गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

मानस चर्चा
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये 
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे 
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ 
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
गोस्वामीजी कहते ही हैं कि मुझे कोई दूसरी इच्छा नहीं है, लेकिन जिस तरह से 'नान्या' को इस श्लोक में प्रथम शब्द के रूप में ध्वनित और रेखांकित किया गया है, उससे अर्थ के बहुत से फूल बिखरते हैं। ‘स्पूहा' और 'काम' में बहुत फर्क है। काम दोष है, स्पृहा नहीं। काम बांधेगा, स्पृहा मुक्त करेगी। काम जीवन में संचय करेगा, जबकि गोस्वामीजी की स्पृहा जीवन में समेटकर ठूंस-ठूंस कर सब कुछ अपने पास भर लेने की नहीं है। वे तो उसे अतिक्रांत करना चाहते हैं। काम मद है, उत्तेजना है। लेकिन तुलसी की स्पृहा चेतना है, जागरण है। काम द्वैत है, यह स्पृहा अनन्यता की है। काम ऊर्जा का स्खलन है, यह स्पृहा ऊर्जा की उत्स्फूर्ति । इच्छा का भी अपना एक दुष्चक्र है।  लोग जीवन की एक छोटी सी अवधि
में हजारों इच्छाएं करते हैं। गोस्वामीजी एक के अलावा
दूसरी किसी इच्छा की बात नहीं करते। आदमी की
पहचान इच्छाओं की संख्या से नहीं, इच्छाओं की गुणवत्ता से होती है। संख्याएं कई बार हमारी जीवन-शक्ति की में 'लीक्स' बन जाती हैं- उनसे थोड़ा-थोड़ा कुछ रिसता रहता है। कई बार वे लीक ही नहीं, ब्रेक भी हो जाती हैं। गोस्वामीजी जब नान्या स्पृहा की बात करते हैं तो वह संख्या के विरुद्ध सांख्य का विद्रोह ही नहीं है, वह जीवन को परिचलित और परिभाषित करने वाली एक केन्द्रीय थीम की बात भी करते हैं।वे एकमात्र अनन्य स्पृहा की बात करते हैं। यह बहुत से विकल्पों के बीच तौल करने की स्थिति नहीं है, क्योंकि गोस्वामीजी  की स्पृहा है ही अतुलनीय । स्पृहाओं की सांख्यिकी में गोस्वामीजी नहीं उलझते । इच्छाओं के बहुत ही
सघन जंगल में आदमी रास्ता भी भूल सकता है।
इसलिए गोस्वामीजी इच्छा को विशेषीकृत कर देते हैं और एकल भी । गोस्वामीजी इस श्लोक में स्पृहा और काम के जिन द्वन्द्वों का चित्र खींचते हैं वहाँ वे और बात भी स्थापित करते चलते हैं । वह यह कि बात सिर्फ कर्म की पवित्रता की ही नहीं, इच्छा की पवित्रता की भी है। कर्म तो बाहरी आलोक है, लेकिन इच्छा एक अन्तः दीप्ति है।
हे रघुपते! मेरे हृदय में और कोई इच्छा नहीं है।
अन्य कुछ नहीं अर्थात् ऋद्धि सिद्धि, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष कुछ भी नहीं चाहता, -
'अर्थ न धर्म न काम रुचि गति न चहउँ निर्वान । जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन ॥'
और भी देखें:-
 'चहउँ न सुगति सुमति संपति कछु रिधि सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु रहित अनुराग राम पद बढ़ौ अनुदिन अधिकाई 
 ऋग्वेद ने तो बहुत पहले ही कहा था : 'मनुष्य विभिन्न कामनाओं से घिरा रहता है', लेकिन गोस्वामीजी ने जैसे सारी स्पृहाओं और इच्छाओं को एक ही केन्द्र में विलयित कर दिया है। सामान्यतः इच्छाएं एक तनाव निर्मित करती हैं। वे हमारी अब तक की आश्वस्ति को जैसे माया बना देती हैं। इच्छा या तो समर्पण मांगेगी या प्रतिरोध । कहीं अनुताप का तनाव होगा, कहीं अधूरेपन का, कहीं संदेह और चिन्ताएं, कहीं दमन। वीतिच्छ जातक में कहा गया : 'इच्छा हि अनन्तगोचराः' कि इच्छा की गति अनंत है।  गोस्वामीजी ने तो और ज्यादा सुस्पष्ट तरीके से जाना था कि इच्छाएं क्रमशः क्षरण करती हैं। 'कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा' प्रसादजी के शब्दों में "सर्ग इच्छा का है परिणाम," इच्छा के बिना संसार तो फ्रीज हो जाएगा - न जीने का कारण होगा, न मरने का । कई बार तो हम इच्छा 'करते' नहीं हैं, बस सहसा पाते हैं अपने अंदर, कि यह एक गुप्त इच्छा कहीं पल सी रही थी । कहीं लगता है कि इच्छाओं का, कम से कम कुछ इच्छाओं का, एक स्वतंत्र गुप्त जीवन है, कुछ इच्छाएं तो स्वतः स्फूर्त हुआ करती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि इच्छाओं में अन्तःसंघर्ष हो । कई बार अपनी इच्छाओं के संपूर्ण पैटर्न से ही आपको एक तरह की जुगुप्सा-सी हो जाती है। कई बार इच्छा का सामाजिक स्वीकार प्रतिबन्धित होने पर हम उसका दमन कर लेंगे और उसे ही 'नान्या स्पृहा' की स्थिति समझेंगे।
कालीदासजी ने अभिज्ञानशाकुन्तल
में यही कहा : 'पिण्ड खजूर से अरुचि उत्पन्न हुए
व्यक्ति को इमली की इच्छा होती है। लेकिन यह भी
'नान्या स्पृहा' की स्थिति नहीं है। प्रतिस्थापन हो जाता है
लेकिन इच्छाएं बनी रहती हैं : 'दमे मर्ग तक रहेंगी
ख्वाहिशें।यह नीयत कोई आज मर जाएगी ।'
मृत्यु- पर्यन्त कामनाओं का क्रम । बल्कि दुरतिक्रम। प्राकृत के आचारांग में कहा गया "कामा दुरतिकम्मा" कामनाओं का पार पाना बहुत कठिन है। कई बार जिंदगी की व्यस्तताओं में कई इच्छाएं अदृश्य भी हो जाती हैं। कई बार इच्छाएं जैसे छाया भर की तरह ही शेष रह जाती हैं,उनका रूपाकार गायब हो जाता है। 
‘नान्या स्पृहा' की स्थिति तब आती है जब हम
अपनी समस्त इच्छाओं को सिकोड़कर किसी एक ही
लाइफ - डिफाइनिंग चीज पर केन्द्रित कर देते हैं। क्या सुन्दर कहा गया है:- न जातु कामःकामानामुपभोगेन शाम्यतिहविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते - कि विषय भोग की इच्छा विषयों का उपभोग करने से कभी शान्त नहीं सकती। घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्ज्वलित होने वाली आग की भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है।अष्टावक्रजी  ने इसे स्पृहा का गलना कहा है : 'क्व धनानि क्व मित्राणि गलिता स्पृहा ।जब मेरी इच्छा गल गई तब कहां धन है, कहां मित्र हैं, कहां मेरे विषयरूपी दस्यु ( लुटेरे) हैं, कहां शास्त्र हैं और कहां विज्ञान है! वही मस्तराम का भाव : चाह नहीं, चिंता नहीं, मनवां बेपरवाह।जाको कछू न चाहिए, सो जग साहंसाह। 
मनुस्मृति कहती है : 'अकामस्य क्रिया काचिद्
दृश्यते नेह कर्हिचित्। यद्यद्धि कुरुते किंचित् तत्तत्
कामस्य चेष्टितम्'- इस संसार में इच्छा के बिना
किसी मनुष्य का कोई काम कभी भी नहीं दिखाई देता।
मनुष्य जो कुछ करता है, वह सब इच्छा के कारण।
'इच्छा को लोग एक भाव समझते हैं, लेकिन जरा ध्यान
से देखें तो इच्छा एक अभाव है। किसी चीज का न
होना, कोई अपूर्णता ।' शिवानंद कहते हैं कि 'डिज़ायर
इज़ पावर्टी'  इच्छा दरिद्रता है।इच्छा की यात्रा को तो हृदय में पहुंचना ही है क्योंकि वह स्वयं उद्भूत भी वहीं से होती है: 'भुवनं मनसो नान्यदन्यन्न हृदयान्मनः । अशेषा हृदये तस्मात् कथा परिसमाप्यते' कि संसार मन से भिन्न नहीं है, मन हृदय से भिन्न नहीं है, अतः समस्त कथा हृदय में ही समाप्त होती है । इच्छा की 'डीपनिंग' 'हृदयस्थो भगवान मंगलाय
तनो हरिः' तक ले जाएगी। यह इच्छा का समाहुतिकरण है। लेकिन गोस्वामीजी ने यह भी सिद्ध
किया कि इच्छा का आध्यात्मीकरण, इच्छा का
अवमानवीकरण नहीं है। हृदय में स्थित विष्णु का
साक्षात्कार विश्व से विलग नहीं करता । वह एकांतिक
(aloof) होना नहीं है। गोस्वामीजी  वह इच्छा
करते हैं जो सबसे सम्बन्ध जोड़ती है, न कि ऐसी कि जो
सम्बन्ध तोड़ती है। इसलिए वह विकास और विस्तार
को सुनिश्चित करने वाली स्पृहा रखते हैं, वह स्पृहा
जिससे मैथ्यू आर्नल्ड की वह पंक्ति सच लगने लगती है
: The same heart beats in every human
breast.  वही एक हृदय हर मानव वक्षस्थल में
धड़कता रहता है। बात इस हृदय की ही है और इसीलिए गोस्वामीजी  'हृदयेऽस्मदीये' शब्द के माध्यम से बस उसे ही रेखांकित करते हैं।  हृदयहीन मनुष्य से उपासना नहीं होती।गोस्वामीजी इच्छाओं का वास स्थान हृदय मानते हैं, लेकिन इस हृदय में इच्छाओं की भीड़ वे इकट्ठा नहीं करना चाहते। इच्छाओं की भीड़ इच्छाओं की एकाग्रता को, उनकी तीव्रता और उनके वेग को कम, भोथरा और दुर्बल कर देती है। गोस्वामीजी  चाह रहे हैं एक बिन्दु पर सारी ऊर्जाओं को मोड़ना, सीधे उस बिंदु पर जाना, न दायें देखना, न बायें। वे अनावश्यक कार्य ही नहीं, अनावश्यक कामनाओं से भी मुक्त होना चाह रहे हैं। शतपथ ब्राह्मण का निर्देश भी है : 'न ह्युक्तेन मनसा किंचन संप्रति शक्नोति कर्तुम्' कि अयुक्त मन से कुछ भी करना संभव नहीं है।
।।सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।।
मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अन्तरात्मा ही हैं।
तुलसी कई बार बड़े आग्रह के साथ कहते हैं। बालकांड की शुरुआत में वे कहते हैं- 'सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे', यहां भी उसी आग्रह के साथ कह रहे हैं कि 'मैं सत्य कहता हूँ।' मार्कण्डेय पुराण में भी यही कहा गया : 'सत्यं चोक्तं परो धर्मः स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः'  सत्य-
भाषण सबसे बड़ा धर्म है। सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है, बल्कि ऋग्वेद तो स्वर्ग क्या धरती कोभी सत्य प्रतिष्ठित मानता था- 'सत्योनोत्तमिता भूमिः' भूमि सत्य द्वारा प्रतिष्ठित है।गोस्वामीजी ने 'मैं' को वदामि कह कर सामने लाया हैं।फिर तत्काल कहते हैं : 'भवानखिलान्तरात्मा' यह कि आप सबके अन्तरात्मा ही हैं, न केवल
मेरे बल्कि सबके । इसलिए यह एक समस्वर 'मैं' है । इस 'मैं' की बौद्धिक, सामाजिक, सौन्दर्यशास्त्रीय
और मनोवैज्ञानिक संरचना 'भव' और 'अखिल' की
सुसंगति में है और इसलिए यह परिपूर्ण, समग्र व ईश्वर
से ज्यादा इन्टीग्रली जुड़ा हुआ है 'मैं' है ।
ऐसा लगता है कि गोस्वामीजी जितना व्यक्तिगत
साक्ष्य दे रहे हैं, उतना ही उस कॉस्मिक आर्डर की ओर
भी हमारा ध्यान खींचना चाहते हैं। वे एक आध्यात्मिक
और अंतर्मुखी लेकिन सर्वानुकूल और सनातन 'मैं' की
ओर से बोल रहे हैं। उनके बोलने में एक तरह की स्व-
चेतनता और स्व-संस्फूर्तता (Self-reflexivity) है,
लेकिन वह आत्मपरक चेतनता प्रकृति के भौतिक विश्व
और मनुष्यों के सामाजिक विश्व से जुदा नहीं कर दी गई
है। उनका 'मैं' किसी तरह के पक्षाघात से ग्रस्त नहीं है।
लेकिन वह इस मामले में अपनी पक्षधरता को जरूर
स्पष्ट कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यहां उनका एंगेजमेंट
है। यहां किसी तरह का औपचारिक तथ्य कथन नहीं है।
लेकिन यह 'मैं' किसी तरह की अस्मिताई भक्ति के रूप
में नहीं लिया जा सके, इसीलिए वे 'भवान
खिलान्तरात्मा'  'मैं' और 'अखिल' दोनों को एक सांस में बोलते हैं क्योंकि वे आत्म-रति में ग्रस्त होने का दूर तक भी संकेत नहीं देना चाहते। उनके 'मैं' और 'अखिल एक
दूसरे को प्रतिबिम्बित करते हैं। तुलसी के समेकन की
यह एक शैली है। कई बार लोग कहते हैं कि कविता में 'मैं' शैली छायावाद से आई। 'निराला' ने दावा भी किया कि 'मैंने ' 'मैं' शैली अपनाई। लेकिन उसके बहुत बहुत पहले गोस्वामीजी ने 'मैं' शैली को खूब जमकर अपनाया 
, 'मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा', 'मोरि ढिठाई', 'होइ हित मोरा','कबित बिबेक एक नहिं मोरें', 'सोइ भरोस मोरे मन
भावा', 'मम भनिति', 'तेहि बल मैं रघुपति गुन गाथा',
'ताते मैं अति अलप बखाने', 'सो उमेस मोहि पर अनुकूला'आदि ढेरों उदाहरण हैं। तुलसी के इन शुरुआती कथनोंमें 'मैं' का जबर्दस्त निदर्शन है। सोचिए कि एक पूरीपरंपरा है जो 'मैं' को खत्म करने पर तुली हुई है। यहां
तक कि कबीर भी 'मैं मैं मेरी जिनि करै, मेरी मूल
विनास / मेरी पग का पौंखड़ा, मेरी गल की फाँस'- कहे
बिना नहीं रहते। उसके सामने तुलसी उतने 'मैं' परक
हो रहे हैं, जितने मैंने ऊपर उदाहरण दिए। इसलिए
तुलसीदास के इस महाप्रबंध में अपनी तरह की एक
सब्जेक्टिविटी है। यह 'आत्मपरकता' अपने आप में
अहंकृति नहीं है बल्कि एक तरह से 'स्व' का उद्भावन
है, जयशंकर प्रसाद की कामायनी के आशा सर्ग की
पंक्तियों जैसा 'मैं हूं, यह वरदान सदृश / क्यों लगा
गूंजने कानों में / मैं भी कहने लगा, रहूँ मैं / शाश्वत
नभ के गानों में ।' भारत के दार्शनिक चिंतन में 'आत्मा'
पर और पश्चिमी चिंतन में 'सेल्फ' पर बहुत चर्चा हुई
है। तुलसी विकारी आत्म से अविकारी आत्मा तक की
दूरी एक ही पंक्ति में तय कर लेते हैं, 'सत्यं वदामि च
भवानखिलान्तरात्मा ।' तुलसी का 'मैं' दुनिया से
अन्तः क्रिया करता है, दुनिया को अनुभव करता है वे
जब भवानखिलान्तरात्मा की बात करते हैं, तो वे एक
तरह के विलयित या एकीकृत (यूनिफाइड) 'आत्म' की
बात करते हैं। वह एक अलग टुकड़ा नहीं है। उनके
पास एक सोचने वाला 'मैं' है जो अनुभव की गई चीजों
को अवधारणीकृत करता है। जब वह उन चीजों को
अवधारणा में बदलता है, ज्ञान और समझ का विकास
एक वृहत्तर स्तर पर होता है।
तुलसी जब यह कहते हैं कि आप सबके अन्तरात्मा
ही हैं तो वे पूरी कायनात में ईश- संचार देखते हैं, हमारे
यहां ईश्वर को अंतर्पुरुष, अंतर्यामी, घटघटवासी, जगदात्मा,विश्वंभर, विश्वात्मा, सर्वव्यापी, सर्वांतर्यामी आदि कहा गया तो वह भी इसीलिए कि वह सभी के भीतर है। यह सब कितना रहस्यमय है? आपके भीतर वह कौन सा तहखाना है जहां वह कोई बैठा हुआ है, वहां न तो नेत्र जाता है, न वाणी, न मन (न तत्र चक्षुर्गच्छति न
वाग्गच्छति नो मनः- केनोपनिषद् 1 / 3), वह कोई
जिसे न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न
पानी गला सकता है और न वायु सुखा सकता है। हमारे
भीतर एक जासूस है। हमारे भीतर एक साक्षी है। 'आत्मैव ह्वात्मनः साक्षी'- । इससे भागकर
कहां जाया जाएगा? हमारी सारी चतुराइयों के सामने
यह ‘निर्विकल्प'? साक्षात् न होने पर भी साक्षी, आत्मा
साक्षी विभु इसे शब्दों से गफलत में नहीं रखा जा सकता, यह 'अवाक' है । इसे भेष बदलकर नहीं भरमाया जा सकता। यह अव्यक्त और अशरीरी है। इसे मारा नहीं जा सकता कि चलो इसके वध के जरिये ही इससे पिंड छूटे । गीता  में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत!- हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है यही आत्मा परमात्मा है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश परमात्मा में गुंथा हुआ है । ( मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव-) 
'गीता में  भगवान कृष्ण यही तो कहते हैं: ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति - कि ईश्वर सभी प्राणियों के हृदयमें विराजमान है। 'सत्यं वदामि,' यथा- 'सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।' (१९) अखिलान्तरात्मा अन्तर्यामी हो, अतः सबकी जानते हो। यथा- 'अंतरजामी प्रभु
सब जाना। (७। ३६) प्रयच्छ दीजिये। रघुपुङ्गव रघुकुलमें श्रेष्ठ | यथा- 'रघुकुल दीपहिं चलेउ
लेवाई।' (अ० ३८), 'रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा।' (अ० ५२ ) [ 'निर्भरां इति । निर्भर भक्तिके दो
अर्थ होते हैं। एक तो परिपूर्ण, अविचल और अतिशय'। यथा-निर्भर प्रेम मगन मुनि ज्ञानी । कहि न
जाइ सो दसा भवानी ॥', 'अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई।', 'अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा प्रगटे हृदय हरन
भव भीरा ॥' (सुतीक्ष्णजीका प्रेम आ० १०), 'अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव। जेहि खोजत
जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोड पाव ॥' (उ० ८४), 'तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिये।
' (अत्रिजी। आ०) दूसरा अर्थ है-'वह भक्ति जिसमें मनुष्य अपनी शरीरयात्रा तथा आत्मयात्राके निर्वाहका
सम्पूर्ण भार श्रीजानकीनाथके चरणारविन्दोंमें समर्पण करके निश्चिन्त हो जाता है। यहाँ दोनों अर्थ हैं।
] कामादि दोष-काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर षट् विकार इन विकारोंके रहनेसे भगवान्को
प्राप्ति दुर्लभ है। कहा भी है- 'काम आदि मद दंभ न जाके। तात निरंतर मैं बस ताके ॥ (आ० १६)
अर्थात् उनके रहते हुए भगवान् श्रीराम हृदयमें निवास नहीं करते। इसीसे हृदयको कामादि दोषोंसे रहित
करनेकी प्रार्थना करते हैं। (पं० रामकुमारजी) [ विनयमें भी ऐसी ही प्रार्थना बारंबार की गयी है। यथा - 'लोभ
ग्राह दनुजेस क्रोध कुरुराज बंधु खल मार। तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार ॥' प्रथम 'काम'
शब्द देनेका भाव यह है कि षड् रिपुओंमें भक्तिका मुख्य बाधक यही है। यथा- 'तात तीन अति प्रवल
खल काम क्रोध अरु लोभ ।' इसीसे इनमें भी 'काम' को ही प्रथम कहा गया उत्तरार्द्धमें योग और
क्षेम दोनोंकी याचना की। 'भक्तिं प्रयच्छ' यह योग और 'कामादिदोषरहितं कुरु' यह क्षेम है। भक्तका
मन निर्मल होता है पर मायावश कुसङ्गादि पाकर उनका मन भी मैला हो जाता है, यह बाल० (१।
४) 'जनमन मंजु मुकुर मल हरनी' की टीकामें बताया गया है। देखिये भक्तप्रवर श्रीनारदजीके 'सहज बिमल
मन' में कामके जीतनेका अहङ्कार, विश्वमोहिनीकी प्राप्तिका लोभ और उसके न मिलनेपर क्रोध सभी विकार
उत्पन्न हो गये थे। काम-क्रोधादि भक्तोंके शत्रु हैं, सदा घातमें लगे रहते हैं। श्रीमुखवचन है- 'मोरे प्रौढ़
तनय सम ज्ञानी । बालक सुत सम दास अमानी ॥ दुहुँ कहँ काम क्रोध रिपु आही।' (३।४३ ८-९) इससे
भगवान् कहते हैं कि 'करउँ सदा तिन्ह के रखवारी। जिमि बालक राखड़ महतारी ॥' (३। ४३ ५) इसीसे
गोस्वामीजी भक्तिकी याचना करके उसकी कामादिसे रक्षा भी माँगते हैं।]
टिप्पणी- २ (क) 'नान्या स्पृहा' अर्थात् कोई काङ्क्षा नहीं है, यह कहकर अपनेको अकिंचन बताया
और इसकी पुष्टताके लिये 'सत्यं वदामि' और 'अखिलान्तरात्मा' कहा। इस प्रकार अपनेको भक्तिका अधिकारीठहराकर तब भक्ति माँगते हैं। क्योंकि जो कुछ नहीं चाहता वही भक्तिका अधिकारी है, उसीको भक्ति
मिलती है। यथा- 'बहुत कीन्ह प्रभु लषन सिय नहिं कछु केवट लेड़। बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल
बर देइ ॥' (२ | १०२) (ख) 'रघुपुङ्गव' कहकर निर्भर भक्ति माँगनेका भाव यह है कि जैसे आप रघुकुलमें
श्रेष्ठ हैं वैसे ही श्रेष्ठ भक्ति मुझे दीजिये। भक्ति ही माँगते हैं, क्योंकि इससे बढ़कर कोई लाभ नहीं है।
यथा- 'लाभ कि कछु हरि भगति समाना । जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ॥ (उ० ११२। ८)
प० प० प्र० - भक्तिं प्रयच्छ इति। यहाँ यह शंका होती है कि यह याचना इसी काण्डमें
क्यों की गयी? यह श्लोक श्रीरामवन्दना और श्रीहनुमान्जीकी वन्दनाके बीचमें क्यों रखा ? प्रथम शंकाके
समाधानके लिये पिछले चार काण्डोंका सिंहावलोकन अति संक्षिप्तरूपमें करना पड़ेगा। बालकाण्डमें कहा
है कि स्वान्तः सुखकी प्राप्ति चाहिये, इसके लिये स्वान्तःस्थ ईश्वरका दर्शन चाहिये। ईश्वर कौन हैं और
उनकी प्राप्तिका साधन क्या है यह 'रामाख्यं ईशं हरिम्' और 'यत्पादप्लवमेकमेव हि' से बताया। विश्वासावित
सात्त्विक श्रद्धासे धर्माचरण करनेसे वैराग्य होता है यह 'भरत चरित करि बिरति' से बताया। सद्गुरु
संत संगति बिना श्रद्धा, धर्म, वैराग्य और ज्ञानकी प्राप्ति नहीं यह बा० मं० श्लो० ३ का विषय अरण्यकाण्डमें
बताया। वैराग्यादि साधनोंकी प्राप्ति 'राम' महामन्त्रके अनुष्ठानसे होगी यह किष्किन्धाकाण्डमें कहा। जब
पूर्वोक्त साधनोंसे मोक्ष प्राप्तिकी शुभवासना भी निःशेष हो जाती है, तब वह भक्तिका अधिकारी बनता
हैं, यह इस श्लोकमें बताया।
दूसरी शंकाका समाधान यह है कि भक्तिका अधिकारी साधक यद्यपि प्रार्थना कर रहा है सही
तथापि केवल उसकी याचनापर भगवान् उसे वह अनुपम भक्तिरस थोड़े ही दे देंगे। वे देखते हैं कि
इसकी पीठपर कौन है, किसका सहारा लेकर यह आया है। किसी महान् भक्तका सहारा लेकर आया
होगा तो उसकी मुरव्वतसे देना ही पड़ेगा। अतः अगले श्लोकमें श्रीहनुमान्जीकी वन्दना है जो कैसे बलवान्
रक्षक हैं यह श्लोक तथा काण्डभरसे स्पष्ट है। भगवान् जिनके वशमें हैं वही पीठपर हैं। इससे यह
जनाया कि श्रीरामभक्तिकी प्राप्तिके लिये इनकी कृपाका सम्पादन आवश्यक है।
टिप्पणी - ३ 'कामादिदोषरहितं कुरु' कहनेका भाव कि मेरे हृदयमें श्रीसीता - अनुजसहित धनुषबाण
धारण करके बसिये, इससे कामादि निकट न आ सकेंगे। यथा- 'तब लगि हृदय बसत खल नाना। लोभ
मोह मत्सर मद नाना ॥ जब लगि उर न बसत रघुनाथा धरे चाप सायक कटि भाथा ॥' (५॥ ४७) इसीसे
अत्रि, शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि महर्षियोंने माँगा है कि 'अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर
राम। मम हिय बसहुँ ।' (३। ११), हृदि बसि राम काम मद गंजय । (७ ३४)
नोट-१ यह श्लोक वसन्ततिलकावृत्तमें है। इस वृत्तके प्रत्येक चरण चौदह-चौदह अक्षरके होते हैं।
तगण, भगण, दो जगण और अन्तमें दो वर्ण गुरु रहते हैं। मानसभरमें केवल दो वृत्त ऐसे आये हैं।
एक बालकाण्ड मं० श्लोक ७ में और दूसरा यहाँ । (बा० मं० श्लोक ७ देखिये )
उस क्षण हम इच्छा की आध्यात्मिकता को रिकवर करते हैं। तब इच्छा एक प्रार्थना बन जाती है। तब हमारी इच्छा हमारे 'डीपेस्ट सेल्फ' तक की यात्रा पूरी कर लेती है। तब हम वहीं प्रभु की छवि पाते हैं : रघुपते हृदयेऽस्मदीये | शाङ्गधर संहिता (पूर्वखंड 5/49) के
अनुसार 'हृदयं चेतना- स्थानभोजसश्चाश्रयो मतं' कि हृदय
क्व में विषयदस्यव/क्व शास्त्रं क्वं च विज्ञानं यदा में चेतना का स्थान है और ओज का आधार स्थल है।
धीरे ये सारे प्रश्न भारी होते जाते हैं। चेतना कब तक
झेले इन सवालों का भार, इनका दंश । अपने अस्तित्व
के अंतर्विरोधों का बोझ ?


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें