मंगलवार, 10 सितंबर 2024

रामचरितमानस की काव्यभाषा में रस


रामचरितमानस की काव्यभाषा में रस
कविता भाषा की एक विधा है और यह एक विशिष्ट संरचना अर्थात् शब्दार्थ का विशिष्ट प्रयोग है। यह (काव्यभाषा) सर्जनात्मक एक सार्थक व्यवस्था होती है जिसके माध्यम से रचनाकार की संवदेना, अनुभव तथा भाव साहित्यिक स्वरूप निर्मित करने में कथ्य व रूप का विषिष्ट योग रहता है। अत: इन दोनों तत्त्वों का महत्त्व निर्विवाद है। कवि द्वारा गृहित, सारगर्भित, विचारोत्तोजक कथ्य की संरचना के लिए भाषा का तद्नुरूप प्रंसगानुकूल, प्रवाहनुकूल होना अनिवार्य है। भाषा की उत्कृष्ट व्यंजना शक्ति का कवि अभिज्ञाता व कुशल प्रयोक्ता होता है। रचनाकार अपनी अनुभूति को विशिष्ट भाषा के माधयम से ही सम्प्रेषित करता है, यहीं सर्जनात्मक भाषा अथवा साहित्यिक भाषा ‘काव्यभाषा’ कहलाती है। काव्यभाषा के संदर्भ में रस का महत्तवपूर्ण स्थान है। प्रौढ और महान् कवि काव्यषास्त्र के अन्य तत्त्वों की अपेक्षा रस से मुख्यतया अपने काव्य में रसयुक्त भाव की सृष्टि करता है।
    व्युत्पत्ति की दृष्टि से रस शब्द रस् धातु से निर्मित है, जिसका अर्थ है स्वाद लेना। रस शब्द स्वाद, रुचि, प्रीति, आनन्द, सौंदर्य आदि के साथ ही तरल पदार्थ, जल, आसव आदि भौतिक अर्थो में प्रयुक्त होता रहा है। रस का व्याकरण सम्मत अर्थ है-‘रस्यते आस्वधते इति रस:’ अर्थात जिसका स्वाद लिया जाय या जो आस्वादित हो, उसे रस कहते हैं। रस सिद्धांत के अनुसार काव्य की आत्मा रस है। इससे काव्यवस्तु की प्रधानता लक्षित होती है,विभिन्न रसों के अनुरूप काव्यरचना करने में काव्यभाषा की स्पष्ट झलक है। अनुभूति जब हृदय में मंडराती है, वह अरूप और मौन है पर इससे ही अभिव्यक्त होती है तो किसी न किसी भाषा में ही होती है। अभिनव गुप्त ने लिखा है कि शब्द-निष्पीङन में काव्यानंद की प्राप्ति होती है। यह शब्द-निष्पीङन काव्यभाषा का काम है। इन्होंने (अभिनवगुप्त) अभिधा और व्यंजना को स्वीकारते हुए रसों की अभिव्यक्ति स्वीकार की है।
  आचार्य भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में रस को परिभाषित करते हुए लिखा है-जिस प्रकार नाना भॉति के व्यंजनों से सुसंस्कृत अन्न को ग्रहण कर पुरुष रसास्वादन करता हुआ प्रसन्नचित्त होता है, उसी प्रकार प्रेषक या दर्शक भावों तथा अभिनयों द्वारा व्यंजित वाचिक, आंगिक एवं सात्विक भावों तथा अभिनयों द्वारा व्यंजित वाचिक, आंगिक एवं सात्विक भावों से युक्त स्थायी भाव का आस्वादन कर हर्षोत्फुल्ल हो जाता है।
       आचार्य मम्मट के अनुसार लोक में रति आदि चित्तवृत्तियों के जो कारण, कार्य और सहकारी होते हैं, वे ही काव्य अथवा नाटक में विभाव, अनुभाव एवं संचारी या व्याभिचारी भाव कहे जाते हैं तथा उन विभावादि के द्वारा व्यक्त (व्यंजनागम्य) होकर स्थायी भाव रस कहा जाता है।
        आधुनिक रसवादी आलोचक डॉ. नगेंद्र भी साधरणीकरण को भाषा का धर्म मानते हैं।
      रामचरितमानस में काव्य-स्वीकृत सभी रसों की सुंदर योजना की गईं हैं । महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने भक्तयात्मक व्यक्तित्व के प्रभाव से भक्ति नामक भाव को ‘भक्तिरस’ में प्रतिष्ठित भी कर दिया है।
     आज तक रसों की स्वीकृत संख्या बारह तक पहुंची है। वे ये हैं -शृगांर, हास्य, करूण; रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शान्त, वात्सल्य, सख्य, और भक्तिरस।
     आइए आज हम रामचरितमानस में रस संयोजन को देखते हैं।
(1)शृंगार रस- शृंगार रस का स्थायी भाव ‘रति’ है और नायक- नायिका आलंबन और आश्रय हैं। शृंगार शब्द ‘शृंग’ और ‘आर’ के योग से निष्पन्न हुआ है।आचार्य भरत के अनुसार शृंगार रस उज्ज्वल वेशात्मक, शुचि और दर्शनीय होता है। प्रेमियों के मन में संस्कार-रूप से वर्तमान रति या प्रेम रसावस्था को पहुँचकर जब आस्वादयोग्यता को प्राप्त करता है तब उसे शृंगार रस कहते हैं।गोस्वामीजी भक्ति-रस के समर्थक हैं। परंतु कवि-कर्म की दृष्टि से शृंगार रस का भी वर्णन रामचरितमानस में आया है, जिससे भाव चित्रों की रमणीयता बढ गयी है। शृंगार के दो भेद हैं-
(क) संयोग शृंगार–
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। 
सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥

भये विलोचन चारु अचंचल।
मनहु सकुचि निमि तजेउ दिंगचल॥

देखि सीय सोभा सुखु पावा।
हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥

जनु बिरंचि सब निज निपुनाई।
बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥

थके नयन रघुपति छबि देंखे।
पलकन्हिहूं परिहरिं निमेषें॥

अथिक सनेह देह भइ भोरी।
सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥

(ख) वियोग शृंगार-

घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥

दामिनी दमक रह न घन माहीं।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। 
कालनिसा सम निसि ससि भानू।।

(2 )हास्य रस –विकृत वेश- रचना या वचन भंगी के द्वारा हास्य रस की उत्पत्ति होती है। इसका स्थायी भाव हास है और आलंबन है-विचित्र वेशभूषा, व्यंग्य भरे वचन, उपाहासास्पद व्यक्ति की मुर्खताभरी चेष्टा, हास्योपादक पदार्थ, निर्लज्जता आदि। हास्यवर्द्धक चेष्टाएँ इसके उद्दीपन हैं और गले का फुलाना, असत् प्रलाप, ऑंखों का मींचना, मुख का विस्फारित होना तथा पेट का हिलना आदि अनुभाव हैं। इसके संचारी अश्रु, कंप, हर्ष, चपलता, श्रम, अवहित्था, रोमांच, स्वेद, असूया आदि हैं।  रामचरितमानस में हास्य रस के निम्न उदाहरण देखने को मिलते हैं-
मर्कट बदन भेकर देही। देखत हृदय क्रोध भा तेही॥
जेही दिसि नारद फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली॥
पुनि पुनि मुनि उकसाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥11

(3 )करुण रस- इष्ट की हानि, अनिष्ट की प्राप्ति, धननाश या प्रिय व्यक्ति की मृत्यु में करूण रस होता है। इसका स्थायी भाव शोक है आलंबन के अंतर्गत पराभाव आदि आते हैं। प्रिय वस्तु आदि के यश, गुण आदि का स्मरण आदि उद्दीपन हैं। अनुभाव हैं- रूदन, उच्छ्वास मुर्च्छा, भूमिपतन, प्रलाप आदि। संचारी भावों में व्याधि, ग्लानि, दैन्य, चिंता, विषाद एवं उन्माद आदि। तुलसी के रामचरितमानस में भी करूण -रसकी छटा देखने को मिलती है-
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहु कर धीरज कर धीरजु भागा॥
सोक बिलाप सब रोबहिं रानी। रूप सीलु बलु तेजु बखानी॥
करहीं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमि तल बारहीं बारा॥1
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदन करहिं पुरबासी॥
अथएउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधी गुन रूप निधानू॥

(4 )रौद्र रस-शत्रु के असहनीय अपराध या अपकार के कारण क्रोध भाव की पुष्टि से रौद्ररस उत्पन्न होता है। क्रोध इसका स्थायी भाव है। इसके अनुभाव हैं-विकत्थन, ताडन, स्वेद आदि तथा आलंबन- विरोधियों द्वारा किए गए अनिष्ट कार्य,अपराध,एवं अपकार होते हैं। संचारी भाव हैं- उग्रता, अमर्ष, चंचलता, उध्देग, मद, असूया, श्रम, स्मृति, आवेग आदि। रामचरितमानस में भी रौद्र रस  अनेक प्रकरणों में देखने को मिलता है-
अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जङ जनक धनुष कै तोरा॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥
परसुरामु तब राम बोले उर अति क्रोधु।
संभू सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥

(5 )वीर रस-जब उत्साह के भाव का परिपोषण होता है तो वीर रस की उत्पत्ति होती है। वीर तीन प्रकार हैं- युद्धवीर, दानवीर और दयावीर। इसका स्थायी भाव उत्साह है और शत्रु, विद्वज्जन, दीन आदि आलंबन होते हैं। इसके अनुभाव हें- शौर्य, दान, दया आदि और अपकार, गुण, कष्ट आदि उद्दीपन हैं। आवेग, हर्ष, चिंता आदि संचारी होतो हैं।  रामचरितमानस में  वीर रस अनेक रूप में देखने को मिलता है-
रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥
दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई॥

(6 ) भयानक रस – भयंकर परिस्थिति ही भयानक रस की उत्पत्ति का कारण है। भयदायक पदार्थो के दर्शन, श्रवन अथवा प्रबल शत्रु के विरोध के कारण भयानक -रस की उत्पत्ति होती है। इसका स्थायी भाव भय है और व्याघ्र, सर्प, हिंसक प्राणी, शत्रु आदि आलंबन हैं। हिंसक जीवों की चेष्टाएँ, शत्रु के भयोत्पादक व्यवहार, विस्मयोपादक ध्वनि आदि उद्दीपन हैं। अनुभाव, रोमांच, स्वेद, कंप, वैवर्ण्य, रोना, चिल्लाना आदि हैं। संचारी भाव हैं- शंका, चिंता, ग्लानि, आवेग, मुर्च्‍छा, त्रास, जुगुप्सा, दीनता आदि।  रामचरितमानस में भयानक रस अनेक रूप में देखने को मिलता है-
तब खिसिआनि राम पहिं गई। रूप भंयकर प्रगटत भई॥
नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥

(7 )बीभत्स रस- घृणोंत्पादक पदार्थों के देखने ,सुनने से घृणा या जुगुप्सा रस होता है। इसका स्थायी भाव जुगुप्सा है। श्‍मशान, शव, सङामांस, रूधिर, मलमूत्र, घृणोत्पादक पदार्थ आदि आलंबन है। उद्दीपन भाव हैं गीधों का मांस नोचना,कीङों-मकोङो का छटपटाना,कुत्सित रंग-रूप आदि। आवेग ,मोह, जङता, चिंता, व्याधि, वैवर्ण्य, उन्माद, निर्वेद, ग्लानि, दैन्य आदि संचारी भाव हैं। रामचरितमानस  में भी यह रस अनेक स्थानों पर  देखने को मिलता हैं-
काक कंक लै भुजा उडाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥

खैंचहि गीध ऑंत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥

बहु भट बहहिं चढे खग जाहीं।जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥

(8 )अद्भूत रस-दिव्य दर्षन ,इंद्रजाल या विस्मयजनक कर्म एवं पदार्थों के देखने से आष्चर्य है। अलौकिक घटना और अद्भुत इसके आलंबन हैं। अनुभाव है- निर्निमेष, दर्शन, रोमांच, स्वेद, स्तंभ आदि। इसके संचारी भाव जङता, दैन्य, आवेग, शंका, चिंता, वितर्क, हर्ष, चपलता, उत्सुकता आदि हैं। रामचरितमानस में भी यह रस हमें अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है-
जोजन भर तेहि बदनु पसारा।कवि तनु कीन्ह दुगन विस्तारा॥
सोरह जोजन तेहि आनन ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥
जस जस सुरसा बदन बढावा। तासु दून कपि रूप दिखावा॥
सत जोजन तेहि आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवन सुत लीन्हा॥

(9) शान्त रस –तत्त्वज्ञान एव वैराग्य से शान्त रस उत्पन्न है। इसका स्थायी भाव निर्वेद है और आलंबन है मिथ्या रूप से ज्ञात संसार तथा परमात्म-चिंतन आदि। इसके अनुभाव हैं- शास्त्र-चिंतन, संसार की अनित्यता का ज्ञान आदि। शांत रस कं संचारी भाव मति, धैर्य, हर्ष आदि हैं। इसके उद्दीपन पुण्याश्रम, तीर्थ-स्थान, रमणीय वन एवं सत्संगति हैं।  रामचरितमानस में भी इस रस को  देखते हैं-
रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि बिषय अनल बन जरइ। होइ सुखी जौं एहिं सर परई॥
करि बिनती मंदिर लै तारा। करि बिनती समुझाव कुमारा॥
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥

(10) वात्सल्य रस-पुत्रादि के प्रति माता-पिता के स्नेह से वात्सलरस उत्पन्न होता है। इसका स्थायी भाव है- संतान के प्रति रति या वात्साल्य प्रेम  है और पुत्रादि आलंबन हैं। शिर चुबंन, आलिंगन आदि अनुभाव हैं और पुत्रादि की चेष्टाएँ उद्दीपन। अनिष्ट, शंका, हर्ष, गर्व आदि को वत्सलरस का संचारी माना गया है।  रामचरितमानस में  यह रस  अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है- इसके भी दो भेद हैं 

(क) संयोग वात्सल्य-
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुक ठुमुक प्रभु चलहिं पराई॥

(ख)वियोग वात्सल्य-

सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥

(11 ) साख्य रस –इस रस में मित्रता का भाव होता है। इस महाकाव्य में भी सख्य भाव के रस को  देखते हैं -
तुम मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहहु पुर आवत जाता॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी॥
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि तानां मित्रक दुख रज मेरु समाना॥

(12) भक्ति रस- ईश्‍वर-प्रेम के कारण भक्ति रस उत्पन्न होता है। इसके आलंबन हैं भगवान् और उनके वल्ल्भरूप, राम, कृष्ण, आदि अन्य अवतार। भगवान् के गुण, चेष्टा, प्रसाधन, ईश्‍वर के अलौकिक कार्य, सत्संग एवं भगवान् की महिमा का गान आदि इसके उद्दीपन हैं। नृत्य, गीत, अश्रुपात, नेत्रनिमीलन आदि भक्ति रस के अनुभाव हैं और हर्ष, गर्व, निर्वेद, मति आदि संचारी भाव हैं। रामचरितमानस में यह रस अनेक रूप से देखने को मिलता है-
मति अति नीच उँचि रुचि आछी।चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरी ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥

गोस्वामीजी  का रस स्वरूप सहृदय पाठक के चित के आवरण को दूर करने के कारण, चित का मद, मोह, काम, क्रोध, दंभ आदि भावनाओं से विमुक्ति दिलाने के कारण,मन में विवेक रूपी पावक को अरनी के समान जगाने के कारण, गृह कारज संबंधी वैयक्ति जंजालों से मुक्ति के कारण,  कलिकलुष मिटाने के कारण, मानस का  भक्ति रस अलौकिक तथा ब्रहमानंद सहोदर कोटि का है।
  इससे यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि गोस्वामीजी  के रस तत्त्व में सहृदयों की सभी इच्छाएँ निहीत है। इनकी रस संबंधी धारणा में सहृदयों की सभी मनोवृत्तियो, सभी प्रमुख भावों, साधित भावनाओं, सहचर भावनाओं, सभी आदर्शों, मूल्यों, सत्-चित आनंद तत्त्वों, उदात्त् तत्त्वों,  वास्तविकताओं, कल्पना, चिंतन, अनुभूति तत्त्वों, पुरुषार्थ सिद्धियों का समावेश है अन्यथा उनका रस तत्त्व सबको अनुरंजित करने में सफल नहीं होता। इनका काव्यरस इतना उच्च कोटि का है वह विरोधी को भी विभोर कर देता है, शत्रु  भी सहज बैर को भुलकर काव्यानंद द्वारा उसके आस्वादन में मग्न हो जाता है। गोस्वामी द्वारा संकेतित रस इतना उच्च कोटि का है कि वह सब प्रकार के मानसिक रोगों को नष्ट करने वाला है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।

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