रविवार, 30 जून 2024

मानस चर्चा "गुर के बचन प्रतीति न जेही"

मानस चर्चा "गुर के बचन प्रतीति न जेही"
प्रसंग है,--
नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसौ भवन ऊजरौ नहिं डरऊँ 
गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥ 
अर्थात् –इसी प्रकार मैं पार्वती नारदजीका उपदेश न छोडूंगी। घर बसे या उजड़े, मुझे इसका डर नहीं है।
जिसको गुरुके वचनोंमें विश्वास नहीं है, उसे स्वप्नमें भी सुख और सिद्धि वा, सुखकी सिद्धि सुलभ नहीं
हो सकती ॥ 
सप्तर्षियोंने नारदजीको बुरा-भला कहा । यह पार्वतीजीको बहुत बुरा लगा। इसीसे प्रारम्भमें ही वे उनको बताये देती हैं कि देवर्षि नारद हमारे गुरु हैं, उनके वचन हमारे लिये पत्थरकी लकीरके समान हैं, टाले नहीं टल सकते। 'नारद बचन न मैं परिहरऊँ' कहकर फिर उसका कारण बताती हैं कि 'गुर के बचन प्रतीति न जेही ।  'नारद' शब्द ही गुरुत्वका द्योतक है; क्योंकि
'गुशब्दस्त्वन्धकारस्तु रुशब्दस्तन्निरोधकः ।अन्धकारनिरोधित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते ॥'
के अनुसार हृदयके अन्धकारके नाश करने वाले को 'गुरु' कहते हैं । हृदयका अन्धकार अज्ञान है। अज्ञानका नाश आत्म-परमात्म-ज्ञानसे ही होता है और आत्म-परमात्म-ज्ञान जिनके द्वारा हो, वे ही 'गुरु'
हैं। अत: 'गुर बिनु होइ कि ज्ञान' के अनुसार ज्ञानदाता 'गुरु' कहे जाते हैं और 'नारं ज्ञानं ददातीति नारदः' अर्थात्
'नार' ज्ञान जो दे उसका नाम 'नारद' है। इस व्युत्पत्तिसे नारद और गुरु शब्द एकार्थवाची होनेसे नारदजीको
'गुरु' कहा और 'गुरोराज्ञा गरीयसी' तथा 'आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया'  भी रघुवंश में कहा गया है, के
अनुसार 'नारद बचन न मैं परिहरऊँ। और  गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥ कहा
श्रीगुरुवाक्यपर शिष्यका ऐसा ही दृढ़ विश्वास रहना चाहिये। विश्वासका धर्म दृढ़ता है, यथा 'बटु बिश्वास
अचल निज धर्मा।' वह अवश्य फलीभूत होगा इसमें सन्देह नहीं । शिष्यमें आचार्याभिमान होना परम गुण है,
इष्टप्राप्तिका सर्वोपरि उपाय है और परम लाभ है।  'सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ' । भाव कि मनुष्योंकी कौन कहे, देवताओंको भी स्वप्नमें भी सुख और सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। देवराज इन्द्र और चन्द्रमा - ये लोकपाल भी गुरुकी अवज्ञा करनेसे दुःखी ही हुए ।
शिवपुराणमें गुरुवचनपर चार श्लोक हैं। उनके अनुसार भी गुरु के वचनों पर  जिनको प्रतीति नहीं है उनको दुःख ही दुःख होता है और जिनको प्रतीति है उन्हें सुख
होता है। यथा-
'गुरूणां वचनं पथ्यमिति वेदविदो विदुः ।
गुरूणां वचनं सत्यमिति यद्धृदये न धीः ।
इहामुत्रापि तेषां हि दुःखं न च सुखं क्वचित् ॥
गुरूणां वचनं सत्यमिति येषां दृढा मतिः ।
तेषामिहामुत्र सुखं परमं नासुखं क्वचित् ॥
सर्वथा न परित्याज्यं गुरूणां वचनं द्विजाः । 
गृहं वसेद्वाशून्यं स्यान्मे हठस्सुखदस्सदा ॥' (
नारदजीसे पार्वतीजीने तप करनेका उपदेश होनेपर उनसे पंचाक्षरी - मन्त्र भी लेकर उनको गुरु किया
था। यथा—‘रुद्रस्याराधनार्थाय मन्त्रं देहि मुने हि मे । न सिद्ध्यति क्रिया कापि सर्वेषां सद्गुरुं विना । इति श्रुत्वा
वचस्तस्याः पार्वत्या मुनिसत्तमः । पंचाक्षरं शम्भुमन्त्रं विधिपूर्वमुपादिशः । यह शिवपुराण  कहता है।
अर्थात् जब पार्वतीजीने कहा कि बिना सद्गुरुके सिद्धि नहीं होती; अतः आप मुझे शिवाराधनका मन्त्र दें, तब
नारदजीने उनको पंचाक्षरी मन्त्र दिया, उसका प्रभाव बताया, ध्यान बताया।इस तरह वे विधिपूर्वक गुरु हुए थे। और जो भी हमारा गुरू हैं उसके प्रति शिष्यों  के मन में सदा ही यह भाव होना ही चाहिए कि 
गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥ 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

गुरुवार, 27 जून 2024

मानस चर्चा "कनककसिपु की कथा "

मानस चर्चा "कनककसिपु की कथा " प्रसंग मानस की यह चौपाई 
दक्षसुतन्ह उपदेसिन्ह जाई ।
तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन्ह घाला ।
कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥ 
पूर्व की चर्चाओं में हमने चित्रकेतु आदि पर चर्चा की है आज अब हम चर्चा करते  हैं कनककसिपु अर्थात् हिरण्यकश्यपु ,हिरण्य यानि  सोना और कनक यानी सोना बड़ी रोचकता से गोस्वामीजी ने हिरण्य की जगह कनक  का प्रयोग किया है। यहां  ' हिरण्यकश्यपु की कथा' यह है कि- हिरण्यकश्यपु की पत्नी  कयाधु प्रह्लादजीकी माताको  नारदजी ने उपदेश दिया जिससे पिता-पुत्रमें विरोध हुआ ।पिता मारा गया । दैत्य बालकोंके पूछनेपर प्रह्लादजीने स्वयं यह वृत्तान्त यों कहा है।  अपने भाई हिरण्याक्षके मारे जानेपर जब मेरे पिता हिरण्यकशिपु मन्दराचलपर तप करनेके लिये गये तब अवसर पाकर देवताओंने दैत्योंपर चढ़ायी की। दैत्य समाचार पा जान बचाकर भागे, स्त्री- पुत्रादि सबको छोड़ गये। मेरे पिताका घर नष्ट कर डाला गया और मेरी माताको पकड़कर इन्द्र स्वर्गको चले । मार्गमें नारदमुनि विचरते हुए मिल गये और बोले कि 'इस निरपराधिनी स्त्रीको पकड़ ले जाना योग्य नहीं, इसे छोड़ दो।' इन्द्र ने कहा कि इसके गर्भमें दैत्यराजका वीर्य है । पुत्र होनेपर उसे मारकर इसे छोड़ दूँगा । तब नारदजी बोले कि यह गर्भ स्थित बालक परम भागवत है। तुम इसको नहीं मार सकते । इन्द्रने नारदवचनपर विश्वास करके मेरी माँकी परिक्रमा करकेउसे छोड़ दिया। नारदजी उसे अपने आश्रममें ले गये । वह गर्भके मंगलकी कामनासे नारदमुनिकी भक्तिपूर्वक सेवा करती रही । दयालु ऋषिने मेरे उद्देश्यसे मेरी माताको धर्मके तत्त्व और विज्ञानका उपदेश किया। ऋषि-अनुग्रहसे वह उपदेश मैं अबतक नहीं भूला ।आगे हिरण्यकश्यपु की कथा संसार जानता ही है कि किस प्रकार हिरण्यकश्यपु नृसिंह भगवान्‌ के दर्शनसे कृतार्थ हुआ।' 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा" चित्रकेतु कथा"

मानस चर्चा" चित्रकेतु कथा" प्रसंग मानस की यह चौपाई 
दक्षसुतन्ह उपदेसिन्ह जाई ।
तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन्ह घाला ।
कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥ 
अर्थात् उन्होंने नारदजीने जाकर दक्षके पुत्रोंको उपदेश दिया ( जिससे) उन्होंने दक्ष के पुत्रों ने फिर लौटकर ( घरका मुँह भी) न देखा ॥ चित्रकेतुका घर उन्होंने ही चौपट किया। फिर कनककसिपु (हिरण्यकशिपुकी) भी ऐसी ही दशा की ॥ आखिर यहां चित्रकेतु कौन है उनका घर नारद जी ने कैसे चौपट किया आइए इस पर आज हम चर्चा करते हैं। नारद जी के बारे में इस संदर्भ में इन श्लोकों को देखते हैं।श्लोक ये हैं – 
नारदस्तत्र वै ययौ ॥ 
कूटोपदेशमाश्राव्य तत्र तान्नारदो मुनिः।
तदाज्ञया सर्वे पितुर्न गृहमाययुः ॥ 
ददौ तदुपदेशं ते तेभ्यो भ्रातृपथं ययुः ।
आययुर्न पितुर्गेहं भिक्षुवृत्तिरताश्च
विद्याधरश्चित्रकेतुर्यो बभूव पुराकरोत्।
स्वोपदेशमयं दत्त्वा तस्मै शून्यं च तद्गृहम्॥ 
प्रह्लादाय स्वोपदेशान्हिरण्यकशिपोः परम् । 
दत्त्वा दुःखं ददौ चायं परबुद्धिप्रभेदकः ॥ ' 
अर्थात् दक्षके सुतोंको दो बार ऐसा कूट उपदेश दिया कि फिर वे घर न गये, भिक्षावृत्ति-मार्ग ग्रहण कर लिया। उनके पास स्वयं जाकर उपदेश दिया। विद्याधर चित्रकेतुको वैराग्यका उपदेश देकर उसका घर सूना कर दिया । प्रह्लादको उपदेश देकर हिरण्यकशिपुद्वारा उसे बहुत दुःख पहुँचवाया । अतः वे दूसरोंकी बुद्धिके भेदक हैं।इनकी इसी बल से  चित्रकेतु भी भगवान्‌को प्राप्त हुआ ।
चित्रकेतुका अज्ञान और देहाभिमान इन्होंने मिटाया, हिरण्यकश्यपु नृसिंह भगवान्‌ के दर्शनसे कृतार्थ हुआ।' 
अब हम जानते हैं चित्रकेतु की कथा
'चित्रकेतुकी कथा' यह है कि- शूरसेन देशमें चित्रकेतु सार्वभौम राजा था । इसके एक करोड़ रानियाँ थीं-
परंतु न तो कोई पुत्र ही था और न कन्या ही ।
एक दिन श्रीअंगिरा ऋषिजी विचरते हुए राजाके यहाँ आ पहुँचे । राजाने प्रत्युत्थान, पाद्य, अर्घ्यद्वारा पूजनकर
उनका आतिथ्य सत्कार किया । राजासे कुशल प्रश्न करते हुए ऋषिजीने कहा- 'राजन् ! तुम्हारा आत्मा कुछ
असंतुष्ट - सा देख पड़ता है। किसी इष्ट पदार्थकी अप्राप्तिसे दुःखित हो ? तुम चिन्तित - से जान पड़ते हो, क्याकारण है?' राजाने अपना दुखड़ा सुनाया कि 'बिना एक पुत्रके मैं पूर्वजोंसहित नरकमें पड़ रहा हूँ, कृपा करके
वह उपाय कीजिये जिससे पुत्र पाकर दुष्पार नरकसे उत्तीर्ण हो सकूँ।' मुनिने त्वाष्ट्र चरु तैयार कर उससे त्वष्टा
देवताका पूजन कराया और राजाकी ज्येष्ठ और श्रेष्ठ पटरानी कृतद्युतिको उस यज्ञका अवशिष्ट अन्न देकर
कहा 'इसे खा लो' । फिर राजासे कहा कि इससे एक पुत्र होगा, परंतु उससे तुमको हर्ष और शोक दोनों होंगे।
ऋषि यह कहकर चले गये । पुत्र उत्पन्न होनेपर राजाने बहुत दान दिये । पुत्रवती होनेके कारण राजाकी प्रीति
इस - रानीसे बढ़ती गयी जिससे और रानियोंके हृदयमें डाह होने लगा । वे सोचतीं कि हम दासियोंसे भी गयीं
गुजरीं, हमसे अधिक मंदभागिनी कौन होगी। वे सवतका सौभाग्य न देख सकती थी - न सह सकती थीं।
एक बार पुत्र सो रहा था, माता किसी कार्यमें लगी थी। सवतोंने अवसर पाकर बच्चेके ओठोंपर विषका फाया फेर दिया, जिससे उसके नेत्रोंकी पुतलियाँ ऊपर चढ़ गयीं और वह मर गया। इसकी माँको सवतोंके द्वेषका पता भी न था। बहुत देर होनेपर माताने धायसे राजकुमारको जगा लानेको आज्ञा दी, धायने जाकर देखा तो चीख मारकर मूर्छित हो गिर पड़ी। रानी यह देख दौड़ी, कोलाहल मच गया। रानी - राजा दोनोंका शोक उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया,
महाशोकसे विलाप प्रलाप करते हुए वे मोहके कारण मूर्छित हो गये ।ठीक इसी अवसरपर श्रीअंगिराऋषि और नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महर्षि अंगिरा और नारदजी राजाको यों समझाने लगे कि - हे राजाओंमें श्रेष्ठ ! सोचो तो कि जिसके लिये तुम शोकातुर हो वह तुम्हारा कौन है
और पूर्वजन्ममें तुम इसके कौन थे और आगे इसके कौन होगे ? जैसे जलके प्रवाहके वेगसे बालू (रेत) बह-
बहकर दूर-दूर पहुँचकर कहाँ से कहाँ जा इकट्ठा हो जाती है, इसी प्रकार कालके प्रबल चक्रद्वारा देहधारियोंका
वियोग और संयोग हुआ करता है। जैसे बीजमें कभी बीजान्तर होता है और कभी नहीं, वैसे ही मायासे पुत्रादि
प्राणी पिता आदि प्राणियोंसे कभी संयोगको प्राप्त होते हैं और कभी वियोगको । अतएव पिता-पुत्र कल्पनामात्र
हैं। वृथा शोक क्यों करते हो? हम, तुम और जगन्मात्रके प्राणी जैसे जन्मके पूर्व न थे और मृत्युके पश्चात्
न रहेंगे, वैसे ही इस समय भी नहीं हैं  । राजाको ज्ञान हुआ, इस प्रकार कुछ सान्त्वना मिलनेपर राजाने हाथसे आँसू पोंछकर ऋषियोंसे कहा – 'आप दोनों अवधूत-वेश बनाये हुए कौन हैं? आप ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं जो हम सरीखे पागलोंको उपदेश देनेके लिये जगत् में विचरते रहते हैं। आप दोनों मेरी रक्षा करें। मैं घोर अन्धकारकूपमें डूबा पड़ा हूँ। मुझे ज्ञान - दीपकका प्रकाश दीजिये ।' अंगिरा ऋषिने दोनोंका परिचय दिया और कहा कि - 'तुम भगवान् के भक्त और ब्रह्मण्य हो, तुमको इस प्रकार शोकमें मग्न होना उचित नहीं । तुमपर अनुग्रह करनेहीको हम दोनों आये हैं। पूर्व जब मैं आया था तब तुमको अन्य विषयोंमें मग्न देख ज्ञानका उपदेश न दे पुत्र ही दिया, अब तुमने पुत्र पाकर स्वयं अनुभव कर लिया कि गृहस्थको कैसा संताप होता
है। स्त्री, घर, धन और सभी ऐश्वर्य सम्पत्तियाँ यों ही शोक, भय, सन्तापको देनेवाली नश्वर और मिथ्या हैं।
ये सब पदार्थ मनके विकारमात्र हैं, क्षणमें प्रकट और क्षणमें लुप्त होते हैं। इनमें सत्यताका विश्वास त्यागकर
शान्ति धारण करो ।' देवर्षि नारदजीने राजाको मन्त्रोपनिषद् - उपदेश किया और कहा कि इसके सात दिन धारण करनेसे संकर्षण- भगवान्‌के दर्शन होंगे। फिर सबके देखते नारद मुनि मरे हुए राजकुमारके जीवात्मासे बोले- 'हे जीवात्मा ! अपने पिता, माता, सुहृद्, बान्धवोंको देख । वे कैसे संतप्त हैं। अपने शरीरमें प्रवेशकर इनका
संताप दूर कर । पिताके दिये हुए भोगोंको भोगो और राज्यसिंहासनपर बैठो।' लड़का जी उठा और बोला कि -
'मैं अपने कर्मानुसार अनेक योनियोंमें भ्रमता रहा हूँ। किस जन्ममें ये मेरे पिता-माता हुए थे ? क्रमश: सभी
आपसमें एक-दूसरेके भाई, पिता, माता, शत्रु, मित्र, नाशक, रक्षक इत्यादि होते रहते हैं। ये लोग हमें पुत्र मानकर शोक करनेके बदले शत्रु समझकर प्रसन्न क्यों नहीं होते ? जैसे सोना, चाँदी आदिके व्यापारियोंके पास सोना- चाँदी आदि वस्तुएँ आती-जाती रहती हैं, वैसे ही जीव भी अनेक योनियोंमें भ्रमता रहता है। जितने दिन जिसके साथ जिसका सम्बन्ध रहता है उतने दिन उसपर उसकी ममता रहती है। आत्मा नित्य, अव्यय, सूक्ष्म, स्वयंप्रकाशित है। कोई उसका मित्र वा शत्रु नहीं।" 
वह जीव फिर बोला कि मैं पांचाल देशका राजा था, विरक्त होनेपर मैं एक ग्राममें गया। इस मेरी माताने भोजन
बनाने के लिये मुझे कण्डा / सुखी लकड़ी दिया, जिसमें अनेकों चीटियाँ थीं, ध्यान दिए बिना मैंने आग लगा दी। वे सब चीटियाँ मर गयीं। मैंने शालग्रामदेवका भोग
लगाकर प्रसाद पाया। वही चीटियाँ मेरी सौतेली माताएँ हुईं। प्रभुको अर्पण होनेसे एक ही जन्ममें सबने मुझसे
बदला ले लिया, नहीं तो अनेक जन्म लेने पड़ते- 
'प्रभु राखेउ श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस ।' 
अब इस देहसे मेरा सम्बन्ध नहीं।
यह सब माया कर परिवारा। 
प्रबल अमिति को बरनै पारा॥
सुत बित लोक ईषना तीनी। 
केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥
इतना कह जीव शरीरसे निकल गया। राजाको ज्ञान
प्राप्त हुआ। उसने राज्य छोड़ दिया । नारदमुनिने संकर्षणभगवान्‌का मन्त्र दिया, स्तुतिमयी विद्या बतायी। सात दिन जप करनेपर शेषभगवान्‌का दर्शन हुआ। आपको एक विमान मिला, जिसपर चढ़कर आप आकाशमार्गपर घूमते थे। पार्वतीजीके शापसे आप वृत्रासुर हुए। वृत्रासुर के बारे में प्रसंगवश आगे चर्चा होगी।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

बुधवार, 26 जून 2024

मानस चर्चा "मातु पिता गुर प्रभु कै बानी"

मानस चर्चा "मातु पिता गुर प्रभु कै बानी"
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी।
बिनहि बिचार करिअ सुभ जानी ॥ 
अर्थात् माता, पिता, गुरु और स्वामीकी बात बिना ही विचारे शुभ जानकर करनी  मान लेनी चाहिये ॥ 
'मातु पिता ' बचपनमें माताकी आज्ञा, कुछ बड़े होनेपर घरसे बाहर निकलनेपर पिताकी आज्ञा, पाँच वर्ष बाद गुरुसे पढ़नेपर गुरुकी आज्ञा और पढ़-लिखकर
लोक-परलोक दोनोंमें सुख के लिये जीवनपर्यन्त प्रभु अर्थात् अपने स्वामी  मालिक की आज्ञा माननेसे प्राणीका भला होता है । महाभारत शान्तिपर्वमें भीष्मपितामहजीने युधिष्ठिरजीसे कहा है कि दस श्रोत्रियोंसे बढ़कर आचार्य हैं। दस आचार्योंसे बड़ा उपाध्याय विद्यागुरु है। दस उपाध्यायोंसे अधिक महत्त्व रखता है पिता और दस पिताओंसे अधिक गौरव है माताका । परंतु मेरा विश्वास है कि गुरुका दर्जा माता- पितासे भी बढ़कर है। माता-पिता
तो केवल इस शरीरको जन्म देते हैं, किंतु आत्मतत्त्वका उपदेश देनेवाले आचार्यद्वारा जो जन्म होता है वह दिव्य है, अजर-अमर है। मनुष्य जिस कर्मसे पिताको प्रसन्न करता है, उसके द्वारा ब्रह्मा भी प्रसन्न होते हैं तथा जिस बर्तावसे वह माताको प्रसन्न कर लेता है उसके द्वारा परब्रह्म परमात्माकी पूजा सम्पन्न होती है।  । गुरुओंकी पूजासे देवता, ऋषि और पितरों की भी प्रसन्नता होती है, इसलिये गुरु परम पूजनीय है।इसलिये गुरु माता - पितासे भी बढ़कर पूज्य है। माता, पिता और गुरु कभी भी अपमानके योग्य नहीं। उनके किसी भी कार्यकी निन्दा नहीं करनी चाहिये।' पुनः माता, पिता और गुरु सदा अपने पुत्र या शिष्यका कल्याण ही चाहेंगे, वे कभी बुरा न चाहेंगे। अतः 'बिनहि बिचार करिअ सुभ जानी' कहा।
'बिनहि बिचार करिअ ' भाव यह है  कि विचारका खयाल मनमें आनेसे भारी पाप लगता है; जैसा कि 
'उचित कि अनुचित किये बिचारू ।
धरमु जाइ सिर पातक भारू ॥ '  
'सुभ जानी' का भाव यह है कि अनुचित भी यदि हो तो भी आज्ञा पालन करनेवालेका मंगल ही होगा, उसे कोई
दोष नहीं देगा। अतः उसे मंगलकारक जानकर करना चाहिये। हमारे ग्रंथों में अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं आप ऋषि धौम्य और उनके शिष्य आरुणि,उपमन्यु, वेद आदि की   कथाओं को से हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। चलिए हम उपमन्यु की कथा सुना ही देते है।बाकी पुनः।
उपमन्यु महर्षि आयोद धौम्य के शिष्यों में से एक थे। इनके गुरु धौम्य ने उपमन्यु को अपनी गाएं चराने का काम दे रखा थ। उपमन्यु दिनभर वन में गाएं चराते और सायँकाल आश्रम में लौट आया करते थे।
एक दिन गुरुदेव ने पूछा- "बेटा उपमन्यु! तुम आजकल भोजन क्या करते हो?" उपमन्यु ने नम्रता से कहा- "भगवान! मैं भिक्षा माँगकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "वत्स! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दें तो उसे ग्रहण करना चाहिए।" उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य कि श्रद्धा को दृढ़ करना था, अत: वे भिक्षा का सभी अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों बाद जब गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम आजकल क्या खाते हो?" तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपनी भिक्षा माँग लाता हूँ।" महर्षि ने कहा- "दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्म के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगने वालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।"
उपमन्यु ने कहा- "जो आज्ञा।" उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बंद कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा, तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं गायों का दूध पी लेता हूँ।" महर्षि बोले- "यह तो ठीक नहीं।" गाएं जिसकी होती हैं, उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिए।" उपमन्यु ने दूध पीना भी छोडं दिया। थोड़े दिन बीतने पर गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लाते और गायों का दूध भी नहीं पीते तो खाते क्या हो? तुम्हारा शरीर तो उपवास करने वाले जैसा दुर्बल नहीं दिखाई पड़ता।" उपमन्यु ने कहा- "भगवान! मैं बछड़ों के मुख से जो फैन गिरता है, उसे पीकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "बछ्ड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकर तुम्हारे लिए अधिक फैन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृत्ति भी उचित नहीं है।" अब उपमन्यु उपवास करने लगे। दिनभर बिना कुछ खाए गायों को चराते हुए उन्हें वन में भटकना पड़ता था। अंत में जब भूख असह्य हो गई, तब उन्होंने आक के पत्ते खा लिए। उन विषैले पत्तों का विष शरीर में फैलने से वे अंधे हो गए। उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। गायों की पदचाप सुनकर ही वे उनके पीछे चल रहे थे। मार्ग में एक सूखा कुआँ था, जिसमें उपमन्यु गिर पड़े।
गुरूजी उसके साथ निर्दयता के कारण ऐसा बर्ताव नही करते थे वह तो उसे पक्का बनाना चाहते थे | कछुआ रहता तो जल में है किन्तु अन्डो को सेता रहता है इसी से अंडे वृधि को प्राप्त होते है | इसी प्रकार उपर से तो गुरूजी ऐसा बर्ताव करते थे भीतर से सदा उन्हें उपमन्यु की चिंता लगी रहती थी |
जब अंधेरा होने पर सब गाएं लौट आईं और उपमन्यु नहीं लौटे, तब महर्षि को चिंता हुई। वे सोचने लगे- "मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार से बंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दु:खी होकर वह भाग तो नहीं गया।" उसे वे जंगल में ढूँढ़ने निकले और बार-बार पुकारने लगे- "बेटा उपमन्यु! तुम कहाँ हो?"
उपमन्यु ने कुएँ में से उत्तर दिया- "भगवान! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।" महर्षि समीप आए और सब बातें सुनकर ऋग्वेद के मंत्रों से उन्होंने अश्विनीकुमारों की स्तुति करने की आज्ञा दी। स्वर के साथ श्रद्धापूर्वक जब उपमन्यु ने स्तुति की, तब देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार वहाँ कुएँ में प्रकट हो गए। उन्होंने उपमन्यु के नेत्र अच्छे करके उसे एक पदार्थ देकर खाने को कहा। किन्तु उपमन्यु ने गुरुदेव को अर्पित किए बिना वह पदार्थ खाना स्वीकार नहीं किया। अश्विनीकुमारों ने कहा- "तुम संकोच मत करो। तुम्हारे गुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किए बिना पहले हमारा दिया पदार्थ प्रसाद मानकर खा लिया था।" उपमन्यु ने कहा- "वे मेरे गुरु हैं, उन्होंने कुछ भी किया हो, पर मैं उनकी आज्ञा नहीं टालूँगा।" इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उन्हें समस्त विद्याएँ बिना पढ़े आ जाने का आशीर्वाद दिया। जब उपमन्यु कुएँ से बाहर निकले, महर्षि आयोद धौम्य ने अपने प्रिय शिष्य को हृदय से लगा लिया।
चूंकि हम रामचरितमानस  की ही चर्चा करते हैं इसलिए हम मानस से भी इसकी पुष्टि कर ले और  इनके महत्त्व को  भी  देख ले गोस्वामीजी ने लिखा है---
'गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें ।
चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ॥' 
और भी देखें 
'परसुराम पितु अग्या राखी' ।
मारी मातु लोक सब साखी॥
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ।
पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥
अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥
'तुम्ह सब भाँति परम हितकारी।
अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी।।
अर्थात्
माता-पिता आदि सब आप ही हैं, आपने सब प्रकार हमारा हित किया और कर रहे हैं; जैसा  कि - 
'राममातु पिता सुतु बंधु औ संगी सखा गुरु स्वामि सनेही । रामकी सौहँ भरोसो है राम को राम-रंगी-रुचि राचौं
न केही । ' और तो और हम हमेशा गाते  ही है
'त्वमेव माता च पिता त्वमेव 
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥'—
आप ने सब भाँति हमारा परम हित किया है जैसे कि - भस्मासुरसे रक्षा की, कालकूटको अमृत कर दिया;
स्पष्ट कहा  गया है
'नाम प्रभाउ जान सिव नीको। 
कालकूट फल दीन्ह अमी को।'
इस चौपाई में पुत्र, शिष्य और सेवकके धर्म उपदेश किये गये हैं। बालकोंको श्रीशंकरजीकी शिक्षापर ध्यान देना चाहिये ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "प्रीति की रीति"

मानस चर्चा "प्रीति की रीति"
जल पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि ।
बिलग होइ' रसु जाइ कपटु खटाई परत पुनि ॥ 
अर्थात्  प्रीतिकी सुन्दर रीति देखिये जल दूधमें मिलनेसे दूधके समान  अर्थात् दूधके भाव बिकता है। परंतु फिर कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है अर्थात् फट जाता है और स्वाद जाता रहता है ॥ यह पूरी की पूरी बात हम सभी मनुष्यों के लिए कही गई है,पर प्यार भरे उदाहरण द्वारा।आगे भी देखते हैं।
'जल पय सरिस बिकाइ ' यहां भाव यह है  कि दूधमें मिलनेसे जल भी दूधके भाव बिकता है और उसमें दूधका रस रंग और स्वाद भी आ जाता है यह दूधका भलपन है, पर खटाई पड़ते ही दूध अलग हो जाता है दूध फट जाता है और उस जलमें दूधका स्वाद नहीं रह जाता। इसी तरह कपट करनेसे  हम इंसानों के साथ भी होता है एक दूसरे का संग छूट जाता है। प्रीतिरूपी रस नहीं रह जाता। दूध फट जानेपर ,फिर दूध नहीं बन सकता, वैसे ही फटा हृदय फिर नहीं जुड़ता, फिर प्रेम हो ही नहीं सकता, बिगड़ा सो बिगड़ा, फिर नहीं सुधर सकता । कहा है कि 
'मन मोती और दूध रस इनको यहै स्वभाव ।
फाटे पै पुनि ना जुड़ै करिए कोटि उपाव ॥
दूध और जलके द्वारा प्रीतिकी रीति देख पड़ती है। इसीसे कहा कि 'देखहु ।' तात्पर्य यह कि  ए मानवों इसे देखकर ऐसी प्रीति करो, कपट मत करो।हम प्रसंग में देखें कि  दूध ऐसे निर्मल शिवजी  कर्पूरगौरम् और जड़ जल  जैसी सतीजी जिनके बारे में  'किमसुभिलपितैर्जडं मन्यसे और  'डलयोः सावर्ण्यात्' से सतीजी को 'जड़' से जल कहा  गया है। दोनों कीअच्छी तरहसे प्रीति देखो कि दोनों मिलकर एक हो गये थे, दोनों साथ-साथ पूजे जाते थे, दोनोंकी महिमा एक समझी जाती थी, जैसे दूधमें पानी मिलनेसे पानी भी दूध ही कहा जाता है। दूधहीके भावसे दूध मिला , पानी भी बिकता है पर जैसे वह खटाई पड़नेसे अलग और बिगड़ जाता है, वैसे ही यहाँ कपट करनेसे दूध  ऐसे महादेव सती जड़ - जल से अलग हो गये और बिगड़ भी गये। '
मित्रतापर भिखारीदासजीका पद देखने योग्य है-
दास परस्पर प्रेम लखो गुन छीर को नीर मिले सरसातु है। नीर बिकावत आपने मोल जहाँ जहँ जायके छीर बिकातु 
है ।
पावक जारन छीर लग्यो तब नीर जरावत आपन गातु है। नीर की पीर निवारिये कारन छीर घरी ही घरी उफनातु है ।  इस पद्यमें हमें दूधका और जलका भलपनअलग-अलग दिखा दिया गया है। वास्तव में यही है प्रीति की रीति जिसे हर इंसान को निभानी ही चाहिए,जीवन में कपट रूपी खटाई का प्रयोग हमेशा हमेशा के लिए त्याज्य ही होना चाहिए।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

रविवार, 23 जून 2024

मानस चर्चा "त्रिपुरारी"

मानस चर्चा "त्रिपुरारी"
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।चले भवन सँग दच्छकुमारी।
महादेव त्रिपुरारी क्यों कहलाते है।जानते है इन कथाओं के माध्यम से--
 शिवजी त्रिपुरारी हैं। उन्होंने त्रिपुरके मारनेमें बड़ी
सावधानतासे काम लिया था। इसी तरह वे लक्ष्यपर सदा सावधान रहते हैं।  ।
त्रिपुरासुर
श्रीमद भागवत महापुराण में कथा मिलती है कि एक बार जब देवताओंने असुरोंको जीत लिया तब वे महामायावी शक्तिमान् मयदानवकी शरणमें गये। मयने अपनी अचिन्त्य शक्तिसे तीन पुररूपी विमान लोहे, चाँदी और सोनेके ऐसे
बनाये कि जो तीन पुरोंके समान बड़े-बड़े और अपरिमित सामग्रियोंसे भरे हुए थे। इन विमानोंका आना-जाना
नहीं जाना जाता था। यथा -
 'स निर्माय पुरस्तिस्त्रो हैमीरौप्यायसीर्विभुः । दुर्लक्ष्यापायसंयोगा दुर्वितर्क्यपरिच्छदाः ॥'
 महाभारतसे पता चलता है कि ये तीनों पुर (जो विमानके आकारके थे) तारकासुरके तारकाक्ष, कमलाक्ष
और विद्युन्माली नामक तीनों पुत्रोंने मयदानवसे अपने लिये बनवाये थे । इनमेंसे एक नगर ( विमान) सोनेका
स्वर्गमें, दूसरा चाँदीका अन्तरिक्षमें और तीसरा लोहेका मर्त्यलोकमें था । ऋग्वेदके कौषीतमें और ऐतरेय ब्राह्मणोंमें त्रिकका वर्णन है। यथा -
 ' ( असुराः) हरिणीं ( पुरं) हादो दिविचक्रिरे। रजतां अन्तरिक्षलोके अयस्मयीमस्मिन् अकुर्वत् ॥' अर्थात् असुरोंने हिरण्मयी पुरीको स्वर्गमें बनाया, रजतमयीको अन्तरिक्षमेंऔर अयस्मयीको इस पृथ्वीलोकमें । तीनों पुरोंमें एक-एक अमृतकुण्ड बनाया गया था। इन विमानोंको लेकर वे असुर तीनों लोकोंमें उड़ा करते थे । अब देवताओंसे अपना पुराना वैर स्मरणकर मयदानवद्वारा शक्तिमान् होकर तीनों विमानोंद्वारा दैत्य उनमें छिपे रहकर तीनों लोकों और लोकपतियोंका नाश करने लगे। जब असुरोंका अत्याचार बहुत बढ़ गया तब सब देवता शंकरजीकी शरण गये और कहा कि
 ' त्राहि नस्तावकान्देव विनष्टांस्त्रिपुरालयैः । ' 
 ये त्रिपुरानिवासी असुरगण हमें नष्ट किये डालते हैं। हे प्रभो! हम आपके हैं, आप हमारी रक्षा करें। शंकरजीने
पाशुपतास्त्रसे अभिमन्त्रित एक ऐसा बाण तीनों पुरोंपर छोड़ा कि जिससे सहस्रशः बाण और अग्निकी लपटें
निकलती जाती थीं। उस बाणसे समस्त विमानवासी निष्प्राण हो गिर गये। महामायावी मयने सबको उठाकर
अपने बनाये हुए अमृतकुण्डमें डाल दिया जिससे उस सिद्ध अमृतका स्पर्श होते ही वे सब फिर वज्रसमान
पुष्ट हो एक साथ खड़े हो गये। जब-जब शंकरजी त्रिपुरके असुरोंको बाणसे निष्प्राण करते थे, तब-तब मयदानव
सबको इसी प्रकार जिला लेता था। शंकरजी उदास हो गये, तब उन्होंने भगवान्‌का स्मरण किया । उनको भग्न
संकल्प और खिन्नचित्त देख भगवान्ने यह युक्ति की कि स्वयं गौ बन गये और ब्रह्माको बछड़ा बनाकर
बछड़ेसहित तीनों पुरोंमें जा सिद्धरसके तीनों कूपोंका सारा जल पी गये। दैत्यगण खड़े देखते रह गये। वे सब
ऐसे मोहित हो गये थे कि रोक न सके। तत्पश्चात् भगवान्ने युद्धकी सामग्री तैयार की। धर्मसे रथ, ज्ञानसे
सारथी, वैराग्यसे ध्वजा, ऐश्वर्यसे घोड़े, तपस्यासे धनुष, विद्यासे कवच, क्रियासे बाण और अपनी अन्यान्य
शक्तियोंसे अन्यान्य वस्तुओंका निर्माण किया । इन सामग्रियोंसे सुसज्जित हो शंकरजी रथपर चढ़े और अभिजित् मुहूर्तमें उन्होंने एक ही बाणसे उन तीनों दुर्भेद्य पुरोंको भस्म कर दिया ।
दूसरा आख्यान भी मिलता है जो यो  है- 
त्रिपुरोंकी उत्पत्ति और नाशका एक आख्यान महर्षि मार्कण्डेयने किसी समय धृतराष्ट्रसे कहा था जो दुर्योधनने महारथी शल्यसे (कर्णपर्वमें) कहा है। उसमें बताया है कि तारकासुरके तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामके तीन पुत्र थे, जिन्होंने घोर तप करके ब्रह्माजीसे यह वर माँग लिया था कि 'हम तीन नगरोंमें बैठकर इस सारी पृथ्वीपर आकाशमार्गसे विचरते रहें । इस प्रकार एक हजार वर्ष बीतनेपर हम एक जगह मिलें। उस समय जब हमारे तीनों पुर मिलकर एक हो जायँ तो उस समय जो देवता उन्हें एक ही बाणसे नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्युका कारण हो ।' यह वर पाकर उन्होंने मयदानवके पास जाकर उससे तीन नगर अपने तपके प्रभावसे ऐसे बनानेको कहे कि उनमेंसे एक सोनेका, एक चाँदीका और एक लोहेका हो। तीनों नगर इच्छानुसार आ-जा सकते थे। सोनेका स्वर्गमें, चाँदीका अन्तरिक्षमें और लोहेका पृथ्वीमें रहा।
इनमेंसे प्रत्येककी लम्बाई-चौड़ाई सौ-सौ योजनकी थी। इनमें आपसमें सटे हुए बड़े-बड़े भवन और सड़कें
थीं तथा अनेकों प्रासादों और राजद्वारोंसे इनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इन नगरोंके अलग-अलग राजा थे।
स्वर्णमय नगर तारकाक्षका था, रजतमय कमलाक्षका और लोहमय विद्युन्मालीका । इन तीनों दैत्योंने अपने अस्त्र-
शस्त्रके बलसे तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लिया था । इन दैत्योंके पास जहाँ-तहाँसे करोड़ों दानव योद्धा
आकर एकत्रित हो गये। इन तीनों पुरोंमें रहनेवाला जो पुरुष जैसी इच्छा करता, उसकी उस कामनाको मयदानव
अपनी मायासे उसी समय पूरी कर देता था । यह तारकासुरके पुत्रोंके तपका फल कहा गया।
तारकाक्षका एक पुत्र 'हरि' था। इसने तपसे ब्रह्माजीको प्रसन्न कर यह वर प्राप्त कर लिया कि 'हमारे
नगरोंमें एक बावड़ी ऐसी बन जाय कि जिसमें डालनेसे शस्त्रसे घायल हुए योद्धा और भी अधिक बलवान्
हो जायँ।' इस वरके प्रभावसे दैत्यलोग जिस रूप और जिस वेषमें मरते थे उस बावड़ीमें डालने पर वे उसी
रूप और उसी वेषमें जीवित होकर निकल आते थे। इस प्रकार उस बावड़ीको पाकर वे समस्त लोकोंको
कष्ट देने लगे। देवताओंके प्रिय उद्यानों और ऋषियोंके पवित्र आश्रमोंको उन्होंने नष्ट-भ्रष्ट कर डाला । इन्द्रादि
देवता जब उनका कुछ न कर सके तब वे ब्रह्माजीकी शरण गये । ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे सब शंकरजीके पास
गये और उनको स्तुतिसे प्रसन्न किया। महादेवजीने सबको अभयदान दिया और कहा कि तुम मेरे लिये एक
ऐसा रथ और धनुष-बाण तलाश करो जिनके द्वारा मैं इन नगरोंको पृथ्वीपर गिरा सकूँ । देवताओंने विष्णु, चन्द्रमा और अग्निको बाण बनाया तथा बड़े-बड़े नगरोंसे भरी हुई पर्वत, वन और द्वीपोंसे व्याप्त वसुन्धराको ही उनका रथ बना दिया । इन्द्र, वरुण, कुबेर और यमादि लोकपालोंको घोड़े बनाये एवं मनको आधारभूमि बना दिया। इस प्रकार जब (विश्वकर्माका रचा हुआ) वह श्रेष्ठ रथ तैयार हुआ
तब महादेवजीने उसमें अपने आयुध रखे । ब्रह्मदण्ड, कालदण्ड, रुद्रदण्ड और ज्वर – ये सब ओर मुख किये
हुए उस रथकी रक्षामें नियुक्त हुए । अथर्वा और अंगिरा उनमें चक्ररक्षक बने । सामवेद, ऋग्वेद और समस्त
पुराण उस रथके आगे चलनेवाले योद्धा हुए। इतिहास और यजुर्वेद पृष्ठरक्षक बने । दिव्य वाणी और विद्याएँ
पार्श्वरक्षक बनीं। स्तोत्र, वषट्कार और ओंकार रथके अग्रभागमें सुशोभित हुए। उन्होंने छहों ऋतुओंसे
सुशोभित संवत्सरको अपना धनुष बनाया और अपनी छायाको धनुषकी अखण्ड प्रत्यंचाके स्थानोंमें रखा।
ब्रह्माजी उनके सारथी बने । भगवान् शंकर रथपर सवार हुए और तीनों पुरोंको एकत्र होनेका चिन्तन करने
लगे। धनुष चढ़ाकर तैयार होते ही तीनों नगर मिलकर एक हो गये । शंकरजीने अपना दिव्य धनुष खींचकर
बाण छोड़ा जिससे तीनों पुर नष्ट होकर गिर गये। इस तरह शंकरजीने त्रिपुरका दाह किया और दैत्योंको
निर्मूलकर त्रिलोकका हित किया।
वाल्मीकीयसे पता चलता है कि दधीचि महर्षिकी हड्डियोंसे पिनाक बनाया गया था और भूषण टीकाकारका
मत है कि भगवान् विष्णु बाण बने थे । जिससे त्रिपुरासुरका नाश हुआ । यही धनुष पीछे राजा जनकके यहाँ रख दिया गया था। दधीचिकी हड्डियोंसे दो धनुष बने, शार्ङ्ग और पिनाक । वाल्मीकीय रामायण  के
आधारपर कहा जाता है कि विष्णुभगवान्ने शार्ङ्गसे असुरोंको मारा और शंकरजीने तीनों पुरोंको जलाया । इस प्रकार से यह सिद्ध है की भगवान शंकर ने ही त्रिपुर और उनके असुरों का नाश किया इसलिए वे त्रिपुरारी कहलाए।
हर हर महादेव।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

वस्त्र का पर्यायवाची

वस्त्र का पर्यायवाची
एक ही दोहे में बारह पर्यायवाची शब्द
पट परिधान अम्बर, चेल अंशुक आच्छादन।
पोशाक वस्त्र चीर, दुकूल पहनावा वसन।।
।।धन्यवाद।।