मानस चर्चा ।। सीय स्वयंबर कथा सुहाई।।
सीय स्वयंबर कथा सुहाई।सरित सुहावनि सो छबि छाई।। अर्थात् जो श्री सीताजी के स्वयंवरकी सुन्दर कथा है वह सुहावनी नदीकी सुन्दर छबि है जो मानस में
छा रही है ॥ पर बात यहां यह है कि यह स्वयंवर 'सीय स्वयंबर ' कैसे ? कुछ लोग यह शंका इसलिए करते हैं कि 'स्वयंवर तो वह है जिसमें कन्या अपनी रुचि - अनुकूल वर का वरण कर ले, और यहाँ तो ऐसा नहीं हुआ; तब इसे स्वयंवर क्यों कहा?' इस विषयमें यह जान लेना चाहिये कि स्वयंवर कई प्रकार का होता है। देवीभागवत तृतीय स्कन्धमें लिखा है कि 'स्वयंवर केवल राजाओंके विवाहके लिये होता है, अन्यके लिये नहीं और वह तीन प्रकारका है - इच्छा-स्वयंवर, पण या प्रतिज्ञा-स्वयंवर और शौर्य-शुल्क- स्वयंवर । जैसा कि यह श्लोक है - 'स्वयंवरस्तु त्रिविधो विद्वद्भिः परिकीर्तितः।राज्ञां विवाहयोग्यो वै नान्येषां कथितः किल ॥ इच्छास्वयंवरश्चैको द्वितीयश्च पणाभिधः । यथा रामेण भग्नं वै त्र्यम्बकस्य शरासनम् ॥तृतीयः शौर्यशुल्कश्च शूराणां परिकीर्तितः । '
शौर्य-शुल्क- स्वयंवरके उदाहरणमें हम भीष्मपितामहने
जो काशिराजकी तीन कन्याओं - अम्बा, अम्बालिका और अम्बिकाको अपने भाइयोंके लिये स्वयंवरमें अपने
पराक्रमसे सब राजाओंको जीतकर प्राप्त किया था, इसे दे सकते हैं।
स्वयंवर उसी कन्याका होता है जिसके रूप- लावण्यादि गुणोंकी ख्याति संसारमें फैल जाती है और अनेक राजा उसको ब्याहनेके लिये उत्सुक हो उठते हैं। अतः बहुत बड़े विनाशकारी युद्धके बचानेके लिये यह किया जाता है । इच्छास्वयंवर वह है जिसमें कन्या अपने इच्छानुकूल जिसको चाहे जयमाल डालकर ब्याह ले । जयमाल तो इच्छास्वयंवर और पणस्वयंवर दोनोंमें ही पहनाया जाता है। जयमाल- स्वयंवर अलग कोई स्वयंवर नहीं है। दमयन्ती-नल-विवाह और राजा शीलनिधिकी कन्या विश्वमोहिनी- का विवाह (जिसपर नारदजी मोहित हो गये थे) 'इच्छास्वयंवर' के उदाहरण हैं। पण अर्थात् प्रतिज्ञा स्वयंवर वह है जिसमें विवाह किसी प्रतिज्ञाके पूर्ण होने ही से होता है, जैसे राजा द्रुपदने श्रीद्रौपदीजीका पराक्रम-
प्रतिज्ञा - स्वयंवर किया। इसी प्रकार श्रीजनकमहाराजने श्रीसीताजीके लिये पणस्वयंवर रचा था । जैसा कि मानस कहता है-
'बोले बंदी बचन बर, सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम, भुजा उठाइ बिसाल ।'
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा।
राज समाज आज जोई तोरा ।
त्रिभुवन जय समेत बैदेही ।
बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ॥'
श्रीरामजीने धनुषको तोड़कर ही विवाह किया । जैसा कि
— 'रहा बिबाह चाप आधीना । टूटतही धनु भएउ बिबाहू । कुछ महानुभाव इसके पूर्व पुष्पवाटिका-प्रसंगके
'निज अनुरूप सुभग बर माँगा' एवं 'चली राखि उर स्यामल मूरति' इन वाक्योंसे यहाँ इच्छा - स्वयंवर होना भी कहते हैं। परन्तु इसकी पूर्ति 'प्रतिज्ञाकी पूर्ति' पर ही सम्भव थी, इसलिये इसे पण - स्वयंवर ही कहेंगे। शिवधनुषके तोड़नेपर ही अर्थात् प्रतिज्ञा पूर्ण होने के बाद ही जयमाल पहनाया गया।
'कथा सुहाई' अर्थात् कथा अत्यंत सुहावनी/रोचक है। अन्य स्वयंवरोंकी कथासे हटकर इसमें विशेष विशेषता है। यह केवल धनुषभंगकी ही कथा नहीं है किन्तु इसमें एक दिन पहले पुष्पवाटिकामें परस्पर प्रेमावलोकनादि भी है और फिर दूसरे ही दिन उन्हींके हाथों धनुभंगका होना तो वक्ता - श्रोता और दर्शक सभीके आनन्दको अनन्तगुणित कर देता है, सब जय-जय-कार कर उठते है। 'राम बरी सिय भंजेउ चापा'; अतः सीय स्वयंबर कथा सुहाई कहा। दूसरे, श्रीरामकथाको भी गोस्वामीजी 'सुहाई'कह आये हैं; जैसा कि- 'कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई' अब श्रीसीताजीकी कथाको 'सुहाई' कह रहे हैं ।
सीयस्वयंवरकथा वस्तुतः श्रीसीताजीकी कथा है। इसके पहले गोस्वामीजी कहते है कि रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई।। अर्थात् 'रघुबर जन्म' भी सुहाई है और यहाँ 'सीय स्वयंबर' भी सुहाई ही है , क्योंकि पुत्रका जन्म सुखदायी होता है।
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना।
मानहु ब्रह्मानंद समाना॥
और कन्याका विवाह सुखदायी होता है । लोकमें जन्मसे विवाह कहीं सुन्दर माना जाता है, इससे 'सीय स्वयंबर कथा' को 'सुहाई' कहा।सरित सुहावनि 'सो छबि छाई ' का भाव यह है कि सीयस्वयंवरकथासे ही रामयशसे भरी हुई इस कविताकी शोभा है;
यथा - 'बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। 'सीयस्वयंवरकथामें युगलमूर्तिका छबिवर्णन भरा पड़ा है,
जैसा कि आप देखें ---
भाल बिसाल तिलक झलकाही ।
कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।
यही नहीं इस पूरे प्रसंग में बीसों बार 'छबि 'शब्दकी आवृत्ति है । यहींकी झाँकीमें 'महाछबि' शब्दका प्रयोग हुआ है। यथा - 'नख सिख मंजु महाछबि छाए । , 'छबिगन मध्य महाछबि जैसे।' गोस्वामीजी कहते हैं कि छबिका सार भाग यहीं है। जैसा कि-
'दूलह राम सीय दुलही री।
"सुषमा सुरभि सिंगार छीर दुहि
मयन अमियमय कियो है दही री।
मथि माखन सियराम सँवारे
सकल भुवन छबि मनहुँ मही री। '
अतः यहां स्पष्ट है कि कवितासरित् की छबि सीयस्वयंवर ही है।
'सरित सुहावनि' कहनेका भाव यह है कि कीर्ति नदी तो
स्वयं सुहावनी है, स्वयंवरकथा कीर्ति नदीका श्रृंगार है।
फुलवारीकी कथा ही श्रीजानकीजीके स्वयंवरकी कथा है (क्योंकि स्वयंवर ढूँढ़कर हृदयमें उसे पतिरूपसे रखना यहाँ ही पाया जाता है और आगे तो प्रतिज्ञा एवं जयमालस्वयंवर है। केवल 'सीय स्वयंवर' यही है) जो इस नदीकी शोभित छबि है। इसे छबि कहकर जनाया कि कविता-सरितामें पुष्पवाटिकाकी कथा सर्वोपरि है, इसीसे इसे नदीका श्रृंगार कहा। बात जब सीता सौंदर्य की आती है तो आप इन पक्तियों पर जरूर ध्यान देवें की जगजननी मां सीता की छबि कैसी हो सकती है ।
'जौं छबि सुधा पयोनिधि होई।
परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू।
मथै पानि पंकज निज मारू॥
एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥
वास्तव में सीता और राम के समतूल कोई दूजा हो ही नहीं सकता,तभी तो राम से राम सिया सी सिया ।और यह सिय स्वयंबर कथा सुहाई।सरित सुहावनि सो छबि छाई।। कहकर गोस्वामीजी में इस कथा की महत्ता को
प्रतिपादित किया।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।
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