सहस नाम सम सुनि सिव बानी।जपि जेईं पिय संग भवानी॥
श्रीशिवजीके ये वचन सुनकर कि एक 'राम' नाम (विष्णु) सहस्रनामके समान है, श्रीपार्वतीजी तबसे बराबर श्रीरामनामको अपने प्रियतम पतिके साथ सदा जपती हैं ॥
श्रीपार्वतीजीकी इस प्रसंगके सम्बन्धकी कथा पद्मपुराण उत्तरखण्ड अ० २५४ में इस प्रकार से है कि एकबार
श्रीपार्वतीजीने श्रीवामदेवजीसे वैष्णवमन्त्रकी दीक्षा ली थी। फिर श्रीशिवजीने श्रीपार्वतीजीसे कहा कि हम
कृतकृत्य हैं कि तुम ऐसी वैष्णवी भार्या हमें मिली हो। तुम अपने गुरु महर्षि वामदेवजीके पास जाकर उनसे पुराणपुरुषोत्तमकी पूजाका विधान सीखकर उनका अर्चन करो। श्रीपार्वतीजीने जाकर गुरुदेवजीसे प्रार्थना की तब वामदेवजीने श्रेष्ठ मन्त्र और उसका विधान उनको बताया और विष्णुसहस्रनामका नित्य पाठ करनेको कहा। जैसा कि कहा भी गया है—
'इत्त्युक्तस्तु तया देव्या वामदेवो महामुनिः ।
तस्यै मन्त्रवरं श्रेष्ठं ददौ स विधिना गुरुः ॥'
नाम्नां सहस्त्रविष्णोश्च प्रोक्तवान् मुनिसत्तमः ।'
एक समयकी बात है कि द्वादशीको सदा शिवजी जब भोजनको बैठे तब उन्होंने पार्वतीजीको साथ भोजन करनेको बुलाया। उस समय वे विष्णुसहस्रनामका पाठ कर रही थीं, अतः उन्होंने निवेदन किया कि अभी मेरा पाठ समाप्त नहीं हुआ। तब शिवजी बोले कि तुम धन्य हो कि भगवान् पुरुषोत्तममें तुम्हारी ऐसी भक्ति है और कहा कि
'रमन्ते योगिनोऽनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि ।
तेन रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥ '
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ '
रामेत्युक्त्वा महादेवि भुङ्क्ष्व सार्धंमयाधुना ॥
अर्थात् योगीलोग अनन्त सच्चिदानन्द परमात्मामें रमते हैं, इसीलिये 'राम' शब्द को ही परब्रह्म कहा जाता है ॥ हे रमे ! हे सुन्दरि ! मैं राम-राम इस प्रकार जप करते हुए अति सुन्दर श्रीरामजीमें अत्यन्त रमता हूँ। तुम भी अपने मुखमें इस राम-नामका वरण करो,क्योंकि विष्णुसहस्रनाम इस एक रामनामके तुल्य है ॥ अतः महादेवि ! एक बार 'राम' ऐसा उच्चारण कर मेरे साथ आकर भोजन करो ॥ यह सुनकर श्रीपार्वतीजीने 'राम' नाम एक बार उच्चारण कर शिवजीके साथ भोजन कर लिया और तबसे पार्वतीजी बराबरश्रीशिवजीके साथश्री राम नाम जपा करती हैं। जैसा कि- वसिष्ठ कहा है-
'ततो रामेति नामोक्त्वा सह भुक्त्वाथ पार्वती ।
रामेत्युक्त्वा महादेवि शम्भुना सह संस्थिता ॥ '
मानस की यह पक्ती तो जन जन जानता ही है कि - 'मंगल भवन अमंगल हारी ।
उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥'
'जपि जेईं' पाठका अर्थ होगा जप किया और 'पतिके साथ जाकर भोजन कर लिया' । 'सिव बानी' शिववाणी कहनेका भाव यह है कि यह वाणी कल्याणकारी है, ईश्वरवाणी है, मर्यादायुक्त है; इसीसे बेखटके श्रीपार्वतीजीको निश्चय हो गया। वे जानती हैं कि
संभु गिरा पुनि मृषा न होई।'
सिव सर्बग्य जान सबु कोई।।
सनातन धर्म को मानने वाले के लिए पद्मपुराणकी उपर्युक्त कथासे यह शंका भी दूर हो जाती है कि 'क्या पतिके रहते हुए स्त्री दूसरेको गुरु कर सकती है ?' जगद्गुरु श्रीशंकरजीके रहते हुए भी श्रीपार्वतीजीने वैष्णवमन्त्रकी दीक्षा महर्षि वामदेवजीसे ली। श्रीनृसिंहपुराणमें श्रीनारदजीने श्रीयाज्ञवल्क्यजीसे कहा है कि पतिव्रताओंको श्रीरामनाम- कीर्तनका अधिकार है, इससे उनको इस लोक और परलोकका सब सुख प्राप्त हो जाता है। जैसा की कहा गया है-
'पतितानां सर्वासां रामनामानकीर्तन
ऐहिकाममिकं सौख्यं दायकं सर्वशोभते ॥'
यह अद्भुत राम नाम की महत्ता
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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