।।तोटक छंद हिन्दी और संस्कृत में।।
तोटक को त्रोटक भी कहा जाता है।
यह जगती परिवार का प्रत्येक चरण
में 12 वर्ण × 4 चरण अर्थात् =
48 वर्णों का समवर्ण वृत्त छंद है।
यह "जगतीजातीय" परिवार का छंद
है।इस छंद को बहुत धीमी गति
अर्थात् मन्द गति से पढ़ा जाता है।
यह प्रमुख गयात्मक छन्द है
जो मुख्य रूप से नीति, भक्ति एवं
आदर्श पूरक रचनाओं
के लिये प्रयुक्त किया जाता है।
लक्षण:-
गंगादास छन्दोमंजरी में इस वृत्त
का लक्षण इस प्रकार दिया गया
है –
वद तोटकमब्धिसकारयुतम्।
और वृत्तरत्नाकर में तोटक छन्द का
लक्षण इस प्रकार से प्राप्त होता है -
"इह तोटकमम्बुधिसैः प्रथितम् ।
अर्थात् सनातन धर्म की मान्यता के
अनुसार चार अंबुधि हैं।तोटकमम्बुधिसैः
का अर्थ हो रहा है तोटक चार सगण से
उक्त छंद है।
परिभाषा:
जिस छन्द के चारों चरणों में
चार-चार सगण हों उसे तोटक
छन्द कहते हैं ।
उदाहरण –
I I S I I S I I S। I I S
1-शशिना च निशा निशया च शशी,
शशिना निशया च विभाति नभः।
पयसा कमलं कमलेन पयः ,
पयसा कमलेन विभाति सरः ॥
2-=मणिना वलयं वलयेन मणिर् ,
मणिना वलयेन विभाति करः ।
कविना च विभुर्विभुना च कविः,
कविना विभुना च विभाति सभा ॥
3-रवि रुद्र पितामह विष्णुनुतं,
हरि चन्दन कुंकुम पंकयुतम्।
मुनि वृन्द गणेन्द्र समानयुतम्,
तव नौमि सरस्वती पादयुगम् ।।
4-कर कंकण केश जटा मुकुटम्,
मणि माणिक मौक्तिक आभरणम्।
गज नील गजेन्द्र गणादि पथिम्,
मम तुष्ट विनायक हस्त मुखम् ॥
5-त्यज-तोटकमर्थं नियोगकरं,
प्रमदादिकृतं व्यसनोपहतं।
उपधाभिर्शुद्धमतिं सचिवं,
नरनायक-भीरुकमायुदिकम् ॥
6-जय राम सदा सुख धाम हरे।
रघुनायक सायक चाप धरे।।
भव बारन दारन सिंह प्रभो।
गुन सागर नागर नाथ बिभो।।
7-अधरं मधुरं वदनं मधुरं
नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।
उक्त सभी उदाहरणों के प्रत्येक
पक्तियों में प्रथम पक्ति की ही
तरह चार सगण अर्थात्
I I S I I S I I S I I S
के क्रम वर्ण हैं अर्थात् तोटक छंद है।
हिन्दी:-
हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण,
परिभाषा एवम् विवरण संस्कृत की
तरह ही है।जैसे:
जब द्वादशवर्ण समासस हो।
तब तोटक पावन छन्दस हो।।
समासस का अर्थ चार सगण-
।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ । । ऽ । । ऽ अर्थात्
जब किसी भी पद्य के चारों चरणों में
चार सगण-।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ । । ऽ । । ऽ
के क्रम में वर्ण हों तो उस पद्य में
तोटक छंद होता है।
उदाहरण:
कलियुग का यह यथार्थ चित्रण
तोटक का अद्भुत उदाहरण है:
1-बहु दाम सँवारहिं धाम जती।
बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती।।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।
कलि कौतुक तात न जात कही।।
कुलवंति निकारहिं नारि सती।
गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती।।
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं।
अबलानन दीख नहीं जब लौं।।
ससुरारि पिआरि लगी जब तें।
रिपरूप कुटुंब भए तब तें।।
नृप पाप परायन धर्म नहीं।
करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं।।
धनवंत कुलीन मलीन अपी।
द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।।
नहिं मान पुरान न बेदहि जो।
हरि सेवक संत सही कलि सो।।
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी।
गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी।।
कलि बारहिं बार दुकाल परै।
बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।।
2-हनुमान करें हरि से विनती।
सिय राम जपूँ बिन ही गिनती।
प्रभु और न चाह रहे मन में।
दिन रात रमूँ बस कीर्तन में।
उक्त सभी उदाहरणों के प्रत्येक
पक्तियों में प्रथम पक्ति की ही
तरह चार सगण अर्थात्
I I S I I S I I S I I S
के क्रम वर्ण हैं अर्थात् तोटक छंद है।
।।धन्यवाद।।
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