सोमवार, 26 जुलाई 2021

√शिव वन्दना

असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे

सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी

लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं

तदपि तव गुणानामीश पारं न याति

(मालिनी छन्द)
''हे शिव, यदि नीले पर्वत को समुद्र में मिला कर स्याही तैयार की जाए, देवताओं के उद्यान के वृक्ष की शाखाओं को लेखनी बनाया जाए और पृथ्वीको कागद बनाकर भगवती शारदा देवी अर्थात सरस्वती देवी अनंतकाल तक लिखती रहें तब भी हे प्रभो! आपके गुणों का संपूर्ण व्याख्यान संभव नहीं होगा।''
    Perhaps taking the mountain of ink, dark ocean as the pot, 
branch of the heavenly tree as the pen and earth as the leaf (paper)
even if Sharada (Godess of knowledge) write forever,
even then, Oh Ishvara, the boundaries of Your glory cannot be found!!

                ।।।    THANKS    ।।।

।।बिल्वपत्र।।

बिल्व, बेल या बेलपत्थर, भारत में होने वाला एक   वृक्ष है। इसे रोगों को नष्ट करने की क्षमता के कारण बेल को बिल्व कहा गया है।इसके अन्य नाम हैं-शाण्डिल्रू पीड़ा निवारक, श्री फल, सदाफल इत्यादि। 
  श्रावण मास में भगवान भोलेनाथ की अर्चना के कई मंत्र और स्तोत्र हैं लेकिन पवित्र बिल्वाष्टकम् उन सबमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली है... महादेव शंकर को  बिल्व पत्र अर्पित करते हुए इसका पाठ करना चाहिए...अगर बिल्वपत्र उपलब्ध न हो तो चांदी  के छोटे बिल्वपत्र लाकर भी इसका वाचन किया जा सकता है...

बिल्वाष्टकम् में बेल पत्र (बिल्व पत्र) के गुणों के साथ-साथ महादेव का उसके प्रति प्रेम भी बताया गया है. सावन में प्रतिदिन बिल्वाष्टकम का पाठ श्रद्धा भक्ति से किया जाना अत्यन्त शुभ एवं लाभदायक होता है।इसकी सभी विशेषताएं इस बिल्वाष्टक में हैं।

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रयायुधम् ।

त्रिजन्मपाप-संहारमेकबिल्वं शिवार्पणम्।।1।।

 त्रिशाखैर्बिल्वपत्रैश्च ह्यच्छिद्रै: कोमलै: शुभै: ।

शिवपूजां करिष्यामि ह्येकबिल्वं शिवार्पणम्।।2।।

 अखण्डबिल्वपत्रेण पूजिते नन्दिकेश्वरे ।

शुद्धयन्ति सर्वपापेभ्यो ह्येकबिल्वं शिवार्पणम्।।3।।

 शालिग्रामशिलामेकां विप्राणां जातु अर्पयेत्।

सोमयज्ञ-महापुण्यमेकबिल्वं शिवार्पणम्।।4।।

 दन्तिकोटिसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च ।

कोटिकन्या-महादानमेकबिल्वं शिवार्पणम्।।5।।

 लक्ष्म्या: स्तनत उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियम्।

बिल्ववृक्षं प्रयच्छामि ह्येकबिल्वं शिवार्पणम्।।6।।

 दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम्।

अघोरपापसंहारमेकबिल्वं शिवार्पणम्।।7।।

काशीक्षेत्र निवासं च कालभैरव दर्शनम्।

प्रयागमाधवं दृष्ट्वा एक बिल्वं शिवार्पणम्  ।।8

 मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे ।

अग्रत: शिवरूपाय ह्येकबिल्वं शिवार्पणम्।।9।।

 विल्वाष्टकमिदं पुण्यं य: पठेच्छिवसन्निधौ।

सर्वपापविनिर्मुक्त: शिवलोकमवाप्नुयात्।।10।।

        ।।इति बिल्वाष्टकं सम्पूर्णम्।।

रविवार, 25 जुलाई 2021

।। शिव का माह सावन ।।

         ।।  शिव का माह सावन  ।।

       हिंदू धर्म में सावन के महीने का खास महत्व होता है. सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित होता है. इस महीने में भगवान शिव की पूजा करने के मनचाहा फल प्राप्त होता है.सावन के सोमवार को की गई पूजा, व्रत, उपाय तुंरत फल प्रदान करने वाले कहे गए हैं. माना जाता है कि अगर सावन सोमवार के दिन कुछ विशेष चीजों को घर लाया जाए, तो व्यक्ति का भाग्य बदल जाता है. व्यक्ति को उन सभी चीजों की प्राप्ति होती है जिसकी वह लंबे से समय कामना कर रहा होता है. आइए जानते हैं उन चीजों के बारे में-

गंगा जल- सावन के सोमवार के दिन घर में गंगा जल लाना काफी शुभ माना जाता है. गंगा जल को लाकर यदि किचन में रखा जाए तो इससे व्यक्ति की किस्मत बदल सकती है और घर में समृद्धि फभी आती है. इससे परिवार में सभी की तरक्की होती है.

रुद्राक्ष- सावन सोमवार के दिन रुद्राक्ष को घर लाकर उसे मुखिया के कमरे में रखा जाए, तो घर का भाग्य बदलने में समय नहीं लगता. इससे कई चमत्कारीस लाभ प्राप्त होते हैं. घर की आर्थिक दिक्कतें दूर हो जाती हैं. साथ ही घर में सकारात्मक ऊर्जा आती है.

भस्म- सावन के सोमवार के दिन भस्म लाकर उसे भगवान शिव की मूर्ति के पास रख दें. इससे भगवान शिव प्रसन्न होते हैं और भक्तों को मनचाहा फल देते हैं.

चांदी का त्रिशूल- सावन के सोमवार के दिन चांदी का त्रिशूल लाने से घर की नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है. साथ ही सावन सोमवार के दिन तांबे या चांदी का नाग-नागिन का जोड़ा लाकर उसे घर के मुख्य दरवाजे के नीचे दबा देना चाहिए. इससे आपकी सभील समस्याएं दूर हो

सावन शिवरात्रि महत्त्व

     सावन की शिवरात्रि का व्रत और इस दिन भगवान शिव की आराधना करने से अर्चक को शांति, रक्षा, सौभाग्य और आरोग्य की प्राप्ति होती है. मान्यता है कि सावन की शिवरात्रि व्रती के सभी पाप को नष्ट कर देती है. सावन की शिवरात्रि का व्रत रखने से कुवारें लोगों को मनचाहा वर या वधु मिलने की मान्यता है. वहीं, दांपत्य जीवन में प्रेम की प्रगाढ़ता बढ़ती है.

सावन सोमवार व्रत कथा

    एक समय एक नगर में एक साहूकार का कोई संतान नहीं था, दुखी साहूकार पुत्र के लिए हर सोमवार व्रत रखता था. शिव मंदिर में पूजा से प्रसन्न मां पार्वती की इच्छा पर भगवान शिव ने साहूकार को पुत्र-प्राप्ति का वरदान तो दिया, साथ ही कहा कि बेटे की आयु बारह वर्ष ही होगी. साहूकार का पुत्र ग्यारह वर्ष का हुआ तो पढ़ने काशी भेजा गया. साहूकार ने उसके मामा को बुलाकर धन दिया और कहा कि तुम इसे काशी ले जाओ, रास्ते में जहां यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जाना. मामा-भांजे दान-दक्षिणा देते चल पड़े. रात को एक नगर में राजा की बेटी का विवाह था. मगर जिस राजकुमार से विवाह होना था, वह काना था. राजकुमार के पिता ने यह बात छुपाने को साहूकार के बेटे को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर विवाह करवा दिया.  

साहूकार का पुत्र ईमानदार होने से उसने राजकुमारी की चुन्नी पर सच्चाई लिख दी.  इस पर राजकुमारी के पिता ने पुत्री को विदा नहीं किया और बारात बैरंग लौट गई. उधर, साहूकार का बेटा मामा के साथ काशी पहुंच गया. जिस दिन उसकी आयु 12 साल हुई, उसी दिन यज्ञ रखा गया. मगर अचनक उसकी तबीयत बिगड़ गई और शिवजी के वरदान के अनुसार उसके प्राण निकल गए. भांजे को मृत देखकर मामा ने विलाप शुरू किया. उसी समय शिव-पार्वतीजी उधर से गुजरे तो पार्वती ने कहा कि स्वामी, मुझे इसका रोना बर्दाश्त नहीं हो रहा है, आप इसके कष्ट दूर करिए.

शिवजी ने कहा, कि यह साहूकार का पुत्र है, जिसे 12 वर्ष आयु वरदान दिया था. इसकी आयु पूरी है, मगर पार्वती के आग्रह पर शिवजी ने लड़के को जीवित कर दिया. पढ़ाई पूरी कर वह फिर मामा के साथ घर की ओर लौटा तो रास्ते में उसी नगर में पहुंचे, जहां उसका विवाह हुआ था. यहां भी उसने पिता के कहे अनुसार यज्ञ किया. इस दौरान राजकुमारी के पिता ने उसे पहचान कर खूब खातिरदारी की और पहले पुत्री के साथ हो चुकी शादी का हवाला देकर उसके साथ विदा कर दिया.

शिव गायत्री मंत्र -ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात।

    यह शिव गायत्री मंत्र है, जिसका जप करने से मनुष्य का कल्याण संभव है। शिव गायत्री मंत्र का जप प्रत्येक सोमवार को करना चाहिए। शुक्ल पक्ष के किसी भी सोमवार से उपवास रखते हुए इस मंत्र का आरंभ करना चाहिए। श्रावण मास में सोमवार को शिव गायत्री मंत्र का जप विशेष शुभ फलदायी माना गया है। शिव गायत्री मंत्र का जप करके शिवलिंग पर गंगा जल, बेलपत्र, धतूरा, चंदन, धूप, फल, पुष्प आदि श्रद्धा भाव से अर्पित करने से शिव एवं शक्ति दोनों की ही कृपा मिलती है।

शिव गायत्री मंत्र के लाभ

   पवित्र भाव के साथ विधिपूर्वक शिव गायत्री मंत्र का जप करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है। अकाल मृत्यु तथा गम्भीर बीमारियों से मुक्ति के लिए शिव गायत्री मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप अत्यंत ही शुभ है। जिन जातकों की जन्म कुंडली में काल सर्प योग हो अथवा राहु, केतु या शनि ग्रह जीवन में पीड़ा दे रहे हों, उन्हें शिव गायत्री मंत्र Ka पाठ राहत देता है। जीवन में सुख, समृद्धि, मानसिक शांति, यश, धनलाभ, पारिवारिक सुख आदि की प्राप्ति के लिए शिव गायत्री मंत्र अवश्य करें।

गायत्री मंत्र : 
1." ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् "
 
 2.गणेश :- ॐ एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ।

3. ब्रह्मा :- ॐ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ।।
 
4. ब्रह्मा :- ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ।।
 
5. ब्रह्मा:- ॐ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ।।
 
6. विष्णु:- ॐ नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि, तन्नो विष्णु प्रचोदयात् ।।
 
7. रुद्र :- ॐ तत्पुरुषाय विद्महे, महादेवाय धीमहि, तन्नो रुद्र: प्रचोदयात् ।।
 
8. रुद्र :- ॐ पंचवक्त्राय विद्महे, सहस्राक्षाय महादेवाय धीमहि, तन्नो रुद्र: प्रचोदयात् ।।
 
9. दक्षिणामूर्ति :- ॐ दक्षिणामूर्तये विद्महे, ध्यानस्थाय धीमहि, तन्नो धीश: प्रचोदयात् ।।
 
10. हयग्रीव :- ॐ वागीश्वराय विद्महे, हयग्रीवाय धीमहि, तन्नो हंस: प्रचोदयात् ।।
 
11. दुर्गा :- ॐ कात्यायन्यै विद्महे, कन्याकुमार्ये च धीमहि, तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ।।
 
12. दुर्गा :- ॐ महाशूलिन्यै विद्महे, महादुर्गायै धीमहि, तन्नो भगवती प्रचोदयात् ।।
 
13. दुर्गा :- ॐ गिरिजाय च विद्महे, शिवप्रियाय च धीमहि, तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ।।
 
14. सरस्वती :- ॐ वाग्देव्यै च विद्महे, कामराजाय धीमहि, तन्नो देवी प्रचोदयात् ।
 
15. लक्ष्मी:- ॐ महादेव्यै च विद्महे, विष्णुपत्न्यै च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ।।
 
16. शक्ति :- ॐ सर्वसंमोहिन्यै विद्महे, विश्वजनन्यै धीमहि, तन्नो शक्ति प्रचोदयात् ।।
 
17. अन्नपूर्णा :- ॐ भगवत्यै च विद्महे, महेश्वर्यै च धीमहि, तन्नोन्नपूर्णा प्रचोदयात् ।।
 
18. काली :- ॐ कालिकायै च विद्महे, श्मशानवासिन्यै धीमहि, तन्नो घोरा प्रचोदयात् ।। 
 
19. नन्दिकेश्वरा :- ॐ तत्पुरुषाय विद्महे, नन्दिकेश्वराय धीमहि, तन्नो वृषभ: प्रचोदयात् ।।
 
20. गरुड़ :- ॐ तत्पुरूषाय विद्महे, सुवर्णपक्षाय धीमहि, तन्नो गरुड: प्रचोदयात् ।।
 
21. हनुमान :- ॐ आंजनेयाय विद्महे, वायुपुत्राय धीमहि, तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ।।
 
22. हनुमान :- ॐ वायुपुत्राय विद्महे, रामदूताय धीमहि, तन्नो हनुमत् प्रचोदयात् ।।
 
23. शण्मुख :- ॐ तत्पुरुषाय विद्महे, महासेनाय धीमहि, तन्नो शण्मुख प्रचोदयात् ।।
 
24. अयप्पन :- ॐ भूतादिपाय विद्महे, महादेवाय धीमहि, तन्नो शास्ता प्रचोदयात् ।।
 
25. धनवन्तरी :- ॐ अमुद हस्ताय विद्महे, आरोग्य अनुग्रहाय धीमहि, तन्नो धनवन्त्री प्रचोदयात् ।।
 
26. कृष्ण :- ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि, तन्नो कृष्ण प्रचोदयात् ।।
 
27. राधा :- ॐ वृषभानुजाय विद्महे, कृष्णप्रियाय धीमहि, तन्नो राधा प्रचोदयात् ।।
 
28. राम :- ॐ दशरथाय विद्महे, सीता वल्लभाय धीमहि, तन्नो रामा: प्रचोदयात् ।।
 
29. सीता :- ॐ जनकनन्दिंयै विद्महे, भूमिजयै धीमहि, तन्नो सीता प्रचोदयात् ।।
 
30. तुलसी:- ॐ तुलसीदेव्यै च विद्महे, विष्णुप्रियायै च धीमहि, तन्नो वृन्दा प्रचोदयात् ।
        ।।         धन्यवाद       ।।

शनिवार, 24 जुलाई 2021

।।कामिका एकादशी।।


            ।।कामिका एकादशी ।।

कामिका एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा, व्रत, कथा महात्मय सुनने के साथ दान-पुण्य का भी महत्व है। इस दिन पूरे समय ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का उच्चारण करते हुए वस्त्र ,चन्दन ,जनेऊ ,गंध, अक्षत ,पुष्प , धूप-दीप नैवेध,पान-सुपारी चढ़ाकर करनी चाहिए। इससे श्रीहरि की कृपा बरसती है। विष्णु पुराण,पद्म पुराण व भागवद् के अनुसार कामिका एकादशी समस्त भय और पापों का नाश करने वाली संसार के मोह माया में डूबे हुए प्राणियों को पार लगाने वाली नाव के समान बताया गया है। इस व्रत के करने संतान सुख, अश्वमेध यज्ञ के समान फल मिलता है।

धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्री कृष्ण से कहने लगे कि हे भगवन,  कृपा करके श्रावण कृष्ण एकादशी का क्या नाम है, क्या महत्त्व है और उसकी कथा  बताए।
  श्रीकृष्ण भगवान कहने लगे कि हे युधिष्ठिर! इस एकादशी की कथा एक समय स्वयं ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद से कही थी, वही मैं तुमसे कहता हूँ। नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा था कि हे पितामह! श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी की कथा सुनने की मेरी इच्छा है, उसका क्या नाम है? क्या विधि है और उसका माहात्म्य क्या है, सो कृपा करके कहिए।
   नारदजी के ये वचन सुनकर ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद! लोकों के हित के लिए तुमने बहुत सुंदर प्रश्न किया है। श्रावण मास की कृष्ण एकादशी का नाम कामिका है। उसके सुनने मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। इस दिन शंख, चक्र, गदाधारी विष्णु भगवान का पूजन होता है, जिनके नाम श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव, मधुसूदन हैं। उनकी पूजा करने से जो फल मिलता है सो सुनो।
    जो फल गंगा, काशी, नैमिषारण्य और पुष्कर स्नान से मिलता है, वह विष्णु भगवान के पूजन से मिलता है। जो फल सूर्य व चंद्र ग्रहण पर कुरुक्षेत्र और काशी में स्नान करने से, समुद्र, वन सहित पृथ्वी दान करने से, सिंह राशि के बृहस्पति में गोदावरी और गंडकी नदी में स्नान से भी प्राप्त नहीं होता वह भगवान विष्णु के पूजन से मिलता है।
     जो मनुष्य श्रावण में भगवान का पूजन करते हैं, उनसे देवता, गंधर्व और सूर्य आदि सब पूजित हो जाते हैं। अत: पापों से डरने वाले मनुष्यों को कामिका एकादशी का व्रत और विष्णु भगवान का पूजन अवश्यमेव करना चाहिए। पापरूपी कीचड़ में फँसे हुए और संसाररूपी समुद्र में डूबे मनुष्यों के लिए इस एकादशी का व्रत और भगवान विष्णु का पूजन अत्यंत आवश्यक है। इससे बढ़कर पापों के नाशों का कोई उपाय नहीं है।
    हे नारद! स्वयं भगवान ने यही कहा है कि कामिका व्रत से जीव कुयोनि को प्राप्त नहीं होता। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन भक्तिपूर्वक तुलसी दल भगवान विष्णु को अर्पण करते हैं, वे इस संसार के समस्त पापों से दूर रहते हैं। विष्णु भगवान रत्न, मोती, मणि तथा आभूषण आदि से इतने प्रसन्न नहीं होते जितने तुलसी दल से।
    तुलसी दल पूजन का फल चार भार चाँदी और एक भार स्वर्ण के दान के बराबर होता है। हे नारद! मैं स्वयं भगवान की अतिप्रिय तुलसी को सदैव नमस्कार करता हूँ। तुलसी के पौधे को सींचने से मनुष्य की सब यातनाएँ नष्ट हो जाती हैं। दर्शन मात्र से सब पाप नष्ट हो जाते हैं और स्पर्श से मनुष्य पवित्र हो जाता है।
   कामिका एकादशी की रात्रि को दीपदान तथा जागरण के फल का माहात्म्य चित्रगुप्त भी नहीं कह सकते। जो इस एकादशी की रात्रि को भगवान के मंदिर में दीपक जलाते हैं उनके पितर स्वर्गलोक में अमृतपान करते हैं तथा जो घी या तेल का दीपक जलाते हैं, वे सौ करोड़ दीपकों से प्रकाशित होकर सूर्य लोक को जाते हैं।
    ब्रह्माजी कहते हैं कि हे नारद! ब्रह्महत्या तथा भ्रूण हत्या आदि पापों को नष्ट करने वाली इस कामिका एकादशी का व्रत मनुष्य को यत्न के साथ करना चाहिए। कामिका एकादशी के व्रत का माहात्म्य श्रद्धा से सुनने और पढ़ने वाला मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक को जाता है।

कामिका एकादशी व्रत कथा!
एक गांव में एक वीर श्रत्रिय रहता था। एक दिन किसी कारण वश उसकी ब्राहमण से हाथापाई हो गई और ब्राहमण की मृत्य हो गई। अपने हाथों मरे गये ब्राहमण की क्रिया उस श्रत्रिय ने करनी चाही। परन्तु पंडितों ने उसे क्रिया में शामिल होने से मना कर दिया। ब्राहमणों ने बताया कि तुम पर ब्रहम हत्या का दोष है। पहले प्रायश्चित कर इस पाप से मुक्त हो तब हम तुम्हारे घर भोजन करेंगे।
     इस पर श्रत्रिय ने पूछा कि इस पाप से मुक्त होने के क्या उपाय है। तब ब्राहमणों ने बताया कि श्रावण माह के कृष्ण पश्र की एकादशी को भक्तिभाव से भगवान श्रीधर का व्रत एवं पूजन कर ब्राहमणों को भोजन कराके सदश्रिणा के साथ आशीर्वाद प्राप्त करने से इस पाप से मुक्ति मिलेगी। पंडितों के बताये हुए तरीके पर व्रत कराने वाली रात में भगवान श्रीधर ने श्रत्रिय को दर्शन देकर कहा कि तुम्हें ब्रहम हत्या के पाप से मुक्ति मिल गई है।
   इस व्रत के करने से ब्रह्महत्या आदि के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और इहलोक में सुख भोगकर प्राणी अन्त में विष्णुलोक को जाते हैं। इस कामिका एकादशी के माहात्म्य के श्रवण व पठन से मनुष्य स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।

                        ।। धन्यवाद।।

।। तुलसी/वृन्दा ।।

                   ।। तुलसी/वृन्दा।।

         हिंदू धर्म में तुलसी का विशेष महच्व होता है. धार्मिक कार्यों में इस्तेमाल होने के साथ ही तुलसी के कई औषधीय गुण भी होते हैं. माना जाता है कि घर में तुलसी का पौधा लगाने से नेगेटिव एनर्जी दूर होती है. कई लोग रोजना सुबह उठकर तुलसी  की चाय पीना पसंद करते हैं ऐसे में हम आपको  बताने जा रहे हैं किस दिन तुलसी के पत्तों को नहीं तोड़ना चाहिए साथ ही पत्तों को तोड़ते समय किन बातों का ख्याल रखना  चाहिये।

       माना जाता है कि रविवार, सूर्य ग्रहण, एकादशी, संक्रान्ति, द्वादशी, चंद्रग्रहण और संध्या काल में तुलसी नहीं तोड़नी चाहिए. मान्यता के अनुसार, एकादशी पर तुलसी / वृन्दा माँ व्रत करती हैं इसलिए इस दिन पत्ते तोड़ने से घर में गरीबी आती है. अतः निषेध दिनों हेतु एक दिन पूर्व तुलसी के पत्तों को तोड़कर रख लें और बाद में  इन्हे सभी प्रकार के कार्यों में प्रयोग करें , इस तरह से आप निषेध दिनों में भी बिना तुलसी के पत्ते तोड़े पूर्व के पत्तों को भगवान को चढ़ा सकते हैं। ग्यारह दिन से अधिक पुराने तुलसी के पत्तों का इस्तेमाल ना करें क्योंकि यह बासी माने जाते हैं।

    साथ ही ध्यान रखें कि भगवान शिव और भगवान गणेश की पूजा में तुलसी के पत्तों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए ऐसा करना अशुभ माना जाता है।

तुलसी नामाष्टक मंत्र
बृन्दा बृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी।

पुष्पसारा नन्दिनी च तुलसी कृष्णजीवनी ॥

एतन्नामाष्टकं चैव स्तोत्रं नामार्थसंयुतम्।

यः पठेत् तां च संपूज्य सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥पौराणिक कथा                                              मान्यताओं के मुताबिक भगवान श्री राम ने गोमती तट पर और वृंदावन में भगवान श्रीकृष्ण ने तुलसी लगायी थी। यह भी कहा जाता है कि अशोक वाटिका में सीता जी ने रामजी की प्राप्ति के लिए तुलसी जी का मानस पूजन ध्यान किया था। हिमालय पर्वत पर पार्वती जी ने शंकर जी की प्राप्ति के लिए तुलसी का वृक्ष लगाया था।

 तुलसी पूजा या तुलसी के प्रयोग में आपको निम्न बातों का ध्यान रखना जरूरी है।
- तुलसी के पत्ते हमेशा सुबह के समय ही तोड़ना चाहिए।

- रविवार के दिन तुलसी के पौधे के नीचे दीपक नहीं जलाना चाहिए।

- भगवान विष्णु और इनके अवतारों को तुलसी दल जरूर अर्पित करना चाहिए।

- भगवान गणेश और मां दुर्गा को तुलसी कतई न चढ़ाएं।

-पूजा में तुलसी के पुराने पत्तों का भी प्रयोग किया जा सकता है।

-तुलसी के पत्तों को हमेशा चुटकी बजाकर ही तोड़ना चाहिए।

- रविवार के दिन तुलसी के पत्तों को नहीं तोड़ना चाहिए

- खासकर रात के वक्त तुलसी पत्तों को तोड़ने से परहेज करना चाहिए। 

जल चढ़ाते वक्त पढ़ें ये मंत्र -- महाप्रसादजननी सर्व सौभाग्यवर्धिनी। आधि व्याधि हरा नित्यं तुलसी त्वं नमोस्तुते।। इसके बाद तुलसी की परिक्रमा कीजिए। 

इस मंत्र का भी  जाप कर सकते हैं 

 ऊँ श्री तुलस्यै विद्महे। विष्णु प्रियायै धीमहि। तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्।।

तुलसी/वृन्दा की कथा

   दैत्यराज कालनेमी की कन्या वृंदा का विवाह जालंधर से हुआ। जालंधर महाराक्षस था। अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया। वहां से पराजित होकर वह देवि पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत  महादेव से युद्ध करने जाने लगा तब वृंदा ने कहा -स्वामी आप युद्ध पर जा रहे हैं आप जब तक युद्ध में रहेगें मैं पूजा में बैठकर आपकी जीत के लिए अनुष्ठान करुंगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते मैं अपना संकल्प नही छोडूगीं।जलंधर तो युद्ध में चले गए और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गई। उनके व्रत के प्रभाव से महादेव भी जलंधर को न जीत सके तब सारे देवता  भगवान विष्णु जी के पास गए। 

 सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि-वृंदा मेरी परम भक्त है मैं उसके साथ छल नहीं कर सकता पर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते हैं। 
भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पहुंच गए जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा,वे तुरंत पूजा में  से उठ गई और उनके चरण छू लिए। जैसे ही उनका संकल्प टूटा,युद्ध में महादेव  ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काटकर अलग कर दिया। उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पड़ा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है?
उन्होंने पूछा - आप कौन हैं जिसका स्पर्श मैंने किया,तब भगवान अपने रूप में आ गए पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई। उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ,भगवान तुंरत पत्थर के हो गए। सभी देवता हाहाकार करने लगे। लक्ष्मी जी रोने लगीं और प्राथना करने लगीं तब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर  सती हो गई। 
 उनकी राख से  एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा- आज से इनका नाम तुलसी है,और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जाएगा और मैं बिना तुलसी जी के प्रसाद स्वीकार नहीं करुंगा। तब से तुलसी जी की पूजा सभी करने लगे और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है। देवउठनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह मनाया जाता है। शालिग्राम पत्थर गंडकी नदी से प्राप्त होता है।यही कारण है कि भगवान विष्णु के प्रसाद में तुलसी अवश्य रखा जाता है. बिना तुलसी के अर्पित किया गया प्रसाद भगवान विष्णु स्वीकार नहीं करते हैं.

तुलसी  मुख्यतया तीन प्रकार की होती हैं- कृष्ण तुलसी, सफेद तुलसी तथा राम तुलसी जिसमें से कृष्ण तुलसी सर्वप्रिय मानी जाती है। 

किस जगह पर लगाएं तुलसी का पौधा 
तुलसी का पौधा घर के दक्षिणी भाग में नहीं लगाना चाहिए, घर के दक्षिणी भाग में लगा हुआ तुलसी का पौधा फायदे की जगह नुकसान पहुंचा सकता है। तुलसी को घर की उत्तर दिशा में लगाना चाहिए। ये तुलसी के लिए शुभ दिशा मानी गई है, अगर उत्तर दिशा में तुलसी का पौधा लगाना संभव न हो तो पूर्व दिशा में भी तुलसी को लगा सकते हैं। रोज सुबह तुलसी को जल चढ़ाएं और सूर्यास्त के बाद तुलसी के पास दीपक जलाना चाहिए। 

                ।।  धन्यवाद   ।।  




गुरुवार, 22 जुलाई 2021

।।शिव रात्रि और निषाद राज गुह की कथा।।

   ।।शिव रात्रि और निषाद राज गुह की कथा।।  
    प्राचीन काल में गुरूद्रुह नामक एक भील एक वन में अपने परिवार सहित रहता था। उसका पेशा चोरी करना तथा वन में पशुओं का वध करना था। एक बार शिवरात्रि के पर्व के दिन उसके घर में कुछ भी भोजन सामग्री नहीं थी। उसके परिवार के सभी सदस्य भूखे थे। परिवार के सदस्यों ने उससे कहा कि कुछ भोजन सामग्री लाओ। हम सब भूखे हैं। तब वह धनुष बाण लेकर शिकार को चल दिया। परन्तु उस दिन शाम तक वन में घूमने पर भी उसे कोई जानवर शिकार के लिए दिखाई नहीं दिया। रात हो जाने पर भील बहुत व्याकुल हो गया। वह सोचने लगा कि खाली हाथ कैसे लोटूँ? परिवार के सदस्यों को खाने के लिए क्या दूंगा? काफी सोच-विचार करने के बाद वह तालाब के किनारे एक बेल के वृक्ष पर रात बिताने के लिए बैठ गया तथा उसने एक पात्र में जल भी रख लिया। उसने सोचा कि रात में जब कोई पशु जल पीने के लिए आएगा तब मैं शिकार करूँगा।रात्रि के प्रथम पहर में एक हिरनी जल पीने के लिए तालाब पर आई। भील ने उसका शिकार करने के लिए धनुष पर बाण चढ़ाया। धनुष पर बाण चढ़ाते समय कुछ जल तथा बेल पत्र झड़कर नीचे गिर पड़े । भील के भाग्य से उस बेल के वृक्ष के नीचे भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग स्थापित था। इससे अनजाने में ही जल और बेल पत्र ज्योतिर्लिंग पर गिर पड़े। इस प्रकार भील के द्वारा भगवान शिव की रात्रि के प्रथम पहर में पूजा हो गई। इससे अनजाने में ही भील के पापों का नाश हो गया। भील के धनुष की टंकार सुनकर हिरणी बोली - तुम यह क्या करना चाहते हों? भील ने कहा कि मेरा परिवार भूखों मर रहा है। मैं उनके भोजन के लिए तुम्हारा शिकार करना चाहता हूँ।  भील की बात सुनकर हिरनी बोली - तुम बहुत बहुत अन्यायी हो। तुम्हें जरा भी दया नहीं आती। यदि मेरे माँस से तुम्हारे परिवार की भूख मिट जाए तो मेरा यह शरीर धन्य है। दूसरों के कष्ट निवारण से ही जीव प्रशंसा के योग्य हो जाता है। तुम थोड़ी देर और रूक जाओ। मैं अपने घर जाकर अपने बच्चों को अपनी बहिन को सौंप कर आती हूँ। तब तुम मुझे मार कर ले जाना। तुम मेरा विश्वास करो। मैं लौटकर अवश्य आऊँगी। यदि मैं लौट कर नहीं आई तो मुझे वह पाप लगेगा जो विश्वासघाती को लगता है। हिरनी की बातों पर विश्वास करके भील ने हिरनी को जाने दिया। 
    हिरनी लौटकर अपने बच्चों के पास गई। इस प्रकार उस भील का रात्रि का प्रथम प्रहर का जागरण हो गया। तत्पश्चात् रात्रि के दूसरे प्रहर में उस हिरणी की बहिन उसे ढ़ूँढ़ती हुई वहाँ आ पहुँची। उसे देखकर भील ने तुरन्त अपने धनुष पर अपने बाण को चढ़ाया। बाण चढ़ाने से दुबारा बेल पत्र और पानी शिवलिंग पर गिर पड़े। इस प्रकार उस भील का रात्रि के दूसरे प्रहर का पूजन हो गया। धनुष की टंकार सुनकर वह हिरनी बोली - हे भीलराज! तुम यह क्या करने जा रहे हो। भील ने उससे भी वही बात कही जो उसने पहली हिरनी को कही थी। उसकी बात सुनकर हिरनी बोली - हे भील राज! थोड़े समय के लिए मुझे घर जाने की आज्ञा दे दो। मैं अपने बच्चों को देखकर अभी आ जाऊँगी, नहीं तो वे मेरी प्रतीक्षा करते रहेंगे। भील ने उसे भी जाने की स्वीकृति दे दी। इस प्रकार जागते-जागते भील का दूसरा प्रहर जागरण के रूप में व्यतीत हो गया।   
तत्पश्चात् रात्रि के तीसरे प्रहर में एक मोटा ताजा हिरन जल पीने उसी तालाब पर आया, वहीं पेड़ पर भील भी बैठा था। भील उस हिरन का शिकार करने के लिए अपने धनुष पर बाण को चढ़ाने लगा। बाण चढ़ाने से इस बार भी शिवलिंग पर जल व बेलपत्र गिर पड़े। इससे भील की तीसरे प्रहर की शिव-पूजा अनजाने में हो गई। हिरन ने उसके चढ़े हुए बाण को देखकर फिर से वही प्रश्न किया जो दोनों हिरनियों ने किया था। भील ने उसे भी वही उत्तर दिया। इस पर हिरन विनती कर बोला - हे भीलराज! मैं अपने बच्चों तथा पत्नियों को समझा बुझा कर अभी आता हूँ। मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मैं लौटकर अवश्य आऊँगा। भील ने उसे भी जाने दिया। इस प्रकार जागरण करते हुए भील का रात्रि का तीसरा प्रहर भी व्यतीत हो गया। 
    दोनों हिरनी और हिरन ने घर पहुँचकर आपस में अपना-अपना समाचार सुनाया। तीनों ही भील के पास शपथ लेकर आए थे। अतः तीनों ही अपने बच्चों को समझा बुझाकर भील के पास चल दिए। परन्तु उनके साथ उनके बच्चे भी चल दिए। इस प्रकार हिरन का पूरा परिवार भील के पास पहुँच गया। भील ने उन सबको आया देखकर अपने धनुष पर झट से बाण चढ़ाया। इससे एक बार फिर कुछ जल और बेल झड़कर पुनः नीचे शिवलिंग पर गिर गये। इससे भील के मन में ज्ञान की उत्पत्ति हुई।  यह रात्रि के चौथे प्रहर का पूजन था। मृग परिवार ने भील से कहा- हम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आपके पास आ गए हैं। आप हमारा वध कर सकते हैं जिससे हमारा शरीर सफल हो जाए।  इस पर भगवान शिव की प्रेरणा से भील सोचने लगा मुझसे तो अच्छे यह अज्ञानी पशु हैं, जो परोपकार परायण होकर अपना शरीर मुझे भेंट कर रहे हैं । एक मैं हूँ जो मानव शरीर पाकर भी हत्यारा बना हुआ है। इस प्रकार मन में विचार कर भील बोला - हे मृगों! आप लोग धन्य हैं। मैं आपका वध नहीं कर सकता। आप लोग निर्भय होकर घर लौट जाओ। तभी वहाँ भगवान शिव प्रकट हो गए। भील भगवान शिव के चरणों में गिर गया और भक्ति कर आशीर्वाद मांगने लगा। भगवान शिव ने उसे शृंगवेरपुर की श्रेष्ठ राजधानी में भेजकर भगवान श्री राम के साथ मित्रता होने का आशीर्वाद दिया। बाद में वह निषाद श्री रामजी की कृपा से मोक्ष को प्राप्त हुआ। इस प्रकार यह शिवरात्रि की महिमा का फल था। यह व्रत महान फलदायक है।
  अन्य कथा के अनुसार
निषाद अपने पूर्वजन्म में कभी कछुआ हुआ करता था। एक बार की बात है उसने मोक्ष के लिए शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान विष्णु के अंगूठे का स्पर्श करने का प्रयास किया था। उसके बाद एक युग से भी ज्यादा वक्त तक कई बार जन्म लेकर उसने भगवान की तपस्या की और अंत में त्रेता युग में निषाद के रूप में विष्णु के अवतार भगवान राम के हाथों मोक्ष पाने का प्रसंग बना।

निषाद राज और श्री राम जी की प्रथम भेंट का दृश्य संत लोग बहुत सुंदर बताते हैं। निषाद राज के पिता से और चक्रवर्ती महराज से मित्रता थी। वे समय समय पर अयोध्या आया करते थे। जिस समय दशरथ जी के यहां प्रभू श्रीराम का प्रादुर्भाव हुआ। उस समय वे अत्यन्त बृद्ध हो चुके थे, किन्तु लाला की बधाई लेकर वे स्वयं अयोध्या आये थे। अवध के लाला का दर्शन कर गुरु निषादराज को परम आनन्द की अनुभूति हुई थी।

जब बृद्ध गुरु निषादराज अयोध्या से लोट आए तो छोटे निषाद और परिवार मे लाला की सुंदरता का वर्णन करते रहे। यह सब सुनकर छोटे से निषाद को रामलला को देखने का बड़ी उत्कंठा हुई। छोटा निषाद जब पांच वर्ष का हो गया तब पिता और वृद्ध हो गये तो एक दिन बूढ़े पिता ने आज्ञा दे ही दी कि जावो रामलला का दर्शन कर आवो। साथ में सहायक भी भेज दिए।

बूढ़े पिता ने सुंदर मीठे फल तथा रुरु नामक मृग के चर्म की बनी हुईं छोटी छोटी पनहिंयां भेंट स्वरूप देकर बिदा किया। फल वगैरह तो छोटे निषाद ने साथियों को ले चलने के लिए दे दिया। लेकिन उन चारों पनहियों को अपना काँख मे दबाये दबाये छोटे निषाद ने पूरा रास्ता तय किया। एक बार वन विहार सो लौटने पर प्रभु राम द्वारा निषाद की बड़ी प्रसन्शा की गई, उसी समय राजा दशरथ ने निषाद को अपने सीने से लगा लिया और अपने हाथ का कंगन पहनाते हुए शृंगवेर पुर का राजा होने की घोषणा कर दी।  
      आगे प्रभु वनवास और वनवास से आने फिर निषाद राज का प्रभु संग अयोध्या जाना वहाँ से विदाई और इनकी रघुवर प्रीति की कथा आप सब जानते ही है।
             ।।।   धन्यवाद    ।।।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

।।देव पूजा के अद्भुत आठ पुष्प।।

       ।।देव पूजा केअद्भुत आठ पुष्प।।

अहिंसा प्रथमं पुष्पं द्वितीयं इन्द्रिय निग्रहः
         सर्व भूत दया पुष्पं क्षमा पुष्पं विशेषतः।
ज्ञानं पुष्पं तपः पुष्पं शान्ति पुष्पं तथैव च
        सत्यं अष्ट विधं पुष्पं विष्णो:प्रीतिकरं भवेत्।।
हिन्दी अनुवाद
प्रथम अहिंसा पुष्प, इन्द्रिय निग्रह प्रान है;
         चराचर पर दया तीजो,चौथा क्षमा दान है।
पंचम ज्ञान तप छठ, सातवाँ शांति ध्यान है;
          देव देव दया दान,जिनमे सत्य महान है।।
             ।।धन्यवाद।।


।।परिसंख्या अलंकार।।

      ।।परिसंख्या अलंकार।।               ।। Special mention।।

 परिसंख्या  अलंकार-Special mention:-

      एक वस्तु की अनेकत्र संभावना होने पर भी, उसका अन्यत्र निषेध कर, एक स्थान में नियमन 'परिसंख्या' अलंकार कहलाता है 

एकस्यानेकत्रप्राप्तावेकत्रनियमनं परिसंख्या- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व।

परिसंख्या (परि + संख्या) में 'परि' वर्जनार्थ अव्यय है तथा 'संख्या' का अर्थ है 'बुद्धि' । इस प्रकार 'परिसंख्या' का अर्थ हुआ- वर्जन-बुद्धि, अर्थात किसी वस्तु का निषेध। कोई वस्तु दूसरी जगहों में भी पायी जा सकती है, उसी का निषेध कर एक स्थान में नियमन परिसंख्या है।

       जहाँ किसी वस्तु का दूसरे स्थानों में निषेध कर किसी एक विशेष स्थान पर होना कहा जाय , वहाँ परिसंख्या अलंकार होता है।

उदाहरण-

दंड जतिन कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
ज़ीतौ मनसिज सुनिय अस रामचंद्र के राज।।

'दंड', 'भेद', 'जीत' का अन्य जगहों से निषेध कर 'जतिनकर', 'नर्तक नृत्य समाज' 'मनसिज' में नियमन करना परिसंख्या है।

भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥

यहाँ विवेक, ज्ञान,वैराग्य का अन्य स्थानों पर निषेध करके केवल सद्ग्रन्थों में नियमन किया गया है अतः यहाँ भी परिसंख्या अलंकार है।

     अति चंचल जहँ चलदलै , विधवा बनी न नारि ।
      मन मोह्यो रिसिराज को, अद्धभुत नगर निहारि ।।
 यहां पर अवधपुरी में चंचलता केवल पीपल के पत्तों में पाई जाती है, अन्यत्र नहीं 
 इसी प्रकार ____
       मूलन ही की जहाँ अधोगति केसव गाइय  ।
       होम हुतासन धूम नगर एकै मालिनाइय ।।
       दुर्गति दुर्गन ही जो, कुटिल गति सरितन ही मेँ ।
     श्रीफल को अभिलाष प्रकट कविकुल के जी मेँ ।।
      यहाँ पर भी अधोगति केवल जड़ो की ही है, होम धूम की ही मलिनता है, दुर्गति दुर्गन ही की है, कुटिल गति नदियों की ही है आदि आदि ।
राम के राज्य में वक्रता केवल सुन्दरियों के कटाक्ष में थी।


                    ।।धन्यवाद।।



।।पर्याय अलंकार।।

                 ।।पर्याय अलंकार।।
     जहाँ एक वस्तु की अनेक वस्तुओं में अथवा अनेक वस्तुओं की एक वस्तु में क्रम से (काल-भेद से) स्थिति का वर्णन हो वहां पर्याय अलंकार होता है।यह एक वाक्य न्यायमूलक अलंकार है।                                    इसके  मुख्य दो भेद हैं--                       
 1.एक वस्तु की अनेक वस्तुओं में क्रमशः स्थिति
जागबलिक जो कथा सुहाई। 
भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी।
 सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। 
बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। 
राम भगत अधिकारी चीन्हा॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। 
तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
 2.अनेक वस्तुओं की एक वस्तु में क्रमशः स्थिति
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका।
 अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। 
बिबिध बेष देखे सब देवा॥
सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप।

                 ।।धन्यवाद।।

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

।।Possessives Part 3rd।।

        ।।Possessives Part 3rd।।
      Possessive के पहले दो भागों में हमने सर्वनाम (Pronoun)के संबंध कारक पर विचार किया।
      अब संज्ञा(Noun)के संबंध कारक पर विचार करें--यह ध्यान ही है कि हिन्दी में का, की, के संज्ञा के तुरंत बाद आकर संबंध कारक का कार्य करते हैं और अंग्रेजी में साधारणतः s औऱ of लगाते है।आइये हम इनके प्रयोग को जानें।
1.मनुष्य के नाम अथवा मनुष्य सूचक शव्द के साथ(s)
जोड़ा जाता है --
.Ram's horse is fast.
.Man'life is short.
.The boy's name is Hari.
     परन्तु ऐसे Noun जिनका बहुवचन s जोड़कर बनता है उनके अंत में केवल apostrophe(') अंत में
जोड़ देते हैं। जैसे--
. The boys'booka are lying on the ground.
.The horses' legs are long.
      परन्तु ऐसे Nouns जिनके बहुवचन के अंत मे s नहीं आता वहाँ ('s) लगेगा--
. Men's clothes are plain.
2.बड़े-बड़े पशुओं कभी-कभी छोटे-छोटे पशुओं व कीड़े-मकोडों के लिए भी ('s) आता है।
.The cow's tail is long.
.The ant's eggs are small.
3.निर्जीव पदार्थों  में apostrophe s ('s) का प्रयोग नहीं होता है ,उनके साथ of का प्रयोग बाद में आने वाले शब्दों के बाद होता है। जैसे--
.The door of the house.
.The legs of the table.
4. समय तथा दूरी सूचक निर्जीव शब्दों के साथ ('s) लगता है।जैसे---
. One year's time.
.Two Mike's distance.
5.जब हम निर्जीव को सजीव की तरह प्रयोग करते है तब ('s) को ही लिखते हैं। जैसे---
.प्रेम के बाण.Love's shaft.
6. कई संज्ञाओं की स्थिति में केवल अंतिम  से पहले ('s) आयेगा। जैसे---
.Gopal, Ganesh, Girdhari and Hair's fathers are rich.
7.यदि एक ही संज्ञा के लिए दो possessive adjectives आये हो तो केवल पहली बार ही संज्ञा का प्रयोग होगा। जैसे---
.Johan's  book is red but Moran's  is green.
8. Possessive adjectives के बाद house,shop, school, college, hospital, church आदि आने पर इनका लोप हो जाता है।जैसे-
.Mohan went to the barber's and had a shave.
9.मनुष्य वाची लम्बे नामों के साथ of का प्रयोग होता है।जैसे--
.He is the son of the commander-in-chief.
10.of, और 's  दोनों के द्वारा सम्बन्ध कारक सूचित किये जाते हैं लेकिन दोनों  का अंतर जानें।
'S तो possession/ownership बतलाता है औऱ of स्वामित्व या अधिकार न बताकर जिस संज्ञा के साथ रहता है उसका वर्णन करता है।जैसे--
.A king's picture.
.A picture of the king .
दोनों में महान अंतर है
                 ।।Thanks।।


सोमवार, 12 जुलाई 2021

।। देवशयनी एकादशी ।।

             ।।   देवशयनी एकादशी   ।।
    आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी का प्रसिद्ध नाम देवशयनी एकादशी है।इसके अन्य नाम भी हैं----पद्मनाभा, पद्मा एकादशी, हरि शयनी एकादशी, आषाढ़ी एकादशी
 देवशयनी एकादशी का माहात्म्य
       ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।धार्मिक मान्यताओं के अनुसार एकादशी का व्रत रखने से मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस पावन दिन पर व्रत रखने से सभी तरह के पापों से मुक्ति मिल जाती है
 देवशयनी एकादशी व्रत की मुख्य कथा
      धर्मराज युधिष्ठिर ने एक बार भगवान श्री कृष्ण से कहा हे केशव ! आषाढ़ शुक्ल एकादशी का क्या नाम है, इस व्रत के करने की विधि क्या है और किस देवता का पूजन किया जाता है ? श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे युधिष्ठिर ! जिस कथा को ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा था वही मैं तुमसे कहता हूँ।
        एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया: सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है।
       उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।
        राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन: सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए।
         वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।
        तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा: महात्मन्‌! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें। यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा: हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।
        इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। धार्मिक के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक अधार्मिक नराधम तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।
        किंतु राजा का हृदय एक नराधम तपस्वी को भी मारने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा: हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ। महर्षि अंगिरा ने बताया तो फिर आप आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।
       राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।
           एक अन्य कथा के अनुसार वामन बनकर भगवान विष्णु ने राजा बलि से तीन पग में तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। राजा बलि को पाताल वापस जाना पड़ा।लेकिन बलि की भक्ति और उदारता से भगवान वामन मुग्ध थे। भगवान ने बलि से जब वरदान मांगने के लिए कहा तो बलि ने भगवान से कहा कि आप सदैव पाताल में निवास करें। भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान पाताल में रहने लगे। इससे लक्ष्मी मां दुःखी हो गयी। भगवान विष्णु को वापस बैकुंठ लाने के लिए लक्ष्मी मां गरीब स्त्री का वेष बनाकर पाताल लोक पहुंची। लक्ष्मी मां के दीन हीन अवस्था को देखकर बलि ने उन्हें अपनी बहन बना लिया।
लक्ष्मी मां ने बलि से कहा कि अगर तुम अपनी बहन को खुश देखना चाहते हो तो मेरे पति भगवान विष्णु को मेरे साथ बैकुंठ विदा कर दो। बलि ने भगवान विष्णु को बैकुंठ विदा कर दिया लेकिन वचन दिया कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तक वह हर साल पाताल में निवास करेंगे। इसलिए इन चार महीनों में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है और इस चार महिनों को चतुर्मास कहते हैं।संत,महात्मा इन चार माह के दौरान एक स्थान पर रह कर भगवद्भक्ति करते हैं।
     भागवत महापुराण के मुताबिक भगवान श्री विष्णु ने एकादशी के दिन संखासुर का वध किया था। संखासुर से युद्ध करते वे बहुत थक गए तब भगवान विष्णु का पूजन किया और विश्राम करने के लिए कहा। तब भगवान विष्णु शेष नाग की शईया पर चार महीने की योग निद्रा में सो गए।
देवशयनी एकादशी सामान्य पूजा विधि
     देवशयनी एकादशी के दिन प्रात:काल उठकर साफ-सफाई कर नित्य कर्म से निवृत हो, स्नानादि के पश्चात घर में पवित्र जल का छिड़काव करें।पूजा स्थल पर भगवान श्री हरि विष्णु जी की अपनी क्षमता अनुसार  सोने, चांदी, तांबे या फिर पीतल की मूर्ति स्थापित करें।
इसके बाद षोड्शोपचार सहित पूजा करें। पूजा के बाद व्रत कथा अवश्य सुननी चाहिये।घर के मंदिर में दीप प्रज्वलित करें।भगवान विष्णु का गंगा जल से अभिषेक करें। भगवान विष्णु के भोग में तुलसी को जरूर शामिल करें। ऐसा माना जाता है कि बिना तुलसी के भगवान विष्णु भोग ग्रहण नहीं करते हैं। इस पावन दिन भगवान विष्णु के साथ ही माता लक्ष्मी की पूजा भी करें। तत्पश्चात आरती करें और प्रसाद बांटे और अंत में सफेद चादर से ढंके गद्दे तकिये वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिये और विशेष हरिशयन मंत्र का पाठ करें---
सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्।
विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्
सर्वं चराचरम्।।
     आपकी कृपा से ही यह सृष्टि सोती है और जागती है.हे करुणाकर आप हमारे ऊपर कृपा बनाए रखें। फिर श्री हरि विष्णु की प्रार्थना करें--
शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं 
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगम
लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं 
वंदे विष्‍णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। 
त्वमेव माता, च पिता त्वमेव 
त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव
त्वमेव विद्या च द्रविडम त्वमेव
त्वमेव सर्वम मम देव देव 
                         ।।धन्यवाद।।
 

रविवार, 11 जुलाई 2021

।।सरस्वती वंदना।।

               ।।    सरस्वती वन्दना   ।।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला 
या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा
 या श्वेतपद्मासना॥
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभि
र्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥1॥

अर्थ : जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली मां सरस्वती हमारी रक्षा करें। ..

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमाम्
 आद्यां जगद्व्यापिनीम्।
वीणा-पुस्तक-धारिणीम_
अभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌॥
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीम् पद्मासने संस्थिताम्‌।
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं 
बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥
अर्थ : जिनका रूप श्वेत है, जो ब्रह्मविचार की परम तत्व हैं, जो सब संसार में फैले रही हैं, जो हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, अभय देती हैं, मूर्खतारूपी अन्धकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिकमणि की माला लिए रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान होती हैं और बुद्धि देनेवाली हैं, उन आद्या परमेश्वरी भगवती सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ । 

बुधवार, 7 जुलाई 2021

।।।नियम एकादशी का।।

               ।।नियम एकादशी का।।
दशमी  से द्वादशी तक नियम एकादशी का,
    बताते आज जगत को जगत तनय मेवाती नन्दन।
दशमी कांस मांस त्याग मसूर चना कोदव शाक का,
  दोबारा भोजन रति मधु परान्न का नहि अभिनन्दन।1।
अब सब सुने मन लगा क्या है त्याग एकादशी का,
      द्यूत निद्रा पान छोड़े तोड़े नहीं दंतधावन चन्दन।
निंदा चुगली चोरी क्रोध झूठ बरजोरी का,
    हिंसा और रति छोड़ करें सदा प्रभु हरि का मनन।2।
व्यायाम छोड़ द्वादशी को ध्यान धरें हरि का,
      पुनः भोजन रति रास प्रवास का करना  खण्डन।अछूत तेल मसूर कांस मधु सुरा व मांस का,
    त्यागें झूठ सिख ले करे सदा एकादशी का वन्दन।3।दशमी  में दस एकादशी में त्याग ग्यारह का
     करना सदा हरि के मनचाहे रुप का दिल से नमन।
एक दशा में रह कर ध्यान धरें केशव का
      आस्था विश्वास से हरि कीर्तन हो रात्रि जागरन।4।
द्वादशी में व्रती को करना है त्याग बारह का
     करना निश्चित है द्वादशी में ही एकादशी का पारन।
धर्म से चलें रक्षा करना काम धर्म का
      पालक हरि करें सदा सबका सब दुःख निवारन।5।
                    ।।  धन्यवाद   ।।
      




शनिवार, 3 जुलाई 2021

।।.बंदउँ नाम राम रघुबर को ।।

   ।।बंदउँ नाम राम रघुबर को।हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।
   हम रघुबर राम के नाम की बन्दना करते हैं जो अग्नि,सूर्य और चंद्रमा का कारण स्वरूप है।जानते है--  राम नाम के तीन वर्ण र, अ और म क्रमशः कृसानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा)  के हेतु(कारण)हैं।
यह बात सुज्ञात अर्थात सुप्रसिद्ध है कि रकार अनलबीज, अकार भानुबीज और मकार चंद्रबीज हैं। अग्नि दोनों संध्याओं को,सूर्य दिन को और चंद्रमा रात्रि को प्रकाशित करता है तो राम नाम सभी समय को प्रकाशित करता है।जानते है कि
र= चित,आ=सत और म=आनन्द होता है और इन तीनों के योग  से बना है सच्चिदानंद। और तो और इन तीनों से क्रमशः दैहिक,दैविक,और भौतिक ताप का भी नाश होता है और इनसे क्रमशः वैराग्य, ज्ञान औऱ भक्ति की भी प्राप्ति होती है। और तो और रघुबर हैं --//
रघु =जीव और बर = पति  या स्वामी अर्थात समस्त चराचर के स्वामी है राम।
 यही नहीं--
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
राम नाम के तीनों वर्ण क्रमशः बिधि,हरि,हर ही हैं अर्थात  ब्रह्मा, विष्णु ,महेश ये त्रिमूर्ति भगवान राम ही हैं। वही वेदों के प्राण,निर्गुण ब्रह्म और उपमा रहित गुणनिधान सगुण ब्रह्म भी हैं।
        ऐसे पार ब्रह्म परमेश्वर रघुबर के राम नाम की हम  वन्दना करते हैं।
                  ।।जय श्री राम।।