वसन्ततिलका
काव्य जगत में वसन्ततिलका वृत्त
बहुत ही प्रसिद्ध है प्रायः सभी कवि इस
वृत्त से काव्य रचने की इच्छा करते हैं
क्योंकि यह सुनने में अत्यंत मधुर है
जिससे काव्य सौन्दर्य बढ़ता है।
वसन्ततिलका के बहुत से नामान्तर
विद्यमान है जैसा कि इस कारिका से
प्राप्त होता है-
सिंहोन्नतेयमुदिता मुनि काश्यपेन ।
उद्धर्षिणीति गदिता मुनि सैतवेन ।
रामेण सेयमुदिता मधुमाधवीति।
अर्थात् वसन्ततिलका का काश्यप के
मत में सिंहोन्नता नाम है, सैवत के मत
में उद्धर्षिणी नाम और राम के मत
में माधवी नाम है।यह शक्वरी परिवार
का छंद है।वसन्ततिलका छन्द को
प्रायः दो नामों से स्मरण किया जाता है।
कुछ लोग इसे वसन्ततिलकम् तो कुछ
लोग इसे वसन्ततिलका कहते है।
दोनों ही नाम छन्द शास्त्र में प्रचलित है।
केवल अन्तर इतना है कि वसन्ततिलकम्
नंपुसकलिंग में है तथा वसन्ततिलका
स्त्रीलिंग में प्रयुक्त शब्द होता है ।
इस छन्द का विशेष परिचय देने के
लिये एक छोटी सी ऐतिहासिक कहानी
बताता हूँ।
ग्यारहवीं शताब्दी के इतिहास में
मालवा के नरेश, भोज देवजी थे।
वे बहुत बड़े पंडित एवं विद्वान थे।
उन्होंने 84 ग्रन्थों की रचना किया था।
उन्होंने एक नियम बना दिया था कि
हमारी राजधानी धारा नगरी में कोई
भी मूर्ख व्यक्ति न रहें। जो भी निवास
करें वह पंडित विद्वान या कवि हो ।
संयोग वश एक दिन उनके सिपाहियों
ने एक जुलाहे को पकड़ कर उनके
समक्ष लाया और बोले कि:
हे राजन! यह कुछ भी नहीं जानता है
अर्थात् मूर्ख है इसलिए इसके दण्ड की
व्यवस्था की जाय । किन्तु राजा ने सोचा
कि बिना परीक्षा किये दण्ड की व्यवस्था
नहीं करनी चाहिए। इसलिए उसने जुलाहे
से पूछा- हे जुलाहे ! जो सिपाही कह रहे हैं
वह ठीक है ?
तो जुलाहे ने काव्य में उत्तर
देते हुए कहा-
S S I S I I I S I I S I S S
"काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि
यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि।
भूपाल - मौलि-मणि- रंजित- पादपीठ:
हे साहसांक ! कवयामि वयामि यामि ।।"
इस प्रकार इन पक्तियों में
वसन्ततिलका छंद का प्रयोग इतने
सुन्दर शब्दों के संयोजन के साथ
किया गया था। जिसको सुनकर
सभी दंग रह गये और राजा उसकी
शब्दयोजना को सुनकर इतना
प्रसन्न हो गये कि उसको नगर में
रहने की सुन्दरतम् व्यवस्था करते
हुए पुरस्कृत किया ।
लक्षण-
"उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः।
या
ज्ञेया वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ।
अर्थात्..
जानो वसन्ततिलका तभजा जगागा।
इस प्रकार इस छंद की
परिभाषा:
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमश:
तगण, भगण, जगण,जगण एवं दो गुरु
वर्ण के क्रम में 14 वर्ण हों,
वह वसन्ततिलका छन्द कहलाता है।
अब हम उदाहरणों को व्याख्या
सहित देखेगें:
लेकिन उससे पहले
हमें हमेशा याद रखना है कि इस
नियम के अनुसार किसी भी छंद
के किसी भी चरण का अन्तिम
वर्ण लघु होते हुवे भी छंद की
आवश्यकता के अनुसार विकल्प से
हमेशा गुरु माना जाता है। इसलिए
किसी भी छंद के किसी भी चरण
का अंतिम वर्ण यदि नियमानुसार
गुरु होना चाहिए और संयोग से वह
लघु है तो इस नियम के अनुसार वह
गुरु ही माना जायेगा।
वह नियम विधायक श्लोक है...
सानुस्वारश्च दीर्घश्च
विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च
तथा पादान्तगोऽपि वा ॥
उदाहरण -
S S I S I I I S I I S I S S
1.लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तं
रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम् ।
उद्यद्दिवाकरकरोज्ज्वलकायकान्तं
विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि ।।
2.पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यान् निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः॥
3.फुल्लं वसन्त तिलकं तिलकं वनाल्याः,
लीलापरं पिककुलं कलमत्र, रौति।
वात्येष पुष्पसुरभिर्मलायाद्रि वातो,
याताहरिः समधुरां विधिना हताः स्मः ।।
4.नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥
हिन्दी:
हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण
एवं परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।
उदाहरण:
1-भू में रमी शरद की कमनीयता थी ।
नीला अनन्त - नभ निर्मल हो गया था ।
थी छा गई ककुभ मे अमिता सिताभा ।
उत्फुल्ल सी प्रकृति, थी प्रतिभात होती ॥
2-प्राणी समस्त सम हैं, यह भाव राखूँ।
ऐसे विचार रख के, रस दिव्य चाखूँ।।
हे नाथ! पूर्ण करना, मन-कामना को।
मेरी सदैव रखना, दृढ भावना को।।
।। धन्यवाद ।।
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