गुरुवार, 7 नवंबर 2024

✓मानस चर्चा ।।दुंदुभी ऋष्यमूक और मतंग का शाप ।।

मानस चर्चा ।।दुंदुभी ऋष्यमूक और मतंग का शाप ।।
आधार मानस किष्किन्धाकाण्ड  की पक्तियां _
इहाँ शाप वश आवत नाहीं।
तदपि सभीत रहौं मन माहीं ॥
सुन सेवक दुःख दीन दयाला। 
फरकि उठे दोउ भुजा विशाला ॥ 
ऋष्यमूक पर्वत पर शाप के कारण बालि नहीं आता है,फिर भी सुग्रीव भयभीत रहते हैं। सुग्रीव की इस दुःख भरी बातों को सुनकर प्रभु शाप की बात सुग्रीव से पूछते हैं और सुग्रीवजी सभी घटना सुनाते हैं।आइए हम भी इस प्रासंगिक कथा का आनंद ले।
सुनत वचन बोले प्रभु, कहहु शापकी बात ॥
दुन्दुभि दैत्य को कवन विधि, बालि हत्यो तेहि तात ॥

समदर्शी शीतल सदा, मुनिवर परम प्रवीन ॥
मोहि बुझाय कहहु सब, शाप कौन हित दीन ॥ 

इमि बूझत भये कृपानिकेता।
बालिहि शाप भयो केहि हेता। 

बोले तब कपीस मन लाई।
दुन्दुमि दैत्य महाबलदाई।
मल्लयुद्धकी गति सब जाने।
और बली नहिं कोउ मन माने।
एकवार जलनिधितट आयो।
जायके जलनिधि माँझ अथायो ॥
मथत सिंधु व्याकुल सब गाता।
जीव जंतु सब भये निपाता ॥
तब अकुलाय सिंधु चलि आवा।
वचन विचारिहि ताहि सुनावा ॥
तुम बल सरवर और न कोऊ ।
वचन विचारि कहौं मैं सोऊ ॥
हिमगिरि बल वरणो नहिं जाई।
तेहि जीतन कर करहु उपाई ॥

वचन सुनत ताहीं चलि आयो।
देखि हिमाचल अतिमन भायो ॥
ताल ठोक हिम लीन्ह उठाई ।
तब हिमगिरिबहु विनय सुनाई ॥ 
तुम्हरे बल सरवर मैं नाहीं ।
ताते करौं न मान तुम्हाहीं ॥ 
पंपापुर तुमही चलि जाहू ।
बालि महाबलनिधि अवगाहू ॥

सुनत वचन तहँही चलि आवा।
बालि बालि कहकै गुहरावा ॥ 
वेष किये सो महिष कर, गर्व बहुत मन माहिं ॥
आयो निकट सो गर्ज कर, मनहु तनक भय नाहिं ॥ 
मही मर्दि तरु करै निपाता।
गर्जे घोर गिरा जनु घाता ॥
ठोकेउ ताल वज्र जनु परहीं ।
तेहि कर मर्म जानि सब डरहीं ॥
पंपापुर व्याकुल सब काहू ।
चंद्र ग्रसन जनु आयो राहू ॥
सुनत बालि धावा तत्काला।
देखि असुर भुजदंड कराला ॥

भिरे युगल करिवर की नाई।
मल्लयुद्ध कछु बरणि न जाई ॥
चारि याम सब कौतुक भयऊ।
मुष्टि प्रहार तासु कपि दयऊ ॥

गिरा अवनि तब शैल समाना।
जीव जन्तु तरु टूटेउ नाना ॥
पुनि तेहि बालि युगल करि डारा।
उत्तर दक्षिण कीन्ह प्रहारा ॥
तब वह राक्षस पृथ्वीपर पर्वतके समान गिरा तब जीवजन्तु उसके नीचे दबे अनेक वृक्ष टूट गये ॥ ७ ॥ फिर बालिने उसे दो टुकड़े कर उत्तर दक्षिणकी ओर फेंक दिया ॥ ८ ॥
तेहि गिरिपर मुनि कुटी सुहाई।
रुधिर प्रवाह गयो तहँ धाई ॥
ऋषि मतंग कर तहाँ निवासा।
गयो सो ऋषि मज्जन सुखरासा ॥
उस पर्वतके ऊपर मुनिकी सुन्दर कुटी थी तहां रुधिरके छींटे जाकर गिरे ॥ तहां मतंगऋषिका आश्रम था और वे सुखसागर ऋषि स्नानको गये ॥ 
मज्जन करि मतंग ऋषि आये।
देख कुटी अति क्रोध बढ़ाये ॥ 
तबहि विचार कीन्ह मन माहीं।
यक्ष एक चलि आवा ताहीं ॥

तिन तब सकल कही इतिहासा।
सुनि मतंग भय क्रोध निवासा ॥ 
दीन्ह शाप तब क्रोध करि, नहिं मन कीन्ह विचार।
बालि नाश गिरि देखत, होइ जाय तनु छार ॥ 

ताहि भय यहाँ बालि नहिं आवत।
ऋषिके वचन मानि भय पावत् ॥
तेहि भरोस इहि गिरिपर रहऊँ।
बालि त्रास नहिं विचरत कहउँ ॥ 

एहि दुखते प्रभु दिन औ राती।
चिंता बहुत जरति अति छाती ।।
जानहु मर्म सकल रघुनाथा
इहां रहौं हनुमत ले साथा ॥

सो वृत्तान्त बालि सब जाना।
यहाँ न आवत कृपा निधाना ॥
सुनि सुग्रीव वचन भगवाना।
बोले हरि हँसि धरि धनु बाना ॥
यह सुग्रीवके वचन सुनकर भगवान् हँसकर धनुष धारणकर बोले ॥ 
सुनु सुग्रीव मैं मारिहौं, बाली एकहि बाण ॥
ब्रह्म रुद्र शरणागत, गये न उबरहिं प्राण ॥ 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

✓मानस चर्चा।।जाकी रही भावना जैसी।।

मानस चर्चा।।जाकी रही भावना जैसी।।
मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥
अर्थात् मन्त्र में, तीर्थ में, ब्राह्मण में, देवता में, ज्योतिषी में, वैद्य में और गुरु में मतलब सीधा - सच्चा यह है कि जैसी आपकी भावना होगी उसी प्रकार का फल आपको प्राप्त होगा । हमारे यहाँ कहा जाता है कि 'कंकर - कंकर में शंकर हैं।' अर्थात् प्रत्येक कण में भगवान् विद्यमान
हैं। अगर आप पत्थर में भी भगवान् की भावना भाते हो
तो वह आपके लिए भगवान् है। और अगर आपकी भावना ही नहीं है तो चाहे आप चार धाम की यात्रा कर लो। सब व्यर्थ है।
मुगल काल की बात है। बादशाह अकबर का दरबार लगा हुआ था। उसी समय वहाँ संगीताचार्य तानसेन पधारे। बादशाह ने उनका यथोचित सम्मान किया और उनसे एक भजन प्रस्तुत करने का आग्रह किया।
संगीताचार्य ने भजन प्रस्तुत किया-
जसुदा बार - बार यों भाखै ।
है कोऊ ब्रज में हितु हमारो, चलत गोपालहिं राखै ॥
उक्त पद का अर्थ बादशाह की समझ में नहीं आया। उन्होंने दरबारियों से इसका अर्थ स्पष्ट करने को कहा। तब तानसेन ही बोले-
'जहाँपनाह' इसका अर्थ है- 'यशोदा बार-बार कहती है, क्या इस ब्रज में हमारा कोई ऐसा हितैषी है, जो गोपाल को मथुरा जाने से रोक सके।
यह सुनकर सर्वप्रथम सभा में उपस्थित अबुल फैजल फैज बोले- 'नहीं, नहीं! शायद आपको इसका अर्थ समझ में नहीं आया। इस पद्य में प्रयुक्त बार-बार का अर्थ 'रोना' है। अर्थात् यशोदा रो-रो कर कहती है। '
बीरबल बोले- 'मेरे विचार से तो बार-बार का अर्थ द्वार-द्वार है। 
संयोगवश रहीम कवि भी सभा में उपस्थित थे। वे बोले- 'नहीं, नहीं, बार-बार का अर्थ बाल-बाल अर्थात् 'रोम-रोम' है। '
इतने में वहाँ उपस्थित एक ज्योतिषी महाशय उठ खड़े हुए और जोश से भरकर बोले- मेरी दृष्टि से तो इनमें से एक भी अर्थ ठीक नहीं है। वास्तव में 'बार' का अर्थ 'वार' अर्थात् दिन है, यानी यशोदा प्रतिदिन
कहती हैं । '
उक्त सभी बातें सुनकर बादशाह बड़े ही आश्चर्यचकित हो गए और सोचने लगे बड़ा ताज्जुब है कि एक ही शब्द के हर कोई अलग-अलग अर्थ कर रहा है। और वे बोले, 'यह कैसे सम्भव है कि एक ही शब्द के इतने अर्थ हों । '
यह सुनकर रहीम कवि बोले- 'जहाँपनाह! एक ही शब्द के
अनेक अर्थ होना यह कवि का कौशल है और इसे 'श्लेष' कहते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति किसी शब्द का अर्थ अपनी-अपनी परिस्थिति और चित्तवृत्ति के अनुसार लगाता है। मैं कवि हूँ और किसी भी काव्य का प्रभाव कवि के रोम-रोम पर होता है, इसलिए मैंने इसका अर्थ 'रोम-रोम' लगाया । तानसेन गायक हैं, उन्हें बार-बार राग अलापना पड़ता
है, इसलिए उन्होंने 'बार- बार' अर्थ लगाया। फैजी शायर है और उन्हें करुणा भरी शायरी सुन आँसू बहाने का अभ्यास है, अतः उन्होंने इसका अर्थ रोना लगाया। बीरबल ब्राह्मण हैं। उनको घर-घर घूमना पड़ता है, इसलिए उनके द्वारा 'द्वार-द्वार' अर्थ लगाना स्वाभाविक है। बाकी बचे
ज्योतिषी महोदय, तो उनका तो काम ही है- दिन - तिथि - ग्रह और नक्षत्रों आदि का विचार करना इसलिए उन्होंने इसका अर्थ 'दिन' लगाया।
इसीलिए कहा भी जाता है कि-
'जाकी रही भावना जैसी । '
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

बुधवार, 6 नवंबर 2024

✓मानस चर्चा।बाली एवं सुग्रीव की माता व अन्य कथा।

मानस चर्चा ।। बाली एवं सुग्रीव की माता व अन्य कथा।।
सखा वचन सुनि हरषे, कृपासिन्धु बल सींव ॥
कारन कवन वसह वन, मोहि कहहु सुग्रीव ॥ 

पूछहि प्रभु हँसि जानहिं ताही। महावीर मर्कट कुलमाही ॥
तव अस्थान प्रथम केहि ठामा। कहु निज मात पिता कर नामा ॥ 
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।कहुँ आदि से उत्पति गाई ।।
ब्रह्मा नयनन कीच निकारी।ले अंगुरि भुइँ ऊपर डारी ॥
वानर एक प्रगट तह होई।चंचल बहु विरंचि बल सोई ॥
तेहिकर नाम धरा विधि जानी।ऋच्छराज तेहि सम नहिं ज्ञानी ॥
विधि पद नाय कीश अस कहई।आयसु कहा मोहिं प्रभु अहई ॥
विचरहु वन गिरिवन फल खावहु।मारहु निश्वर जे जहँ पावहु ॥
सो ब्रह्मा की आज्ञा पाई ।दक्षिण दिशा गयउ रघुराई ॥
ऋच्छराज तहँ विचरई, महावीर बलवान ॥
निश्वर पावती ते हने, शिरमें कठिन पषान ॥ 
फिरत दीख इक कुंड अनूपा * जल परछाई दीख निज रूपा ॥ 
तब कपि शोच करत मन माहीं * केहि विधि रिपु रहिहहि ह्यां आहीं ॥
ताहि देख कोपा कपि वीरा * सब दिशि फिरा कुण्डके तीरा ॥
जो जो चरित कीन्ह कपि जैसा ।सो सो चरित दीख तह तैसा ॥
गरजा कीश सोइ सो बोला *कूद परा जल माहीं डोला ॥
सो तनु पलट भई सो नारी।अति अनूप गुण रूप अपारी ॥
सुनहु उमा अति कौतुक होई *आइ बहुरि ठाढ़ी भै सोई ॥
सुरपति दृष्टि परी तेहि काला।तेहि तब बिंदु परा तेहि बाला।
मोहे भानु देखि छबि सींवा छूटा बिंदु परा तेहि ग्रीवा ॥
दोहा - इंद्र अंश बालि भयो, महावीर बलधाम ॥
दिनकर सुत दूसर भयो, तेहि सुग्रीवउ नाम ॥ 
पुनि तत्काल सुनहु रघुवीरा।नारी पलट भयो सोइ वीरा।।
तब ऋच्छराज प्रीति मन भयऊ ।हमहिं संग ले विधि पहँ गयऊ ॥
करि प्रणाम सब चरित बखाना * कह अज हरि इच्छा बलवाना ॥
तब विधि हमहिं कहा समुझाई * दक्षिण दिशा जाहु दोउ भाई ॥
किष्किन्धा तुम कर सुस्थाना।रंग भोग बहु विधि सुख नाना ॥
जो प्रभु लोक चराचर स्वामी।सो अवतरहिं नाथ बहु नामी ॥
रघुकुलमणि दशरथ सुत होई * पितु आज्ञा विचरहिं वन सोई ॥
नर लीला करिहैं विधिनाना ।पैहौ दरश होइ कल्याना ॥ ८ 
दोहा-तब हर्षे हम बंधु दोउ, सुनिकै विधिके वैन ॥
* तप जप योग न पावहीं, सो हम देखब नैन ॥ 
विधि पद वंदि चले दोउ भाई।किष्किन्धा में आये धाई ॥
बाली राज कीन्ह सुरत्राता।वन बसि दैत्य हने दोउ भ्राता ॥
मय दानव के सुत दोउ वीरा।मायावी दुंदुभि रणधीरा ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।विधिगति अलख जानि नहिं जाई 
आगे की कथा गोस्वामीजी सुनाते हैं 
नाथ बालि अरु मैं दोउ भाई। प्रीति रही कछु वरणि न जाई ॥१॥
मयसुत मायावी तेहि नांऊँ ।आवा सो प्रभु हमरे गांऊँ ॥२॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।


मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

,✓मानस चर्चा ।।निमी की पलको पर निवास की कथा।।

,✓मानस चर्चा ।।निमी  की पलको पर निवास की कथा।।
अस कहि फिरि चितये तेहि ओरा । सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ॥ भये बिलोचन चारु अचंचल । मनहु सकुचि निमि तजे दिगंचल ॥श्रीसीताजीके मुखचन्द्रपर ( श्रीरामजीके)नेत्र चकोर हो गये। अर्थात् उनके मुखचन्द्रको टकटकी लगाये देखते रह गये ॥ सुन्दर दोनों नेत्र स्थिरहो गये, मानो निमिमहाराजने संकोचवश हो पलकों परके निवासको छोड़ दिया ।'फिरि चितये तेहि ओरा' । 'फिरि चितये'अर्थात् फिरकर देखा – इस कथनसे पाया गया कि सखी पीछेसे आयी । श्रीरामजी लताकी ओटमें हैं, इसीसेश्रीसीताजीने श्रीरामजीको नहीं देखा और श्रीरामजीने सीताजीको देख लिया । चन्द्र चकोरको नहीं देखता, चकोर ही चन्द्रको देखता है।  'सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ' । 'भये चकोरा' अर्थात् चकोरकी तरह एकटक देखते रह गये । यथा - 'एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचंद्र मुखचंद्र चकोरा ॥ ' यही बात आगे कहते हैं- 'भये बिलोचन चारु अचंचल'। चकोर पूर्णचन्द्रपर लुब्ध रहता है, यथा- 'भये मगन देखत मुख सोभा । जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥' नेत्रोंको चकोर कहकर जनाया कि नेत्र शोभापर लुभा गये ।'सिय मुख' को पूर्णचन्द्र कहनेका भाव कि श्रीकिशोरीजीके नेत्र और मुखकी ज्योति पूर्ववत्
जैसी-की-तैसी ही बनी रही और श्रीरामजीमें सात्त्विक भाव हो आया। अतएव ये ही आसक्त हुए, जैसे
चकोर चन्द्रमापर आसक्त होता है, चन्द्रमा चकोरपर नहीं । 
श्रीरघुनाथजीके नेत्र  श्रीसीताजीकी छबिपर
अचंचल हो गये; इससे यहाँ कोई कारण विशेष जान पड़ता है। कारण क्या है?मनहु सकुचि निमि तजे दिगंचल' 
। निमि राजाका वास सबकी पलकोंपर है। श्रीसीताजी
निमि कुलकी कन्या हैं और श्रीरामजी उनके पति हैं। लड़का-लड़की (दामाद और कन्या) दोनों वाटिकामें एकत्र हुए, इसीसे मानो राजा निमि सकुचाकर पलकोंको छोड़कर चले गये कि अब यहाँ रहना उचित नहीं। पलक छोड़कर चले गये, इससे पलक खुले रह गये।  निमि यह सोचकर चले गये कि यहाँ हमारे रहनेसे इनको संकोच
होगा, जिससे इनके उपस्थित कार्यमें विघ्न होगा। अपनी संतानका शृंगार कुतूहल देखना मना है। पलकोंपर वास रहनेसे उनका खुलना और बंद होना अपने अधिकारमें था। जब वास हट गया तब तो वे खुले ही रह गये। आइए हम निमी महाराज के पलको पर वास करने की कथा का भी आनंद ले। कथा इस प्रकार है।
मनुजीके पुत्र इक्ष्वाकुजीके सौ पुत्रोंमेंसे विकुक्षि, निमि और दण्ड तीन पुत्र प्रधान हुए । इस तरह राजा निमि भी रघुवंशी थे । सत्योपाख्यानमें भी यही कहा है।महर्षि गौतमके आश्रमके समीप वैजयन्तनामका नगर बसाकर ये वहाँका राज्य करते थे । निमिने एक सहस्र वर्षमें समाप्त होनेवाले एक यज्ञका आरम्भ किया और उसमें वसिष्ठजीको होताअर्थात् ऋत्विज्के रूपमें वरण किया। वसिष्ठजीने कहा कि पाँच सौ वर्षके यज्ञके लिये इन्द्रने मुझे पहले ही वरण कर लिया है। अतः इतने समय तुम ठहर जाओ । राजाने कुछ उत्तर नहीं दिया, इससे वसिष्ठजीने यह समझकर कि राजाने उनका कथन स्वीकार कर लिया है, इन्द्रका यज्ञ आरम्भ कर दिया, इधर राजा निमिने भी उसी समय महर्षि गौतमादि अन्य होताओं द्वारा यज्ञ प्रारम्भ कर दिया । इन्द्रका यज्ञ समाप्त होते ही 'मुझे निमिका यज्ञ कराना है' इस विचारसे वसिष्ठजी तुरंत ही आ गये। राजा उस समय सो रहे थे । यज्ञमें अपने स्थानपर गौतमको होताका कर्म करते देख वसिष्ठजीने सोते
हुए राजाको शाप दिया कि 'इसने मेरी अवज्ञा करके सम्पूर्ण कर्मका भार गौतमको सौंपा है, इसलिये
यह देहहीन हो जाय।श्रीमद्भागवतमें शापके वचन ये हैं— 'निमिको अपनी विचारशीलता और पाण्डित्यका बड़ा घमण्ड है, इसलिये इसका शरीर पात हो जाय । 
वसिष्ठजीने शाप दिया है, यह जानकर राजा निमिने भी उनको शाप दिया कि इस दुष्ट गुरुने मुझसे बिना बातचीत किये अज्ञानतापूर्वक मुझ सोये हुएको शाप दिया है, इसलिये इसका देह भी नष्ट हो जायगा। इस प्रकार शाप देकर राजाने अपना शरीर छोड़ दिया। श्रीमद्भागवतमें
शुकदेवजीने कहा है कि निमिकी दृष्टिमें गुरु वसिष्ठका शाप धर्मके प्रतिकूल था, इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि 'आपने लोभवश अपने धर्मका आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी पात हो जाय - अब  महर्षि गौतम आदिने निमिके शरीरको तेल आदिमें रखकर उसे यज्ञकी समाप्तितक सुरक्षित रखा । यज्ञकी समाप्तिपर जब देवता लोग अपना भाग ग्रहण करनेके लिये आये तब ऋत्विजोंने कहा कि यजमानको वर दीजिये । देवताओंके पूछनेपर
कि क्या वर चाहते हो, निमिने सूक्ष्म शरीरके द्वारा कहा कि देह धारण करनेपर उससे वियोग होनेमें बहुत दुःख होता है, इसलिये मैं देह नहीं चाहता। समस्त प्राणियोंके लोचनोंपर हमारा निवास हो । देवताओंने यही
वर दिया। तभी से लोगोंकी पलकें गिरने लगीं। 
देवताओंने आशीर्वाद दिया कि राजा निमि बिना शरीरके ही प्राणियोंके नेत्रोंपर अपनी इच्छाके अनुसार
निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्म शरीरसे भगवान्‌का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरनेसे उनके
अस्तित्वका पता चलता रहेगा ।  उसी समयसे पलकोंका नाम निमेष हुआ। इस कुल में उत्पन्न राजा इसी समयसे रघुकुल से पृथक हो गए और वैजयन्त का नाम मिथिला पड़ा।निमी महाराज की विस्तृत कथा आप हमारे मिथिलेश/मिथिलापति की कथा को देखकर/सुनकर
अवश्य जाने और समझे।आप सब पर सदा प्रभु कृपा बनी रहे।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।


✓मानस चर्चा।।सर्वस्व दान के बाद भी सर्वस्व अपना।।

मानस चर्चा।।सर्वस्व दान के  बाद भी सर्वस्व अपना।। 
सर्बस दान दीन्ह सब काहूँ । जेहिं पावा राखा नहिं ताहूँ ॥ 
- सबने सर्वस्वदान दिया, जिसने पाया उसने भी नहीं रखा। इस भाँति सम्पत्तिका हेर-फेर अवध में हो गया। किसी समय सोमवती अमावस्या लगी, सब मुनियोंकी इच्छा हुई कि गोदान करें। मुनि सौ थे और एक ही के पास गौ थी। जिसके पास गौ थी उसने किसीको दान दिया, उसने भी दान कर दिया । इस भाँति वह गौ दान होती
गयी । अन्तमें फिर वह उसी मुनिके पास पहुँच गयी जिसकी पहले थी और गोदानका फल सबको हो गया। लालच किसीको नहीं और देनेकी इच्छा सबको। ऐसी अवस्थामें सम्पत्ति घूम-फिरकर जहाँ-की-तहाँ आ जाती है
और सर्वस्व दान के  बाद भी सर्वस्व अपना ही रहता है।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2024

✓आज एकादशी है

आज एकादशी है
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भगवान राम सुग्रीवजी से कहते हैं  कि जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। अर्थात् सरल मन मनुष्य ही मुझे पाता है। इस संदर्भ में मुझे एक सच्चे भक्त की कहानी, श्री राजेश्वरानंदजी रामायणी के  द्वारा कही हुई याद आ रही है,इस कथा में  भगवान की बड़ी विलक्षण महिमा है,
असल में भगवान का मिलना उतना कठिन नहीं है, जितना व्यक्ति का निर्मल  होना,सरल होना ।सुंदर सरल स्वभाव सबसे कठिन है, इतना सरल की सरलता से विश्वास कर ले ।आइए हम आदरणीय गुरु श्रेष्ठ राजेश्वरानंदजी रामायणी  की इस कथा का आनंद लेते हैं और निर्मल मन जन सो मोहि पावा को , सरल के अर्थ एवं भाव दोनों के साथ  हृदयंगम  करते हैं।
एक व्यक्ति था खाता खूब था और काम कुछ ना करे, कैसे
करें इतना ज्यादा खा लेता कि जहां खाए वही लुढ़क जाए,घर वाले परेशान  हो गए । एक दिन घर वालों ने कहा जाओ घर से ,निकल जाओ खाते दो-तीन शेर हो और काम कुछ नहीं करते, तो वह भक्त निकल गया घर से ,बिचारा अब जाए कहां तो एक महात्मा दिखे मंदिर के बाहर, महात्मा बढ़िया मोटे ताजे तंदुरुस्त थे सोचा ए खूब खाते होंगे तभी तो बढ़िया हैं वह महात्मा जी के पास आया तब तक महात्मा जी के दो चार शिष्य और आ गए वह भी बढ़िया हट्टे कट्टे थे, अब तो यह सरल भक्त गदगद हो गया | महात्मा जी के चरणों में गिर गया कहा गुरु जी मुझे अपना चेला बना लीजिए महात्मा ने कहा ठीक है बन जाओ तुम भी, यही रहो भजन करो भक्त ने कहा गुरु जी भोजन महात्मा जी ने कहा हां भोजन वह तो बढ़िया दोनों टाइम पंगत में बैठकर पावो प्रेम से । भक्त ने कहा गुरु जी दो टाइम बस, महात्मा जी ने कहा अरे भाई चार टाइम पंगत  चलती है, तुम चारों में बैठ कर खाओ कोई दिक्कत नहीं है । भक्त ने कहा गुरु जी काम क्या करना पड़ेगा ? गुरुजी मुस्कुराए बोले बेटा केवल भगवान की आरती पूजा पाठ में शाम सुबह खड़े रहना है और कोई काम नहीं है ।
अब तो भक्त प्रसन्न हो गया कि काम कुछ करना नहीं और
खाना पेट भर,खाने  लगा ,रहने लगा अब उसे क्या पता कि मुसीबत यहां भी आ पड़ेगी ।
एक दिन मंदिर में सुबह से चूल्हे आदि कुछ नहीं सुलगे,
भंडारे में सब बर्तन ऐसे ही पड़े हुए हैं, वह सीधा भक्त,अब तो घबरा गया,  सीधे महात्माजी के पास पहुंचा कहा गुरु जी क्या बात है- आज भंडार में कुछ नहीं बन रहा ?
तो महात्मा जी ने कहा हां तुम्हें नहीं पता क्या ?आज
एकादशी है और इस दिन मंदिर में कुछ नहीं बनता सब
निर्जला व्रत रहते हैं, भक्त ने कहा गुरु जी मैं भी रहूं! महात्मा ने कहा वह तो सबको रहना पड़ेगा क्योंकि ना कुछ बनेगा और ना मिलेगा |
भक्त ने कहा गुरु जी अगर आज हमने एकादशी का व्रत कर लिया तो कल हम द्वादशी देख ही नहीं पाएंगे, आपके इतने चेले हैं उनसे कराओ एकादशी | महात्मा जी भी उदार व्यक्ति थे उन्हें दया आ गई, कहने लगे बेटा यहां मंदिर में तो कुछ बनेगा नहीं हां तुम कच्चा सीधा लेकर नदी के किनारे पेड़ के नीचे बना कर खा लो, बना लो
लोगे, आता है भोजन बनाना ।भक्त ने कहा मरता क्या न करता, बना लेगें । महात्मा जी ने कहा जाओ भंडार में से सामान ले लो उसने ढाई सेर आटा,नमक ,आलू सब बांधा और जाने लगा, गुरु जी ने कहा बेटा अब तुम वैष्णव हो गए हो, भगवान को बिना भोग लगाए मत खाना।वह वहां पहुंचकर नदी से जल भर लाया और जैसे ही भोजन बना उसे गुरु जी की बात याद आ गई ,बिना भगवान को भोग लगाए मत खाना, बिचारा सच्चा सरल भक्त ।बुलाने लगा प्रभु को --
राजा राम आइए प्रभु राम आइए, मेरे भोजन का भोग
लगाइए।
नहीं आए भगवान ! फिर भक्त कहने लगा--
आचमनी अरघा ना आरती यहां यही मेहमानी।
सूखी रोटी पावो प्रेम से पियो नदी का पानी । फिर वही धुन शुरू किया
राजा राम आइए, प्रभु राम आइए, मेरे भोजन का, भोग
लगाइए ।
लेकिन भगवान  फिर भी नहीं आए !  तब वह बोला-
पूरी और पकौड़ी भगवन सेवक ने नही बनाई।
और मिठाई तो है ही नहीं, फिर भी भोग लगाओ  भाई।
इतने पर भी जब प्रभु ना आए तो वह सच्चा सरल भक्त, एक ऐसी बात बोल दी कि ठाकुर जी प्रसन्न हो गए, उसने कहा-मैं समझ गया भगवान आप क्यों नहीं आ रहे हैं ।
आप सोच रहे होंगे कि यह रुखा सुखा भोजन और नदी का पानी कौन पिए, मंदिर में छप्पन भोग मिलेगा तो इस धोखे में मत रहना प्रभु, वहां से तो जान बचाकर हम ही आए हैं। ध्यान रखना - भूल करोगे यदि तज दोगे भोजन रूखे सूखे। एकादशी आज मंदिर में बैठे रहोगे भूखे ।
राजा राम आइए प्रभु राम आइए मेरे भोजन का भोग
लगाइए ।
इस सरलता से भगवान प्रकट हो गए और वह भी बड़े
कौतुकी अकेले नहीं आए ।
सीता समारोपित वाम भागम ।
सीता जी के साथ प्रकट हुए अब तो भक्त हैरान, दो भगवान को देखकर एक बार उनकी तरफ देखता तो दूसरी तरफ रोटियों की तरफ, भगवान श्रीराम मुस्कुराए बोले क्या हुआ ? भक्त ने कहा कुछ नहीं प्रभु आइए आप आसन ग्रहण कीजिए, आप आज हमारी थोड़ी बहुत तो एकादशी करा ही दोगे,प्रेम से प्रभु को प्रसाद खिलाया स्वयं पाया और बार-बार प्रभु को  प्रणाम करे और कहे भगवान आप लगते बड़े सुंदर हो लेकिन बुलाने पर जल्दी आ जाया करो देरी मत किया करो |
प्रभु ने कहा ठीक है ।अब प्रभु अंतर्ध्यान हो गए, यहां जब
दूसरी एकादशी आई भक्त ने कहा गुरु जी वहां तो दो
भगवान आते हैं, इतने सीधा में काम नहीं बनेगा और बढ़वा दो गुरुजी ने सोचा बिचारा भूखा रहा होगा उस बार और बढ़वा दिया आज तीन सेर आटा ,नमक, आलू  आदि लिया ,जंगल में प्रसाद बना, भक्त ने पुकारा ।
प्रभु राम आइए, सीता राम आइए, मेरे भोजन का भोग
लगाइए ।
जो भक्त ने पुकारा भगवान तुरंत प्रकट हो गए जैसे प्रतीक्षा ही कर रहे थे लेकिन--
राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर ।
भगवान श्री राम सीता और लक्ष्मण प्रकट हुए, जो इसने
देखा तीनों को प्रणाम तो कर लिया, लेकिन फिर देखे रोटी
की तरफ फिर इनकी तरफ, फिर माथा में हाथ रखा ।
भगवान ने कहा क्या हुआ ? भक्त ने कहा कुछ नहीं कुछ नहीं, अब जो होगा सो होगा आप तो प्रसाद पावो, भगवान ने कहा बात क्या है- बोला कुछ नहीं पहले दिन हमने सोचा कि एक भगवान आएंगे, तो दो आ गए ,अब दो का इंतजाम किया तो आज तीन आ गए ।
एक बात पूछूं भगवान ,भगवान ने कहा पूंछो उसने कहा यह आपके साथ कौन हैं, भगवान ने कहा यह हमारे भाई हैं छोटे भाई हैं, भक्त ने कहा अच्छा भाई हैं, सगे भाई हैं या ऐसे लाए, जोरे के, भगवान ने कहा नहीं नहीं यह हमारे सगे भाई हैं । भक्त ने कहा अच्छा सगे भाई हैं ठीक है लेकिन नाराज ना होना प्रभु, एक बात कहूं हमने ठाकुर जी के भोग का ठेका लिया है कि ठाकुर जी के खानदान भर का ।
भगवान खिलखिला कर हंसे, सीता जी भी मुस्कुरायी,
लक्ष्मण जी सोचने लगे भगवान अच्छी जगह ले आए हैं।
आते ही क्या स्वागत हो रहा है।
भक्त ने कहा कोई बात नहीं आप हमें अच्छे बहुत लगते हैं। आप प्रसाद पायें, तीनों को पवाया जो बचा खुद पाया।
भगवान जब जाने लगे बोला एक बात बताओ, बोले क्या,
अगली एकादशी को कितने  आओगे अभी से बता दो ।
भगवान ने कहा आ जाएंगे और अंतर्ध्यान हो गए अब भक्त परेशान, आश्रम लौटा दिन गुजरे फिर एकादशी आई। महंत जी बोले जाओ उसने कहा जाना ही पड़ेगा यहां तो कुछ नहीं मिलेगा, वहां अलग परेशानी |
गुरुजी ने कहा वहां क्या परेशानी हो गई गुरु जी से बोला
आपने बोला था एक भगवान आएंगे वहां तो दिन प्रतिदिन
बढ़ते ही जाते हैं और आज पता नहीं कितने आएंगे कम से कम तेरह शेर आटा दो और उसी के हिसाब से गुड, आलू ,मिर्च ,मसाला, रामरस ,घी सब दो गुरुजी।
गुरु जी  सोचने लगे कि इतने आटे का क्या करेगा खा तो नहीं , पाएगा जरूर बेंचता होगा, हम पीछे से जाकर पता लगाएंगे। गुरुजी ने समान दिला दिया ,बोले जाओ वह गया पूरी गठरी सिर पर लादकर ले गया। रखा पेड़ के नीचे गठरी और समान। आज उसने चतुराई की भोजन बनाया ही नहीं, सोचने लगा,पहले बुला कर देख लूं कितने लोग आएंगे, अब भोजन बिना बनाए लगा पुकारने--
राजा राम आइए ,सीता राम आइए, लक्ष्मण राम आइए,
मेरे भोजन का भोग लगाइए ।
जो प्रार्थना की भक्त ने ,मानो भगवान प्रतीक्षा ही कर रहे थे ।
बैठ बिपिन में भक्त ने, जब कीन्हीं प्रेम पुकार।
तो कांछन में प्रगट भयो, दिव्य राम दरबार ।
राम जी का पूरा का पूरा  दरबार ही  प्रगट हुआ- श्री सीताराम जी,भरतजी,लक्ष्मणजी, शत्रुघ्नजी, हनुमानजी।
इतने जनों को देखा, चरणों में प्रणाम किया, कहा जय हो, जय हो आपकी, आज तो हद हो गई इतने, हर एकादशी को एक-एक बढ़ते थे आज इतने ।लेकिन मेरी भी एक प्रार्थना सुनो !
बोले क्या ? उसने बोला मैंने भोजन ही नहीं बनाया। वह रखा है समान,अपना बनाओ और पाओ, तो तुम क्यों नहीं बना रहे हो, तो बोला जब हमें मिलना ही नहीं, तो काहे को भोजन बनायें ।
मोते नहीं बनत बनावत भोजन-मोते नहीं बनत बनावत भोजन।आप बनाबहू अपने ,बहुत लोगन संग आयो। बनाओ और पावों।मोते नहीं बनत बनावत भोजन।
यह भोजन मुझसे नहीं बनता आप बनाओ-- और बोला_
प्रथम दिवस भोजन के हित आसन जब मैंने लगाई,
उदर ना मैं भर सक्यो सीय जब सन्मुख आई।
फिर बिनीत आए भाई पर भाई।
निराहार ही रहत आज मोहीं परत दिखाई |
अब तो भूखे ही रहना पड़ेगा-- और बोला_
तुम नहीं तजत सुबान आपनी, हम केते समझाएं ।
श्री हनुमान जी की ओर देखकर बोला--
नर नारिन की कौन कहे, एक बानरहूं संग लाए। मोतें
नहीं बनत बनाए भोजन , इसलिए आप बनाओ । भगवान ने कहा बनाओ भोजन, भक्त नाराज है तो क्या करोगे ।
श्री भरत जी भंडारी बनाने लगे।
चुन के लकड़ी लखनलाल लाने लगे,
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
पोंछते पूंछ से आञ्जनेय चौका को,
पीछे हाथों से चौका लगाने लगे ।
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
चौक, चूल्हे इधर-उधर, शत्रुघ्न साग भाजी ,अमनिया कराने लगे ।
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
भरत जी भंडारे बनाने लगे, लक्ष्मण जी लकडी लाने लगे,
अमनिया शत्रुघ्न जी करने लगे, हनुमान जी चौका साफ
सफाई करने लगे । भक्त पेड़ के नीचे आंख बंद करके बैठा हुआ है, भगवान ने कहा आंख बंद काहे को किए हो खोलो, तो बोला काहे को खोले जब हमें खाने को मिलेगा ही नहीं तो दूसरे को खाते हुए भी तो नहीं देख सकते ।
अब जिस रसोई में सीता मैया बैठी हों वहां बड़े-बड़े सिद्ध
संत प्रकट होने लगे, मैया हमको भी प्रसाद हमको भी प्रसाद मिले । सब प्रगट होने लगे उनकी आवाज सुनी आंख खोली जो देखा इधर भी महात्मा उधर भी सो माथा पीट कर बोला थोड़ा बहुत मिलता भी तो यह नहीं मिलने देंगे ।
पा के संकेत शक्ति ,जत्थे वहां अष्ट सिद्धि नव निधि
आने लगे ।
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
अब गुरुदेव आए कि कर क्या रहा है चेला, तो देखा कि चेला आंख बंद किए बैठा है और सामने सामग्री रखी है, आंसू आंख से बह रहे हैं ।
गुरु जी ने कहा बेटा भोजन नहीं बनाया वह चरणों में गिर
गया बोला आ गए गुरु जी देखो आपने कितने भगवान लगा दिए मेरे पीछे, मंदिर में तो नहीं हुई पर यहां एकादशी पूरी हो रही है। और गुरु जी को कोई दिखे नहीं तो भगवान से बोला_
हमारे गुरु जी को भी दिखो नहीं  तो यह सब हमें झूठा मानेंगे, भगवान बोले उन्हें नहीं दिखेंगे,बोला क्यों हमारे गुरुदेव तो हमसे अधिक योग्य हैं,भगवान बोले तुम्हारे गुरुदेव तुमसे भी योग्य हैं, लेकिन तुम्हारे जैसे सरल नहीं हैं। और हम सरल को मिलते हैं ।गुरुजी ने पूछा क्या कह रहे हैं ,भक्त ने कहा भगवान कहते हैं सरल को मिलते हैं आप सरल नहीं हो ! गुरुजी रोने लगे,गुरुजी सरल तो नहीं थे तरल हो गए, आंसू बरसने लगे और जब तरल होकर रोने लगे, तो भगवान प्रकट हो गए गुरु जी ने दर्शन किए।
गुरु जी ने एक ही बात कही कि हम सदा से एक ही बात
सुनते आए हैं,  वह यह कि गुरु के कारण शिष्य कों भगवान मिलते हैं और आज शिष्य के कारण गुरु को भगवान मिले हैं।
तो यह है सरलता, सरल शब्द की महिमा।वास्तव में अगर हम माने तो सरल शब्द के अक्षरों का अर्थ भी है,
स- माने सीता जी |
र-माने रामजी |
ल-माने लक्ष्मण जी ।
ये तीनों जिसके हृदय में बसे हैं वही सरल है ,वही निर्मल है और उसी को ही भगवान मिलते हैं ,इसी आशा से कि हमें भी भगवान मिलेंगे ही हम प्रार्थना करते हैं कि _
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मन हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥
जय श्री राम जय हनुमान 

बुधवार, 25 सितंबर 2024

✓19 ऊँट


एक गांव में एक बुद्धिमान व्यक्ति रहता था।उसके पास 19 ऊँट थे, एक दिन उसकी मृत्यु हो गई मृत्यु के पश्चात वसीयत पढ़ी गई जिसमें लिखा था कि मेरे 19 ऊंटों में से आधे मेरे बेटे को,उसका एक चौथाई मेरी बेटी को और उसका पांचवा हिस्सा मेरे नौकर को दे दिए जाएं।सब लोग चक्कर में पड़ गए कि यह बंटवारा कैसे हो 19 ऊँटों का आधा अर्थात एक ऊंट काटना पड़ेगा फिर तो ऊँट ही मर जाएगा ? चलो एक को काट दिया जाए या हटा दिया जाय तो बचे 18, उनका एक चौथाई साढे चार - साढे चार फिर भी वही मुश्किल।  फिर पांचवां  हिस्सा । सब बड़ी उलझन में थे ।फिर पड़ोस के गांव में से एक बुद्धिमान व्यक्ति को बुलाया गया वह बुद्धिमान व्यक्ति अपने ऊँट पर चढ़कर आया समस्या सुनी थोड़ा दिमाग लगाया फिर बोला इन
19 ऊँटो में मेरा भी ऊँट मिलाकर बांट दो ।सब ने पहले तो सोचा कि एक वह पागल था जो ऐसी वसीयत करके चला गया और एक यह पागल दूसरा आ गया जो बोलता है कि इसमे मेरा भी ऊँट मिलाकर बांट दो | फिर भी सबने सोचा बात मान लेने में क्या हर्ज है। उसने अपना ऊंट मिलाया तो 19+1=20  हुए। 20 का आधा 10 बेटे को दिए गए।20 का चौथाई 5 बेटी को दिए गए।20 कापांचवा हिस्सा चार नौकर को दिए गए 10+5+4= उन्नीस हो गए, बच गया 1 ऊँट  जो बुद्धिमान व्यक्ति का था वह उसे लेकर अपने गांव लौट आया ।बटवारा संपन्न हुआ।इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि हम सबके जीवन में पांच ज्ञानेंद्रियां ( आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा), पांच कर्मेन्द्रियां (हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग),पांच प्राण ( प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान) और चार अंतःकरण चतुष्टय( मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) ये कुल 19 ऊँट होते हैं ।सारा जीवन मनुष्य इन्हीं के बंटवारे में अर्थात् उलझनों में उलझा रहता है और जब तक उसमें आत्मा रूपी ऊँट को नहीं मिलाया जाता यानी- कि आध्यात्मिक जीवन 
नहीं मिलाया जाता तब तक जीवन में सुख शांति संतोष  और आनंद की प्राप्ति नहीं होती हैं।

✓जीयुतपुत्रिका

भोजपुरी में कुछ यूं कहा  जाता है कि - ए अरियार त का बरियार, श्री राम चंद्र जी से कहिए नू कि लइका के माई खर जीयूतिया भूखल बाड़ी।
सवाल यही है कि आखिर ये बरियार है कौन? तो बरियार एक ऐसा पौधा है जिसे भगवान राम का दूत माना जाता है।कहा जाता है कि यह छोटा सा बरियार (बलवान पेड़) भगवान राम तक हमारी बात दूत बनकर पहुंचाता है। अर्थात मां को अपनी संतान के जीवन के लिए कहे हुए वचनों को भगवान राम से जाकर सुनाता है और इस तरह श्री राम चंद्र तक उसके दिल की इच्छा पहुंच जाती है। संतान और घर परिवार का कल्याण हो जाता है।
मान्यता है कि इस व्रत को करने से संतान दीर्घायु होती है। निरोगी काया का आशीर्वाद प्राप्त होता है और भगवान संतान की सदैव रक्षा करते हैं। व्रत की शुरुआत नहाय खाय संग होती है और समापन पारण संग होता है।यह तो स्पष्ट है कि ज‍ित‍िया पर्व संतान की सुख-समृद्ध‍ि के ल‍िए रखा जाने वाला व्रत है। इस व्रत में पूरे दिन न‍िर्जला यानी क‍ि (बिना जल ग्रहण क‍िए ) व्रत रखा जाता है। यह पर्व उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और नेपाल के मिथिला और थरुहट तथा अन्य राज्यो में आश्विन माह में कृष्ण-पक्ष के सातवें से नौवें चंद्र दिवस अर्थात् तीन द‍िनों तक मनाया जाता है।जितिया व्रत के पहले दिन महिलाएं सूर्योदय से पहले जागकर स्‍नान करके पूजा करती हैं और फिर एक बार भोजन ग्रहण करती हैं और उसके बाद पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। इसके बाद दूसरे दिन सुबह-सवेरे स्‍नान के बाद महिलाएं पूजा-पाठ करती हैं और फिर पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। व्रत के तीसरे दिन महिलाएं पारण करती हैं। सूर्य को अर्घ्‍य देने के बाद ही महिलाएं अन्‍न ग्रहण करती हैं। मुख्‍य रूप से पर्व के तीसरे दिन झोल भात, मरुवा की रोटी और नोनी का साग खाया जाता है। अष्टमी को प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती है। जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, अक्षत, पुष्प, फल आदि अर्पित करके फिर पूजा की जाती है। इसके साथ ही मिट्टी और गाय के गोबर से सियारिन और चील की प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा बन जाने के बाद उसके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है। पूजन समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी जाती है।
इस दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के साथ जियुतिया से सम्बन्धित इन  कथायों को सुनने की भी परम्परा है।
इस पावन व्रत की तीन कहानियां हैं, पहली चिल्हो और  सियारो की, दूसरी  राजा जीमूतवाहन की और तीसरी भगवान श्री कृष्ण की  है। आइए हम इन तीनों कहानियों का आनंद पूर्वक श्रवण करते हैं।
(१) चिल्हो और  सियारो की कथा।।
जीवित पुत्रिका व्रत की सबसे प्रसिद्ध चिल्हो और  सियारो की  कथा  इस प्रकार से है-एक वन में सेमर के पेड़ पर एक चील रहती थी। पास की झाडी में एक सियारिन भी रहती थी, दोनों में खूब पटती थी। चिल्हो जो कुछ भी खाने को लेकर आती उसमें से सियारिन के लिए जरूर हिस्सा रखती। सियारिन भी चिल्हो का ऐसा ही ध्यान रखती।इस तरह दोनों के जीवन आनंद से कट रहे थे। एक् बार वन के पास गांव में औरतें जिउतीया के पूजा की तैयारी कर रही थी। चिल्हो ने उसे बडे ध्यान से देखा और अपनी सखी सियारो को भी बताओ।
फिर चिल्हो-सियारो ने तय किया कि वे भी यह व्रत करेंगी।सियारो और चिल्हो ने जिउतिया का व्रत रखा, बडी निष्ठा और लगन से दोनों दिनभर भूखे-प्यासे मंगल कामना करते हुवे व्रत में रखीं मगर रात होते ही सियारिन को भूख प्यास सताने लगी।जब बर्दाश्त न हुआ तो जंगल में जाके उसने मांस और हड्डी पेट भरकर खाया।चिल्हो ने हड्डी चबाने के कड़-कड़ की आवाज सुनी तो पूछा कि यह कैसी आवाज है।सियारिन ने कह दिया- बहन भूख के मारे पेट गुड़गुड़ा रहा है और दांत कड़कड़ा रहे हैं यह उन्हीं की आवाज है, मगर चिल्हो को सत्य पता चल गया।उसने सियारिन को खूब लताडा कि जब व्रत नहीं हो सकता तो संकल्प क्यों लिया था।सियारीन लजा गई पर व्रत भंग हो चुका था।चिल्हो रात भर भूखे प्यासे रहकर ब्रत पूरा की।
अगले जन्म में दोनों मनुष्य रूप में राजकुमारी बनकर सगी बहनें हुईं। सियारिन बड़ी बहन हुई और उसकी शादी एक राजकुमार से हुई। चिल्हो छोटी बहन हुई उसकी शादी उसी राज्य के मंत्रीपुत्र से हुई।
बाद में दोनों राजा और मंत्री बने।सियारिन रानी के जो भी बच्चे होते वे मर जाते जबकि चिल्हो के बच्चे स्वस्थ और हट्टे-कट्टे रहते। इससे उसे जलन होती थी।
उसने लड़को का सर कटवाकर डब्बे में बंद करवा दिया करती पर वह शीश मिठाई बन जाते और बच्चों का बाल तक बांका न होता. बार बार उसने अपनी बहन के बच्चों और उसके पति को मारने का प्रयास भी किया पर सफल न हुई। आखिरकार दैव योग से उसे भूल का आभास हुआ। उसने क्षमा मांगी और बहन के बताने पर जीवित पुत्रिका व्रत विधि विधान से किया तो उसके पुत्र भी जीवित रहे।
(२)गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बडे उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए, वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन को एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी।
पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया- मैं नागवंश की स्त्री हूं, मुझे एक ही पुत्र है, पक्षीराज गरुड़ के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है वे गरूड को प्रतिदिन भक्षण हेतु एक युवा नाग सौंप देगें। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। आज मेरे पुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे। जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा- डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा ताकि गरुड़ मुझे खा जाए पर तुम्हारा पुत्र बच जाए। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड़ बड़े वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए।
गरूड़ ने अपनी कठोर चोंच का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया। इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे। अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर गरुड़ बडे आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं 
गरुड़ उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें स्वयं पर पछतावा होने लगा, वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है और एक मैं हूं जो देवों के संरक्षण में हूं किंतू दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं। उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया। गरूड़ ने कहा- हे उत्तम मनुष्य मैं तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूं। मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं उसे ठीक कर देता हूं। तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मुझसे कोई वरदान मांग लो।
राजा जीमूतवाहन ने कहा कि हे पक्षीराज आप तो सर्वसमर्थ हैं. यदि आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें।आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान करें। गरुड़ ने सबको जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई। गरूड़ ने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा वैसा ही होगा। हे राजा! जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी।
तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई। यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी। तभी से  जीवित पुत्रिका के दिन इस कथा को सुनने की परम्परा है 
(३)भगवान श्री कृष्ण कथा
यह कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई हैं. महा भारत युद्ध के बाद अपने पिता की मृत्यु के बाद अश्व्थामा बहुत ही नाराज था और उसके अन्दर बदले की आग तीव्र थी, जिस कारण उसने पांडवो के शिविर में घुस कर सोते हुए पांच लोगो को पांडव समझकर मार डाला था, लेकिन वे सभी द्रोपदी की पांच संताने थी उसके इस अपराध के कारण उसे अर्जुन ने बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया, जिसे निष्फल करना नामुमकिन था।उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक था, जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया।गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना।तब ही से इस व्रत को किया जाता हैं।
(४)चील और सियारिन से जुड़ी जितिया व्रत की अन्य  कथा भी काफी प्रसिद्ध है-
धार्मिक कथाओं के अनुसार, एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी। उस पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थी। दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और भगवान जीमूतवाहन के  पूजा करने का प्रण लिया। लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी का निधन हो गया और उसके दाह संस्कार में सियारिन को भूख लगने लगी थी। मृत्यु देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया। पर चील ने संयम रखा और भक्ति-भाव व नियमपूर्वक व्रत करने के बाद अगले दिन व्रत पारण किया।
अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने एक ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। उनके पिता का नाम भास्कर था। चील बड़ी बहन बनी और सियारिन छोटी बहन के रूप में जन्मीं थी। चील का नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई, जबकि सियारिन का नाम  कपुरावती रखा गया और उसका विवाह उस नगर के राजा मलायकेतु के साथ हुआ।
भगवान जीमूतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए और सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में उन्हें देखकर जलन की भावना आ गई, उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर कटवा दिए।
उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिए और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिए। यह देखकर भगवान जीमूतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सिर बनाए और सभी के सिरों को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया और उनमें जान आ गई।
सातों युवक जिंदा होकर घर लौट आए, जो कटे सिर रानी ने भेजे थे वह फल बन गए। दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी। जब काफी देर तक सूचना नहीं आई तो कपुरावती खुद बड़ी बहन के घर गई। वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गई, जब उसे होश आया तो उसने सारी बात अपनी बहन को बताई। कपुरावती को अपने किए पर पछतावा हुआ, भगवान जीमूतवाहन की कृपा से शीलवती को पिछले जन्म की बातें याद आ गईं। वह कपुरावती को उसी पाकड़ के पेड़ के पास ले गई और उसे पूर्व जन्म की  सारी बात बताई फिर कपूरवती से  शिलवती ने कहा कि ओ राजरानी! अब भी तुम उस जीवित्पुत्रिका व्रत को करो तो तुम्हारे बेटे दीर्घायु होंगे। मैं तुमसे सच-सच कह रही हूँ। उसके कथनानुसार रानी ने व्रत किया। तभी से उसके कई बेटे सुन्दर और दीर्घायु होकर बड़े-बड़े राजा हुए।हरि अनंत हरि कथा अनंता के अनुसार ये कथाएं विभिन्न रूपों में भी प्राप्त होती है।सभी का सारांश यही है कि जो स्त्रियाँ चिरंजीवी सन्तान चाहती हैं  वे  विधिपूर्वक इस व्रत को करती हैं और अपने अपने विश्वास के अनुसार ईश्वर की कृपा प्राप्त करती हैं।
।।जय जीयुतपुत्रिका।।



सोमवार, 23 सितंबर 2024

✓सहसबाहु सन परी लराई

श्री हनुमानजी रावण से कहते है कि तुम पूछते हो कि मैंने तुम्हारा नाम और यश सुना है कि नहीं, उसपर मेरा उत्तर यह है कि तुम्हारी प्रभुता सुननेकी तो बात ही क्या है, मैं तो उसे भलीभाँति जानता भी हूँ कि वह कैसी है। उस प्रभुताको जानकर मैंने यह सब किया है।  'सहसबाहु सन परी लराई' अर्थात् तुम लड़ने गये, पर कुछ लड़ाई न हुई; उसने तुमको दौड़कर पकड़ लिया। सहस्रबाहुसे हारना कहकर जनाया कि तू सहस्रार्जुनसे हारा, वह परशुरामसे हारा और परशुराम श्रीरामजीसे हारे । प्रमाण देखें 'एक बहोरि सहसभुज देखा । धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा ॥ कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाड़छोड़ावा॥'  (इसमें अंगदजीने सहस्रार्जुनसे रावणका पराजय कहा है और) 'सहसबाहु भुज गहन अपारा।दहन अनल सम जासु कुठारा ॥ जासु परसु सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा । तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा। ( इसमें सहस्रार्जुन का परशुरामजी द्वारा पराजय भुजछेदन और वध कहकरपरशुरामजीका बिना युद्ध ही श्रीरामजीके सम्मुख गर्व चूर हो जाना कहा है। इस प्रकार जनाया कि तब तू किस बलपर घमण्डकर उन श्रीरामजीसे विरोध कर रहा है ? उनके आगे तू क्या चीज है जब कि  वे तो तेरे जीतनेवाले के जीतने वाले भी है। श्री परशुरामजी ने तो उनको देखते ही उनसे  हार मान गये। 'परी लराई' में भाव यह भी है कि लड़ाईका अवसर आया था, तुम लड़ने गये थे, परथोड़ी ही लड़ाई में तुम हार गये। इसमें ऊपरसे प्रशंसा यह है कि बीस ही भुज होनेपर भी हजार भुजवालेसे लड़ाई ठानी थी और व्यंगसे अपयश होना प्रकट किया है। आइए हम सहस्रबाहु और रावणकी कथा सुनते हैं।सहस्रार्जुन कृतवीर्यका पुत्र और माहिष्मतीका राजा था। भगवान् दत्तात्रेयके आशीर्वादसे इसे, जब यहचाहता, हजार भुजाएँ हो जाती थीं। एक बार जब यह नर्मदामें अपनी स्त्रियोंके साथ जलविहार कर रहाथा, संयोगसे उसी समय रावण भी उसी स्थानके निकट जो यहाँसे दो कोसपर था, वहां आया और नर्मदामेंस्नान करके शिवजीका पूजन करने लगा। उधर सहस्रबाहुने अपनी भुजाओंसे नदीका बहाव रोक दिया,जिससे नदीमें बाढ़ आ गयी और जल उलटा बहने लगा। शिवपूजनके लिये जो पुष्पोंका ढेर रावणकेअनुचरोंने तटपर लगा रखा, वह तथा सब पूजनसामग्री बह गयी। बाढ़ के कारणका पता लगाकर औरपूजनसामग्रीके बह जानेसे क्रुद्ध होकर रावण सहस्रार्जुनसे युद्ध करनेको गया । उसने कार्तवीर्यकी सारी सेनाकानाश किया। समाचार पाकर राजा सहस्रार्जुनने आकर राक्षसोंका संहार करना प्रारम्भ किया । प्रहस्तके गिरतेही निशाचर सेना भगी तब रावणसे गदायुद्ध होने लगा। यह युद्ध बड़ा ही रोमहर्षण अर्थात् रोंगटे खड़ाकर देनेवाला भयंकर युद्ध हुआ । अन्तमें सहस्रार्जुनने ऐसी जोरसे गदा चलायी कि उसके प्रहारसे वह धनुषभर पीछे हट गया और चोटसे अत्यन्त पीड़ित हो वह अपने चार हाथोंके सहारे बैठ गया  रावण की यह दशा देख इसीबीच मेंसहस्रार्जुन  ने उसे अपनी भुजाओंसे इस तरह पकड़ लिया जैसे गरुड़ सर्पको पकड़ लेता है और फिर उसे इस तरह बाँध लिया जैसे भगवान्ने बलिको बाँधा था। रावणके बँध जानेपर प्रहस्त आदि उसे छुड़ानेके लियेलड़े, पर कुछ कर न सके, भागते ही बना । तब सहस्रार्जुन रावणको पकड़े हुए अपने नगरमें आया । अन्तमेंश्रीपुलस्त्यमुनिने जाकर उसे छुड़ाया और मित्रता करा दी ।  ' एक बहोरि सहसभुज देखा।धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा।  इस कथाके अनुसार यह भी व्यंगसे जनाते हैं कि तू वही तो है जिस, सहस्रबाहुके कारागारमें बँधे पड़े हुएकोतेरे पितामह पुलस्त्यजी दीन होकर भिक्षा माँग लाये थे । जय श्री राम जय हनुमान

रविवार, 22 सितंबर 2024

✓रावण की रक्षा (अशोकवाटिका में)

लाखों वर्ष पहले रावण ने अद्भुत विस्मयकारी रक्षा व्यवस्था कर रखा था। सिंहिका और लंकिनी तो रडार थे।  स्टार वाली रक्षा प्रणाली  तो अशोक वाटिका में दिखती है। जब श्री हनुमानजी अशोक वाटिका में फल खाने जाते हैं तो देखते हैं कि भट अर्थात दो स्टार वाले रखवाले वहां बहुत हैं 
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
तो इनके लिए हनुमानजी को गरजने की भी जरूरत नही थी बिना गरजे ,बिना वृक्ष लिए ही उनकी हालत पतली 
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥ कुछ मारे गए और कुछ रावण से पुकार करने जाते हैं 
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥ यह सुनते ही रावण ने 
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥
नाना भट को भेजा , अब श्री हनुमानजी गर्जे और सबका ही संहार कर दिया ,कुछ अधमरे  ही रावण तक पुकार  करने  जा पाते हैं  तब रावण
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। 
चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। 
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥
अब तीसरी बार हनुमानजी वृक्ष लेकर तरजते है और इन तीन स्टार वालों  को मारकर महाधुनि करते हुवे गरजते हैं फिर
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। 
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। 
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
अब बारी है पांच स्टार और चार स्टार वालों का, पांच स्टार वाला मेघनाद सरदार है चार स्टार वालों का, देखें 
चला इंद्रजित अतुलित जोधा। 
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। 
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। 
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा। 
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥
पांच स्टार वाले दारूनभट के लिए श्री हनुमानजी कटकटा कर गरजते हैं और एक विशाल पेड़ के वार से उसे विरथ कर जमीन पर ला देते हैं और चार स्टार वालों को
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। 
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। 
ताहि एक छन मुरुछा आई॥
एकल  पांच स्टार वाला दारूनभट ही है जो भीड़ सका लेकिन वह भी मात्र एक ही मुष्टिका में मुरुक्षित हो गया। इस प्रकार श्री हनुमान जी ने रावण की इन सभी रक्षा प्रणाली  को नष्ट कर दिया। आगे की कथा क्रमशः 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

✓रघबीर पंचवीर

जौंरघुबीरअनुग्रह कीन्हा।तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥  यहां 'रघुबीर' शब्द पाँच प्रकारकी वीरताके सम्बन्धमें प्रयुक्त है, यथा - ' त्यागवीरो दयावीरो विद्यावीरो
विचक्षणः। पराक्रममहावीरो धर्मवीरः सदा स्वतः ॥ पंचवीराः समाख्याता राम एव च पंचधा । रघुवीर इति ख्यातः सर्ववीरोपलक्षणः ॥' इन पाँचोंके उदाहरण क्रमसे लिखते हैं-
(१) त्यागवीर
'पितु आयसु भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदय कछु पहिरे बलकल चीर ।' 
(२) दयावीर
'चरनकमलरज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ '
(३) विद्यावीर
'श्रीरघुबीरप्रताप तें सिंधु तरे पाषान ।
ते मतिमंद जो राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ।' 
( जलपर पत्थर तैरना - तैराना एक विद्या है ) 
(४) पराक्रमवीर
'सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीर ।
हृदय न हरष बिषाद कछु बोले श्रीरघुबीर ॥' 
(५) धर्मवीर
'श्रवन सुजस सुनि आयउँ प्रभु भंजन भवभीर ।
त्राहि त्राहि आरतिहरन सरन सुखद रघुबीर ॥'
ये पाँचों वीरताएँ श्रीरामजीहीमें हैं औरमें नहीं । इस प्रसंग में विभीषणजी एवं हनुमानजी दोनोंने कृपा करनेसे (अर्थात् उनकी दया - वीरतागुणको स्मरण करके) 'रघुबीर' कहा, यथा- 'जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा' और
'मोहू पर रघुबीर कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन।' दयावीर हैं, इसीसे हमारे-से अधमपर कृपा की। 'दरसु हठि दीन्हा, यथा- 'एहि सन हठि करिहौं पहिचानी ।' ये हनुमान्जीके ही वचन हैं । [ 'दरसु हठि दीन्हा, इस पदसे श्रीभगवत्के
अनुग्रहपूर्वक अपने भाग्यकी प्रबलता दरसाते हुए परम भागवत श्रीहनुमान्जीका अनुग्रह दरसाया गया और श्री राम के रघुवीर रुप में पाँच प्रकारकी वीरता को धारण करने वाला बताकर उनकी प्रभुता प्रगट की गई है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

गुरुवार, 19 सितंबर 2024

✓"पतिव्रत धर्म"

  "पतिव्रत धर्म"
बूंदी नरेश महाराज यशवन्त सिंह जी शाही दरबार में
रहते थे एक दिन बादशाह ने अपनी सभा में प्रश्न किया कि
आज कल वह जमाना गर्त  हो रहा है कि स्त्री भी दुराचारिणी हो गई हैं । पतिव्रत धर्म को ग्रहण करने वाली स्त्री पृथ्वी पर नहीं हैं और न होंगी क्योंकि समय बड़ा बलवान है । यह सुन कर सारे सभासद चुप हो गये परन्तु वीर क्षत्री बूंदी नरेश को नहीं रहा गया और क्रोध पूर्वक सभा में खड़े हो कर बोले कि हे बादशाह आगे की तो मैं कह नहीं सकता हूं लेकिन  इस वक्त तो मेरी स्त्री पूर्ण पतिव्रत धर्म को ग्रहण करने वाली है ।
यह सुन कर बादशाह चुप हो गये परन्तु एक शेरखां नामी
मुसलमान बोला कि आपकी स्त्री पतिव्रता नहीं है । बाद में 
तर्क वितर्क से यह निश्चय हुआ कि एक माह की मुहलत में मैं आपको जसवन्तसिंह की पत्नी का पतिव्रत धर्म दिखला दूँगा । इस पर बादशाह ने कहा कि दोनों में से जो झूट
निकलेगा उसी को फांसी लगवा दी जावेगी और दूसरे को
इनाम मिलेगा । शेरखां यह सुन कर बहुत खुश हुआ । और अपने महल में  दो दूती बुलाया और दोनों से पूछा कि तुम क्या क्या काम कर सकती हो। तब एक ने कहा कि मैं बादल फाड़ सकती हूं और दसरी ने कहा कि मैं बादल फाड़ कर सीं सकती हूं। यह सुन कर शेरखां ने दूसरी को पसन्द किया । और उससे कहा कि बूंदी नरेश की पत्नी पतिव्रता है इस कारण तू, उसके पतिव्रत धर्म को छल से डिगादे तो राजा तुझे पाँच गांव इनाम में देगें।इस बात को सुन कर वह प्रसन्न हो गई। उसे पालकी से बूंदी पहुंची।
जब वह बूंदी नरेश के यहां पहुंची तो उस बूंदी नरेश की पतिव्रता नारी ने उसका आदर सत्कार किया ।
क्योंकि वह बूंदी नरेश की बुआ बनकर गई थी
और रानी ने बुआ को कभी देखा नहीं था इसलिये 
रानी ने उसे महाराज  की बुआ ही समझा ।
दो दिन पश्चात  दूती ने रानी से  कहा  कि चलो स्नान
कर ले।
रानी ने कहा बुआ जी मैं पीछे स्नान करूंगी।
आप स्नान कर लीजिए ।
दूती यह सुनकर कोधित हुई और बनावटी भय
दिखलाने लगी कि मैं जसवन्तसिंह से तेरी शिकायत करूंगी।रानी बेचारी को डर  गई क्योंकि रानी उसको ठीक से जानती नहीं थीं। इस कारण विश्वास करके उसके सामने स्नान करने लगी , तो उस दूती ने उनके अंग को देखा तो रानी की जंघा पर लहसन दिखाई दिया, स्नान करने के पश्चान दूती ने भोजन किया । अन्त में दूसरे दिन दूती ने कहा कि अब तो मैं जाती हैं और वहां पर एक रखी हुई कटार को देख कर उसे मांगने लगी ।
रानी ने हाथ जोड़े कर कहा कि हे बुआजी यह तो
कटार मेरे पतिव्रत धर्म की है। महाराज जी ने मुझको दे रखी है । दूती ने कटार को बार बार मांगा परन्तु रानी ने कटार नहीं  दिया ।
अन्त में दती ने क्रोधित हो कर कहा कि मैं तुझे जस-
वन्तसिंह से कह कर निकलवा दूंगी। तब तू अपने धर्म की
किस प्रकार रक्षा करेगी । तू ने मेरा इस छोटी सी कटार पर
इस तरह अनादर किया। रानी ने उसके कोध से भयभीत हो कर कटार को दे दिया । दूतो प्रसन्न होकर वहां से चल दी और शेरखां को कटार दे दिया और  जंघा ले  निशान को बता  दिया । अब शेर खां  शेर बन गया और वह इनाम
जो कि पांच गांव राजा ने रखे थे उनके लेने के लिए वह 
शाही दरबार में गया और कटार  बादशाह के आगे रख कर  कहा कि  बादशाह  मैं इस कटार को लेकर और रानी के जंघा पर  लहसन का निशान देख कर अभी चला आ रहा हूँ । जसवन्तसिंह इस बात को सुनकर हतप्रद । अब तो  जसवन्त सिंह को फाँसी का हुक्म हो ही  गया और शेरखां को इनाम  भी मिल गया। लेकिन जसवंतसिह को एक बार अपनी पत्नी से मिलने  बूंदी भेजा गया और फांसी की तारीख मुकर्रर हो गई।दूसरे दिन जसवन्तसिंह घोड़े पर सवार होकर बूंदी पहुंचे रानी महाराज का आगमन सुनकर दरवाजे पर गंगाजल लेकर आई परन्तु जसवन्तसिंह रानीको  देख कर लौट गए । रानी ने अपने पति को क्रोधित जान कर शोक किया कि हे दैव मैंने एसा क्या दुष्कर्म किया जिससे महाराज मुझसे कुछ भी न कहकर लौट गए । अन्त में इस पतिव्रत नारी को सारा वृतान्त मालूम हुआ तब वह क्रोधित होकर अपनी पांच सहेलियों के साथ दिल्ली को गई और नाचना
प्रारम्भ किया ।  बादशाह को नाच दिखाकर गाना इस तरह सुनाया कि बादशाह सुनकर प्रसन्न होगया । ईश्वर की प्रार्थना जो कि रानी ने गाई थी बादशाह अपने
ऊपर घटित करके बहुत प्रसन्न हुआ और कहा कि तुम्हारी
जो कुछ इच्छा हो  सो मांगो । रानी ने तीन वचन भरवा कर कहा कि हे बादशाह ! शेरखां पर मेरा पांच लाख का  कर्जा है सो आप उनको दिलवा दीजिए ।
बादशाह ने शेरखां को रुपयों की बाबत पूछा तो वह
रानी के मुंह को ताक कर बोला कि मैं खुदा की कसम खाता हूँ कि मैंने तो इसका कभी मुह तक भी नहीं देखा है मुझ पर इसका कर्जा क्योंकर है। रानी ने यह सुनकर वादशाह से कहा कि यदि मेरा मुख भी नहीं देखा था तो यह वह कटार  कैसे लाया और लहसन का निशान तृने किस तरह बतला दिया । यह सुनकर
शेरखां के होश उड़ गए और उसको अपनी सारी कहानी बादशाह  को बतानी पड़ी ।अब जसवन्तसिंह के बजाय शेरखां को फांसी का दण्ड मिला क्योंकि रानी ने बादशाह से दूती का सत्र हाल बयान कर दिया था ।
भावार्थ-
इससे यह शिक्षा मिली कि पतिव्रत धर्म के प्रताप से
सारे कठिन से कठिन काम तुच्छ दिखाई देते हैं ।
बिन्दा पतिव्रत धर्म के ही कारण तुलसी बनकर
भगवान की प्राणप्यारी बनी क्योंकि इसके बिना भगवान छप्पन भोगों को भी नहीं मानते । सीता जी ने भी राम से कहा है कि-
जहँ लगिनाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ।।सारांश यह कि स्त्री के लिए पति ही सर्वस्व है और यदि वह पतिव्रता है तो उसके पति और उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।ईश्वर की कृपा सदा उन पर बनी ही रहती है।
जय श्री राम जय हनुमान

शनिवार, 14 सितंबर 2024

✓कह मुनीस हिमवंत सुनु

कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥

जो कुछ विधाता ने भाग्य में लिख दिया है वह होकर
ही रहता है, चाहे कोई कितना ही परिश्रम करे परन्तु जैसा
प्रारब्ध में लिखा है वैसा ही रहेगा, प्रारख्ध न बढ़ती है और न घटती है ।
एक पुरुष अपनी स्त्रो सहित कहीं जा रहा था और
साथ उसका  पुत्र भी था। मार्ग में उसे भगवान शंकर और
पार्वतीजी  मिले | पार्वती जी को उनकी दशा देख कर दया
आ गई और उन्होंने महादेव जी से कहा कि हे नाथ इन पर दया करनी चाहिए । महादेव जी ने कहा कि, ये तोनों कम नसीव  के हैं। मेरी दया से इनको लाभ नहीं होगा । पार्वती जी ने बार बार आग्रह पूर्वक कहा तव महादेव जी ने उनसे कहा कि तुम तीनों एक २ चीज मुझसे माँग लो वह तुरन्त मिल जायगी । तव औरत  ने सुन्दर स्वरूप मांगा वह तुरन्त रूपवती हो गई । एक राजा उसे देख कर हाथी पर चढ़ा ले चला । जब उसके पति ने देखा कि मेरी स्त्री तो हाथ से गई तो वह  महादेवजी से कहा कि इस औरत का रूप सूअर के समान हो जायं सो उसी क्षण होगई । अव जो राजा हाथो पर चढ़ा  उसे ले जा रहा था।उसके रूप से घृणा करके छोड़ दिया । अब पुत्र ने अपनी माता
को बदसूरत जान कर यह मांगा कि मेरी माता पहिले जैसी  थी वैसी ही हो जाय वह तुरन्त वैसी ही हो गई । मतलब यह है कि तीनों को कुछ न मिला । तब महादेवजी ने पार्वती से कहा कि विधाता ने जो प्रारब्ध में लिखा है वही मिलता है । तभी तो देवर्षि नारद जी ने यह बात कहा है।
कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥

✓हनुमानजी ने ब्रह्मास्त्र की मर्यादा का सम्मान क्यों रखा था?

हनुमानजी ने ब्रह्मास्त्र की मर्यादा का सम्मान क्यों रखा था?
मेघनाद और श्रीहनुमान जी के मध्य विकराल युद्ध आरम्भ हो गया था। दोनों लड़ते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो कोई दो गजराज भिड़ पड़े हों। 
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
दोनों के पाँव धरती को अथाह बल से रगड़ रहे थे। और वाटिका में उस स्थान का घास मानो किसी चटनी की भाँति मसला जा चुका था। धूल उड़ कर आसमान को छूने जा पहुँची थी। ऐसा दंगल था, कि त्रिलोकी के समस्त गण इसी दृश्य के आधीन हो मूर्त से बने साक्षी हो चले थे। मेघनाद ने अपने समस्त माया व प्रपँच अपना लिए, लेकिन श्रीहनुमान जी हैं, कि उससे जीते ही नहीं जा पा रहे-
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। 
ताहि एक छन मुरुछा आई॥
‘उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया।।’
मेघनाद ने देखा, कि यह कपि तो बड़ा ही बलवान है। मेरे किसी भी शस्त्र को यह पल भर में ही काट डाल रहा है। तब उसने सोचा, कि अवश्य ही मुझे अब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना चाहिए। ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के क्या लाभ होंगे, और क्या हानियां होंगी, यह विचारे बिना ही उसने ब्रह्मास्त्र का संधान कर दिया। श्रीहनुमान जी ने देखा, कि मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र का संधान करके अच्छा नहीं किया। कारण कि ऐसा नहीं कि हम ब्रह्मास्त्र का प्रतिकार नहीं कर सकते। लेकिन ऐसे करने से हमारे बल का तो, हो सकता है कि डंका बज उठे, लेकिन इससे ब्रह्मास्त्र की महिमा को ठेस पहुँचेगी। वैसे भी ब्रह्मा जी तो सृष्टि के रचयिता हैं। वे हम सबके पिता हैं। हम कितने भी बड़े हो जायें। लेकिन क्या अपने पिता से बड़े हो सकते हैं? नहीं, कभी भी नहीं। और उनके अस्त्र का संधान हो, तो उसका प्रतिकार व अपमान तो किसी भी स्तर पर उचित नहीं। निश्चित ही मुझे ब्रह्मास्त्र की मर्यादा का सम्मान रखना ही होगा-
‘ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।’
बस फिर क्या था। मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र का संधान कर दिया। और श्रीहनुमान जी मूर्छित होकर, पेड़ से धरा पर गिर पड़े। श्रीहनुमान जी नीचे क्या गिरे। राक्षसों की तो श्वाँस में श्वाँस आई। लगा कि उनके चारों ओर मँडराती मृत्यु के ताँडव को मानों विराम लगा हो। लेकिन सबने श्रीहनुमान जी को भला क्या, यूँ ही कोई साधारण वानर समझ रखा था? ऐसा थोड़ी था, कि श्रीहनुमान जी अब गिर रहे हैं, तो उनके गिरते-गिरते बस गिर ही जाना होगा। जान-माल की हानि से भी पूर्णतः बच जाना होगा। जी नहीं! श्रीहनुमान जी तो ऐसे वीर बलवान व सजग हैं, कि वे गिरते-गिरते भी कितने ही राक्षसों को अपने नीचे दबा कर मार डालते हैं।
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। 
परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥
जब मेघनाद ने देखा कि श्रीहनुमान जी मूर्छित होकर, पेड़ से नीचे गिर गए हैं। तो वह उन्हें नागपाश में बाँधकर अपने साथ ले चलता है-
यह दृश्य देखकर निश्चित ही साधारण बुद्धि का स्वामी यह सोच लेता है, कि हाँ, श्रीहनुमान जी नागपाश में बँध गए होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है। भगवान शंकर जी भी जब माता पार्वती जी को ‘श्रीराम कथा’ का रसपान करवा रहे हैं, तो वे यही बात कह रहे हैं, कि भला ऐसे कैसे संभव हो सकता है, कि श्रीहनुमान जी भी किसी बँधन में बँध जायें। कारण कि जिन प्रभु के पावन नाम के स्मरण से, संसार के ज्ञानी नर-नारियां, संपूर्ण भव सागर के बँधन काट डालते हों, भला उनका ऐसा प्रिय शिष्य, किसी बँधन में भला कैसे बँध सकता है। निश्चित ही यह सँभव ही नहीं है। निश्चित ही वास्तविकता यह है, कि श्रीहनुमान जी को बाँधा नहीं गया, अपितु लीला रचने हेतु, श्रीहनुमान जी ने ही, स्वयं को नागपाश में बँधना स्वीकार कर लिया-
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। 
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। 
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥
श्रीहनुमान जी का बँधना सुन पूरे लंका नगरी में कौतूहल मच गया। सभी राक्षस गण श्रीहनुमान जी को, यूँ बँधा देखने के लिए रावण की सभा में उपस्थित हो रहे हैं।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। 
कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। 
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥
श्रीहनुमान जी ने भी रावण की सभा देखी, तो बस देखते ही रह गए। कारण कि रावण की सभा का वैभव ही ऐसा है, कि कुछ कहा ही नहीं जा सकता है। वहाँ रावण को छोड़कर सभी सभासद दास की ही भूमिका में हैं। देवता और दिक्पाल हाथ जोड़कर रावण की भौं ताक रहे हैं। हर किसी का बस यही प्रयास है, कि काल बिगड़ता है, तो बिगड़ जाये। लेकिन रावण न बिगड़ने पाये। क्योंकि रावण अगर प्रतिकूल हो गया। तो मानों, कि अमुक जीव का भाग्य ही उससे रूठ गया। समझना कि उसकी श्वाँसों को उसकी छाती से अब कोई सरोकार नहीं रहा। लेकिन इन सब से परे, श्रीहनुमान जी पूर्णतः निशंख व अखण्ड़ भाव से ऐसे खड़े हैं, जैसे सर्पों के झुण्ड में गरुड़ महाराज निर्भय खडे़ होते हैं-
‘कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।’
महाबली श्रीहनुमान जी अब रावण की सभा में पहुँच तो गए हैं। और आशा है कि आप भी समझ ही गए होगे कि हनुमानजी ने ब्रह्मास्त्र की मर्यादा का सम्मान क्यों रखा था? 
।।जय श्रीराम जय हनुमान।।

✓कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।
एक बार एक ब्राह्मण देवता अपनी ब्राह्मणी सहित मार्ग में चले जा रहे थे। कुछ दूर पर  चार ठग मिले और
ब्राह्मणी के आभूषणों को देख कर कपट से मधुर वचन कहने लगे कि, हे महाशय आपने कहाँ के लिए प्रस्थान किया है ब्राह्मण ने अपने पहुंचने का निर्दिष्ट स्थान उनको बतला दिया । तब ठग  बोले कि, हे महाराज जी हमको भी वहीं पहुंचना है जहां पर कि, आपने गमन किया है। अस्तु हम और आप साथ साथ चलें तो बहुत अच्छा है ।यह सुन ब्राह्मण ने विचार किया कि,  एकला चलिये न घाट, अस्तु यह सोच कर ब्राह्मण ने उनसे कहा कि चलिये हमारे लिये तो लाभ ही है क्योंकि आप इस मार्ग से पूर्ण
परिचित होंगे और साथ साथ मार्ग भी अच्छी भांति तय हो जायगा। ऐसा कह कर ब्राह्मण, ब्राह्मणी और चारों ठग साथ हो लिये । आगे एक सघन बन में जाकर ठगों ने मार्ग को छोड़ कर एक पगदंडी पकड़ लिया । यह देख ब्राह्मण के हृदय में कुछ भय उत्पन्न हुआ और  ठगों का साथ छोड़कर  वे अलग खड़े हों गये तव चारों  ठग ब्राह्मण से कहने लगे कि, महाशय  आप हमारे साथ क्यों नहीं चलते हैं यदि हम आपके साथ दुष्कर्म करें तो हमारे और आपके बीच में रमापति राम साक्षी है । यह सुन कर ब्राह्मण को विश्वास हो गया और वे ठगी  के साथ पुनः चल दिये। अब आगे जाकर जब झाड़ियों के मध्य में प्रवेश किया तब ठगों ने ब्राह्मण के मारने के लिए तलवार निकाल लिया ।यह देख कर ब्राह्मण ब्राह्मणी कहने लगे कि हे ठगों जो तुमको लेना हो सो हमसे माँगो परन्तु हमारे प्राणों को न लो । यह सुन कर ठग वोले कि, हे ब्राह्मण हम विना प्राण हरण किये किसी व्यक्ति का धन नहीं लेते यह हमारा आदि सनातन धर्म है ।यह सुनते ही दीन हीन ब्राह्मण ब्राह्मणी दोनों रोने लगे।और भगवान से  कहने लगे कि, हे चराचर के स्वामी, भक्तवत्सल, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान आप हमारे और इनके मध्य में साक्षी थे यदि आज आप ने आकर न्याय न किया तो फिर आपको मर्यादा  पुरुषोत्तम, घटघट वासी, करुणानिधान, भुवनेश्वर, दया के समुद्र और कल्याणकारी कहना वृथा है । यदि आज न्याय न किया तो यह पृथ्वी रसातल को चली जायेगी। इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है।
उनके के इन वचनों को सुनकर बैकुंठ निवासी घट घट वासी भगवान सुदर्शन चक्र धारण किये वहीं प्रगट हो गए और तुरन्त ही चारों डाकुओं को मार डाले और ब्राह्मण तथा ब्राह्मणी को दर्शन दे  अंतर्धान हो गए । यह कथा हमें  बताती है कि भगवान पर विश्वास रख कर कठिन से कठिन कार्य की  भी सिद्धि होती  ही है । इस विषय में एक कवि ने लिखा है ।
जो जन जाये हरि निकट, धरि मन में विश्वास ।
कोई न खाली फिर गयौं, पूरि लियों निज आस।।
और गोस्वामीजी ने तो मानस में घोषणा ही कर दिया है कि 
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥
जय श्री राम जय हनुमान

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

✓रावण के आगे हाथ जोड़ कर क्या आग्रह कर रहे थे हनुमानजी ?


रावण के आगे हाथ जोड़ कर क्या आग्रह कर रहे थे हनुमानजी ?
श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि हे रावण! बँधे जाने में मुझे कोई लज्जा नहीं है। लज्जा भला किस बात की। क्योंकि मैं तो श्रीराम जी का कार्य कर रहा हूँ। उनकी सेवा में मैं मेघनाद को बाँध लेता, तो भी यह प्रभु की ही कृपा से संभव होता।
रावण ने देखा कि वानर को एक बात पूछो, ओर यह आगे दस सुना रहा है। इसने तो अपनी चर्चा ही बालि और सहस्त्रबाहु वाले काण्डों से आरम्भ की है। अब पता नहीं यह वानर मेरी क्या-क्या पोल खोल सकता है। मैं तो सोचा रहा था, कि यह मेरे समक्ष अपने प्राणों की भीख के लिए गिड़गिड़ायेगा। लेकिन यह वानर तो यूँ तन कर खड़ा है, मानों इसे मेरा रत्ती भर भी भय नहीं है। भय तो छोड़ो, इसे तो तनिक-सी, लज्जा तक नहीं है। यह अपने स्वामी को भला क्या मुख दिखायेगा, कि लंका में पता नहीं वह कौन-सा तीर मार बैठा था। और वास्तविकता यह है, कि यह भरी सभा में मेरे सामने पाश में बँधा पड़ा है। अपनी पराजय पर भी इसे लज्जा नहीं है। रावण के अंतःकरण में उठ रही, यह विष की धारा, श्रीहनुमान जी सहज ही देख पा रहे थे। तभी उन्होंने तत्काल ही रावण का भ्रम दूर किया, और बोले-
‘जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।’
श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि हे रावण! बँधे जाने में मुझे कोई लज्जा नहीं है। लज्जा भला किस बात की। क्योंकि मैं तो श्रीराम जी का कार्य कर रहा हूँ। उनकी सेवा में मैं मेघनाद को बाँध लेता, तो भी यह प्रभु की ही कृपा से संभव होता। और अगर मुझे आज बँध जाने की सेवा निभानी है, तो यह भी मेरे प्रभु की ही कृपा है। प्रभु मुझे भवन निर्माण की सेवा दे देंगे, तो हम तो उसमें भी प्रसन्न हैं। और अगर प्रभु हमें उसी भव्य भवन को गिराने का आदेश दे देंगे, तो हमें उसमें भी उतनी ही प्रसन्नता होगी, जितनी उस भवन को बनाने में हुई थी। मान-सम्मान से परे उठेंगे, तभी तो मेरे प्रभु की सेवा से हम न्याय कर पायेंगे। नहीं तो उनकी पावन शरण में आकर भी, निश्चित ही हम कष्टों से ही ग्रसित रहेंगे। रावण ने सोचा, कि इस विचित्र वानर को तो यह भान भी नहीं है, कि इसे दोनों हाथ जोड़ कर मुझसे क्षमा याचना भी करनी है। रावण अपने अहंकार को तुष्ट करता हुआ, फिर एक बार हँसा। रावण हँसा इसलिए, क्योंकि वह यह दिखाना चाहता था, कि वानर जाति को भला क्या अपमान अथवा सम्मान की जानकारी होगी। कारण कि इनका तो वैसे भी कोई सम्मान नहीं होता है। अब जिसका कोई सम्मान ही नहीं, तो भला उसका अपमान क्या होगा। लेकिन वानर को प्राणों का भी भय न हो, यह भला कैसे हो सकता है? कारण कि प्राणों का मोह तो क्षुद्र से क्षुद्र जीव को भी होता है। भला कौन अपने प्राणों को बचाने के लिए, मिन्नतें नहीं करता। निश्चित ही इस वानर को भी मैं अपने समक्ष दोनों हाथ जोड़े देखना चाहता हूँ। सज्जनों संयोग देखिए कि श्रीहनुमान जी ने उसी समय अपने हाथों को जोड़ भी लिया। अवश्य ही श्रीहनुमान जी ने रावण के मन की बात पढ़ ली होगी। लेकिन क्या श्रीहनुमान जी सचमुच रावण से अपने प्राणों की भीख माँगने वाले थे। जी नहीं, ऐसा भला कैसे हो सकता था। क्या गंगा जी भी कभी अपनी पावनता की रक्षा हेतु, किस गंदे नाले के समक्ष झुकती देखी हैं। अथवा सूर्य भगवान को किसी अँधेरी कँद्रा से सहमते देखा है। तो फिर श्रीहनुमान जी रावण के समक्ष, हाथ जोड़ कर क्यों खड़े हो गए। तो चलिए सज्जनों, आपके संदेह का भी नाश कर दें। वास्तव में श्रीहनुमान जी ने हाथ, क्षमा याचना करने के लिए नहीं जोड़े थे। अपितु रावण को सद्मार्ग की शिक्षा देने हेतु, उसे समझाने हेतु जोड़े थे। श्रीहनुमान जी हाथ जोड़ कर क्या आग्रह करते हैं-
‘बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।’
अर्थात हे लंकापति रावण! मैं तुम्हारे समक्ष हाथ जोड़ कर विनती करता हूँ, कि तुम अभिमान छोड़ कर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो, और भ्रम त्यागकर भक्त भयहारी भगवान का भजन करो। रावण ने जब श्रीहनुमान जी के यह वाक्य सुने तो रावण तो हँस-हँस कर मानो पगला-सा गया क्योंकि उसे किसी का सीख देना, तो मानों संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य लग रहा था। कारण कि सीख तो उसने उनकी नहीं सुनी थी, जिनसे समस्त संसार सीख लेता था। अर्थात उसके तपस्वी पिता विश्रवामुनि, और उसके दादा पुलस्तय ऋर्षि। और एक वानर की सीख वह सुन लेगा, यह तो स्वप्न में भी संभव नहीं था। फिर भी हमारे हनुमानजी हाथ जोड़कर  सिख  दे ही देते हैं ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। 
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
एक बार कौशल्याजी, अंजनी माता और अगस्त्य ऋषि की पत्नी हर्षलोमा साथ  साथ में बैठी थीं। कौशल्याजी ने अपने बेटे राम की बड़ाई करते हुए कहा बहन ! मेरा बेटा राम कितना महान है उसने इतने बड़े समुन्दर पर पुल बाँध दिया। यह सुनकर अंजनी माँ से नहीं रहा गया उन्होंने कहा बहन! अगर बुरा न मानो तो मैं भी कुछ कहूँ। मेरा बेटा हनुमान तो एक छलांग में ही समुद्र पार कर दिया था। अब तुम ही विचार करो वह कितना बड़ा पराक्रमी है। अब अगस्त्य ऋषि की पत्नी हर्षलोमा से नहीं रहा गया। उन्होंने  कहा सखियों मेरे पतिदेव ने तो तीन आचमन में ही समुद्र को ही पी लिया था तो सोचो कि वे कितने बड़े महान हैं। यह सुनकर कौशल्या उदास हो गईं और दुखी रहने लगी
कि मेरा बेटा राम तो तीसरे स्थान पर चला गया। माँ को उदास देखकर राम ने पूछा- क्या बात है माँ ?  माता कौशल्या ने सभी बातें दुखी होकर राम को सुनाया ,सब सुनने के बाद राम ने पूछा- अच्छा माँ ! ये तो बताओ, किसका नाम लेकर हनुमान ने समुद्र पार किया और अगस्त्य ऋषि ने  किसका नाम लेकर समुद्र का पान किया ?  मां वह है तेरे बेटे का नाम।
प्रभु राम ने माता श्री को यह भी बताया कि सेतुबंध के समय मैंने एक पत्थर उठाकर समुद्र में डाला वह पत्थर डूब गया। मैंने हनुमान से पूछा– क्या बात है हनुमान ! यह पत्थर क्यों डूब गया ? हनुमान  ने बड़े ही सहजता से समझाया- प्रभु ! आप से बढ़कर आपका नाम है।फिर मेरा नाम राम लिखकर उसने पत्थर समुद्र में छोड़ा वह तैरने लगा। अब माता तू ही बता कौन बड़ा हैं। मां ने कहा  कि 
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। 
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
राम से बढ़कर राम का नाम है।
नाम तुम्हारा तारनहारा............

बुधवार, 11 सितंबर 2024

✓करि बिनती निज कथा सुनाई

मानसचर्चा
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।
अर्थात् राजा जनक ने गुरु विश्वामित्र जी से विनती (स्तुति, अपने भाग्यकी प्रशंसा) करके अपनी कथा सुनायी और सब रंगभूमि मुनिको दिखायी ॥  अब बात आती है कि 
कौन सी कथा सुनाई? इस संबंध में अनेक कथाएं हैं।आज हम इस पर चर्चा करते हैं और कुछ कथाओं को सुनते हैं।
वाल्मीकीय रामायण में श्रीजनकमहाराजने श्रीविश्वामित्रजीसे स्वयं इस धनुषके सम्बन्धकी कथा इस प्रकार कही है- जिस प्रयोजनके लिये यह धनुष मेरे यहाँ रखा गया उसे सुनिये। निमिमहाराजके कुलमें देवरात नाम
एक राजा हो गये हैं। उनको यह धनुष धरोहरके रूपमें मिला था । दक्षयज्ञके विध्वंसके लिये इस धनुषको
श्रीशिवजीने चढ़ाया था, यज्ञका नाश करके उन्होंने क्रोधमें भरकर देवताओंसे कहा कि तुम लोगोंने मुझ भागार्थीको
यज्ञभाग नहीं दिया, अतः मैं इसी धनुषसे तुम सबोंका सिर काटे डालता हूँ। यह सुन देवता लोग उदास हो
गये और किसी तरह उन्होंने शिवजीको प्रसन्न किया। तब शिवजीने यह धनुष देवताओंको दे दिया और
देवताओंने हमारे पूर्वजोंके पास उसे रख दिया । कूर्मपुराणमें भी यह कथा कही जाती है ।
परशुरामजीने श्रीरामजीसे इसके सम्बन्धमें यह कहा था कि ये शारंग  और पिनाक दोनों धनुष अत्युत्तम दिव्य और
लोकोंमें प्रसिद्ध हैं, बड़े दृढ़ हैं, इन्हें  देवशिल्पी विश्वकर्माने बड़े परिश्रमसे ब्रह्म ऋषि  दधीचि की हड्डी से सावधानतापूर्वक बनाया था। इनमेंसे पिनाक को 
देवताओंने  (जिसे तुमने तोड़ा है) महादेवजीको दिया जिससे उन्होंने त्रिपुरासुरका नाश किया, और
दूसरा शारंग को  विष्णुभगवान्‌को दिया । उस समय देवताओंने ब्रह्माजीसे पूछा कि विष्णु और शिवमें कौन अधिक बलवान् है । उनका अभिप्रायमहान् समझकर तथा दोनों धनुषोंमें कौन श्रेष्ठ है यह जाननेके लिये ब्रह्माजीने दोनोंमें विरोध करा दिया, जिससे रोमांचकारी युद्ध हुआ। शिवजीका महापराक्रमी धनुष ढीला पड़ गया और विष्णुके हुंकारसे उस समय शिवजी स्तम्भित हो गये । चारणों और ऋषियोंसहित देवताओंने आकर दोनोंसे शान्त होनेकी प्रार्थना की। तब दोनों अपने-
अपने स्थानको चले गये। अपनी हार देख शिवजीने क्रुद्ध होकर अपना धनुष बाणसहित राजर्षि देवरातको दे
दिया । 
श्रीगोस्वामीजीके मतानुसार यह धनुष पुरके पूर्व दिशामें, पुरके बाहर रखा था, वहीं रंगभूमि बनायी
गयी थी। शिवजीने इसे त्रिपुरासुरके वधके लिये खास तौरपर बनवाया था, जैसा कवितावलीसे सिद्ध है-
'मयनमहन, पुर-दहन-गहन जानि, आनिकै सबैको सारु धनुष गढ़ायो है। जनक सदसि जेते भले- भले भूमिपाल
किए बलहीन बल आपनो बढ़ायो है ।मानस में
भी इस धनुष के साथ त्रिपुरारि वा पुरारि शब्दोंका प्रयोग हुआ है । यथा 'सोइ पुरारि कोदंड कठोरा। राजसमाज
आजु जोइ तोरा ॥' धनुही सम त्रिपुरारि धनु बिदित सकल संसार । इससे भी इसीसे त्रिपुरका नाश किया जाना सिद्ध होता है। धनुष जनकजीको सौंप दिया गया था, यह गीतावलीमें भी कहा है; यथा - ' अनुकूल नृपहि सूल-पानि हैं। नीलकंठ कारुन्यसिंधु हर दीनबन्धु दिन दानि हैं। जो पहिले ही पिनाक जनक कहँ गए सौप जिय जानि हैं। बहुरि त्रिलोचन लोचनके फल सबहि सुलभ किए आनि हैं ॥'इस ग्रन्थसे भी यही सिद्ध होता है, यथा - 'सोइ पुरारि कोदंड कठोरा' 
राजा जनकने विश्वामित्रजीसे धनुषका अपने यहाँ रखे जानेका प्रयोजन कहकर फिर यह भी बताया कि
यज्ञके लिये मैं हलसे खेत जोत रहा था। उस समय हलके अग्रभाग- ( सीता - ) की ठोकरसे एक कन्या पृथ्वीसे
निकल आयी, जो अपने जन्मके कारण 'सीता' के नामसे प्रसिद्ध हुई । मैंने इस अपनी अयोनिजा कन्याका शुल्क
यही रखा कि जो इस- (धनुष) को उठाकर इसपर रोदा चढ़ा दे उसीको यह ब्याही जायगी। अनेक राजा आये ।
कोई भी इसे न उठा सका- ' न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा ।' उन्होंने इससे अपनेको तिरस्कृत समझ नगरको घेर लिया। एक वर्षतक संग्राम होनेसे मेरे सब साधन नष्ट हो गये, तब मैंने तपस्याद्वारा देवताओंको प्रसन्नकर उनकी चतुरंगिणी सेना प्राप्त कर सबको पराजित किया । - यह वही धनुष है ।
सत्योपाख्यानमें श्रीसीतास्वयंवरके विषयमें यह कथा लिखी है कि श्रीजानकीजीकी महिमा देख
श्रीसुनयना अम्बाजीने सोचा कि इनका विवाह इन्हींके अनुकूल पुरुषसे करना चाहिये और श्रीशीरध्वज
महाराजसे उन्होंने अपना विचार प्रकट किया। राजा भी सहमत हुए और इसी संकल्पसे पृथ्वीपर कुशा
बिछाकर उसपर सोये । शिवजीने स्वप्नमें दर्शन देकर यह आज्ञा दी कि तुम जिस हमारे धनुषका पूजनकरते हो उसके विषयमें यह प्रतिज्ञा करो कि जो इसे तोड़ेगा उसीके साथ श्रीजानकीजीका विवाह किया जायगा ।
यथा - 'धनुर्मदीयं ते गेहे पूजितं तव पूर्वजैः । तस्य प्रतिज्ञा त्वया कार्या भंगाय तोलनाय च । तोलयित्वा च यो भंग कारयेद्धनुषो मम । तस्मै देया त्वया कन्या ह्येवमुक्त्वा गतो हरः । ' सबेरे राजाने यह वृत्तान्त मन्त्रियोंसे कह उनकी सम्मतिसे राजाओंको निमन्त्रण भेजा, वे सब आये। रावणको भी निमन्त्रण गया; उसका मन्त्री
प्रहस्त आया था। बाणासुर और काशिराज सुधन्वा भी (जो शिवभक्त थे) आये।.... । ' धनुष कोई न उठा सका। सुधन्वाने कहा कि धनुषसहित सीताजीको हमें दे दो, नहीं तो हम तुम्हारा नगर लूट लेंगे।
सालभर बराबर लड़ाई होती रही पर राजाने प्रतिज्ञा न छोड़ी। अन्तमें श्रीशिवजीकी कृपासे सुधन्वा मारा गया और काशी नगरी कुशध्वजको दे दी गयी। राजाओंको फिर निमन्त्रण भेजा गया। 
धनुष तोड़नेकी प्रतिज्ञाके सम्बन्धमें और भी कथाएँ हैं - पहली कथा है कि अध्यात्म रामायण में पाणिग्रहणके पश्चात् जनकजीने
श्रीवसिष्ठजी और श्रीविश्वामित्रजीसे बताया कि एक दिन जब मैं एकान्तमें बैठा हुआ था, देवर्षि नारद आये और
मुझसे कहा कि परमात्मा अपने चार अंशोंसहित दशरथपुत्र होकर अयोध्यामें रहते हैं । उनकी आदिशक्ति तुम्हारे यहाँ सीतारूपसे प्रकट हुई हैं। अत: तुम प्रयत्नपूर्वक इनका पाणिग्रहण रघुनाथजीके साथ ही करना, क्योंकि यह पहले से ही रामजीकी ही भार्या हैं- 'पूर्वभायैषा रामस्य परमात्मनः । ' देवर्षिके चले जानेपर यह सोचते हुए कि किस प्रकार जानकीजीको रघुनाथजीको दूँ, मैंने एक युक्ति विचारी कि सीताके पाणिग्रहणके लिये सबके गर्वनाशक इस धनुषको ही पण (शुल्क) बनाऊँ। मैंने वैसा ही किया। आपकी कृपासे कमलनयन राम यहाँ धनुष देखनेको आ गये और मेरा मनोरथ सिद्ध हो गया । 
दूसरी कथा मिलती है कि महा सुनयना प्रतिदिन चौका दिया करती थीं। एक दिन अवकाश न मिलनेके कारण उन्होंने सीताजीको चौका लगानेको भेजा । इन्होंने धनुष उठाकर उसके नीचे भी चौका लगाया।  तीसरी  कथा यह है कि'एक समय जानकीजीने खेलते हुए सखियोंके सामने धनुषको उठा लिया। यह सुन राजाने धनुषभंगकी प्रतिज्ञा की।' एक  कथा यों  भी है कि राजा जनक अपने महलसे कुछ दूरीपर धनुषकी पूजा करने जाया करते थे। एक दिन सीताजी उनके साथ गयीं । उन्होंने विचारकर कि पिताजी इसीकी पूजाके कारण परिश्रम कर यहाँ आते हैं, वे उसे उठाकर अपने घर ले आयीं । अन्य  कथा यह भी कही जाती  है कि धनुषके आस-पास सीताजी सखियोंसहित चाईं माईं खेल रही थीं, ओढ़नीका अंचल धनुषमें अटका और धनुष स्थानसे हट गया ।ऐसा चमत्कार देखकर राजा जान गये कि सीता तो  ब्रह्मविद्या (आदिशक्ति) है। और राजा ने प्रतिज्ञा किया कि जो इस धनुषको तोड़े उसके साथ इसका विवाह करना योग्य है। इन सारी कथाओं को सुनाया या एक को कथा तो सुनाया । जो भी हो राजा जनक  ने गुरू विश्वामित्र से निवेदन किया कि   शिवजीने हमें जो उपदेश दिया कि तुम प्रतिज्ञा करो कि जो इस धनुषको तोड़े वही जानकीको ब्याहेगा। उसी  आज्ञा के अनुसार   हमने प्रतिज्ञा की, रंगभूमि बनवायी, कृपया चलकर इसे देखिये ।  
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

✓।।जीवन प्रबंधन के गुरु है हनुमानजी।।

।।जीवन प्रबंधन के  गुरु है हनुमानजी।।
हनुमान जी को कलियुग में सबसे प्रमुख ‘देवता’ माना जाता है। रामायण के सुन्दर कांड और तुलसीदास की हनुमान चालीसा में बजरंगबली के चरित्र पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसके अनुसार हनुमान जी का किरदार हर रूप में युवाओं के लिए प्रेरणादायक है।
हनुमान जी के बारे में तुलसीदास लिखते हैं ‘संकट कटे मिटे सब पीरा,जो सुमिरै हनुमत बल बीरा’। हमेशा अपने भक्तों को संकट से निवृत्त करने वाले हनुमान जी ‘स्किल्ड इंडिया’ के जमाने में युवाओं के परमप्रिय देवता होने के साथ ही उनके जीवन प्रबंधन गुरु की भी भूमिका निभाते हैं।
आज हम आपको ‘बजरंगबली’ के उन 10 गुणों के बारे में बताएंगे, जो न केवल आपको ‘उद्दात’ बनाएंगे, बल्कि आपके प्रोफ्रेशनल जीवन के लिए भी काफी प्रेरक साबित होंगे।
(1) संवाद कौशल : – सीता जी से हनुमान पहली बार रावण की ‘अशोक वाटिका’ में मिले, इस कारण सीता उन्हें नहीं पहचानती थीं। एक वानर से श्रीराम का समाचार सुन वे आशंकित भी हुईं, परन्तु हनुमान जी ने अपने ‘संवाद कौशल’ से उन्हें यह भरोसा दिला ही दिया की वे राम के ही दूत हैं। सुंदरकांड में इस प्रसंग को इस तरह व्यक्त किया गया हैः
“कपि के वचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिस्वास ।
जाना मन क्रम बचन यह ,कृपासिंधु कर दास ।।”
(2)विनम्रता : – समुद्र लांघते वक्त देवताओं ने ‘सुरसा’ को उनकी परीक्षा लेने के लिए भेजा। सुरसा ने मार्ग अवरुद्ध करने के लिए अपने शरीर का विस्तार करना शुरू कर दिया। प्रत्युत्तर में श्री हनुमान ने भी अपने आकार को उनका दोगुना कर दिया। “जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा।” इसके बाद उन्होंने स्वयं को लघु रूप में कर लिया, जिससे सुरसा प्रसन्न और संतुष्ट हो गईं। अर्थात केवल सामर्थ्य से ही जीत नहीं मिलती है, “विनम्रता” से समस्त कार्य सुगमतापूर्वक पूर्ण किए जा सकते हैं।
(3)आदर्शों से कोई समझौता नहीं : – लंका में रावण के उपवन में हनुमान जी और मेघनाथ के मध्य हुए युद्ध में मेघनाथ ने ‘ब्रह्मास्त्र’ का प्रयोग किया। हनुमान जी चाहते, तो वे इसका तोड़ निकाल सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वह उसका महत्व कम नहीं करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मास्त्र का तीव्र आघात सह लिया। हालांकि, यह प्राणघातक भी हो सकता था। यहां गुरु हनुमान हमें सिखाते हैं कि अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए । तुलसीदास जी ने हनुमानजी की मानसिकता का सूक्ष्म चित्रण इस पर किया हैः
“ब्रह्मा अस्त्र तेंहि साँधा, कपि मन कीन्ह विचार । 
जौ न ब्रहासर मानऊँ, महिमा मिटई अपार ।
(4)बहुमुखी भूमिका में हनुमान : – हम अक्सर अपनी शक्ति और ज्ञान का प्रदर्शन करते रहते हैं, कई बार तो वहां भी जहां उसकी आवश्यकता भी नहीं होती। तुलसीदास जी हनुमान चालीसा में लिखते हैंः “सूक्ष्म रूप धरी सियंहि दिखावा, विकट रूप धरी लंक जरावा ।”
सीता के सामने उन्होंने खुद को लघु रूप में रखा, क्योंकि यहां वह पुत्र की भूमिका में थे, परन्तु संहारक के रूप में वे राक्षसों के लिए काल बन गए। एक ही स्थान पर अपनी शक्ति का दो अलग-अलग तरीके से प्रयोग करना हनुमान जी से सीखा जा सकता है।
(5)समस्या नहीं समाधान स्वरूप : – जिस वक़्त लक्ष्मण रण भूमि में मूर्छित हो गए, उनके प्राणों की रक्षा के लिए वे पूरे पहाड़ उठा लाए, क्योंकि वे संजीवनी बूटी नहीं पहचानते थे। हनुमान जी यहां हमें सिखाते हैं कि मनुष्य को शंका स्वरूप नहीं, वरन समाधान स्वरूप होना चाहिए।
(6)भावनाओं का संतुलन : – लंका के दहन के पश्चात् जब वह दोबारा सीता जी का आशीष लेने पहुंचे, तो उन्होंने सीता जी से कहा कि वह चाहें तो उन्हें अभी ले चल सकते हैं, पर “मै रावण की तरह चोरी से नहीं ले जाऊंगा। रावण का वध करने के पश्चात ही यहां से प्रभु श्रीराम आदर सहित आपको ले जाएंगे।” रामभक्त हनुमान अपनी भावनाओं का संतुलन करना जानते थे, इसलिए उन्होंने सीता माता को उचित समय (एक महीने के भीतर) पर आकर ससम्मान वापिस ले जाने को आश्वस्त किया।
(7)आत्ममुग्धता से कोसों दूर :- सीता जी का समाचार लेकर सकुशल वापस पहुंचे श्री हनुमान की हर तरफ प्रशंसा हुई, लेकिन उन्होंने अपने पराक्रम का कोई किस्सा प्रभु राम को नहीं सुनाया। यह हनुमान जी का बड़प्पन था,जिसमे वह अपने बल का सारा श्रेय प्रभु राम के आशीर्वाद को दे रहे थे। प्रभू श्रीराम के लंका यात्रा वृत्तांत पूछने पर हनुमान जी जो कहा उससे भगवान राम भी हनुमान जी के आत्ममुग्धताविहीन व्यक्तित्व के कायल हो गए।
“ता कहूं प्रभु कछु अगम नहीं, जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तव प्रभाव बड़वानलहि ,जारि सकइ खलु तूल ।।
(8)नेतृत्व क्षमता : – समुद्र में पुल बनाते वक़्त अपेक्षित कमजोर और उच्चश्रृंखल वानर सेना से भी कार्य निकलवाना उनकी विशिष्ठ संगठनात्मक योग्यता का परिचायक है। राम-रावण युद्ध के समय उन्होंने पूरी वानरसेना का नेतृत्व संचालन प्रखरता से किया।
(9)बौद्धिक कुशलता और वफादारी : – सुग्रीव और बाली के परस्पर संघर्ष के वक़्त प्रभु राम को बाली के वध के लिए राजी करना, क्योंकि एक सुग्रीव ही प्रभु राम की मदद कर सकते थे। इस तरह हनुमान जी ने सुग्रीव और प्रभु श्रीराम दोनों के कार्यों को अपने बुद्धि कौशल और चतुराई से सुगम बना दिया। यहां हनुमान जी की मित्र के प्रति ‘वफादारी’ और ‘आदर्श स्वामीभक्ति’ तारीफ के काबिल है।
(10)समर्पण : – हनुमान जी एक आदर्श ब्रह्चारी थे। उनके ब्रह्मचर्य के समक्ष कामदेव भी नतमस्तक थे। यह सत्य है कि श्री हनुमान विवाहित थे, परन्तु उन्होंने यह विवाह एक विद्या की अनिवार्य शर्त को पूरा करने के लिए अपने गुरु भगवान् सूर्यदेव के आदेश पर किया था। श्री हनुमान के व्यक्तित्व का यह आयाम हमें ज्ञान के प्रति ‘समर्पण’ की शिक्षा देता है। इसी के बलबूते हनुमान जी ने अष्ट सिद्धियों और सभी नौ निधियों की प्राप्ति की।
     बड़ी विडंबना है कि दुनिया की सबसे बड़ी युवा शक्ति भारत के पास होने के बावजूद उचित जीवन प्रबंधन न होने के कारण हम युवाओं की क्षमता का समुचित दोहन नहीं कर पा रहे हैं। युवाओं के बीच खासे लोकप्रिय श्री हनुमान निश्चित रूप से युवाओं के लिए सबसे बड़े आदर्श हैं, क्योंकि हनुमान जी का चरित्र अतुलित पराक्रम, ज्ञान और शक्ति के बाद भी अहंकार से विहीन था।
आज हमें हनुमान जी की पूजा से अधिक उनके चरित्र को पूजकर उसे आत्मसात करने की आवश्यकता है, जिससे हम भारत को राष्ट्रवाद सरीखे उच्चतम नैतिक मूल्यों के साथ ‘कौशल युक्त’ भी बना सकें।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मंगलवार, 10 सितंबर 2024

रामचरितमानस की काव्यभाषा में रस


रामचरितमानस की काव्यभाषा में रस
कविता भाषा की एक विधा है और यह एक विशिष्ट संरचना अर्थात् शब्दार्थ का विशिष्ट प्रयोग है। यह (काव्यभाषा) सर्जनात्मक एक सार्थक व्यवस्था होती है जिसके माध्यम से रचनाकार की संवदेना, अनुभव तथा भाव साहित्यिक स्वरूप निर्मित करने में कथ्य व रूप का विषिष्ट योग रहता है। अत: इन दोनों तत्त्वों का महत्त्व निर्विवाद है। कवि द्वारा गृहित, सारगर्भित, विचारोत्तोजक कथ्य की संरचना के लिए भाषा का तद्नुरूप प्रंसगानुकूल, प्रवाहनुकूल होना अनिवार्य है। भाषा की उत्कृष्ट व्यंजना शक्ति का कवि अभिज्ञाता व कुशल प्रयोक्ता होता है। रचनाकार अपनी अनुभूति को विशिष्ट भाषा के माधयम से ही सम्प्रेषित करता है, यहीं सर्जनात्मक भाषा अथवा साहित्यिक भाषा ‘काव्यभाषा’ कहलाती है। काव्यभाषा के संदर्भ में रस का महत्तवपूर्ण स्थान है। प्रौढ और महान् कवि काव्यषास्त्र के अन्य तत्त्वों की अपेक्षा रस से मुख्यतया अपने काव्य में रसयुक्त भाव की सृष्टि करता है।
    व्युत्पत्ति की दृष्टि से रस शब्द रस् धातु से निर्मित है, जिसका अर्थ है स्वाद लेना। रस शब्द स्वाद, रुचि, प्रीति, आनन्द, सौंदर्य आदि के साथ ही तरल पदार्थ, जल, आसव आदि भौतिक अर्थो में प्रयुक्त होता रहा है। रस का व्याकरण सम्मत अर्थ है-‘रस्यते आस्वधते इति रस:’ अर्थात जिसका स्वाद लिया जाय या जो आस्वादित हो, उसे रस कहते हैं। रस सिद्धांत के अनुसार काव्य की आत्मा रस है। इससे काव्यवस्तु की प्रधानता लक्षित होती है,विभिन्न रसों के अनुरूप काव्यरचना करने में काव्यभाषा की स्पष्ट झलक है। अनुभूति जब हृदय में मंडराती है, वह अरूप और मौन है पर इससे ही अभिव्यक्त होती है तो किसी न किसी भाषा में ही होती है। अभिनव गुप्त ने लिखा है कि शब्द-निष्पीङन में काव्यानंद की प्राप्ति होती है। यह शब्द-निष्पीङन काव्यभाषा का काम है। इन्होंने (अभिनवगुप्त) अभिधा और व्यंजना को स्वीकारते हुए रसों की अभिव्यक्ति स्वीकार की है।
  आचार्य भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में रस को परिभाषित करते हुए लिखा है-जिस प्रकार नाना भॉति के व्यंजनों से सुसंस्कृत अन्न को ग्रहण कर पुरुष रसास्वादन करता हुआ प्रसन्नचित्त होता है, उसी प्रकार प्रेषक या दर्शक भावों तथा अभिनयों द्वारा व्यंजित वाचिक, आंगिक एवं सात्विक भावों तथा अभिनयों द्वारा व्यंजित वाचिक, आंगिक एवं सात्विक भावों से युक्त स्थायी भाव का आस्वादन कर हर्षोत्फुल्ल हो जाता है।
       आचार्य मम्मट के अनुसार लोक में रति आदि चित्तवृत्तियों के जो कारण, कार्य और सहकारी होते हैं, वे ही काव्य अथवा नाटक में विभाव, अनुभाव एवं संचारी या व्याभिचारी भाव कहे जाते हैं तथा उन विभावादि के द्वारा व्यक्त (व्यंजनागम्य) होकर स्थायी भाव रस कहा जाता है।
        आधुनिक रसवादी आलोचक डॉ. नगेंद्र भी साधरणीकरण को भाषा का धर्म मानते हैं।
      रामचरितमानस में काव्य-स्वीकृत सभी रसों की सुंदर योजना की गईं हैं । महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने भक्तयात्मक व्यक्तित्व के प्रभाव से भक्ति नामक भाव को ‘भक्तिरस’ में प्रतिष्ठित भी कर दिया है।
     आज तक रसों की स्वीकृत संख्या बारह तक पहुंची है। वे ये हैं -शृगांर, हास्य, करूण; रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शान्त, वात्सल्य, सख्य, और भक्तिरस।
     आइए आज हम रामचरितमानस में रस संयोजन को देखते हैं।
(1)शृंगार रस- शृंगार रस का स्थायी भाव ‘रति’ है और नायक- नायिका आलंबन और आश्रय हैं। शृंगार शब्द ‘शृंग’ और ‘आर’ के योग से निष्पन्न हुआ है।आचार्य भरत के अनुसार शृंगार रस उज्ज्वल वेशात्मक, शुचि और दर्शनीय होता है। प्रेमियों के मन में संस्कार-रूप से वर्तमान रति या प्रेम रसावस्था को पहुँचकर जब आस्वादयोग्यता को प्राप्त करता है तब उसे शृंगार रस कहते हैं।गोस्वामीजी भक्ति-रस के समर्थक हैं। परंतु कवि-कर्म की दृष्टि से शृंगार रस का भी वर्णन रामचरितमानस में आया है, जिससे भाव चित्रों की रमणीयता बढ गयी है। शृंगार के दो भेद हैं-
(क) संयोग शृंगार–
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। 
सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥

भये विलोचन चारु अचंचल।
मनहु सकुचि निमि तजेउ दिंगचल॥

देखि सीय सोभा सुखु पावा।
हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥

जनु बिरंचि सब निज निपुनाई।
बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥

थके नयन रघुपति छबि देंखे।
पलकन्हिहूं परिहरिं निमेषें॥

अथिक सनेह देह भइ भोरी।
सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥

(ख) वियोग शृंगार-

घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥

दामिनी दमक रह न घन माहीं।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। 
कालनिसा सम निसि ससि भानू।।

(2 )हास्य रस –विकृत वेश- रचना या वचन भंगी के द्वारा हास्य रस की उत्पत्ति होती है। इसका स्थायी भाव हास है और आलंबन है-विचित्र वेशभूषा, व्यंग्य भरे वचन, उपाहासास्पद व्यक्ति की मुर्खताभरी चेष्टा, हास्योपादक पदार्थ, निर्लज्जता आदि। हास्यवर्द्धक चेष्टाएँ इसके उद्दीपन हैं और गले का फुलाना, असत् प्रलाप, ऑंखों का मींचना, मुख का विस्फारित होना तथा पेट का हिलना आदि अनुभाव हैं। इसके संचारी अश्रु, कंप, हर्ष, चपलता, श्रम, अवहित्था, रोमांच, स्वेद, असूया आदि हैं।  रामचरितमानस में हास्य रस के निम्न उदाहरण देखने को मिलते हैं-
मर्कट बदन भेकर देही। देखत हृदय क्रोध भा तेही॥
जेही दिसि नारद फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली॥
पुनि पुनि मुनि उकसाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥11

(3 )करुण रस- इष्ट की हानि, अनिष्ट की प्राप्ति, धननाश या प्रिय व्यक्ति की मृत्यु में करूण रस होता है। इसका स्थायी भाव शोक है आलंबन के अंतर्गत पराभाव आदि आते हैं। प्रिय वस्तु आदि के यश, गुण आदि का स्मरण आदि उद्दीपन हैं। अनुभाव हैं- रूदन, उच्छ्वास मुर्च्छा, भूमिपतन, प्रलाप आदि। संचारी भावों में व्याधि, ग्लानि, दैन्य, चिंता, विषाद एवं उन्माद आदि। तुलसी के रामचरितमानस में भी करूण -रसकी छटा देखने को मिलती है-
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहु कर धीरज कर धीरजु भागा॥
सोक बिलाप सब रोबहिं रानी। रूप सीलु बलु तेजु बखानी॥
करहीं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमि तल बारहीं बारा॥1
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदन करहिं पुरबासी॥
अथएउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधी गुन रूप निधानू॥

(4 )रौद्र रस-शत्रु के असहनीय अपराध या अपकार के कारण क्रोध भाव की पुष्टि से रौद्ररस उत्पन्न होता है। क्रोध इसका स्थायी भाव है। इसके अनुभाव हैं-विकत्थन, ताडन, स्वेद आदि तथा आलंबन- विरोधियों द्वारा किए गए अनिष्ट कार्य,अपराध,एवं अपकार होते हैं। संचारी भाव हैं- उग्रता, अमर्ष, चंचलता, उध्देग, मद, असूया, श्रम, स्मृति, आवेग आदि। रामचरितमानस में भी रौद्र रस  अनेक प्रकरणों में देखने को मिलता है-
अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जङ जनक धनुष कै तोरा॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥
परसुरामु तब राम बोले उर अति क्रोधु।
संभू सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥

(5 )वीर रस-जब उत्साह के भाव का परिपोषण होता है तो वीर रस की उत्पत्ति होती है। वीर तीन प्रकार हैं- युद्धवीर, दानवीर और दयावीर। इसका स्थायी भाव उत्साह है और शत्रु, विद्वज्जन, दीन आदि आलंबन होते हैं। इसके अनुभाव हें- शौर्य, दान, दया आदि और अपकार, गुण, कष्ट आदि उद्दीपन हैं। आवेग, हर्ष, चिंता आदि संचारी होतो हैं।  रामचरितमानस में  वीर रस अनेक रूप में देखने को मिलता है-
रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥
दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई॥

(6 ) भयानक रस – भयंकर परिस्थिति ही भयानक रस की उत्पत्ति का कारण है। भयदायक पदार्थो के दर्शन, श्रवन अथवा प्रबल शत्रु के विरोध के कारण भयानक -रस की उत्पत्ति होती है। इसका स्थायी भाव भय है और व्याघ्र, सर्प, हिंसक प्राणी, शत्रु आदि आलंबन हैं। हिंसक जीवों की चेष्टाएँ, शत्रु के भयोत्पादक व्यवहार, विस्मयोपादक ध्वनि आदि उद्दीपन हैं। अनुभाव, रोमांच, स्वेद, कंप, वैवर्ण्य, रोना, चिल्लाना आदि हैं। संचारी भाव हैं- शंका, चिंता, ग्लानि, आवेग, मुर्च्‍छा, त्रास, जुगुप्सा, दीनता आदि।  रामचरितमानस में भयानक रस अनेक रूप में देखने को मिलता है-
तब खिसिआनि राम पहिं गई। रूप भंयकर प्रगटत भई॥
नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥

(7 )बीभत्स रस- घृणोंत्पादक पदार्थों के देखने ,सुनने से घृणा या जुगुप्सा रस होता है। इसका स्थायी भाव जुगुप्सा है। श्‍मशान, शव, सङामांस, रूधिर, मलमूत्र, घृणोत्पादक पदार्थ आदि आलंबन है। उद्दीपन भाव हैं गीधों का मांस नोचना,कीङों-मकोङो का छटपटाना,कुत्सित रंग-रूप आदि। आवेग ,मोह, जङता, चिंता, व्याधि, वैवर्ण्य, उन्माद, निर्वेद, ग्लानि, दैन्य आदि संचारी भाव हैं। रामचरितमानस  में भी यह रस अनेक स्थानों पर  देखने को मिलता हैं-
काक कंक लै भुजा उडाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥

खैंचहि गीध ऑंत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥

बहु भट बहहिं चढे खग जाहीं।जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥

(8 )अद्भूत रस-दिव्य दर्षन ,इंद्रजाल या विस्मयजनक कर्म एवं पदार्थों के देखने से आष्चर्य है। अलौकिक घटना और अद्भुत इसके आलंबन हैं। अनुभाव है- निर्निमेष, दर्शन, रोमांच, स्वेद, स्तंभ आदि। इसके संचारी भाव जङता, दैन्य, आवेग, शंका, चिंता, वितर्क, हर्ष, चपलता, उत्सुकता आदि हैं। रामचरितमानस में भी यह रस हमें अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है-
जोजन भर तेहि बदनु पसारा।कवि तनु कीन्ह दुगन विस्तारा॥
सोरह जोजन तेहि आनन ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥
जस जस सुरसा बदन बढावा। तासु दून कपि रूप दिखावा॥
सत जोजन तेहि आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवन सुत लीन्हा॥

(9) शान्त रस –तत्त्वज्ञान एव वैराग्य से शान्त रस उत्पन्न है। इसका स्थायी भाव निर्वेद है और आलंबन है मिथ्या रूप से ज्ञात संसार तथा परमात्म-चिंतन आदि। इसके अनुभाव हैं- शास्त्र-चिंतन, संसार की अनित्यता का ज्ञान आदि। शांत रस कं संचारी भाव मति, धैर्य, हर्ष आदि हैं। इसके उद्दीपन पुण्याश्रम, तीर्थ-स्थान, रमणीय वन एवं सत्संगति हैं।  रामचरितमानस में भी इस रस को  देखते हैं-
रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि बिषय अनल बन जरइ। होइ सुखी जौं एहिं सर परई॥
करि बिनती मंदिर लै तारा। करि बिनती समुझाव कुमारा॥
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥

(10) वात्सल्य रस-पुत्रादि के प्रति माता-पिता के स्नेह से वात्सलरस उत्पन्न होता है। इसका स्थायी भाव है- संतान के प्रति रति या वात्साल्य प्रेम  है और पुत्रादि आलंबन हैं। शिर चुबंन, आलिंगन आदि अनुभाव हैं और पुत्रादि की चेष्टाएँ उद्दीपन। अनिष्ट, शंका, हर्ष, गर्व आदि को वत्सलरस का संचारी माना गया है।  रामचरितमानस में  यह रस  अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है- इसके भी दो भेद हैं 

(क) संयोग वात्सल्य-
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुक ठुमुक प्रभु चलहिं पराई॥

(ख)वियोग वात्सल्य-

सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥

(11 ) साख्य रस –इस रस में मित्रता का भाव होता है। इस महाकाव्य में भी सख्य भाव के रस को  देखते हैं -
तुम मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहहु पुर आवत जाता॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी॥
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि तानां मित्रक दुख रज मेरु समाना॥

(12) भक्ति रस- ईश्‍वर-प्रेम के कारण भक्ति रस उत्पन्न होता है। इसके आलंबन हैं भगवान् और उनके वल्ल्भरूप, राम, कृष्ण, आदि अन्य अवतार। भगवान् के गुण, चेष्टा, प्रसाधन, ईश्‍वर के अलौकिक कार्य, सत्संग एवं भगवान् की महिमा का गान आदि इसके उद्दीपन हैं। नृत्य, गीत, अश्रुपात, नेत्रनिमीलन आदि भक्ति रस के अनुभाव हैं और हर्ष, गर्व, निर्वेद, मति आदि संचारी भाव हैं। रामचरितमानस में यह रस अनेक रूप से देखने को मिलता है-
मति अति नीच उँचि रुचि आछी।चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरी ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥

गोस्वामीजी  का रस स्वरूप सहृदय पाठक के चित के आवरण को दूर करने के कारण, चित का मद, मोह, काम, क्रोध, दंभ आदि भावनाओं से विमुक्ति दिलाने के कारण,मन में विवेक रूपी पावक को अरनी के समान जगाने के कारण, गृह कारज संबंधी वैयक्ति जंजालों से मुक्ति के कारण,  कलिकलुष मिटाने के कारण, मानस का  भक्ति रस अलौकिक तथा ब्रहमानंद सहोदर कोटि का है।
  इससे यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि गोस्वामीजी  के रस तत्त्व में सहृदयों की सभी इच्छाएँ निहीत है। इनकी रस संबंधी धारणा में सहृदयों की सभी मनोवृत्तियो, सभी प्रमुख भावों, साधित भावनाओं, सहचर भावनाओं, सभी आदर्शों, मूल्यों, सत्-चित आनंद तत्त्वों, उदात्त् तत्त्वों,  वास्तविकताओं, कल्पना, चिंतन, अनुभूति तत्त्वों, पुरुषार्थ सिद्धियों का समावेश है अन्यथा उनका रस तत्त्व सबको अनुरंजित करने में सफल नहीं होता। इनका काव्यरस इतना उच्च कोटि का है वह विरोधी को भी विभोर कर देता है, शत्रु  भी सहज बैर को भुलकर काव्यानंद द्वारा उसके आस्वादन में मग्न हो जाता है। गोस्वामी द्वारा संकेतित रस इतना उच्च कोटि का है कि वह सब प्रकार के मानसिक रोगों को नष्ट करने वाला है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।

✓हनुमानजी ने मेघनाद का रथ क्यों तोड़ा?

हनुमानजी ने मेघनाद का रथ क्यों तोड़ा?
रावण ने जब सुना, कि उसका पूत्र अक्षय कुमार भी काल की भेंट चढ़ गया है। तो वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसे तो इस बात की स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी, कि कोई वानर इस अभेद्य लंका नगरी में आयेगा, और ऐसा साहस करेगा, कि मेरी मूँछ का बाल ही उखाड़ कर ले जायेगा। यह कोई यूँ ही भुला देने वाली घटना नहीं थी। अबकी बार रावण को लगा, कि बैरी सचमुच ही बलवान है। रावण को इच्छा हुई, कि निश्चित ही ऐसे वानर को देखना चाहिए। वध तो उसका मैं कभी भी कर डालूंगा। लेकिन पहले मैं उसकी सूरत तो देख लूँ, कि वह वानर कैसा प्रतीत होता है। इसलिए मैं अब अपने पुत्र मेघनाद को भेजता हूँ और उसे ठोक कर कहता हूँ, कि वह अबकी बार उस वानर को मारे नहीं, अपितु उसे पकड़ कर मेरे पास लेकर आये-
‘सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना।।
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।’
बस फिर क्या था, इन्द्र को जीतने वाला अतुलित योद्धा मेघनाद पूरे बल व शौर्य को साथ ले चला। मेघनाद भी अपने भाई के मारे जाने से  क्रोध में था। किसी भयंकर कोबरे की भाँति ही, मेघनाद भी फुंफकारता हुआ अशोक वाटिका में प्रवेश करता है। श्रीहनुमान जी ने देखा, कि अबकी बार रावण ने बड़ा भारी योद्धा को भेजा है। तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े-
‘चला इन्द्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।’
श्रीहनुमान जी ने के लड़ने का तरीका ही बड़ा विलक्षण है। वे अपनी गदा का प्रयोग कर ही नहीं रहे। अन्यथा मेघनाद की क्या बिसात थी, कि वह श्रीहनुमान जी के मार्ग पर एक कदम भी बढ़ पाता। कारण कि अगर श्रीहनुमान जी सहज ही अपनी गदा को लंका की धरा पर पटक देते, तो पूरी लंका नगरी के गुम्बद ढह जाते। फिर मेघनाद की क्या हस्ती, कि वह श्रीहनुमान जी के समक्ष खड़ा भी रह पाता। लेकिन श्रीहनुमान जी हैं कि अपनी गदा का प्रयोग कर ही नहीं रहे। वे तो बस अशोक वाटिका के वृक्षों को उखाड़-उखाड़ कर ही राक्षसों का संहार किए जा रहे हैं। मानो श्रीहनुमान जी का क्रोध राक्षसों के साथ-साथ, अशोक वाटिका के वृक्षों पर भी बरस रहा था। वह इसलिए, क्योंकि इन वृक्षों में भी बला का छल था। माता सीता जी जिस वृक्ष के नीचे विराजमान थी। वह भी मात्र नाम का ही ‘अशोक वृक्ष’ था। वह वास्तव में किसी को शोक  रहित  नहीं कर पा रहा था। अपितु वह तो माता सीता जी के दुख का आठों प्रहर साक्षी बना रहा। और एक क्षण के लिए भी, सीता मईया का कष्ट हरण नहीं कर पाया। वाह री लंका नगरी, नाम कुछ और, और काम कुछ और। तो क्या करना ऐसे प्रपंची व पाखंड़ी वृक्षों का, जो अपने नाम के अनुसार व्यवहार ही नहीं कर पा रहे हों। श्रीहनुमान जी रावण को यही संदेश देना चाह रहे थे, कि हे रावण यह बात अपने हृदय में ठीक से धारण कर लो कि तुम्हारा छल व कपट तब तक ही अस्तित्व में है, जब तक तुम्हारा सामना संत से नहीं हो जाता। संत ऐसे कपट से भरे धूर्तों को यूँ ही जड़ से उखाड़-उखाड़ कर फेंकते हैं। मानो श्रीहनुमान जी कहना चाह रहे हों, कि हे रावण जैसे मैं इन वृक्षों को उखाड़-उखाड़ कर फेंक रहा हूँ, ठीक ऐसे ही मैं तुम्हें और तुम्हारे प्रत्येक दुष्ट राक्षस को उखाड़-उखाड़ कर नष्ट करूँगा। श्रीहनुमान जी ने मेघनाद को देख कर जो वृक्ष उखाड़ा था, उन्होंने उस वृक्ष का ऐसा प्रहार किया, कि मेघनाद का रथ ही तोड़ डाला, और उसे बिना रथ के कर डाला। मेघनाद नीचे गिर गया। और श्रीहनुमान जी मेघनाद के संग आये राक्षसों को अपने शरीर के साथ मसल-मसल कर प्राणहीन करने लगे-
‘अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा।।’
श्रीहनुमान जी ने मेघनाद का रथ तोड़ा, तो यह भी मेघनाद के लिए एक संदेश ही था। वह यह कि हे मेघनाद तुम्हें इतना भी ज्ञान नहीं, कि किसी संत से भेंट करने जाओ, तो अपने रथ पर चढ़ कर थोड़ी न जाते हैं। कारण कि रथ तो जीव के अहंकार व वैभव का प्रतीक होता है। और संत के पास अहंकार का त्याग करके जाते हैं, न कि अहंकार पर सवार हो कर। लेकिन तुम्हें इन संस्कारों से क्या वास्ता। कारण कि सुसंस्कारों से तो, तुम लंका वासियों का कोई दूर-दूर तक लेना देना नहीं है। इसलिए चलो मैं स्वयं ही तुम्हें रथहीन कर देता हुँ। क्या पता तुम कुछ समझ ही जाओ। पर श्रीहनुमान जी को भी क्या पता था, कि मेघनाद तो रावण से भी बड़ा अहंकारी था। कारण कि, उसने तो वह कर दिखाया था, जो रावण भी नहीं कर सका था। और वह था, स्वर्ग को जीतना। मेघनाद ने स्वर्ग नरेश इन्द्र को न केवल पराजित किया था, अपितु उसे बंदी बना कर, उसका लंका नगरी में जुलूस निकालते हुए, भरी सभा में रावण के समक्ष प्रस्तुत किया था। जिसके कारण मेघनाद को एक नया नाम ‘इन्द्रजीत’ मिला था। और ऐसा ही आदेश रावण ने फिर से मेघानद को दिया था, कि जाओ पुत्र मेघनाद! उस वानर को बाँध कर मेरे समक्ष ले आओ। आज रावण और मेघनाद दोनों  ही उस  विजय रथ के गर्व से भरे थे अतः उनके गर्व के इस रथ को भी नेस्तनाबूत  करने के लिए श्री हनुमानजी ने उसके रथ को तोड़ा।
जय श्री राम जय हनुमान


✓श्री हनुमानजी के किन प्रश्नों के जाल में उलझ कर रहा गया था अभिमानी रावण?

श्री हनुमानजी के किन प्रश्नों के जाल में उलझ कर रहा गया था अभिमानी रावण?
श्रीहनुमान जी रावण को जो उपदेश दे रहे हैं, वे मात्र केवल रावण पर ही क्रियावन्त हेतु नहीं हैं। अपितु जिस-जिस का भी मन प्रभु से विमुख है, और जो अभिमान में सर्वदा चूर है, वे सब श्रीहनुमान जी के इस श्रेष्ठ व पावन संदेश के अधिकारी हैं। रावण की समस्या का मूल क्या है? एक अहंकार ही तो जो  उसे प्रभु मार्ग की ओर जाने से रोक रहा है ? अन्यथा रावण जैसे कुल, तपस्या अथवा संपत्ति इत्यादि की पूरे संसार में  कोई काट नहीं। श्रीहनुमान जी द्वारा दिए गए उदाहरण कितने प्रासंगिक हैं, यह देखते ही बनता है। श्रीहनुमान जी कहते हैं 
‘राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी।।’
श्रीहनुमान जी रावण पर ऐसे शब्दों के बाण चला रहे हैं, कि रावण पर इसका प्रभाव होना ही बनता था। रावण तो था ही कामी व स्त्री मोह से ग्रसित। और श्रीहनुमान जी ठहरे अखण्ड ब्रह्मचारी। उनके मुख से निश्चित ही ऐसा उदाहरण, आज प्रथम और अंतिम बार निकल रहा था। क्योंकि किसी नारी के बारे में श्रीहनुमान जी द्वारा, ऐसे निम्न से भासित होने वाले शब्दों का उच्चारण करना,
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी।।’
एक परिकल्पना-सी लगता है। श्रीहनुमान जी ने रावण से पूछा, कि क्या उसने किसी स्त्री को नग्न अवस्था में देखा है? अब रावण से यह प्रश्न पूछना कुछ ऐसे था, मानो किसी बिल्ली से पूछा जा रहा था, कि क्या उसने कभी किसी चूहे का शिकार किया है, अथवा कभी दूध के कटोरे को देख कर, जिह्वा से लार तो नहीं टपकी? इसका प्रति ऊत्तर क्या है, पाठक गण भलि भाँति जानते हैं। रावण ने देखा कि वाह! वानर तो बड़ा रसिक प्रवृति का है। लेकिन तनिक भोला-सा भी है। भला मुझसे ऐसा प्रश्न पूछने की नादानी क्यों की जा रही है। चलो कोई नहीं। पर इसे मेरी आँखों की चमक देख कर स्वयं ही समझ लेना चाहिए, कि मैंने किसी नग्न स्त्री का दर्शन किया है, अथवा नहीं। श्रीहनुमान जी ने रावण का उत्तर उसके ललचाये नेत्रों से पढ़ ही लिया था।
श्रीहनुमान जी ने अगला प्रश्न किया, कि हे रावण! क्या तुम्हें किसी भी स्त्री को श्रृँगार किए देखना प्रिय लगता है ? रावण ने कहा कि हाँ भई, श्रृँगार से सजी स्त्री भला किसे प्रिय नहीं होगी। और मुझे तो ऐसी स्त्री विशेष रूप से प्रिय है। लेकिन यह सब पूछने का तुम्हारा ध्येय समझ में नहीं आ रहा। यह सुन श्रीहनुमान जी ने कहा, कि बस---बस। एक अंतिम प्रश्न और। वह यह कि अगर वह श्रृँगार किसी नग्न स्त्री का  कर दिया जाय,गहनों से उसका पूरा तन सजा दिया जाय, तो क्या वे आभूषण उस नग्न स्त्री पर शोभायमान होंगे? तुम्हारी मुखाकृति स्पष्ट कह रही है, कि तुम भी ऐसे  श्रृँगार का समर्थन नहीं करते। यह निश्चित ही आकर्षण हीन होने के साथ-साथ, अमर्यादित भी होगा। हे रावण, ठीक इसी प्रकार, भले ही तुम्हारी लंका में पग-पग पर सोना मढ़ा हो। समस्त लोक पाल, दिकपाल तुम्हारे चाकर हों। तुमने काल को भी वश में कर लिया हो। लेकिन तब भी, अगर तुम्हें श्रीराम नाम की धुन नहीं लगी, व तुम्हारे रोम-रोम में मायापति नहीं हैं, अपितु माया है, तो यह दृढ़ भाव से मान कर चलना, कि तुम्हारा समस्त वैभव व कीर्ति भी उस नग्न स्त्री के श्रृँगार के ही मानिंद है।
रावण ने जब यह सुना, तो वह दंग रह गया। कि यह वानर तो बातों का जाल ही बिछा देता है। इसकी बातों में तो कोई भी उलझ कर रह जाये। लेकिन श्रीहनुमान जी को रावण की तो  सुननी ही नहीं थी, अपितु उसे सुनानी थी। श्रीहनुमान जी ने फिर कहा, कि हे रावण, माना कि तुम्हारे पास इस धरती की अथाह धन संपदा है। वह तो होगी ही, कारण कि तुमने तीनों लोकों पर विजय जो प्राप्त कर ली है। यह इतनी संपत्ति है, कि अगर तुम अपनी बीसों भुजाओं से भी, आठों पहर इसे लुटाते रहो, तो सौ कल्प तक भी यह संपत्ति समाप्त नहीं होगी। लेकिन यह भी सत्य मानना, कि अगर तुम ऐसे ही राम विमुख बने रहे, तो तुम्हारी प्रभुता और संपत्ति ऐसे चली जायेगी, जैसे मुठ्ठी में पकड़ी बालु की रेत फिसल कर निकल जाती है। समझ लो कि ऐसी संपत्ति का तुम्हारे पास होना, अथवा न होना, एक समान है। कारण कि जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं होते, अर्थात जिन्हें केवल बरसात का ही सहारा होता है, वे बरसात बीत जाने पर, फिर तुरन्त ही सूख जाती हैं-
‘राम बिमुख संपत्ति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं।।’
इसलिए हे रावण, मेरी कही पर विश्वास करो और श्रीराम जी का भजन करो। मुझे पता है, कि तुम्हारा अभिमान ही तुम्हारे कल्याण में बाधा है।ऐसा अभिमान किस काम का। जो महाप्रलयकारी मोह  के मूल से बधा हो। तो तुम  क्यों न इस अति पीड़ादायक तमरूप अभिमान का त्याग कर द रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान श्रीरामचन्द्र जी का भजन करते हो-
‘मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।’
श्रीहनुमान जी निःसंदेह भक्ति, ज्ञान व वैराग्य से भरपूर उपदेश दे रहे थे। जिन्हें सुन विषयी से विषयी व्यक्ति का भी हृदय द्रवित हो जाये।
जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
लेकिन रावण है कि पिघलता ही नहीं। और तो और रावण ने, श्रीहनुमान जी को अब तो यह  कह डाला, कि 
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥
ऐसी स्थिति में श्रीहनुमान जी के स्थान पर, कोई अन्य भक्त होता, जो हनुमानजी जैसा शक्तिशाली होता तो निश्चित ही  वह रावण का वध कर डालता। लेकिन वाह  रे हनुमानजी आप रामकाज के लिए सब कुछ सहन कर रहे हैं।आपको शतशत नमन। नित्य का वंदन।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।