर्थालंकार में।
💐आचार्य जयदेव ने इसे 
👍अर्थालंकार में स्थान दिया है।
इस अलंकार में श्लेष तथा काकु से 
वाच्यार्थ बदलने की कल्पना होती है।
👍‘काकु’व👍‘श्लेष’👍शब्दशक्ति 
के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को 
💐आचार्य मम्मट सहित अधिकतर
आचार्यो ने शब्दालंकार में ही स्थान 
दिया है।
💐वक्रोक्ति अलंकार में  इन चार बातों 
का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।उदाहरण  :-
👍एक कह्यौ ‘वर देत भव,
 भाव चाहिए चित्त’।
सुनि कह कोउ ‘भोले भवहिं 
भाव चाहिए ? मित्त’ ।
व्याख्या:-
किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; 
पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, 
भोले भव अर्थात शंकरजी को रिझाने
के लिए ‘भाव चाहिये’ ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके
रिझाने के लिए ‘भाव’ की भी
आवश्यकता नहीं है वे तो बिना 
भाव के ही प्रसन्न हो जाते हैं और 
वरदान दे देते हैं।
💐आचार्य रुद्रट ने  इसके दो भेद किये है-(1) श्लेष वक्रोक्ति अलंकार
(2) काकु वक्रोक्ति अलंकार
(1) श्लेष वक्रोक्ति अलंकार(चिपकाअर्थ)
श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेष वक्रोक्ति अलंकार 
(ii) अभंगपद श्लेष वक्रोक्ति अलंकार 
👍(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार
 उदाहरण:-
अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?
निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?
व्याख्या:-
यहाँ नायिका को नायक ने
‘गौरवशालिनी’ कहकर मनाना
चाहा है।नायिका नायक से इतनी
तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति
इस ‘गौरवशालिनी’ सम्बोधन से
चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे
एक नायिका का ‘गौरव’ देने के
बजाय ‘गौ’ (सीधी-सादी गाय,
जिसे जब चाहो तब पुचकारकर 
मतलब गाँठ लो), ‘अवशा’ (लाचार), 
‘अलिनी’ (यों ही मँडरानेवाली मधुपी
अर्थात भ्रमरी) समझकर लगातार 
तिरस्कृत किया था। नायिका ने
नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर 
प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग 
की उक्ति से यह कहा, ”हाँ, तुम मुझे ‘गौः+अवशा+अलिनी समझते हो।
👌विशेष:-यहाँ वक्रोक्ति को प्रकट
 करनेवाले पद ‘गौरवशालिनी’ में दो
 अर्थ (एक ‘हे गौरवशालिनी’ और
 दूसरा ‘गौः, अवशा, अलिनी’) श्लिष्ट
 होने के कारण यहाँ श्लेषवक्रोक्ति है।
 और, इस ‘गौरवशालिनी’ पद को
 ‘गौः+अवशा+अलिनी’ में तोड़कर
अर्थात भंग कर  दूसरा श्लिष्ट अर्थ
लेने के कारण यहाँ भंगपद 
श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।
👍(ii)अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति 
अलंकार- उदाहरण:-
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, 
कहाँ अपर है ?
उसने कहा, ‘अपर’ कैसा ?
वह उड़ गया, सपर है।
व्याख्या:-
यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा:
एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, 
अपर अर्थात दूसरा कहाँ है ?  
इस बात पर नूरजहाँ ने दूसरे
कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा:- 
अपर अर्थात बिना पंख का कैसा?
वह तो इसी कबूतर की तरह सपर
अर्थात पंख सहित था, सो  वह 
उड़ गया।यहाँ ‘अपर’ शब्द को बिना 
तोड़े ही ‘दूसरा’ और ‘बेपरवाला’ दो 
अर्थ लगने से अभंगश्लेष वक्रोक्ति 
अलंकार है।
-राधा-कृष्ण का कुछ 
हास-परिहास देखते हैं:-
1-कौन द्वार पर, राधे मैं हरि
क्या कहा यहाँ ? जाओ वन में।
व्याख्या:-
श्री कृष्ण ने दरवाजा खटखटाया
राधे ने पूछा कौन?
श्री कृष्ण उत्तर दिया "हरि"
अर्थात मैं कृष्ण हूँ।
राधिकाजी ने इसका अन्य 
अर्थ "बन्दर" निकाला और
अपने निकाले गये अर्थ में 
ही उत्तर दिया  तुम्हारा यहाँ
क्या काम,जंगल में जाओ।
2-कौन तुम ? मैं घनश्याम।
 तो बरसो कित जाय।।
-माँ लक्ष्मी-पार्वती का विनोद 
तो देखें ही-
 'भिक्षुक गो कितको गिरिजे ? '
 'सो तो मांगन को बलि द्वार गयो री।'
व्याख्या:-
यहाँ लक्ष्मीजी विनोद में पार्वतीजी
से पूछती है कि हे गिरिजा तुम्हारा
भिक्षुक अर्थात शिव कहाँ गए हैं ।
पार्वतीजी भी परिहास में उत्तर देती
हैं कि है लक्ष्मीजी भिक्षुक अर्थात 
विष्णु तो बलि के द्वार मांगने गये है |
(2) काकु वक्रोक्ति अलंकार
 (ध्वनि-विकार/आवाज में परिवर्तन)
कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ
 कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
अर्थात जहाँ पर उच्चारण के कारण
श्रोता वक्ता की बात का दूसरा अर्थ
अपने हिसाब निकाल लेता है, वहाँ
काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है।
काकु वक्रोक्ति में कंठ ध्वनि अर्थात्
बोलने वाले के लहजे में भेद होने के
कारण दूसरा अर्थ कल्पित किया जाता है।
उदाहरण-
1-कह अंगद सलज्ज जग माहीं। 
 रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। 
हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।।
2-जब रावण ने अंगद से अपनी
भुजाओं की शक्ति की डिंग मारी 
तब  अंगदजी कहते हैं- 
सो भुज बल राख्यो उर घाली।
जीतेउ सहसबाहु बलि बाली।
3-माता सीता यह कथन भी काकु
 वक्रोक्ति का शानदार उदाहराण है-
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
तुमहिं उचित तप मो कहँ भोगू।।
4-यह दोहा काकु वक्रोक्ति का 
अप्रतीम उदाहरण है-
काह न पावक जारि सक,
 का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल,
 केहि जग कालु न खाइ॥
5-आइए अब दैनिक जीवन के 
अपने बात-चीत में हास-परिहास 
करते हुवे इस अलंकार का प्रयोग
हम कैसे करते हैं इन उदाहरणों में देखें-
अ-’’उसने कहा जाओ मत, बैठो यहाँ।
मैंने सुना जाओ, मत बैठो यहाँ।’’
आ-आप जाइए तो। -(आप जाइए)
आप जाइए तो?-(आप नहीं जाइए)
इसी तरह,
इ-जाओ मत, बैठो।
जाओ, मत बैठो ।
ई-घोड़ा पकड़ो,मत जाने दो।
घोड़ा पकड़ो मत,जाने दो।
इस प्रकार यह अलंकार बहुत ही
उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है।
              ।।धन्यवाद।।


√।। स्वभावोक्ति अलंकार।।

  ।।स्वभावोक्ति अलंकार।।

जब काव्य में किसी वस्तु,व्यक्ति या 

स्थिति का स्वाभाविक वर्णन हो तब 

वहाँ स्वभावोक्ति अलंकार होता है। 

इस अर्थालंकार की  सादगी में ही 

चमत्कार रहता है। 

उदाहरण :

1. सीस मुकुट कटी काछनी 

कर मुरली उर माल।
इहि बानिक मो मन बसौ

सेदा बिहारीलाल।।

2. चितवनि भोरे भाय की

 गोरे मुख मुसकानि। 
लगनि लटकि आली गरे

चित खटकति नित आनि।।                  

  ।।धन्यवाद।।




।।उभयालंकार(संकर-संसृष्टि)।।

             ।।उभयालंकार।।

  जब काव्य में चमत्कार शब्द तथा अर्थ दोनों में स्थित हो तब उभयालंकार होता है।

    दूसरे शब्दों में जब एक ही जगह शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों हो तब उभयालंकार होता है।

उभयालंकार के  दो भेद हैं:-

1-संकर अलंकार और 

2-संसृष्टि अलंकार।

1-संकर अलंकार-जब काव्य में अनेक अलंकार दूध और पानी की तरह (नीर-क्षीर वत) मिले हुवे हो तब संकर अलंकार होता है।

    यहाँ दूध और पानी की तरह ही अलंकारों अलग करना कठिन होता है।

उदाहरण:-

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।

सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

यहाँ पद पदुम  में छेकानुप्रास और रुपक दोनों नीर-क्षीर की तरह ऐसे मिले है कि दोनों को अलग करना कठिन है इसलिए यहाँ  संकर अलंकार है।

2:संसृष्टि  अलंकार-जब काव्य में अनेक अलंकार तिल और चावल की तरह (तिल-तण्डुल वत)मिले हुवे होतब संसृष्टि अलंकार होता है। 

यहाँ तिल और चावल की तरह ही अलंकारों को अलग किया जा  सकता है।

उदाहरण:

जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।रामकरौ केहिभाँति प्रसंसा।मुनि महेस मन मानसहंसा।।

यहाँ पंकरुह पानि में उपमा,प्रेम जनु जाए में उत्प्रेक्षा,मुनि-महेस और मन-मानस में रुपक तथा पंक्तियों के अन्तिम पदवर्ण समान होने के कारण अन्त्यानुप्रास अलंकार तिल-तंडुल की तरह मिले हुवे हैं जिनको अलग किया जा सकता है इसलिए यहाँ  संसृष्टिअलंकार है।

                   ।।धन्यवाद।।

शनिवार, 12 नवंबर 2022

।।पुनरुक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश,पुनरुक्तिवदाभास और विप्सा अलंकार।।

पुनरुक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश पुनरुक्तिवदाभासऔर विप्सा अलंकार(आवृत्ति मूलक अलंकार)

1-पुनरुक्तिअलंकार और पुनरुक्तिप्रकाशअलंकार

पुनरुक्तिअलंकार और पुनरुक्तिप्रकाशअलंकार दोनों को विद्वानों ने एक ही माना है।हम इन्हें विस्तार से समझते है।

 जब काव्य  में प्रभाव लाने के लिए किसी शब्द की आवृत्ति एक ही अर्थ में की जाय तब वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।

 पुनरुक्ति,पुनः+उक्ति से बना है । इसका अर्थ होता है आवृति, पुनरावृति या दोहराना। एक ही शब्द की जब पुनरावृति की जाती है, तो उसे पुनरुक्ति या द्विरुक्ति कहते हैं। पुनरुक्त शब्दों की रचना मुख्यतः सार्थक शब्द की पुनरावृत्ति से होती है। इसमें संज्ञा,सर्वनाम,क्रिया विशेषण आदि की पुनः उक्ति की जाती है।

ध्यान रखें जब शब्दों के अर्थ भिन्न होते हैं तब यमक अलंकार होता है और जब शब्दों के अर्थ एक समान रहते है तब पुनरुक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण:-

1-मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।

जनम सिराने अटके-अटके।।

2-विहग-विहग,फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज।

3-मधुर वचन कहि-कहि परितोषी।

4-झूम-झूम मृदु गरज-गरज घनघोर।

5-पुनि-पुनि मोहि दिखाव कुठारू।

  चहत उड़ावन फूँक पहारू।।

6-राम-राम कहु बारम्बारा।

चक्र सुदर्शन है रखवारा।

7-राम-राम कहि राम कहि राम-राम कहि राम।

तनु परिहरि रघुपति बिरह रावु गयउ सुरधाम।।

8-पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात।

2-पुनरुक्ति-प्रकाश अलंकार

"जहाँ काव्य में प्रभाव लाया जाय शब्दों को दोहराकर।

हो वह पूर्ण अपूर्ण या अनुकरण वाचक।

सभी शब्द भेदों संज्ञा से विस्मयादिबोधक तक

विभक्ति सहित शब्दों से भी बनता पुनरुक्ति प्रकाशक।"


 जब विषय को प्रकाशित करने,अर्थ में रोचकता लाने अथवा उक्ति को परिपुष्ट करने के लिए किसी शब्द की आवृत्ति की जाय तब वहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार होता है।

अंग्रेज़ी में इन अलंकारों को 'टॉटोलोजी' (Tautology) कहा जाता है । फारसी तथा उर्दू में 'तजनीस मुकर्ररकहते हैं।

उदाहरण:-

1-ठौर-ठौर विहार करती सुन्दरी सुर नारियाँ

2-हमारा जन्मों जन्मों का साथ है

  जो हमेशा-हमेशा रहेगा।

3-बनि-बनि-बनि बनिता चलींगनि-गनि-गनि डगदेत ।

धनि-धनि-धनिअखियाँ,सुछवि सनि-सनि -सनि सुख लेत।।

4-भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।

मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।।

5-तात कपिन्ह सब निसिचर मारे।

महा महा जोधा संघारे।।

6-यह बृतांत दसानन सुनेऊ।

अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।।

3-पुनरुक्तवदाभास अलंकार

"पुनः उक्ति होने का केवल होता है आभास जहाँ।

पुनरुक्ति व पर्याय नहीं होता पुनरुक्तवदाभास वहाँ।।"

पुनः उक्त वद आभास

जब काव्य में शब्दों की पुनरुक्ति नहीं होती है केवल पुनरुक्ति का आभास होता है तब वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।  यहाँ आभासित शब्दों के अर्थअलग होते हैं।

उदाहरण:-

1-अली भौर गुंजन लगे,होन लगे दल-पात

जहँ तहँ फूले रुख तरु, प्रिय प्रियतम कहँ जात।।

अली का आभासित अर्थ भौरा पर यहाँ सखी।

पात का आभासित अर्थ दल अर्थात पत्ता पर यहाँ गिरना।

रुख का आभासित अर्थ तरु परन्तु यहाँ सूखा हुआ।

प्रिय का आभासित अर्थ प्रियतम परन्तु यहाँ प्यारे।

2-जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता।

कनक का आभासित अर्थ सुवर्ण पर यहाँ धतूरा।

3-दुल्हा बना बसंत बनी दुल्हन मन भायी।

बना का आभासित अर्थ दुल्हा पर यहाँ बनना।

बनी काआभासित अर्थ दुल्हन पर यहाँ बनना।

4-सुमन फूल खिल उठे, लखों मानस मन में।

सुमन=पुष्प  ,फूल काआभासित अर्थ पुष्प लेकिन यहाँ प्रसन्न।

मानसकाआभासित अर्थ मन लेकिन यहाँ मानसरोवर मन=अन्तर्मन

5-निर्मल कीरति जगत जहान

जगत काआभासित अर्थ संसार लेकिन यहाँ  जागृत  जहान=संसार

6-वंदनीय केहि के नहीं, वे कविन्द मति मान।

स्वर्ग गये हूँ काव्य रस, जिनको जगत जहान।।

जगत काआभासित अर्थ संसार लेकिन यहाँ  जानना,जहान=संसार

7-पुनि फिरि राम निकट सो आई।

फिरि का आभासित अर्थ पुनि लेकिन यहाँ लौटकर।

4-वीप्सा अलंकार

"आदर घृणा विस्मय शोक हर्ष युत शब्दों को दोहराये।

अथवा विस्मयादिबोधक चिह्नों से भाव जताये।

शब्द वा शब्द समूहों से विरक्ति घृणादि दर्शाये।

तह वीप्सा अलंकार बन जन जन को लुभाये।।"

जब काव्य में घृणा,विरक्ति, दुःख, आश्चर्य, आदर, हर्ष, शोक, इत्यादि  विस्मयादिबोधक भावों को व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति की जाए तब वीप्सा अलंकार होता है।

वीप्सा का अर्थ होता है –  दोहराना और पुनरुक्ति का भी अर्थ है द्विरुक्ति, आवृत्ति या दोहराना होता है इस भ्रम के कारण अनेक विद्वान दोनों को एक मान लेते हैं।लेकिन दोनो अलग-अलग हैं और दोनों में अन्तर है।

उल्लेखनीय है कि हिन्‍दी साहित्‍य में सर्वप्रथम भिखारीदास ने ‘वीप्सालङ्कार’ के नाम से इसे ग्रहण किया है।

 वीप्सा द्वारा मन का आकस्मिक भाव स्पष्ट होता है। 

हम अपने मनोभावों ( आश्चर्य,घृणा,हर्ष,शोक आदि)  को व्यक्त करने के लिए विभिन्न तरह के शब्दों ( छि-छि , राम-राम शिव-शिव, चुप-चुप, हा-हा,ओह-ओह आदि) का प्रयोग करते है। अतः काव्य में जहाँ इन शब्दों का  प्रयोग किया जाता है वहां वीप्सा अलंकार होता है। साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना है कि जब भी काव्य में किसी शब्द के बाद विस्मयादिबोधक चिह्न(!) पाया जाय वहाँ वीप्सा अलंकार होगा।

उदाहरण :-

1-चिता जलाकर पिता की, हाय-हाय मैं दीन!

नहा नर्मदा में हुआ, यादों में तल्लीन!

2-शिव शिव शिव कहते हो यह क्या?
ऐसा फिर मत कहना।
राम राम यह बात भूलकर,
मित्र कभी मत गहना।।
3-राम राम यह कैसी दुनिया?
कैसी तेरी माया?
जिसने पाया उसने खोया,
जिसने खोया पाया।।
4-उठा लो ये दुनिया, जला दो ये दुनिया।
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया।
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?’
5-मेरे मौला, प्यारे मौला, मेरे मौला…
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे

6-अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो

प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो -बढ़े चलो !

7-हाय ! क्या तुमने खूब दिया मोहब्बत का सिला।

8-धिक ! जीवन को जो पाता ही आया विरोध।

धिक ! साधन जिसके लिए सदा ही किया सोध।

9-रीझि-रीझि रहसि-रहसि हँसी-हँसी उठे।

साँसे भरि आँसू भरि कहत दई-दई।।

उक्त उदाहरणों से एक और बात स्पष्ट होती है कि वीप्सा अलंकार में शब्दों के दोहराव से घृणा या वैराग्य के भावों की सघनता प्रगट होती है।

                      ।।धन्यवाद।।