प्रकृत, प्रस्तुत या उपमेय का प्रतिषेध/निषेध कर अन्य अप्रकृत,अप्रस्तुत या उपमान का आरोप या स्थापना किया जाए तो 'अपह्नुति अलंकार' होता है.
अपह्नुति का अर्थ है वारण, निषेध करना, छिपाना, प्रगट न होने देना आदि. इसलिए इस अलंकार में प्रायः निषेध देखा जाता है.
प्रकृतं प्रतिषिध्यान्यस्थापनं स्यादपहुति:- विश्वनाथ : साहित्यदर्पण।
उदाहरण:-
नहि पलाश के पुहुप ये ,हैं ये जरत अंगार।
इस अलंकार में न, नहि, नहीं, नाही ,ना,मा आदि निषेधवाचक शब्दों की सहायता से उपमेय का निषेध कर उपमान का आरोप या उपमान का आरोप करते हुवेे उपमेय का निषेध किया जाता है।
इसको हम ऐसे भी कह सकते हैं कि कही निषेध पूर्वक उपमान का आरोप किया जाता है तो कही आरोप पूर्वक उपमेय का निषेध किया जाता है। दोनों स्थितियों में उपमेय का निषेध ही होता है।
अतः यही निषेध पूर्वक आरोप और आरोप पूर्वक निषेध दो भेद भी हो जाते हैं।जिन्हें क्रमशः शाब्दी और आर्थी भी कहते हैं।
इस अलंकार के अनेक विद्वानों द्वारा अनेक भेद माने जाते हैं परन्तु ये दो भेद सर्वमान्य हैं।
अपह्नुति के मुख्यतः दो भेद हैं
(क) शाब्दी अपह्नुति - जहाँ शब्दशः निषेध किया जाय।
उदाहरण:-
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला।बन्धु न होइ मोर यह काला।
(ख) आर्थी अपह्नुति- जहाँ छल, बहाना आदि के द्वारा निषेध किया जाय।
(ख) आर्थी अपह्नुति- जहाँ छल, बहाना आदि के द्वारा निषेध किया जाय।
उदाहरण:-
गौर सरीर स्यामु मन माही।कालकूट मुख पय मुख नाही।।
कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण उदाहरण भी देखें-----
1.तात राम नहि नर भूपाला।
भुवनेश्वर कालहू कर काला।
2.कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं।
किन्हीं प्रनामु तुम्हारिहि नाईं।।
एक और3.वह आवे तब शादी होय,
उस दिन और न दूजा कोय।
मीठे लागे उसके बोल,
हे सखि साजन ना सखि ढोल।।
।।धन्यवाद।।
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