मानस चर्चा
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
गोस्वामीजी कहते ही हैं कि मुझे कोई दूसरी इच्छा नहीं है, लेकिन जिस तरह से 'नान्या' को इस श्लोक में प्रथम शब्द के रूप में ध्वनित और रेखांकित किया गया है, उससे अर्थ के बहुत से फूल बिखरते हैं। ‘स्पृहा' और 'काम' में बहुत फर्क है। काम दोष है, स्पृहा नहीं। काम बांधेगा, स्पृहा मुक्त करेगी। काम जीवन में संचय करेगा, जबकि गोस्वामीजी की स्पृहा जीवन में समेटकर ठूंस-ठूंस कर सब कुछ अपने पास भर लेने की नहीं है। वे तो उसे अतिक्रांत करना चाहते हैं। काम मद है, उत्तेजना है। स्पृहा चेतना है, जागरण है। काम द्वैत है, स्पृहा अनन्यता है। काम ऊर्जा का स्खलन है, स्पृहा ऊर्जा की उत्स्फूर्ति । इच्छा का भी अपना एक दुष्चक्र है। गोस्वामीजी इस श्लोक में स्पृहा और काम के जिन द्वन्द्वों का चित्र खींचते हैं वहाँ वे और बात भी स्थापित करते चलते हैं । वह यह कि बात सिर्फ कर्म की पवित्रता की ही नहीं, इच्छा की पवित्रता की भी है। कर्म तो बाहरी आलोक है, लेकिन इच्छा एक अन्तः दीप्ति है।
हे रघुपते! मेरे हृदय में और कोई इच्छा नहीं है।
अन्य कुछ नहीं अर्थात् ऋद्धि सिद्धि, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष कुछ भी नहीं चाहता, -
'अर्थ न धर्म न काम रुचि गति न चहउँ निर्वान । जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन ॥'
और भी देखें:-
'चहउँ न सुगति सुमति संपति कछु रिधि सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु रहित अनुराग राम पद बढ़ौ अनुदिन अधिकाई
वीतिच्छ जातक में कहा गया : 'इच्छा हि अनन्तगोचराः' कि इच्छा की गति अनंत है। गोस्वामीजी ने तो और ज्यादा सुस्पष्ट तरीके से जाना था कि इच्छाएं क्रमशः क्षरण करती हैं। 'कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा' प्रसादजी के शब्दों में "सर्ग इच्छा का है परिणाम," इच्छा के बिना संसार तो फ्रीज हो जाएगा - न जीने का कारण होगा, न मरने का । कालीदासजी ने अभिज्ञानशाकुन्तल में कहा कि : 'पिण्ड खजूर से अरुचि उत्पन्न हुए व्यक्ति को इमली की इच्छा होती है। लेकिन यह भी 'नान्या स्पृहा' की स्थिति नहीं है। प्रतिस्थापन हो जाता है।
लेकिन इच्छाएं बनी रहती हैं : 'दमे मर्ग तक रहेंगी
ख्वाहिशें।यह नीयत कोई आज मर जाएगी ।'
मृत्यु- पर्यन्त कामनाओं का क्रम । बल्कि दुरतिक्रम। प्राकृत के आचारांग में कहा गया "कामा दुरतिकम्मा" कामनाओं का पार पाना बहुत कठिन है।
‘नान्या स्पृहा' की स्थिति तब आती है जब हम अपने आपको अपनी समस्त इच्छाओं को सिकोड़कर किसी एक ही लाइफ - डिफाइनिंग चीज पर केन्द्रित कर देते हैं। क्या सुन्दर कहा गया है:- न जातु कामःकामानामुपभोगेन शाम्यतिहविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते - कि विषय भोग की इच्छा विषयों का उपभोग करने से कभी शान्त नहीं हो सकती। घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्ज्वलित होने वाली आग की भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है।अष्टावक्रजी स्पृहा के गलने को लेकर कहा है कि : 'क्व धनानि क्व मित्राणि गलिता स्पृहा ।जब मेरी इच्छा गल गई तब कहां धन है, कहां मित्र हैं, कहां मेरे विषयरूपी दस्यु ( लुटेरे) हैं, कहां शास्त्र हैं और कहां विज्ञान है! वही मस्तराम का भाव : चाह नहीं, चिंता नहीं, मनवां बेपरवाह।जाको कछू न चाहिए, सो जग साहंसाह।
मनुस्मृति कहती है : 'अकामस्य क्रिया काचिद्
दृश्यते नेह कर्हिचित्। यद्यद्धि कुरुते किंचित् तत्तत्
कामस्य चेष्टितम्'-
'इच्छा को लोग एक भाव समझते हैं, लेकिन जरा ध्यान
से देखें तो इच्छा एक अभाव है। किसी चीज का न
होना, कोई अपूर्णता ।' शिवानंदजी कहते हैं कि 'डिज़ायर इज़ पावर्टी' इच्छा दरिद्रता है।इच्छा की यात्रा को तो हृदय में पहुंचना ही है क्योंकि वह स्वयं उद्भूत भी वहीं से होती है: 'भुवनं मनसो नान्यदन्यन्न हृदयान्मनः। अशेषा हृदये तस्मात्कथापरिसमाप्यते।'अर्थात् संसार मन से भिन्न नहीं है, मन हृदय से भिन्न नहीं है, अतः समस्त कथा हृदय में ही समाप्त होती है । इच्छा की 'डीपनिंग' 'हृदयस्थो भगवान मंगलाय तनो हरिः' तक ले जाएगी। गोस्वामीजी वह इच्छा करते हैं जो सबसे सम्बन्ध जोड़ती है, न कि ऐसी कि जो सम्बन्ध तोड़ती है। इसलिए वह विकास और विस्तार को सुनिश्चित करने वाली स्पृहा रखते हैं, वह स्पृहा जिससे मैथ्यू आर्नल्ड की वह पंक्ति सच लगने लगती है
: The same heart beats in every human
breast. वही एक हृदय हर मानव वक्षस्थल में
धड़कता रहता है। बात इस हृदय की ही है और इसीलिए गोस्वामीजी 'हृदयेऽस्मदीये' शब्द के माध्यम से बस उसे ही रेखांकित करते हैं। शतपथ ब्राह्मण का निर्देश भी है : 'न ह्युक्तेन मनसा किंचन संप्रति शक्नोति कर्तुम्' कि अयुक्त मन से कुछ भी करना संभव नहीं है।और जब हम एक ही सद स्पृहा लालसा इच्छा कामना लेकर चले,उसके लिए कर्म करेगें तो वह हमें प्राप्त होगी ही।
।।सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।।
गोस्वामीजी कहते हैं कि- 'सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे', यहां भी उसी आग्रह के साथ कह रहे हैं कि 'मैं सत्य कहता हूँ।' मार्कण्डेय पुराण में भी यही कहा गया : 'सत्यं चोक्तं परो धर्मः स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः' सत्य- भाषण सबसे बड़ा धर्म है। सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है, बल्कि ऋग्वेद तो स्वर्ग क्या धरती कोभी सत्य प्रतिष्ठित मानता था- 'सत्योनोत्तमिता भूमिः' भूमि सत्य द्वारा प्रतिष्ठित है।गोस्वामीजी 'मैं' को वदामि कह कर सामने लाया हैं।फिर तत्काल कहते हैं : 'भवानखिलान्तरात्मा' आप सबके अन्तरात्मा ही हैं,न केवल मेरे बल्कि सबके इसलिए यह एक समस्वर 'मैं' है । यह 'मैं' किसी तरह की अस्मिताई भक्ति के रूप में नहीं लिया जा सके, इसीलिए वे 'भवान खिलान्तरात्मा' 'मैं' और 'अखिल' दोनों को एक सांस में बोलते हैं क्योंकि वे आत्म-रति में ग्रस्त होने का दूर तक भी संकेत नहीं देना चाहते। उनके 'मैं' और 'अखिल एक दूसरे को प्रतिबिम्बित करते हैं। गोस्वामीजी के समेकन की यह एक शैली है। कई बार लोग कहते हैं कि कविता में 'मैं' शैली छायावाद से आई। लेकिन उसके बहुत बहुत पहले गोस्वामीजी ने 'मैं' शैली को खूब जमकर अपनाया है देखें
, 'मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा', जेहि विधि नाथ होइ हित मोरा','कबित बिबेक एक नहिं मोरें', 'सोइ भरोस मोरे मन भावा', , 'तेहि बल मैं रघुपति गुन गाथा',
'ताते मैं अति अलप बखाने', 'सो उमेस मोहि पर अनुकूला'आदि ढेरों उदाहरण हैं। गोस्वामीजी के इन शुरुआती कथनोंमें 'मैं' का जबर्दस्त निदर्शन है। सोचिए कि एक पूरीपरंपरा है जो 'मैं' को खत्म करने पर तुली हुई है। यहां तक कि कबीरजी भी 'मैं मैं मेरी जिनि करै, मेरी मूल विनास / मेरी पग का पौंखड़ा, मेरी गल की फाँस'- कहते हैं। गोस्वामीजी की एक सब्जेक्टिविटी है। यह 'आत्मपरकता' अपने आप में अहंकृति नहीं है बल्कि एक तरह से 'स्व' का उद्भावन है, जयशंकर प्रसादजी की कामायनी की ये पंक्तियां भी कुछ कहती हैं
'मैं हूं, यह वरदान सदृश / क्यों लगा गूंजने कानों में / मैं भी कहने लगा, रहूँ मैं / शाश्वत नभ के गानों में ।' गोस्वामीजी जब यह कहते हैं कि आप सबके अन्तरात्मा ही हैं तो वे पूरी कायनात में ईश- संचार देखते हैं, हमारे यहां ईश्वर को अंतर्पुरुष, अंतर्यामी, घटघटवासी, जगदात्मा,विश्वंभर, विश्वात्मा, सर्वव्यापी, सर्वांतर्यामी आदि कहा गया तो वह भी इसीलिए कि वह सभी के भीतर है। यह सब कितना रहस्यमय है? आपके भीतर वह कौन सा तहखाना है जहां वह कोई बैठा हुआ है, वहां न तो नेत्र जाता है, न वाणी, न मन (न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः- वह कोई
जिसे न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न
पानी गला सकता है और न वायु सुखा सकता है। हमारे
भीतर एक जासूस है। हमारे भीतर एक साक्षी है। 'आत्मैव ह्वात्मनः साक्षी'- । इससे भागकर कहां जाया जाएगा? हमारी सारी चतुराइयों के सामने यह ‘निर्विकल्प'? इसे भेष बदलकर नहीं भरमाया जा सकता। यह अव्यक्त और अशरीरी है। इसे मारा नहीं जा सकता कि चलो इसके वध के जरिये ही इससे पिंड छूटे । गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत!- हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है यही आत्मा परमात्मा है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश परमात्मा में गुंथा हुआ है । ( मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव-)
भगवान कृष्ण यही तो कहते हैं: ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति - कि ईश्वर सभी प्राणियों के हृदयमें विराजमान है। 'सत्यं वदामि,' यथा- 'सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।' आप अखिलान्तरात्मा अन्तर्यामी हो, अतः सबकी जानते हो। और आप हमें भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे। हे रघुपुङ्गव रघुकुलमें श्रेष्ठ आप हमें 'निर्भरां भक्ति देवें । निर्भर भक्तिके दो अर्थ होते हैं। एक तो परिपूर्ण, अविचल और अतिशय'। यथा-निर्भर प्रेम मगन मुनि ज्ञानी । कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥', 'अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई।', 'अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा प्रगटे हृदय हरन भव भीरा ॥', 'अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव। जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोई पाव ॥' , 'तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिये।
दूसरा अर्थ है-'वह भक्ति जिसमें मनुष्य अपनी शरीरयात्रा तथा आत्मयात्राके निर्वाहका सम्पूर्ण भार श्रीजानकीनाथके चरणारविन्दोंमें समर्पण करके निश्चिन्त हो जाता है। यहाँ दोनों भाव हैं।
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।कामादि दोष-काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर षट् विकार इन विकारोंके रहनेसे भगवान्को प्राप्ति दुर्लभ है। कहा भी है- 'काम आदि मद दंभ न जाके। तात निरंतर मैं बस ताके ॥ 'तात तीन अति प्रवल खल काम क्रोध अरु लोभ ।' इसीसे इनमें भी 'काम' को ही प्रथम कहा गया उत्तरार्द्धमें योग और क्षेम दोनोंकी याचना की। 'भक्तिं प्रयच्छ' यह योग और 'कामादिदोषरहितं कुरु' यह क्षेम है। भक्तका मन निर्मल होता है पर मायावश कुसङ्गादि पाकर उनका मन भी मैला हो जाता है। देखिये भक्तप्रवर श्रीनारदजीके 'सहज बिमल मन' में कामके जीतनेका अहङ्कार, विश्वमोहिनीकी प्राप्तिका लोभ और उसके न मिलनेपर क्रोध सभी विकार उत्पन्न हो गये हैं। काम-क्रोधादि भक्तोंके शत्रु हैं, सदा घातमें लगे रहते हैं। ' इसीसे गोस्वामीजी भक्तिकी याचना करके उसकी कामादिसे रक्षा भी माँगते हैं।'नान्या स्पृहा' अर्थात् कोई काङ्क्षा नहीं है, यह कहकर अपनेको अकिंचन बताया और इसकी पुष्टताके लिये 'सत्यं वदामि' और 'अखिलान्तरात्मा' कहा। इस प्रकार अपनेको भक्तिका अधिकारीठहराकर तब भक्ति माँगते हैं। क्योंकि जो कुछ नहीं चाहता वही भक्तिका अधिकारी है, उसीको भक्ति मिलती है। यथा- 'बहुत कीन्ह प्रभु लषन सिय नहिं कछु केवट लेइ। बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बर देइ ॥'
भक्ति माँगनेका भाव यह है इससे बढ़कर कोई लाभ नहीं है।
यथा- 'लाभ कि कछु हरि भगति समाना । जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ॥ यह यह याचना इसी काण्डमें क्यों की गयी है? यह श्लोक श्रीरामवन्दना और श्रीहनुमान्जीकी वन्दनाके बीचमें क्यों रखा ? प्रथम शंकाके समाधानके लिये पिछले चार काण्डोंका सिंहावलोकन अति संक्षिप्तरूपमें करना पड़ेगा। बालकाण्डमें कहा है कि स्वान्तः सुखकी प्राप्ति चाहिये, इसके लिये स्वान्तःस्थ ईश्वरका दर्शन चाहिये। ईश्वर कौन हैं और उनकी प्राप्तिका साधन क्या है यह 'रामाख्यं ईशं हरिम्' और 'यत्पादप्लवमेकमेव हि' से बताया। सात्त्विक श्रद्धासे धर्माचरण करनेसे वैराग्य होता है यह 'भरत चरित करि बिरति' से बताया। सद्गुरु संत संगति बिना श्रद्धा, धर्म, वैराग्य और ज्ञानकी प्राप्ति नहीं यह अरण्य काण्ड में बताया। वैराग्यादि साधनोंकी प्राप्ति 'राम' महामन्त्रके अनुष्ठानसे होगी यह किष्किन्धाकाण्डमें कहा। जब पूर्वोक्त साधनोंसे मोक्ष प्राप्तिकी शुभवासना भी निःशेष हो जाती है, तब इन्सान भक्तिका अधिकारी बनता हैं, यह इस श्लोकमें बताया। दूसरी शंकाका समाधान यह है कि भक्तिका अधिकारी साधक यद्यपि प्रार्थना कर रहा है सही तथापि केवल उसकी याचनापर भगवान् उसे वह अनुपम भक्तिरस थोड़े ही दे देंगे। वे देखते हैं कि इसकी पीठपर कौन है, किसका सहारा लेकर यह आया है। किसी महान् भक्तका सहारा लेकर आया होगा तो उसकी मुरव्वतसे देना ही पड़ेगा। अतः अगले श्लोकमें श्रीहनुमान्जीकी वन्दना है जो कैसे बलवान रक्षक हैं यह श्लोक तथा काण्डभरसे स्पष्ट है। भगवान् जिनके वशमें हैं वही पीठपर हैं। इससे यह जनाया कि श्रीरामभक्तिकी प्राप्तिके लिये इनकी कृपाका सम्पादन आवश्यक है। 'कामादिदोषरहितं कुरु' कहनेका भाव कि मेरे हृदयमें श्रीसीता - अनुजसहित धनुषबाण धारण करके आप बसिये, इससे कामादि निकट न आ सकेंगे। यथा- 'तब लगि हृदय बसत खल नाना। लोभ मोह मत्सर मद नाना ॥ जब लगि उर न बसत रघुनाथा धरे चाप सायक कटि भाथा ॥' इसी से तो अत्रि, शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि महर्षियोंने माँगा है कि 'अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धरा राम। मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥ ' मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥ जय श्री राम जय हनुमान।।
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