जौंरघुबीरअनुग्रह कीन्हा।तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥ यहां 'रघुबीर' शब्द पाँच प्रकारकी वीरताके सम्बन्धमें प्रयुक्त है, यथा - ' त्यागवीरो दयावीरो विद्यावीरो
विचक्षणः। पराक्रममहावीरो धर्मवीरः सदा स्वतः ॥ पंचवीराः समाख्याता राम एव च पंचधा । रघुवीर इति ख्यातः सर्ववीरोपलक्षणः ॥' इन पाँचोंके उदाहरण क्रमसे लिखते हैं-
(१) त्यागवीर
'पितु आयसु भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदय कछु पहिरे बलकल चीर ।'
(२) दयावीर
'चरनकमलरज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ '
(३) विद्यावीर
'श्रीरघुबीरप्रताप तें सिंधु तरे पाषान ।
ते मतिमंद जो राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ।'
( जलपर पत्थर तैरना - तैराना एक विद्या है )
(४) पराक्रमवीर
'सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीर ।
हृदय न हरष बिषाद कछु बोले श्रीरघुबीर ॥'
(५) धर्मवीर
'श्रवन सुजस सुनि आयउँ प्रभु भंजन भवभीर ।
त्राहि त्राहि आरतिहरन सरन सुखद रघुबीर ॥'
ये पाँचों वीरताएँ श्रीरामजीहीमें हैं औरमें नहीं । इस प्रसंग में विभीषणजी एवं हनुमानजी दोनोंने कृपा करनेसे (अर्थात् उनकी दया - वीरतागुणको स्मरण करके) 'रघुबीर' कहा, यथा- 'जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा' और
'मोहू पर रघुबीर कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन।' दयावीर हैं, इसीसे हमारे-से अधमपर कृपा की। 'दरसु हठि दीन्हा, यथा- 'एहि सन हठि करिहौं पहिचानी ।' ये हनुमान्जीके ही वचन हैं । [ 'दरसु हठि दीन्हा, इस पदसे श्रीभगवत्के
अनुग्रहपूर्वक अपने भाग्यकी प्रबलता दरसाते हुए परम भागवत श्रीहनुमान्जीका अनुग्रह दरसाया गया और श्री राम के रघुवीर रुप में पाँच प्रकारकी वीरता को धारण करने वाला बताकर उनकी प्रभुता प्रगट की गई है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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