यह "सादृश्य-मूलक" अलंकार है।
लक्षण:
"एकस्योपमेयोपमानत्वेऽनन्वय:"
आचार्य वामन काव्यालंकारसूत्र
व्याख्या:
अर्थात जब उपमेय की समता के लिए
कोई दूसरा उपमान नहीं मिलता तो
रचनाकार उपमेय की समता के लिए
उपमेय को ही उपमान बना डालता है,
तब अनन्वय अलंकार होता है।
परिभाषा :-
एक ही वस्तु को उपमेय और उपमान
दोनों बना देना 'अनन्वय' अलंकार
कहलाता है।
उदाहरण:-
1. राम सो राम सिया सी सिया।
2. निरुपम न उपमा आन राम
समानु राम, निगम कहे।
3.निरवधि गुन निरुपम पुरुष
3.निरवधि गुन निरुपम पुरुष
भरतु भरत सम जानि।
कहिय सुमेरु कि सेर सम
कबि कुल मति सकुचानि।
इस अलंकार की यही खासियत हैकि
"उपमा कहूँ त्रिभुवन कोउ नाही।"
अर्थात् इस अलंकार में
साहित्यकार को उपमान
मिलता ही नहीं है। अतः
उपमेय को ही उपनाम बना
दिया जाता है।
देेखें लखन-रिपुुुहन का नख-शिख
वर्णन:-
4.उपमा न कोउ कह दास तुलसी
कतहु कबि कोबिद कहै।
बल बिनय बिद्या सील सोभा
सिंधु इनसे एहै अहै।।
।।धन्यवाद।।
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