मानस चर्चा "कनककसिपु की कथा " प्रसंग मानस की यह चौपाई
दक्षसुतन्ह उपदेसिन्ह जाई ।
तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन्ह घाला ।
कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥
पूर्व की चर्चाओं में हमने चित्रकेतु आदि पर चर्चा की है आज अब हम चर्चा करते हैं कनककसिपु अर्थात् हिरण्यकश्यपु ,हिरण्य यानि सोना और कनक यानी सोना बड़ी रोचकता से गोस्वामीजी ने हिरण्य की जगह कनक का प्रयोग किया है। यहां ' हिरण्यकश्यपु की कथा' यह है कि- हिरण्यकश्यपु की पत्नी कयाधु प्रह्लादजीकी माताको नारदजी ने उपदेश दिया जिससे पिता-पुत्रमें विरोध हुआ ।पिता मारा गया । दैत्य बालकोंके पूछनेपर प्रह्लादजीने स्वयं यह वृत्तान्त यों कहा है। अपने भाई हिरण्याक्षके मारे जानेपर जब मेरे पिता हिरण्यकशिपु मन्दराचलपर तप करनेके लिये गये तब अवसर पाकर देवताओंने दैत्योंपर चढ़ायी की। दैत्य समाचार पा जान बचाकर भागे, स्त्री- पुत्रादि सबको छोड़ गये। मेरे पिताका घर नष्ट कर डाला गया और मेरी माताको पकड़कर इन्द्र स्वर्गको चले । मार्गमें नारदमुनि विचरते हुए मिल गये और बोले कि 'इस निरपराधिनी स्त्रीको पकड़ ले जाना योग्य नहीं, इसे छोड़ दो।' इन्द्र ने कहा कि इसके गर्भमें दैत्यराजका वीर्य है । पुत्र होनेपर उसे मारकर इसे छोड़ दूँगा । तब नारदजी बोले कि यह गर्भ स्थित बालक परम भागवत है। तुम इसको नहीं मार सकते । इन्द्रने नारदवचनपर विश्वास करके मेरी माँकी परिक्रमा करकेउसे छोड़ दिया। नारदजी उसे अपने आश्रममें ले गये । वह गर्भके मंगलकी कामनासे नारदमुनिकी भक्तिपूर्वक सेवा करती रही । दयालु ऋषिने मेरे उद्देश्यसे मेरी माताको धर्मके तत्त्व और विज्ञानका उपदेश किया। ऋषि-अनुग्रहसे वह उपदेश मैं अबतक नहीं भूला ।आगे हिरण्यकश्यपु की कथा संसार जानता ही है कि किस प्रकार हिरण्यकश्यपु नृसिंह भगवान् के दर्शनसे कृतार्थ हुआ।'
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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