जिन अलंकारों में क्रिया की समानता का चमत्कारपूर्ण वर्णन होता है, वे क्रिया साम्यमूलक अलंकार कहे जाते हैं. इन्हें पदार्थगत या गम्यौपम्याश्रित अलंकार भी कहा जाता है. इस वर्ग का प्रमुख अलंकार तुल्ययोगिता अलंकार है.
जहाँ प्रस्तुतों और अप्रस्तुतों,उपमेयों या उपमानों में गुण या क्रिया के आधार पर एक धर्मत्व
जहाँ प्रस्तुतों और अप्रस्तुतों,उपमेयों या उपमानों में गुण या क्रिया के आधार पर एक धर्मत्व
संबन्ध का वर्णन हो वहाँ पर तुल्ययोगिता अलंकार होता है.
१. प्रस्तुतों या उपमेयों की एकधर्मता:
साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ ने लिखा है-
पदार्थानां प्रस्तुतानाम् अन्येषां वा यदा भवेत्।
एकधर्माभिसम्बन्ध: स्यात्तदा तुल्ययोगिता।।
तुल्ययोगिता में तुल्यों अथवा समानों का योग किया जाता है। इसमें प्रस्तुतों और अप्रस्तुतों दो असमानों का योग नहीं होता। तुलयोगिता और दीपक में यही अन्तर है कि दीपक में प्रस्तुतों/उपमेयों और अप्रस्तुतों/उपमानों अर्थात दो असमानों का योग किया जाता है। तात्पर्य यह है कि इस अलंकार में
एकधर्माभिसम्बन्ध: स्यात्तदा तुल्ययोगिता।।
तुल्ययोगिता में तुल्यों अथवा समानों का योग किया जाता है। इसमें प्रस्तुतों और अप्रस्तुतों दो असमानों का योग नहीं होता। तुलयोगिता और दीपक में यही अन्तर है कि दीपक में प्रस्तुतों/उपमेयों और अप्रस्तुतों/उपमानों अर्थात दो असमानों का योग किया जाता है। तात्पर्य यह है कि इस अलंकार में
अनेक उपमेय या उपमानों का एक धर्माभिसम्बन्ध वर्णित किया जाता है। अर्थात क्रिया,गुण आदि का सम्बंध होता है।
एक उदाहरण:-
सब कर संसय अरु अग्यानू।मंद महीपन्ह कर
अभिमानू।
भृगुपति केरि गरब गरुआई।सुर मुनि बरन्ह केरि कदराई
सिय कर सोचु जनक पछ्तावा।रानिन्ह कर दारुन
दुःख दावा।।
संभु चाप बढ़ बोहित पाई।चढ़े जाइ सब संग बनाई।।
उक्त सभी की एक क्रिया है चढ़े जाइ।अतः यहाँ तुलयोगिता अलंकार है।
यह कई रूपों में देखा जाता है. जिनमेें ये चार प्रमुख हैं.
१. प्रस्तुतों या उपमेयों की एकधर्मता:
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू।
सब कहु परइ दुसह दुःख भारू।।
२. अप्रस्तुतों या उपमानों में एकधर्मता:
२. अप्रस्तुतों या उपमानों में एकधर्मता:
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भये अनुकूल
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल।।
३. जहाँ गुणों की उत्कृष्टा में प्रस्तुत की एकधर्मिता स्थापित हो:
जप तप मख सम दम ब्रत दाना।
बिरति बिबेक जोग बिग्याना।।
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा।
तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा।।
४. जहाँ हितू और अहितू दोनों के साथ व्यवहार में एकधर्मता का वर्णन हो:
बंदौ संत समान चित हित अनहित नहि कोउ।
अंजलिगत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोउ।।
।।धन्यवाद।।
।।धन्यवाद।।
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