मानस चर्चा"श्री रामजी को राम कथा तुलसी सी प्रिय है"
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी । तुलसिदास हित हिय हुलसी सी ॥
श्रीरामजीको यह कथा पवित्र तुलसीके समान प्रिय है। मुझ तुलसीदासके हितके लिये हुलसी माता एवं हृदयके आनन्दके समान है।
' रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी' इति । 'तुलसी' पवित्र है और श्रीरामजीको प्रिय है।तुलसीका पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पावन हैं। जैसा कि पद्म पुराण में कहा भी गया है-
पत्रं पुष्पं फलं मूलं शाखा त्वक् स्कन्धसंज्ञितम् । तुलसीसम्भवं सर्वं पावनं मृत्तिकादिकम् ॥'
वह इतनी पवित्र है कि यदि मृतकके दाहमें उसकी एक भी लकड़ी पहुँच जाय तो उसकी मुक्ति हो जाती है। यथा - 'यद्येकं तुलसीकाष्ठं मध्ये काष्ठस्य तस्य हि ।
दाहकाले भवेन्मुक्तिः कोटिपापयुतस्य च ॥'
तुलसीकी जड़में ब्रह्मा, मध्यभागमें भगवान् जनार्दन और मंजरीमें भगवान् रुद्रका निवास है । इसीसे वह पावन मानी गयी है। दर्शनसे सारे पापोंका नाश करती है, स्पर्शसे शरीरको पवित्र करती, प्रणामसे रोगोंका निवारण करती, जलसे सींचनेपर यमराजको भी भय पहुँचाती है और भगवान्के चरणोंपर चढ़ानेपर मोक्ष प्रदान करती है। यथा - ' या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी । प्रत्यासत्ति विधायिनी भगवतः कृष्णस्य संरोपिता
न्यस्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नमः ॥' प्रियत्व यथा -' तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया। भगवान्को तुलसी कैसी प्रिय है, यह बात स्वयं भगवान्ने अर्जुनसे कही है। तुलसीसे बढ़कर कोई पुष्प, मणि, सुवर्ण आदि उनको प्रिय नहीं है। लाल, मणि, मोती, माणिक्य, वैदूर्य और मूँगा आदिसे भी पूजित होकर भगवान् वैसे संतुष्ट नहीं होते, जैसे तुलसीदल, तुलसीमंजरी, तुलसीकी लकड़ी और इनके अभावमें तुलसीवृक्षके जड़की मिट्टीसे
पूजित होनेपर होते हैं। भगवान् तुलसी- काष्ठकी धूप, चन्दन आदिसे प्रसन्न होते हैं तब तुलसी - मंजरीकी तो बात हीक्या ?
'तुलसी' इतनी प्रिय क्यों है, इसका कारण यह भी है कि ये लक्ष्मी ही हैं, कथा यह है कि सरस्वतीने लक्ष्मीजीको शाप दिया था कि तुम वृक्ष और नदीरूप हो जाओ । यथा - ' शशाप वाणी तां पद्मां महाकोपवती सती ।
वृक्षरूपा सरिद्रूपा भविष्यसि न संशयः ॥ '
पद्माजी अपने अंशसे भारतमें आकर पद्मावती नदी और
तुलसी हुईं। जैसा कि ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखण्ड में कहा गया है -
'पद्मा जगाम कलया सा च पद्मावती नदी ।
भारतं भारतीशापात्स्वयं तस्थौ हरेः पदम् ॥'
'ततोऽन्यया सा कलया चालभज्जन्म भारते । धर्मध्वजसुतालक्ष्मीर्विख्यातातुलसीतिच॥'
पुनः, तुलसीके समान प्रिय इससे भी कहा कि श्रीरामचन्द्रजी जो माला हृदयपर धारण करते हैं,
उसमें तुलसी भी अवश्य होती है। गोस्वामीजीने ठौर-ठौरपर इसका उल्लेख किया है। यथा -
'उर श्रीवत्स रुचिर बनमाला । '
'कुंजरमनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल ॥' 'सरसिज लोचन बाहु बिसाला ।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥'
वनमालामें प्रथम तुलसी है, यथा-
'सुंदर पट पीत बिसद भ्राजत बनमाल उरसि तुलसिका प्रसून रचित बिबिध बिधि बनाई ॥ ' पुनः,
'तुलसी - सम प्रिय' कहकर सूचित किया कि श्रीजी भी इस कथाको हृदयमें धारण करती हैं।
तुलसीकी तुलनाका भाव यहां यह भी है कि जो कुछ कर्म-धर्म तुलसीके बिना किया जाता है वह सब निष्फल हो जाता है। इसी प्रकार भगवत्कथाके बिना जीवन व्यर्थ हो जाता है। आगे कहा गया कि -हिय हुलसी सी'
बृहद्रामायणमाहात्म्यमें गोस्वामीजीकी माताका नाम 'हुलसी' और पिताका नाम अम्बादत्त दिया है। पुनः-
'सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहत अस होय । गोद लिये हुलसी फिरैं तुलसी सो सुत होय ॥'
इस दोहेके आधारपर भी 'हुलसी' ही गोस्वामीजी की माताका है। वेणीमाधवदासकृत 'मूल गुसाईंचरित' में
भी गोस्वामीजी की माताका नाम हुलसी लिखा है। यथा - 'उदये हुलसी उद्घाटिहि ते ।
सुर संत सरोरुह से बिकसे', हुलसी-सुत तीरथराज गये॥ ' ' हुलसी' माताका नाम होनेसे भाव यह होता हैकि यह कथा 'मुझ तुलसीदासका हृदयसे हित करनेवाली 'हुलसी' माताके समान है।' अर्थात् जैसे माताके हृदयमें हर समय
बालकके हितका विचार बना रहता है वैसे ही यह कथा सदैव मेरा हित करती है। तुलसीदास अपने
हितके लिये रामकथाको माता हुलसीके समान कहकर जनाते हैं कि पुत्र कुपूत भी हो तो भी माताका
स्नेह उसपर सदा एकरस बना रहता है। 'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।' और 'हुलसी' माताने
हित किया भी। पिताने तो त्याग ही दिया । जैसा कि मूल गुसाईंचरित में कहा भी गया है -
'हम का करिबे अस बालक लै ।
जेहि पालै जो तासु करै सोइ छै ॥
जनने सुत मोर अभागो महीं ।
सो जिये वा मरै मोहिं सोच नहीं ॥
माताने सोचा कि यह मूलमें पैदा हुआ है और माता-पिताका घातक है - यह समझकर इसका पिता इसको कहीं फेंकवा न दे, अतएव उसने बालक को दासीको सौंपकर उसको घर भेज दिया और बालकके कल्याणके लिये देवताओंसे प्रार्थना की। यथा -
'अबहीं सिसु लै गवनहु हरिपुर ।
नहिं तो ध्रुव जानहु मोरे मुये।
सिसु फेकि पवारहिंगे भकुये ॥
सखि जानि न पावै कोई बतियाँ।
चलि जायहु मग रतियाँ - रतियाँ ॥
तेहि गोद दियो सिसु ढारस ।
निज भूषन दै दियो ताहि पठै ॥
चुपचाप चली सो गई सिसु लै ।
हुलसी उर सूनु बियोग फबै ॥
गोहराइ रमेस महेस बिधी ।
बिनती करि राखबि मोर निधी ॥ ५ ॥ मूल गुसाईंचरित के इस उद्धरणमें माताके हृदय भाव झलक रहे हैं । यहां यह तो स्पष्ट ही है कि 'जैसे हुलसीने अपने उरसे उत्पन्नकर स्थूलरूपका पालन किया वैसे ही रामायण अर्थात् यह राम कथा अपने उरसे उत्पन्न करके आत्मरूपका पालन करेगी और सभी मानस प्रेमियों का कल्याण ही करेगी।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।
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