।।भक्तों को भगवान शंकर का उपदेश।।
एक बार भगवान् शङ्कर कैलास पर्वतपरवटवृक्षके नीचे पधारे। वृक्षको देखकर उन्हें बहुत सुख मिला। अपनेहाथसे बाघम्बर बिछाकर सहज भावसे विराजमान हो गये ।
निज कर डासि नागरिपु छाला ।
बैठे सहजहिं। संभु कृपाला ॥
श्रीशङ्करजी अपने चरित्रसे भगवत्तत्त्वके वक्ताको एवं हम सब को उपदेश दे रहे हैं - कि हम अपने शरीरकीसेवा करानेकी अपेक्षा न करे 'स्वयं दासास्तपस्विनः ' हम
तपस्वीको अपना कार्य स्वयं करना चाहिये अतः उन्होंने स्वयं अपने हाथसे आसन बिछाया । उपदेशकको अपने चरित्रसे धर्म मार्गका उपदेश करना चाहिये
'धर्ममार्ग चरित्रेण' ।
पूजापाठमें, साधन नियममें और सन्ध्योपासनादि
नित्यकर्ममें आसनका विशेष महत्त्व है। कुशासनपर
बैठकर साधन करनेसे आयुकी वृद्धि होती है मोक्षकामीको व्याघ्रासनपर, समस्त सिद्धिके लिये
कृष्ण मृगचर्म और कम्बलासनका प्रयोग उचित है । सूती आसनसे दारिद्र्य, बिना आसनके भूमिपर बैठनेसे शोक और पाषाणपर बैठनेसे रोग होता है । काष्ठासनपर बैठकर पूजा आदि करनेसे समस्त परिश्रम व्यर्थ हो जाता है । यह बात अगस्त्यसंहिता में कही गई है।
कुशासने भवेदायुः मोक्षः स्याद् व्याघ्रचर्मणि ।
अजिने सर्वसिद्धिः स्यात् कम्बले सिद्धिरुत्तमा ॥
वस्त्रासनेषु दारिद्र्यं धरण्यां शोक सम्भवः ।
शिलायाञ्च भवेद् व्याधिः काष्ठे व्यर्थ परिश्रमः ॥
आसन अपना होना चाहिये । अन्यत्र जाय तो अपना आसन लेकर जाना चाहिये। माला, ग्रन्थ और आसन यह सब अकारण जल्दी नहीं बदलना चाहिये। कुछ लोग तो गुरु ही बदल देते हैं। खैर इस तलाकके जमानेमें कोई आश्चर्य नहीं है । बाकी आप सब समझदार है।आगे प्रभु इच्छा।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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