मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

,✓मानस चर्चा ।।निमी की पलको पर निवास की कथा।।

,✓मानस चर्चा ।।निमी  की पलको पर निवास की कथा।।
अस कहि फिरि चितये तेहि ओरा । सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ॥ भये बिलोचन चारु अचंचल । मनहु सकुचि निमि तजे दिगंचल ॥श्रीसीताजीके मुखचन्द्रपर ( श्रीरामजीके)नेत्र चकोर हो गये। अर्थात् उनके मुखचन्द्रको टकटकी लगाये देखते रह गये ॥ सुन्दर दोनों नेत्र स्थिरहो गये, मानो निमिमहाराजने संकोचवश हो पलकों परके निवासको छोड़ दिया ।'फिरि चितये तेहि ओरा' । 'फिरि चितये'अर्थात् फिरकर देखा – इस कथनसे पाया गया कि सखी पीछेसे आयी । श्रीरामजी लताकी ओटमें हैं, इसीसेश्रीसीताजीने श्रीरामजीको नहीं देखा और श्रीरामजीने सीताजीको देख लिया । चन्द्र चकोरको नहीं देखता, चकोर ही चन्द्रको देखता है।  'सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ' । 'भये चकोरा' अर्थात् चकोरकी तरह एकटक देखते रह गये । यथा - 'एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचंद्र मुखचंद्र चकोरा ॥ ' यही बात आगे कहते हैं- 'भये बिलोचन चारु अचंचल'। चकोर पूर्णचन्द्रपर लुब्ध रहता है, यथा- 'भये मगन देखत मुख सोभा । जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥' नेत्रोंको चकोर कहकर जनाया कि नेत्र शोभापर लुभा गये ।'सिय मुख' को पूर्णचन्द्र कहनेका भाव कि श्रीकिशोरीजीके नेत्र और मुखकी ज्योति पूर्ववत्
जैसी-की-तैसी ही बनी रही और श्रीरामजीमें सात्त्विक भाव हो आया। अतएव ये ही आसक्त हुए, जैसे
चकोर चन्द्रमापर आसक्त होता है, चन्द्रमा चकोरपर नहीं । 
श्रीरघुनाथजीके नेत्र  श्रीसीताजीकी छबिपर
अचंचल हो गये; इससे यहाँ कोई कारण विशेष जान पड़ता है। कारण क्या है?मनहु सकुचि निमि तजे दिगंचल' 
। निमि राजाका वास सबकी पलकोंपर है। श्रीसीताजी
निमि कुलकी कन्या हैं और श्रीरामजी उनके पति हैं। लड़का-लड़की (दामाद और कन्या) दोनों वाटिकामें एकत्र हुए, इसीसे मानो राजा निमि सकुचाकर पलकोंको छोड़कर चले गये कि अब यहाँ रहना उचित नहीं। पलक छोड़कर चले गये, इससे पलक खुले रह गये।  निमि यह सोचकर चले गये कि यहाँ हमारे रहनेसे इनको संकोच
होगा, जिससे इनके उपस्थित कार्यमें विघ्न होगा। अपनी संतानका शृंगार कुतूहल देखना मना है। पलकोंपर वास रहनेसे उनका खुलना और बंद होना अपने अधिकारमें था। जब वास हट गया तब तो वे खुले ही रह गये। आइए हम निमी महाराज के पलको पर वास करने की कथा का भी आनंद ले। कथा इस प्रकार है।
मनुजीके पुत्र इक्ष्वाकुजीके सौ पुत्रोंमेंसे विकुक्षि, निमि और दण्ड तीन पुत्र प्रधान हुए । इस तरह राजा निमि भी रघुवंशी थे । सत्योपाख्यानमें भी यही कहा है।महर्षि गौतमके आश्रमके समीप वैजयन्तनामका नगर बसाकर ये वहाँका राज्य करते थे । निमिने एक सहस्र वर्षमें समाप्त होनेवाले एक यज्ञका आरम्भ किया और उसमें वसिष्ठजीको होताअर्थात् ऋत्विज्के रूपमें वरण किया। वसिष्ठजीने कहा कि पाँच सौ वर्षके यज्ञके लिये इन्द्रने मुझे पहले ही वरण कर लिया है। अतः इतने समय तुम ठहर जाओ । राजाने कुछ उत्तर नहीं दिया, इससे वसिष्ठजीने यह समझकर कि राजाने उनका कथन स्वीकार कर लिया है, इन्द्रका यज्ञ आरम्भ कर दिया, इधर राजा निमिने भी उसी समय महर्षि गौतमादि अन्य होताओं द्वारा यज्ञ प्रारम्भ कर दिया । इन्द्रका यज्ञ समाप्त होते ही 'मुझे निमिका यज्ञ कराना है' इस विचारसे वसिष्ठजी तुरंत ही आ गये। राजा उस समय सो रहे थे । यज्ञमें अपने स्थानपर गौतमको होताका कर्म करते देख वसिष्ठजीने सोते
हुए राजाको शाप दिया कि 'इसने मेरी अवज्ञा करके सम्पूर्ण कर्मका भार गौतमको सौंपा है, इसलिये
यह देहहीन हो जाय।श्रीमद्भागवतमें शापके वचन ये हैं— 'निमिको अपनी विचारशीलता और पाण्डित्यका बड़ा घमण्ड है, इसलिये इसका शरीर पात हो जाय । 
वसिष्ठजीने शाप दिया है, यह जानकर राजा निमिने भी उनको शाप दिया कि इस दुष्ट गुरुने मुझसे बिना बातचीत किये अज्ञानतापूर्वक मुझ सोये हुएको शाप दिया है, इसलिये इसका देह भी नष्ट हो जायगा। इस प्रकार शाप देकर राजाने अपना शरीर छोड़ दिया। श्रीमद्भागवतमें
शुकदेवजीने कहा है कि निमिकी दृष्टिमें गुरु वसिष्ठका शाप धर्मके प्रतिकूल था, इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि 'आपने लोभवश अपने धर्मका आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी पात हो जाय - अब  महर्षि गौतम आदिने निमिके शरीरको तेल आदिमें रखकर उसे यज्ञकी समाप्तितक सुरक्षित रखा । यज्ञकी समाप्तिपर जब देवता लोग अपना भाग ग्रहण करनेके लिये आये तब ऋत्विजोंने कहा कि यजमानको वर दीजिये । देवताओंके पूछनेपर
कि क्या वर चाहते हो, निमिने सूक्ष्म शरीरके द्वारा कहा कि देह धारण करनेपर उससे वियोग होनेमें बहुत दुःख होता है, इसलिये मैं देह नहीं चाहता। समस्त प्राणियोंके लोचनोंपर हमारा निवास हो । देवताओंने यही
वर दिया। तभी से लोगोंकी पलकें गिरने लगीं। 
देवताओंने आशीर्वाद दिया कि राजा निमि बिना शरीरके ही प्राणियोंके नेत्रोंपर अपनी इच्छाके अनुसार
निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्म शरीरसे भगवान्‌का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरनेसे उनके
अस्तित्वका पता चलता रहेगा ।  उसी समयसे पलकोंका नाम निमेष हुआ। इस कुल में उत्पन्न राजा इसी समयसे रघुकुल से पृथक हो गए और वैजयन्त का नाम मिथिला पड़ा।निमी महाराज की विस्तृत कथा आप हमारे मिथिलेश/मिथिलापति की कथा को देखकर/सुनकर
अवश्य जाने और समझे।आप सब पर सदा प्रभु कृपा बनी रहे।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।


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