व्यतिरेक अलंकार:
काव्य में जहाँ उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाता है, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है।दूसरे शब्दों में जहाँ उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो, वहाँ 'व्यतिरेक अलंकार' होता है।व्यतिरेक' का शाब्दिक अर्थ ही 'आधिक्य' (अतिरेक) होता है।
व्यतिरेक में उपमान की तुलना में उपमेय में अधिक गुण बताकर उसकी उपमान से श्रेष्ठता प्रकट की जाती है। उपमेय की उपमान से श्रेष्ठता का आधार उसमें अधिक विशेषताओं का होना होता है।
प्रतीप अलंकार में उपमेय की तुलना पर अधिक जोर होता है। किन्तु व्यतिरेक अलंकार में उपमेय में उपमान से गुणों अथवा विशेषताओं को अधिक बताकर उपमेय को श्रेष्ठ सिद्ध किया जाता है। इसमें तुलना का भाव नहीं होता ।
उदाहरण
(1) सन्त हृदय नवनीत समाना।
कहा कबिन्ह पर कहै न जाना ॥
निज परताप द्रवै नवनीता॥
पर दुःख द्रवहिं सन्त सुपुनीता ॥
उपर्युक्त उदाहरण में सन्त हृदय (उपमेय) तथा नवनीत (उपमान) है। नवनीत की अपेक्षा सन्त हृदय को गुणों की अधिकता के कारण श्रेष्ठ बताया गया है। नवनीत स्वयं के ताप से पिघलता है किन्तु संतों का हृदय दूसरों का दु:ख देखकर द्रवित हो उठता है।
(2)शरद चन्द्र की कोई समता राधा मुख से है न।
दिन मलीनवह घटता बढ़ता, यह विकसित दिन रैन।
शरद का चन्द्रमा (उपमान) प्रकाशमान और सुन्दर होता है। परन्तु उसकी राधा के मुख (उपमेय) से समानता नहीं हो सकती। वह रात में मलिन तथा घटता-बढ़ता है अत: राधा के रात-दिन खिलते मुख से वह हीन है।कुछ अन्य उदाहरण भी देखें--
दिन मलीनवह घटता बढ़ता, यह विकसित दिन रैन।
शरद का चन्द्रमा (उपमान) प्रकाशमान और सुन्दर होता है। परन्तु उसकी राधा के मुख (उपमेय) से समानता नहीं हो सकती। वह रात में मलिन तथा घटता-बढ़ता है अत: राधा के रात-दिन खिलते मुख से वह हीन है।कुछ अन्य उदाहरण भी देखें--
3.कहहि परस्पर बचन सप्रीती।
सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।
सुर नर असुर नाग मुनि माही।
सोभा अस कहु सुनिअति नाही।।
बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी।
बिकट भेष मुख पंच पुरारी।।
अपर देव अस कोउ न आही।
यह छबि सखी पटतरिय जाही।।
4. स्वर्ग की तुलना उचित ही है यहाँ,
किन्तु सुर सरिता कहाँ सरयू कहाँ।
वह मरों को पार उतारती,
यह यहीं से सबको तारती।।
5. जन्म सिंधु पुनि बंधु विष ,दिन मलीन सकलंक|
सिय मुख समता पाव किमि चंद बापुरो रंक।।
6-सियमुख की समता भला क्या करे मयंक।
विष है उसके अंक में और बदन सकलंक।
(यहाँ सिय मुख (उपमेय) को मयंक (उपमान) से श्रेष्ठ बताया गया है।)
विष है उसके अंक में और बदन सकलंक।
(यहाँ सिय मुख (उपमेय) को मयंक (उपमान) से श्रेष्ठ बताया गया है।)
विशेष:-
व्यतिरेक अलंकार में कारण का होना अनिवार्य है।कारणों के आधार पर इसके चार भेद हैं।
1.उपमेय के उत्कर्ष औऱ उपमान के अपकर्ष का कारण निर्देश--
संत हृदय नवनीत समाना।
कहा कबिन्ह पर कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवै नवनीता।
पर दुःख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
2.उपमेय के उत्कर्ष का कारण निर्देश
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा।
सेवत सादर समन कलेसा।।
अकथ अलौकिक तीरथ राऊ।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।।
3.उपमान के अपकर्ष का काऱण निर्देश
गिरा मुखर तनु अरध भवानी।
रति अति दुखित अतनुपति जानी।।
बिष बारुनी बन्धु प्रिय जेही।
कहिय रमा सम किमि बैदेही।।
4.उपमेय के उत्कर्ष और उपमान के अपकर्ष का कारण निर्देश न करना
जौ हठ करहूँ त निपट कुकरमू।
हरगिरि ते गुरु सेवक धरमू।।
।।धन्यवाद।।
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