यहाँ दोनों वाक्यों में पूर्वार्द्ध (उपमानवाक्य) का धर्म 'प्यार करना' उत्तरार्द्ध (उपमेय-वाक्य) में 'हाथ धरना' के रूप में कथित है।वस्तुतः दोनों का अर्थ एक ही है।
एक ही समानधर्म सिर्फ शब्दभेद से दो बार कहा गया है। अतः यहाँँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार है।
(आ)चटक न छाँड़त घटत हू, सज्जन नेह गँभीर ।
फीको परे न बरु फटे, रंग्यो चोल रंग चीर ।
यहाँ ‘चटक न छाँडत’ तथा ‘फीको परै न ‘ में केवल शब्दों का ही अन्तर है, दोनों के अर्थ में समानता है । अत: यहाँ भी प्रतिवस्तूपमा है ।
यह साधर्म्य, वैधर्म्यं और माला इन तीन रूपों में पाया जाता है।इन तीनों को हम उदाहरणों के माध्यम से समझते हैं।
1-साधर्म्य प्रतिवस्तूपमा अलंकार
(एक धर्मता या समानधर्मता बताने वाला)
जैसे :-(अ)सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।
पारस परस कुधातु सुहाई।।
(आ) अरुनोदय सकुचे कुमुद
उडगन ज्योति मलीन।
तिमि तुम्हार आगमन सुनि
भये नृपति बलहीन।।
2-वैधर्म्यं प्रतिवस्तूपमा अलंकार
(असमानता भिन्नता - गुण, धर्म या कर्तव्य की भिन्नता वैपरीत्य, विपरीतता विषमता, अन्तर बताने वाला) जैसे:-
सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहि प्रतापु।।
3-माला प्रतिवस्तूपमा अलंकार
(एक तरह की चीजों का निरन्तर चलता रहने वाला क्रम)
सरुज सरीर बादि बहु भोगा।
बिनु हरि भगति जाइ जप जोगा।।
जाय जीव बिनु देह सुहाई।
बादि मोर बिनु सब रघुराई।।
काकु (वह विचित्र या परिवर्तित ध्वनि जो आश्चर्य, कष्ट, क्रोध, भय आदि के कारण मुँह से निकलती है। ऐसी बात जो अप्रत्यक्ष रूप से किसी का मन दुखाती हो को काकु कथन माना जाता है।)द्वारा एक धर्म-सम्बंध वर्णन के कारण चौथा भेद भी माना गया है-
4-काकु प्रतिवस्तूपमा अलंकार
(अ)प्रिय लागिहि अति सबहि मम
भनिति राम जस संग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ
बंदिअ मलय प्रसंग
(आ)तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा।
चोरहिं चाँदनि रात न भावा।।
यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न' शब्दों से और उपमान वाक्य में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है।
इस अलंकार के अन्य उदाहरण भी देखें _
1. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.
हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.
2. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना तजे कलंक.
3. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.
त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..
4. तेज चाल थी चोर की गति न पुलिस की तेज
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