गुरुवार, 4 जुलाई 2024

सद्गुरुके लक्षण

उत्तम सद्गुरुके लक्षण शिवजीने पार्वतीजीसे ये कहे हैं—
'सद्गुरुः परमेशानि शुद्धवेषो मनोहरः । 
सर्वलक्षणसम्पन्नः सर्वावयवशोभितः ॥ १ ॥ सर्वागमार्थतत्त्वज्ञः सर्वतन्त्रविधानवित् ।
लोकसम्मोहनाकारो देववत् प्रियदर्शनः ॥ २ ॥ 
सुमुखः सुलभः स्वच्छो भ्रमसंशयनाशकः ।
इंगिताकारवित् प्राज्ञ ऊहापोहविचक्षणः ॥ ३ ॥
अन्तर्लक्ष्य बहिर्दृष्टिः सर्वज्ञो देशकालवित् । आज्ञासिद्धिस्त्रिकालज्ञो निग्रहानुग्रहक्षमः ॥ ४ ॥
वेधको बोधकः शान्तः सर्वजीवदयाकरः ।
स्वाधीनेन्द्रियसंचारः षड्वर्गविजयप्रदः ॥ ५ ॥ अग्रगण्योऽतिगम्भीरः पात्रापात्रविशेषवित् ।
शिवविष्णुसमः साधुर्मनुभूषणभूषितः ॥ ६ ॥
निर्ममो नित्यसंतुष्टः स्वतन्त्रोऽनन्तशक्तिमान्। सद्भक्तवत्सलो धीरः कृपालुः स्मितपूर्ववाक् ॥ ७ ॥
नित्ये नैमित्तिकेऽकाम्ये रतः कर्मण्यनिन्दिते।
रागद्वेषभयक्लेशदम्भाहंकारवर्जितः ॥ ८ ॥ स्वविद्यानुष्ठानरतो धर्मज्ञानार्थदर्शकः ।
यदृच्छालाभसंतुष्टो गुणदोषविभेदकः ॥ ९ ॥ स्त्रीधनादिष्वनासक्तोऽसंगो व्यसनादिषु। सर्वाहंभावसन्तुष्टो निर्द्वन्द्वो नियतव्रतः ॥ १० ॥
ह्यलोलुपो ह्यसङ्गश्च पक्षपाती विचक्षणः । 
निःसंगो निर्विकल्पश्च निर्णीतात्मातिधार्मिकः ।११ । तुल्यनिन्दास्तुतिमनी निरपेक्षो नियामकः । 
इत्यादि लक्षणोपेतः श्रीगुरुः कथितः प्रिये ॥ १२ ॥ ' 
ये श्लोक कुलार्णवतन्त्र के हैं। 

हनुमान जी की एक कहानी

हनुमान जी की एक कहानी भी सुन लीजिए
कहानी एक याद आ रही है। विष्णु जी जब वर्ल्डली अफेयर्स को निपटा कर थोड़ा मूड में आकर अपने कृष्णावतार में द्वारिका में चिल कर रहे थे, तो सुदर्शन चक्र, गरुड़ और महारानी सत्यभामा ने चरस बो दी। तीनों को क्रमश: अपने तेज, अपनी गति और अपनी सुंदरता का भयंकर वाला गर्व हो गया था। सत्यभामा जी वैसे बचपन से ही इस टाइप की थीं, कांड करती थीं, लेकिन फिर भूल भी जाती थीं। उनकी वजह से श्रीहरि को स्यमंतक मणि की चोरी तक का कलंक झेलना पड़ा था, लेकिन वह कहानी फिर कभी….।
तो, विष्णु जी ने उपाय सोच लिया। गरुड़ को कहा कि जाओ जी, हनुमान को पकड़ लाओ, बहुत दिनों से दिखा नहीं है। सत्यभामा को कहा कि जाओ जी, देवी सीता टाइप तैयार हो जाओ, क्योंकि त्रेता वाला बजरंग आ रहा है, मिलने। सुदर्शन चक्र को ड्यूटी दी कि गेट के बाहर खड़े हो जाओ, और खबरदार जो बिना मेरी आज्ञा के किसी को घुसने दिया।
गरुड़ गए अवध। हनुमान जी बाग में लेटे राम-राम सुमिर रहे थे। खाए-अधखाए फल चहुंओर बिखरे। ब्रो थोड़े बूढ़े भी हो गए थे। गरुड़ ने कहा, चलो बॉस बुला रहे हैं। हनुमान वृद्ध टाइप कांखे, बोले- चलो ब्रो, हम आते हैं। गरुड़ ने लोड ले लिया। यार, ये बुढ़ऊ वानर कब तक पहुंचेगा…खैर, मैनू की..। गरुड़ चल दिए।
अब द्वारका पहुंचे गरुड़ तो देख रहे हैं कि उनसे पहिले हनुमान ब्रो पहुंच कर दंडवत कर रहे हैं। विष्णु मुस्कुराए, पूछा- क्यों हनुमान, तुम्हें किसी ने रोका नहीं, सीधा मेरे कक्ष तक कैसे आ गए। बजरंगबली मुस्काए और मुंह से सुदर्शन चक्र निकाल कर नीचे रख दिया। बोले- गुरुजी, कोई मिलेनियल टाइप था जो कुछ मना कर रहा था। मैंने मुंह में रख लिया। अब बताइए, आपसे मिलने से मुझे ये चूजे रोकेंगे…खैर, वो सब जाने दीजिए…आप भी गजबे लीला करते हैं महाराज..सीता माता के बदले किस नौकरानी को बिठा लिया है?
इस प्रकार प्रभु ने तीनों का गर्व नाश कर दिया।

रावण और हनुमानजी की पूछ

लंका दहन के बाद से ही रावण को हनुमानजी के पूछ से नफ़रत हो गई थी। हनुमानजी की पूछ उखाड़ कर फेंक देंगे, ऐसा रावण ने प्रन लिया। वह हमेशा इस ताक में रहता कि बंदर कब अकेला मिले। अवसर मिल ही गया।
एक दिन हनुमानजी एक सिला पर बैठ कर जय श्री राम का जाप कर रहे थे। तभी वहां चुप  चाप तरीक़े से रावण आ पहुंचा और रावण ने जय शंकर भगवान का नाम लेकर पूछ उठा कर खिचने लगा। हनुमान जी ने देखा उनकी पूछ कोई खीच रहा है । उन्होंने युक्ती लगाई और उड़ने लगे । रावण शंकर भगवान का बहुत बड़ा भक्त था । पहले वो शंकर भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि हनुमान जी की पूछ उखड़ जाए उसके लिए ही तो इस एकांत में आया। पर अब वो शंकर भगवान से प्रार्थना करने लगा कि कहीं ये पूछ ना उखाड़ जाए और ये पूछ उखड़ गई तो कहा से कहा जाकर गिरेंगे। वह आसमान में महादेव महादेव की रट लगाए महादेव बचाए। खैर महादेवजी ने सुन लिया। हनुमानजी धड़ाम से नीचे रावण की हालत पंचर।कैसे भी रावण युक्ति लगा कर वहां से भाग निकला।
रावण हनुमान जी के पूछ से और अधिक नफरत करने लगा । हनुमानजी को मारने की भारी योजना बनाया।
उसने चार सेना तैयार करवाई । उट सवार, घुड़ सवार,
रथ सवार और पैदल सवार ।हनुमानजी ओर रावण के सेना के बीच लड़ाई हुई। सब को हनुमानजी ने मार डाला। रावण के गुप्तचर रावण के दरबार में पहुंचे। रावण ने पूछा, " सेना कहा है ?" गुप्तचर ने कहा, साफ"। वानर कहा गया? रावण ने गुप्तचर से पूछा । वहीं है महाराज।
तुम्हे चोर युद्ध करना था। आगे से नहीं पीछे से हमला करना था। गुप्तचर ने कहा," महाराज क्षमा करे। आगे वाले तो कुछ देर ठिके भी पीछे वाले एक ही बार में साफ हो गए। कैसे?, रावण ने गुप्तचर से पूछा। गुप्तचर ने उत्तर देते कहा, महाराज पूछ । पूछ की बात मत करो रावण ने अबकी  फिर भरी  युक्ती लगाई । 1000 अमर राक्षसों को बुलाकर रणभूमि में भेजने का आदेश दिया। ये ऐसे थे जिनको काल भी नहीं खा सका था।विभीषण के गुप्तचरों से समाचार मिलने पर श्रीराम को चिंताहुई कि हम लोग इनसे कब तक लड़ेंगे? श्रीराम की इस स्थिति से वानरवाहिनी के साथ कपिराज सुग्रीव भी विचलित हो गए
कि अब क्या होगा? हम अनंतकाल तक युद्ध तो कर नहीं सकते हैं। पर  इनके जीते विजयश्री का वरण नहीं हो सकता | हनुमान जी श्रीराम को चिंतित देखकर बोले-प्रभो! क्या बात है? श्रीराम के संकेत से विभीषण जी ने सारी बात बतलाई। अब विजय असंभव है।
पवन पुत्र ने कहा,  प्रभु असंभव को संभव और संभव को असंभव कर देने का नाम ही तो हनुमान है। प्रभो! आप केवल मुझे आज्ञा दीजिए, मैं अकेले ही जाकर रावण की अमर सेना को नष्ट कर दूंगा। पर  कैसे? हनुमान! वे तो अमर हैं। भगवान राम ने कहा।तब हनुमान जी बोले- प्रभो! इसकी चिंता आप न करें, सेवक पर विश्वास करें। उधर रावण ने चलते समय राक्षसों से कहा था कि वहां हनुमान नाम का एक वानर है, उससे जरा सावधान रहना।हनुमान जी को रणभूमि में एकाकी देखकर राक्षसों ने पूछा-तुम कौन हो? क्या हम लोगों को देखकर भय
नहीं लगता? जो अकेले रणभूमि में चले आए। हनुमानजी
बोले- क्यों आते समय राक्षसराज रावण ने तुम लोगों को कुछ संकेत नहीं किया था जो मेरे समक्ष निर्भय खड़े हो । निशाचरों को समझते देर न लगी कि ये महाबली हनुमान हैं। तो भी क्या? हम अमर हैं,हमारा यह क्या बिगाड़ लेंगे। भयंकर युद्ध आरंभ हुआ, पवनपुत्र की मार से राक्षस रणभूमि में ढेर होने लगे, पर मरते कोई नहीं। पीछे से आवाज आई- हनुमान हम लोग अमर हैं। हमें जीतना असंभव है। अत: अपने स्वामी के साथ लंका से लौट जाओ, इसी में तुम सबका कल्याण है। आंजनेय ने कहा- लौटूंगा अवश्य पर तुम्हारे कहने से नहीं अपितु अपनी इच्छा से। हां तुम सब मिलकर आक्रमण करो आगे बढ़ो,मेरा अंत करो मुझे पकड़ो फिर मेरा बल देखो और रावण को जाकर बताना।राक्षसों ने जैसे ही एक साथ मिलकर हनुमान जी पर आक्रमण करना चाहा वैसे ही पवनपुत्र ने उन सबको अपनी पूंछ में लपेटकर
ऊपर आकाश में फैंक दिया। वे सब पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण के ऊपर आकाश में फैंक दिये गए। वे सब पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति जहां तक है वहां से भी ऊपर चले गए। उनका शरीर सूख गया, अमर होने के कारण मरना तो उन्हें था नहीं । इधर हनुमान जी ने आकर
प्रभु के चरणों में शीश झुकाया । श्रीराम बोले-क्या हुआ
हनुमान? प्रभो! उन्हें ऊपर भेजकर आ रहा हूं। इधर 
रावण के दरबार फिर गुप्तचर आए। रावण ने पूछा," क्या हुआ।" दूत ने बताया कि  महाराज जाते दिखे, आते नहीं दिखे।  कैसे? गुप्तचर ने कहा, वानर ने अपनी पूछ को लम्बा करके सारे सेना को लपेट कर आकाश की ओर फेंक दिया इसलिए जाते देखा। रावण क्रोधित होकर कहा," पूछ की बात मत करो।

कलियुगी चेला हास्य प्रसंग

कलियुगी चेला हास्य प्रसंग
एक गुरुजी गए एक गांव में, तो एक नया नया लड़का मिला , बोला हमको चेला बनाओ गुरुजी बोले बन जाओ, अब चेला बनने के बाद बोला आप गुरु हम चेला अब कुछ सुनाओ ? गुरुजी ने कहा राम राम किया करो ?
बोला यह तो साधारण बात है । गुरुजी ने मन ही मन सोचा कि यह चेला नहीं गुरु ही मिला है ! कुछ चेले सचमुच गुरु होते हैं ।गुरु जी ने कहा तो रामचरितमानस पढ़ा करो ? चेला बोला रामायण सब जानते हैं ,  तो गुरु जी ने कहा गीता ? हां यह कुछ ठीक है, कुछ ! तो गुरुजी बोले आज गीता का महात्म्य कल सुनाऊंगा ।अब महात्म में उन्होंने श्लोक सुनाया--
सर्वो उपनिषदों गावो दोग्धा गोपाल नन्दनः ।
अर्थात्  उपनिषद सब गाये हैं और दुहने वाले भगवान श्रीकृष्ण हैं ।
एक घंटे तक व्याख्यान दिया चेला बीच में ही कह गया-- आहा आहा महाराज वाह वाह वाह क्या बात कही है |
वाह वाह,, गुरु जी का और उत्साह बढ़ा की चेला कितने ध्यान से सुन रहा है,  इतनी प्रशंसा की तो गुरु जी और सुनाते गए एक घंटे बाद गुरू जी बोले कि बेटा कुछ समझ में ना आया हो तो पूछ लो ? चेला बोला हमें समझ में ना आया हो, हमें !आप कम समझाते हो हम ज्यादा समझते हैं ! गुरु जी ने मन ही मन कहा कि हम ही नहीं समझ पाए पहले तुम्हें ! लेकिन चलो मैं गुरुजी हैं तुम गुरुजी की इज्जत रखलो पूछ ही लो कुछ ? तो चेला  बोला  गुरु और तो सब  एक एक अक्षर मेरी  समझ में आ गया  है,केवल एक बात समझ में नहीं आई |  कौन सी ?  आप कथा में  बता रहे थे--
दोग्धागोपाल नन्दनः ।
तो गुरुजी सब बात तो समझ लिया पर यह नहीं  समझा कि ये दो गधे कौन थे, गुरू जी विचार करने लगे क्या समझाया क्या समझा। गुरू जी ने माथा प अपना पीटा। चेला बोला गुरुजी जवाब नहीं दिया-  मुझे बताए तो सही ये दो गधे  कौन थे ? गुरुजी हतप्रद।मौन। सास लिए चुप्पी तोड़े और बोले एक हम दूसरे तुम ! एक तुम सुनने वाले और दूसरे हम तुम्हें सुनाने वाले !!

रविवार, 30 जून 2024

मानस चर्चा "दारु नारि"

 मानस चर्चा "दारु नारि"
प्रसंग
सारद दारु नारि सम स्वामी । 
राम सूत्रधर अंतरजामी ॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी ।
कबि उर अजिर नचावहिं बानी ।।
 दारु नारि क्या है? यह है लकड़ीकी बनी हुई स्त्री-कठपुतली। पूरी दुनिया है दारु नारि।। आइए उक्त चौपाई के आधार पर इस विषय पर चर्चा करें उसके पहले जानते हैं की उक्त पक्तियांं क्या कहती हैं।
उक्त पक्तियों  के अनुसार सरस्वतीजी कठपुतलीके समान हैं । अन्तर्यामी स्वामी श्रीरामजी सूत्रधर हैं ॥ अपना जन जानकर जिस कविपर वे कृपा करते हैं उसके हृदयरूपी आँगनमें  वे वाणी को नचाते हैं ॥ 
"कठपुतलीका स्वामी होता है जो उसे सूत्र धरकर नचाता
है । यहाँ श्रीरामजी शारदाके स्वामी हैं, अन्तर्यामीरूपसे उसे नचाते हैं। तात्पर्य कि अन्तर्यामी श्रीरामजी शारदाके
स्वामी हैं, शारदाको प्रेरित करते हैं । दाशरथि श्रीरामजी एकपत्नीव्रत श्रीसीताजीके ही स्वामी हैं, इसीसे अन्तर्यामीरूप पृथक् कहा। वाणी जड़ है, अन्तर्यामी प्रेरणा करता है तब निकलती है, इसीसे वाणीको कठपुतलीके समान कहा; यथा-
 'बिषय करन सुर जीव समेता।
 सकल एक तें एक सचेता ।
 सबकर परम प्रकासक जोई।
 राम अनादि अवधपति सोई ॥''स्वामी' कहकर यह भी जनाया कि मेरे ही स्वामी सरस्वतीके नचानेवाले हैं, अतः मुझपर कृपा करके वे उसे अच्छी तरह नचावेंगे। 'अंतरजामी' का भाव कि कठपुतलीको नचानेवाला छिपकर बैठता है और सूत्रपर कठपुतलीको नचाता है तथा श्रीरामजी अन्तर्यामी रूपसे वाणीको नचाते हैं। ये भी छिपे बैठे हैं, अन्तर्यामी रूप देख नहीं पड़ता । आप शिवजी को सुने कि वे मां पार्वतीजी से कहते हैं --
 'उमा दारु जोषित की नाईं । सबहि नचावत राम गोसाईं।  इस चौपाईमें ग्रन्थकारने श्रीरामजीका अन्तर्यामी रूपसे सबको नचाना कहा ही है ।गीतामें भी कहा है 
 'ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
 भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ ' 
 अर्थात् शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोंके अनुसार भ्रमाता हुआ सब प्राणियों के हृदयमें स्थित है। और  भी कहा है कि 
'ईशस्य हि वशे लोके योषा दारुमयी यथा' 
अर्थात् कठपुतली समान यह सम्पूर्ण लोक ईश्वरके वशीभूत है । यहाँ नचानेवाला, नाचनेवाला और नचानेका स्थान तीनों उत्कृष्ट हैं— श्रीरामजी ऐसे नचानेवाले, शारदा ऐसी कठपुतली और 'जन- उर' आँगन है।
 'राम सूत्रधर' हैं। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी' में श्रीरामजीको 'गिरापति' कह आये हैं,
उसी अर्थको यहाँ पुनः ज्ञापकहेतुद्वारा युक्तिसे समर्थन किया है अर्थात् वाणीके सूत्रधर हैं, उसे नचाते हैं, इससे
जान पड़ा कि वे उसके स्वामी हैं। 
 कठपुतली तार या घोड़ेके बालके सहारे नचायी जाती है, जिसे 'सूत्र' कहते हैं । कठपुतलीकोnनचानेवाला ‘सूत्रधर’ परदेमें छिपकर बैठता है। वैसे ही सूत्रधर राम गोसाईं देख नहीं पड़ते। साधारण पुरुष केवल सरस्वतीकी क्रिया देखते हैं।   'सारद दारु नारि' की व्याख्यामें एक भजन  बहुत भी   उत्तम कोटि का प्रस्तुत है- 
'धनि कारीगर करतारको पुतलीका खेल बनाया। 
बिना हुक्म नहि हाथ उठावे बैठी रहे नहिं पार बसावे ॥ हुक्म होइ तो नाच नचावै जब आप हिलावे तार को। 
 जिसने यह जगत रचाया ॥ १ ॥ 
जगदीश्वर तो कारीगर है पाँचों तत्त्वकी पुतली नर है।
नाचे कूदे नहि वजर है पुतलीघर संसारको । 
बिन ज्ञान नजर नहि आया ॥ 
उसके हाथमें सबकी डोरी कभी नचावे काली गोरी । किसीकी नहि चलती बरजोरी तज दे झूठ बिचारको ।
 नहिं पार किसीने पाया ॥ 
परलयमें हो बंद तमासा फेर दुबारा रच दे खासा । 'छज्जूराम' को हरिकी आसा है धन्यवाद हुशियारको । आपे में आप समाया ॥ 
'धनि कारीगर करतारको पुतलीका खेल बनाया। 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली"


मानस चर्चा "अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली"
तेहि के बचन मानि बिस्वासा।
तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा।।
निर्गुन निलज कुबेष कपाली।
अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली ॥ 
अर्थात् नारदजी के वचनोंपर विश्वास मानकर तुम ऐसेको पति बनाना चाहती हो जो जन्मसे ही स्वाभाविक ही उदासीन है, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, प्रेतों और मनुष्योंकी खोपड़ियोंकी मालापहननेवाला मुण्डमालधारी, कुलहीन, घरबार रहित, नंगा और सर्पोको सारे शरीरमें लपेटे रहनेवाला है इस प्रकार कोई भक्त वो भी सप्तऋषि
महादेव के बारे में कैसे कह सकते है बहुत अचंभित करने वाली बात है सच में यह शिव निंदा कभी नहीं हो सकता वास्तव में यहां एक अलंकार का प्रयोग किया गया है जिसका नाम है ब्याज स्तुति अर्थात् जब हम निंदा के बहाने प्रशंसा करते हैं आगे इस बात को हम अवश्य जानेगें। उसके पहले कुछ बातों को पहले समझते हैं।
प्रथम  'तेहि के बचन '  कहकर वक्ता की जबरदस्त ऐसी की तैसी की गई ।भाव यह कि कपटी, अवगुणी, मोहमाया, दयारहित मनुष्य विश्वास करने योग्य नहीं होता, तुमने ऐसे मनुष्यका विश्वास कैसे कर लिया? यहाँ उपदेष्टा नारदजी की निन्दा की। बात नहीं  बनती है तो आगे वरकी निन्दा करते हैं। पार्वतीजीने पहले नारदजी के वचनको सत्य मानना कहा था तब शिवजीको पतिरूपमें वरण करनेकी बात कही थी; यथा 'नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहि उड़ना।देखहु मुनि अबिबेकु हमारा चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥ '
अतः उसी क्रमसे ऋषियोंने प्रथम उपदेष्टाकी निन्दा की, यदि पार्वतीजी इसे सुनकर नारदवचनको असत्य
मान लेतीं तब तो आगे कहनेकी आवश्यकता ही न रह जाती, तब वरकी । वर  अर्थात् शिवाजी की बात आती है तो मानस के साथ ही साथ पार्वतीमंगलमें  भी गोस्वामीजीने शिव स्वरूप को वरवै छन्दमें यों लिखा है- 
'कहहु काह सुनि रीझेहु बर अकुलीनहिं । 
अगुनअमान अजात मातु-पितु-हीनहिं ॥
' - जिसके अनुसार 'अकुल' का अर्थ 'अकुलीन' या 'अजाति' होना पाया जाता है। 'सहज उदासा' और 'अगेह' कहकर जनाया कि उनको किसी का घर नहीं भाता, कहीं नदी तट पर श्मशान में पड़े रहते हैं जैसी उदासियों की रीति है; 
'कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी।
बसहिं ज्ञानरत मुनि संन्यासी ।' 
क्योंकि वहाँ सदा मृतक शरीरोंको देखते रहने से आत्म बुद्धि का विस्मरण नहीं होने पाता । 'निर्गुण' से
जनाया कि वर होने योग्य उनमें एक भी गुण नहीं है। भाँग, धतूरा आदि खाते हैं। तुम उत्तम शीलादि गुणोंसे
युक्त हो तब निर्गुणी तुम्हारे योग्य कैसे हो सकता है ? 'निलज' निर्लज्ज  हैं अर्थात् भूत, प्रेत, पिशाच,
पिशाचिनियों के साथ नंगे नाचते हैं, पिशाचियों को घूरते हैं; ऐसे के साथ तुम भी लज्जित होगी । 'कुवेष' से चिता की अपवित्र भस्म लगाये, पंचमुख, तीन नेत्र, जटाधारी, गज- व्याघ्रचर्मधारी  व्याघ्रचर्म पहने और गजचर्म ओढ़े 
इत्यादि सब कहे । 'कपाली' हैं अर्थात् मनुष्यों, प्रेतों और सतीके मरनेपर सतीके भी मुण्डोंकी माला धारण
करते हैं। 'अकुल' हैं अर्थात् उनके माँ-बापका ठिकाना नहीं, वे अकुलीन हैं तब कुलीन पुरुषोंके साथ वे बैठ नहीं सकते । अथवा, कुल नहीं है, तुम्हारे सास, श्वशुर, ननद, भौजाई इत्यादि कोई भी नहीं है, ऐसा घर किस कामका है? 'अगेह' हैं, घर नहीं है; अर्थात् वहाँ तुम्हारे रहनेका कहीं ठिकाना नहीं, तब फिर रहोगी कहाँ ? 'दिगम्बर' हैं, उनके
पास कपड़ा भी नहीं, तब तुम्हें ओढ़ने-पहननेको कहाँसे मिलेगा ? 'ब्याली' हैं? अर्थात् सर्पोंको सब अंगों में
लपेटे रहते हैं, नागराज वासुकिको यज्ञोपवीतरूपमें धारण किये रहते हैं और इसी रूपमें वे पृथ्वीपर भ्रमण करते
रहते हैं। सबका आशय यह हुआ कि विवाह घर, वर और कुल देखकर किया जाता है, सो ये तीनों ही बातें
प्रतिकूल हैं। न घर अच्छा, न कुल और न वर ही अच्छा। 
यहाँ व्याजस्तुति अलंकार से स्तुतिपक्षमें ये सब विशेषण हैं गुण हैं । यहाँ तक कि देवर्षि नारद तथा योगीश्वर शिवजी के विषय में जो बातें कही गयी हैं, उनके स्तुतिपक्षके भाव यहाँ एकत्र दिये जाते हैं-शिवपुराणके इस श्लोक को देखें - ' लब्ध्वा तदुपदेशं हि त्वमपि प्राज्ञसम्मता ।
वृथैव मूर्खीभूता त्वं तपश्चरसिदुष्करम्॥ 
यदर्थमीदृशं बाले करोषि विपुलं तपः ।
सदोदासी निर्विकारो मदनारिर्न संशयः ॥
अमंगलवपुर्धारी निर्लज्जोऽसदनोऽकुली। 
कुवेषी भूतप्रेतादिसंगी नग्नो हि शूलभृत् ॥'  
अर्थात् तुम विदुषी होकर भी उनका उपदेश पाकर मूर्खा होकर व्यर्थ ही कठिन तप कर रही हो। जिसके लिये तुम कठिन तप कर रही हो वह कामारि सदा उदासी, निर्विकार, अमंगलवपुधारी, निर्लज्ज, अगेह, अकुली, कुवेषवाला, भूतप्रेतोंका साथ करनेवाला, नग्न और त्रिशूलधारी है। सदा उदासी, निर्लज्ज, कुवेषी, अकुली, अगेह और नग्न तो स्पष्ट ही मानसमें हैं। मानसके निर्गुण, कपाली और व्यालीके बदले शिवपुराणमें निर्विकार,
अमंगलवपुधारी, भूतप्रेतादिसंगी और शूलभृत् हैं ।
शिवजीके विशेषणोंके साधारण ऊपरी भाव कुछ ऊपर  दिये गये और कुछ अगली चौपाई में---
'कहहु कवन सुख अस बर पाए' में दिये जायँगे । स्तुतिपक्ष अर्थात् प्रशंसा के भाव कुछ पूर्व 'जोगी जटिल अकाम मन 
में दिये गये हैं और कुछ यहाँ पुनः दिये जाते हैं । — 'सहज उदासी' अर्थात् कोई शत्रु-मित्र नहीं, विषय-वासना छू
भी नहीं सकती, अतः परमभक्त हैं। 'कुवेष' अर्थात् पृथ्वीपर ऐसा वेष किसीका  भेष नहीं है। कु कहते है पृथ्वी को वेष   कहते है रूप रंग यानि स्वरूप  को अर्थात् उनके जैसा स्वरूप इस धरती पर किसी का नहीं है।'ब्याली' अर्थात् शेषजीको सदा भूषणसरीखा धारण किये रहते हैं, यथा 'भुजगराज भूषण', 'लसद् भाल बालेंदु कंठे भुजंगा - ऐसे सामर्थ्यवान् और भगवान्‌के कीर्तनरसिकके संगी। 'कपाली' अर्थात् जिनकी समाधि कपाल अर्थात् दशमद्वारमें रहती है। निर्गुण-गुणातीत। अकुल अर्थात् अजन्मा हैं। 'दिगम्बर' और 'अगेह' से परम विरक्त संत जनाया। 'निलज' से अमान अभिमानरहित जनाया, ये सारे लक्षण होते है अद्वितीय ,अप्रतिम ,परम संत के। इस प्रकार यहाँ व्याजस्तुति अलंकार है जिसके माध्यम से यहां शिव प्रशंसा अर्थात् महादेव की स्तुति ही की गई है।
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् ।
सदावसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा " झखकेतू "

मानस चर्चा " झखकेतू "
एहि बिधि भलेहि' देवहित होई । 
मत अति नीक कहै सबु कोई ॥
अस्तुति' सुरन्ह कीन्हि अति हेतू ।
प्रगटेउ बिषम बान झखकेतू ॥ 
यहां झखकेतू कौन है? इनकी देवताओं ने स्तुति की और ये प्रगट हुवें। हम  आज इस झखकेतू के बारे में चर्चा करेगें। झख  कहते है मछली  को और केतू कहते हैं पताका अर्थात् ध्वजा को।  तो   झखकेतू वे हुवे - जिनकी ध्वजापर मछलीका चिह्न है कहा भी गया है 'कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू'।
झखकेतू से पहले हम  इस  चौपाई को समझतेहैं।
एहि बिधि भलेहि' देवहित होई । 
मत अति नीक कहै सबु कोई ॥
अर्थात् इस तरह भले ही देवताओंका हित होगा  अन्य उपाय नहीं है । यह सुनकर  सब कोई बोल उठे कि सलाह बहुत ही अच्छी है।
अस्तुति' सुरन्ह कीन्हि अति हेतू ।
प्रगटेउ बिषम बान झखकेतू ॥ 
देवताओंने अत्यन्त अनुरागसे कामदेवकी भारी स्तुति की तब  पंचबाण धारी मकरध्वज कामदेव प्रकट हुवे।
एहि बिधि भलेहि देवहित होई ।  'भलेहि' भले ही अर्थात् भलीभाँति  भलाई ही होगी। 'सब कोई कहने लगे कि यह मत बहुत अच्छा है, इस प्रकार देवताओंका पूरा हित होगा।' 'देवहित होई'  । क्या हित होगा ? मुख्य हित तारक-वध है; कहा भी गया है— 'सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ । 'तारक- वधसे देवगण फिर स्ववश बसेंगे। यहां शिव समाधि भंग करने की विधि पर चर्चा हो रही है भाव यह है कि समाधि-भंगके अन्य उपाय भी हैं, पर उनके करनेसे समाधि-भंग होनेपर शिवजी कारणकी खोज करेंगे, देवताओंपर विपत्ति बिना आये न रहेगी। अतः उनसे भली प्रकार हित न होगा । और कामकी उत्पत्ति ही मनः क्षोभके लिये है, अतः उसके समाधि भंग करनेपर कारणकी खोज न होगी ।  'मत अति नीक कहै सब कोई'  । जो मत सबके मनको भाता है, उससे अवश्य कार्य सिद्ध होता है; जैसा कि कहा भी गया है-
'नीक मंत्र सबके मन भावा ।' तात्पर्य कि सब सहमत हुए।
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू ' कामदेवके आविर्भावके लिये अत्यन्त स्नेहसे भारी स्तुति की। हेतु  अर्थात - प्रेम से; जैसा  कि- 'हरषे हेतु हेरि हर ही को ।और भी देखें 'चले संग हिमवंत तब पहुँचावन अति हेतु ॥'  'प्रगटेउ' कहा क्योंकि काम तो सर्वत्र व्यापक है, मनमें ही उसका निवास रहता है, अतः स्तुति करनेपर वहीं प्रकट हो गये । देवगण आर्त थे, इसलिये उन्होंने प्रकर्षरूपसे स्तुति की, नहीं तो कामदेव बुलवा लिये जाते । जैसा कि - 'कामहि बोलि कीन्ह सनमाना ॥'  'बिषम बान'  क्या है? विषम- यहां पाँच  के लिए  आया है । मनमें विषमता अर्थात् विकार उत्पन्न करनेवाले । कठिन जिससे कोई उबर बच न सके कामदेवके बाणोंकी विषमता शिवजी भी न सह सके; यथा - 'छाँड़े बिषम बिसिख उर लागे । छूटि समाधि
संभु तब जागे ॥'  अतः बाणोंको 'विषम' विशेषण दिया।
कामदेव को पंचबाणधारी कहा जाता है। वे पंच बाण क्या हैं - रामवल्लभाशरणजी प्रमाणका एक श्लोक यह बताते थे जो अमरकोशकी टीकामें भी है –
'उन्मादस्तापनश्चैव शोषणस्तम्भनस्तथा । 
सम्मोहनश्च कामश्च बाणाः पञ्च प्रकीर्तिताः ॥ '
इसीको हिन्दी भाषामें यों लिखा गया हैं-
'वशीकरन मोहन कहत आकर्षण कवि लोग। 
उच्चाटन मारन समुझु पंच बाण ये योग ।' श्रीकरुणासिन्धुजी लिखते हैं कि 'आकर्षण, उच्चाटन, मारण और वशीकरण ये चारों कामदेवके धनुष हैं।
कम्पन पनच है और मोहन, स्तम्भन, शोषण, दहन तथा वन्दन - ये पाँच बाण हैं पर सुमनरूप हैं।'  ये पाँच
फूल कौन हैं ? पंजाबीजी बाबा, पं० श्रीरामवल्लभाशरणजी तथा अमरकोश - टीकाके अनुसार वे पाँच पुष्प ये हैं-
'अरविन्दमशोकञ्च चूतं च नव मल्लिका । 
नीलोत्पलं च पञ्चैते पञ्चबाणस्य सायकाः ॥'  
आप हिन्दी में भी देख सकते हैं ---
'कमल केतिक केवड़ा कदम आमके बौर। 
ए पाँचो शर कामके केशवदास न और ॥'
पर किसी-किसीके मतानुसार शब्द,स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँच विकार ही पंचबाण हैं। 
पंचबाण धारण करनेका भाव यह कहा जाता है कि 'यह शरीर पंचतत्त्वों- पृथ्वी, जल, पावक, वायु और आकाशसे ही बना है। इस कारण एक-एक तत्त्वको भेदन करनेके लिये एक-एक बाण धारण किया है। कामदेवके बाण प्राय: पुष्पोंके ही माने गये हैं और श्रीमद्गोस्वामीजीका भी यही मत है। यथा - 'सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे । '  धनुष और बाण दोनों फूलके हैं; यथा - 'काम कुसुम धनु सायक लीन्हें। सकल भुवन अपने बस कीन्हें ॥ ' 'अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई । सुमन धनुष कर सहित सहाई॥' 
विषम बाण और झखकेतु ये दोनों वशीकरण और विजयके आयुध साथ दिखाकर जनाया कि विजय
प्राप्त होगी। मीन वशीकरणका चिह्न माना जाता है। इस कारण से भी यहां झखकेतू ही कहा गया है। झखकेतू से ही संसार का  कल्याण  होगा ऐसा ही सभी का मत है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।