सुरसा देवी थीं । उनके आशीर्वाद देकर जानेपर अब एक
राक्षसी मिली जो समुद्रमें रहती थी।
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई ।
करि माया नभु के खग गहई।।
यह मायावी है।गोस्वामीजी ने इसका नाम नहीं बतायाl
इसका नाम सिंहिका था, यह हिरण्यकशिपुकी पुत्री, विप्रचित्ति नामक दैत्यकी पत्नी और राहुकी माता थी । संसार का यह नियम है कि किसीकी छाया किसीके द्वारा पकड़ी नहीं जा सकती
'तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी। '
परन्तु यह राक्षसी छाया पकड़कर नभचर जीवोंको खा जाती थी इसके मायाकी यह बहुत बड़ी विशेषता थी ।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं ।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥
वही छल सिंहिकाने हनुमान्जीसे किया— हनुमान्जीकी छाया पकड़ ली। गतिके अवरुद्ध होनेपर श्रीहनुमानजीको वानरेन्द्र सुग्रीवजीकी बात याद आ गयी। उन्होंने निश्चय कर लिया कि यह वही राक्षसी है।
कपिराज्ञा यथाख्यातं सत्त्वमद्भुतदर्शनम्।
छायाग्राहि महावीर्यं तदिदं नात्र संशयः ॥
श्रीहनुमान्जी विशालकाय होकर सिंहिका के फैले हुए विकराल मुखमें शरीरको संक्षिप्त करके आ गिरे और अपने तीक्ष्ण नखोंसे उसका हृदय विदीर्ण कर दिया, वह मर गयी ।
ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः ।
गोस्वामीजी ने लिखा---
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा ।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा ।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥
आकाश में विचरण करनेवाले प्राणी प्रसन्न हो गये और उन्होंने कहा - हे वानरेन्द्र ! जिस व्यक्तिमें आपकी तरह धृति, दृष्टि, सूझबूझ वाली बुद्धि और दक्षता ये चार गुण होते हैं वह कभी किसी कार्यमें असफल नहीं होता है।
यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव ।
धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति ॥
यह श्लोक जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें सफलताके लिये हमें स्मरण रखना चाहिये । यही श्रीहनुमान्जीकी
समुद्रयात्राकी फलश्रुति भी है ।
जय श्री राम जय हनुमान।
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