यह सादृश्य मूलक अर्थालंकार है।
इस अलंकार में उपमेय-उपमान में समानता दिखाते-दिखाते ऐसी स्थिति बना दी जाती है कि उपमेय से ध्यान हट जाता है उपमान बच जाता है।दूसरे शब्दों में जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय कि सीमा या मर्यादा का उल्लंघन हो जाय, वहाँ 'अतिशयोक्ति अलंकार' होता है।
जैसे-
बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से। मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से। यहाँ मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग का कवि ने वर्णन किया है।
विधु या चन्द्र-से मुख का, काली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।
(a) हनुमान की पूँछ में, लग न पायी आग।
विधु या चन्द्र-से मुख का, काली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।
(a) हनुमान की पूँछ में, लग न पायी आग।
लंका सगरी जल गई, गए निशाचर भाग।
(b) देख लो साकेत नगरी है यही।
(b) देख लो साकेत नगरी है यही।
स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही।
अतिशयोक्ति अलंकार के भेद
(i) रूपकातिशयोक्ति, (ii) सम्बन्धातिशयोक्ति,(iii)
असम्बन्धातिशयोक्ति, (iv) भेदकातिशयोक्ति (v) चपलातिशयोक्ति(vi)अक्रमातिशयोक्ति(vii)अत्यन्तातिशयोक्ति
1.रूपकातिशयोक्ति
भेद में अभेद दिखलाने वाली।
जहाँ पर उपमेय को अलग न कहकर केवल उपमान का ही वर्णन किया जाए, अर्थात उपमेय को उपमान में पूर्ण रुप से विलीन कर दिया जाए वहाँ पर रूपकातिशयोक्ति अलंकार होता है।
जैसे:-
' कनकलता पर चन्द्रमा, धरे धनुष द्वै बाण।'
यहाँ पर कवि नायिका का वर्णन कर रहा है ! उसने उसके सुंदर अंगों-- शरीर, मुख, भौह, कटाक्ष आदि का वर्णन न करके उपमानों कनकलता, चंद्रमा, धनुष, बाण आदि का वर्णन किया है अतएव यहाँ पर इन उपमानों के द्वारा उपमेय का ज्ञान होने के कारण रूपकातिशयोक्ति है।
राम सीय सिर सिन्दूर देही।
सोभा कहि न जात बिधि केही।।
अरुन पराग जलजु भरि नीके।
ससिहि भूष अहि लोभ अमी के।।
अरुन पराग=सिन्दूर, जलजु=राम का हाथ, ससि= सीता का मुख अमी=सीता का सौन्दर्य
यहाँ इन उपमानों के द्वारा उपमेयों का ज्ञान हो रहा है अतः रूपकातिश्योक्ति अलंकार है।
2.संबंधातिशयोक्ति
असम्बन्ध में सम्बंध
जहाँ पर असंबंध में संबंध की कल्पना की जाती है वहाँ पर संबंधातिशयोक्ति होती है जैसे ------
फबि फहरै अति उच्च निसाना |
जिन महँ अटकट विवुध विमान ||
वास्तव में विमानों द्वारा निसानों में उक्त संबंध संभव नहीं है, परंतु यहाँ पर निसानों की ऊंचाई दिखाने के लिए यह संबंध दिखाया गया है !
जो संपदा नीच गृह सोहा।
सो बिलोकि सुरनायक मोहा।।
3.असंबंधातिशयोक्ति
सम्बन्ध रहने पर भी जहाँ असम्बन्ध कथन किया जाय।
जहाँ पर संबंध में असंबंध की कल्पना की जाए वहाँ पर असंबंधातिशयोक्ति अलंकार होता है जैसे -----
महिपत्रि कर सिंधु मसि, तरु लेखनी बनाई |
तुलसी गनपति सों तदपि, महिमा लिखी न जाय ||
उक्त दोहे में संतों की महिमा का वर्णन किया गया है।यद्यपि अनंत लेखन शक्ति वाले गणेश जी इसे लिख सकते हैं फिर भी यहाँ पर उन्हें इसके अयोग्य बताया गया है ।
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी।
कहत साधु महिमा सकुचानी।।
4.भेदकातिशयोक्ति
अभेद रहने पर भी भेद कथन
जहाँ पर उपमेय में उपमान से कोई भेद ना होते हुए भी कुछ भेद दिखाया जाए वहाँ भेदकातिशयोक्ति अलंकार होता है।
यह भेद और, अन्य न्यारा, अनोखा आदि शब्दों द्वारा दिखाया जाता है।
इस प्रकार रूपकातिशयोक्ति में भेद में अर्थ होता है, परन्तु भेदकातिशयोक्ति में अभेद में भेद दिखाया जाता है जैसे ------
औरै हँसनि बिलोकि वह, औरै बचन उदार |
तुलसी आमबधून के , देखे रह न संभार ||
यहाँ पर औरै शब्द के द्वारा साधारण हँसने तथा देखने में भेद दिखाया गया है ।
बिहारी का निम्न दोहा इसका सुंदर उदाहरण है ----
अनियारे दीरघ दृगनि , किती न तरुनि समान ।
वह चितवनि औरै कछु, जिहि बस होत सुजान ।।
यहाँ पर औरै पद के द्वारा उपमान को उपमेय से भिन्न बताया गया है । उस दृष्टि को लौकिक दृष्टि से अलग बताया गया है।
सुनहु सखा कह कृपा निधाना।
जेहि जय होइ सो स्यंदन आना।।
5.चपलातिशयोक्ति
कारण के ज्ञान मात्र से कार्य का होना
जहाँ कारण के ज्ञान मात्र से कार्य का होना कहा गया है वहाँ पर चपलातिशयोक्ति अलंकार होता है। जैसे -------
उन हरकी हँसि कै इतै, उन सौंपी मुस्काय ।
नैन मिलत मन मिलि गयो, दोऊ मिलवत गाय ।।
यहाँ पर राधा कृष्ण के मन के मिलने के कारण का नेत्र, ज्ञान मात्र ही कराते हैं अतएव यहाँ पर चपलातिशयोक्ति अलंकार है।
तब सिव तीसर नयन उघारा।
चितवत काम भयउ जरि छारा।।
6. अक्रमातिश्योक्ति
कारण-कार्य जहाँ एक साथ वर्णित होते हैं।
सामान्यतः कारण पहले और कुछ समय बाद कार्य संपन्न होता है।लेकिन जहाँ कारण के साथ ही कार्य सम्पन्न हो जाता है वहाँ अक्रमातिश्योक्ति अलंकार होता है। जैसे----
1-बिनु फर बान राम तेहि मारा।
सत जोजन गा सागर पारा।
2-संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
7. अत्यंतातिशयोक्ति
जहाँ कार्य पहले हो कारण बाद में
जहाँ कारण से पहली कार्य होने का कथन किया जाए वहाँ पर अत्यंतातिशयोक्ति अलंकार होता है ।जैसे ----
हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आग ।
लंका सारी जरी गई गए निशाचर भाग ।।
यहाँ पर लंका का जलना तथा राक्षसों का भागना कार्य है तथा हनुमान की पूंछ में लगी हुई आग कारण। यहाँ पर करण की उत्पत्ति से पहले ही कार्य का होना दिखा दिया गया है अतएव अत्यंतातिशयोक्ति अलंकार है !
राजन राउर नामु जस सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार।।
।।। धन्यवाद ।।।
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