।।सन्त-समाज प्रयागराज है।।
मानस चर्चा --
संत समाज जंगम अर्थात् चलता फिरता प्रयागराज है जिनकी सेवा के प्रभाव बारे में मानस में गोस्वामी तुलासुदासजी ने घोषणा किया है
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा।
सेवत सादर समन कलेसा ।।
अकथ अलौकिक तीरथराऊ ।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ।।
संत समाज हर किसी को हर दिन हर स्थान पर सुलभ है,और संत समाज को सेवत सादर अर्थात् आदर पूर्वक सेवन करते ही समन कलेसा अर्थात् सभी क्लेश-दुःख, सङ्कट नष्ट हो जाते हैं। सभी क्लेश कौन से है उन्हें पातञ्जल-योगसूत्रमें बताया गया है कि क्लेश पाँच प्रकारके कहे गये हैं यथा 'अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: पञ्चक्लेशाः' अर्थात् अविद्या अर्थात् (मोह और अज्ञान) अस्मिता अर्थात् (मैं हूँ, ऐसा अहङ्कार), राग, द्वेष और अभिनिवेश अर्थात् (मृत्युका भय) । ये सभी क्लेश नष्ट हो जाते हैं। सीधी सी बात है कि (सन्त-समाज रूपी प्रयाग) सभीको, सब दिन और सभी ठौर प्राप्त होता है। आदरपूर्वक सेवन
करनेसे सभी क्लेशोंको दूर करनेवाला है। (यह) तीर्थराज प्रयाग अलौकिक है। (इसकी महिमा) अकथनीय
है। इसका प्रभाव प्रसिद्ध है कि यह तुरत फल देता है ॥
यहां सन्त समाजमें प्रयागसे अधिक गुण दिखते हैं। यहाँ 'अधिक अभेद रूपक' है;क्योंकि उपमानसे उपमेयमें कुछ अधिक गुण दिखलाकर एकरूपता स्थापित की गयी है।
सन्त समाज
१. जङ्गम है। अर्थात् ये सब देशोंमें सदा विचरते
रहते हैं।
२. 'सबहि सुलभ सब दिन सब देसा' अर्थात् (१)
ऊँच-नीच, धनी निर्धन इत्यादि कोई भी क्यों न हो,
सबको सुलभहै। पुन:, (२) इसका माहात्म्य सब दिन
एक-सा रहता है। पुनः, (३) सत्सङ्ग हर जगह प्राप्त
हो जाता है। यथा- 'भरत दरस देखत खुलेउ मग लोगन्ह
कर भाग । जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधिबस सुलभ
प्रयाग ।। '
३. इसकी महिमा और गुण अकथनीय हैं। यथा-बिधि हरिहर कबि कोबिद बानी । कहत साधु महिमा
सकुचानी ॥' 'सुनु मुनि साधुनके गुन जेते ।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ।।'
४. जैसा इनका कथन है, भाव है, कर्म, निष्ठा,विश्वास इत्यादि हैं, वैसा कोई कहकर बता नहीं सकता
और न आँखसे देखा जा सकता।
५. इसकी समताका कोई तीर्थ, देवता आदि लोकमें
नहीं है। सन्त समाजके सेवन करनेवाले सन्तस्वरूप हो
जाते हैं। यह फल सबपर प्रकट है। वाल्मीकिजी
प्रह्लादजी, अजामिल इत्यादि उदाहरण हैं।
६. सन्त समाजके सादर सेवनसे चारों फल इसी
तनमें शीघ्र ही प्राप्त हो जाते हैं और जीते-जी मोक्ष
मिलता है। अतः इसका प्रभाव प्रकट है। सत्सङ्गसे
जीवन्मुक्त हो जाते हैं, यही 'अछत तन' मोक्ष मिलना
है। तुरत फल इस प्रकार कि सत्सङ्गमें महात्माओंका
उपदेश सुनते ही मोह, अज्ञान मिट जाता है। जबकि
प्रयाग स्थावर है। अर्थात् एक ही जगह स्थित है.(१) सबको सुलभ नहीं, जिसका शरीर नीरोग हो, रुपया पास हो, जिससे वहाँ पहुँच सके इत्यादि ही लोगोंको सुलभ है। (२) इसका विशेष माहात्म्य केवल माघमें है जब मकर
राशिपर सूर्य होते हैं।माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥ (३) स्थानविशेषमें है ।
इसका माहात्म्य वेदपुराणोंमें कहा गया है।सेवहिं सुकृती साधु सुचि पावहिं सब मनकाम। बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥अर्थात् महिमा कथ्य है।इसके सब अङ्ग देख पड़ते हैं।लोकमें इसके समान ही नहीं, किन्तु इससे
बढ़कर पञ्चप्रयाग हैं। अर्थात् देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग,
नन्दप्रयाग, कर्णप्रयाग और विष्णुप्रयाग। हृषीकेशमें
भी त्रिवेणी हैं, गालव मुनिको सूर्यभगवान् के वरदानसे यहीं त्रिवेणीस्नान हो गया था, उसकामाहात्म्य विशेष है।
इससे भी चारों फल प्राप्त होते हैं। यथा-चारि पदारथ भरा भँडारू। पुन्य प्रदेस देस अति चारू।। पर कालान्तरमें अर्थात् मरनेपर ही मोक्ष मिलता है; इसीसे इसका प्रभाव प्रकट नहीं है।
' देइ सद्य फल'से यह भी जाना जाता है कि और सब तीर्थ तो विधिपूर्वक सेवनसे कामिक अर्थात् इच्छित फल देते हैं पर सन्त समाजका यह प्रभाव प्रकट है कि चाहे कामिक हो या न हो पर यही फल देता है जिससे लोक-परलोक दोनों बनें।
'सेवत सादर समन कलेसा' । (क) अविद्या आदि पञ्चक्लेशोंको दूर करनेके लिये योगशास्त्रका आरम्भ है। परन्तु यह सब क्लेश अनायास ही दूर हो जाते हैं, यदि सन्त समाजका सादर सेवन किया जाय। (ख) 'सादर' से श्रद्धापूर्वक स्नान करना कहा। यथा- 'अश्रद्दधानः पुरुषः पापोपहत-चेतनः । न प्राप्नोति परं स्थानं प्रयागं देवरक्षितम् ॥' (मत्स्यपुराण) अर्थात् जिनकी बुद्धि पापोंसे मलिन हो
गयी है, ऐसे श्रद्धाहीन पुरुष देवोंद्वारा रक्षित परम श्रेष्ठ स्थान प्रयागकी प्राप्ति नहीं कर सकते। स्कन्दपुराण
ब्राह्मखण्डान्तर्गत ब्रह्मोत्तरखण्ड अ० १७ में श्रद्धाके सम्बन्धमें कहा है कि 'श्रद्धा तु सर्वधर्मस्य चातीव
हितकारिणी । श्रद्धयैव नृणां सिद्धिर्जायते लोकयोर्द्वयोः ॥' श्रद्धया भजतः पुंसः शिलापि फलदायिनी । मूर्खोऽपि
पूजितो भक्त्या गुरुर्भवति सिद्धिदः ॥' श्रद्धया पठितो मन्त्रस्त्वबद्धोऽफलप्रदः । श्रद्धया पूजितो देवो नीचस्यापि
फलप्रदः ॥' अर्थात् सब धर्मोंके लिये श्रद्धा ही अत्यन्त हितकारक है। श्रद्धाहीसे लोग इहलोक और परलोक प्राप्त करते हैं। श्रद्धासे मनुष्य पत्थरकी भी पूजा करे तो वह भी फलप्रद होता है। मूर्खकी भी यदि कोई श्रद्धासे सेवा करे तो वह भी सिद्धिदायक गुरुतुल्य होते हैं। मन्त्र अर्थरहित भी हो तो भी श्रद्धापूर्वक जपनेसे वह फलप्रद होता है। और नीच भी यदि श्रद्धासे देवताका पूजन करे तो वह
फलदायक होता है। पुनः कहा गया है कि मन्त्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, ओषधिऔर गुरुमें जिसकी जैसी भावना होती है, वैसा उसको फल मिलता है। यथा,(स्कन्दपुराण ब्रह्मोत्तरखण्ड ) में कहा भी गया है---
'मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ । यादृशी भावना यत्र सिद्धिर्भवति तादृशी ॥'
अतएव तीर्थादिका 'सादर' सेवन करना कहा। 'सादर' में उद्धरणोंका सब आशय जना दिया। अश्रद्धा
वा अनादरपूर्वक सेवनसे फल व्यर्थ हो जाता है, इसीसे गोस्वामीजीने सर्वत्र 'सादर' शब्द ऐसे प्रसङ्गोंमें दिया
है। यथा- 'सादर मज्जन पान किये तें। मिटहिं पाप परिताप हिये तें।।'देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल
त्रिबेनी। ' 'सदा सुनहिं सादर नर नारी । तेइ सुरबर मानस अधिकारी ॥राम कथा सो कहइ निरंतर।''सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर ।' इत्यादि आदि प्रसंग हैं ।
पं० रामकुमारजीने भी कहा है ----
'यत्र श्रीरामभक्तिर्लसति सुरसरिद्धारती ब्रह्मज्ञानम् ।
कालिन्दी कर्मगाथा हरिहरचरितं राजतेयत्र वेणी || विश्वासः स्वीयधर्मेऽचल इव सुवटो यत्र शेते मुकुन्दः। सेव्यः सर्वः सदासी सपदि सुफलदः सत्समाजःप्रयागः॥' अर्थात् जहाँ श्रीरामभक्तिरूपी गङ्गा शोभित होती हैं तथा ब्रह्मज्ञानरूपी सरस्वती और कर्म-कथारूपी
यमुना स्थित हैं। जहाँ हरिहरचरितरूपी त्रिवेणी और जिसपर मुकुन्दभगवान् शयन करते हैं, ऐसा स्वधर्म में
विश्वासरूपी सुन्दर वट विराजते हैं, ऐसा तत्काल फलप्रद सत्समाजरूपी प्रयाग सबके लिए सदा ही सेव्य है।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।
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