रविवार, 30 जून 2024

मानस चर्चा "अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली"


मानस चर्चा "अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली"
तेहि के बचन मानि बिस्वासा।
तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा।।
निर्गुन निलज कुबेष कपाली।
अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली ॥ 
अर्थात् नारदजी के वचनोंपर विश्वास मानकर तुम ऐसेको पति बनाना चाहती हो जो जन्मसे ही स्वाभाविक ही उदासीन है, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, प्रेतों और मनुष्योंकी खोपड़ियोंकी मालापहननेवाला मुण्डमालधारी, कुलहीन, घरबार रहित, नंगा और सर्पोको सारे शरीरमें लपेटे रहनेवाला है इस प्रकार कोई भक्त वो भी सप्तऋषि
महादेव के बारे में कैसे कह सकते है बहुत अचंभित करने वाली बात है सच में यह शिव निंदा कभी नहीं हो सकता वास्तव में यहां एक अलंकार का प्रयोग किया गया है जिसका नाम है ब्याज स्तुति अर्थात् जब हम निंदा के बहाने प्रशंसा करते हैं आगे इस बात को हम अवश्य जानेगें। उसके पहले कुछ बातों को पहले समझते हैं।
प्रथम  'तेहि के बचन '  कहकर वक्ता की जबरदस्त ऐसी की तैसी की गई ।भाव यह कि कपटी, अवगुणी, मोहमाया, दयारहित मनुष्य विश्वास करने योग्य नहीं होता, तुमने ऐसे मनुष्यका विश्वास कैसे कर लिया? यहाँ उपदेष्टा नारदजी की निन्दा की। बात नहीं  बनती है तो आगे वरकी निन्दा करते हैं। पार्वतीजीने पहले नारदजी के वचनको सत्य मानना कहा था तब शिवजीको पतिरूपमें वरण करनेकी बात कही थी; यथा 'नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहि उड़ना।देखहु मुनि अबिबेकु हमारा चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥ '
अतः उसी क्रमसे ऋषियोंने प्रथम उपदेष्टाकी निन्दा की, यदि पार्वतीजी इसे सुनकर नारदवचनको असत्य
मान लेतीं तब तो आगे कहनेकी आवश्यकता ही न रह जाती, तब वरकी । वर  अर्थात् शिवाजी की बात आती है तो मानस के साथ ही साथ पार्वतीमंगलमें  भी गोस्वामीजीने शिव स्वरूप को वरवै छन्दमें यों लिखा है- 
'कहहु काह सुनि रीझेहु बर अकुलीनहिं । 
अगुनअमान अजात मातु-पितु-हीनहिं ॥
' - जिसके अनुसार 'अकुल' का अर्थ 'अकुलीन' या 'अजाति' होना पाया जाता है। 'सहज उदासा' और 'अगेह' कहकर जनाया कि उनको किसी का घर नहीं भाता, कहीं नदी तट पर श्मशान में पड़े रहते हैं जैसी उदासियों की रीति है; 
'कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी।
बसहिं ज्ञानरत मुनि संन्यासी ।' 
क्योंकि वहाँ सदा मृतक शरीरोंको देखते रहने से आत्म बुद्धि का विस्मरण नहीं होने पाता । 'निर्गुण' से
जनाया कि वर होने योग्य उनमें एक भी गुण नहीं है। भाँग, धतूरा आदि खाते हैं। तुम उत्तम शीलादि गुणोंसे
युक्त हो तब निर्गुणी तुम्हारे योग्य कैसे हो सकता है ? 'निलज' निर्लज्ज  हैं अर्थात् भूत, प्रेत, पिशाच,
पिशाचिनियों के साथ नंगे नाचते हैं, पिशाचियों को घूरते हैं; ऐसे के साथ तुम भी लज्जित होगी । 'कुवेष' से चिता की अपवित्र भस्म लगाये, पंचमुख, तीन नेत्र, जटाधारी, गज- व्याघ्रचर्मधारी  व्याघ्रचर्म पहने और गजचर्म ओढ़े 
इत्यादि सब कहे । 'कपाली' हैं अर्थात् मनुष्यों, प्रेतों और सतीके मरनेपर सतीके भी मुण्डोंकी माला धारण
करते हैं। 'अकुल' हैं अर्थात् उनके माँ-बापका ठिकाना नहीं, वे अकुलीन हैं तब कुलीन पुरुषोंके साथ वे बैठ नहीं सकते । अथवा, कुल नहीं है, तुम्हारे सास, श्वशुर, ननद, भौजाई इत्यादि कोई भी नहीं है, ऐसा घर किस कामका है? 'अगेह' हैं, घर नहीं है; अर्थात् वहाँ तुम्हारे रहनेका कहीं ठिकाना नहीं, तब फिर रहोगी कहाँ ? 'दिगम्बर' हैं, उनके
पास कपड़ा भी नहीं, तब तुम्हें ओढ़ने-पहननेको कहाँसे मिलेगा ? 'ब्याली' हैं? अर्थात् सर्पोंको सब अंगों में
लपेटे रहते हैं, नागराज वासुकिको यज्ञोपवीतरूपमें धारण किये रहते हैं और इसी रूपमें वे पृथ्वीपर भ्रमण करते
रहते हैं। सबका आशय यह हुआ कि विवाह घर, वर और कुल देखकर किया जाता है, सो ये तीनों ही बातें
प्रतिकूल हैं। न घर अच्छा, न कुल और न वर ही अच्छा। 
यहाँ व्याजस्तुति अलंकार से स्तुतिपक्षमें ये सब विशेषण हैं गुण हैं । यहाँ तक कि देवर्षि नारद तथा योगीश्वर शिवजी के विषय में जो बातें कही गयी हैं, उनके स्तुतिपक्षके भाव यहाँ एकत्र दिये जाते हैं-शिवपुराणके इस श्लोक को देखें - ' लब्ध्वा तदुपदेशं हि त्वमपि प्राज्ञसम्मता ।
वृथैव मूर्खीभूता त्वं तपश्चरसिदुष्करम्॥ 
यदर्थमीदृशं बाले करोषि विपुलं तपः ।
सदोदासी निर्विकारो मदनारिर्न संशयः ॥
अमंगलवपुर्धारी निर्लज्जोऽसदनोऽकुली। 
कुवेषी भूतप्रेतादिसंगी नग्नो हि शूलभृत् ॥'  
अर्थात् तुम विदुषी होकर भी उनका उपदेश पाकर मूर्खा होकर व्यर्थ ही कठिन तप कर रही हो। जिसके लिये तुम कठिन तप कर रही हो वह कामारि सदा उदासी, निर्विकार, अमंगलवपुधारी, निर्लज्ज, अगेह, अकुली, कुवेषवाला, भूतप्रेतोंका साथ करनेवाला, नग्न और त्रिशूलधारी है। सदा उदासी, निर्लज्ज, कुवेषी, अकुली, अगेह और नग्न तो स्पष्ट ही मानसमें हैं। मानसके निर्गुण, कपाली और व्यालीके बदले शिवपुराणमें निर्विकार,
अमंगलवपुधारी, भूतप्रेतादिसंगी और शूलभृत् हैं ।
शिवजीके विशेषणोंके साधारण ऊपरी भाव कुछ ऊपर  दिये गये और कुछ अगली चौपाई में---
'कहहु कवन सुख अस बर पाए' में दिये जायँगे । स्तुतिपक्ष अर्थात् प्रशंसा के भाव कुछ पूर्व 'जोगी जटिल अकाम मन 
में दिये गये हैं और कुछ यहाँ पुनः दिये जाते हैं । — 'सहज उदासी' अर्थात् कोई शत्रु-मित्र नहीं, विषय-वासना छू
भी नहीं सकती, अतः परमभक्त हैं। 'कुवेष' अर्थात् पृथ्वीपर ऐसा वेष किसीका  भेष नहीं है। कु कहते है पृथ्वी को वेष   कहते है रूप रंग यानि स्वरूप  को अर्थात् उनके जैसा स्वरूप इस धरती पर किसी का नहीं है।'ब्याली' अर्थात् शेषजीको सदा भूषणसरीखा धारण किये रहते हैं, यथा 'भुजगराज भूषण', 'लसद् भाल बालेंदु कंठे भुजंगा - ऐसे सामर्थ्यवान् और भगवान्‌के कीर्तनरसिकके संगी। 'कपाली' अर्थात् जिनकी समाधि कपाल अर्थात् दशमद्वारमें रहती है। निर्गुण-गुणातीत। अकुल अर्थात् अजन्मा हैं। 'दिगम्बर' और 'अगेह' से परम विरक्त संत जनाया। 'निलज' से अमान अभिमानरहित जनाया, ये सारे लक्षण होते है अद्वितीय ,अप्रतिम ,परम संत के। इस प्रकार यहाँ व्याजस्तुति अलंकार है जिसके माध्यम से यहां शिव प्रशंसा अर्थात् महादेव की स्तुति ही की गई है।
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् ।
सदावसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें