रविवार, 30 जून 2024

मानस चर्चा "दारु नारि"

 मानस चर्चा "दारु नारि"
प्रसंग
सारद दारु नारि सम स्वामी । 
राम सूत्रधर अंतरजामी ॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी ।
कबि उर अजिर नचावहिं बानी ।।
 दारु नारि क्या है? यह है लकड़ीकी बनी हुई स्त्री-कठपुतली। पूरी दुनिया है दारु नारि।। आइए उक्त चौपाई के आधार पर इस विषय पर चर्चा करें उसके पहले जानते हैं की उक्त पक्तियांं क्या कहती हैं।
उक्त पक्तियों  के अनुसार सरस्वतीजी कठपुतलीके समान हैं । अन्तर्यामी स्वामी श्रीरामजी सूत्रधर हैं ॥ अपना जन जानकर जिस कविपर वे कृपा करते हैं उसके हृदयरूपी आँगनमें  वे वाणी को नचाते हैं ॥ 
"कठपुतलीका स्वामी होता है जो उसे सूत्र धरकर नचाता
है । यहाँ श्रीरामजी शारदाके स्वामी हैं, अन्तर्यामीरूपसे उसे नचाते हैं। तात्पर्य कि अन्तर्यामी श्रीरामजी शारदाके
स्वामी हैं, शारदाको प्रेरित करते हैं । दाशरथि श्रीरामजी एकपत्नीव्रत श्रीसीताजीके ही स्वामी हैं, इसीसे अन्तर्यामीरूप पृथक् कहा। वाणी जड़ है, अन्तर्यामी प्रेरणा करता है तब निकलती है, इसीसे वाणीको कठपुतलीके समान कहा; यथा-
 'बिषय करन सुर जीव समेता।
 सकल एक तें एक सचेता ।
 सबकर परम प्रकासक जोई।
 राम अनादि अवधपति सोई ॥''स्वामी' कहकर यह भी जनाया कि मेरे ही स्वामी सरस्वतीके नचानेवाले हैं, अतः मुझपर कृपा करके वे उसे अच्छी तरह नचावेंगे। 'अंतरजामी' का भाव कि कठपुतलीको नचानेवाला छिपकर बैठता है और सूत्रपर कठपुतलीको नचाता है तथा श्रीरामजी अन्तर्यामी रूपसे वाणीको नचाते हैं। ये भी छिपे बैठे हैं, अन्तर्यामी रूप देख नहीं पड़ता । आप शिवजी को सुने कि वे मां पार्वतीजी से कहते हैं --
 'उमा दारु जोषित की नाईं । सबहि नचावत राम गोसाईं।  इस चौपाईमें ग्रन्थकारने श्रीरामजीका अन्तर्यामी रूपसे सबको नचाना कहा ही है ।गीतामें भी कहा है 
 'ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
 भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ ' 
 अर्थात् शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोंके अनुसार भ्रमाता हुआ सब प्राणियों के हृदयमें स्थित है। और  भी कहा है कि 
'ईशस्य हि वशे लोके योषा दारुमयी यथा' 
अर्थात् कठपुतली समान यह सम्पूर्ण लोक ईश्वरके वशीभूत है । यहाँ नचानेवाला, नाचनेवाला और नचानेका स्थान तीनों उत्कृष्ट हैं— श्रीरामजी ऐसे नचानेवाले, शारदा ऐसी कठपुतली और 'जन- उर' आँगन है।
 'राम सूत्रधर' हैं। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी' में श्रीरामजीको 'गिरापति' कह आये हैं,
उसी अर्थको यहाँ पुनः ज्ञापकहेतुद्वारा युक्तिसे समर्थन किया है अर्थात् वाणीके सूत्रधर हैं, उसे नचाते हैं, इससे
जान पड़ा कि वे उसके स्वामी हैं। 
 कठपुतली तार या घोड़ेके बालके सहारे नचायी जाती है, जिसे 'सूत्र' कहते हैं । कठपुतलीकोnनचानेवाला ‘सूत्रधर’ परदेमें छिपकर बैठता है। वैसे ही सूत्रधर राम गोसाईं देख नहीं पड़ते। साधारण पुरुष केवल सरस्वतीकी क्रिया देखते हैं।   'सारद दारु नारि' की व्याख्यामें एक भजन  बहुत भी   उत्तम कोटि का प्रस्तुत है- 
'धनि कारीगर करतारको पुतलीका खेल बनाया। 
बिना हुक्म नहि हाथ उठावे बैठी रहे नहिं पार बसावे ॥ हुक्म होइ तो नाच नचावै जब आप हिलावे तार को। 
 जिसने यह जगत रचाया ॥ १ ॥ 
जगदीश्वर तो कारीगर है पाँचों तत्त्वकी पुतली नर है।
नाचे कूदे नहि वजर है पुतलीघर संसारको । 
बिन ज्ञान नजर नहि आया ॥ 
उसके हाथमें सबकी डोरी कभी नचावे काली गोरी । किसीकी नहि चलती बरजोरी तज दे झूठ बिचारको ।
 नहिं पार किसीने पाया ॥ 
परलयमें हो बंद तमासा फेर दुबारा रच दे खासा । 'छज्जूराम' को हरिकी आसा है धन्यवाद हुशियारको । आपे में आप समाया ॥ 
'धनि कारीगर करतारको पुतलीका खेल बनाया। 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली"


मानस चर्चा "अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली"
तेहि के बचन मानि बिस्वासा।
तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा।।
निर्गुन निलज कुबेष कपाली।
अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली ॥ 
अर्थात् नारदजी के वचनोंपर विश्वास मानकर तुम ऐसेको पति बनाना चाहती हो जो जन्मसे ही स्वाभाविक ही उदासीन है, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, प्रेतों और मनुष्योंकी खोपड़ियोंकी मालापहननेवाला मुण्डमालधारी, कुलहीन, घरबार रहित, नंगा और सर्पोको सारे शरीरमें लपेटे रहनेवाला है इस प्रकार कोई भक्त वो भी सप्तऋषि
महादेव के बारे में कैसे कह सकते है बहुत अचंभित करने वाली बात है सच में यह शिव निंदा कभी नहीं हो सकता वास्तव में यहां एक अलंकार का प्रयोग किया गया है जिसका नाम है ब्याज स्तुति अर्थात् जब हम निंदा के बहाने प्रशंसा करते हैं आगे इस बात को हम अवश्य जानेगें। उसके पहले कुछ बातों को पहले समझते हैं।
प्रथम  'तेहि के बचन '  कहकर वक्ता की जबरदस्त ऐसी की तैसी की गई ।भाव यह कि कपटी, अवगुणी, मोहमाया, दयारहित मनुष्य विश्वास करने योग्य नहीं होता, तुमने ऐसे मनुष्यका विश्वास कैसे कर लिया? यहाँ उपदेष्टा नारदजी की निन्दा की। बात नहीं  बनती है तो आगे वरकी निन्दा करते हैं। पार्वतीजीने पहले नारदजी के वचनको सत्य मानना कहा था तब शिवजीको पतिरूपमें वरण करनेकी बात कही थी; यथा 'नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहि उड़ना।देखहु मुनि अबिबेकु हमारा चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥ '
अतः उसी क्रमसे ऋषियोंने प्रथम उपदेष्टाकी निन्दा की, यदि पार्वतीजी इसे सुनकर नारदवचनको असत्य
मान लेतीं तब तो आगे कहनेकी आवश्यकता ही न रह जाती, तब वरकी । वर  अर्थात् शिवाजी की बात आती है तो मानस के साथ ही साथ पार्वतीमंगलमें  भी गोस्वामीजीने शिव स्वरूप को वरवै छन्दमें यों लिखा है- 
'कहहु काह सुनि रीझेहु बर अकुलीनहिं । 
अगुनअमान अजात मातु-पितु-हीनहिं ॥
' - जिसके अनुसार 'अकुल' का अर्थ 'अकुलीन' या 'अजाति' होना पाया जाता है। 'सहज उदासा' और 'अगेह' कहकर जनाया कि उनको किसी का घर नहीं भाता, कहीं नदी तट पर श्मशान में पड़े रहते हैं जैसी उदासियों की रीति है; 
'कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी।
बसहिं ज्ञानरत मुनि संन्यासी ।' 
क्योंकि वहाँ सदा मृतक शरीरोंको देखते रहने से आत्म बुद्धि का विस्मरण नहीं होने पाता । 'निर्गुण' से
जनाया कि वर होने योग्य उनमें एक भी गुण नहीं है। भाँग, धतूरा आदि खाते हैं। तुम उत्तम शीलादि गुणोंसे
युक्त हो तब निर्गुणी तुम्हारे योग्य कैसे हो सकता है ? 'निलज' निर्लज्ज  हैं अर्थात् भूत, प्रेत, पिशाच,
पिशाचिनियों के साथ नंगे नाचते हैं, पिशाचियों को घूरते हैं; ऐसे के साथ तुम भी लज्जित होगी । 'कुवेष' से चिता की अपवित्र भस्म लगाये, पंचमुख, तीन नेत्र, जटाधारी, गज- व्याघ्रचर्मधारी  व्याघ्रचर्म पहने और गजचर्म ओढ़े 
इत्यादि सब कहे । 'कपाली' हैं अर्थात् मनुष्यों, प्रेतों और सतीके मरनेपर सतीके भी मुण्डोंकी माला धारण
करते हैं। 'अकुल' हैं अर्थात् उनके माँ-बापका ठिकाना नहीं, वे अकुलीन हैं तब कुलीन पुरुषोंके साथ वे बैठ नहीं सकते । अथवा, कुल नहीं है, तुम्हारे सास, श्वशुर, ननद, भौजाई इत्यादि कोई भी नहीं है, ऐसा घर किस कामका है? 'अगेह' हैं, घर नहीं है; अर्थात् वहाँ तुम्हारे रहनेका कहीं ठिकाना नहीं, तब फिर रहोगी कहाँ ? 'दिगम्बर' हैं, उनके
पास कपड़ा भी नहीं, तब तुम्हें ओढ़ने-पहननेको कहाँसे मिलेगा ? 'ब्याली' हैं? अर्थात् सर्पोंको सब अंगों में
लपेटे रहते हैं, नागराज वासुकिको यज्ञोपवीतरूपमें धारण किये रहते हैं और इसी रूपमें वे पृथ्वीपर भ्रमण करते
रहते हैं। सबका आशय यह हुआ कि विवाह घर, वर और कुल देखकर किया जाता है, सो ये तीनों ही बातें
प्रतिकूल हैं। न घर अच्छा, न कुल और न वर ही अच्छा। 
यहाँ व्याजस्तुति अलंकार से स्तुतिपक्षमें ये सब विशेषण हैं गुण हैं । यहाँ तक कि देवर्षि नारद तथा योगीश्वर शिवजी के विषय में जो बातें कही गयी हैं, उनके स्तुतिपक्षके भाव यहाँ एकत्र दिये जाते हैं-शिवपुराणके इस श्लोक को देखें - ' लब्ध्वा तदुपदेशं हि त्वमपि प्राज्ञसम्मता ।
वृथैव मूर्खीभूता त्वं तपश्चरसिदुष्करम्॥ 
यदर्थमीदृशं बाले करोषि विपुलं तपः ।
सदोदासी निर्विकारो मदनारिर्न संशयः ॥
अमंगलवपुर्धारी निर्लज्जोऽसदनोऽकुली। 
कुवेषी भूतप्रेतादिसंगी नग्नो हि शूलभृत् ॥'  
अर्थात् तुम विदुषी होकर भी उनका उपदेश पाकर मूर्खा होकर व्यर्थ ही कठिन तप कर रही हो। जिसके लिये तुम कठिन तप कर रही हो वह कामारि सदा उदासी, निर्विकार, अमंगलवपुधारी, निर्लज्ज, अगेह, अकुली, कुवेषवाला, भूतप्रेतोंका साथ करनेवाला, नग्न और त्रिशूलधारी है। सदा उदासी, निर्लज्ज, कुवेषी, अकुली, अगेह और नग्न तो स्पष्ट ही मानसमें हैं। मानसके निर्गुण, कपाली और व्यालीके बदले शिवपुराणमें निर्विकार,
अमंगलवपुधारी, भूतप्रेतादिसंगी और शूलभृत् हैं ।
शिवजीके विशेषणोंके साधारण ऊपरी भाव कुछ ऊपर  दिये गये और कुछ अगली चौपाई में---
'कहहु कवन सुख अस बर पाए' में दिये जायँगे । स्तुतिपक्ष अर्थात् प्रशंसा के भाव कुछ पूर्व 'जोगी जटिल अकाम मन 
में दिये गये हैं और कुछ यहाँ पुनः दिये जाते हैं । — 'सहज उदासी' अर्थात् कोई शत्रु-मित्र नहीं, विषय-वासना छू
भी नहीं सकती, अतः परमभक्त हैं। 'कुवेष' अर्थात् पृथ्वीपर ऐसा वेष किसीका  भेष नहीं है। कु कहते है पृथ्वी को वेष   कहते है रूप रंग यानि स्वरूप  को अर्थात् उनके जैसा स्वरूप इस धरती पर किसी का नहीं है।'ब्याली' अर्थात् शेषजीको सदा भूषणसरीखा धारण किये रहते हैं, यथा 'भुजगराज भूषण', 'लसद् भाल बालेंदु कंठे भुजंगा - ऐसे सामर्थ्यवान् और भगवान्‌के कीर्तनरसिकके संगी। 'कपाली' अर्थात् जिनकी समाधि कपाल अर्थात् दशमद्वारमें रहती है। निर्गुण-गुणातीत। अकुल अर्थात् अजन्मा हैं। 'दिगम्बर' और 'अगेह' से परम विरक्त संत जनाया। 'निलज' से अमान अभिमानरहित जनाया, ये सारे लक्षण होते है अद्वितीय ,अप्रतिम ,परम संत के। इस प्रकार यहाँ व्याजस्तुति अलंकार है जिसके माध्यम से यहां शिव प्रशंसा अर्थात् महादेव की स्तुति ही की गई है।
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् ।
सदावसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा " झखकेतू "

मानस चर्चा " झखकेतू "
एहि बिधि भलेहि' देवहित होई । 
मत अति नीक कहै सबु कोई ॥
अस्तुति' सुरन्ह कीन्हि अति हेतू ।
प्रगटेउ बिषम बान झखकेतू ॥ 
यहां झखकेतू कौन है? इनकी देवताओं ने स्तुति की और ये प्रगट हुवें। हम  आज इस झखकेतू के बारे में चर्चा करेगें। झख  कहते है मछली  को और केतू कहते हैं पताका अर्थात् ध्वजा को।  तो   झखकेतू वे हुवे - जिनकी ध्वजापर मछलीका चिह्न है कहा भी गया है 'कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू'।
झखकेतू से पहले हम  इस  चौपाई को समझतेहैं।
एहि बिधि भलेहि' देवहित होई । 
मत अति नीक कहै सबु कोई ॥
अर्थात् इस तरह भले ही देवताओंका हित होगा  अन्य उपाय नहीं है । यह सुनकर  सब कोई बोल उठे कि सलाह बहुत ही अच्छी है।
अस्तुति' सुरन्ह कीन्हि अति हेतू ।
प्रगटेउ बिषम बान झखकेतू ॥ 
देवताओंने अत्यन्त अनुरागसे कामदेवकी भारी स्तुति की तब  पंचबाण धारी मकरध्वज कामदेव प्रकट हुवे।
एहि बिधि भलेहि देवहित होई ।  'भलेहि' भले ही अर्थात् भलीभाँति  भलाई ही होगी। 'सब कोई कहने लगे कि यह मत बहुत अच्छा है, इस प्रकार देवताओंका पूरा हित होगा।' 'देवहित होई'  । क्या हित होगा ? मुख्य हित तारक-वध है; कहा भी गया है— 'सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ । 'तारक- वधसे देवगण फिर स्ववश बसेंगे। यहां शिव समाधि भंग करने की विधि पर चर्चा हो रही है भाव यह है कि समाधि-भंगके अन्य उपाय भी हैं, पर उनके करनेसे समाधि-भंग होनेपर शिवजी कारणकी खोज करेंगे, देवताओंपर विपत्ति बिना आये न रहेगी। अतः उनसे भली प्रकार हित न होगा । और कामकी उत्पत्ति ही मनः क्षोभके लिये है, अतः उसके समाधि भंग करनेपर कारणकी खोज न होगी ।  'मत अति नीक कहै सब कोई'  । जो मत सबके मनको भाता है, उससे अवश्य कार्य सिद्ध होता है; जैसा कि कहा भी गया है-
'नीक मंत्र सबके मन भावा ।' तात्पर्य कि सब सहमत हुए।
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू ' कामदेवके आविर्भावके लिये अत्यन्त स्नेहसे भारी स्तुति की। हेतु  अर्थात - प्रेम से; जैसा  कि- 'हरषे हेतु हेरि हर ही को ।और भी देखें 'चले संग हिमवंत तब पहुँचावन अति हेतु ॥'  'प्रगटेउ' कहा क्योंकि काम तो सर्वत्र व्यापक है, मनमें ही उसका निवास रहता है, अतः स्तुति करनेपर वहीं प्रकट हो गये । देवगण आर्त थे, इसलिये उन्होंने प्रकर्षरूपसे स्तुति की, नहीं तो कामदेव बुलवा लिये जाते । जैसा कि - 'कामहि बोलि कीन्ह सनमाना ॥'  'बिषम बान'  क्या है? विषम- यहां पाँच  के लिए  आया है । मनमें विषमता अर्थात् विकार उत्पन्न करनेवाले । कठिन जिससे कोई उबर बच न सके कामदेवके बाणोंकी विषमता शिवजी भी न सह सके; यथा - 'छाँड़े बिषम बिसिख उर लागे । छूटि समाधि
संभु तब जागे ॥'  अतः बाणोंको 'विषम' विशेषण दिया।
कामदेव को पंचबाणधारी कहा जाता है। वे पंच बाण क्या हैं - रामवल्लभाशरणजी प्रमाणका एक श्लोक यह बताते थे जो अमरकोशकी टीकामें भी है –
'उन्मादस्तापनश्चैव शोषणस्तम्भनस्तथा । 
सम्मोहनश्च कामश्च बाणाः पञ्च प्रकीर्तिताः ॥ '
इसीको हिन्दी भाषामें यों लिखा गया हैं-
'वशीकरन मोहन कहत आकर्षण कवि लोग। 
उच्चाटन मारन समुझु पंच बाण ये योग ।' श्रीकरुणासिन्धुजी लिखते हैं कि 'आकर्षण, उच्चाटन, मारण और वशीकरण ये चारों कामदेवके धनुष हैं।
कम्पन पनच है और मोहन, स्तम्भन, शोषण, दहन तथा वन्दन - ये पाँच बाण हैं पर सुमनरूप हैं।'  ये पाँच
फूल कौन हैं ? पंजाबीजी बाबा, पं० श्रीरामवल्लभाशरणजी तथा अमरकोश - टीकाके अनुसार वे पाँच पुष्प ये हैं-
'अरविन्दमशोकञ्च चूतं च नव मल्लिका । 
नीलोत्पलं च पञ्चैते पञ्चबाणस्य सायकाः ॥'  
आप हिन्दी में भी देख सकते हैं ---
'कमल केतिक केवड़ा कदम आमके बौर। 
ए पाँचो शर कामके केशवदास न और ॥'
पर किसी-किसीके मतानुसार शब्द,स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँच विकार ही पंचबाण हैं। 
पंचबाण धारण करनेका भाव यह कहा जाता है कि 'यह शरीर पंचतत्त्वों- पृथ्वी, जल, पावक, वायु और आकाशसे ही बना है। इस कारण एक-एक तत्त्वको भेदन करनेके लिये एक-एक बाण धारण किया है। कामदेवके बाण प्राय: पुष्पोंके ही माने गये हैं और श्रीमद्गोस्वामीजीका भी यही मत है। यथा - 'सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे । '  धनुष और बाण दोनों फूलके हैं; यथा - 'काम कुसुम धनु सायक लीन्हें। सकल भुवन अपने बस कीन्हें ॥ ' 'अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई । सुमन धनुष कर सहित सहाई॥' 
विषम बाण और झखकेतु ये दोनों वशीकरण और विजयके आयुध साथ दिखाकर जनाया कि विजय
प्राप्त होगी। मीन वशीकरणका चिह्न माना जाता है। इस कारण से भी यहां झखकेतू ही कहा गया है। झखकेतू से ही संसार का  कल्याण  होगा ऐसा ही सभी का मत है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "गुर के बचन प्रतीति न जेही"

मानस चर्चा "गुर के बचन प्रतीति न जेही"
प्रसंग है,--
नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसौ भवन ऊजरौ नहिं डरऊँ 
गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥ 
अर्थात् –इसी प्रकार मैं पार्वती नारदजीका उपदेश न छोडूंगी। घर बसे या उजड़े, मुझे इसका डर नहीं है।
जिसको गुरुके वचनोंमें विश्वास नहीं है, उसे स्वप्नमें भी सुख और सिद्धि वा, सुखकी सिद्धि सुलभ नहीं
हो सकती ॥ 
सप्तर्षियोंने नारदजीको बुरा-भला कहा । यह पार्वतीजीको बहुत बुरा लगा। इसीसे प्रारम्भमें ही वे उनको बताये देती हैं कि देवर्षि नारद हमारे गुरु हैं, उनके वचन हमारे लिये पत्थरकी लकीरके समान हैं, टाले नहीं टल सकते। 'नारद बचन न मैं परिहरऊँ' कहकर फिर उसका कारण बताती हैं कि 'गुर के बचन प्रतीति न जेही ।  'नारद' शब्द ही गुरुत्वका द्योतक है; क्योंकि
'गुशब्दस्त्वन्धकारस्तु रुशब्दस्तन्निरोधकः ।अन्धकारनिरोधित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते ॥'
के अनुसार हृदयके अन्धकारके नाश करने वाले को 'गुरु' कहते हैं । हृदयका अन्धकार अज्ञान है। अज्ञानका नाश आत्म-परमात्म-ज्ञानसे ही होता है और आत्म-परमात्म-ज्ञान जिनके द्वारा हो, वे ही 'गुरु'
हैं। अत: 'गुर बिनु होइ कि ज्ञान' के अनुसार ज्ञानदाता 'गुरु' कहे जाते हैं और 'नारं ज्ञानं ददातीति नारदः' अर्थात्
'नार' ज्ञान जो दे उसका नाम 'नारद' है। इस व्युत्पत्तिसे नारद और गुरु शब्द एकार्थवाची होनेसे नारदजीको
'गुरु' कहा और 'गुरोराज्ञा गरीयसी' तथा 'आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया'  भी रघुवंश में कहा गया है, के
अनुसार 'नारद बचन न मैं परिहरऊँ। और  गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥ कहा
श्रीगुरुवाक्यपर शिष्यका ऐसा ही दृढ़ विश्वास रहना चाहिये। विश्वासका धर्म दृढ़ता है, यथा 'बटु बिश्वास
अचल निज धर्मा।' वह अवश्य फलीभूत होगा इसमें सन्देह नहीं । शिष्यमें आचार्याभिमान होना परम गुण है,
इष्टप्राप्तिका सर्वोपरि उपाय है और परम लाभ है।  'सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ' । भाव कि मनुष्योंकी कौन कहे, देवताओंको भी स्वप्नमें भी सुख और सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। देवराज इन्द्र और चन्द्रमा - ये लोकपाल भी गुरुकी अवज्ञा करनेसे दुःखी ही हुए ।
शिवपुराणमें गुरुवचनपर चार श्लोक हैं। उनके अनुसार भी गुरु के वचनों पर  जिनको प्रतीति नहीं है उनको दुःख ही दुःख होता है और जिनको प्रतीति है उन्हें सुख
होता है। यथा-
'गुरूणां वचनं पथ्यमिति वेदविदो विदुः ।
गुरूणां वचनं सत्यमिति यद्धृदये न धीः ।
इहामुत्रापि तेषां हि दुःखं न च सुखं क्वचित् ॥
गुरूणां वचनं सत्यमिति येषां दृढा मतिः ।
तेषामिहामुत्र सुखं परमं नासुखं क्वचित् ॥
सर्वथा न परित्याज्यं गुरूणां वचनं द्विजाः । 
गृहं वसेद्वाशून्यं स्यान्मे हठस्सुखदस्सदा ॥' (
नारदजीसे पार्वतीजीने तप करनेका उपदेश होनेपर उनसे पंचाक्षरी - मन्त्र भी लेकर उनको गुरु किया
था। यथा—‘रुद्रस्याराधनार्थाय मन्त्रं देहि मुने हि मे । न सिद्ध्यति क्रिया कापि सर्वेषां सद्गुरुं विना । इति श्रुत्वा
वचस्तस्याः पार्वत्या मुनिसत्तमः । पंचाक्षरं शम्भुमन्त्रं विधिपूर्वमुपादिशः । यह शिवपुराण  कहता है।
अर्थात् जब पार्वतीजीने कहा कि बिना सद्गुरुके सिद्धि नहीं होती; अतः आप मुझे शिवाराधनका मन्त्र दें, तब
नारदजीने उनको पंचाक्षरी मन्त्र दिया, उसका प्रभाव बताया, ध्यान बताया।इस तरह वे विधिपूर्वक गुरु हुए थे। और जो भी हमारा गुरू हैं उसके प्रति शिष्यों  के मन में सदा ही यह भाव होना ही चाहिए कि 
गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥ 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

गुरुवार, 27 जून 2024

मानस चर्चा "कनककसिपु की कथा "

मानस चर्चा "कनककसिपु की कथा " प्रसंग मानस की यह चौपाई 
दक्षसुतन्ह उपदेसिन्ह जाई ।
तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन्ह घाला ।
कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥ 
पूर्व की चर्चाओं में हमने चित्रकेतु आदि पर चर्चा की है आज अब हम चर्चा करते  हैं कनककसिपु अर्थात् हिरण्यकश्यपु ,हिरण्य यानि  सोना और कनक यानी सोना बड़ी रोचकता से गोस्वामीजी ने हिरण्य की जगह कनक  का प्रयोग किया है। यहां  ' हिरण्यकश्यपु की कथा' यह है कि- हिरण्यकश्यपु की पत्नी  कयाधु प्रह्लादजीकी माताको  नारदजी ने उपदेश दिया जिससे पिता-पुत्रमें विरोध हुआ ।पिता मारा गया । दैत्य बालकोंके पूछनेपर प्रह्लादजीने स्वयं यह वृत्तान्त यों कहा है।  अपने भाई हिरण्याक्षके मारे जानेपर जब मेरे पिता हिरण्यकशिपु मन्दराचलपर तप करनेके लिये गये तब अवसर पाकर देवताओंने दैत्योंपर चढ़ायी की। दैत्य समाचार पा जान बचाकर भागे, स्त्री- पुत्रादि सबको छोड़ गये। मेरे पिताका घर नष्ट कर डाला गया और मेरी माताको पकड़कर इन्द्र स्वर्गको चले । मार्गमें नारदमुनि विचरते हुए मिल गये और बोले कि 'इस निरपराधिनी स्त्रीको पकड़ ले जाना योग्य नहीं, इसे छोड़ दो।' इन्द्र ने कहा कि इसके गर्भमें दैत्यराजका वीर्य है । पुत्र होनेपर उसे मारकर इसे छोड़ दूँगा । तब नारदजी बोले कि यह गर्भ स्थित बालक परम भागवत है। तुम इसको नहीं मार सकते । इन्द्रने नारदवचनपर विश्वास करके मेरी माँकी परिक्रमा करकेउसे छोड़ दिया। नारदजी उसे अपने आश्रममें ले गये । वह गर्भके मंगलकी कामनासे नारदमुनिकी भक्तिपूर्वक सेवा करती रही । दयालु ऋषिने मेरे उद्देश्यसे मेरी माताको धर्मके तत्त्व और विज्ञानका उपदेश किया। ऋषि-अनुग्रहसे वह उपदेश मैं अबतक नहीं भूला ।आगे हिरण्यकश्यपु की कथा संसार जानता ही है कि किस प्रकार हिरण्यकश्यपु नृसिंह भगवान्‌ के दर्शनसे कृतार्थ हुआ।' 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा" चित्रकेतु कथा"

मानस चर्चा" चित्रकेतु कथा" प्रसंग मानस की यह चौपाई 
दक्षसुतन्ह उपदेसिन्ह जाई ।
तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन्ह घाला ।
कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥ 
अर्थात् उन्होंने नारदजीने जाकर दक्षके पुत्रोंको उपदेश दिया ( जिससे) उन्होंने दक्ष के पुत्रों ने फिर लौटकर ( घरका मुँह भी) न देखा ॥ चित्रकेतुका घर उन्होंने ही चौपट किया। फिर कनककसिपु (हिरण्यकशिपुकी) भी ऐसी ही दशा की ॥ आखिर यहां चित्रकेतु कौन है उनका घर नारद जी ने कैसे चौपट किया आइए इस पर आज हम चर्चा करते हैं। नारद जी के बारे में इस संदर्भ में इन श्लोकों को देखते हैं।श्लोक ये हैं – 
नारदस्तत्र वै ययौ ॥ 
कूटोपदेशमाश्राव्य तत्र तान्नारदो मुनिः।
तदाज्ञया सर्वे पितुर्न गृहमाययुः ॥ 
ददौ तदुपदेशं ते तेभ्यो भ्रातृपथं ययुः ।
आययुर्न पितुर्गेहं भिक्षुवृत्तिरताश्च
विद्याधरश्चित्रकेतुर्यो बभूव पुराकरोत्।
स्वोपदेशमयं दत्त्वा तस्मै शून्यं च तद्गृहम्॥ 
प्रह्लादाय स्वोपदेशान्हिरण्यकशिपोः परम् । 
दत्त्वा दुःखं ददौ चायं परबुद्धिप्रभेदकः ॥ ' 
अर्थात् दक्षके सुतोंको दो बार ऐसा कूट उपदेश दिया कि फिर वे घर न गये, भिक्षावृत्ति-मार्ग ग्रहण कर लिया। उनके पास स्वयं जाकर उपदेश दिया। विद्याधर चित्रकेतुको वैराग्यका उपदेश देकर उसका घर सूना कर दिया । प्रह्लादको उपदेश देकर हिरण्यकशिपुद्वारा उसे बहुत दुःख पहुँचवाया । अतः वे दूसरोंकी बुद्धिके भेदक हैं।इनकी इसी बल से  चित्रकेतु भी भगवान्‌को प्राप्त हुआ ।
चित्रकेतुका अज्ञान और देहाभिमान इन्होंने मिटाया, हिरण्यकश्यपु नृसिंह भगवान्‌ के दर्शनसे कृतार्थ हुआ।' 
अब हम जानते हैं चित्रकेतु की कथा
'चित्रकेतुकी कथा' यह है कि- शूरसेन देशमें चित्रकेतु सार्वभौम राजा था । इसके एक करोड़ रानियाँ थीं-
परंतु न तो कोई पुत्र ही था और न कन्या ही ।
एक दिन श्रीअंगिरा ऋषिजी विचरते हुए राजाके यहाँ आ पहुँचे । राजाने प्रत्युत्थान, पाद्य, अर्घ्यद्वारा पूजनकर
उनका आतिथ्य सत्कार किया । राजासे कुशल प्रश्न करते हुए ऋषिजीने कहा- 'राजन् ! तुम्हारा आत्मा कुछ
असंतुष्ट - सा देख पड़ता है। किसी इष्ट पदार्थकी अप्राप्तिसे दुःखित हो ? तुम चिन्तित - से जान पड़ते हो, क्याकारण है?' राजाने अपना दुखड़ा सुनाया कि 'बिना एक पुत्रके मैं पूर्वजोंसहित नरकमें पड़ रहा हूँ, कृपा करके
वह उपाय कीजिये जिससे पुत्र पाकर दुष्पार नरकसे उत्तीर्ण हो सकूँ।' मुनिने त्वाष्ट्र चरु तैयार कर उससे त्वष्टा
देवताका पूजन कराया और राजाकी ज्येष्ठ और श्रेष्ठ पटरानी कृतद्युतिको उस यज्ञका अवशिष्ट अन्न देकर
कहा 'इसे खा लो' । फिर राजासे कहा कि इससे एक पुत्र होगा, परंतु उससे तुमको हर्ष और शोक दोनों होंगे।
ऋषि यह कहकर चले गये । पुत्र उत्पन्न होनेपर राजाने बहुत दान दिये । पुत्रवती होनेके कारण राजाकी प्रीति
इस - रानीसे बढ़ती गयी जिससे और रानियोंके हृदयमें डाह होने लगा । वे सोचतीं कि हम दासियोंसे भी गयीं
गुजरीं, हमसे अधिक मंदभागिनी कौन होगी। वे सवतका सौभाग्य न देख सकती थी - न सह सकती थीं।
एक बार पुत्र सो रहा था, माता किसी कार्यमें लगी थी। सवतोंने अवसर पाकर बच्चेके ओठोंपर विषका फाया फेर दिया, जिससे उसके नेत्रोंकी पुतलियाँ ऊपर चढ़ गयीं और वह मर गया। इसकी माँको सवतोंके द्वेषका पता भी न था। बहुत देर होनेपर माताने धायसे राजकुमारको जगा लानेको आज्ञा दी, धायने जाकर देखा तो चीख मारकर मूर्छित हो गिर पड़ी। रानी यह देख दौड़ी, कोलाहल मच गया। रानी - राजा दोनोंका शोक उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया,
महाशोकसे विलाप प्रलाप करते हुए वे मोहके कारण मूर्छित हो गये ।ठीक इसी अवसरपर श्रीअंगिराऋषि और नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महर्षि अंगिरा और नारदजी राजाको यों समझाने लगे कि - हे राजाओंमें श्रेष्ठ ! सोचो तो कि जिसके लिये तुम शोकातुर हो वह तुम्हारा कौन है
और पूर्वजन्ममें तुम इसके कौन थे और आगे इसके कौन होगे ? जैसे जलके प्रवाहके वेगसे बालू (रेत) बह-
बहकर दूर-दूर पहुँचकर कहाँ से कहाँ जा इकट्ठा हो जाती है, इसी प्रकार कालके प्रबल चक्रद्वारा देहधारियोंका
वियोग और संयोग हुआ करता है। जैसे बीजमें कभी बीजान्तर होता है और कभी नहीं, वैसे ही मायासे पुत्रादि
प्राणी पिता आदि प्राणियोंसे कभी संयोगको प्राप्त होते हैं और कभी वियोगको । अतएव पिता-पुत्र कल्पनामात्र
हैं। वृथा शोक क्यों करते हो? हम, तुम और जगन्मात्रके प्राणी जैसे जन्मके पूर्व न थे और मृत्युके पश्चात्
न रहेंगे, वैसे ही इस समय भी नहीं हैं  । राजाको ज्ञान हुआ, इस प्रकार कुछ सान्त्वना मिलनेपर राजाने हाथसे आँसू पोंछकर ऋषियोंसे कहा – 'आप दोनों अवधूत-वेश बनाये हुए कौन हैं? आप ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं जो हम सरीखे पागलोंको उपदेश देनेके लिये जगत् में विचरते रहते हैं। आप दोनों मेरी रक्षा करें। मैं घोर अन्धकारकूपमें डूबा पड़ा हूँ। मुझे ज्ञान - दीपकका प्रकाश दीजिये ।' अंगिरा ऋषिने दोनोंका परिचय दिया और कहा कि - 'तुम भगवान् के भक्त और ब्रह्मण्य हो, तुमको इस प्रकार शोकमें मग्न होना उचित नहीं । तुमपर अनुग्रह करनेहीको हम दोनों आये हैं। पूर्व जब मैं आया था तब तुमको अन्य विषयोंमें मग्न देख ज्ञानका उपदेश न दे पुत्र ही दिया, अब तुमने पुत्र पाकर स्वयं अनुभव कर लिया कि गृहस्थको कैसा संताप होता
है। स्त्री, घर, धन और सभी ऐश्वर्य सम्पत्तियाँ यों ही शोक, भय, सन्तापको देनेवाली नश्वर और मिथ्या हैं।
ये सब पदार्थ मनके विकारमात्र हैं, क्षणमें प्रकट और क्षणमें लुप्त होते हैं। इनमें सत्यताका विश्वास त्यागकर
शान्ति धारण करो ।' देवर्षि नारदजीने राजाको मन्त्रोपनिषद् - उपदेश किया और कहा कि इसके सात दिन धारण करनेसे संकर्षण- भगवान्‌के दर्शन होंगे। फिर सबके देखते नारद मुनि मरे हुए राजकुमारके जीवात्मासे बोले- 'हे जीवात्मा ! अपने पिता, माता, सुहृद्, बान्धवोंको देख । वे कैसे संतप्त हैं। अपने शरीरमें प्रवेशकर इनका
संताप दूर कर । पिताके दिये हुए भोगोंको भोगो और राज्यसिंहासनपर बैठो।' लड़का जी उठा और बोला कि -
'मैं अपने कर्मानुसार अनेक योनियोंमें भ्रमता रहा हूँ। किस जन्ममें ये मेरे पिता-माता हुए थे ? क्रमश: सभी
आपसमें एक-दूसरेके भाई, पिता, माता, शत्रु, मित्र, नाशक, रक्षक इत्यादि होते रहते हैं। ये लोग हमें पुत्र मानकर शोक करनेके बदले शत्रु समझकर प्रसन्न क्यों नहीं होते ? जैसे सोना, चाँदी आदिके व्यापारियोंके पास सोना- चाँदी आदि वस्तुएँ आती-जाती रहती हैं, वैसे ही जीव भी अनेक योनियोंमें भ्रमता रहता है। जितने दिन जिसके साथ जिसका सम्बन्ध रहता है उतने दिन उसपर उसकी ममता रहती है। आत्मा नित्य, अव्यय, सूक्ष्म, स्वयंप्रकाशित है। कोई उसका मित्र वा शत्रु नहीं।" 
वह जीव फिर बोला कि मैं पांचाल देशका राजा था, विरक्त होनेपर मैं एक ग्राममें गया। इस मेरी माताने भोजन
बनाने के लिये मुझे कण्डा / सुखी लकड़ी दिया, जिसमें अनेकों चीटियाँ थीं, ध्यान दिए बिना मैंने आग लगा दी। वे सब चीटियाँ मर गयीं। मैंने शालग्रामदेवका भोग
लगाकर प्रसाद पाया। वही चीटियाँ मेरी सौतेली माताएँ हुईं। प्रभुको अर्पण होनेसे एक ही जन्ममें सबने मुझसे
बदला ले लिया, नहीं तो अनेक जन्म लेने पड़ते- 
'प्रभु राखेउ श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस ।' 
अब इस देहसे मेरा सम्बन्ध नहीं।
यह सब माया कर परिवारा। 
प्रबल अमिति को बरनै पारा॥
सुत बित लोक ईषना तीनी। 
केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥
इतना कह जीव शरीरसे निकल गया। राजाको ज्ञान
प्राप्त हुआ। उसने राज्य छोड़ दिया । नारदमुनिने संकर्षणभगवान्‌का मन्त्र दिया, स्तुतिमयी विद्या बतायी। सात दिन जप करनेपर शेषभगवान्‌का दर्शन हुआ। आपको एक विमान मिला, जिसपर चढ़कर आप आकाशमार्गपर घूमते थे। पार्वतीजीके शापसे आप वृत्रासुर हुए। वृत्रासुर के बारे में प्रसंगवश आगे चर्चा होगी।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

बुधवार, 26 जून 2024

मानस चर्चा "मातु पिता गुर प्रभु कै बानी"

मानस चर्चा "मातु पिता गुर प्रभु कै बानी"
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी।
बिनहि बिचार करिअ सुभ जानी ॥ 
अर्थात् माता, पिता, गुरु और स्वामीकी बात बिना ही विचारे शुभ जानकर करनी  मान लेनी चाहिये ॥ 
'मातु पिता ' बचपनमें माताकी आज्ञा, कुछ बड़े होनेपर घरसे बाहर निकलनेपर पिताकी आज्ञा, पाँच वर्ष बाद गुरुसे पढ़नेपर गुरुकी आज्ञा और पढ़-लिखकर
लोक-परलोक दोनोंमें सुख के लिये जीवनपर्यन्त प्रभु अर्थात् अपने स्वामी  मालिक की आज्ञा माननेसे प्राणीका भला होता है । महाभारत शान्तिपर्वमें भीष्मपितामहजीने युधिष्ठिरजीसे कहा है कि दस श्रोत्रियोंसे बढ़कर आचार्य हैं। दस आचार्योंसे बड़ा उपाध्याय विद्यागुरु है। दस उपाध्यायोंसे अधिक महत्त्व रखता है पिता और दस पिताओंसे अधिक गौरव है माताका । परंतु मेरा विश्वास है कि गुरुका दर्जा माता- पितासे भी बढ़कर है। माता-पिता
तो केवल इस शरीरको जन्म देते हैं, किंतु आत्मतत्त्वका उपदेश देनेवाले आचार्यद्वारा जो जन्म होता है वह दिव्य है, अजर-अमर है। मनुष्य जिस कर्मसे पिताको प्रसन्न करता है, उसके द्वारा ब्रह्मा भी प्रसन्न होते हैं तथा जिस बर्तावसे वह माताको प्रसन्न कर लेता है उसके द्वारा परब्रह्म परमात्माकी पूजा सम्पन्न होती है।  । गुरुओंकी पूजासे देवता, ऋषि और पितरों की भी प्रसन्नता होती है, इसलिये गुरु परम पूजनीय है।इसलिये गुरु माता - पितासे भी बढ़कर पूज्य है। माता, पिता और गुरु कभी भी अपमानके योग्य नहीं। उनके किसी भी कार्यकी निन्दा नहीं करनी चाहिये।' पुनः माता, पिता और गुरु सदा अपने पुत्र या शिष्यका कल्याण ही चाहेंगे, वे कभी बुरा न चाहेंगे। अतः 'बिनहि बिचार करिअ सुभ जानी' कहा।
'बिनहि बिचार करिअ ' भाव यह है  कि विचारका खयाल मनमें आनेसे भारी पाप लगता है; जैसा कि 
'उचित कि अनुचित किये बिचारू ।
धरमु जाइ सिर पातक भारू ॥ '  
'सुभ जानी' का भाव यह है कि अनुचित भी यदि हो तो भी आज्ञा पालन करनेवालेका मंगल ही होगा, उसे कोई
दोष नहीं देगा। अतः उसे मंगलकारक जानकर करना चाहिये। हमारे ग्रंथों में अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं आप ऋषि धौम्य और उनके शिष्य आरुणि,उपमन्यु, वेद आदि की   कथाओं को से हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। चलिए हम उपमन्यु की कथा सुना ही देते है।बाकी पुनः।
उपमन्यु महर्षि आयोद धौम्य के शिष्यों में से एक थे। इनके गुरु धौम्य ने उपमन्यु को अपनी गाएं चराने का काम दे रखा थ। उपमन्यु दिनभर वन में गाएं चराते और सायँकाल आश्रम में लौट आया करते थे।
एक दिन गुरुदेव ने पूछा- "बेटा उपमन्यु! तुम आजकल भोजन क्या करते हो?" उपमन्यु ने नम्रता से कहा- "भगवान! मैं भिक्षा माँगकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "वत्स! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दें तो उसे ग्रहण करना चाहिए।" उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य कि श्रद्धा को दृढ़ करना था, अत: वे भिक्षा का सभी अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों बाद जब गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम आजकल क्या खाते हो?" तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपनी भिक्षा माँग लाता हूँ।" महर्षि ने कहा- "दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्म के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगने वालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।"
उपमन्यु ने कहा- "जो आज्ञा।" उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बंद कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा, तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं गायों का दूध पी लेता हूँ।" महर्षि बोले- "यह तो ठीक नहीं।" गाएं जिसकी होती हैं, उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिए।" उपमन्यु ने दूध पीना भी छोडं दिया। थोड़े दिन बीतने पर गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लाते और गायों का दूध भी नहीं पीते तो खाते क्या हो? तुम्हारा शरीर तो उपवास करने वाले जैसा दुर्बल नहीं दिखाई पड़ता।" उपमन्यु ने कहा- "भगवान! मैं बछड़ों के मुख से जो फैन गिरता है, उसे पीकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "बछ्ड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकर तुम्हारे लिए अधिक फैन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृत्ति भी उचित नहीं है।" अब उपमन्यु उपवास करने लगे। दिनभर बिना कुछ खाए गायों को चराते हुए उन्हें वन में भटकना पड़ता था। अंत में जब भूख असह्य हो गई, तब उन्होंने आक के पत्ते खा लिए। उन विषैले पत्तों का विष शरीर में फैलने से वे अंधे हो गए। उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। गायों की पदचाप सुनकर ही वे उनके पीछे चल रहे थे। मार्ग में एक सूखा कुआँ था, जिसमें उपमन्यु गिर पड़े।
गुरूजी उसके साथ निर्दयता के कारण ऐसा बर्ताव नही करते थे वह तो उसे पक्का बनाना चाहते थे | कछुआ रहता तो जल में है किन्तु अन्डो को सेता रहता है इसी से अंडे वृधि को प्राप्त होते है | इसी प्रकार उपर से तो गुरूजी ऐसा बर्ताव करते थे भीतर से सदा उन्हें उपमन्यु की चिंता लगी रहती थी |
जब अंधेरा होने पर सब गाएं लौट आईं और उपमन्यु नहीं लौटे, तब महर्षि को चिंता हुई। वे सोचने लगे- "मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार से बंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दु:खी होकर वह भाग तो नहीं गया।" उसे वे जंगल में ढूँढ़ने निकले और बार-बार पुकारने लगे- "बेटा उपमन्यु! तुम कहाँ हो?"
उपमन्यु ने कुएँ में से उत्तर दिया- "भगवान! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।" महर्षि समीप आए और सब बातें सुनकर ऋग्वेद के मंत्रों से उन्होंने अश्विनीकुमारों की स्तुति करने की आज्ञा दी। स्वर के साथ श्रद्धापूर्वक जब उपमन्यु ने स्तुति की, तब देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार वहाँ कुएँ में प्रकट हो गए। उन्होंने उपमन्यु के नेत्र अच्छे करके उसे एक पदार्थ देकर खाने को कहा। किन्तु उपमन्यु ने गुरुदेव को अर्पित किए बिना वह पदार्थ खाना स्वीकार नहीं किया। अश्विनीकुमारों ने कहा- "तुम संकोच मत करो। तुम्हारे गुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किए बिना पहले हमारा दिया पदार्थ प्रसाद मानकर खा लिया था।" उपमन्यु ने कहा- "वे मेरे गुरु हैं, उन्होंने कुछ भी किया हो, पर मैं उनकी आज्ञा नहीं टालूँगा।" इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उन्हें समस्त विद्याएँ बिना पढ़े आ जाने का आशीर्वाद दिया। जब उपमन्यु कुएँ से बाहर निकले, महर्षि आयोद धौम्य ने अपने प्रिय शिष्य को हृदय से लगा लिया।
चूंकि हम रामचरितमानस  की ही चर्चा करते हैं इसलिए हम मानस से भी इसकी पुष्टि कर ले और  इनके महत्त्व को  भी  देख ले गोस्वामीजी ने लिखा है---
'गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें ।
चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ॥' 
और भी देखें 
'परसुराम पितु अग्या राखी' ।
मारी मातु लोक सब साखी॥
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ।
पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥
अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥
'तुम्ह सब भाँति परम हितकारी।
अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी।।
अर्थात्
माता-पिता आदि सब आप ही हैं, आपने सब प्रकार हमारा हित किया और कर रहे हैं; जैसा  कि - 
'राममातु पिता सुतु बंधु औ संगी सखा गुरु स्वामि सनेही । रामकी सौहँ भरोसो है राम को राम-रंगी-रुचि राचौं
न केही । ' और तो और हम हमेशा गाते  ही है
'त्वमेव माता च पिता त्वमेव 
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥'—
आप ने सब भाँति हमारा परम हित किया है जैसे कि - भस्मासुरसे रक्षा की, कालकूटको अमृत कर दिया;
स्पष्ट कहा  गया है
'नाम प्रभाउ जान सिव नीको। 
कालकूट फल दीन्ह अमी को।'
इस चौपाई में पुत्र, शिष्य और सेवकके धर्म उपदेश किये गये हैं। बालकोंको श्रीशंकरजीकी शिक्षापर ध्यान देना चाहिये ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "प्रीति की रीति"

मानस चर्चा "प्रीति की रीति"
जल पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि ।
बिलग होइ' रसु जाइ कपटु खटाई परत पुनि ॥ 
अर्थात्  प्रीतिकी सुन्दर रीति देखिये जल दूधमें मिलनेसे दूधके समान  अर्थात् दूधके भाव बिकता है। परंतु फिर कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है अर्थात् फट जाता है और स्वाद जाता रहता है ॥ यह पूरी की पूरी बात हम सभी मनुष्यों के लिए कही गई है,पर प्यार भरे उदाहरण द्वारा।आगे भी देखते हैं।
'जल पय सरिस बिकाइ ' यहां भाव यह है  कि दूधमें मिलनेसे जल भी दूधके भाव बिकता है और उसमें दूधका रस रंग और स्वाद भी आ जाता है यह दूधका भलपन है, पर खटाई पड़ते ही दूध अलग हो जाता है दूध फट जाता है और उस जलमें दूधका स्वाद नहीं रह जाता। इसी तरह कपट करनेसे  हम इंसानों के साथ भी होता है एक दूसरे का संग छूट जाता है। प्रीतिरूपी रस नहीं रह जाता। दूध फट जानेपर ,फिर दूध नहीं बन सकता, वैसे ही फटा हृदय फिर नहीं जुड़ता, फिर प्रेम हो ही नहीं सकता, बिगड़ा सो बिगड़ा, फिर नहीं सुधर सकता । कहा है कि 
'मन मोती और दूध रस इनको यहै स्वभाव ।
फाटे पै पुनि ना जुड़ै करिए कोटि उपाव ॥
दूध और जलके द्वारा प्रीतिकी रीति देख पड़ती है। इसीसे कहा कि 'देखहु ।' तात्पर्य यह कि  ए मानवों इसे देखकर ऐसी प्रीति करो, कपट मत करो।हम प्रसंग में देखें कि  दूध ऐसे निर्मल शिवजी  कर्पूरगौरम् और जड़ जल  जैसी सतीजी जिनके बारे में  'किमसुभिलपितैर्जडं मन्यसे और  'डलयोः सावर्ण्यात्' से सतीजी को 'जड़' से जल कहा  गया है। दोनों कीअच्छी तरहसे प्रीति देखो कि दोनों मिलकर एक हो गये थे, दोनों साथ-साथ पूजे जाते थे, दोनोंकी महिमा एक समझी जाती थी, जैसे दूधमें पानी मिलनेसे पानी भी दूध ही कहा जाता है। दूधहीके भावसे दूध मिला , पानी भी बिकता है पर जैसे वह खटाई पड़नेसे अलग और बिगड़ जाता है, वैसे ही यहाँ कपट करनेसे दूध  ऐसे महादेव सती जड़ - जल से अलग हो गये और बिगड़ भी गये। '
मित्रतापर भिखारीदासजीका पद देखने योग्य है-
दास परस्पर प्रेम लखो गुन छीर को नीर मिले सरसातु है। नीर बिकावत आपने मोल जहाँ जहँ जायके छीर बिकातु 
है ।
पावक जारन छीर लग्यो तब नीर जरावत आपन गातु है। नीर की पीर निवारिये कारन छीर घरी ही घरी उफनातु है ।  इस पद्यमें हमें दूधका और जलका भलपनअलग-अलग दिखा दिया गया है। वास्तव में यही है प्रीति की रीति जिसे हर इंसान को निभानी ही चाहिए,जीवन में कपट रूपी खटाई का प्रयोग हमेशा हमेशा के लिए त्याज्य ही होना चाहिए।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

रविवार, 23 जून 2024

मानस चर्चा "त्रिपुरारी"

मानस चर्चा "त्रिपुरारी"
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।चले भवन सँग दच्छकुमारी।
महादेव त्रिपुरारी क्यों कहलाते है।जानते है इन कथाओं के माध्यम से--
 शिवजी त्रिपुरारी हैं। उन्होंने त्रिपुरके मारनेमें बड़ी
सावधानतासे काम लिया था। इसी तरह वे लक्ष्यपर सदा सावधान रहते हैं।  ।
त्रिपुरासुर
श्रीमद भागवत महापुराण में कथा मिलती है कि एक बार जब देवताओंने असुरोंको जीत लिया तब वे महामायावी शक्तिमान् मयदानवकी शरणमें गये। मयने अपनी अचिन्त्य शक्तिसे तीन पुररूपी विमान लोहे, चाँदी और सोनेके ऐसे
बनाये कि जो तीन पुरोंके समान बड़े-बड़े और अपरिमित सामग्रियोंसे भरे हुए थे। इन विमानोंका आना-जाना
नहीं जाना जाता था। यथा -
 'स निर्माय पुरस्तिस्त्रो हैमीरौप्यायसीर्विभुः । दुर्लक्ष्यापायसंयोगा दुर्वितर्क्यपरिच्छदाः ॥'
 महाभारतसे पता चलता है कि ये तीनों पुर (जो विमानके आकारके थे) तारकासुरके तारकाक्ष, कमलाक्ष
और विद्युन्माली नामक तीनों पुत्रोंने मयदानवसे अपने लिये बनवाये थे । इनमेंसे एक नगर ( विमान) सोनेका
स्वर्गमें, दूसरा चाँदीका अन्तरिक्षमें और तीसरा लोहेका मर्त्यलोकमें था । ऋग्वेदके कौषीतमें और ऐतरेय ब्राह्मणोंमें त्रिकका वर्णन है। यथा -
 ' ( असुराः) हरिणीं ( पुरं) हादो दिविचक्रिरे। रजतां अन्तरिक्षलोके अयस्मयीमस्मिन् अकुर्वत् ॥' अर्थात् असुरोंने हिरण्मयी पुरीको स्वर्गमें बनाया, रजतमयीको अन्तरिक्षमेंऔर अयस्मयीको इस पृथ्वीलोकमें । तीनों पुरोंमें एक-एक अमृतकुण्ड बनाया गया था। इन विमानोंको लेकर वे असुर तीनों लोकोंमें उड़ा करते थे । अब देवताओंसे अपना पुराना वैर स्मरणकर मयदानवद्वारा शक्तिमान् होकर तीनों विमानोंद्वारा दैत्य उनमें छिपे रहकर तीनों लोकों और लोकपतियोंका नाश करने लगे। जब असुरोंका अत्याचार बहुत बढ़ गया तब सब देवता शंकरजीकी शरण गये और कहा कि
 ' त्राहि नस्तावकान्देव विनष्टांस्त्रिपुरालयैः । ' 
 ये त्रिपुरानिवासी असुरगण हमें नष्ट किये डालते हैं। हे प्रभो! हम आपके हैं, आप हमारी रक्षा करें। शंकरजीने
पाशुपतास्त्रसे अभिमन्त्रित एक ऐसा बाण तीनों पुरोंपर छोड़ा कि जिससे सहस्रशः बाण और अग्निकी लपटें
निकलती जाती थीं। उस बाणसे समस्त विमानवासी निष्प्राण हो गिर गये। महामायावी मयने सबको उठाकर
अपने बनाये हुए अमृतकुण्डमें डाल दिया जिससे उस सिद्ध अमृतका स्पर्श होते ही वे सब फिर वज्रसमान
पुष्ट हो एक साथ खड़े हो गये। जब-जब शंकरजी त्रिपुरके असुरोंको बाणसे निष्प्राण करते थे, तब-तब मयदानव
सबको इसी प्रकार जिला लेता था। शंकरजी उदास हो गये, तब उन्होंने भगवान्‌का स्मरण किया । उनको भग्न
संकल्प और खिन्नचित्त देख भगवान्ने यह युक्ति की कि स्वयं गौ बन गये और ब्रह्माको बछड़ा बनाकर
बछड़ेसहित तीनों पुरोंमें जा सिद्धरसके तीनों कूपोंका सारा जल पी गये। दैत्यगण खड़े देखते रह गये। वे सब
ऐसे मोहित हो गये थे कि रोक न सके। तत्पश्चात् भगवान्ने युद्धकी सामग्री तैयार की। धर्मसे रथ, ज्ञानसे
सारथी, वैराग्यसे ध्वजा, ऐश्वर्यसे घोड़े, तपस्यासे धनुष, विद्यासे कवच, क्रियासे बाण और अपनी अन्यान्य
शक्तियोंसे अन्यान्य वस्तुओंका निर्माण किया । इन सामग्रियोंसे सुसज्जित हो शंकरजी रथपर चढ़े और अभिजित् मुहूर्तमें उन्होंने एक ही बाणसे उन तीनों दुर्भेद्य पुरोंको भस्म कर दिया ।
दूसरा आख्यान भी मिलता है जो यो  है- 
त्रिपुरोंकी उत्पत्ति और नाशका एक आख्यान महर्षि मार्कण्डेयने किसी समय धृतराष्ट्रसे कहा था जो दुर्योधनने महारथी शल्यसे (कर्णपर्वमें) कहा है। उसमें बताया है कि तारकासुरके तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामके तीन पुत्र थे, जिन्होंने घोर तप करके ब्रह्माजीसे यह वर माँग लिया था कि 'हम तीन नगरोंमें बैठकर इस सारी पृथ्वीपर आकाशमार्गसे विचरते रहें । इस प्रकार एक हजार वर्ष बीतनेपर हम एक जगह मिलें। उस समय जब हमारे तीनों पुर मिलकर एक हो जायँ तो उस समय जो देवता उन्हें एक ही बाणसे नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्युका कारण हो ।' यह वर पाकर उन्होंने मयदानवके पास जाकर उससे तीन नगर अपने तपके प्रभावसे ऐसे बनानेको कहे कि उनमेंसे एक सोनेका, एक चाँदीका और एक लोहेका हो। तीनों नगर इच्छानुसार आ-जा सकते थे। सोनेका स्वर्गमें, चाँदीका अन्तरिक्षमें और लोहेका पृथ्वीमें रहा।
इनमेंसे प्रत्येककी लम्बाई-चौड़ाई सौ-सौ योजनकी थी। इनमें आपसमें सटे हुए बड़े-बड़े भवन और सड़कें
थीं तथा अनेकों प्रासादों और राजद्वारोंसे इनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इन नगरोंके अलग-अलग राजा थे।
स्वर्णमय नगर तारकाक्षका था, रजतमय कमलाक्षका और लोहमय विद्युन्मालीका । इन तीनों दैत्योंने अपने अस्त्र-
शस्त्रके बलसे तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लिया था । इन दैत्योंके पास जहाँ-तहाँसे करोड़ों दानव योद्धा
आकर एकत्रित हो गये। इन तीनों पुरोंमें रहनेवाला जो पुरुष जैसी इच्छा करता, उसकी उस कामनाको मयदानव
अपनी मायासे उसी समय पूरी कर देता था । यह तारकासुरके पुत्रोंके तपका फल कहा गया।
तारकाक्षका एक पुत्र 'हरि' था। इसने तपसे ब्रह्माजीको प्रसन्न कर यह वर प्राप्त कर लिया कि 'हमारे
नगरोंमें एक बावड़ी ऐसी बन जाय कि जिसमें डालनेसे शस्त्रसे घायल हुए योद्धा और भी अधिक बलवान्
हो जायँ।' इस वरके प्रभावसे दैत्यलोग जिस रूप और जिस वेषमें मरते थे उस बावड़ीमें डालने पर वे उसी
रूप और उसी वेषमें जीवित होकर निकल आते थे। इस प्रकार उस बावड़ीको पाकर वे समस्त लोकोंको
कष्ट देने लगे। देवताओंके प्रिय उद्यानों और ऋषियोंके पवित्र आश्रमोंको उन्होंने नष्ट-भ्रष्ट कर डाला । इन्द्रादि
देवता जब उनका कुछ न कर सके तब वे ब्रह्माजीकी शरण गये । ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे सब शंकरजीके पास
गये और उनको स्तुतिसे प्रसन्न किया। महादेवजीने सबको अभयदान दिया और कहा कि तुम मेरे लिये एक
ऐसा रथ और धनुष-बाण तलाश करो जिनके द्वारा मैं इन नगरोंको पृथ्वीपर गिरा सकूँ । देवताओंने विष्णु, चन्द्रमा और अग्निको बाण बनाया तथा बड़े-बड़े नगरोंसे भरी हुई पर्वत, वन और द्वीपोंसे व्याप्त वसुन्धराको ही उनका रथ बना दिया । इन्द्र, वरुण, कुबेर और यमादि लोकपालोंको घोड़े बनाये एवं मनको आधारभूमि बना दिया। इस प्रकार जब (विश्वकर्माका रचा हुआ) वह श्रेष्ठ रथ तैयार हुआ
तब महादेवजीने उसमें अपने आयुध रखे । ब्रह्मदण्ड, कालदण्ड, रुद्रदण्ड और ज्वर – ये सब ओर मुख किये
हुए उस रथकी रक्षामें नियुक्त हुए । अथर्वा और अंगिरा उनमें चक्ररक्षक बने । सामवेद, ऋग्वेद और समस्त
पुराण उस रथके आगे चलनेवाले योद्धा हुए। इतिहास और यजुर्वेद पृष्ठरक्षक बने । दिव्य वाणी और विद्याएँ
पार्श्वरक्षक बनीं। स्तोत्र, वषट्कार और ओंकार रथके अग्रभागमें सुशोभित हुए। उन्होंने छहों ऋतुओंसे
सुशोभित संवत्सरको अपना धनुष बनाया और अपनी छायाको धनुषकी अखण्ड प्रत्यंचाके स्थानोंमें रखा।
ब्रह्माजी उनके सारथी बने । भगवान् शंकर रथपर सवार हुए और तीनों पुरोंको एकत्र होनेका चिन्तन करने
लगे। धनुष चढ़ाकर तैयार होते ही तीनों नगर मिलकर एक हो गये । शंकरजीने अपना दिव्य धनुष खींचकर
बाण छोड़ा जिससे तीनों पुर नष्ट होकर गिर गये। इस तरह शंकरजीने त्रिपुरका दाह किया और दैत्योंको
निर्मूलकर त्रिलोकका हित किया।
वाल्मीकीयसे पता चलता है कि दधीचि महर्षिकी हड्डियोंसे पिनाक बनाया गया था और भूषण टीकाकारका
मत है कि भगवान् विष्णु बाण बने थे । जिससे त्रिपुरासुरका नाश हुआ । यही धनुष पीछे राजा जनकके यहाँ रख दिया गया था। दधीचिकी हड्डियोंसे दो धनुष बने, शार्ङ्ग और पिनाक । वाल्मीकीय रामायण  के
आधारपर कहा जाता है कि विष्णुभगवान्ने शार्ङ्गसे असुरोंको मारा और शंकरजीने तीनों पुरोंको जलाया । इस प्रकार से यह सिद्ध है की भगवान शंकर ने ही त्रिपुर और उनके असुरों का नाश किया इसलिए वे त्रिपुरारी कहलाए।
हर हर महादेव।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

वस्त्र का पर्यायवाची

वस्त्र का पर्यायवाची
एक ही दोहे में बारह पर्यायवाची शब्द
पट परिधान अम्बर, चेल अंशुक आच्छादन।
पोशाक वस्त्र चीर, दुकूल पहनावा वसन।।
।।धन्यवाद।।

मानस चर्चा ।। सीय स्वयंबर कथा सुहाई।।

मानस चर्चा ।। सीय स्वयंबर कथा सुहाई।।
सीय स्वयंबर कथा सुहाई।सरित सुहावनि सो छबि छाई।।  अर्थात् जो  श्री सीताजी के स्वयंवरकी सुन्दर कथा है वह  सुहावनी नदीकी सुन्दर छबि है जो मानस में
छा रही है ॥  पर बात यहां यह है कि यह स्वयंवर  'सीय स्वयंबर ' कैसे ? कुछ लोग यह शंका इसलिए करते हैं कि 'स्वयंवर तो वह है जिसमें कन्या अपनी रुचि - अनुकूल वर  का वरण कर ले, और यहाँ तो ऐसा नहीं हुआ; तब इसे स्वयंवर क्यों कहा?' इस विषयमें यह जान लेना चाहिये कि स्वयंवर कई प्रकार का होता है। देवीभागवत तृतीय स्कन्धमें लिखा है कि 'स्वयंवर केवल राजाओंके विवाहके लिये होता है, अन्यके लिये नहीं और वह तीन प्रकारका है - इच्छा-स्वयंवर, पण या प्रतिज्ञा-स्वयंवर और शौर्य-शुल्क- स्वयंवर । जैसा कि  यह श्लोक है - 'स्वयंवरस्तु त्रिविधो विद्वद्भिः परिकीर्तितः।राज्ञां विवाहयोग्यो वै नान्येषां कथितः किल ॥ इच्छास्वयंवरश्चैको द्वितीयश्च पणाभिधः । यथा रामेण भग्नं वै त्र्यम्बकस्य शरासनम् ॥तृतीयः शौर्यशुल्कश्च शूराणां परिकीर्तितः । ' 
शौर्य-शुल्क- स्वयंवरके उदाहरणमें हम भीष्मपितामहने
जो काशिराजकी तीन कन्याओं - अम्बा, अम्बालिका और अम्बिकाको अपने भाइयोंके लिये स्वयंवरमें अपने
पराक्रमसे सब राजाओंको जीतकर प्राप्त किया था, इसे दे सकते हैं।
स्वयंवर उसी कन्याका होता है जिसके रूप- लावण्यादि गुणोंकी ख्याति संसारमें फैल जाती है और अनेक राजा उसको ब्याहनेके लिये उत्सुक हो उठते हैं। अतः बहुत बड़े विनाशकारी युद्धके बचानेके लिये यह किया जाता है । इच्छास्वयंवर वह है जिसमें कन्या अपने इच्छानुकूल जिसको चाहे जयमाल डालकर ब्याह ले । जयमाल तो इच्छास्वयंवर और पणस्वयंवर दोनोंमें ही पहनाया जाता है। जयमाल- स्वयंवर अलग कोई स्वयंवर नहीं है। दमयन्ती-नल-विवाह और राजा शीलनिधिकी कन्या विश्वमोहिनी- का विवाह (जिसपर नारदजी मोहित हो गये थे) 'इच्छास्वयंवर' के उदाहरण हैं। पण अर्थात् प्रतिज्ञा  स्वयंवर वह है जिसमें विवाह किसी प्रतिज्ञाके पूर्ण होने ही से होता है, जैसे राजा द्रुपदने श्रीद्रौपदीजीका पराक्रम-
प्रतिज्ञा - स्वयंवर किया। इसी प्रकार श्रीजनकमहाराजने श्रीसीताजीके लिये पणस्वयंवर रचा था । जैसा कि मानस कहता है-
'बोले बंदी बचन बर, सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम, भुजा उठाइ बिसाल ।'  
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। 
राज समाज आज जोई तोरा । 
त्रिभुवन जय समेत बैदेही ।
बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ॥'
श्रीरामजीने धनुषको तोड़कर ही  विवाह किया । जैसा कि
— 'रहा बिबाह चाप आधीना । टूटतही धनु भएउ बिबाहू ।  कुछ महानुभाव इसके पूर्व पुष्पवाटिका-प्रसंगके
'निज अनुरूप सुभग बर माँगा' एवं 'चली राखि उर स्यामल मूरति' इन वाक्योंसे यहाँ इच्छा - स्वयंवर होना भी कहते हैं। परन्तु इसकी पूर्ति 'प्रतिज्ञाकी पूर्ति' पर ही सम्भव थी, इसलिये इसे पण - स्वयंवर ही कहेंगे। शिवधनुषके तोड़नेपर ही अर्थात्  प्रतिज्ञा पूर्ण होने के बाद ही जयमाल पहनाया गया।
'कथा सुहाई' अर्थात् कथा अत्यंत सुहावनी/रोचक है। अन्य स्वयंवरोंकी कथासे  हटकर इसमें  विशेष विशेषता है। यह केवल धनुषभंगकी ही कथा नहीं है किन्तु इसमें एक दिन पहले पुष्पवाटिकामें परस्पर प्रेमावलोकनादि भी है और फिर दूसरे ही दिन उन्हींके हाथों धनुभंगका होना तो वक्ता - श्रोता  और दर्शक सभीके आनन्दको अनन्तगुणित कर देता है, सब जय-जय-कार कर उठते है। 'राम बरी सिय भंजेउ चापा'; अतः सीय स्वयंबर कथा सुहाई कहा। दूसरे, श्रीरामकथाको भी गोस्वामीजी  'सुहाई'कह आये हैं; जैसा कि- 'कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई' अब श्रीसीताजीकी कथाको 'सुहाई' कह रहे हैं ।
सीयस्वयंवरकथा वस्तुतः श्रीसीताजीकी कथा है।  इसके पहले गोस्वामीजी कहते है कि रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई।। अर्थात्  'रघुबर जन्म'  भी सुहाई है और यहाँ 'सीय स्वयंबर'  भी सुहाई ही है , क्योंकि पुत्रका जन्म सुखदायी होता है।
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना।
मानहु ब्रह्मानंद समाना॥
और कन्याका विवाह सुखदायी होता है । लोकमें जन्मसे विवाह कहीं सुन्दर माना जाता है, इससे 'सीय स्वयंबर कथा' को 'सुहाई' कहा।सरित सुहावनि 'सो छबि छाई ' का भाव यह है कि सीयस्वयंवरकथासे ही रामयशसे भरी हुई इस कविताकी शोभा है;
यथा - 'बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। 'सीयस्वयंवरकथामें युगलमूर्तिका छबिवर्णन भरा पड़ा है,
जैसा कि आप देखें ---
भाल बिसाल तिलक झलकाही । 
कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।
यही नहीं इस पूरे प्रसंग में  बीसों बार 'छबि 'शब्दकी आवृत्ति है । यहींकी झाँकीमें 'महाछबि' शब्दका प्रयोग हुआ है। यथा - 'नख सिख मंजु महाछबि छाए । , 'छबिगन मध्य महाछबि जैसे।'  गोस्वामीजी कहते हैं कि छबिका सार भाग यहीं है। जैसा कि-
'दूलह राम सीय दुलही री।
"सुषमा सुरभि सिंगार छीर दुहि
मयन अमियमय कियो है दही री।
मथि माखन सियराम सँवारे 
सकल भुवन छबि मनहुँ मही री। '  
अतः  यहां स्पष्ट है कि कवितासरित् की छबि सीयस्वयंवर ही है। 
'सरित सुहावनि' कहनेका भाव यह है कि कीर्ति नदी तो
स्वयं सुहावनी है, स्वयंवरकथा कीर्ति नदीका श्रृंगार है।
फुलवारीकी कथा ही श्रीजानकीजीके स्वयंवरकी कथा है (क्योंकि स्वयंवर ढूँढ़कर हृदयमें उसे पतिरूपसे रखना यहाँ ही पाया जाता है और आगे तो प्रतिज्ञा एवं जयमालस्वयंवर है। केवल 'सीय स्वयंवर' यही है) जो इस नदीकी शोभित छबि है। इसे छबि कहकर जनाया कि कविता-सरितामें पुष्पवाटिकाकी कथा सर्वोपरि है, इसीसे इसे नदीका श्रृंगार कहा। बात जब सीता सौंदर्य की आती है तो आप इन पक्तियों पर जरूर ध्यान देवें की जगजननी मां सीता की छबि कैसी हो सकती है ।
'जौं छबि सुधा पयोनिधि होई। 
परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू।
मथै पानि पंकज निज मारू॥
एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥
वास्तव में सीता और राम  के समतूल  कोई दूजा हो ही नहीं सकता,तभी तो राम से राम सिया  सी सिया ।और यह सिय स्वयंबर कथा सुहाई।सरित सुहावनि सो छबि छाई।। कहकर गोस्वामीजी में इस कथा की महत्ता को 
प्रतिपादित किया।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा --राम चरित चिंतामनि चारू

मानस चर्चा --राम चरित चिंतामनि चारू
राम चरित चिंतामनि चारू । संत सुमति तिअ सुभग सिंगारू ॥ 
अर्थात् श्रीरामचरित सुन्दर चिन्तामणि है, सन्तोंकी सुमतिरूपिणी स्त्रीका सुन्दर श्रृंगार है ॥ 
'चिन्तामणि सब मणियोंमें श्रेष्ठ है, जैसा कि-
'चिंतामनि पुनि उपल दसानन । ' 
इसी तरह रामचरित सब धर्मोंसे श्रेष्ठ है । सन्तकी मतिकी शोभा रामचरित्र धारण करनेसे ही है। 'सुभग सिंगारू '  सब शृंगारोंसे यह अधिक है। जैसा कि गोस्वामीजी कहते हैं-' - 
'तुलसी चित चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि
पहिचाने।' (विनयपत्रिका)बिना रामचरित जाने चित्तकी चिन्ता नहीं मिटती । प्राकृत शृंगार नाशवान् है और यह नाशरहित सदा एकरस है । जैसे कि --
चिन्तामणि जिस पदार्थका चिन्तन करो सोई देता है वैसे ही रामचरित्र सब पदार्थोंका देनेवाला है।
' सुभग सिंगारू' का भाव यह है कि यह 'नित्य नाशरहित, एकरस और अनित्य प्राकृत श्रृंगारसे विलक्षण है।' 
उत्तरकाण्डमें सुन्दर चिन्तामणिके लक्षण यों दिये हैं- ' 
राम भगति  चिंतामनि सुंदर । 
बसई  गरुड़ जाके उर अंतर ॥ 
परम प्रकास रूप दिन राती ।
नहिँ तहँ चहिअ दिआ घृत बाती ॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। 
लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई ।
हारहिं सकल सलभ समुदाई ॥ 
खलकामादि निकट नहिं जाहीं । 
बसइ भगति जाके उर माहीं ॥ 
गरल सुधासम अरि हित होई ।
तेहि मनि बिनु सुखपाव न कोई ॥ 
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। 
जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ॥
राम भगति-मनि उर बसजाकें।
दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥ ' 
यहाँ रामचरितको 'सुन्दर चिन्तामणि' कहकर इन सब लक्षणोंका श्रीरामचरित्र से प्राप्त हो जाना सूचित किया है। 'चिन्तामणि' के गुण स्कन्दपुराण ब्रह्मखण्डान्तर्गत ब्रह्मोत्तरखण्ड अध्याय पाँचमें ये कहे हैं - वह कौस्तुभमणिके समान कान्तिमान् और सूर्यके सदृश है। इसके दर्शन, श्रवण, ध्यानसे चिन्तित पदार्थ प्राप्त हो जाता है। उसकी कान्तिके किंचित् स्पर्शसे ताँबा, लोहा, सीसा, पत्थर आदि वस्तु भी सुवर्ण हो जाते
हैं। जैसा कि - 
'चिन्तामणिं ददौ दिव्यं मणिभद्रो महामतिः ।
स मणिः कौस्तुभ इव द्योतमानोऽर्क संनिभः ।
दृष्टः श्रुतो वा ध्यातो वा नृणां यच्छति चिन्तितम् ॥
तस्य कान्तिलवस्पृष्टं कांस्यं ताम्रमयस्त्रपु । पाषाणादिकमन्यद्वा सद्यो भवति काञ्चनम् ॥' 
श्रीबैजनाथ  जी का मानना है कि चिन्तामणिमें चार गुण हैं- 'तम नासत दारिद हरत, रुज हरि बिघ्न निवारि' वैसे ही श्रीरामचरित्र में अविद्या - तमनाश, मोह - दारिद्र्य हरण, मानस-रोग-शमन, कामादि- विघ्न निवारण ये गुण हैं। सन्तोंकी सुन्दर बुद्धिरूपिणी स्त्रीके अंगोंके सोलहों शृंगाररूप यह रामचरित है।
जैसा कि कहा भी गया है-
'उबटि सुकृति प्रेम मज्जन सुधर्म पट नेह नेह माँग शम दमसे दुरारी है।
नूपुर सुबैनगुण यावक सुबुद्धि आँजि चूरि सज्जनाई सेव मेंहदी सँवारी है ॥ 
दया कर्णफूल नय शांति हरिगुण माल शुद्धता सुगंधपान ज्ञान त्याग कारी है। 
घूँघट ध्यान सेज तुरियामें बैजनाथ रामपति पास तिय सुमति शृंगारी है।' 
ये सारी हमें राम चरित श्रवणमात्रसे प्राप्त हो जाती  हैं।
है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "महादेवजी को राम कथा कैसी प्रिय है"

मानस चर्चा "महादेवजी को राम कथा कैसी प्रिय है" 
सिवप्रिय मेकल सैल  सुता सी । सकल सिद्धि सुख संपतिरासी ॥ 
'मेकल- सैल - सुता'  कौन हैं - मेकल-शैल अमरकण्टक पहाड़  को कहते हैं। यहाँसे नर्मदाजी निकली है।इसीसे नर्मदाजीको 'मेकल-शैल-सुता' कहा जाता है । जैसा कि अमरकोष  में कहा भी गया है---
'रेवती तु नर्मदा सोमोद्भवा मेकलकन्यका।' 
श्रीशिवजीको यह कथा (राम कथा) नर्मदाके समान प्रिय है। जो सब सिद्धियों, सुख और सम्पत्तिकी राशि है ॥ 
नर्मदाजी के समान कहनेका भाव क्या है?भाव यह है कि नर्मदाके स्मरणसे सर्पजन्य विष- का नाश हो जाता है। प्रमाण स्वरूप विष्णु पुराण के  इस श्लोक को देखें -
'नर्मदायै नमः प्रातर्नर्मदायै नमो निशि । 
नमस्ते नर्मदे तुभ्यं त्राहि मां विषसर्पतः ॥'
वैसे ही रामकथाके स्मरणसे संसारजन्य विष दूर हो जाता है। अब हम अन्य बात पर भी चर्चा करते है कि ---
'सिव प्रिय मेकल सैल सुता सी'  ही क्यों कहा जा रहा है । इसका  कारण  यह है कि नर्मदा नदीसे प्रायः स्फटिकके या लाल या काले रंगके पत्थरके अण्डाकार टुकड़े निकलते हैं जिन्हें नर्मदेश्वर शिव  कहते हैं। ये पुराणानुसार शिवजीके स्वरूप  ही माने जाते हैं और इनके पूजनका बहुत माहात्म्य  भी बताया  गया है। श्रीशिवजीको नर्मदा इतनी प्रिय है कि नर्मदेश्वररूपसे उसमें सदा निवास करते  हैं या यों कहिये कि शिवजीके अति प्रियत्वके कारण सदा अहर्निश इसी द्वारा प्रकट होते हैं। रामकथा भी शिवजीको ऐसी ही प्रिय है अर्थात् आप निरन्तर इसीमें निमग्न रहते हैं ।'शिवजीका प्रियत्व इतना है कि अनेक रूप धारण करके नर्मदामें नाना क्रीड़ा करते हैं, तद्वत् इसके अक्षर-अक्षर प्रति तत्त्वोंके नाना भावार्थरूप कर उसीमें निमग्न रहते हैं। अतः मानसरामायणपर नाना अर्थोंका धाराप्रवाह है ।  नर्मदाजी शिवजीको प्रिय हैं इस संबंध में संदेह नहीं क्योंकि वायुपुराणमें कहा है कि यह पवित्र, बड़ी और
त्रैलोक्यमें प्रसिद्ध नदियोंमें श्रेष्ठ नर्मदा महादेवजीको प्रिय है।  - 
' एषा पवित्रविपुला नदी त्रैलोक्यविश्रुता ।
नर्मदासरितां श्रेष्ठा महादेवस्य वल्लभा ॥'
पद्मपुराण स्वर्गखण्डमें नर्मदाजीकी उत्पत्ति श्रीशिवजीके शरीरसे कही गयी है। जैसा कि  कहा गया है-
'नमोऽस्तु ते ऋषिगणैः शंकरदेहनिःसृते ।' 
और यह भी कहा है कि शिवजी नर्मदा नदीका नित्य सेवन करते हैं। अतः 'सिव प्रिय ' कहा। पुनः, स्कन्दपुराणमें
कथा है कि नर्मदाजीने काशीमें आकर भगवान् शंकरकी आराधना की जिससे उन्होंने प्रसन्न होकर वर
दिया कि तुम्हारी निर्द्वन्द्व भक्ति हममें बनी रहे और यह भी कहा कि तुम्हारे तटपर जितने भी प्रस्तरखण्ड
हैं वे सब मेरे वरसे शिवलिंगस्वरूप हो जायँगे। जो सदा के लिए सत्य ही है।
'सुख संपति रासी' से नव निधियोंका अर्थ भी लिया जाता है।  नव निधियाँ  हैं-
'महापद्मश्च पद्मश्च शङ्खो मकरकच्छपौ । मुकुन्दकुन्दनीलश्च खर्वश्च निधयो नव।'
इस प्रकार यह अलौकिक कथा श्री महादेवजी को प्रिय तो है ही जन जन को नव निधि देने वाली भी है।जैसा कि स्पष्ट है--
'हरषे जनु नव निधि घर आई'
तथा  'मनहुँ रंक निधि लूटन लागी'  ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा"श्री रामजी को राम कथा तुलसी सी प्रिय है"

मानस चर्चा"श्री रामजी को राम कथा तुलसी सी प्रिय है"
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी । तुलसिदास हित हिय हुलसी सी ॥
श्रीरामजीको यह कथा पवित्र तुलसीके समान प्रिय है। मुझ तुलसीदासके हितके लिये हुलसी माता एवं हृदयके आनन्दके समान है।
' रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी' इति ।  'तुलसी' पवित्र है और श्रीरामजीको प्रिय है।तुलसीका पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पावन हैं। जैसा कि पद्म पुराण में कहा भी गया है-
पत्रं पुष्पं फलं मूलं शाखा त्वक् स्कन्धसंज्ञितम् । तुलसीसम्भवं सर्वं पावनं मृत्तिकादिकम् ॥' 
वह इतनी पवित्र है कि यदि मृतकके दाहमें उसकी एक भी लकड़ी पहुँच जाय तो उसकी मुक्ति हो जाती है। यथा - 'यद्येकं तुलसीकाष्ठं मध्ये काष्ठस्य तस्य हि ।
दाहकाले भवेन्मुक्तिः कोटिपापयुतस्य च ॥'
तुलसीकी जड़में ब्रह्मा, मध्यभागमें भगवान् जनार्दन और मंजरीमें भगवान् रुद्रका निवास है । इसीसे वह पावन मानी गयी है। दर्शनसे सारे पापोंका नाश करती है, स्पर्शसे शरीरको पवित्र करती, प्रणामसे रोगोंका निवारण करती, जलसे सींचनेपर यमराजको भी भय पहुँचाती है और भगवान्‌के चरणोंपर चढ़ानेपर मोक्ष प्रदान करती है। यथा - ' या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी । प्रत्यासत्ति विधायिनी भगवतः कृष्णस्य संरोपिता
न्यस्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नमः ॥' प्रियत्व यथा -' तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया। भगवान्‌को तुलसी कैसी प्रिय है, यह बात स्वयं भगवान्ने अर्जुनसे कही है। तुलसीसे बढ़कर कोई पुष्प, मणि, सुवर्ण आदि उनको प्रिय नहीं है। लाल, मणि, मोती, माणिक्य, वैदूर्य और मूँगा आदिसे भी पूजित होकर भगवान् वैसे संतुष्ट नहीं होते, जैसे तुलसीदल, तुलसीमंजरी, तुलसीकी लकड़ी और इनके अभावमें तुलसीवृक्षके जड़की मिट्टीसे
पूजित होनेपर होते हैं। भगवान् तुलसी- काष्ठकी धूप, चन्दन आदिसे प्रसन्न होते हैं तब तुलसी - मंजरीकी तो बात हीक्या ?
'तुलसी' इतनी प्रिय क्यों है, इसका कारण यह भी है कि ये लक्ष्मी ही हैं, कथा यह है कि सरस्वतीने लक्ष्मीजीको शाप दिया था कि तुम वृक्ष और नदीरूप हो जाओ । यथा - ' शशाप वाणी तां पद्मां महाकोपवती सती । 
वृक्षरूपा सरिद्रूपा भविष्यसि न संशयः ॥ '
पद्माजी अपने अंशसे भारतमें आकर पद्मावती नदी और
तुलसी हुईं। जैसा कि ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखण्ड में कहा गया है -
'पद्मा जगाम कलया सा च पद्मावती नदी । 
भारतं भारतीशापात्स्वयं तस्थौ हरेः पदम् ॥'
'ततोऽन्यया सा कलया चालभज्जन्म भारते । धर्मध्वजसुतालक्ष्मीर्विख्यातातुलसीतिच॥'
पुनः, तुलसीके समान प्रिय इससे भी कहा कि श्रीरामचन्द्रजी जो माला हृदयपर धारण करते हैं,
उसमें तुलसी भी अवश्य होती है। गोस्वामीजीने ठौर-ठौरपर इसका उल्लेख किया है। यथा - 
'उर श्रीवत्स रुचिर बनमाला । ' 
'कुंजरमनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल ॥'  'सरसिज लोचन बाहु बिसाला ।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥' 
वनमालामें प्रथम तुलसी है, यथा-
'सुंदर पट पीत बिसद भ्राजत बनमाल उरसि तुलसिका प्रसून रचित बिबिध बिधि बनाई ॥ '  पुनः,
'तुलसी - सम प्रिय' कहकर सूचित किया कि श्रीजी भी इस कथाको हृदयमें धारण करती हैं।
तुलसीकी तुलनाका भाव यहां  यह भी  है कि जो कुछ कर्म-धर्म तुलसीके बिना किया जाता है वह सब निष्फल हो जाता है। इसी प्रकार भगवत्कथाके बिना जीवन व्यर्थ हो जाता है। आगे कहा गया कि -हिय हुलसी सी'  
बृहद्रामायणमाहात्म्यमें गोस्वामीजीकी माताका नाम 'हुलसी' और पिताका नाम अम्बादत्त दिया है। पुनः-
'सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहत अस होय । गोद लिये हुलसी फिरैं तुलसी सो सुत होय ॥'
इस दोहेके आधारपर भी  'हुलसी' ही गोस्वामीजी  की माताका  है।  वेणीमाधवदासकृत 'मूल गुसाईंचरित' में
भी गोस्वामीजी  की माताका नाम हुलसी लिखा है। यथा - 'उदये हुलसी उद्घाटिहि ते । 
सुर संत सरोरुह से बिकसे', हुलसी-सुत तीरथराज गये॥ ' ' हुलसी' माताका नाम होनेसे भाव  यह होता हैकि यह कथा  'मुझ तुलसीदासका हृदयसे हित करनेवाली 'हुलसी' माताके समान है।' अर्थात् जैसे माताके हृदयमें हर समय
बालकके हितका विचार बना रहता है वैसे ही यह कथा सदैव मेरा हित करती है। तुलसीदास अपने
हितके लिये रामकथाको माता हुलसीके समान कहकर जनाते हैं कि पुत्र कुपूत भी हो तो भी माताका
स्नेह उसपर सदा एकरस बना रहता है। 'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।' और 'हुलसी' माताने
हित किया भी। पिताने तो त्याग ही दिया । जैसा कि मूल गुसाईंचरित में कहा भी गया है - 
'हम का करिबे अस बालक लै । 
जेहि पालै जो तासु करै सोइ छै ॥
जनने सुत मोर अभागो महीं ।
सो जिये वा मरै मोहिं सोच नहीं ॥ 
माताने सोचा कि यह मूलमें पैदा हुआ है और माता-पिताका घातक है - यह समझकर इसका पिता इसको कहीं फेंकवा न दे, अतएव उसने बालक को दासीको सौंपकर उसको घर भेज दिया और बालकके कल्याणके लिये देवताओंसे प्रार्थना की। यथा - 
'अबहीं सिसु लै गवनहु हरिपुर ।
नहिं तो ध्रुव जानहु मोरे मुये।
सिसु फेकि पवारहिंगे भकुये ॥
सखि जानि न पावै कोई बतियाँ।
चलि जायहु मग रतियाँ - रतियाँ ॥
तेहि गोद दियो सिसु ढारस ।
निज भूषन दै दियो ताहि पठै ॥
चुपचाप चली सो गई सिसु लै ।
हुलसी उर सूनु बियोग फबै ॥
गोहराइ रमेस महेस बिधी ।
बिनती करि राखबि मोर निधी ॥ ५ ॥ मूल गुसाईंचरित के  इस उद्धरणमें माताके हृदय भाव झलक रहे हैं । यहां  यह तो स्पष्ट ही है कि  'जैसे हुलसीने अपने उरसे उत्पन्नकर स्थूलरूपका पालन किया वैसे ही रामायण अर्थात्  यह राम कथा अपने उरसे उत्पन्न करके आत्मरूपका पालन करेगी और सभी मानस प्रेमियों का कल्याण ही करेगी।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा राम कथा - असुरसेन गया के समान है

मानस चर्चा राम कथा - असुरसेन गया के समान है
असुरसेन सम नरक निकंदिनि । साधु-बिबुध कुल हित गिरि- नंदिनि ॥
राम कथा, असुरसेन' के समान नरककी नाश करनेवाली है और साधुरूपी देव समाजके लिये श्रीपार्वतीजीके समान है ॥ 
'असुर-सेन' - इसकी संज्ञा पुंल्लिंग है। संस्कृत शब्द है। यह एक राक्षस हैं, कहते हैं कि इसके शरीरपर गया
नामक नगर बसा है। अनेक मानस मर्मज्ञों ने इसका अर्थ
'गयासुर'  ही किया है। गयातीर्थ इसीका शरीर है।
वायुपुराणान्तर्गत गया - माहात्म्यमें इसकी कथा इस प्रकार है- यह असुर महापराक्रमी था। सवा सौ योजन ऊँचा था और साठ योजन उसकी मोटाई थी। उसने घोर तपस्या की जिससे त्रिदेवादि सब देवताओंने उसके पास आकर उससे वर माँगनेको कहा। उसने यह वर माँगा कि 'देव, द्विज, तीर्थ, यज्ञ आदि सबसे अधिक मैं पवित्र हो जाऊँ। जो कोई मेरा दर्शन वा स्पर्श करे वह तुरन्त पवित्र हो जाय।' एवमस्तु कहकर सब देवता चले गये। सवा सौ योजन ऊँचा होनेसे उसका दर्शन बहुत दूरतकके प्राणियोंको होनेसे वे अनायास पवित्र हो गये जिससे यमलोकमें हाहाकार मच गया। तब भगवान्ने ब्रह्मासे कहा कि तुम
यज्ञके लिये उसका शरीर माँगो जब वह लेट जायगा तब दूरसे लोगोंको दर्शन न हो सकेगा, जो उसके निकट जायँगे वे ही पवित्र होंगे।ब्रह्माजीने आकर उससे कहा कि संसारमें हमें कहीं पवित्र भूमि नहीं मिली जहाँ यज्ञ करें, तुम लेट जाओ तो हम तुम्हारे शरीरपर यज्ञ करें। उसने सहर्ष स्वीकार किया। अवभृथस्नानके पश्चात् वह कुछ हिला तब ब्रह्मा-विष्णु आदि सभी देवता उसके शरीरपर बैठ गये
और उससे वर माँगनेको कहा। उसने वर माँगा कि जबतक संसार स्थित रहे तबतक आप समस्त देवगण
यहाँ निवास करें, यदि कोई भी देवता आपमेंसे चला जायगा तो मैं निश्चल न रहूँगा और यह क्षेत्र मेरे
नाम अर्थात् गया नाम से प्रसिद्ध हो तथा यहाँ पिण्डदान देनेसे लोगोंका पितरोंसहित उद्धार हो जाय ।
देवताओंने यह वर उसे दे दिया। तो ठीक गया के समान ही इंसान के हर पापों को जड़ से नष्ट करने वाली है यह रामकथा।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा रामकथा कलि- पन्नग भरनी ।

मानस चर्चा रामकथा कलि- पन्नग भरनी ।
रामकथा कलि- पन्नग भरनी । पुनि बिबेक - पावक कहुँ अरनी ॥ 
पन्नग अर्थात् सर्प, साँप। 'भरनी' - भरणीके अनेक अर्थ किये गये हैं- व्रजदेशमें एक सर्पनाशक जीवविशेष होता है जो चूहे -सा होता है। यह  सर्पको देखकर सिकुड़कर बैठ जाता है। साँप उसे मेढक (दादुर) जानकर निगल जाता है तब वह अपनी काँटेदार देहको फैला देता है जिससे सर्पका पेट फट जाता है और साँप मर जाता है। जैसा कि  कहा भी गया है- 
'तुलसी छमा गरीब की पर घर घालनिहारि ।
ज्यों पन्नग भरनी ग्रसेई निकसतउदर बिदारि ॥
दूसरे ढंग से भी यही बात प्रमाणित हो रही है--
', 'तुलसी गई गरीब की दई ताहि पर डारि । 
ज्यों पन्नग भरनी भषे निकरै उदर बिदारि ॥" (२)
'भरनी' नक्षत्र भी होता है जिसमें जलकी वर्षासे सर्पका नाश होता है—'अश्विनी अश्वनाशाय भरणी सर्पनाशिनी ।
कृत्तिका षड्विनाशाय यदि वर्षति रोहिणी ॥'   गारुडी मन्त्रको भी भरणी कहते हैं। जिससे सर्पके काटनेपर
झाड़ते हैं तो साँपका विष उतर जाता है।  'वह मन्त्र जिसे सुनकर सर्प हटे तो बचे नहीं और न हटे तो जल-भुन जावे ।इस प्रकार यह बताया जा रहा है की
- रामकथा कलिरूपी साँपके लिये भरणी ( के समान) है और विवेकरूपी अग्निको ( उत्पन्न करनेको) अरणी है  अर्थात सूर्य है॥ 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "विमल विवेक"

मानस चर्चा "विमल विवेक"
संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव ।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥ 
अर्थात्  हे प्रभो ! सन्त ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण और मुनि लोग भी यही गा  गा कर कहते हैं कि गुरुसे
छिपाव अर्थात् कपट  करनेसे हृदयमें निर्मल ज्ञान नहीं होता ॥ 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "जागबलिक"

मानस चर्चा "जागबलिक"
जागबलिक जो कथा सुहाई । भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई ॥ 
कहिहौं सोइ संबाद बखानी।सुनहु सकल सज्जन सुखु मानी।। 
याज्ञवल्क्यजी ब्रह्माजीके अवतार हैं। इनकी कथा स्कन्दपुराणके हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्यके प्रसंगमें
इस प्रकार है- किसी समयकी बात है कि ब्रह्माजी राजस्थान राज्य के पुष्कर क्षेत्र में एक यज्ञ कर रहे थे। ब्रह्माजीकी पत्नी सावित्रीजीको आने में देर हुई और शुभ मुहूर्त बीता जा रहा था। तब इन्द्रने एक गोपकन्या /ग्वालिन अर्थात् अहीरिन को लाकर कहा कि
इसका पाणिग्रहणकर यज्ञ आरम्भ कीजिये । पर ब्राह्मणी न होनेसे उसको ब्रह्माने गौके मुखमें प्रविष्टकर  है गौ की योनिद्वारा बाहर निकालकर ब्राह्मणी बना लिया; क्योंकि ब्राह्मण और गौका कुल शास्त्रमें एक माना गया है। फिर विधिवत् उसका पाणिग्रहणकर उन्होंने यज्ञारम्भ किया। यही गायत्री है। कुछ देरमें सावित्रीजी वहाँ पहुँचीं और ब्रह्माके साथ यज्ञमें दूसरी स्त्रीको बैठे देख उन्होंने ब्रह्माजीको शाप दिया कि तुम मनुष्यलोकमें जन्म लो और कामी हो जाओ । फिर सरस्वती अपना सम्बन्ध ब्रह्मासे तोड़कर वह तपस्या करने चली गयी । आप प्रमाण प्राप्त करना चाहते हो तो राजस्थान राज्य के पुष्कर क्षेत्र का भ्रमण कर लेवें। मां सावित्री के श्राप के कारण कालान्तरमें ब्रह्माजीने चारणऋषिके यहाँ जन्म लिया ।वहाँ याज्ञवल्क्य नाम हुआ। तरुण होनेपर वे शापवशात् अत्यन्त कामी हुए जिससे पिताने उनको  घर से निकाल दिया।पागल-सरीखा भटकते हुए वे चमत्कारपुरमें शाकल्य ऋषिके यहाँ पहुँचे और वहाँ उन्होंने वेदाध्ययन किया। एक समय आनर्त्तदेशका राजा चातुर्मास्यव्रत करनेको वहाँ प्राप्त हुआ और उसने अपने पूजा- पाठके लिये शाकल्यको पुरोहित बनाया। शाकल्य नित्यप्रति अपने यहाँका एक विद्यार्थी राजा के यहां पूजा-पाठ करनेको भेज देते थे, जो
पूजा-पाठ करके राजाको आशीर्वाद देकर दक्षिणा लेकर आता था और गुरुको दे देता था। एक बार
याज्ञवल्क्यजीकी बारी आयी । यह पूजा आदि करके जब मन्त्राक्षत लेकर आशीर्वाद देने गये तब वह राजा विषयमें
आसक्त था, अतः उसने कहा कि यह लकड़ी जो पास ही पड़ी है इसपर अक्षत डाल दो। याज्ञवल्क्यजी अपमान
समझकर क्रोधमें आ आशीर्वादके मन्त्राक्षत काष्ठपर छोड़कर चले गये, दक्षिणा भी नहीं ली । मन्त्राक्षत पड़ते
ही काष्ठ में शाखापल्लव आदि हो आये। यह देख राजाको बहुत पश्चात्ताप हुआ कि यदि यह अक्षत मेरे सिरपर
पड़ते तो मैं अजर-अमर हो जाता। राजाने शाकल्यजीको कहला भेजा कि उसी शिष्यको भेजिये । परन्तु याज्ञवल्क्यजी कहा कि उसने हमारा अपमान किया इससे हम न जायँगे। तब शाकल्यने कुछ दिन और अन्य विद्यार्थियोंको भेजा ।राजा विद्यार्थियोंसे दूसरे काष्ठपर आशीर्वाद छुड़वा देता । परन्तु किसीके मन्त्राक्षतसे काष्ठ हरा-भरा न हुआ । यह देख राजाने स्वयं जाकर आग्रह किया कि याज्ञवल्क्यजीको भेजें, परन्तु इन्होंने साफ जवाब दे दिया । शाकल्यको इसपर क्रोध आ गया और उन्होंने कहा कि - 
'एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् । 
पृथिव्यां नास्ति तद्द्द्रव्यं यद्दत्वा चानृणी भवेत् ॥'  अर्थात् गुरु जो शिष्यको एक भी अक्षर देता है पृथ्वीमें कोई ऐसा द्रव्य नहीं है जो शिष्य देकर उससे उऋण हो जाय। उत्तरमें याज्ञवल्क्यजीने कहा-
'गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथे वर्तमानस्य परित्यागो विधीयते ॥' 
अर्थात् जो गुरु अभिमानी हो, कार्य-अकार्य क्या करना उचित है, क्या नहीं को नहीं जानता हो ऐसे दुराचारीका चाहे वह गुरु ही क्यों न हो परित्याग कर देना चाहिये ।
तुम हमारे गुरु नहीं, हम तुम्हें छोड़कर चल देते हैं। यह सुनकर शाकल्यने अपनी दी हुई विद्या लौटा देनेको
कहा और अभिमन्त्रित जल दिया कि इसे पीकर वमन कर दो। याज्ञवल्क्यजीने वैसा ही किया। अन्नके साथ
वह सब विद्या उगल दी। विद्या निकल जानेसे वे मूढबुद्धि हो गये । तब उन्होंने हाटकेश्वरमें जाकर सूर्यकी
बारह मूर्तियाँ स्थापित करके सूर्यकी उपासना की। बहुत काल बीतनेपर सूर्यदेव प्रकट हो गये और वर माँगनेको
कहा। याज्ञवल्क्यजीने प्रार्थना की कि मुझे चारों वेद सांगोपांग पढ़ा दीजिये। सूर्यने कृपा करके उन्हें मन्त्र बतलाया जिससे वे सूक्ष्म रूप धारण कर सकें और कहा कि तुम सूक्ष्म शरीरसे हमारे रथके घोड़ेके कानमें बैठ जाओ, हमारी कृपासे तुम्हें ताप न लगेगी। मैं वेद पढ़ाऊँगा, तुम बैठे सुनना । इस तरह चारों वेद सांगोपांग पढ़कर सूर्यदेवसे आज्ञा लेकर वे शाकल्यके पास आये और कहा कि हमने आपको दक्षिणा नहीं दी थी, जो माँगिये वह हम आपको दे देगें। उन्होंने सूर्यसे पढ़ी हुई विद्या माँगी। याज्ञवल्क्यजीने वह विद्या उनको दे दी। जिससे वे और अधिक देदीप्यमान  हो गए।इनकी दो स्त्रियाँ थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी । कात्यायनीके पुत्र कात्यायन हुए।  छन्दोग्य उपनिषद् में इनकी बड़ी महिमा लिखी है। इन्होंनेजनकमहाराजकी सभा में छः मासतक शास्त्रार्थ किया है। ये धर्मशास्त्रादिके प्रधान विद्वान् हैं । भगवान्के ध्यानमें समाधि लगाने में अद्वितीय योगी हैं, इसीलिये इन्हें 'योगियाज्ञवल्क्य' कहते हैं। भगवद्भक्तोंमें प्रधान होनेसे पहले याज्ञवल्क्यका नाम लिया। प्रयागमें ऋषिसभाके बीच प्रथम रामचरित्रके लिये भरद्वाजहीने प्रश्न किया, इसलिये प्रधान श्रोता भरद्वाजका प्रथम नामोच्चारण किया ।मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज को सुनाई थी, वही राम कथा सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए सुनें।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "अजामिल गज और गणिका की कथा"

मानस चर्चा "अजामिल गज और गणिका की कथा" 
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ । भये मुकुत हरि - नाम- प्रभाऊ ॥ 
अर्थात् - अजामिल, गजेन्द्र और गणिका – ऐसे पतित भी भगवान्‌के नामके प्रभावसे मुक्त हो गये ॥ 
उत्तम भक्तोंकी गिनती श्रीशिवजीसे प्रारम्भ की। यथा - ' महामंत्र जोई जपत महेसू ।' और शिवजीहीपर समाप्त की । यथा - 'सुमिरि पवनसुत पावन नामू ।' श्रीहनुमान्जी रुद्रावतार हैं, यथा-
'रुद्रदेह तजि नेह बस, बानर भे हनुमान ॥ 
जानि रामसेवा सरस समुझि करब अनुमान ।
पुरुषा ते सेवक भए, हर ते भे हनुमान ॥'अर्थात् 'महामंत्र जोई जपत महेसू' से 'सुमिरि पवनसुत' तक उच्च
कोटिके भक्तोंको गिनाया, अब पतितोंके नाम देते हैं जो नामसे बने ।
'अपत' की गिनती अजामिलसे प्रारम्भ करके अपनेमें समाप्ति की । गोस्वामीजीने अपनी गणना भक्तोंमें
नहीं की। यह उनका कार्पण्य है।
'अजामिल' की कथा श्रीमद्भागवत स्कन्ध ( ६ अ० १, २) में, भक्तिरसबोधिनी टीकामें विस्तारसे है। ये कन्नौज के एक श्रुतसम्पन्न ( शास्त्रज्ञ ) सुस्वभाव और सदाचारशील तथा क्षमा, दया आदि अनेक शुभगुणोंसे विभूषित ब्राह्मण थे। एक दिन यह पिता की  आज्ञा से जब वनमें फल, फूल, समिधा और कुशा लेने गए, वहाँसे इनको लेकर लौटते समय वनमें एक कामी शूद्रको एक वेश्यासे निर्लज्जतापूर्वक रमण करते देख ये कामके वश हो गए उसके पीछे इन्होने पिताकी सब सम्पदा नष्ट कर दी, अपनी सती स्त्री और परिवारको छोड़ उस कुलटाके साथ रहने और जुआ, चोरी इत्यादि कुकर्मोंसे जीवनका निर्वाह
और उस दासीके कुटुम्बका पालन करने लगे । इस दासीसे उनके दस पुत्र थे। अब वे अस्सी वर्षके हो
चुके थे।संयोग वश एक साधुमण्डली ग्राममें आयी, कुछ लोगोंने परिहाससे उन्हें बताया कि अजामिल बड़ा सन्तसेवी धर्मात्मा है। वे उसके घर गये तो दासीने उनका आदर-सत्कार किया । उनके दर्शनोंसे अजामिल की बुद्धि फिर सात्त्विकी हो गयी। सेवापर रीझकर साधुओं ने इनसे कहा कि जो बालक गर्भ में है उसका नाम 'नारायण' रखना। इस प्रकार सबसे छोटेका नाम 'नारायण' पड़ा। यह पुत्र उनको प्राणोंसे प्याराथा। अन्तकालमें भी उनका चित्त उसी बालकमें लग गया। उन्होंने तीन अत्यन्त भयंकर यमदूतोंको हाथोंमें पाश लिये हुए अपने पास आते देख विह्वल हो दूरपर खेलते हुए पुत्रको 'नारायण, नारायण' कहकर पुकारा ।  पुकारते ही तुरन्त नारायण- पार्षदोंने पहुँचकर यमदूतोंके पाशसे उन्हें छुड़ा दिया। भगवत् - पार्षदों और यमदूतोंमें वाद-विवाद हुआ। उसने पार्षदोंके मुखसे वेदत्रयीद्वारा प्रतिपादित सगुण धर्म सुना । भगवान्‌का माहात्म्य सुननेसे उसमें भक्ति उत्पन्न हुई। वह पश्चात्ताप करने लगा और भगवद्भजनमें आरूढ़ हो
भगवल्लोकको प्राप्त हुआ। श्रीशुकदेवजी कहते हैं कि पुत्रके मिस भगवन्नाम उच्चारण होनेसे तो पापी
भगवद्धामको गया तो जो श्रद्धापूर्वक नामोच्चारण करेंगे उनके मुक्त होनेमें क्या सन्देह है ? - 
'नाम लियो पूत को पुनीत कियो पातकीस।'
'म्रियमाणो हरेर्नामगृणन्पुत्रोपचारितम् । अजामिलोप्यगाद्धाम किं पुनःश्रद्धया गृणन् ॥'  
अब हम गज की कथा सुनते हैं --
'- क्षीरसागरके मध्यमें त्रिकूटाचल है। वहाँ वरुणभगवान्‌का ऋतुमान् नामक बगीचा है और
एक सरोवर भी । एक दिन उस वनमें रहनेवाला एक गजेन्द्र हथिनियोंसहित उसमें क्रीड़ा कर रहा था । उसीमें
एक बली ग्राह भी रहता था । दैवेच्छासे उस ग्राहने रोषमें भरकर उसका चरण पकड़ लिया। अपनी शक्तिभर
गजेन्द्रने जोर लगाया। उसके साथके हाथी और हथिनियोंने भी उसके उद्धारके लिये बहुत उपाय किये पर उसमें समर्थ न हुए। एक हजार वर्षतक गजेन्द्र और ग्राहका परस्पर एक-दूसरेको जलके भीतर और बाहर खींचा- खींची करते बीत गये । अन्ततोगत्वा गजेन्द्रका उत्साह, बल और तेज घटने लगा और उसके प्राणोंके संकटका समय उपस्थित हो गया— उस समय अकस्मात् उसके चित्तमें सबके परम आश्रय हरिकी शरण लेनेकी सूझी और उसने प्रार्थना की - 
'यः कश्चनेशो बलिनो ऽन्तकोरगात्प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम्। भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्भयान्मृत्युः प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥' अर्थात् जो कालसर्पसे भयभीत भागते हुए व्यक्तिकी रक्षा करता है, जिसके भयसे मृत्यु भी दौड़ता रहता है, उस शरणके देनेवाले, ईश्वरकी मैं शरण हूँ। यह सोचकर वह अपने पूर्वजन्ममें सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्रका जप करने लगा । यथा - 
' जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ।'
स्तुति सुनते ही सर्वदेवमय भगवान् हरि प्रकट हुए। उन्हें देखते ही बड़े कष्टसे अपनी सूँड़में एक कमलपुष्प ले उसे जलके ऊपर उठा भगवान्‌को 'नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ।' इस प्रकार " हे नारायण ! हे अखिल गुरो ! हे भगवन्! आपको नमस्कार है" कहकर प्रणाम किया। यह सुनते ही भगवान्, गरुड़ को भी मन्दगामी समझ उसपरसे कूद पड़े और तुरन्त ही उसे ग्राहसहित सरोवरसे बाहर निकाल सबके देखते-देखते उन्होंने चक्रसे ग्राहका मुख फाड़ गजेन्द्रको छुड़ा दिया। पूर्वजन्ममें यह ग्राह हूहू नामक गन्धर्वश्रेष्ठ था और गजेन्द्र द्रविड़ जातिका इन्द्रद्युम्न नामक पाण्ड्य देशका राजा था। वह मनस्वी राजा एक बार मलयपर्वतपर अपने आश्रम में मौनव्रत धारणकर श्रीहरिकी आराधना कर रहा था। उसी समय दैवयोगसे अगस्त्यजी शिष्योंसहित वहाँ पहुँचे। यह देखकर कि हमारा पूजा - सत्कार आदि कुछ न कर राजा एकान्तमें बैठा हुआ है, उन्होंने उसे शाप दिया कि - 'हाथीके समान
जडबुद्धि इस मूर्ख राजाने आज ब्राह्मणजातिका तिरस्कार किया है, अतः यह उसी घोर अज्ञानमयी योनिको
प्राप्त हो। इसीसे वह राजा गजयोनिको प्राप्त हुआ । भगवान्‌की आराधनाके प्रभावसे उस योनिमें भी उन्हें
आत्मस्वरूपकी स्मृति बनी रही। - अब भगवान्‌के स्पर्शसे वह अज्ञानबन्धनसे मुक्त हो भगवान्‌के सारूप्यको
प्राप्त कर भगवान्‌का पार्षद हो गया ।हूहू गन्धर्वने एक बार देवल ऋषिका जलमें पैर पकड़ा; उसीसे उन्होंने उसको शाप दिया कि तू ग्राहयोनिको प्राप्त हो । भगवान्‌के हाथसे मरकर वह अपने पूर्व रूपको प्राप्त हुआ और स्तुति करके अपने लोकको गया । गजेन्द्रके संगसे उसका भी नाम
चला । गजेन्द्रका 'गजेन्द्रमोक्ष' स्तोत्र प्रसिद्ध ही है। विनयमें भी कहा है- 'तरयो गयंद जाके एक नायँ ।'
अब गणिका की कथा को भी सुन ही लेते हैं।
पद्मपुराणमें गणिकाका प्रसंग श्रीरामनामके सम्बन्धमें आया है। सत्ययुगमें एक रघु नामक वैश्यकी जीवन्ती नामकी एक परम सुन्दरी कन्या थी । यह परशु नामक वैश्यकी नवयौवना स्त्री थी । युवावस्था में ही यह विधवा होकर व्यभिचारमें प्रवृत्त हो गयी। ससुराल और मायका दोनोंसे यह निकाल दी गयी। तब वह किसी दूसरे नगरमें जाकर वेश्या हो गयी। यह वह गणिका है। इसके कोई सन्तान न थी । इसने एक व्याधासे एक बार एक तोतेका बच्चा मोल ले लिया । और उसका पुत्रकी तरह पालन करने लगी। वह उसको 'राम राम' पढ़ाया करती थी। इस तरह नामोच्चारणसे दोनोंके पाप नष्ट हो गये । पद्म पुराण के अनुसार- 'रामेति सततं नाम पाठ्यते सुन्दराक्षरम् ॥ रामनाम परब्रह्म सर्वदेवाधिकं महत् । समस्तपातकध्वंसि स शुकस्तु सदा पठन् ॥
नामोच्चारणमात्रेण तयोश्च शुकवेश्ययोः । विनष्टमभवत्पापं सर्वमेव सुदारुणम् ॥  दोनों साथ-साथ इस प्रकार रामनाम लेते थे। फिर किसी समय वह वेश्या और वह शुक एक ही समय मृत्युको प्राप्त हुए । यमदूत उसको पाशसे बाँधकर ले चले, वैसे ही भगवान्‌के पार्षद पहुँच गये और उन्होंने यमदूतोंसे उसे छुड़ाया। छुड़ानेपर यमदूतोंने मारपीट की। दोनोंमें घोर युद्ध हुआ । यमदूतोंका सेनापति चण्ड जब युद्धमें गिरा तब सब यमदूत भगे। भगवत् पार्षदोंने तब जयघोष किया। उधर यमदूतोंने जाकर धर्मराजसे शिकायत की कि महापातकी भी रामनामके केवल रटनेसे भगवान्‌के लोकको चले गये तब आपका प्रभुत्व कहाँ रह गया ? इसपर धर्मराजने उनसे कहा - ' दूताः स्मरन्तौ तौ रामरामनामाक्षरद्वयम् । तदा न मे दण्डनीयौ तयोर्नारायणः प्रभुः ॥ संसारे नास्ति तत्पापं यद्रामस्मरणैरपि । न याति संक्षयं सद्योदृढं शृणुत किंकराः ॥ ' हे दूतो । वे 'राम,
राम' ये दो अक्षर रटते थे, इसलिये वे मुझसे दण्डनीय नहीं हैं। उनके प्रभु श्रीरामजी हैं। संसारमें ऐसा कोई
पाप नहीं है जो रामनामसे न विनष्ट हो, यह तुमलोग निश्चय जानो । — वे दोनों श्रीरामनामके प्रभावसे मुक्त
हो गये । यथा - 'रामनामप्रभावेण तौ गतौ धाम्नि सत्वरम् ॥' 
एक 'पिंगला' नामकी वेश्याका प्रसंग भी इस प्रकार है कि एक दिन वह किसी प्रेमीको अपने स्थानमें लानेकी इच्छासे खूब बन-ठनकर अपने घरके द्वारपर खड़ी रही। जो कोई पुरुष उस मार्ग से निकलता उसे ही समझती कि बड़ा धन देकर रमण करनेवाला कोई नागरिक आ रहा है, परन्तु जब वह आगे निकल जाता तो सोचती कि अच्छा अब कोई दूसरा बहुत धन देनेवाला आता होगा। इस प्रकार दुराशावश खड़े-खड़े उसे जागते-जागते अर्धरात्रि बीत गयी । धनकी दुराशासे उसका मुख सूख गया, चित्त व्याकुल हो
गया और चिन्ताके कारण होनेवाला परम सुखकारक वैराग्य उसको उत्पन्न हो गया । वह सोचने लगी कि -
ओह! इस विदेहनगरीमें मैं ही एक ऐसी मूर्खा निकली कि अपने समीप ही रमण करनेवाले और नित्य रति
और धनके देनेवाले प्रियतमको छोड़कर कामना पूर्तिमें असमर्थ तथा दुःख, शोक, भय, मोह आदि देनेवाले,
अस्थिमय टेढ़े-तिरछे बाँसों और थूनियोंसे बने हुए, त्वचा, रोम और नखोंसे आवृत, नाशवान् और मल-मूत्रसे
भरे हुए, नवद्वारवाले घररूप देहोंको कान्त समझकर सेवन करने लगी। अब मैं सबके सुहृद्, प्रियतम, स्वामी,
आत्मा, भवकूपमें पड़े हुए कालसर्पसे ग्रस्त जीवोंके रक्षकके ही हाथ बिककर लक्ष्मीजीके समान उन्हींके साथ
रमण करूँगी । यह सोचकर वह शान्तिपूर्वक जाकर सो रही और भजनकर संसार सागरसे पार हो गयी।
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भऐ मुकुत हरि नाम प्रभाऊ' ।।
जैसे अग्निको जानो या न जानो वह छूनेसे
अवश्य जलावेगी वैसे ही होठोंके स्पर्शमात्रसे नाम सर्व शुभाशुभकर्मोंको नष्टकर मुक्ति देगा ही । अजामिल
पतितोंकी सीमा था, इसीसे उसका नाम प्रथम दिया। ग्रन्थके अन्तमें भी कहा है कि ये सब नामसे तरे ।
यथा - 'गनिका अजामिल - व्याध-गीध-गजादि खल तारे घना । आभीर जमन किरात खस श्वपचादि अति अघरूप
जे ॥ कहि नाम बारक तेऽपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥'
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "नारद जानेउ नाम प्रतापू"

मानस चर्चा "नारद जानेउ नाम प्रतापू"
नारद जानेउ नाम प्रतापू।जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू। 
अर्थात् - श्रीनारदजीने नामका प्रताप जाना। जगन्मात्रको हरि प्रिय हैं, हरिको हर प्रिय हैं और हरि तथा
हर दोनोंको नारदजी प्रिय हैं ॥ 
'नारद जानेउ नाम प्रतापू' कैसे  ? इसी ग्रन्थमें इसका एक उत्तर मिलता है। नारदको दक्षका शाप था कि वे किसी एक स्थानपर थोड़ी देरसे अधिक न ठहर सकें। यथा- 'तस्माल्लोकेषु ते मूढ न भवेद् भ्रमतः पदम्।'  अर्थात् सम्पूर्ण लोकोंमें विचरते हुए तेरे ठहरनेका कोई निश्चित स्थान न होगा। परन्तु हिमाचलकी एक परम पवित्र गुफा जहाँ गंगाजी बह रही थीं, देखकर ये वहाँ बैठकर भगवन्नामका स्मरण ज्यों ही करने लगे, त्यों ही शापकी गति रुक गयी, समाधि लग गयी । यथा -
'सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी । 
सहज बिमल मन लागि समाधी ॥' 
इन्द्रने डरकर इनकी समाधिमें विघ्न डालनेके लिये कामको भेजा। उसने जाकर अनेक प्रपंच किये, पर
'काम कला कछु मुनिहि न व्यापी ।'
नारदके मनमें न तो काम ही उत्पन्न हुआ और
न उसकी करतूतिपर उनको क्रोध हुआ। यह सब नाम स्मरणका प्रभाव था, जैसा कहा है-
'सीम कि चापि सकै कोउ तासू।
बड़ रखवार रमापति जासू ॥ ' 
परन्तु उस समय दैवयोगसे वे भूल गये कि यह स्मरणका प्रभाव एवं प्रताप है। उनके चित्तमें अहंकार आ गया कि शंकरजीने तो कामहीको जीता था और मैंने तो काम और क्रोध दोनोंको जीता है। उसका फल जो हुआ
उसकी कथा विस्तारसे ग्रन्थकारने आगे दी ही है। भगवान्ने अपनी मायासे उनके लिये लीला रची जिसमें उनको काम, लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार सभीने अपने वश कर लिया । माया हटा लेनेपर प्रभुके चरणोंपर त्राहि-त्राहि करते हुए गिरनेपर प्रभुकी कृपासे इनकी बुद्धि ठीक हुई और इन्होंने
जाना कि यह सब नामस्मरणका ही प्रताप था इसीसे अवतार होनेपर उन्होंने यह वर माँग लिया कि 'रामनाम सब नामोंसे श्रेष्ठ हो', श्रीरामनामके वे आचार्य और ऋषि हुए। गणेशजी, प्रह्लादजी, व्यासजी आदिको नामका प्रताप आपने ही तो बताया है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा" राम नाम के प्रसाद का फल"

मानस चर्चा" राम नाम के प्रसाद का फल"
नाम प्रसाद संभु अबिनासी । साजु अमंगल मंगलरासी ॥ १ ॥
सुक सनकादि सिद्ध * मुनि जोगी । नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥ २ ॥
अर्थात् - नामके प्रसादसे शिवजी अविनाशी हैं और शरीरमें अमंगल सामग्रियाँ होनेपर भी मंगलकी राशि हैं ॥श्रीशुकदेवजी, श्रीसनकादिजी, सिद्ध, मुनि और योगीलोग नामहीके प्रसादसे ब्रह्मसुखके भोग करनेवाले हैं ॥ 
संभु - 'विष पीनेसे भी न मरे, इसलिये 'अबिनासी' होना सत्य हुआ । यद्यपि चिताकी भस्म, साँपका आभूषण, नरमुण्डके माल इत्यादि अशुभ वेष किये हैं, तथापि नामके बलसे महादेव मंगलकी राशि कहलाते हैं, शंकर- शिव इत्यादि नामसे पुकारे जाते हैं और बात-बातपर सेवकोंपर प्रसन्न हो अलभ्य वरदान देते हैं; जिनके पुत्र गणेशजी मंगलमूर्ति कहलाते हैं, वे वस्तुतः मंगलराशि हैं।
'नाम-हीकी कृपासे शिवजी अविनाशी हैं।' और यही ठीक है जैसा कि 'कालकूट फल दीन्ह अमी को '
से स्पष्ट है।श्रीरामनामके ही प्रतापसे अविनाशी भी हुए, इसके प्रमाण शिव पुराण में ये हैं- 
' यन्नाम सततं ध्यात्वाऽविनाशित्वं परं मुने ।
प्राप्तं नाम्नैव सत्यं तु सगोप्यं कथितं मया ॥'  रामनामप्रभावेण ह्यविनाशिपदं प्रिये ।
प्राप्तं मया विशेषेण सर्वेषां दुर्लभं परम् ॥' 
'साजु अमंगल मंगलरासी'  । श्रीरामनामकी ही कृपा और प्रभावसे अमंगल वेषमें भी मंगलराशि हैं, इसका प्रमाण पद्मपुराणमें है। कथा इस प्रकार है - श्रीपार्वतीजी पूछ रही हैं कि - 'जब कपाल, भस्म, चर्म, अस्थि आदिका धारण करना श्रुतिबाह्य है तब आप इन्हें क्यों धारण करते हैं।'
यथा—
'कपालभस्मचर्मास्थिधारणं श्रुतिगर्हितम् ।
तत्त्वया धार्यते देव गर्हितं केन हेतुना ॥ ' 
श्रीशिवजीने उत्तर देते हुए कहा है कि एक समयकी बात है कि नमुचि आदि दैत्य सर्वपापरहित भगवद्भक्तियुक्त
वेदोक्त आचरण करनेवाले होकर, इन्द्रादि देवताओंके लोक छीनकर राज्य करने लगे। तब इन्द्रादि भगवान्‌की
शरण गये पर भगवान्ने उनको भगवद्भक्त और सदाचारी होनेके कारण मारना उचित न समझा । भक्त
होकर भी भगवान्के बाँधे हुए लोक-मर्यादा और नियम भंग कर रहे हैं, अतः उनका नाश करना आवश्यक
है; इसलिये उनकी बुद्धिमें भेद डालकर सदाचारसे मन हटानेकी युक्ति सोचकर वे (भगवान्) हमारे पास
आये और हमें यह आज्ञा दी कि आप दैत्योंकी बुद्धिमें भेद डालकर उस सदाचारसे उनको भ्रष्ट करनेके
लिये स्वयं पाखण्डधर्मोका आचरण करें । यथा -
' त्वं हि रुद्र महाबाहो मोहनार्थे सुरद्विषाम् ।
पाखण्डाचरणं धर्मं कुरुष्व सुरसत्तम् ॥   पाखण्डाचरणधर्मका लक्षण पार्वतीजीसे उन्होंने पूर्व ही बताया है। वह इस प्रकार है- 
'कपालभस्मास्थिधरा ये ह्यवैदिकलिंगिनः ।
ऋते वनस्थाश्रमाच्च जटावल्कलधारिणः ॥ 
अवैदिक- क्रियोपेतास्ते वै पाखण्डिनस्तथा । 
'आपका परत्व सब जानते ही हैं। इसलिये आपके आचरण देखकर वे सब दैत्य उसीका अनुकरण करने लगेंगे और हमसे विमुख हो जायँगे और जब-जब हम अवतार लिया करेंगे तब-तब उनको दिखानेके लिये हम भी आपकी पूजा किया करेंगे जिससे उनका
इन आचरणों में विश्वास हो जायगा और उसीमें लग जानेसे वे नष्ट हो जायँगे।' यह सुनकर हमारा
मन उद्विग्न हो गया और मैंने उनको दण्डवत् कर प्रार्थना की कि मैं आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ, पर मुझे
बड़ा दुःख यह है कि इन आचरणोंसे मेरा भी नाश हो जायगा और यदि नहीं करता हूँ तो आज्ञा उल्लंघन
होती है, यह भी बड़ा दुःख है। मेरी दीनता देख भगवान्ने दया करके मुझे अपना सहस्रनाम और षडक्षर तारक- मन्त्र देकर कहा कि मेरा ध्यान करते हुए मेरे इस मन्त्रका जप करनेसे तुम्हारा सर्व पाखण्डाचरणका पाप नष्ट हो जायगा और तुम्हारा मंगल होगा । यथा पद्म पुराण में है-
' दत्तवान्कृपया मह्यमात्मनामसहस्त्रकम् ॥ 
हृदये मां समाधाय जपमन्त्रं ममाव्ययम्॥ 
षडक्षरं महामन्त्रं तारकब्रह्मसंज्ञितम् ॥ 
इमं मन्त्रं जपन्नित्यममलस्त्वं भविष्यसि । भस्मास्थिधरणाद्यत्तु सम्भूतं किल्बिषं त्वयि ॥ 
मंगलं तदभूत्सर्वं मन्मन्त्रोच्चारणाच्छुभात्।'
अतएव देवताओंके हितार्थ भगवान्की
आज्ञासे मैंने यह अमंगल साज धारण किया। 
"साजु अमंगल " इति । कपाल, भस्म, चर्म, मुण्डमाला आदि सब 'अमंगल साज' है। शास्त्रसदाचारके
प्रतिकूल और अवैदिक है, इसीसे कल्याणका नाश करनेवाला है जैसा कि उपर्युक्त कथासे स्पष्ट है। पर
श्रीरामनाम - महामन्त्र के प्रभावसे, उसके निरन्तर जपसे, वे मंगल कल्याणकी राशि हैं। अन्यत्र भी कहा है-
'अशिव वेष शिवधाम कृपाला ।' मिलान कीजिये - ' श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहरपिशाचाः सहचराश्चिताभस्मालेपः
स्त्रगपि नृकरोटीपरिकरः । अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि ॥ २४ ॥
(महिम्नस्तोत्र) अर्थात् हे कामारि ! श्मशान तो आपका क्रीडास्थल है, पिशाच आपके संगी-साथी हैं,
चिताभस्म आप रमाये रहते हैं, मुण्डमालधारी हैं, इस प्रकार वेषादि तो अमंगल ही हैं फिर भी जो आपका
स्मरण करते हैं उनके लिये आप मंगलरूप ही हैं।
'सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी । श्रीशुकदेवजी भी श्रीरामनामके प्रसादहीसे ऐसे हुए कि परीक्षित् महाराजकी सभामें व्यासादि जितने भी महर्षि बैठे थे सबने उठकर उनका सम्मान किया । शुकसंहितामें उन्होंने स्वयं कहा है कि श्रीरामनामसे परे कोई अन्य पदार्थ श्रुतिसिद्धान्तमें नहीं है और हमने भी कहीं कुछ और न देखा है न सुना । श्रीशंकरजीके मुखारविन्दसे श्रीरामनामका प्रभाव
शुकशरीरमें सुनकर हम साक्षात् ईश्वरस्वरूप समस्त मुनीश्वरोंसे पूज्य हुए। यथा - ' यन्नामवैभवं श्रुत्वा
शंकराच्छुकजन्मना । साक्षादीश्वरतां प्राप्तः पूजितोऽहं मुनीश्वरैः ॥ नातः परतरं वस्तु श्रुतिसिद्धान्तगोचरम् । दृष्टं
श्रुतं मया क्वापि सत्यं सत्यं वचो मम ॥' 
अमर कथा
श्रीशुकदेवजीके श्रीरामनामपरत्व सुनकर अमर होनेकी कथा इस प्रकार है- एक समय श्रीपार्वतीजीने
श्रीशिवजीसे पूछा कि आप जिससे अमर हैं वह तत्त्व कृपा करके मुझे उपदेश कीजिये। यह सोचकर
कि यह तत्त्व परम गोप्य है, भगवान् शंकरने डमरू बजाकर पहले समस्त जीवोंको वहाँसे भगा दिया।
तब वह गुह्य तत्त्व कथन करने लगे। दैवयोगसे एक शुकपक्षीका अण्डा वहाँ रह गया जो कथाके समय
ही फूटा। वह शुकपोत अमरकथा सुनता रहा । बीचमें श्रीपार्वतीजीको झपकी आ गयी तब वह शुकपोत
उनके बदले हुँकारी देता रहा। पार्वतीजी जब जगीं तो उन्होंने प्रार्थना की कि नाथ! मुझे झपकी आ गयी
थी, अमुक स्थानसे फिरसे सुनानेकी कृपा कीजिये। उन्होंने पूछ कि हुँकारी कौन भरता था ? और यह
जानने पर कि वे हुँकारी नहीं भरती थीं, उन्होंने जो देखा तो एक शुक देख पड़ा। तुरन्त उन्होंने उसपर
त्रिशूल चलाया पर वह अमर कथाके प्रभावसे अमर हो गया था। त्रिशूलको देख वह उड़ता - उड़ता भगवान्
व्यासजीके यहाँ आया और व्यासपत्नी - ( जो उस समय जँभाई ले रही थीं ) के मुखद्वारा उनके उदरमें
प्रवेश कर गया। वही श्रीशुकदेवजी हुए। ये जन्मसे ही परमहंस और मायारहित रहे । इनकी कथाएँ
श्रीमद्भागवत, महाभारत आदिमें विलक्षण - विलक्षण हैं। (श्रीरूपकलाजीकृत भक्तमाल- टीकासे)
सु० द्विवेदीजी लिखते हैं कि 'शुक नाम माहात्म्यरूप भागवतके ही कारण महानुभाव हुए, पिता व्यास,
पितामह पराशरसे भी परीक्षित्‌की सभामें आदरको पाया।'
'ब्रह्मसुख भोगी' कहकर जनाया कि वे ब्रह्मरूप ही हो गये । यथा - 'योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे।' 
श्रीसनकादि भी नामप्रसादसे ही जीवन्मुक्त और ब्रह्मसुखमें लीन रहते हैं, यह इससे भी सिद्ध
होता है कि ये श्रीरामस्तवराजस्तोत्रके ऋषि (प्रकाशक) हैं। उस स्तवराजमें श्रीरामनामको ही 'परं जाप्यम्'
बताया गया है। यथा - ' श्रीरामेति परं जाप्यं तारकं ब्रह्मसंज्ञकम् ।' 
'ब्रह्मानंद सदा लयलीना ।
देखत बालक बहुकालीना ॥ , 'जीवनमुक्त ब्रह्मपर।' 
यह बात लिखी है कि ज्ञानियोंको यही ठीक है कि प्रत्येक क्षणमें परमेश्वरका नाम लेवें और कुछ नहीं । यथा – 'योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्त्तनम्।' 'योगिनाम्' का अर्थ श्रीधरस्वामीने यह लिखा है- 'योगिनां ज्ञानिनां फलं चैतदेव निर्णीतं नात्र प्रमाणं वक्तव्यमित्यर्थः ।' अर्थात् यह
फल योगियों अर्थात् ज्ञानियोंका निर्णय किया हुआ है।
श्रीमद्भागवतके अन्तमें भी यह लिखा है कि परमेश्वरका नाम सारे पापको नाश करनेवाला है। यथा-
'नाम संकीर्त्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् । प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥'  इसी कारण गोसाईंजीने लिखा कि शुक-सनकादि भी नामके प्रभावसे सुखका अनुभव करते हैं। (मानसपत्रिका)
नोट - ६ श्रीशुकदेवजीको श्रीसनकादिके पहले यहाँ भी लिखा है। इसका कारण मिश्रजी यह लिखते
हैं कि 'शुकदेवजी अनर्थप्रद युवावस्थाके अधीन न हुए। सनकादिकोंने परमेश्वरसे वरदान माँगा कि हम
बालक ही बने रहें जिससे कामके वशीभूत न हों। इस कारण इनके नामका उल्लेख ग्रन्थकारने पीछे
किया।...' शुकदेवजी परमेश्वरके रूप ही कहे जाते हैं, यथा-' योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे ।
संसारसर्पदष्टं यो विष्णुरातममूमुचत् ॥' 
अर्थात् श्रीशुकदेवजी युवावस्थामें रहते
हुए सदा भगवान् के आश्रित रहे, तब 'सीम कि चाँपि सकै कोउ तासू । बड़ रखवार रमापति जासू ॥' 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा"दंडक बन"


मानस चर्चा"दंडक बन"
दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन । जन मन अमित नाम किय पावन ॥
अर्थात् प्रभु (श्रीरामजी) ने दण्डकवनको सुहावना ( हरा-भरा ) कर दिया। और,  प्रभु के नामने अमित (अनन्त) प्राणियोंके मनको पवित्र कर दिया। 'दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन'  । 'सुहावन' अर्थात्  हरा-भरा जो देखनेमें अच्छा लगे। भाव यह कि निशाचरोंके वहाँ रहनेसे और फल-फूल न होनेसे वह भयावन था, सो शोभायमान
हो गया । यथा - 'जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भये मुनि बीती त्रासा ॥ गिरि बन नदी ताल छबि छाए ।
दिन दिन प्रति अति सुहाए ॥ ' पावन, पुनीत, पवित्र भी किया ; यथा - 'दंडक बन पुनीत प्रभु करहू ।'
'दंडक पुहुमि पायँ परसि पुनीत भई उकठे बिटप लागे फूलन फरन।' 
दण्डकवनको सुहावना कर देना, यह निःस्वार्थ जीवोंका पालन करना प्रभु का 'दया' गुण है ।
जैसा कि भगवद्गुणदर्पण में कहा गया है -
'दया दयावतां ज्ञेया स्वार्थस्तत्र न कारणम् ।' पुनश्च 'प्रतिकूलानुकूलोदासीन-सर्वचेतनाचेतनवस्तुविषयस्वरूपसत्तोपलम्भनरूपदालनानुगुणव्यापारविशेषो हि भगवतो दया' अर्थात् दयावानोंकी उस दयाको दया कहा जायगा जिसमें स्वार्थका लेश भी न हो। रूपमें जो यह दयालुता प्रकट हुई, उसी गुणको नामने लोकमें फैला दिया। उस दयाकी प्याससे अनेक लोग दयालु प्रभुका नाम-स्मरण करने लगे और पवित्र हो गये । इसीसे अमित जनोंके मनका नामद्वारा पावन होना कहा।
दण्डकवन एक है और जनमनरूपी वन 'अमित' यह विशेषता है।
दंडक वन की अनेक अद्भुत कथायें हैं आप उन्हें अवश्य सुनना चाहेंगे आइए सुनते हैं --
पहली कथा यह मिलती है कि राजा  इक्ष्वाकुपुत्र दण्ड शुक्राचार्यजीके शापसे दण्डकवन हो गया। अन्य वार्ता अनुसार श्रीइक्ष्वाकुमहाराजका कनिष्ठ पुत्र दण्ड था । इसका राज्य विन्ध्याचल और नीलगिरि के बीचमें था । यहाँके सब वृक्ष झुलस गये थे, प्रजा नष्ट हो गयी और निशिचर रहने लगे। इसके दो कारण कहे जाते हैं - ( १ ) एक तो गोस्वामीजीने अरण्यकाण्डमें 'मुनि वर साप' कहा है, यथा - 'उग्र साप मुनिवर कर हरहू ।' कथा यह है कि एक समय बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा। ऋषियोंको अन्न-जलकी बड़ी
चिन्ता हुई। सब भयभीत होकर गौतमऋषिके आश्रमपर जाकर ठहरे। जब सुसमय हुआ तब उन्होंने अपने-
अपने आश्रमोंको जाना चाहा, पर गौतम महर्षिने जाने न दिया, वरंच वहीं निवास करनेको कहा। तब
उन सबने सम्मत करके एक मायाकी गऊ रचकर मुनिके खेतमें खड़ी कर दी। मुनिके आते ही बोले
कि गऊ खेत चरे जाती है। इन्होंने जैसे ही हाँकनेको हाथ उठाया वह मायाकी गऊ गिरकर मर गयी,
तब वे सब आपको गोहत्या लगा चलते हुए। मुनिने ध्यान करके देखा तो सब चरित जान गये और
यह शाप दिया कि तुम जहाँ जाना चाहते हो, वह देश नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा । 
(२) दूसरी कथा यह है - पूर्वकालके सत्ययुगमें वैवस्वत मनु हुए। वे अपने पुत्र इक्ष्वाकुको राज्यपर
बिठाकर और उपदेश देकर कि 'तुम दण्डके समुचित प्रयोगके लिये सदा सचेष्ट रहना । दण्डका अकारण
प्रयोग न करना।', ब्रह्मलोकको पधारे। इक्ष्वाकुने बहुत से पुत्र उत्पन्न किये। उनमेंसे जो सबसे कनिष्ठ (छोटा)
था, वह गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ था। वह शूरवीर और विद्वान् था और प्रजाका आदर करनेके कारण सबके विशेष
गौरवका पात्र हो गया था । इक्ष्वाकुमहाराजने उसका नाम 'दण्ड' रखा और विन्ध्याचलके दो शिखरोंके बीचमें
उसके रहनेके लिये एक नगर दे दिया जिसका नाम मधुमत्त था। धर्मात्मा दण्डने बहुत वर्षोंतक वहाँका अकण्टक राज्य किया । तदनन्तर एक समय जब चैत्रकी मनोरम छटा चारों ओर छहरा रही थी। राजा दण्ड भार्गव मुनिके रमणीय आश्रमके पास गया तो वहाँ एक परम सुन्दरी कन्याको देखकर वह कामपीड़ित हो गया। पूछनेसे ज्ञात हुआ कि वह भार्गववंशोद्भव श्रीशुक्राचार्यजीकी ज्येष्ठ कन्या 'अरजा' है। उसने कहा कि मेरे पिता आपके
गुरु हैं, इस कारण धर्मके नाते मैं आपकी बहन हूँ। इसलिये आपको मुझसे ऐसी बातें न करनी चाहिये। मेरे
पिता बड़े क्रोधी और भयंकर हैं, आपको शापसे भस्म कर सकते हैं। अतः आप उनके पास जायँ और धर्मानुकूल
बर्तावके द्वारा उनसे मेरे लिये याचना करें। नहीं तो इसके विपरीत आचरण करनेसे आपपर महान् घोर दुःख
पड़ेगा। राजाने उसकी एक न मानी और उसपर बलात्कार किया। यह अत्यन्त कठोरतापूर्ण महाभयानक अपराध
करके दण्ड तुरन्त अपने नगरको चला गया और अरजा दीन-भावसे रोती हुई पिताके पास आयी । श्रीशुक्राचार्यजी
स्नान करके आश्रमपर जब आये तब अपनी कन्याकी दयनीय दशा देख उनको बड़ा रोष हुआ। ब्रह्मवादी, तेजस्वी देवर्षि शुक्राचार्यजीने शिष्योंको सुनाते हुए यह शाप दिया- 'धर्मके विपरीत आचरण करनेवाले अदूरदर्शी दण्डके ऊपर प्रज्वलित अग्निशिखाके समान भयंकर विपत्ति आ रही है, तुम सब लोग देखना । वह खोटी बुद्धिवाला पापी राजा अपने देश, भृत्य, सेना और वाहनसहित नष्ट हो जायगा। उसका राज्य सौ योजन लम्बा-चौड़ा है उस समूचे राज्यमें इन्द्र धूलकी बड़ी भारी वर्षा करेंगे। उस राज्यमें रहनेवाले स्थावर जंगम जितने भी प्राणी हैं, उन सबोंका उस धूलकी वर्षासे शीघ्र ही नाश हो जायगा। जहाँतक दण्डका राज्य है वहाँतक उपवनों
और आश्रमोंमें अकस्मात् सात राततक जलती हुई रेतकी वर्षा होती रहेगी । ' - 'धक्ष्यते पांसुवर्षेण महता
पाकशासनः।'यह कहकर शिष्योंको आज्ञा दी कि तुम आश्रममें रहनेवाले सब लोगोंको राज्यकी सीमासे बाहर ले जाओ । आज्ञा पाते ही सब आश्रमवासी तुरन्त वहाँसे हट गये। तदनन्तर शुक्राचार्यजी अरजासे बोले कि - यह चार कोसके विस्तारका सुन्दर शोभासम्पन्न सरोवर है। तू सात्त्विक जीवन व्यतीत करती हुई सौ वर्षतक यहीं रह । जो पशु-पक्षी तेरे साथ रहेंगे वे नष्ट न होंगे। - यह कहकर शुक्राचार्यजी दूसरे आश्रमको पधारे। उनके कथनानुसार एक सप्ताहके भीतर दण्डका सारा राज्य जलकर भस्मसात् हो गया। तबसे वह विशाल वन ‘दण्डकारण्य' कहलाता है। यह कथा पद्मपुराण सृष्टिखण्डमें महर्षि अगस्त्यजीने श्रीरामजीसे कही, जब वे शम्बूकका वध करके विप्र - बालकको जिलाकर उनके आश्रमपर गये थे।  इसके अनुसार चौपाईका भाव यह है कि प्रभुने एक दण्डकवनको, जो सौ योजन लम्बा था और दण्डके एक पापसे अपवित्र और भयावन हो गया था स्वयं जाकर हरा-भरा और पवित्र किया किन्तु श्रीनाममहाराजने तो असंख्यों जनोंके मनोंको, जिनके विस्तारका ठिकाना नहीं और जो असंख्यों जन्मोंके संस्कारवश महाभयावन और अपवित्र हैं, पावन कर दिया। 'पावन' में 'सुहावन' से विशेषता है। 'पावन' कहकर जनाया कि जनके मनके जन्म-जन्मान्तरके संचित अशुभ संस्कारोंका नाश करके उसको पवित्र कर देता है और दूसरोंको पवित्र करनेकी शक्ति भी दे देता है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

रविवार, 9 जून 2024

मानस चर्चा नर नारायन सरिस सुभ्राता


मानस चर्चा नर नारायन सरिस सुभ्राता । जग पालक बिसेषि जन त्राता ॥ 
राम के र  और म ,नर और नारायणके समान सुन्दर भाई हैं। यों तो वे  जगत्भरके पालनकर्ता हैं पर अपने जनके विशेष रक्षक हैं ॥ 
 'नर नारायणका भायप कैसा था' यह बात जैमिनीय भारतकी कथा में बहुत सुंदर ढंग से आयी है। जैमिनी
भारतमें कहते हैं कि एक हजार कवच वाले सहस्रकवची दैत्यने तपसे सूर्य भगवान्‌को प्रसन्न करके वर माँग लिया था कि मेरे शरीरमें हजार कवच हों, जब कोई हजार वर्ष युद्ध करे तब कहीं एक कवच टूट सके, पर कवच टूटते ही शत्रु मर जावे । उसको मारने के लिए  नर-नारायणावतार हुआ। एक भाई हजार वर्ष युद्ध करके मर जाता  तब दूसरा भाई मन्त्रसे उसे जिलाकर स्वयं हजार वर्ष युद्ध करके दूसरा कवच तोड़कर मरता, तब पहला इनको जिलाता और स्वयं युद्ध करता । इस तरहसे लड़ते-लड़ते जब एक ही कवच रह गया तब दैत्य भागकर सूर्यमें लीन हो गया और तब नर-नारायण बदरीनारायणमें जाकर तप करने लगे। वही असुर द्वापरमें कर्ण हुआ जो गर्भसे ही कवच धारण किये हुए निकला,तब बदरीनारायण में तप रत  नर-नारायणहीने ही अर्जुन और श्रीकृष्ण के रुप में अवतार लेकर उस सहस्रकवची दैत्य  कर्ण को मारा यह है नर नारायन सरिस सुभ्राता ।
एक दूसरी कथा भी लोक में प्रसिद्ध है ---
धर्मकी पत्नी दक्षकन्या मूर्तिके गर्भसे भगवान्ने शान्तात्मा ऋषिश्रेष्ठ नरऔर नारायणके रूपमें अवतार लिया। उन्होंने आत्मतत्त्वको लक्षित करनेवाला कर्मत्यागरूप कर्मका उपदेश किया। वे बदरिकाश्रममें आज भी विराजमान हैं। 
निर्गुणरूपसे जगत्का उपकार नहीं होता, जैसा कहा है कि 'ब्यापक एक ब्रह्म अबिनासी ।
सत चेतन घन आनँदरासी ॥' 
'अस प्रभु हृदय अछत अबिकारी। 
सकल जीव जग दीन दुखारी ॥' 
इसीलिये सगुण रुप में अवतार लिया। सगुणरूपसे सबका और सब प्रकारसे उपकार होता है, इसलिये रामनामके
दोनों वर्णोंका नर-नारायणरूपसे जगत्का पालन करना कहा। भाईपना ऐसा है कि जिह्वासे दोनों प्रकट
होते हैं। इसलिये जीभ माता है, 'र', 'म' भाई हैं। जैसा कि स्पष्ट है- 
'जीह जसोमति हरि हलधर से । ' 
 'बिसेषि जन त्राता' ऐसा कहने का भाव है कि  जैसे नर-नारायणने वैसे तो संपूर्ण  जगत्भरका पालन करते है, पर भरतखण्डकी विशेष रक्षा करते हैं; वैसे ही ये दोनों वर्ण जगन्मात्रके रक्षक हैं, पर जापक जनके विशेष
रक्षक हैं। जगन्मात्रका पालन इसी लोकमें करते हैं और जापक जन अर्थात् जो इनके सेवक हैं, भक्त हैं उनके लोक-परलोक दोनोंकी रक्षा करते हैं।  ईश्वरत्वगुणसे सबका और वात्सल्यसे अपने जनका पालन करते हैं। जैसा की कहा गया है----
- 'सब मम प्रिय सब मम उपजाये।'
सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥
 और
'सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रान प्रिय'
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब।।
 पुनः, नर-नारायण भरतखण्डके विशेष रक्षक हैं और वहाँ नारदजी उनके पुजारी हैं, वैसे ही यहाँ 'रा', 'म' भरतजीकी रीतिवाले भक्तोंरूपी भरतखण्डके विशेष रक्षक हैं, नामसे प्रेम करने वाले, स्नेह करने वाले, नारदरूपी पुजारी हैं। पुनः, नर-नारायण सदा एकत्र रहते हैं वैसे ही 'रा', 'म' सदा एकत्र रहते हैं। वे विशेष रुप से हमारा पालन  करते हैं अर्थात् हमें मुक्तिसुख देते हैं । 'जन' का  सेवक ,भक्त, 'दर्शक' आदि  अर्थ  होता हैं। जो सेवक, भक्त, दर्शक  बदरिकाश्रममें जाकर नर  नारायण रूप के दर्शन करते हैं  उस भक्त के लोक परलोककी रक्षा  वे स्वयं करते हैं। कहा भी गया है--
 'जो जाय बदरी, सो फिर न आवै उदरी ।' 
।।जय श्री राम जय हनुमान।। 

शनिवार, 8 जून 2024

मानस चर्चानाम प्रभाउ जान सिव नीको।

मानस चर्चा
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥ श्रीशिवजी श्री राम नामका प्रभाव भलीभाँति जानते हैं राम नाम के प्रभाव से ही हालाहल विषने उनको अमृतका फल दिया ॥ 
 'नाम प्रभाउ जान सिव नीको' । 'नीको' अर्थात् भलीभाँति शिवजी ही सबसे अधिक राम नाम के प्रभावको जानते हैं तभी तो विनयपत्रिका में गोस्वामीजी ने लिखा है कि
'सतकोटि चरित अपार दधिनिधि
मथि लियो काढ़ि बामदेव नाम - घृतु है',
मानस में भी यही भाव मिलता है
ब्रह्म राम ते नाम बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सतकोटि महँ लिय महेस जिय जानि । ' और अहर्निश 'सादर जपहिं अनंग आराती'। देखिये, सागर मथते समय सभी देवगण वहाँ उपस्थित थे और सभी नामके परत्व और महत्त्वसे भिज्ञ थे, तब औरोंने क्यों न पी लिया हलाहल कालकूट को? कारण स्पष्ट है कि वे सब श्रीरामनामके प्रतापको 'नीकी' भाँति नहीं जानते थे । जैमिनिपुराणमें भी इसका प्रमाण है; कि - 
'रामनाम परं ब्रह्म सर्वदेवप्रपूजितम् ।
महेश एव जानाति नान्यो जानाति वै मुने ॥ ' पद्मपुराणमें एक श्लोक ऐसा भी है, 
'रामनामप्रभावं यज्जानाति गिरिजापतिः।
 तदर्थं गिरिजा वेत्ति तदर्धमितरे जनाः ॥ ' 
 अर्थात् राम-नामका प्रभाव जो शिवजी जानते हैं, गिरिजाजी उसका आधा जानती हैं तो फिर अन्य लोग उस 'कालकूट फल दीन्ह अमी को' कैसे जान जाते। श्रीमद्भागवत में यह कथा दी है कि 
'छठे मन्वन्तरमें नारायणभगवान् अजितनामधारी हो अपने अंशसे प्रकट हुए देवासुर संग्राम में दैत्य देवताओंका विनाश कर रहे थे। दुर्वासा ऋषिको विष्णुभगवान्ने मालाप्रसाद दिया था। उन्होंने इन्द्रको ऐरावतपर सवार रणभूमिकी ओर जाते देख वह प्रसाद उनको दे दिया । इन्द्रने प्रसाद हाथीके मस्तक पर रख दिया जो उसने पैरोंके नीचे कुचल डाला । इसपर ऋषिने शाप दिया कि 'तू शीघ्र ही श्रीभ्रष्ट हो जायगा।' इसका फल तुरन्त उन्हें मिला । संग्राममें इन्द्रसहित तीनों लोक श्रीविहीन हुए । यज्ञादिक धर्मकर्म बन्द हो गये। जब कोई उपाय न समझ पड़ा, तब इन्द्रादि देवता शिवजीसहित ब्रह्माजीके पास सुमेरु
शिखरपर गये। इनका हाल देख-सुन ब्रह्माजी सबको लेकर क्षीरसागरपर गये और एकाग्रचित्त हो परमपुरुषकी
स्तुति करने लगे और यह भी प्रार्थना की कि 'हे भगवन्! हमको उस मनोहर मूर्त्तिका शीघ्र दर्शन दीजिये, जो हमको अपनी इन्द्रियोंसे प्राप्त हो सके।' भगवान् हरिने दर्शन दिया, तब ब्रह्माजीने प्रार्थना की कि
'हमलोगोंको अपने मंगलका कुछ भी ज्ञान नहीं है, आप ही उपाय रचें, जिससे सबका कल्याण हो ।' भगवान् बोले
कि‘हे ब्रह्मा ! हे शम्भुदेव ! हे देवगण ! वह उपाय सुनो, जिससे तुम्हारा हित होगा। अपने कार्यकी सिद्धिमें कठिनाई देखकर अपना काम निकालनेके लिये शत्रुसे मेल कर लेना उचित होता है। जबतक तुम्हारी वृद्धिका समय न आवे तबतकके लिये तुम दैत्योंसे मेल कर लो। दोनों मिलकर अमृत निकालनेका प्रयत्न करो । क्षीरसागरमें तृण, लता, ओषधि, वनस्पति डालकर सागर मथो । मन्दराचलको मथानी और वासुकिको रस्सी बनाओ। ऐसा करने से तुमको अमृत मिलेगा। सागरसे पहले कालकूट निकलेगा, उससे न डरना, फिर रत्नादिक निकलेंगे इनमें लोभ न करना....'''। यह उपाय बताकर भगवान् अन्तर्धान हो गये । इन्द्रादि देवता राजा बलिके पास सन्धिके लिये गये।- समुद्र मथकर अमृत निकालनेकी इन्द्रकी सलाह दैत्य- दानव सभीको भली लगी। सहमत हो दानव, दैत्य और देवगण मिलकर मन्दराचलको उखाड़ ले चले। उनके थक जानेसे पर्वत गिर पड़ा। उनमेंसे बहुतेरे कुचल गये । इनका उत्साह भंग हुआ।यह देख भगवान् विष्णु गरुड़पर पहुँच गये......'और लीलापूर्वक एक हाथसे पर्वतको उठाकर गरुड़पर रख उन्होंने उसे क्षीरसागरमें पहुँचा दिया। वासुकिको अमृतमें भाग देने को कह कर उनको रस्सी बननेको उत्साहित किया गया। मन्दराचलको जलपर स्थित रखनेके लिये भगवान्ने कच्छपरूप धारण किया। जब बहुत मथनेपर भी अमृत न निकला, तब अजितभगवान् स्वयं मथने लगे। पहले कालकूट निकला जो सब लोकोंको असह्य हो उठा, तब भगवान्‌का इशारा पा सब मृत्युंजय शिवजीकी शरण गये और जाकर उन्होंने उनकी स्तुति की। भगवान् शंकर करुणालय इनका दुःख देख सतीजी से बोले कि 'प्रजापति महान् संकटमें पड़े हैं, इनके प्राणोंकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। मैं इस विषको पी लूँगा जिसमें इनका कल्याण हो।' भवानीने इस इच्छाका अनुमोदन किया ।जैसा कि स्पष्ट है-' श्रीरामनामाखिलमन्त्रबीजं मम जीवनं च हृदये प्रविष्टम् | हालाहलं वा प्रलयानलं वा मृत्योर्मुखं वा विशतां कुतो भयम्॥'
 शिवजीने उस सर्वतोव्याप्त कालकूटको हथेलीपर रखकर पी लिया । नन्दीपुराणमें नन्दीश्वरके वचन हैं कि
 शृणुध्वं भो गणास्सर्वे रामनाम परं बलम् । यत्प्रसादान्महादेवो हालाहलमयीं पिबेत् ॥ 
''जानाति रामनाम्नस्तु परत्वं गिरिजापतिः ।
 ततोऽन्यो न विजानाति सत्यं सत्यं वचो मम ॥' 
 विद्वानों की मान्यता है कि 'रा' उच्चारणकर शिवजीने हालाहलविष कण्ठमें धर लिया और फिर 'म' कहकर मुख बन्द कर लिया। जिस के कारण जहर कंठ में ही रुक गया।यह है राम नाम का प्रभाव जिसे महादेव ही जानते ।
कालकूट फलु दीन्ह फल दीन्ह अमी । विषपानका फल मृत्यु है, पर आपको वह विष भी श्रीराम- नामके प्रतापसे अमृत हो गया; कहा भी गया है की - 
'खायो कालकूट भयो अजर अमर तन ।'
इस विषकी तीक्ष्णतासे महादेव का कण्ठ नीला पड़ गया जिससे आपका नाम 'नीलकण्ठ' पड़ा। आइए हम महादेव की जय कार करे ,हर हर महादेव जय शिव शंकर।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।