मानसचर्चा
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।
अर्थात् राजा जनक ने गुरु विश्वामित्र जी से विनती (स्तुति, अपने भाग्यकी प्रशंसा) करके अपनी कथा सुनायी और सब रंगभूमि मुनिको दिखायी ॥ अब बात आती है कि
कौन सी कथा सुनाई? इस संबंध में अनेक कथाएं हैं।आज हम इस पर चर्चा करते हैं और कुछ कथाओं को सुनते हैं।
वाल्मीकीय रामायण में श्रीजनकमहाराजने श्रीविश्वामित्रजीसे स्वयं इस धनुषके सम्बन्धकी कथा इस प्रकार कही है- जिस प्रयोजनके लिये यह धनुष मेरे यहाँ रखा गया उसे सुनिये। निमिमहाराजके कुलमें देवरात नाम
एक राजा हो गये हैं। उनको यह धनुष धरोहरके रूपमें मिला था । दक्षयज्ञके विध्वंसके लिये इस धनुषको
श्रीशिवजीने चढ़ाया था, यज्ञका नाश करके उन्होंने क्रोधमें भरकर देवताओंसे कहा कि तुम लोगोंने मुझ भागार्थीको
यज्ञभाग नहीं दिया, अतः मैं इसी धनुषसे तुम सबोंका सिर काटे डालता हूँ। यह सुन देवता लोग उदास हो
गये और किसी तरह उन्होंने शिवजीको प्रसन्न किया। तब शिवजीने यह धनुष देवताओंको दे दिया और
देवताओंने हमारे पूर्वजोंके पास उसे रख दिया । कूर्मपुराणमें भी यह कथा कही जाती है ।
परशुरामजीने श्रीरामजीसे इसके सम्बन्धमें यह कहा था कि ये शारंग और पिनाक दोनों धनुष अत्युत्तम दिव्य और
लोकोंमें प्रसिद्ध हैं, बड़े दृढ़ हैं, इन्हें देवशिल्पी विश्वकर्माने बड़े परिश्रमसे ब्रह्म ऋषि दधीचि की हड्डी से सावधानतापूर्वक बनाया था। इनमेंसे पिनाक को
देवताओंने (जिसे तुमने तोड़ा है) महादेवजीको दिया जिससे उन्होंने त्रिपुरासुरका नाश किया, और
दूसरा शारंग को विष्णुभगवान्को दिया । उस समय देवताओंने ब्रह्माजीसे पूछा कि विष्णु और शिवमें कौन अधिक बलवान् है । उनका अभिप्रायमहान् समझकर तथा दोनों धनुषोंमें कौन श्रेष्ठ है यह जाननेके लिये ब्रह्माजीने दोनोंमें विरोध करा दिया, जिससे रोमांचकारी युद्ध हुआ। शिवजीका महापराक्रमी धनुष ढीला पड़ गया और विष्णुके हुंकारसे उस समय शिवजी स्तम्भित हो गये । चारणों और ऋषियोंसहित देवताओंने आकर दोनोंसे शान्त होनेकी प्रार्थना की। तब दोनों अपने-
अपने स्थानको चले गये। अपनी हार देख शिवजीने क्रुद्ध होकर अपना धनुष बाणसहित राजर्षि देवरातको दे
दिया ।
श्रीगोस्वामीजीके मतानुसार यह धनुष पुरके पूर्व दिशामें, पुरके बाहर रखा था, वहीं रंगभूमि बनायी
गयी थी। शिवजीने इसे त्रिपुरासुरके वधके लिये खास तौरपर बनवाया था, जैसा कवितावलीसे सिद्ध है-
'मयनमहन, पुर-दहन-गहन जानि, आनिकै सबैको सारु धनुष गढ़ायो है। जनक सदसि जेते भले- भले भूमिपाल
किए बलहीन बल आपनो बढ़ायो है ।मानस में
भी इस धनुष के साथ त्रिपुरारि वा पुरारि शब्दोंका प्रयोग हुआ है । यथा 'सोइ पुरारि कोदंड कठोरा। राजसमाज
आजु जोइ तोरा ॥' धनुही सम त्रिपुरारि धनु बिदित सकल संसार । इससे भी इसीसे त्रिपुरका नाश किया जाना सिद्ध होता है। धनुष जनकजीको सौंप दिया गया था, यह गीतावलीमें भी कहा है; यथा - ' अनुकूल नृपहि सूल-पानि हैं। नीलकंठ कारुन्यसिंधु हर दीनबन्धु दिन दानि हैं। जो पहिले ही पिनाक जनक कहँ गए सौप जिय जानि हैं। बहुरि त्रिलोचन लोचनके फल सबहि सुलभ किए आनि हैं ॥'इस ग्रन्थसे भी यही सिद्ध होता है, यथा - 'सोइ पुरारि कोदंड कठोरा'
राजा जनकने विश्वामित्रजीसे धनुषका अपने यहाँ रखे जानेका प्रयोजन कहकर फिर यह भी बताया कि
यज्ञके लिये मैं हलसे खेत जोत रहा था। उस समय हलके अग्रभाग- ( सीता - ) की ठोकरसे एक कन्या पृथ्वीसे
निकल आयी, जो अपने जन्मके कारण 'सीता' के नामसे प्रसिद्ध हुई । मैंने इस अपनी अयोनिजा कन्याका शुल्क
यही रखा कि जो इस- (धनुष) को उठाकर इसपर रोदा चढ़ा दे उसीको यह ब्याही जायगी। अनेक राजा आये ।
कोई भी इसे न उठा सका- ' न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा ।' उन्होंने इससे अपनेको तिरस्कृत समझ नगरको घेर लिया। एक वर्षतक संग्राम होनेसे मेरे सब साधन नष्ट हो गये, तब मैंने तपस्याद्वारा देवताओंको प्रसन्नकर उनकी चतुरंगिणी सेना प्राप्त कर सबको पराजित किया । - यह वही धनुष है ।
सत्योपाख्यानमें श्रीसीतास्वयंवरके विषयमें यह कथा लिखी है कि श्रीजानकीजीकी महिमा देख
श्रीसुनयना अम्बाजीने सोचा कि इनका विवाह इन्हींके अनुकूल पुरुषसे करना चाहिये और श्रीशीरध्वज
महाराजसे उन्होंने अपना विचार प्रकट किया। राजा भी सहमत हुए और इसी संकल्पसे पृथ्वीपर कुशा
बिछाकर उसपर सोये । शिवजीने स्वप्नमें दर्शन देकर यह आज्ञा दी कि तुम जिस हमारे धनुषका पूजनकरते हो उसके विषयमें यह प्रतिज्ञा करो कि जो इसे तोड़ेगा उसीके साथ श्रीजानकीजीका विवाह किया जायगा ।
यथा - 'धनुर्मदीयं ते गेहे पूजितं तव पूर्वजैः । तस्य प्रतिज्ञा त्वया कार्या भंगाय तोलनाय च । तोलयित्वा च यो भंग कारयेद्धनुषो मम । तस्मै देया त्वया कन्या ह्येवमुक्त्वा गतो हरः । ' सबेरे राजाने यह वृत्तान्त मन्त्रियोंसे कह उनकी सम्मतिसे राजाओंको निमन्त्रण भेजा, वे सब आये। रावणको भी निमन्त्रण गया; उसका मन्त्री
प्रहस्त आया था। बाणासुर और काशिराज सुधन्वा भी (जो शिवभक्त थे) आये।.... । ' धनुष कोई न उठा सका। सुधन्वाने कहा कि धनुषसहित सीताजीको हमें दे दो, नहीं तो हम तुम्हारा नगर लूट लेंगे।
सालभर बराबर लड़ाई होती रही पर राजाने प्रतिज्ञा न छोड़ी। अन्तमें श्रीशिवजीकी कृपासे सुधन्वा मारा गया और काशी नगरी कुशध्वजको दे दी गयी। राजाओंको फिर निमन्त्रण भेजा गया।
धनुष तोड़नेकी प्रतिज्ञाके सम्बन्धमें और भी कथाएँ हैं - पहली कथा है कि अध्यात्म रामायण में पाणिग्रहणके पश्चात् जनकजीने
श्रीवसिष्ठजी और श्रीविश्वामित्रजीसे बताया कि एक दिन जब मैं एकान्तमें बैठा हुआ था, देवर्षि नारद आये और
मुझसे कहा कि परमात्मा अपने चार अंशोंसहित दशरथपुत्र होकर अयोध्यामें रहते हैं । उनकी आदिशक्ति तुम्हारे यहाँ सीतारूपसे प्रकट हुई हैं। अत: तुम प्रयत्नपूर्वक इनका पाणिग्रहण रघुनाथजीके साथ ही करना, क्योंकि यह पहले से ही रामजीकी ही भार्या हैं- 'पूर्वभायैषा रामस्य परमात्मनः । ' देवर्षिके चले जानेपर यह सोचते हुए कि किस प्रकार जानकीजीको रघुनाथजीको दूँ, मैंने एक युक्ति विचारी कि सीताके पाणिग्रहणके लिये सबके गर्वनाशक इस धनुषको ही पण (शुल्क) बनाऊँ। मैंने वैसा ही किया। आपकी कृपासे कमलनयन राम यहाँ धनुष देखनेको आ गये और मेरा मनोरथ सिद्ध हो गया ।
दूसरी कथा मिलती है कि महा सुनयना प्रतिदिन चौका दिया करती थीं। एक दिन अवकाश न मिलनेके कारण उन्होंने सीताजीको चौका लगानेको भेजा । इन्होंने धनुष उठाकर उसके नीचे भी चौका लगाया। तीसरी कथा यह है कि'एक समय जानकीजीने खेलते हुए सखियोंके सामने धनुषको उठा लिया। यह सुन राजाने धनुषभंगकी प्रतिज्ञा की।' एक कथा यों भी है कि राजा जनक अपने महलसे कुछ दूरीपर धनुषकी पूजा करने जाया करते थे। एक दिन सीताजी उनके साथ गयीं । उन्होंने विचारकर कि पिताजी इसीकी पूजाके कारण परिश्रम कर यहाँ आते हैं, वे उसे उठाकर अपने घर ले आयीं । अन्य कथा यह भी कही जाती है कि धनुषके आस-पास सीताजी सखियोंसहित चाईं माईं खेल रही थीं, ओढ़नीका अंचल धनुषमें अटका और धनुष स्थानसे हट गया ।ऐसा चमत्कार देखकर राजा जान गये कि सीता तो ब्रह्मविद्या (आदिशक्ति) है। और राजा ने प्रतिज्ञा किया कि जो इस धनुषको तोड़े उसके साथ इसका विवाह करना योग्य है। इन सारी कथाओं को सुनाया या एक को कथा तो सुनाया । जो भी हो राजा जनक ने गुरू विश्वामित्र से निवेदन किया कि शिवजीने हमें जो उपदेश दिया कि तुम प्रतिज्ञा करो कि जो इस धनुषको तोड़े वही जानकीको ब्याहेगा। उसी आज्ञा के अनुसार हमने प्रतिज्ञा की, रंगभूमि बनवायी, कृपया चलकर इसे देखिये ।
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।
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