गुरुवार, 21 नवंबर 2024

✓मानस चर्चा ।।भवितव्यता।।

मानस चर्चा ।।भवितव्यता।।
“तुलसी जस भवितव्यता तैसी मिलै सहाय। आपु न आवै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाय॥” 
इस संसार में चाहे कोई कितना ही प्रयत्न करे परन्तु
जो होनहार होती है वह होकर रहती ही है । ज्योतिष द्वारा भविष्य की होनहार घटना से परिचित हो जाने पर भी मनुष्य चाहे कोटि उपाय करे परन्तु वह होकर ही रहती है । जैसे है कि जब परीक्षित के पुत्र जनमेजय राज्याधिकारी थे तो उन्होंने एक दिन पंडितों को बुला कर भविष्य की बात पूछी तब पंडितजनों ने कहा कि "हे महाराज भविष्य में आप कोढ़ी होंगे | अब आप चाहे जितना प्रयत्न करें परन्तु यह होनहार अमिट हैI तब जनमेजनय ने कहा--"इसके बचने के उपाय बतलाइये, यह सुन कर पंडितों ने राजा को चार बातें बतलाई । ( १ ) आपके नगर में  दूसरे नगर से एक घोड़ा बिक्री के लिये आवेगा आप खरीदना नहीं चाहते हुवे भी उसे  अवश्य ही उ खरीदोगे । यह होनहार है मिट नहीं सकती । ( २ ) दूसरे उस घोड़े पर सवार होकर दक्षिण दिशा को आखेट के लिये नहीं जाना । परन्तु तुम इस बात को नहीं मान सकते । ( ३ ) तीसरे दक्षिण दिशा में तुम को एक  कन्या मिलेगी उसको साथ न लाना । परन्तु आप इसको भी नहीं मान सकते । ( ४ ) चौथे यज्ञ में वृद्ध ब्राह्मणों की जगह युवक ब्राह्मणों को नहीं बुलाना है फिर भी तुम बुलाओगे। आपके कोढ़ी होने के ये  चार कारण हैं और अमिट हैं । राजा ने यह सुन कर कहा कि कोढ़ के चार कारणों से परिचित हो गया। अगर मैं इन मार्गों पर ही पदार्पण न करूंगा तो कोढ़ी किस तरह हो जाऊंगा ऐसे तो हमारे  पूर्वज ही महा मूर्ख  थे जो परस्पर लड़कर मर गये  मै मूर्ख नहीं हूं जो जानते हुवे भी ऐसा करुंगा। तब उसके गुरू_ ने कहा कि " राजा तुम होनहार से परिचित होने पर भी नहीं मान सकते हो । यह बात थोड़े ही दिनों में प्रत्यक्ष हो जायगी । धीरे धीरे समय बीतता गया। एक  दिन एक व्यापारी घोड़े सहित राजा के यह आया  । राजा को यह घोड़ा अद्वितीय वेगवान और सुन्दर लगा। उसे खरीदने की इच्छा मन में आई उसी समय गुरु आदि- ब्राह्मणों की  बताई हुई बात स्मरण हो गई । परन्तु चेष्टा से लोभ उत्पन्न होता है और लोभ से शुद्ध बुद्धि नष्ट हो जाती हैं । इसी प्रकार राजा चेष्टा में मग्न होकर तत्व ज्ञान को भूल गया । और मन के वशीभूत होकर विचार किया कि गुरु के बताये  हुये  शेष तीन  काम नहीं करूंगा। घोड़ा तो अवश्य ही खरीद लेना चाहिये । यह विचार कर उस घोड़े को खरीद लिया । इसी प्रकार राजा के मन  में आया कि दक्षिण दिशा को भी देखना चाहिये वहां जो   कन्या मिलेगी उसे साथ न लाऊंगा। उसी घोड़े पर सवार होकर राजा दक्षिण दिशा को चल दिया। वहीं [ उसको बताई हुई  कन्या मिली। राजा उसके रूप'  देखकर मोहित हो गया और उसने मन रूपी अश्व पर सवार होना चाहा किन्तु मन ही राजा की बुद्धि पर सवार हो लिया । '
और हृदय के सारे तत्व ज्ञान को भुला दिया, अन्त में राजा'
कन्या को  साथ ही ले आया और उसको अपनी पत्नी
स्वीकार कर लिया और धर्म सहित प्रजा पालन में
लग गया। थोड़े दिन पश्चात जब होनहार के दिन आएं तो
राजा  ने विश्व विजय के लिए श्रश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ किया'
और गुरु आदि ब्राह्मणों की बात पर विचार करके वृद्ध वृद्ध ब्राह्मणों को यज्ञ में बुलाया। परन्तु होनहार तो अमिट है । जब यज्ञ में वृद्ध' ब्राह्मण दांत न होने की बजह से स्वाहा की जगह वाहा बोलने लगे तो राजा ने क्रोधित होकर उनको यज्ञ से निकाल दिया और युवक ब्राह्मणों को बुलाया ।जब अश्व लिंग पूजन को समय आया तो रानी के हाथ पर अश्व का लिंग रखा गया । यह चरित्र देख कर सारे यज्ञकर्ता युवक ब्राह्मण हंस पड़े । राजा  को उस समय अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ और तलवार लेकर उन ब्राह्मणों का शिर उड़ा दिया । ब्राह्मणों का सिर उड़ाने के कारण राजा ब्रह्म हत्या का दोषी  हुआ और ब्रह्महत्या के दोष से राजा के शरीर में कोढ़ पैदा होगया । त ब उन्हीं गुरु आदि ब्राह्मणों ने कहा ። जनमेजय होनहार अमिट है या नाशवान । तुमको प्रत्यक्ष मालूम पड़ा है या नहीं । तुम होनहार से जानकार होने पर भी उससे न बच सके | अब आप बतलाइए कि आप मूर्ख हैं या आपके पुरखा राजा यह सुन कर बहुत लज्जित हुआ। फिर गुरु जी ने कोढ़ को दूर करने के लिये राजा को महाभारत की कथा सुनाई और कह दिया कि तुम महाभारत को किसी बात को झूठी न बतलाना । अन्त में कथा सुनते २ उसके शरीर का कोढ़ दूर हो गया । परन्तु जब यह सुना कि भीमसेन ने अपने  हाथो  से महाकाय हाथियों को घूमा घूमा कर आकाश में फेंक दिये । राजा इसको झूठी समझ कर नाक सिकोड़ गया। बस उसके नाक ही में कोढ़ रह गया ।भावार्थं ॥
इससे स्पष्ट होता है कि चाहे कोई कितना हो परिश्रम
करे परन्तु होनहार हो कर ही रहती है । इसमें कोई संदेह नहीं है।तभी तो बाबा तुलसीदास जी ने कहा-
 “तुलसी जस भवितव्यता तैसी मिलै सहाय। आपु न आवै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाय॥” 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

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✓मानस चर्चा।।होइहि सोइ जो राम रचि राखा।।

 मानस चर्चा।।होइहि सोइ जो राम रचि राखा।।
जो कुछ विधाता ने भाग्य में लिख दिया है वह होकर
-ही रहता है, चाहे कोई कितना ही परिश्रम करे परन्तु जैसा प्रारब्ध में लिखा है वैसा ही रहेगा, प्रारब्ध न बढ़ती है और न घटती है ।एक पुरुष अपनी स्त्री सहित कहीं जा रहा था और साथ में उसका पुत्र भी था। मार्ग में उसे भगवान शंकर और पार्वतीजी  मिले | पार्वतीजी  कौनउनकी दशा देख कर दया आ गई और महादेव जी से कहा कि हे नाथ इन पर दया करनी चाहिए । महादेव जी ने कहा कि, इन तीनों  की कम नसीब है ।मेरी दया से  भी इनको लाभ न होगा ।पार्वती जी ने बार बार आग्रह पूर्वक कहा तब महादेवजी ने उनसे कहा कि तुम तीनों  एक एक चीज मुझ से मांग लो वह तुरन्त मिल जायगी । तब औरत ने सुन्दर स्वरूप मांगा वह तुरन्त रूपवती हो गई । एक राजा जो उधर से जा रहा था  उसे देख कर  अपने हाथी पर चढ़ा ले चला । जब उस के पति ने देखा कि मेरी स्त्री तो रूपवती होते ही  हाथ से गई उसने हाथ जोड़कर  महादेवजी से कहा कि प्रभु  इस औरत का रूप  सूअर के समान हो जायं सो उसी क्षण हो गई । अव जो राजा हाथी पर चढ़ा उसे ले जा रहा था उसके इस  रूप को देखकर दंग रह और  उसे तुरंत  छोड़ दिया। अब पुत्र ने अपनी माता
के इस रूप की देखकर रो रो कर महादेव से प्रार्थना  करने लगा और  यह मांगा कि मेरी माता पहिले जैसी थी वैसी ही हो जाय वह तुरन्त वैसी ही हो गई । मतलब यह है कि तीनों को कुछ न मिला। तब महादेवजी ने पार्वतीजी से कहा कि  देखा पार्वती विधाता ने जो प्रारब्ध में लिखा है वही मिलता है,हम चाहकर भी उसे उसके प्रारब्ध से ज्यादा कुछ नहीं दे सकते। तभी तो बाबा तुलसीदास ने कहा है-होइहि सोइ जो राम रचि राखा.,
।। जय श्री राम जय हनुमान।।


रविवार, 17 नवंबर 2024

मानस चर्चा ।।निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।।

मानस चर्चा
निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।
प्रभु श्री राम जी कहते हैं: ~ जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल~छिद्र नहीं सुहाते। आइए हम इस संबंध में इस कथा का आनंद लेते हुवे राम कृपा प्राप्त करें।
एक सदना नाम का कसाई था, मांस बेचता था पर भगवत
भजन में बड़ी निष्ठा थी एक दिन एक नदी के किनारे से जा रहा था रास्ते में एक पत्थर पड़ा मिल गया. उसे अच्छा लगा उसने सोचा बड़ा अच्छा पत्थर है क्यों ना में इसे मांस तौलने के लिए उपयोग करू. उसे उठाकर ले आया. और मांस तौलने में प्रयोग करने लगा.
जब एक किलो तोलता तो भी सही तुल जाता, जब दो किलो तोलता तब भी सही तुल जाता, इस प्रकार चाहे जितना भी तोलता हर भार एक दम सही तुल जाता, अब तो एक ही पत्थर से सभी माप करता और अपने काम को करता जाता और भगवन नाम लेता जाता.
एक दिन की बात है उसी दूकान के सामने से एक ब्राह्मण
निकले ब्राह्मण बड़े ज्ञानी विद्वान थे उनकी नजर जब उस
पत्थर पर पड़ी तो वे तुरंत उस सदना के पास आये और
गुस्से में बोले ये तुम क्या कर रहे हो क्या तुम जानते नहीं
जिसे पत्थर समझकर तुम तोलने में प्रयोग कर रहे हो वे
शालिग्राम भगवान है ।
इसे मुझे दो जब सदना ने यह सुना तो उसे बड़ा दुःख हुआ
और वह बोला हे ब्राह्मण देव मुझे पता नहीं था कि ये
भगवान है मुझे क्षमा कर दीजिये. और शालिग्राम भगवान
को उसने ब्राह्मण को दे दिया |
ब्राह्मण शालिग्राम शिला को लेकर अपने घर आ गए और
गंगा जल से उन्हें नहलाकर, मखमल के बिस्तर पर,
सिंहासन पर बैठा दिया, और धूप, दीप, चन्दन से पूजा
की । जब रात हुई और वह ब्राह्मण सो गए तो सपने में भगवान आये और बोले ब्राह्मण मुझे तुम जहाँ से लाए हो वही छोड आओं मुझे यहाँ अच्छा नहीं लग रहा. इस पर ब्राह्मण बोले भगवान !
वो कसाई तो आपको तुला में रखता था जहाँ दूसरी और
मास तोलता था उस अपवित्र जगह में आप थे.
भगवान बोले - ब्रहमण आप नहीं जानते जब सदना मुझे
तराजू में तोलता था तो मानो हर पल मुझे अपने हाथो से
झूला झूल रहा हो जब वह अपना काम करता था तो हर पल मेरे नाम का उच्चारण करता था ।हर पल मेरा भजन करता था जो आनन्द मुझे वहाँ मिलता था वो आनंद यहाँ नहीं. इसलिए आप मुझे वही छोड आये । तब ब्राम्हण तुरंत उस सदना कसाई के पास गए  और बोले
मुझे माफ कर दीजिये । वास्तव में तो आप ही सच्ची भक्ति
करते हैं। ये अपने भगवान को संभालिए।
भाव~ भगवान बाहरी आडंबर से नहीं भक्त के
भाव से रिझते है। उन्हें तो बस भक्त का भाव ही
भाता है।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा।तुम्हहिं छाडि गति दूसरि नाहीं ।

मानस चर्चा
तुम्हहिं छाडि गति दूसरि नाहीं ।
राम बसहु तिन्ह के मन माहीं । ।
दृष्टांत ~ एक राजा सायंकाल के समय महल की छत
पर टहल रहे थे। सहसा उनकी दृष्टि नीचे बाजार में घूमते हुए एक सन्त पर पड़ी। सन्त अपनी मस्ती में ऐसे चल रहे थे कि मानो उनकी दृष्टि में संसार है ही नहीं ।
राजा अच्छे संस्कार वाले पुरुष थे। उन्होंने अपने सेवकों को उन सन्तों को तत्काल ऊपर ले आने की आज्ञा दी। आज्ञा पाते ही राजसेवकों ने ऊपर से ही रस्सी लटकाकर उन सन्त को (रस्सी में फांसकर) ऊपर खींच लिया। इस कार्य के लिए राजा ने उन सन्त से क्षमा माँगी और कहा कि एक प्रश्न का उत्तर पाने के लिए ही मैंने आपको कष्ट दिया। प्रश्न यह है कि भगवान शीघ्र कैसे मिलें?
सन्त ने कहा~ "राजन्! इस बात को तुम जानते ही हो।"
राजा ने पूछा ~ कैसे? सन्त बोले~ यदि मेरे मनमें तुमसे मिलने का विचार आता तो कई अडचनें आती और बहुत देर लगती। पता नहीं मिलना सम्भव भी होता या नहीं। पर जब तुम्हारे मनमें मुझसे मिलने का विचार आया, तब कितनी देर लगी?राजन्! इसी प्रकार यदि भगवान के मन में हम से मिलने का विचार आ जाय तो फिर उनके मिलने में देर नहीं लगेगी। राजाने पूछा~ भगवान के मन में हमसे मिलनेका विचार कैसे आ जाय? सन्त बोले~ तुम्हारे मनमें मुझसे मिलने का विचार कैसे आया? राजाने कहा ~ जब मैंने देखा कि आप एक ही धुन में चले जा रहे हैं और सड़क, बाज़ार, दुकानें, मकान मनुष्य आदि किसीकी भी तरफ आपका ध्यान नहीं है, तब मेरे मन में आपसे मिलनेका विचार आया। सन्त बोले~ राजन्! ऐसे ही तुम एक ही धुन में भगवान की तरफ लग जाओ, अन्य किसीकी भी तरफ मत देखो और भगवान के भजन-सुमिरन के बिना रह न सको, तो भगवान
के मनमें तुमसे मिलने का विचार आ जायेगा और वे तुरंत
मिल जायेंगे।
तुम्हहिं छाडि गति दूसरि नाहीं ।
राम बसहु तिन्ह के मन माहीं । ।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा।।मित्र कैसा नहीं होना चाहिए?

मानस चर्चा
मित्र कैसा नहीं होना चाहिए?
इस विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी
कहते हैं ~
आगें कह मृदु बचन बनाई।
पाछें अनहित मन कुटिलाई ||
जाकर चित अहि गति सम भाई |
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई ॥
जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ- पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है।
एक बार उल्लू और बाज में दोस्ती हो जाती है। दोनों साथ
बैठकर खूब बातें करते हैं। बाज ने उल्लू से कहा कि अब
जब हम दोस्त बन ही गए हैं, तो मैं तुम्हारे बच्चों पर कभी
हमला नहीं करूंगा और न ही उन्हें मारकर खाऊंगा। लेकिन मेरी समस्या यह है कि मैं उन्हें पहचानूंगा कैसे कि ये तुम्हारे ही बच्चे हैं?
उल्लू ने कहा कि तुम्हारा बहुत-बहुत शुक्रिया दोस्त। मेरे
बच्चों को पहचानना कौन-सा मुश्किल है भला। वो बेहद
खूबसूरत है, उनके सुनहरे पंख हैं और उनकी आवाज़
एकदम मीठी-मधुर हैं। बाज ने कहा ठीक है दोस्त, मैं अब चला अपने लिए भोजन ढूंढ़ने । बाज उडते हुए एक पेड़ के पास गया। वहां उसने एक घोसले में चार बच्चे देखे। उनका रंग काला था, वो जोर-जोर से कर्कश आवाज में चिल्ला रहे थे। बाज ने सोचा न तो इनका रंग  न सुनहरा है , न पंख, न ही आवाज़ मीठी-मधुर, तो ये मेरे दोस्त उल्लू के बच्चे तो हो ही नहीं सकते। मैं इन्हें खा
लेता हूँ और बाज ने उन बच्चों को खा लिया।
इतने में ही उल्लू उड़ते हुए वहाँ पहुंचा और उसने कहा कि ये तुने क्या किया? ये तो मेरे बच्चे थे। बाज हैरान था कि उल्लू ने उससे झूठ बोलकर उसकी दोस्ती को भी धोखा दिया। वो वहाँ से चला गया।
उल्लू मातम मना रहा था कि तभी एक कौआ आया और
उसने कहा कि अब रोने से क्या फायदा, तुमने बाज से झूठ बोला, अपनी असली पहचान छिपाई और इसी की तुम्हें सज़ा मिली।
शिक्षा~ कभी भी अपनी असली पहचान छिपाने की भूल
न करें और मित्र से झूठ न बोले तभी तो गोस्वामीजी ने कहा हैं 
आगें कह मृदु बचन बनाई।
पाछें अनहित मन कुटिलाई ||
जाकर चित अहि गति सम भाई |
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई ॥
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

✓मानस चर्चा ।।श्रीगोस्वामी जी एवं श्री हनुमानजी।।

मानस चर्चा 
।।गोस्वामी तुलसीदासजी एवं श्री हनुमानजी।।
सिय राम मय सब जग जानी।
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी।।
श्रीरामचरित मानस लिखने के दौरान
तुलसीदासजी ने लिखा-
सिय राम मय सब जग जानी।
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी।।
अर्थात 'सब में राम हैं और हमें उनको हाथ
जोड़कर प्रणाम करना चाहिए।'
यह लिखने के उपरांत तुलसीदासजी जब अपने गांव की
तरफ जा रहे थे तो किसी बच्चे ने आवाज दी- 'महात्माजी,
उधर से मत जाओ। बैल गुस्से में है और आपने लाल वस्त्र भी पहन रखा है।'
तुलसीदासजी ने विचार किया कि हूं, कल का बच्चा हमें
उपदेश दे रहा है। अभी तो लिखा था कि सब में राम हैं। मैं उस बैल को प्रणाम करूंगा और चला जाऊंगा।
पर जैसे ही वे आगे बढ़े, बैल ने उन्हें मारा और वे गिर पड़े। किसी तरह से वे वापस वहां जा पहुंचे, जहां श्रीरामचरित मानस लिख रहे थे। सीधे चौपाई पकड़ी और जैसे ही उसे फाड़ने जा रहे थे कि श्री हनुमानजी ने प्रकट होकर कहा- तुलसीदासजी, ये क्या कर रहे हो? तुलसीदासजी ने क्रोधपूर्वक कहा, यह चौपाई गलत है और उन्होंने सारा वृत्तांत कह सुनाया। हनुमानजी ने मुस्कराकर कहा- चौपाई तो एकदम सही है। आपने बैल में तो भगवान को देखा, पर बच्चे में क्यों नहीं? आखिर उसमें भी तो भगवान थे। वे तो आपको रोक रहे थे, पर आप ही नहीं माने। अब तुलसीदासजी पक्का आभास हो गया और अपनी बात पर दृढ़ हो गए
सिय राम मय सब जग जानी।
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी।।
तुलसीदास जी को एक बार और चित्रकूट पर श्रीराम के दर्शन कराने  के लिए तोता बन कर हनुमान जी ने दोहा पढ़ा था:
चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़।
तुलसी दास चंदन घीसे तिलक करें रघुबीर।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

✓मानस चर्चा ।।सत्य वचन के साथ नियम पालन।।

मानस चर्चा ।।सत्य वचन के साथ नियम पालन।।
प्रगट चारि पद धर्म के 
धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं,
इनमें से किसी एक का पालन नियम पूर्वक सदा करते रहे तो हमें प्रभु राम की अहैतुकी कृपा प्राप्त होती ही है। आइए हम इस कहानी का आनंद लेते हुवे प्रभु कृपा के अधिकारी बने।
एक संत थे। वे एक गरीब किसान के घर गए। किसान ने उनकी बड़ी सेवा की। सन्त ने उसे कहा कि रोजाना नाम - जप करने का कुछ नियम ले लो।जाने कहा बाबा, हमारे को वक्त नहीं मिलता। सन्त ने कहा कि अच्छा, रोजाना ठाकुर जी की मूर्ति के दर्शन कर आया करो।किसान ने कहा मैं तो खेत में रहता हूं और ठाकुर जी की मूर्ति गांव के मंदिर में है, कैसे करूँ? संत ने उसे कई साधन बताये, कि वह कुछ -न-कुछ  नियम ले लें।पर वह यही कहता रहा कि मेरे से यह बनेगा नहीं, मैं खेत में काम करू या माला लेकर जप करूँ। इतना समय मेरे पास कहाँ है? बाल-बच्चों का पालन पोषण करना है। आपके जैसे बाबा जी थोडे ही हूँ। कि बैठकर भजन करूँ।संत ने कहा कि अच्छा तू क्या कर सकता है? किसान बोला कि पडोस में एक कुम्हार रहता है। उसके साथ मेरी दोस्ती है। उसके और मेरे खेत भी पास -पास है,और घर भी पास -पास है। रोजाना एक बार उसको देख लिया करूगाँ। सन्त ने कहा कि ठीक है। उसको देखे बिना भोजन मत करना।किसान ने इसे सत्य वचन कहकर  स्वीकार कर लिया। जब उसकी पत्नी कहती कि भोजन कर लो। तो वह चट बाड पर चढ़कर कुम्हार को देख लेता। और भोजन कर लेता। इस नियम में वह पक्का रहा। एक दिन किसान को खेत में जल्दी जाना था। इसलिए उसकी पत्नी ने भोजन जल्दी तैयार कर लिया। किसान बाड़ पर चढ़कर देखा तो कुम्हार दीखा नहीं। पूछने पर पता लगा कि वह तो मिट्टी खोदने बाहर गया है। किसान बोला कि कहां मर गया, कम से कम देख तो लेता।अब किसान उसको देखने के लिए तेजी से भागा। उधर कुम्हार को मिट्टी खोदते खोदते एक हाँडी मिल गई। जिसमें तरह -तरह के रत्न, अशर्फियाँ भरी हुई थी।उसके मन में आया कि कोई देख लेगा तो मुश्किल हो जायेगी। अतः वह देखने के लिए ऊपर चढा तो सामने वह किसान आ गया। कुम्हार को देखते ही किसान  वापस भागा। तो कुम्हार ने समझा कि उसने वह हाँडी देख ली। और अब वह आफत पैदा करेगा। कुम्हार ने उसे रूकने के लिए आवाज लगाई। किसान बोला कि बस देख लिया, देख लिया। कुम्हार बोला कि अच्छा, देख लिया तो आधा तेरा आधा मेरा, पर किसी से कहना मत। किसान वापस आया तो उसको धन मिल गया।उसके मन में विचार आया कि संत से अपना मन चाहा सत्य नियम लेने में इतनी बात है। अगर सदा उनकी आज्ञा का  पालन करू तो कितना लाभ है।ऐसा विचार करके वह किसान और उसका मित्र कुम्हार दोनों ही भगवान् के भक्त बन गए।तात्पर्य यह है कि हम दृढता से अपना एक उद्देश्य बना ले,नियम ले लें कि चाहे जो हो जाये, हमें तो भगवान् की तरफ चलना है। भगवान् का भजन करना है। नियम बनाने की अपेक्षा नियम को पहचाने। नियम क्यों लिया गया है।धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं,।इनमें से किसी एक का पालन हम अवश्य करें। हमें प्रभु कृपा अवश्य ही मिलेगी।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

✓मानस चर्चा।। दान।।

मानस चर्चा
दान
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥
धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक (दान रूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार से भी दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है आइए एक आने के उधार दानी और गंगा स्नानी कंजूस  दानी दानचंद जिससे भगवान भी हार गए उसकी  हास्य कहानी का आनंद लेते हैं और प्रभु कृपा प्राप्त करते हैं।
एक समय की बात है, एक बहुत ही कंजूस व्यक्ति था।
उस व्यक्ति का नाम दानचंद था। उसके पास धन तो
बहुत था, परंतु उसने कभी किसी को दान नहीं किया
था। उसने प्रण ले रखा था, की जीवन में कभी किसी
को कुछ भी दान नहीं करना है। उसके घर से कुछ
किलोमीटर दूर गंगा नदी बहती थी, परंतु वह कभी गंगा
स्नान करने नहीं गया, क्योंकि गंगा स्नान करने के बाद
पंडे-पुजारियों को कुछ दान दक्षिणा देनी होती है। गंगा
स्नान के बाद दान करना पड़ेगा इसी डर से वह कभी
गंगा स्नान करने ही नहीं गया।
उसकी पत्नी उसे दान पुण्य करने के लिए कहती थी,
परंतु वह कहता था, इतनी बड़ी दुनिया में हमारा छोटा
सा दान करने से क्या होगा। एक दिन उसकी पत्नी ने
कहा, अब तो आपका बुढ़ापा आ गया, आप दान पुण्य
तो कुछ करते नहीं, कम से कम एक बार जाकर गंगा
स्नान ही कर आओ। पत्नी की बात मानकर उसने गंगा
स्नान करने की हामी भरी। उसके घर से गंगा नदी 12
किलोमीटर दूर थी, रास्ते में कहीं पैसा खर्च ना हो जाए,
इसलिए वह 12 किलोमीटर पैदल ही चला गया।
जब दानचंद गंगा नदी के किनारे पहुंचा तो उसको लगा
के घाट पर जाएंगे तो पंडित दान दक्षिणा मांगेंगे।
इसलिए वह स्नान करने मुर्दा घाट चला गया, मुर्दा घाट
बिल्कुल सुनसान था, उसने इधर उधर देखा दूर-दूर तक
कोई नहीं था। उसने जल्दी से गंगा जी में एक
डूबकी लगाई। भगवान जो घट-घट के वासी हैं, वह
उसे यह सब करता देख रहे थे। भगवान को एक मजाक
सूझी, भगवान वहां पर एक पंडित का रूप बनाकर
प्रकट हो गए। जैसे ही दानचंद डूबकी लगाकर बाहर
निकला, पंडित रूपी भगवान बोले यजमान की जय
हो। पंडित को देखते ही दानचंद काँप गया। वह बोला यह
तो हद हो गई, यह पंडा तो मुर्दा घाट पर भी आ गया।
पंडित ने बताया कि मैं एक संतोषी ब्राह्मण हूं, और
एकांत में यहां मुर्दा घाट पर ही पड़ा रहता हूं। यहां पर
कभी-कभी आपके जैसा कोई यजमान आ जाता है,
और मेरा साल-भर का इंतजाम इकट्ठे ही कर देता है।
आज आप आए हैं, आपको मेरा एक वर्ष का इंतजाम
करना है।दानचंद बोला मैं इतना दान नहीं कर सकता। पंडित बोला दान तो अपनी श्रद्धा के ऊपर होता है, इसलिए आप 6 महीनों का इंतजाम कर दो। दानचंद बोला मैं 6 महीनों का इंतजाम भी नहीं कर सकता। पंडित बोला
तो तीन महीने, दानचंद बोला नहीं। पंडित बोलै 1
महीने का ही कर दो, दानचंद बोला मैं एक महीने का
तो क्या मैं एक दिन का भी इंतजाम नहीं कर सकता।
अब पंडित ने कहा आपको कुछ ना कुछ तो दान करना
ही पड़ेगा, नहीं तो हम आपको जल से निकलने नहीं
देंगे। थक हार कर दान चंद बोला, एक आने का दान
करूँगा वह भी उधार, मेरे पास अभी तो कुछ नहीं है,
इसलिए मेरे घर आकर एक आना ले जाना। पंडित ने
दानचंद को एक आना दान करने का संकल्प दिलवा
दिया। दानचंद ने सोचा मेरा घर तो यहां से 12 किलोमीटर दूर है, यह पंडित एक आने के लिए इतनी दूर थोड़ी आएगा। इसलिए वह संकल्प लेकर अपने घर
आ गया। घर पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई थी, वह इतनी दूर चल कर आया था, इसलिए थक गया था। वह सोने ही जा रहा था, तभी उसके दरवाजे पर उस पंडित ने दस्तक
दी।पंडित बोलै यजमान की जय हो, दानचंद की पत्नी
ने दरवाजा खोला, वह पंडित को देखकर लौटी और
दानचंद से पूछा, क्या किसी पंडित को कुछ देने की
कह कर आए हो ? दानचंद बोला, हां मैंने एक पंडा को
एक आना देने का संकलप लिया है। पत्नी बोली वह
पंडित जी अपना एक आना लेने दरवाजे पर खड़े हैं।
दानचंद ने सोचा वो पंडित एक आने के लिए इतनी दूर
आ गया। दानचंद ने पत्नी से कहा, जाकर उस पंडित से
कह दो की यजमान बीमार है, इसलिए तीन-चार दिन
बाद आए। पत्नी बोली एक आने की ही तो बात है, दे
क्यों नहीं देते। दानचंद बोला मैं किसी को कुछ नहीं
देने वाला, जाकर उससे कह दो की यजमान बीमार है,
इसलिए कुछ दिन बाद आये। पत्नी ने दुखी जैसा मुंह बनाया और पंडित से बोली, महाराज मेरे पति आज इतनी दूर पैदल चलकर गए थे,इसलिए वे बहुत थक गए हैं, और बीमार है, इसलिएआप तीन-चार दिन बाद आना। पंडित बोला धन मिले या ना मिले, लेकिन वे हमारे यजमान है। यजमान बीमार है और पंडा चला जाए, ऐसा नहीं हो सकता। जब तक वह स्वस्थ नहीं हो जाते तब तक हम यही रहेंगे, हमारा यहाँ रहने का इंतजाम कर दो, हम यहीं परप्रसाद बनाएंगे और यहीं पर भजन करेंगे और यहीं पर
प्रसाद ग्रहण करेंगे।
पत्नी लौटकर गई और उसने दानचंद को सारी बात
बताई, कि वह पंडित कह रहा है, जब तक आप ठीक
नहीं हो जाते, वह यही रहेंगे। पत्नी बोली इससे तो
अच्छा उन्हें एक आना देकर रवाना करो। दानचंद बोला
एक आना क्या ऐसे ही आता है, मैं उस पंडित को कुछ
नहीं देने वाला। तुम जाकर उस पंडित से कह दो कि
यजमान मर गए, ध्यानचंद को योग का अभ्यास था,
इसलिए वह सांस रोककर पड़ गया। पत्नी गई, और
उसने रोकर पंडित से कहा, कि वो मर गए, अब तो
जाओ।
पंडित बोले, अरे राम राम यजमान चला गया, जब तक
उसका अंतिम संस्कार ना हो जाए, तब तक हम कैसे
जा सकते हैं। पंडित जी बोले, तुम महिला कहां-कहां
भटकती फिरोगी, हम सारे गांव में यजमान के मरने की
खबर किये देते हैं। पंडित जी सारे गांव में खबर कर आए
कि दानचंद जी मर गए। सारा गांव दानचंद के घर
इकट्ठा हो गया। लेकिन दानचंद ऐसा विचित्र आदमी,
एक आना बचाने के लिए सांस रोके पड़ा था। गांव के
लोगों ने दानचंद को मुर्दा समझ के बांध लिया।
अब उसकी पत्नी सही में रोने लगी, और रो-रो कर
बोली, यह मरे नहीं है। गांव वाले बोले, बहन यह तो
तुम्हारा मोह है, जाने वाला तो गया, इसलिए धीरज
रखो। पत्नी बोली, अरे किस बात का धीरज रखूं, यह
मरे ही नहीं है। गांव वाले दानचंद को बांध कर अंतिम
संस्कार के लिए ले गए, पत्नी बेचारी रोती रह गई।
लेकिन वह विचित्र आदमी इतना सब कुछ होने के
बाद भी सांसें रोके पड़ा था। सबके साथ पंडित बने
भगवान भी उनके पीछे-पीछे चल दिए।
भगवान ने सोचा हद हो गई, हम कहीं नहीं हारे, पर
आज तो इस दानचंद से हम भी हार गए। ऐसा गजब
का विचित्र आदमी हमने कहीं नहीं देखा। एक आना
बचाने के लिए यह आदमी बिना मरे मरा पड़ा है, और
चला जा रहा है। जब दानचंद को लकड़ियों पर रख
दिया गया और केवल अग्नि लगनी ही शेष थी। तब
पंडित रूपी भगवान बोले, कि यह हमारे यजमान थे,
हम इनकी मुक्ति के लिए इनके कान में कुछ मंत्र
बोलेंगे।
भगवान उसके कान के पास मुंह लेकर गए और बोले,
मैं भगवान विष्णु हूं, मैं वैकुंठ से तुमसे नाता जोड़ने
आया हूं। दानचंद ने जैसे ही सुना कि भगवान बोल रहे
हैं, उसने धीरे-धीरे आंखें खोली। लेकिन जैसे ही उसने
देखा की यह तो पंडित है, उसने फिर से आंखें बंद कर
ली। भगवान बोले हम हार गए, हम तुमसे कुछ नहीं
लेंगे, तुम ही हमसे कुछ मांग लो। दान चंद धीरे से
बोला, वह एक आना छोड़ दो बस। पंडित रूपी भगवान
तथास्तु कहकर वहां से चले गए, और दान चंद आंखें
खोल कर उठ बैठा।
कहानी हमें सिखाती है कि हमें इतना कंजूस कभी नहीं बनना चाहिए और समय समय पर दान अवश्य देना चाहिए।
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥
।। जय श्री राम जय हनुमान 

✓मानस चर्चा ।।हम बुराइयों से बच सकते हैं ।।

मानस चर्चा 
।।हम बुराइयों से बच सकते हैं ।।
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ।।
एक बार एक महात्मा जी के पास दो आदमी ज्ञान लेने के
लिए आए। महात्मा बहुत पहुंचे हुए थे। उन्होंने दोनों को
एक-एक चिडिया दे दी और कहा:- जाओ, इन चिडियाओं को ऐसी जगह मार कर लाओ जहाँ कोई और आपको देखें नहीं। उनमें से एक तो तुरंत ही पेड़ की ओट में जाकर उस चिडिया को मार कर ले आया। जो दूसरा व्यक्ति था वह किसी सुनसान जगह पर चला गया।
जब वह उस चिडिया को मारने ही वाला था, वह अचानक रुक गया और सोचने लगा- जब मैं इसे मारता हूँ तो यह मुझे देखती है और मैं भी इसे देखता हूँ। तब तो हम दो हो गये और तीसरा ईश्वर भी यह सब कुछ देख रहा है। महात्मा जी का आदेश है कि इस चिडिया को वहाँ मारना जहाँ कोई और न देखें।
कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाही ।।
आखिर यह सोचकर उस चिडिया को महात्मा जी के पास जीवित ही ले आया और बोला- "महात्मा जी ! मुझे तो ऐसी कोई जगह नहीं मिली जहां कोई नहीं देखता हो, क्योंकि ईश्वर हर जगह मौजूद है।"
महात्मा जी ने कहा:- "तुम ही ज्ञान के सही अधिकारी हो। मैं तुझे ज्ञान दूंगा।" महात्मा जी ने उस दूसरे आदमी को वहां से डांट कर भगा दिया और इस आदमी को सम्पूर्ण ज्ञान दिया।मानस में गोस्वामीजी ने तो हमें बताया ही है कि
देस काल दिसि बिदिसहु माँही ।
कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाही ।।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा।।संग का प्रभाव।।

मानस चर्चा।।संग का प्रभाव।। आधार मानस की यह प्रसिद्ध लाइन
“हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब
काहू॥” कुसंग से हानि और सुसंग से लाभ होता ही है,यह बात लोक , वेद यहां तक कि सभी को मालूम है।इसी बात को कवि रहीम ने भी कहा है कि 
रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग।
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग ।।
अर्थात् जिनकी प्रवृत्ति उजली और पवित्र है अगर उनकी संगत नीच से न हो तो अच्छा ही है।
नीच और दुष्ट लोगों की संगत से कोई न कोई कलंक लगता ही है।
पद्मपुराण में एक कथा है ~
एक बार एक शिकारी शिकार करने गया, शिकार नहीं
मिला, थकान हुई और एक वृक्ष के नीचे आकर सो गया।
पवन का वेग अधिक था, तो वृक्ष की छाया डालियों के यहाँ- वहाँ हिलने के कारण कभी कम-ज्यादा हो रही थी।
वहीं से एक अति सुन्दर हंस उड़कर जा रहा था, उस हंस ने देखा कि वह व्यक्ति बेचारा परेशान हो रहा है।
धूप उसके मुँह पर आ रही है तो ठीक से सो नहीं पा रहा है, तो वह हंस पेड़ की डाली पर अपने पंख खोल कर बैठ गया ताकि उसकी छाँव में वह शिकारी आराम से सोयें।जब वह सो रहा था तभी एक कौआ आकर उसी डाली पर बैठा। इधर-उधर देखा और बिना कुछ सोचे-समझे शिकारी के ऊपर अपना मल विसर्जन कर वहाँ से उड गया। तभी शिकारी उठ गया और गुस्से से यहाँ-वहाँ देखने लगा और उसकी नज़र हंस पर पड़ी और उसने तुरंत धनुष बाण निकाला और उस हंस को मार दिया।
हंस नीचे गिरा और मरते-मरते हंस ने कहा:- मैं तो आपकी सेवा कर रहा था, मैं तो आपको छाँव दे रहा था, आपने मुझे ही मार दिया? इसमें मेरा क्या दोष? शिकारी ने कहा :- यद्यपि आपका जन्म उच्च परिवार में हुआ, आपकी सोच आपके तन की तरह ही सुन्दर है, आपके संस्कार शुद्ध है, यहाँ तक कि आप अच्छे इरादे से मेरे लिए पेड़ की डाली पर बैठकर मेरी सेवा कर रहे थे, लेकिन आपसे एक गलती हो गयी। जब आपके पास कौआ आकर बैठा तो आपको उसी समय उड जाना चाहिए था। उस दुष्ट कौए के साथ एक घड़ी की संगत ने ही आपको मृत्यु के द्वार पर पहुंचाया है।
*शिक्षा ~* संसार में संगति का सदैव ध्यान रखना चाहिए। जो मन, कार्य और बुद्धि से परमहंस है उन्हें कौओं की सभा से दूरी बनायें रखना चाहिए।
अतः सदैव साधु-संत एवं सज्जन व्यक्ति का ही संग करना चाहिए। संतों के क्षण मात्र के संग से अनेकों जन्म जन्मों के पाप क्षण भर में भस्म हो जाते है।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ~
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध
तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।।
और“हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥” को तो हम समझ ही गए हैं ।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

✓मानस चर्चा ।। को करि तर्क बढ़ावे साखा।।

मानस चर्चा ।। को करि तर्क बढ़ावे साखा।।
आइए इस तार्किक की हास्य कथा का आनंद लेते हुवे इस बात को अपने हृदय में बैठाने का प्रयास करें।
एक आदमी गया गांव में, उसका मित्र भी उसके साथ था,
तो कहा चलो गांव घूम कर आएं, तो एक जगह कोल्हू
चलाने वाला आदमी बैठा था अकेला, बैल अंदर घूम रहा था। वह बाहर बैठकर तेल बेंच रहा था, पिराई का काम शुरू है । तो उस तार्किक ने सोचा कि अकेला आदमी कैसे पूरा कार्य कर लेता है अपनी पूरी दुकान चला रहा है । उस व्यक्ति के पास पहुंच गया, उसने कहा कि बैल को कोई हांकने वाला नहीं। बैल कैसे चल रहा है । तो वह व्यक्ति बोला कि एक बार हम जाकर उसे हांक देते हैं और उसकी आंखों पर पट्टी बंधी है। वह समझता है हांकने वाला पीछे ही है इसलिए वह चलता रहता है।
यह तार्किक बोला यह तो कोई बात नहीं हुई,यह भी तो हो सकता है कि बैल चलते चलते रुक जाए, तुम्हें कैसे पता चलेगा ? तुम तो बाहर बैठे हो। तो उसने कहा मैंने
बैल के गले में घंटी बांध रखी है बैल चलते-चलते रुकता है तो, घंटी बजनी बंद हो जाती है हम समझ जाते हैं बैल ने चलना बंद कर दिया फिर जाकर हांक देते हैं ।
वह तो तार्किक था वह बोला- यह तो ठीक है लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है, की बैल एक ही जगह खड़ा खड़ा गर्दन हिलाते रहे अगर वो एक ही जगह खड़ा गर्दन हिलाएगा तो तुम्हें कैसे पता चलेगा क्योंकि घंटी तो बजती रहेगी । वह आदमी हाथ जोड़कर बोला क्षमा करें साहेब वह बैल है आपकी तरह तार्किक नहीं है ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा ।।श्रीअनसूया।।


मानस चर्चा ।।श्रीअनसूया।।
अनुसुइया के पद गहि सीता।मिली बहोरि सुसील बिनीता। 
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई । आसिष देइ  निकट बैठाई ॥ सुशील और विनम्र श्रीसीताजी अनसूयाजीके चरण पकड़कर अत्यन्त शील और नम्रतापूर्वक
उनसे मिलीं। ऋषिपत्नी श्रीअनसूयाजीके मनमें बहुत सुख हुआ । उन्होंने श्रीसीताजीको आशीर्वाद देकर अपने
पास बिठा लिया ॥ २ ॥
श्री अनसूया जी कौन हैं - ये अत्रि जी की परम सती धर्मपत्नी हैं। अत्रि जी ने रामचन्द्रजी से इनका परिचय यों दिया है-
दस वर्षों तक लगातार वृष्टि न होने से संसार दग्ध होने लगा था तब इन्होंने अपने तपो बल से फल- मूल उत्पन्न किये, गंगाको यहाँ लायीं और अपने व्रतोंके प्रभावसे ही इन्होंने ऋषियोंके विघ्न दूर किये। देवकार्यनिमित्त इन्होंने दस रात्रिकी एक रात्रि बना दी थी। इन्होंने दस हजार वर्षतक बड़ा उग्र तप किया था।' इनके सतीत्वके प्रतापकी बहुत-सी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेशने इनके सतीत्वकी परीक्षा ली। उसका फल पाया। तीनोंको इनका पुत्र आकर बनना पड़ा। 'कतक' टीकाकार नागेशने रामाभिरामीटीका (वाल्मीकीयरामायण) में अनसूयाजीके सम्बन्धमें यह कथा उद्धृत की है कि अनसूयाजीकी कोई एक सखी थी; उसको किसी अपराधसे मार्कण्डेय ऋषिने शाप दे दिया था कि तू सूर्योदय होते ही विधवा हो जायगी। वह रोती हुई अनसूयाजीके पास आयी । इन्होंने उसपर दया करके अपने तपोबलसे सूर्यका उदय होना ही बंद कर दिया। जिससे दस रात्रिकी एक रात्रि हो गयी। तब ब्रह्मादि देवताओंने आकर उस सखीके पतिके मरने का शाप स्थगित कर दिया, वह विधवा न होने पायी। ऐसा होनेपर सूर्योदय हुआ । इनके तपस्याऔर प्रभाव की विस्तृत कथाएँ महाभारत, मार्कण्डेयपुराण और चित्रकूट - माहात्म्यमें दी हुई हैं। शिवपु० चतुर्थकोटि रुद्रसंहिता  में अनसूयाजीके मन्दाकिनी गंगाको लानेकी कथा मिलती है। चित्रकूटमें कामदवनमें अनसूयाजीसहित श्रीअत्रिजी अपने आश्रममें तपस्या करते थे। एक समय वहाँ सौ वर्षकी अनावृष्टिसे अकाल पड़ गया, सर्वत्र हाहाकार मच गया। सबको दुःखी देख न सकनेके कारण अत्रिजीने समाधि लगा ली। तब उनके शिष्यादि उनको छोड़कर चल दिये। परंतु अनसूयाजी सब कष्ट सहकर उनकी सेवामें वहीं उपस्थित रहीं। वे नित्य मानसी पार्थिव पूजा करके शिवजीको संतुष्ट करती थीं। उनका तेज अग्निसे इतना बढ़ गया था कि देवता, दैत्य आदि भी उनके सामने न हो सकते थे। महर्षि और उनकी पत्नीका तप देखकर देवता, महर्षि तथा गंगा आदि उनकी बड़ी सराहना करने लगे कि ऐसा कठिन तप देखनेमें नहीं आया। वे सब इनके दर्शनको आये और चले गये, पर गंगाजी और शिवजी वहीं रह गये। गंगाजीने सोचा कि ऐसी महान् सतीका कुछ-न-कुछ उपकार मैं कर सकूँ तो अति उत्तम है। इस प्रकार अकालके चौवन वर्ष बीत गये। अनसूयाजीका भी यही संकल्प था कि जबतक स्वामी
समाधिस्थ हैं तबतक मैं भी अन्न-जल न ग्रहण करूँगी । ५४ वर्ष बीतनेपर महर्षिने समाधिविसर्जन किया और
अनसूयाजीसे जल माँगा। वे कमण्डल लेकर आश्रमसे बाहर निकलीं और चिन्ता करने लगीं कि कहाँ जल
मिले जिससे मैं स्वामीको संतुष्ट कर सकूँ। उसी समय मूर्तिमान् गंगाने उनको दर्शन देकर पूछा कि देवि! तुम
कौन हो, कहाँ जाती हो, क्या चाहती हो, सो कहो मैं उसे पूरा करूँ। आश्चर्यान्वित हो श्रीअनसूयाजीने पूछा
कि यहाँ वनमें तो कोई रहता नहीं, न आता है, आप कौन हैं यह कृपा करके बतलायें। उन्होंने अपना परिचय
देकर कहा कि तुम्हारी तपस्या, स्वामी और शिवजीकी सेवा तथा धर्मपालन देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ, तुम
जो माँगो मैं दूँ। तब श्रीअनसूयाजीने हर्षपूर्वक प्रणाम करके कहा कि आप प्रसन्न हैं तो जल दीजिये । उन्होंने
कहा, 'अच्छा एक गड्ढा बनाओ।' इन्होंने तुरंत एक गड्ढा खोद दिया। गंगाजी उसमें उतरकर जलरूप हो गयीं ।
इन्होंने जल लिया और प्रार्थना की कि जबतक मेरे स्वामी यहाँ न आ जायँ तबतक आप यहाँ उपस्थित रहें ।
प्रार्थना करके जल ले जाकर इन्होंने स्वामीको दिया। उन्होंने आचमन आदि करके जल पिया और संतुष्ट होकर
पूछा कि जल कहाँसे लायी हो ? ऐसा स्वादिष्ट जल तो इसके पूर्व कभी नहीं मिला था। उन्होंने उत्तर दिया
कि आपके पुण्यके प्रभाव और शिवजीके प्रतापसे गंगाजी यहाँ आयी हैं, उन्हींका यह जल है। आश्चर्यमें होकरवे बोले कि प्रत्यक्ष देखे बिना हमें विश्वास नहीं होता। अनसूयाजी उनको साथ लेकर वहाँ आयीं। महर्षिजीने कुण्डको जलसे भरा देखा और गंगाजीका दर्शन भी पाया । फिर दोनोंने दण्डवत् प्रणाम- स्तुति करके उसमें स्नानकर नित्य-कर्म किया। तब गंगाजीने कहा कि अब मैं जाती हूँ । श्रीअनसूयाजी तथा महर्षि दोनोंने प्रार्थना की कि आप प्रसन्न होकर जब यहाँ आ गयी हैं तो अब इस वनको छोड़कर न जायें। उन्होंने कहा कि यदि तुम लोकका कल्याण चाहती हो तो तुमने जो शिवजी और स्वामीकी सेवा की है उसमेंसे एक वर्षकी सेवाका फल हमें दे दो तो मैं यहाँ रह जाऊँ । 'शंकरार्चनसम्भूतं फलं वर्षस्य यच्छसि । स्वामिनश्च तदास्थास्ये देवानामुपकारणात् ॥  तस्माच्च यदि लोकस्य हिताय तत्प्रयच्छसि । तर्ह्यहं स्थिरतां यास्ये यदि कल्याणमिच्छसि ॥'उन्होंने अपने एक वर्षका तप दे दिया और उस दिनसे गंगाजी  वहाँ रह गयीं और उनका
नाम 'मन्दाकिनी' हुआ। अनुसुइया कौन ? इसके बारे में संस्कृत में यह श्लोक प्रसिद्ध है
—'न गुणान् गुणिनो हन्ति स्तौति चान्यगुणानपि । न हसेत् परदोषांश्च सानसूया प्रकीर्त्यते ।' अर्थात्
जो गुणी गुणोंमें दोष नहीं लगाता और दूसरेके गुणोंकी स्तुति करता है, दूसरेके दोषोंका उपहास नहीं करता,
उसे अनसूया कहते हैं । - अनसूया नाम सार्थ है। जिसमें असूया नहीं है वह अनसूया है। त्रिगुणातीत जीव ही अत्रि
है; तथापि जीवकी अर्धांगी बुद्धि जबतक असूयारहित न हो जाय तबतक कोई भी 'अत्रि' नहीं हो सकता और
अत्रि हुए बिना कोई भी परम विरागी नहीं हो सकता; यथा - 'कहिय तात सो परम बिरागी । त्रिन सम सिद्धि तीन गुन त्यागी।' और परम विरागी हुए बिना श्रीरामजी हृदयरूपी आश्रममें पधारते ही नहीं ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा।। चौथी का चंद।।

मानस चर्चा।। चौथी का चंद।।
जो आपन चाह कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥ 
सो पर नारि लिलारु गोसाईं । तजउ चौथि के चंद कि नाईं। 
जो व्यक्ति अपना कल्याण, सुन्दर यश, सुमति, शुभ गति और अनेक प्रकारके सुख चाहे वह परस्त्रीके ललाटको चौथके चन्द्रमाकी तरह त्याग दे । अर्थात् परस्त्रीका मुख न देखे, उसके देखने से कलंक लगता है ॥ 
विभीषणजी औरोंपर ढारकर उनके बहाने रावणको उपदेश दे रहे हैं, जिसमें वह क्रोध न करे और न अनुचित ही माने ।पुनः वह बड़ा भाई है और राजा है, अतः सीधे न
कहकर अन्यके प्रति उद्देश्य करके कहते हैं, जिसमें वह समझकर अपनेको सुधार ले । रावणमें काम, क्रोध, लोभ परोक्ष कहे (सो पर नारि लिलारु गोसाईं,के 'नारिलिलार' से काम, भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई के'भूतद्रोह' से क्रोध औरअलप लोभ भल कहइ न कोऊ के 'अलपलोभ' से लोभ - इस प्रकार तीनों दोष कहे ) । पर रावण परोक्षकथनसे न समझेगा। ( क्योंकि अभिमानवश है); अतः दोहेमें अपरोक्ष कहते हैं; यथा— 'काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।' यहाँ प्रस्तुत प्रसंगमें श्रीसीताजीके देनेकी प्रार्थना करते हैं; इसीसे प्रथम कामके दोष दिखाते हैं कि उससे एक तो सुयशका नाश होता है, यथा- 'कामीपुनि कि रहहिं अकलंका' । दूसरे सुमतिका नाश होता है, यथा- 'मुनि अति बिकल मोह मतिनाठी'  । तीसरे शुभगतिका नाश होता है, यथा- 'सुभ गति पाव कि परत्रियगामी ।' चौथे नाना सुखोंका नाश होता है, यथा- 'अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुखखानि ।'  पाँचवें कल्याण अर्थात् भलाईका नाश होता है, यथा - 'तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई।' कहनेका तात्पर्य यह कि इन पाँचोंको नष्ट करनेवाली 'परस्त्री' ही है।विभीषण संत हैं, इससे पाँचोंका उपदेश करते हैं। यहां 'कल्याण, सुयश, सुमति, शुभ गति और नाना सुख' पाँचोंका नाश 'परनारिलिलार' के दर्शनसे कहा है ।काव्य में स्त्रियोंके मुखके लिये चन्द्रमाकी उपमा दी
जाती है। इसीसे यहाँ भी चन्द्रमाकी उपमा दी गयी। और 'चौथि के चंद कि नाई' कहा गया; क्योंकि अन्य
तिथियोंके चन्द्रमा त्याज्य नहीं हैं। 'परनारि' कहा, क्योंकि जिस स्त्रीके साथ धर्मशास्त्रानुकूल पाणिग्रहण और
विवाह हुआ है, वह त्याज्य नहीं है। 'लिलार' शब्दसे 'मुख' का बोध कराया है, 'मुख' शब्दका प्रयोग नहीं करना भी साभिप्राय है। परस्त्रीका मुख चौथके चन्द्रमाके सामन कलंकका देनेवाला है, कलंकी है, अतएव त्याज्य है - यह उपदेश दूसरेको दे रहे हैं। जैसी आपकी कहनी है वैसी ही करनी भी है, दूसरेसे त्याग करने को कहते हैं और स्वयं उसे इस तरह त्यागे हुए हैं कि अपने मुँहसे 'मुख' शब्दका प्रयोग भी नहीं करते । 'मुख' शब्दतकका त्याग कर दिया है, केवल 'लिलार' से उसका संकेत कर दिया है। ऐसा अपूर्व त्याग विभीषणजीका है । यहां का भाव यह है कि आप राजा हैं, आपको चाहिये कि जो परस्त्रीको ग्रहण करे, उसे दण्ड दें और आपको तो परस्त्री कदापि न ग्रहण करनी चाहिये वरन् उसकी ओरसे इन्द्रियजित् होना चाहिये । राजा प्रजाके लिये आदर्श होता है।
लोकव्यवहारमें भाद्र शु० ४ के चन्द्रमाके दर्शनका निषेध देखा जाता है; परन्तु —— पंचाननगते भानौ पक्षयोरुभयोरपि । चतुर्थ्यामुदितश्चन्द्रो नेक्षितव्यः कदाचन। चतुर्थ्योर्भाद्रमासस्य चन्द्रचूडस्य भामिनी ॥
दिनद्वयं वर्षमध्ये पतिवक्त्रं न पश्यति ।  अर्थात् सिंहराशिपर सूर्यके होनेपर दोनों पक्षोंकी चतुर्थीमें उदय हुए चन्द्रमाका दर्शन कदापि न करना चाहिये । ग्रन्थकार कहते हैं कि भवानी इसी से चन्दशेखर  अर्थात् भगवान शंकर के मुखका दर्शन भ्राद्रमासकी चतुर्थियोंको अर्थात् वर्षमें दो दिन नहीं करतीं। क्योंकि पति के मुखके दर्शनसे ललाटस्थित चन्द्रमाका भी दर्शन हो जायेगा । - इस प्रमाणके अनुसार दोनों पक्षोंके चतुर्थी को चन्द्रदर्शनका
निषेध जान पड़ता है। इसीसे 'चौथि के चंद' कहा है, किसी पक्षका नाम न देनेसे दोनों मतोंका पोषण हो जाता है।
भाद्र शु० ४ गणेशचौथ है। उस दिनके चन्द्रदर्शनके निषेधकी कथा ब्रह्मचारी श्रीगंगाधरजीसे यह सुनी थी
कि एक बार श्रीगणेशजी अपने वाहन मूसापरसे फिसल पड़े थे, यह देख चन्द्रमा हँस पड़ा था, उसपर उन्होंने
शाप दे दिया कि तेरा दर्शन जो करेगा उसे कलंक लगेगा। शाप सुनकर देवताओंमें हाहाकार मच गया, क्योंकि
चन्द्रमाके बिना संसारका पोषण असम्भव हो जायगा । देवताओंकी प्रार्थनापर उन्होंने अनुग्रह कर यह कहा कि
अच्छा केवल हमारी चतुर्थीको चन्द्रदर्शनका निषेध रहेगा । तबसे भाद्रशुक्ल ४ को उसका दर्शन लोग नहीं करते ।
एक कथा यह भी है कि सत्ययुगके भाद्र शुक्ल ४ को बृहस्पतिने चन्द्रमाको तारा (बृहस्पति - पत्नी) के
साथ व्यभिचार करनेके कारण शाप दिया था कि आजकी रातको तेरा मुख पतित रहेगा अर्थात् तेरा मुख दर्शन-योग्य न रहेगा, जो कोई देखेगा उसे कलंक लगेगा। वेदान्तभूषणजी कहते हैं कि भाद्र कृ० ४ को अहल्याके
साथ व्यभिचार करनेमें चन्द्रमाने इन्द्रकी सहायता की थी, इससे उस तिथिका चन्द्रमा भी त्याज्य है । एक कथा यह भी है कि साधारण जीवोंकी कौन कहे, भगवान् कृष्णजीको चौथके चन्द्रमाके दर्शनसे स्यमंतकमणिकी
चोरीका मिथ्या कलंक लगा था। अतः चौपाईका भाव यह है कि चन्द्रमा कैसा सुन्दर, स्वच्छ और नेत्रोंको सुखद
होता है, पर परतियगामी होनेके कारण वह सुयश आदिसे ऐसा रहित हो गया कि उस दिन बुद्धिमान् अपने
सुयशादिके नाशके भयसे उसकी ओर भी नहीं देखते। वैसे परस्त्रीके मुखके देखनेका फल होता है । 
धोखेसे यदि चन्द्रदर्शन हो जाय तो उसका परिहार यह है कि भगवान् श्रीकृष्णको जो स्यमंतकमणिकी चोरी लगी थी उस कथाका श्रवण कर ले, ऐसा आज भी लोग करते हैं।  इस चन्द्रदर्शन-दोषका एक परिहार यह भी है कि  प्रतिमास शुक्लपक्षके द्वितीयाके चन्द्रका दर्शन करते रहे। 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा।। मैं।।

मानस चर्चा।। मैं।।
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।
आइए इस हास्य व्यंग्य की  कथा के माध्यम से इस बात को समझते हैं।
एक गांव की बात है एक घर में जब भी कोई साधु भीख मांगने जाता तो सास रोज मना करती बाबा कुछ नहीं है जाओ, एक बार वह सास किसी काम से गांव गई हुई थी घर में बहू थी वह बाबा आया और भीख मांगा तो बहू ने भी कह दिया कि कुछ नहीं है,, बाबा जाओ वह जब जाने लगा तो मार्ग में सांस मिली उसने बाबा जी से पूछा कहां गए थे, बाबा ने बोला तुम्हारे घर,, बोली मिला कुछ बाबा ने कहा नहीं उसने कहा क्यों,, मना कर दिया बहु कौन होती है मना करने वाली। मै करती तो ठीक उसने क्यों किया। तुम चलो भिखारी ने समझा इन दोनों के झगड़े में हमें फायदा होगा वह साथ आ गया । सास ने बहु को बहुत डांटा कहा बहू  तूने मना क्यों किया ? बहु ने कहा
माताजी रोज आप मना कर देती थी तो आज मैंने कर दिया, तो सास ने कहा अच्छा जो मैं करूंगी वही तू करेगी मेरी नकल करेगी- मेरी बराबरी करेगी, इस प्रकार ।बहुत डांटा  ।वह बाबा इंतजार में बैठे रहा कि सास कब देगी भीख, यहां डाटने के बाद सास बहू से बोलती है की बहू अरे मना करती तो मैं करती तूने क्यों किया, अब  सांस ने भिखारी से कहा बाबा जाओ मैं मना कर रही हूं कुछ नहीं
है जाओ। यह है।। मैं।।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा।।मंत्री।।

मानस चर्चा।।मंत्री।।
सचिव संग लै नभ पथ गएऊ । विभीषंजी  'सचिव संग लै' किस कारण से गए ,ये सचिव कौन थे।  विभीषणजी  के साथ चार मंत्री रहे। चारों मन्त्रियोंके नाम ये हैं- अनल, पनस, सम्पाति और प्रमति । जैसा कि वाल्मिकीय रामायण में कहा गया है।
अनलः पनसश्चैव सम्पातिः प्रमतिस्तथा । 
'ये चारों विभीषणजीके परमहितैषी परमभक्त मन्त्री थे और उनके अनुकूल आचरण करनेवाले विश्वासपात्र थे। साथ ही ये बड़े विक्रमशाली थे और जब जैसा रूप चाहें धारण कर सकते थे । इनको साथ ले जानेका प्रधान कारण यह था कि सीताहरणसे लेकर अबतक विभीषण  भगवान्‌की कुछ भी सेवा नहीं कर पाए थे। अब जब राम वानर-दल लेकर रावणवधके लिये आये हैं तब इस कार्यमें शक्तिभर उनकी सेवा करेगें।  युद्ध छिड़नेके पूर्व ही बिना किसीके कहे उन्होंने अपने चारों मन्त्रियोंको राम का सारा विधान देख आनेके लिये भेजा था। वे पक्षी बनकर शत्रुकी सेनामें जाकर वहाँका सारा समाचार ले आये थे। इस तरह आगे भी मेघनाद और रावणके यज्ञों आदिका समाचार भी मन्त्रियोंद्वारा ही प्राप्त कर-करके इन्होंने श्रीरघुनाथजीकी सेवा की । मन्त्री साथ क्यों आये ? एक कारण तो बताया गया कि वे विभीषणजीके परम भक्त अनुचर थे, साथ ही भगवद्भक्त भी थे। दूसरे, पुलस्त्यजीके संदेशसे वे जान गये थे कि भगवान् रावणका वध करनेके लिये अवतरित हुए हैं और उसका कुलसमेत वध निश्चित है। अतएव उसका वध होनेपर विभीषणजी अवश्य यहाँका राज्य पावेंगे, हम उनके मन्त्री हैं, अतः उनके राज्यमें सुख भोगनेको मिलेगा। यह लालच भी हो सकती है। फिर यदि विभीषणजी इनको साथ न लाते तो यह भी सम्भव था कि रावण उनपर विश्वास नहीं कर सकता था, उसे संदेह रहता कि ये शत्रुको यहाँका गुप्त समाचार देते रहेंगे, अतः या तो उनको मरवा डालता या युद्धमें उनको प्रथम ही जुझवा डालता। दोनों तरहसे इनके प्राण जाते । अतः साथ ले आये ।एक और बात विभीषण जानते ही थे कि राजा, मन्त्री, सुहृद्, कोष, देश, किला और सेना ये राजा के सात अंग हैं। इन सात अंगों में से प्रधान अंग मन्त्री है, यदि यह बना रहे तो बिगड़ा हुआ सब बन जाता । इसलिए  विभीषणजी अपने मंत्रियों को साथ लेकर आए।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा । जय और विजय।।

मानस चर्चा । जय और विजय।।
द्वारपाल हरिके प्रियदोऊ ।
जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥ 
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन। जगत् बिदित सुरपति मद मोचन॥
कनककसिपु ( कनक = हिरण्य+कशिपु ) = हिरण्यकशिपु  हाटक लोचन
(हाटक- हिरण्य+लोचन - अक्ष) हिरण्याक्ष ।
हरि (विष्णुभगवान्) के दोनों ही प्रिय द्वारपालों जय और विजयको सब कोई जानता है ॥ उन दोनों भाइयोंने विप्र ( श्रीसनकादिक ऋषि) के शापसे तामसी असुर शरीर पाया ॥ ( जो )हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष (हो) इन्द्रके मद (गर्व) को छुड़ानेवाले जगत्में प्रसिद्ध हुए ॥ ' द्वारपाल हरिके प्रिय दोऊ । '  दोनों ही भगवान्‌के द्वारपाल हैं और दोनों ही प्रिय हैं। स्वामीका काम करनेमें निपुण तथा स्वामिभक्त होनेसे 'प्रिय' कहा। भक्तमालमें भी कहा है- 'लक्ष्मीपति प्रीनन प्रवीण महा भजनानंद भक्तनि सुहद।'
नाभास्वामी ने कहा है कि, 
'पार्षद मुख्य कहे षोडश स्वभाव सिद्ध सेवा ही की रिद्धि
हिय राखी बहु जोरि कै।
श्रीपति नारायण के प्रीनन प्रबीन महा ध्यान करै जन पालै भावद्गकोरिकै ।
सनकादि दियोशाप प्रेरिकै दिवायो आप प्रगट है कह्यो पियो सुधा जिमि घोरि कै।
गही प्रतिकूलताई जोपै यही मन भाई या तें रीति
हद गाई धरी रंग बोरि कै।' 
'जान सब कोऊ' अर्थात् सब जानते हैं, इसीसे
विस्तारसे नहीं कहते, पुराणोंमें इनकी कथा लिखी है और पुराण जगत् में प्रसिद्ध हैं। 'जय' बड़े हैं, इससे उनको
पहले कहा । [ ग्रन्थकारकी रीति है कि दो भाइयोंका नाम जब साथ देते हैं तो प्रथम बड़ेको तब छोटेको क्रमसे
कहते हैं। यथा- 'नाम राम लछिमन दोउ भाई । ', 'नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाई ।' , 'नाथ नील नल कपि द्वौ भाई ।'  तथा यहाँ 'जय अरु बिजय', 'कनककसिपु अरु हाटक लोचन' में जयको और कनककशिपुको प्रथम रखकर जनाया कि जय बड़ा भाई है वही हिरण्यकशिपु हुआ । विजय और हिरण्याक्ष छोटे हैं। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष जुड़वाँ भाई (यमज) हैं। प्रथम हिरण्याक्ष निकला, पीछे हिरण्यकशिपु, पर वीर्यकी स्थिति अनुसार हिरण्यकशिपु बड़ा माना जाता है । 'बिप्र श्राप तें दूनौं भाई।'  । इस प्रकरणमें सनकादिको मुनि, ऋषि या ज्ञानी
विशेषण नहीं दिया किन्तु 'बिप्र' या 'द्विज' ही कहा है, क्योंकि इन्होंने वैकुण्ठमें भी जाकर मननशीलता न
कर क्रोध करके शाप दिया । [ 'बिप्र ' क्रोधमें भर जाते हैं और शाप दिया ही करते हैं। जैसे कि बिना सोचे-
समझे भानुप्रतापको । ऋषियों, ज्ञानियों को तो मननशील और संत-स्वभाव होना चाहिये, पर इन ब्रह्मज्ञानी महर्षियोंने शील, दया, शान्ति और क्षमा आदिको त्यागकर यहाँ कोप किया। अतएव उनको ऋषि आदि न कहकर 'बिप्र' कहा। इससे ग्रन्थकारकी सावधानता प्रकट हो रही है। श्रीमद्भागवतमें भी शाप देनेके पश्चात् जब भगवान्‌का
वहाँ आगमन हुआ तब उन्होंने भी मुनियोंसे ब्राह्मणोंकी महिमा गायी है और अन्तमें मुनियोंको 'बिप्र ' सम्बोधन
किया है। यथा- 'शापो मयैव निमितस्तदवैत विप्राः ।'  नारदजीने भी श्रीयुधिष्ठिरजीसे इनको विप्र-शाप होना कहा है। यथा-'मातृष्वसेयो वश्चैद्यो दन्तवक्त्रश्च पाण्डव। पार्षदप्रवरौ विष्णोर्विप्रशापात्पदाच्च्युतौ ।'
अर्थात् तुम्हारे मौसेरे भाई शिशुपाल और दन्तवक्त्र भगवान् विष्णुके प्रमुख पार्षद थे। ये
विप्रशापके कारण ही अपने पदसे च्युत हो गये थे । त्रिपाठीजी लिखते हैं कि सनकादिककी उपमा चारों वेदों से दी गयी है, यथा- ' रूप धरे जनु चारिउ बेदा, इसलिये उन्हें विप्र कहा । विप्रशाप अन्यथा नहीं हो सकता; यथा—
'किये अन्यथा होइ नहिं बिप्रसाप अति घोर ।'  'विप्रशापसे' असुर हुए, इस कथनका भाव यह है कि इन्होंने असुर-शरीर पानेका कर्म नहीं किया था, ये शापसे असुर हुए। ब्राह्मणके शापसे असुर देह मिली, इसीसे
तमोगुणी शरीर हुआ।  'दूनौं भाई' से स्पष्ट किया कि जय और विजय भाई-भाई थे  । श्रीब्रह्माजीने इन्द्रादि देवताओंसे शापकी कथा यों कही है – 'हमारे मानस पुत्र सनकादिक सांसारिक विषय-भोगोंको त्यागकर यदृच्छापूर्वक लोकोंमें विचरते हुए अपनी योगमायाके बलसे एक बार बैकुण्ठधामको गये। इस अपूर्व धामको देखकर अतिशय आनन्दित और हरिके दर्शनके लिये एकान्त उत्सुक हुए। छः ड्योढ़ियाँ लाँघकर जब सातवीं कक्षामें पहुँचे तो वहाँ द्वारपर दो द्वारपाल देख पड़े। ऋषियोंने उनसे पूछनेकी कुछ भी आवश्यकता न समझी, क्योंकि उनकी दृष्टि सम है, वे सर्वत्र ब्रह्महीको देखते हैं। ज्यों ही मुनि सातवीं कक्षाके द्वारसे भीतर प्रवेश करने लगे दोनों द्वारपालोंने (इन्हें नग्न देख और बालक जान हँसते हुए) बेंत अड़ाकर इन्हें रोका। 'सुहृत्तम हरिके दर्शनमें इससे विघ्न हुआ' ऐसा जानकर वे मुनि सर्पके समान क्रोधान्ध हुए। और उन्होंने शाप दिया कि 'तुम दोनों रजोगुण एवं तमोगुणसे रहित मधुसूदनभगवान्‌के चरणकमलोंके निकट वास करनेयोग्य नहीं हो। अपनी भेद-दृष्टिके कारण तुम इस परम पवित्र धामसे भ्रष्ट होकर जिस पापी योनिमें काम, क्रोध और लोभ- ये तीन शत्रु हैं
उसी योनिमें जाकर जन्म लो' 'ये ही दोनों द्वारपाल जय-विजय हैं। इस घोर शापको सुनकर उन दोनोंने मुनियोंके चरणोंपर गिर उनसे प्रार्थना की कि हम नीच-से-नीच योनिमें जन्म लें तथापि यह कृपा हो कि हमको उन योनियोंमें भी मोह न हो जिससे हरिका स्मरण भूल जाता है।' ठीक इसी समय भगवान् लक्ष्मीजीसहित वहीं पहुँच गये। मुनि दर्शन पाकर स्तुति करने लगे। फिर भगवान्ने बड़े गूढ़ वचन कहकर उनको आश्वस्त किया
कि ये दोनों हमारे पार्षद हैं, आप मेरे भक्त हो, आपने जो दण्ड इनको दिया, मैं उसे अंगीकार करता हूँ आप
ऐसी कृपा करें कि ये फिर शीघ्र मेरे निकट चले आवें । भगवान्‌का क्या तात्पर्य है यह ऋषिगण कुछ न
समझ सके और उनकी स्तुति करते हुए बोले कि 'यदि ये दोनों निरपराध हैं और हमने व्यर्थ शाप दिया हो
तो हमें दण्ड दीजिये. ' । भगवान्ने कहा कि आपने जो शाप दिया इसमें आपका कुछ दोष नहीं, यह मेरी इच्छासे
हुआ है। मुनियोंके चले जानेपर भगवान् अपने प्रिय पार्षदोंसे बोले कि तुम डरो मत। मैं ब्राह्मणके शापको मेट
सकता हूँ; पर मेरी यह इच्छा नहीं, क्योंकि यह शाप मेरी ही इच्छासे तुमको हुआ है । मुझमें वैरभावसे मन
लगाकर शापसे मुक्त होकर थोड़े ही कालमें तुम मेरे लोकमें आ जाओगे । 'जय-विजयको यह शाप क्यों हुआ ? इसका वृत्तान्त यह है कि एक बार भगवान्ने योगनिद्रामें तत्पर
होते समय इनको आज्ञा दी कि कोई भीतर न आने पावे। श्रीरमाजी आयीं तो उनको भी इन्होंने रोका, यह न सोचा कि भला इनके लिये भी मनाही हो सकती है श्रीलक्ष्मीजीने उस समय ही इनको शाप दिया था ।
यथा - 'एतत्पुरैव निर्दिष्टं रमया क्रुद्धया यदा । पुरापवारिता द्वारि विशन्ती मय्युपारते ॥ ' यह भगवान्ने स्वयं जय-
विजयको बताया है।
ये दोनों कश्यपकी स्त्री दितिके पुत्र हुए। बड़ेका नाम हिरण्यकशिपु और छोटेका नाम हिरण्याक्ष हुआ ।
जन्ममें वे विश्रवामुनिके वीर्यद्वारा केशिनीके पुत्र, के रूप में  रावण और कुम्भकर्ण बने। फिर वे ही द्वापरमें शिशुपाल और दन्तवक्त्र हुए जो अर्जुनकी मौसीके पुत्र हैं । भगवान् कृष्णके चक्र-प्रहारसे निष्पाप हो शापसे मुक्त हुए। वराहावतार और हिरण्याक्षवधकी कथा इस प्रकार है कि
सृष्टिके आदिमें जब ब्रह्माजीसे मनु - शतरूपाजी उत्पन्न हुए तब उन्होंने ब्रह्माजीसे आज्ञा माँगी कि हम क्या करें।
ब्रह्माजीने प्रसन्न हो उन्हें सन्तान उत्पन्न करके धर्मसे पृथ्वीपालन करनेकी आज्ञा की। मनुजीने उनसे कहा कि
बहुत अच्छा पर हमारे और प्रजाके रहनेका स्थान हमें बतलाइये, क्योंकि पृथ्वी तो महाजलमें डूबी हुई है। ब्रह्माजी चिन्तित हो विचार करने लगे। इतनेमें उनकी नासिकासे सहसा अँगूठेभरका शूकर निकल पड़ा जो उनके देखते-देखते पलमात्र पर्वताकार होकर गर्जा । ब्रह्माजी और उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषि चकित हुए । अन्ततोगत्वा उन्होंने यह निश्चय किया कि यज्ञपुरुषने हमारी चिन्ता मिटानेके लिये अवतार लिया है और उनकी स्तुति की।
तब वाराहभगवान् प्रलयके महाजलमें प्रवेशकर डूबी हुई पृथ्वीको अपने दाँतपर उठाये हुए रसातलसे निकले ।
इतनेमें समाचार पा हिरण्याक्षने गदा उठाये हुए सामने आकर राह रोकी और परिहास करते हुए अनेक
कटुवचन  कहा (ओहो! जलचारी शूकर तो हमने आज ही देखा । पृथ्वी छोड़ दे )  । परंतु भगवान्ने उसके
वचनोंपर कान न दे उसके देखते-देखते पृथ्वीको जलपर स्थितकर उसमें अपनी आधारशक्ति दे दिया । तब दैत्यसे
व्यंग्य वचन कहते हुए उसका तिरस्कार किया । गदा - त्रिशूलादिसे दैत्यने घोर युद्ध किया। फिर अपने माया-
बलसे छिपकर लड़ता रहा । भगवान् भी गदा और गदा छूट जानेपर चक्रसुदर्शनसे प्रहार करते रहे । अन्तमें उन्होंने लीलापूर्वक उसे एक तमाचा ऐसा मारा कि उसका प्राणान्त हो गया । शेष सभी कथाएं बहुत ही प्रसिद्ध हैं आप सब जानते ही हैं।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

✓मानस चर्चाश्री राम जी को वन भेजने की असली वजह

जय श्री राम,मानस चर्चा
श्री राम जी को वन भेजने की असली वजह 
कई लोग कहते हैं कि सत्य के लिए राम जी का त्याग कर दिया दशरथ जी ने, लेकिन बात दूसरी थी,  क्योंकि बचन तोड़ने के लिए तो दसरथ जी तैयार हो गए थे ।
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। 
नरक परौं बरु सुरपुरु जाऊ॥
बचन तोड़ दूंगा अपयश मिलेगा, मिल जाए, सुयश नष्ट होना है तो हो जाए, नरक मिलेगा तो मिल जाए, स्वर्ग ना मिले, तो न मिले।
बोलो दशरथ जी सत्य को छोड़ने के लिए तैयार हो गए-
वचन तोड़ने के लिए तैयार हो गए।
अच्छा तैयार हो गए थे तो छोड़ ही देते यहां तक कहा--
सब दु:ख दुसह सहावहु मोही।
लोचन ओट रामु जनि होंही॥
सारे दुख मिल जाएं तो सह  लूंगा पर राम जी मेरे आंखों से दूर ना जाएं,अगर दशरथ जी वचन तोड़ देते तो रामजी वन ना जाते,लेकिन बात वचन की नहीं थी ।
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। 
पीपर पात सरिस मनु डोला॥
पीपल के पत्ते की तरह मन डोल गया कि मैं वचन तोड़ भी नहीं सकता, क्यों नहीं तोड़ सकते ? सत्य के कारण अपने अभिमान के कारण बोले- ना ना ना, फिर ? समस्या सत्य की नहीं है- बात बचन की नहीं है बात दूसरी है ,तो दशरथ जी रोने लगे ।
तेहि पर राम शपथ करी आई |
मैंने राम जी की सौगंध कर कैकेयी जी को वचन दिया है कि तुम जो मांगूंगी वह दूंगा, अगर छोड़ता हूं तो जिसकी सौगंध की है उसका कहीं अमंगल ना हो जाए, इसलिए मैं वचन नहीं तोड़ सकता ।तेहि पर राम शपथ करी आई ।अर्थात् राम जी के शपथ के लिए दशरथ जी राम जी को वनवास भेजा, उन्होंने कहा मैं सत्य छोड़ सकता हूं पर राम जी की शपथ कैसे छोड़ दूं । इस प्रकार श्री राम जी को वन भेजने की असली वजह राम शपथ थी ।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा अहिल्या की कथा

मानस चर्चा अहिल्या की कथा
आश्रम एक दीख मग माहीं।खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी । सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ॥
मार्गमें एक आश्रम देखा। वहाँ पक्षी, पशु, जीव-जन्तु  कुछ भी न थे।पत्थरकी शिलादेखकर प्रभुने मुनिसे पूछा तब मुनिने विस्तारपूर्वक अच्छी तरहसे सब कथा कही ॥ आइए हम जानने का प्रयास करते है कि गुरु विश्वामित्र ने कौन कौन सी सकल कथा आश्रम के बारे में  प्रभु को सुनाया । मानसके मतसे यह आश्रम
गंगाजीके इसी तरफ था और यही मत अध्यात्म  रामायण का  भी है। यथा - ' इत्युक्त्वा मुनिभिस्ताभ्यां ययौ
गंगासमीपगम्॥  गौतमस्याश्रमं पुण्यं यत्राहल्यास्थिता तपः ॥ वहाँ भी अहल्योद्धारके पश्चात् गंगापार जानेके लिये तटपर गये हैं।  वाल्मीकीयके मतानुसार यह आश्रम गंगाके उस पार मिथिला प्रान्तमें है । यथा - 'मिथिलोपवने तत्र
आश्रमं दृश्य राघवः । पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुंगवम् ॥'अर्थात् मिथिलाके उपवनमें एक पुराना निर्जन पर रमणीय आश्रम देखकर श्रीरामजीने मुनिश्रेष्ठसे पूछा । उनके मतानुसार यह आश्रम तिरहुतमें कमतोल स्टेशनके पास है, जहाँ श्रीरामपण्डितने अहल्या- आश्रम बनवाया है। परंतु गोस्वामीजीके मतसे यह आश्रम सिद्धाश्रमसे पूर्व अहिरौली ग्राममें या उसके निकट है, जहाँसे गंगाघाट उतरकर जनकपुर प्रान्त मिलता है। बाबा हरिहरप्रसादजी लिखते हैं कि भोजपुरमें यह बात प्रसिद्ध भी है कि कल्पभेद इसमें समझना चाहिये। 'पूछा मुनिहि शिला प्रभु देखी । '  'सकल कथा मुनि कही बिसेषी' । 
मुनिकी इच्छा है कि प्रभु अहिल्या पर कृपा करें जैसा आगेके मुनिके वचनोंसे स्पष्ट है- 'चरन कमल रज चाहत
कृपा करहु रघुबीर।' इसीसे विस्तारसे अहल्याकी कथा कही, जैसे भगवान्ने गिरिजाकी करनी विस्तारसे
शिवजीसे कही थी, जिसमें शिवजी उनपर प्रसन्न होकर उनको ब्याह लावें । यथा - 'अति पुनीत गिरिजा
के करनी । बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी ॥'
'सकल कथा मुनि कही बिसेषी'  । कथा यह कही कि इस आश्रम में जगद्विख्यात मुनिवर गौतमजी
तपस्याद्वारा भगवान्‌की उपासना करते थे। यह देवाश्रमके समान दिव्य था । देवता भी इसकी प्रशंसा करते थे ।
ब्रह्माजीने एक अत्यन्त रूपवती कन्या उत्पन्न की, जिनका नाम अहल्या रखा। समस्त देवगण उसके रूपपर मोहित थे। यह देख ब्रह्माजीने कहा कि सबसे पहले जो तीनों लोकोंकी परिक्रमा करके आवेगा उसको यह लोकसुन्दरी कन्या ब्याही जायगी । इन्द्रादि समस्त देवता अपने-अपने वाहनोंपर चले । गौतमजीकी अपने शालग्राममें अनन्य निष्ठा थी । इन्होंने अपने शालग्रामजीकी परिक्रमा कर ली और ब्रह्माके पास गये। इधर देवगण जहाँ जाते वहाँ आगे महर्षि गौतमको देखते थे। सबने इनका आगे होना स्वीकार किया । अतः वह कन्या गौतमजीको मिली।
दूसरी कथा इस प्रकार है कि ब्रह्माजीने इस कन्याको महर्षि गौतमके पास थाती ( धरोहर ) रखी ।
बहुत काल बीत जानेपर जब ब्रह्माजी पुन: इनके पास आये तो इनका परम वैराग्य देखकर उनके
ब्रह्मचर्य से सन्तुष्ट होकर वह लोकसुन्दरी सेवापरायण कन्या तापसप्रवर गौतमजीको ही दे दी । - ' तस्मै ब्रह्मा
ददौ कन्यामहल्यां लोकसुन्दरीम् । ब्रह्मचर्येण सन्तुष्टः शुश्रूषणपरायणाम् ॥' इन्द्रको बहुत बुरा लगा, क्योंकि वह तो उसे अपनी ही सोचे बैठा था, समझता था कि हमें छोड़ यह दूसरेको नहीं मिल सकती, हम देवराज हैं। उसके रूप- लावण्यपर मुग्ध होकर वह नित्यप्रति उसके साथ रमण करनेका अवसर ताकता रहा।
एक दिन मुनिवरके बाहर चले जानेपर वह गौतमजीका रूप धारणकर आश्रममें आया । अहल्याने समझ लिया कि यह मुनिके वेषमें इन्द्र है, फिर भी उस मूर्खाने देवराजके प्रति कुतूहल होनेके कारण उसने उनकी बात स्वीकार की । - ' मुनिवेषं सहस्राक्षं
विज्ञाय रघुनन्दन। मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलम् ॥' पुनः कृतार्थ मनसे उसने इन्द्रसे कहा-
हे देवराज! मैं कृतार्थ हुई। आप शीघ्र यहाँसे जाइये। गौतमसे अपनी और मेरी सब तरहसे रक्षा कीजियेगा ।
'कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो ।' 
आश्रमसे शीघ्र बाहर निकल जानेकी चिन्तामें इन्द्र अपना रूप पुनः धारण करनेको भूल गया। इसी समय मुनि
भी वहाँ लौट आये। आश्रमसे अपना रूप धारण किये हुए पुरुषको बाहर निकलते देख मुनिने कुपित होकर
पूछा - 'रे दुष्टात्मन् ! रे अधम ! मेरे रूपको धारण करनेवाला तू कौन है ? 'पप्रच्छ कस्त्वं दुष्टात्मन्मम
रूपधरोऽधमः।' 'सच सच बता नहीं तो मैं तुझे अभी भस्म कर दूँगा ।' तब इन्द्रने कहा-'मैं कामके वशीभूत देवराज इन्द्र हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। मैंने बड़ा घृणित कार्य किया है।' तब महर्षिने क्रोधसे उसको शाप दिया कि 'हे दुष्टात्मन् ! तू योनिलम्पट है । इसलिये तेरे शरीरमें सहस्र भग हो जायँ ।' 'योनिलम्पट दुष्टात्मन् सहस्रभगवान्भव' - यही शाप मानसका मत है, जैसा- 'रामहि चितव सुरेस
सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना ॥ से स्पष्ट है। देवराजको शाप देकर मुनि आश्रममें आये । देखा कि अहल्या भयसे काँपती हुई हाथ जोड़े खड़ी है। महर्षिने उसको शाप दिया कि 'दुष्टे ! तू मेरे आश्रममें शिलामें निवास कर। यहाँ तू निराहार रहकर आतप, वर्षा और वायुको सहती हुई तपस्या कर और एकाग्रचित्तसे श्रीरामका ध्यान कर। यह आश्रम सब जीव-जन्तुओंसे रहित हो जायगा। हजारों वर्षोंके बाद श्रीराम जब आकर तेरी आश्रयभूत शिलापर अपने चरण रखेंगे तब तू पापमुक्त हो जायगी और उनकी पूजा, स्तुति आदि करनेपर तू शापसे मुक्त होकर फिर मेरी सेवा पायेगी । यथा - 'दुष्टे त्वं तिष्ठ दुर्वृत्ते शिलायामाश्रमे मम ॥  "यदा त्वदाश्रयशिलां पादाभ्यामाक्रमिष्यति। तदैव धूतपापा त्वं रामं संपूज्य भक्तितः। परिक्रम्य नमस्कृत्य स्तुत्वा
शापाद्विमोक्ष्यसे ।
शाप देकर मुनि हिमालयके उस शिखरपर चले गये जहाँ सिद्धऔर चारण निवास करते हैं । - ' इममाश्रममुत्सृज्य सिद्धचारणसेविते । हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे महातपाः ॥'अहल्या तबसे शिलामें निवास करती हुई तप कर रही है।अब आप इस पर कृपा करें जैसा कि गुरु वचन है- 'चरन कमल रज चाहत कृपा करहु रघुबीर।' 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा ।।सीताजी की सहेलियां।।

मानस चर्चा ।।सीताजी की सहेलियां।।
संग सखी सब सुभग सयानी । गावहिं
गीत मनोहर बानी ॥
संगमें सखियाँ हैं। सब (सखियाँ) सुन्दरी और सयानी हैं, मनोहर वाणीसे सुन्दर गीत गा रही हैं ॥ ३ ॥
'संग सखी सब सुभग सयानी' में मानो ऐसी पराबंदी है कि मानोकुयोग्य कोई है ही नहीं। रंगमंचपर गीत गाती हुई सुन्दर सखियोंके परे (समूह) का आना कितना चित्ताकर्षक है । नाटकीय कलामें इस chorus (कोरस सामूहिक गान ) का आनन्द बड़ा ही सुन्दर है। 'संग सखी...' से साफ उन कल्पनाओंका निषेध हो जाता है, जिससे 'सँठीगठी' मुलाकातकी ओर संकेत हो सके।
'संग सखी'  । श्रीसीताजीके साथ सखियाँमात्र हैं, कोई रक्षक सुभट इत्यादि नहीं हैं और पुरके बाहर देश-देशके अनेक राजा टिके हुए हैं; यथा - 'पुर बाहर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा ॥' इससे स्पष्ट है कि यह राज-बाग शहर (वा शहरपनाह ) के भीतर है। क्योंकि यदि शहरके बाहर होता तो श्रीजानकीजीकी रक्षाके लिये संगमें सुभटोंकी सेना अवश्य जाती; जैसे रुक्मिणीजीके सम्बन्धमें रक्षकोंका जाना कहा गया है।सखियोंकी सुन्दरता आगे लिखते हैं, यथा- 'सुंदरता कहँ सुंदर करई । छबिगृह दीपसिखा जनु बरई ॥' यहाँ सखियाँ छबिगृह हैं, यथा- 'सखिन मध्य सिय सोहति कैसी । छबिगन मध्य महाछबि जैसी ॥' 'सब सयानी' सब सखियाँ सयानी हैं, यह बात आगे स्पष्ट की है। यथा-'
-'सुनि हरषीं सब सखीं सयानी। सिय हिय अति उत्कंठा
जानी ॥’'धरि धीरज एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी । ''सुभग सयानी' का भाव कि शरीरसे सुभग (सुन्दर) हैं और बुद्धिकी 'सयानी' (चतुर) हैं। सुन्दरताकी शोभा बुद्धिसे है । इसीसे ' सुभग' और 'सयानी' दोनों गुण कहे। यथा - 'जानि सुअवसर सीय तब पठई जनक बुलाई। चतुर सखी सुंदर सकल सादर चलीं लवाइ ॥ '  'बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं', संग सखी सुंदर चतुर गावहिं मंगलचार । '  'सुभग' पद देकर 'सुभगा' आदि सब सयानी सखियोंका संगमें होना जनाया। पुनः, सुभग-सुन्दर ऐश्वर्यसे युक्त । 'सयानी' से डील-डौल और अवस्थामें भी बड़ी सूचित किया । (
'गावहिं गीत मनोहर बानी' । 'मनोहर' देहली- दीपक है। मनोहर गीत मनोहर वाणीसे गाती हैं। ये गीत गिरिजापूजनसम्बन्धी हैं । मनोहर-सुन्दर; मनको हर लेनेवाली । मुख्यार्थ यही है । परंतु, यह अर्थ भी ध्वनित होता है, 'मनो हर बानी' मानो सरस्वती के भी मन को मोहित कर लेती हैं। (अपने सुन्दर गीतसे) हम यह भी कह सकते हैं कि मानो हर अर्थात्  महादेवऔर वाणी  अर्थात् सरस्वतीजी ही हैं जो गा रहे हैं। गिरिजा अर्थात् जगतजननी के प्रसन्नार्थ । सखियां  हैं कौन कौन  उनके नाम  क्या हैं?  बैजनाथजीका मत है कि  सीता जी की आठ सखियां हैं जिनमें से श्रीचारुशीलाजी हाथमें सोनेकी झारी, लक्ष्मणाजी अर्घ्यपाद्यपात्र, हेमाजी हेमथालमें गन्ध - फूल-पत्र, क्षेमाजी धूप-दीपदानी, वरारोहाजी मधुपर्क, पद्मगन्धाजी फूलमाला, सुलोचनाजी छत्र और श्रीसुभगाजी चामर लिये हुए साथ हैं।
श्रीअगस्त्यसंहिता में  श्रीचारुशीलाजी, श्रीलक्ष्मणाजी, श्रीहेमाजी, श्रीक्षेमाजी, श्रीवरारोहाजी, श्रीपद्मगन्धाजी, श्रीसुलोचनाजी और श्रीसुभगाजी इन अष्ट सखियोंके माता-पिता नाम, जन्मकी तिथि, नाम और गुण तथा सेवाका उल्लेख करके अन्तमें यह श्लोक दिया है 'अष्टाविति सख्यो मुख्या जानक्याः करुणानिधेः । एतेषामपि सर्वेषां चारुशीला महत्तमा । '  अर्थात् ये श्रीजानकीजीकी मुख्य अष्ट सखियाँ हैं। इन सबोंमें श्रीचारुशीलाजी प्रधान हैं। श्रीसाकेतरहस्यमें भी यही नाम दिये हैं। केवल क्रम दूसरा है। श्रीरामरसायन ग्रन्थ - विधान ३ विभाग ११में सखियोंके नाम भिन्न हैं और इस प्रकार हैं- 'जनकलली प्रगटी जबै जनकनगरमें आय। जनम लियो
मिथिला तबै सकल सखी समुदाय ॥ यथायोग निमिकुल सदन लखि निज रुचि अनुसार । सुरी किन्नरी आदि बहु भई नरी सुविचार ॥ ते सिय संग विनोदिनी वय गुण रूप समान। बालसखी हैं आठ वर प्यारी परम प्रधान।चन्द्रकला उर्वशी सहोद्रा कमला बिमला मानौ । चन्द्रमुखी मेनका सुरम्भा आठ मुख्य ये जानौ ॥ प्यारी सखी विदेहसुता की बाल संगिनी सोहैं ॥  सप्त सप्त यूथेश्वरी इक इक सखि
स्वाधीन ॥ हैं सहस्त्रयूथेश्वरी प्रति अनुचरी प्रवीन ॥  ' 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा ।।मिथिलेश/मिथिलापति की कथा ।।

मानस चर्चा ।।मिथिलेश/मिथिलापति की कथा ।।आधार
विश्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए ॥
संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति ।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ येहि भाँति ॥ 
  ग्याति (ज्ञाति) = एक ही गोत्र वा वंशके लोग; गोतिया; भाई - बन्धु ।
महामुनि विश्वामित्रजी आये हैं (यह ) समाचार (सूचना, खबर ) मिथिलाके राजा श्रीजनकजीकोमिला ॥  पवित्र निष्कपट मन्त्रियों, निश्छल सच्चे बहुत से योद्धाओं, श्रेष्ठ (वेदपाठी ब्राह्मणों, गुरु श्रीशतानन्दजी और अपने जातिके ( श्रेष्ठ वा वृद्ध) लोगों - कुटुम्बियोंको साथमें लेकर और प्रसन्न होकर,राजा मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजीसे मिलनेको चले। 
'महामुनि' अर्थात् भारी मुनि हैं - इसीसे भारी तैयारीके साथ मिलने आये। आइए अब हम मिथिलापति के कुल की अद्भुत कथा का आनन्द लेते हैं।
बहुत पहले की बात है निमि नाम के एक राजा रहते थे , जो बड़े ही धर्मात्मा थे । निमि ने एक समय,  राजसूय यज्ञ करने का संकल्प लिया । आवश्यक समस्त वस्तुओं का उन्होंने संग्रह कर लिया , यज्ञ वेदी भी, एक स्वच्छ स्थान ढूंढ कर निर्मित करा दिया । राजा ने वेदी के स्थान पर एक बहुत बड़ा मंडप बनाया था । निमी ने उस यज्ञ के लिए अनेक महात्मा ऋषियों को आमंत्रण भेज दिया ।
वशिष्ट जी, राजा निमि के कुल गुरु थे । इसी कारण से, उनको आचार्य बनाने का निर्णय लिया । निमि अपना आमंत्रण लेकर वशिष्ठ जी के पास गया । निमि की बात सुनकर वशिष्ठ जी कहते हैं , राजन मैंने पहले ही देवराज इंद्र के यज्ञ का आचार्य  का कार्य ले लिया है । जिसकी अवधि 500 वर्षों तक है । इसीलिए मैं पहले इंद्र का कार्य खत्म करके बाद में तुम्हारा कार्य करूंगा । तब तक तुम मेरी प्रतीक्षा करो । वशिष्ठ जी की बात सुनकर निमी कहते हैं, गुरुदेव मैंने सारी सामग्रियों को एकत्रित कर लिया है । अब उन्हें कैसे संभाल कर रखूं , 500 वर्षों तक संभाल कर रखना कठिन है । इसीलिए आप कृपया पहले मेरा यज्ञ करादीजिए और बाद में इंद्र का यज्ञ कराने के लिए जाइए ।
वशिष्टजीने , निमि की एक बात भी नहीं सुनी । वह इंद्र का यज्ञ कराने के लिए चलेगए । इससे महाराज निमि  बहुत ही उदास हो गए । इसके बाद महाराज निमि ने ऋषि गौतम को अपना आचार्य बनाया । राजा निमि ने अपने यज्ञ को आरंभ कर दिया । यज्ञ संपन्न होने के बाद  महाराजने ब्राह्मणों को अनेक उपहार दिया । उधर 500 वर्षों के बाद, वशिष्ट जी इंद्र का यज्ञ संपन्न कराकर आ गए । उनके मन में विचार आया कि , पहले मुझे निमि राजा ने यज्ञ के लिए कहा था । अब मुझे वहां पर जाना चाहिए और देखना चाहिए कि राजा निमि क्या कर रहे हैं । यह सोच कर वशिष्ट जी निमि के महल में गए । वशिष्ट जी ने सैनिकों से कहा कि वे राजा को उनके आने की सूचना दें । किंतु उस समय राजा निमि सो रहे थे, इसीलिए सैनिकों ने उन्हें नहीं उठाया ।
राजा गहरी नींद में थे और इधर वशिष्ठ जी समझ गए कि राजा उनका अपमान कर रहे हैं । वशिष्ट को यह  बात पता चली कि, राजा ने गौतम ऋषि द्वारा अपना यज्ञ संपन्न करा लिया है । राजा के ना आने से , वशिस्ठ जी को क्रोध आगया । वशिष्ट ने  निमी राजा को शाप दे दिया कि,  तुम विदेह हो जाओ । जब सैनिकों ने शाप सुना , तो वे भयभीत हो गए ।  शीघ्र जाकर राजा को उठाया , यह समाचार सुनकर राजा निमि, क्रोधित वशिष्ठ जी के सामने आ गए । महाराज के मन में  कोई भी दुर्भावना नहीं थी । उन्होंने अत्यंत ही मीठे और गंभीर वचन कहना आरंभ किया ।
राजा ने कहा, गुरुदेव आप तो बड़े ही धर्मात्मा व्यक्ति है । फिर भी आपको क्रोध कैसे आ गया । आप जानते हैं कि, मैं निरपराधी हूं , मैंने आपसे बहुत विनती की, किंतु आपने मेरी एक नहीं सुनी । लोभ में पढ़कर इंद्रका यज्ञ कराने चले गए । इसी कारणवश मैंने महर्षि गौतम को आचार्य बनाकर,  अपना यज्ञ कराया । आपने व्यर्थ ही क्रोध में आकर मुझे शाप दे दिया । ब्राह्मणों को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि क्रोध चांडाल से भी अधिक अस्पृश्य है । गुरुदेव , ब्राह्मणों को सदैव शांत रहना चाहिए , सदा ही दूसरों का हित करना चाहिए । आप तो स्वयं ब्रह्मा जी के पुत्र हैं, फिर भी आप क्रोध के वश में कैसे हो गए ।  इस क्रोध के वशीभूत होकर आपने मुझ निरपराधी को, अकारण ही शाप दे दिया ।
इतना काहनें के बाद ,राजा ने कहा, गुरुवर अब मैं भी आपको शाप देता हूं ।  जिस क्रोध के कारण आपने मुझे शाप दिया है ,मैं भी आपको शाप देता हूं कि , क्रोध से भरा हुआ आपका यह शरीर नष्ट हो जाए । इस तरह वशिष्ठ और निमि ने एक दूसरे को शाप दे दिया । महाराज निमी को शाप मिल गया यह सुनकर, उनके राज्य के बहुत सारे ऋषियों ने मंत्र द्वारा राजा की आत्मा को उनके शरीर में ही रखा । क्योंकि राजा उस समय यज्ञ की दीक्षा लिए हुए थे । ऋषियोंने उन्हें चंदन आदि लगाया ,अनेक प्रकार की पुष्पों की मालाएं पहनाकर उनके द्वारा यज्ञ भी संपन्न कराया ।
यज्ञ संपन्न होते ही सारे देवता वहां पधारें । ऋषि-मुनियों ने उनका आदर सत्कार किया सारे देवता अति प्रसन्न थे । उन्होंने राजा निमि से कहा, महाराज आप अपना मनोवांछित वर मांग लीजिए ।  आप देव या मानव किसी भी शरीर को धारण कर सकते हैं । हम उस इच्छाकी पूर्ति अवश्य करेंगे । देवताओं की बातें सुनकर राजा ने कहा, देवराज इंद्र, मैं शरीर धारण करने के चक्र से मुक्त होना चाहता हूं । मैं कोई शरीर धारण नहीं करना चाहता । मेरी इच्छा है कि मैं समस्त प्राणियों के आंखों में वायु बनकर बिहार करता रहूं । जिसके फलस्वरूप, सारे जीव जिस स्थान से देखते हैं , मैं वहां रहूं । यह सुनकर देवताओं ने कहा , राजान, यदि आपकी यह इच्छा है तो, आप भगवती जगदंबा की आराधना कीजिए,वे इस इच्छा को पूर्ण करने में सक्षम है । इस समय देवी भगवती जगदम्बा ,आपके यज्ञ से आप पर अति प्रसन्न है ।देवराज की बात सुनकर, राजा निमि ने भगवती जगदंबा की स्तुति की । भगवती जगदंबा प्रसन्न होकर उसी समय वहां पर प्रकट हुई । वह सिंह पर विराजमान थी और उनकी शरीर से करोड़ों सूर्य के समान प्रकाश फैल रहा था । देवी ने राजा निमि से कहा, मैं तुम से अति प्रसन्न हूं । मन में जो भी इच्छा हो,  उसे मांग लो, अवश्य ही पूर्ण होगी । यह सुनकर राजा ने कहा, देवी मुझे बंधन से मुक्त करने वाला ज्ञान दीजिए, जिससे मुझे  ,जन्म- मरण के चक्र में ना पढ़ना हो । राजा की बात सुनकर देवी ने कहा, राजा निमि अभी तुम्हारे कुछ प्रारब्ध कर्म बाकी है।  इसीलिए अभी तुम्हें जन्म – मरण के चक्र से मुक्ति नहीं मिल सकती । किंतु तुम्हें अब शरीर नहीं धारण करना पड़ेगा । तुम समस्त जीवो के नेत्रों में वायु बनकर रहो । मैं तुम्हें ओ विद्या प्रदान करूँगी जिससे तुम जीव मुक्त हो जाओगे । इतना कहकर वहां उपस्थित मुनियों से मिलकर देवी जगदंबा अंतर्धान हो गई ।
उस समय राजा निमि की आत्मा उनके शरीर से निकल गई । परंतु उस स्थान पर उपस्थित ऋषियों ने उस शरीर को नहीं जलाया । काष्ठ आदि लेकर उसका मंथन ,आरंभ किया ताकि उससे राजा का कोई उत्तराधिकारी जन्म ले ले । कुछ समय बाद उस शरीर से एक दूसरा सुंदर बालक प्रकट हो गया । मानो , स्वयं राजा निमि ही हो । अरणीमंथनसे प्रकट होने के कारण, उस बालक  को मिथि/मिथिलेश  कहे गए ।  पिता के शरीर से उत्पन्न होने के कारण जनक कहलाए ।  निमी के विदेह होने के कारण, उनके कुल में उत्पन्न प्रत्येक राजा  राजा विदेह कहलाये । आगेचलकर उस कुल में उत्पन्न प्रत्येक राजा का नाम जनक हुआ ।
इस वंशके सभी राजा आत्मविद्याश्रयी अर्थात् ब्रह्मनिष्ठ होते आये हैं।
मिथिलाप्रदेश जिसे आजकल तिरहुत कहते हैं, उसके अन्तर्गत आजकल बिहारप्रान्तके दो जिले मुजफ्फरपुर और दरभंगा हैं। 'जनकपुर' प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ इसकी राजधानी थी,जो वर्तमानकालमें नेपालराज्यके अन्तर्गत है । यह सीतामढ़ीसे लगभग छ:- सात कोशपर है। राजा जनकका नाम 'शीरध्वज' और उनके छोटे भाईका 'कुशध्वज' था । 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा ।।राम के समान राम ही दूजा नहीं।।

मानस चर्चा ।।राम के समान राम ही दूजा नहीं।।
नील सरोरुह नीलमनि नील नीरधर स्याम ।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम।।'नील सरोरुह नीलमनि नील नीरधर स्याम ।' नीले कमल के - समान कोमल एवं सुगन्धित, नीलमणि के समान चिक्कन एवं दीप्तिमान् और नीले मेघोंके समान गम्भीर एवं श्याम शरीर है राम की।  तीन उपमाओंके देनेका भाव कि संसारमें जल, थल और नभ - ये तीन स्थान हैं। जैसा कि- 'जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥ ' इन तीनों स्थानों की एक-एक वस्तु की उपमा दी। जल के कमल की, थल के मणि की और नभ के मेघ की। 
कमलवत् श्याम और कोमल गुणों की चर्चा यहां भी है-
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारूचापं, नमामि रामं रघुवंशनाथम॥
मणिवत् श्याम और कठोर अर्थात् इससे पुष्ट और एकरस सहज प्रकाशमान गुण लेंगे। जैसा की प्रसिद्ध है-
परम प्रकास रूप दिन राती।
नहिं कछु चहिय दिया घृत बाती ॥
कमल और मणि सबको सुलभ नहीं, सबको इससे आनन्द नहीं प्राप्त हो सकता और इन्हें सर्वसाधारणने देखा भी नहीं, सुना भर है, अतः जलधर की उपमा दी। यह उपमान ऐसा है जिसे सबने देखा है । सब धर्म यहाँ मिल गये। मेघवत् गम्भीर और चराचरमात्रको सुखदायक हैं राम।पुनः, नीरधरसे श्रीरामजीकी सहृदयता तथा परोपकारपरायणता भी दिखायी है। मेघ जा-जाकर
सबको जल देते हैं और आप कृपानीरधर हैं, भक्तोंके पास जा जाकर कृपा करते हैं। यथा-
कृपा बारिधर राम खरारी ।
पाहि पाहि प्रनतारति हारी॥' 
तीन उपमाएँ देकर राम को ही त्रिदेवका कारण बताया गया है। एक ही श्यामताको तीन प्रकारसे कहकर
'सत् चित् आनन्द' भाव दरसाते हुवे राम को ही सच्चिदानन्द कहा गया है।यह भी कि जलमें सर्वोत्तम नीलिमा नीलकमलकी, थलमें नीलमणिकी और नभमें
नीरधरकी है। इन तीनों नीलिमाओंकी शोभा सलोने श्यामसुन्दर राम में है । तभी तो राम के समान राम ही हैं दूजा नहीं हैं।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा।।शंकर शतक।।

मानस चर्चा।।शंकर शतक।।
जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदय तुरत बिश्रामा ॥ 
को नहिं सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥ 
अर्थात् (भगवान्ने कहा कि) शंकर - शतनाम ( शंकरशतक) जाकर जपो ( उससे) हृदय तुरत शान्त होजायगा ॥ शिवजीके समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, यह विश्वास भूलकर भी न छोड़ना ॥  जब नारदजीकी नैतिक चिकित्सा पूर्ण हो गयी। पश्चात्तापके होते ही अहंकार मिट गया । तब  भगवान्ने एक सरल उपायसे उनका उद्धार करा दिया। इलाज कितना अच्छा और पक्का है। टैगोरजी सत्य
कहते हैं कि भगवान् हमें कभी-कभी बड़े इनकारसे सीख देते हैं, नहीं तो कुपथ्य पाकर हमारे रोग बढ़ते ही जायँ । शंकरजीके नामजपका रहस्य यह है कि वे ही 'कामारि' हैं।
'जपहु जाइ संकर सत नामा'। शंकरशतनामसे शंकरशतक अभिप्रेत है। जैसे 'विष्णुसहस्रनाम', 'गोपालसहस्रनाम', 'श्रीसीतासहस्रनाम' और 'रामसहस्रनाम' इत्यादि हैं, वैसे ही 'शंकर- शतनाम' (शंकरशतक) है। शिवपुराणमें ब्रह्माजीने नारदजीको इस शतनामका उपदेश दिया है और लिंगार्चनतन्त्रमें स्वयं शिवजीने अपने शतनाम पार्वतीजीसे कहे हैं और अन्तमें उसका फल भी कहा है। आइए हम उस दिव्य शंकर शतनाम का जाप करते हुवे महादेव जी के कृपा का पात्र बने।
शिवलिङ्गार्चनतन्त्रे शिव-पार्वतीसंवादे-श्रीपार्वत्युवाच -इदानीं श्रोतुमिच्छामि शिवस्य शतनामकम् ।
श्रीसदाशिव उवाच – मम नाम पराराध्यं तथैव कथितं मया ॥ तेषां मध्ये सहस्त्रं तु सारात्सारं परात्परम् ।
तत्सारं तु समुद्धृत्य शृणु मत्प्राणवल्लभे ॥  मम नामशतं चैव कलौ पूर्णफलप्रदम् । केवलं स्तवपाठेन मम तुल्यो
न संशयः ॥  पीठादिन्याससंयुक्तं ऋष्यादिन्यासपूर्वकम् । देवताबीजसंयुक्तं शृणुयात्परमाद्भुतम् ॥ नारदश्च ऋषिः
प्रोक्तोऽनुष्टुप् छन्दः प्रकीर्तितः । सदाशिवो महेशानो देवता परिकीर्तिता  ॥ षडक्षरं महाबीजं चतुर्वर्गप्रदायकम् ।
सर्वाभीष्टप्रसिद्ध्यर्थं विनियोगः प्रकीर्तितः  ॥ ॐ महाशून्यो महाकालो महाकालयुतः सदा । देहमध्ये महेशानि
लिङ्गाकारेण वै स्थितः  ॥ मूलाधारे स्वयम्भूश्च कुण्डली शक्तिसंयुतः । स्वाधिष्ठाने महाविष्णुस्त्रैलोक्यं पालयेत्
सदा  ॥ मणिपूरे महारुद्रः सर्वसंहारकारकः । अनाहदे ईश्वरोऽहं सर्वदेवैर्निषेवितः  ॥ विशुद्धाख्ये षोडशारे
सदाशिव इति स्मृतः । आज्ञाचक्रे शिवः साक्षाच्चिद्रूपेण हि संस्थितः ॥ सहस्रारे महापद्मे त्रिकोणनिलयान्तरे ।
बिन्दुरूपे महेशानि परमेश्वर ईरितः  ॥ वास्वरूपे महेशानि नानारूपधरोऽप्यहम् । कल्पान्तज्योतिरूपोऽहं
कैलासेश्वरसंज्ञकः  ॥ हिमालये महेशानि पार्वतीप्राणवल्लभः । काश्यां विश्वेश्वरश्चैव वानेश्वरस्तथैव
च॥ शम्भुनाथश्चन्द्रनाथश्चन्द्रशेखर पार्वति । आदिनाथ: सिंधुतीरे कामरूपे वृषध्वजः  ॥ नेपाले पशुपतिश्चैव
केदारे परसीश्वरः । हिंगुलायां कृपानाथो रूपनाथस्तदोद्धकः ।।द्वारकायां हरश्चैव पुष्करे प्रमथेश्वरः । हरिद्वारे महेशानि गङ्गाधर इति स्मृतः ॥ कुरुक्षेत्रे पाण्डवेशो वृन्दारण्ये च केशवः । गोकुले गोपनीपूज्यो गोपेश्वर इति
स्मृतः  ॥ मथुरायां कंसनाथो मिथिलायां धनुर्धरः । अयोध्यायां कृत्तिवासः काश्मीरे कपिलेश्वरः  ॥ काञ्चीनगरमध्ये तु मन्नाम त्रिपुरेश्वरः । चित्रकूटे चन्द्रचूडो योगीन्द्रो विन्ध्यपर्वते  ॥ बाणलिङ्गो नर्मदायां प्रभासे शूलभृत्सदा ।भोजपुरे भोजनाथो गयायां च गदाधरः ॥ झारखण्डे वैद्यनाथो बल्केश्वरस्तथैव च । वीरभूमौ सिद्धिनाथो राढे च तारकेश्वरः ॥ घण्टेश्वरश्च देवेशि रत्नाकरनदीतटे । गङ्गाभागीरथीतीरे कपिलेश्वर इतीरितः ॥ भद्रेश्वरश्च देवेशि कल्याणेश्वर एव हि । नकुलेशः कालिघाटे श्रीहटे हाटकेश्वरः ॥ अहंकोचवधूपूरे जयेश्वर इतीरितः ।
उत्कले विमलाक्षेत्रे जगन्नाथो ह्यहं कलौ  ॥ नीलाचलारण्यमध्ये भुवनेश्वर इतीरितः । रामेश्वरः सेतुबन्धे लंकायां रावणेश्वरः॥ रजताचलमध्ये तु कुबेरेश्वर इतीरितः । लक्ष्मीकान्तो महेशानि सदा श्रीशैलपर्वते  ॥ अम्बको
गोमतीतीरे गोकर्णे च त्रिलोचनः । बद्रिकाश्रममध्ये तु कपिनाथेश्वरो ह्यहम् ॥ स्वर्गलोके देवदेवो मर्त्यलोके
सदाशिवः। पाताले वासुकीनाथो यमराट् कालमन्दिरे  ॥ नारायणश्च वैकुण्ठे गोलोके हरिहरस्तथा । गन्धर्वलोके
देवेश पुष्पगन्धेश्वरो ह्यहम्  ॥ श्मशाने भूतनाथश्च गृहे चैव जगद्गुरुः । अवतारः शंकरोऽहं विरूपाक्षस्तथैव
च॥ कामिनीजनमध्ये तु कामेश्वर इति स्मृतः । चक्रमध्ये कुलश्चैव सलिले वरुणेश्वरः ॥ आशुतोषो भक्तमध्ये शत्रूणां त्रिपुरान्तकः । शिष्यमध्ये गुरुश्चाहं तथैव परमो गुरुः  ॥ चन्द्रलोके सोमनाथः स्वर्भानुर्भानुमण्डले ।
त्रैलोक्ये लोकनाथोऽहं रुद्रलोके महेश्वरः ॥ समुद्रमथने काले नीलकण्ठस्त्रिलोकजित् । जम्बुद्वीपे जगत्कर्त्ता
शाकद्वीपे चतुर्भुजः  ॥ कुशद्वीपे कपद्दशः क्रौञ्चद्वीपे कपालभृत् । मणिद्वीपे मीननाथः प्लक्षद्वीपे शशीधरः ॥
अहं च पुष्करद्वीपे पुरुषोत्तम इतीरितः । वेदमध्ये वासुदेवो गुरुमध्ये निरञ्जनः  ॥ पुराणे परमेशानि व्यासेश्वर इतीरितः । आगमे नागमध्येऽहं निगमे नागरूपधृक्  ॥ सर्वज्ञो ज्योतिषां मध्ये योगीशो योगशास्त्रके ।
दीनमध्ये दीननाथो नाथनाथस्तथैव च  ॥ राजराजेश्वरश्चैव नृपाणां नगनन्दिनि । परं ब्रह्म सत्यलोके ह्यनन्तश्च
रसातले॥ आब्रह्मस्तम्भमध्ये तु लिङ्गरूपो ह्यहं प्रिये । इति ते कथितं देवि मम नामशतोत्तमम् ॥'
यहाँतक शंकरशतनाम हैं। आगे उन्नीस  श्लोकोंमें इसके पाठका माहात्म्य कहा है-
पठनाच्छ्रवणाच्चैव महापातककोटयः । नश्यन्ति तत्क्षणाद् देवि सत्यं सत्यं न संशयः ॥ अज्ञानिनां ज्ञानसिद्धिर्ज्ञानिनां परमं धनम् । अतिदीनदरिद्राणां चिन्तामणिस्वरूपकम् ॥  रोगिणां पापिनां चैव महौषधि इति स्मृतः। योगिनां योगसारं च भोगिनां भोगमोक्षदः ॥॥ इत्यादि । 
नारद उवाच - काशीनाथश्शिवस्वामी तु
कन्दर्पघ्नस्तु शंकरः । भूपतिर्भूतनाथश्च
भगवान् भूतसंगी च भालज्योतिर्निरञ्जनः । अन्धकासुरहा
भूसुरप्रतिपालकः ॥ शम्भुर्दक्षयज्ञविनाशनः ॥ 
देवादिर्देवयोगीशो नागभूषणदुःखहा । भस्मापेतो भवानीशो भावनो भक्तिभाजनः ॥ 
विश्वरूपी चिदानन्दः अनादिः पुरुषोत्तमः । जगन्नाथ
नागचर्माम्बरं धृत्वा जटाधारी जगत्पतिः । जानकीनाथमित्रं
निराकार: पुरध्वंसनईश्वरः ॥
चशृङ्गी शङ्खसदाप्रियः ॥ 
भूतकर्ताकरामलः ।। 
भस्मकर्ता तमोगुणः ॥ 
चपिनाकीपरमेश्वरः ॥ 
च रावणारिवरप्रदः ॥ 
महादेवो
पद्मासनः शिवार्द्धाङ्गी डमरूमुखरप्रियः । वृषध्वजो दयाधीशो नीलकण्ठो निजानन्दो निश्चलो निर्मलश्शिवः । वामदेवो भृङ्गीशो वीरभद्रादिः सूर्यकोटिप्रभायुतः । तारकप्राणहन्ता पद्माक्षोऽपि परब्रह्म रुद्रो दाता जगत्त्रयः । रावणाश्रयकर्त्ता
मस्तके बालचन्द्रो ऽस्य शीर्षे गङ्गोदकं शुचि । पञ्चात्मा सुप्रकाशी च पञ्चबाणैकनाशनः ॥ 
मृगचर्मसुखासीनोमृगमदो
वैद्यनाथश्च नन्दीश: कालकूटस्यगन्धगाहुकः । रुक्मकञ्चनदाता च रुक्मभूधरमालयम् ॥ 
भक्षकः  वाराणसीविलासी च पञ्चवक्त्रेश्वरो
हरः ॥ 
हंससोमाग्निनेत्रश्च भस्मकर्त्ता तमोगुणः । सुगुरुः सुखदो नित्यं निरूपाक्षो दिगम्बरः ॥ 
सनातनः । सर्वगः सर्वसाक्षी च सर्वात्मा च सदाशिवः ॥ 
चन्द्रशेखरसिद्धान्तः शान्तभूतःयोगेश्वरो जगत्त्राता
जगज्जीवाधिपालकः । 
जानकीवल्लभपूज्यो श्मशानसदाक्रीडः कपाली
करपन्नगः ।
विघ्नविध्वंसनो हृषीकार्थप्रदस्सिद्धिर्ज्योतीरूपो
महेश्वरः । शंकरेरामेश्वरोनामजलाश्रयः ॥
बलिपुत्रवरप्रदः ॥ 
शतनामानि प्रणीतान्यादियामले ॥ 
सर्वकामप्रदो नित्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् । तस्य सर्वफलप्राप्तिः शिवश्चण्डः प्रसीदति ॥ 
इति श्रीब्रह्मयामले शंकरशतनामस्तोत्रं समाप्तम् ।
श्रीविजयानन्द त्रिपाठीने शंकरशतनामस्तोत्र यह दिया है- 'अथ श्रीशिवाष्टोत्तरशतनाममहामन्त्रस्य
आदिनारायणऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्रीसदाशिवो देवता श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठमरिन्दमम्।
सहस्त्रकरमत्युग्रं वन्दे देवमुमापतिम् ॥ ॐ शिवो महेश्वरः शम्भुः पिनाकी शशिशेखरः । वामदेवो विरूपाक्षः कपर्दी
नीललोहितः । शङ्करः शूलपाणिश्च खट्वाङ्गी विष्णुवल्लभः । शिपिविष्टोऽम्बिकानाथः श्रीकण्ठो भक्तवत्सलः । भवः शर्वस्त्रिलोकेशः शितिकण्ठः शिवाप्रियः । उग्रः कपाली कामारिरन्धकासुरसूदनः । गङ्गाधरो ललाटाक्षः कालकालः कृपानिधिः। भीमः परशुहस्तश्च मृगपाणिर्जटाधरः । कैलासवासी कवची कठोरस्त्रिपुरान्तकः । वृषाङ्को वृषभारूढो
भस्मोद्धूलितविग्रहः।सामप्रियः स्वरमयस्त्रयीमूर्तिरनीश्वरः । सर्वज्ञः परमात्मा च सोमसूर्याग्निलोचनः ॥ 
हविर्यज्ञमयः सोमः पञ्चवक्त्रः सदाशिवः । विश्वेश्वरो वीरभद्रो गणनाथः प्रजापतिः ॥ हिरण्यरेता दुर्धर्षो गिरीशो
गिरिशोऽनघः । भुजङ्गभूषणो भर्गो गिरिधन्वा गिरिप्रियः ॥ कृत्तिवासा पुरारातिर्भगवान् प्रमथाधिपः । मृत्युञ्जयः
सूक्ष्मतनुर्जगद्व्यापी जगद्गुरुः ॥  व्योमकेशो महासेनो जनकश्चारुविक्रमः । रुद्रो भूतपतिः स्थाणुरहिर्बुध्न्यो
दिगम्बरः  ॥ अष्टमूर्तिरनेकात्मा सात्त्विकः शुद्धविग्रहः । शाश्वतः खण्डपरशुरजः पाशविमोचकः  ॥ मृडः
पशुपतिर्देवो महादेवोऽव्ययः प्रभुः । पूषदन्तभिदव्यग्रो दक्षाध्वरहरो हरः  ॥ भगनेत्रभिदव्यक्तः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।।अपवर्गप्रदोऽनन्तस्तारकः परमेश्वरः । तारकः परमेश्वरः । इमानि दिव्यनामानि जप्यन्ते सर्वदा मया । नाम कल्पलतेयं मे सर्वाभीष्टप्रदायिनी । नामान्येतानि सुभगे शिवदानि न संशयः । वेद सर्वस्वभूतानि नामान्येतानि वस्तुतः ॥ एतानि यानि नामानि तानि सर्वार्थदान्यतः । जप्यन्ते सादरं नित्यं मया नियमपूर्वकम् ॥ वेदेषु शिवनामानि श्रेष्ठान्यघहराणि च । सन्त्यनन्तानि सुभगे वेदेषु विविधेष्वपि ॥ तेभ्यो नामानि संगृह्य कुमाराय महेश्वरः । अष्टोत्तरसहस्त्रं तु नाम्नामुपदिशत्पुरा । इति श्रीगौरीनारायणसंवादे शिवाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।'  'संकर सत नामा' के और अर्थ ये दिये हैं- 'शतरुद्री' वा 'शंकरने जिस नामको सत माना है उसे' वा सत अर्थात् प्रशंसा जो शिवजीका नाम है 'ॐ नमः शिवाय' ।
'जपहु जाइ संकर सत नामा। 'शंकरशतनाम जपवानेमें भाव यह है कि जब कोई भागवतापराध हो जाता है तो उसका प्रायश्चित्त भगवन्नामजपसे नहीं होता, किंतु भागवत - भजनसे, भक्तके शरण होनेसे ही वह पाप नष्ट होता है। इसके उदाहरण दुर्वासा ऋषि हैं (उन्होंने अम्बरीष महाराज परमभागवतका अपराध किया तब चक्रने महर्षिका पीछा किया, ब्रह्मा, शंकर एवं चक्रपाणिभगवान्‌ की शरण जानेपर भी उनकी रक्षा न हुई । भगवान्ने स्पष्ट कह दिया कि अम्बरीषकी ही शरण जानेसे तुम्हारा दुःख छूट सकता है, अन्यथा नहीं । दुर्वासाजीको भक्तराज अम्बरीषकी शरण जाना पड़ा। देवर्षि नारदने भागवतापराध किया है। शंकरजी परम भागवत हैं-'वैष्णवानां यथा शम्भुः ।'  नारदजीने उनका उपदेश नहीं माना (किंतु उनमें ईर्ष्या और स्पर्धाकी भावना रखकर उनको प्रणाम भी न किया), इसीसे उन्हींका नाम जपनेको कहा । अपनेको दुर्वचन कहे इसका भी प्रायश्चित्त शंकरशतनाम बताया। [ भगवान्‌का स्वभाव है कि 'निज अपराध रिसाहिं न काऊ।'  परंतु 'जो अपराध भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई ।। ' इन्होंने परम
भक्त श्रीशंकरजीका अपराध किया है, इसलिये मुनिके 'मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे । पाप मिटिहि किमि मेरे' इन वचनोंके
उत्तरमें भी वे 'जपहु जाइ संकर सत नामा' यही प्रायश्चित्त कह रहे हैं। यह कहकर वे नारदजीको संकेतसे बता
रहे हैं कि वस्तुतः तुमने शंकरजीका अपराध किया है, जो अक्षम्य है, अतः तुम यह प्रायश्चित्त करो। 'जपहु जाइ संकर सत नामा' यथा - 'शतनामशिवस्तोत्रं सदानन्यमतिर्जप । '  अपने प्रति किये हुए अपराधको तो मैं अपराध गिनता ही नहीं, यदि तुम उसे अपराध मानते हो तो वह भी इसीसे छूट जायगा । 'होइहि तुरत हृदय बिश्रामा'  । 'तुरत से शंकरशतनामका माहात्म्य कहा । अर्थात् इससे जनाया कि भागवत-भजनका प्रभाव सद्यः होता है, उसका फल शीघ्र ही मिलता है। भगवान्‌को दुर्वचन कहने से नारदजीके हृदयमें संताप है, इसीसे हृदयको विश्राम होना कहा। पापसे विश्रामकी हानि होती है, पापोंके नष्ट होनेसे विश्राम मिलता है।
' 'कोउ नहि सिव समान प्रिय मोरें ।' भाव कि सभी जीव हमें प्रिय हैं, यथा - 'सब मम प्रिय सब मम उपजाये।'  पर शिवजी अपनी रामभक्तिसे मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं।  'पनु करि रघुपति भगति देखाई । को शिव सम रामहि प्रिय भाई ॥ ' 'असि परतीति तजहु जनि भोरें ।' भाव यह कि तुमने ऐसी प्रतीतिको त्याग दिया था। इसीसे तुमने शंकरजीके वचनोंका प्रमाण न माना, किंतु उनका
अनादर किया। प्रतीतिके त्यागसे ये शिवभक्ति न करेंगे, क्योंकि 'बिनु बिस्वास भगति नहीं' और शिवभक्ति बिना
ये हमको प्रिय न होंगे, ऐसा विचारकर भगवान्ने ये वचन कहे कि कदापि ऐसा विश्वास न छोड़ना ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा।।प्रभु की दिव्य चिकित्सा।।

मानस चर्चा।।प्रभु की दिव्य चिकित्सा।।
बेगि सो मैं डारिहौं उखारी * । पन हमार सेवक हितकारी ॥ 
मुनि कर हित मम कौतुक होई । अवसि उपाय करबि मैं सोई ॥ ६ ॥
मैं उसे शीघ्र ही उखाड़ डालूँगा, क्योंकि सेवकका हित करना यह हमारी प्रतिज्ञा है (वा, हमारी प्रतिज्ञा सेवकके लिये हितकर है ) ॥  अवश्य मैं वही उपाय करूँगा जिससे मुनिका भला और मेरा खेल होगा (मेरी लीला होगी ) ॥ 
'बेगि सो मैं डारिहौं उखारी।' 'बेगि' क्योंकि अभी गर्व - तरु जमा है, उसके उखाड़नेमें कुछ भी परिश्रम नहीं है और नारदके हृदयमें बहुत दुःख अभी उखाड़नेसे न होगा। बड़ा वृक्ष उखाड़ने में पृथ्वी विदीर्ण हो जाती है। तात्पर्य कि बहुत दिन रह जानेसे उसका अभ्यास हो जाता है फिर वह हृदयसे नहीं जाता। अभी गर्व हृदयमें अंकुरित हुआ है, अभी उसका अभ्यास नहीं पड़ा है। 'पन हमार सेवक
हितकारी' कहनेका भाव कि गर्व अहितकारी है। पुनः, भाव कि 'भगवान् परायी विभूति नहीं देख सके, अपनी
बड़ाईकी ईर्ष्यावश होकर अथवा अवगुण देखकर क्रोधसे गर्व दूर करनेपर उद्यत हैं, ऐसा नहीं है किंतु वे
सेवकका हित करनेके लिये उसके गर्वका नाश किया करते हैं, यथा- 'जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीनबंधु
अति मृदुल सुभाऊ ॥', 'जेहिं जन पर ममता अति छोहू । जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू ।। ''अपने देखे दोष राम न कबहूँ उर धरे ।' भगवान् परायी विभूति, पराई बाढ़ देख नहीं सकते, इत्यादि संदेहोंके निवारणार्थ 'करुनानिधि', 'सेवक हितकारी', 'मुनि कर हित मम कौतुक ' आदि पद दिये हैं।  'मुनि कर हित मम कौतुक होई ।'  कौतुक - लीला। हमारा कौतुक होगा अर्थात् हम अवतार धारण करके लीला करेंगे। पूर्व जो कहा था कि 'भरद्वाज कौतुक सुनहु' उस 'कौतुक' का अर्थ यहाँ खोलते हैं कि 'भगवान्‌ का कौतुक सुनो।' यह बात भगवान् यहाँ अपने मुखसे ही कह रहे हैं। 'मम कौतुक होई'। प्रथम मुनिका हित होगा अर्थात् गर्व दूर होगा; वे क्रोध करके शाप देंगे तब भगवान्‌की लीला होगी, उसी क्रमसे यहाँ भगवान्‌के वचन हैं- 'मुनि कर हित' तब 'मम कौतुक ।' कौतुक - लीला 'बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई । लगे करन सिसु कौतुक तेई । 'अवसि उपाय करबि मैं सोई' इति । यहाँ भगवान् उपाय करनेको कहते हैं। भक्तका हित तो कृपादृष्टिसे ही कर सकते हैं तब उपाय करनेमें क्या भाव है? इस कथनमें तात्पर्य यह है कि कृपाकोरसे अभिमान दूर कर सकते हैं इसमें संदेह नहीं पर उसमें अवतारका हेतु न उत्पन्न होता। (और प्रभुकी इच्छा लीलाकी है) अतः 'उपाय करबि' कहा। उपायमें अवतारका हेतु होगा । लीला हेतु उपाय करना कहा गया। 'करुनानिधि मन दीख बिचारी' से यहाँतक मनका विचार है । अभिमानका यह नम्रतारूप रूपान्तर कितना विचित्र है । कविने किस सुन्दरतासे भगवान्‌ के विचारोंको व्यक्त किया है जिसे वे लोग विशेषतः समझ सकेंगे जिन्होंने शेक्सपियरके चरित्रोंकी स्वगत वार्ताओंका आनन्द उठाया है। मजा यह है कि प्रहसनके द्रष्टाओंपर सारा रहस्य खुल जाता है परंतु हास्यपात्रको पता नहीं चलता । भगवान् वस्तुतः बड़े ही कुशल नैतिक चिकित्सक के रूपमें दिखायी पड़ते हैं और अहंकारको जड़से उखाड़नेकी प्रतिज्ञा करते हैं, हास्य प्रयोग प्रारम्भ करते हैं। वाकई हास्यरसका उचित प्रयोग यही है कि हास्यपात्रका हित हो और साथ ही हम सबका 'कौतुक' भी हो जाय
पर घृणाकी मात्रा न बढ़ने पावे ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा।। राम जन्म कर हेतु।।

मानस चर्चा।।  राम जन्म कर हेतु।।
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु ।
जग बिस्तारहिं बिसद जस रामजन्म कर हेतु ॥ 
असुरोंको मारकर देवताओंको स्थापित करते, अपने वेदोंकी मर्यादा रखते और जगत्में अपने निर्मल
उज्वल यशको फैलाते हैं । — यह श्रीरामजन्मका हेतु है ॥  मिलान कीजिये - 'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि
युगे युगे ॥ ' अर्थात् साधु पुरुषोंका उद्धार और दूषित कर्म करनेवालोंका नाश करने तथा धर्मस्थापन करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट होता हूँ । मानसके दोहेमें 'असुरोंका मारना' प्रथम कहा है; क्योंकि इनके नाशसे ही देवताओंकी तथा वेद- मर्यादाकी रक्षा हो जाती है और गीतामें 'परित्राणाय साधूनाम् ' प्रथम कहा है। तब दुष्टोंका नाश और धर्मसंस्थापन । हाँ, यदि हम 'हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा' जो पूर्व कहा है उसको भी यहाँ ले लें तो गीताका मानससे मिलान हो जाता है। जैसे गीतामें भगवान् ने अपने अवतारोंका उद्देश्य और प्रयोजन बतलाते हुए पहले ‘परित्राणाय साधूनाम्' कहा और तत्पश्चात् 'विनाशाय च दुष्कृताम्' कहा, वैसे ही यहाँ 'हरहिं सज्जन पीरा' कहकर 'असुर मारि' कहा। 'थापहिं' का भाव कि असुर देवताओंके अधिकार छीनकर स्वयं इन्द्र आदि बन बैठते हैं, उनके लोकोंको छीन लेते हैं इत्यादि । भगवान् अवतार लेकर उनको उनके पदोंपर स्थापित करते हैं। यथा—'आयसु भो लोकनि सिधारे लोकपाल सबै तुलसी निहाल कै कै दिये सरखतु हैं।' 'असुर मारि थापहिं सुरन्ह' का भाव यह है कि जैसे रोगीकी सड़ी हुई एक उँगलीके विषको सारे शरीरमें फैलनेसे रोकनेके लिये वैद्य उसे शस्त्रसे काटते हैं, इसी प्रकार दुष्टोंका संहार जगत्‌की रक्षाके लिये है । राजनीतिक्षेत्रमें इससे शिक्षा मिलती है कि प्रजाका पालन राजाका प्रधान कर्तव्य है ।
इस दोहेमें चार कार्य बताये । असुर पृथ्वीका भार हैं, उनको मारकर पृथ्वीका काम किया अर्थात् उसका भार उतारा। ' थापहिं सुरन्ह' अर्थात् देवताओंको अपने-अपने लोकोंमें बसाया, यह देवकार्य किया । 'राखहिं निज श्रुति सेतु' निजश्रुतिसेतुकी रक्षा करते हैं यह अपना काम करते हैं, और 'जग बिस्तारहिं बिसद जस' संसारमें यश फैलाते हैं, यह संतोंका कार्य करते हैं; क्योंकि 'सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं । कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं ॥', एक कल्प एहिं हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार। सुररंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुविभार ॥'
अवतार लेकर प्रभु ये चार कार्य करते है। 'असुर मारि' का कारण पूर्व कह आये कि 'बाढ़हिं असुर' असुर बढ़ गये हैं, अतः उनका नाश करते हैं। 'सीदहिं बिप्रधेनु सुर धरनी' के सम्बन्धसे 'थापहिं सुरन्ह' और 'जब जब होइ धरम कै हानी' के सम्बन्धसे 'राखहिं निज श्रुति सेतु' कहा।  'निज श्रुति सेतु' का भाव कि वेदकी मर्यादा भगवान्‌की बाँधी हुई है। श्रुतिसेतु का प्रमाण, यथा- 'कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू । छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू ॥ ब्रह्मचर्य व्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना ॥ सदाचार जपु जोग बिरागा । सभय बिबेक कटकु सब भागा।।' ( 'श्रुतिसेतु पालक राम तुम्ह जगदीश माया  जानकी।'
'जग बिस्तारहि ।'भाव कि अपने निर्मल यशसे जगत्को पवित्र करते हैं। यथा- 'चरित पवित्र किये संसारा' यहाँ सब अवतारोंका हेतु संक्षेपसे कह दिया। आगे इसीको विस्तारसे कहेंगे !
'राम जन्म कर हेतु'  । पूर्व में साधारणत: सब अवतारोंका हेतु कहा, अब दोहेमें केवल श्रीरामजन्मका हेतु कहते हैं ।  'भूभारहरणादि हेतु तो सभी अवतारोंमें हैं, परंतु उज्ज्वल यश रामावतार ही में है । यथा-मच्छ, कच्छ, वराह में यश थोड़ा, स्वरूपता सामान्य, निषिद्ध कुल; नृसिंह भयंकर ऐसे कि देवगण भी उनके सम्मुख न जा सके; वामन स्वरूपता हीन, छली, वंचक; परशुराम अकारण क्रोधी; कृष्ण में चपलता, छलादि; बौद्ध वेद निन्दक इत्यादि सबके यशमें दाग है । अमल यश राम अवतार ही में है। यथा - 'सत्येन लोकाञ्जयति द्विजान् दानेन राघवः । गुरूञ्छुश्रूषया वीरान् धनुषा युधि शात्रवान्॥ सत्यं दानं तपस्त्यागो मित्रता शौचमार्जवम् । विद्या च गुरुशुश्रूषा ध्रुवाण्येतानि राघवे ॥' श्रीरामजी सत्यसे लोकोंको, दानसे ब्राह्मणोंको,सेवासे गुरुजनोंको और शस्त्रयुक्त वे धनुषसे युद्धमें वीरोंको जीत लेते हैं। सत्य, दान, तप, त्याग, मित्रता, शौच,सरलता, विद्या और गुरुशुश्रूषा श्रीरामजीमें दृढ़तासे रहते हैं। श्रीरामजीके जिस यशने सब दिशाओंको व्याप्त कर दिया, ऐसे पापका नाश करनेवाले, निर्मल, जिन ( श्रीरामजी) के यशको ऋषिलोग राजदरबारमें अद्यापि गाते हैं, उन (श्रीरामजी) के इन्द्र-कुबेरादिक जिसको नमन करते हैं ऐसे चरणकमलकी मैं शरण हूँ। हे श्रीमान् महाराज ! आपके यशसे सब (समस्त) जगत् श्वेतवर्ण हो जाता है, तब परमपुरुष भगवान् विष्णु ( अपने )।क्षीरसागरको खोजते हैं। तथा शिवजी कैलासको, इन्द्र ऐरावतको, राहु चन्द्रमाको और ब्रह्माजी हंसको खोजते हैं । तात्पर्य कि क्षीरसागर कैलासादि पदार्थ श्वेतवर्ण होनेसे आपके यश (के श्वेतवर्ण) में मिल जाते हैं, अतः।उनके स्वामियोंको खोजना पड़ता है। अर्थात् आपका यश सर्वत्र इतना फैला हुआ है।  बालीवध पश्चात् तारा
श्रीरामजीसे कहती है कि आपको यथार्थ जानना और प्राप्त करना कठिन है, आप जितेन्द्रिय, अत्यन्त धार्मिक,
अविनाशी कीर्तिवाले, चतुर, पृथ्वीके समान क्षमावान्, आरक्तनेत्र, धनुर्बाण धारण किये हुए, अत्यन्त बलवान्,
सुन्दर देहवाले (अर्थात्) मनुष्य - शरीरमें होनेवाली उन्नतिकी अपेक्षा दिव्य देहमें होनेवाली उन्नति ( अर्थात्
सौन्दर्य, धैर्य, वीर्य, शील आदि सम्पूर्ण सद्गुणों) से युक्त है।कोई-कोई कहते हैं कि भारतकी दशा तो ऐसी ही है फिर अवतार क्यों नहीं होता ? 'सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी' और 'जब जब होई धरम कै हानी' ये शब्द विचार करने योग्य हैं। आज वह दशा भारतकी नहीं है, विप्र और धेनु अधिक-से-अधिक इन दो को नहीं, तो केवल 'धेनु' को ही पीड़ित कह सकते हैं । 'सुर' और 'विप्र' पर अभी हाथ नहीं लगा। जब देवमन्दिर अच्छी तरह उखाड़े जावेंगे तब वे पीड़ित कहे जा सकेंगे। जैसे किंचित् औरंगजेब आदिके समयमें हुआ, उसके साथ ही उनका राज्य चलता हुआ । धर्मका श्रीराम-नामसे अभी निर्वाह होता जाता है ।  अंग्रेजोंने जब भारतवर्षकी करोड़ों गायों, बैलों आदिकी (इस दूसरी जर्मन लड़ाईमें) हत्या कर डाली तब तुरन्त ही उनके हाथोंसे शासन निकल गया औरअब संसारमें उनका मान भी बहुत घट गया - यह तो प्रत्यक्ष हम सबोंने देख लिया। आगे भी जिस शासनमें धर्मकी ग्लानि होगी, वह अपने ही पापोंसे नष्ट हो जायगा ।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा ।। जलंधर और सती स्त्री का प्रभाव।।

मानस चर्चा ।। जलंधर और सती स्त्री का प्रभाव।।
एक कलप सुर देखि दुखारे । समर जलंधर सन सब
हारे ॥ संभु कीन्ह संग्राम अपारा।। दनुज महाबल मरै न मारा ॥ परम सती  असुराधिप नारी । तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥ एक कल्पमें सब देवता जलन्धरसे हार गये। (याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि तब ) देवताओंको दुःखी
देखकर॥ शिवजीने बहुत भारी घोर युद्ध किया, पर वह दैत्य महाबलवान् था, मारे न मरता था ॥ उस दानवराज की स्त्री पतिव्रता थी। उसीके बल (प्रभाव) से त्रिपुरासुरके नाशक महादेवजी भी उस दानवको न जीतते थे।
जलन्धरने देवताओंको जीतकर उनके सब लोक छीन लिये थे,इसीसे देवता दुःखी हुए।तेहिं सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते ॥ ' 'सब हारे' अर्थात् तैंतीस कोटि देवता हार गये । 'सुर देखि दुखारे' का भाव कि भगवान् देवताओंका दुःख नहीं देख सकते; यथा- 'जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो । नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो ।'संभु कीन्ह संग्राम '  भाव कि जब सब देवता हार गये तब शिवजीने संग्राम किया।  'अपारा' कहकर जनाया कि देवता लोग शीघ्र हार गये थे और शिवजी बहुत दिनोंतक लड़ते रहे। संग्राम वर्षों जारी रहा। कोई पार न पाता था ।  'महाबल मरै न मारा' अर्थात् महाबलवान् है, इससे मारे नहीं मरता । पुनः भाव कि शिवजी उसके वधके लिये उसे भारी शस्त्रास्त्रसे मारते हैं पर सब शस्त्रास्त्र
व्यर्थ जाते हैं, दानव मरता नहीं । 'परम सती असुराधिप नारी । ' अर्थात् इसी से असुर महाबली है। 'तेहि बल
ताहि न जितहिं पुरारी' उसी बलसे असुरको पुरारि नहीं जीतते । अर्थात् धर्मकी मर्यादाका नाश नहीं कर सकते। भाव यह कि वह असुर अपने शरीरके बलसे नहीं लड़ रहा है किन्तु अपनी स्त्रीके पातिव्रत्य धर्मके बलसे लड़ता है।
सती स्त्रियोंके पातिव्रत्य धर्मका बल बड़ा भारी होता है। जलन्धरकी कथामें प्रमाण देखिये । पुनः 'तेहि बल' से
जनाया कि वह दानव शंकरजी के सदृश बलवान् नहीं है, वह केवल सतीत्व धर्मकी रक्षासे बचता है, नहीं तो शिवजी
उसे जीत लेते।  'परम सती' तो गिरिजाजी भी हैं। जलन्धर की स्त्री वृन्दाकी जोड़में गिरिजाजीको क्यों न कहा? कारण कि उनका सामर्थ्य श्रीपार्वतीजी  के सतीत्वसे नहीं है वे तो स्वयं सहज समर्थ भगवान् हैं और जलन्धरको केवल उसकी स्त्रीके पातिव्रत्यका बल और सामर्थ्य है, उसमें स्वयं यह सामर्थ्य न था कि त्रिपुरासुरके मारनेवालेका सामना कर सकता ।अतएव जलन्धरके साथ उसकी स्त्रीके पातिव्रत्यका बल भी कहा और शिवजीके साथ श्रीगिरिजाजीके पातिव्रत्य को न कहा।'पुरारी' का भाव कि यह असुर त्रिपुरासुरसे भी अधिक बलवान् है । त्रिपुरको तो शिवजीने एक ही बाणसे मार गिराया था, यथा- 'मारयो त्रिपुर एक ही बान'  पर इसे नहीं जीतने पाते। अथवा, त्रिपुरनाशकको जलन्धरका मारना क्या कठिन था ? परन्तु उसका वध करनेसे पातिव्रत्यधर्मकी मर्यादा न रह जाती, इस धर्मसंकटमें पड़कर शिवजी उसे न मार सके। यहाँ एक ओर तो पातिव्रत्यका प्रभाव दिखाया और दूसरी ओर मर्यादाकी रक्षा दिखायी। आइए हम थोड़े में यहां जलंधर की कथा और सती के प्रभाव को समझते हैं।'जलंधर' - यह शिवजीकी कोपाग्निसे समुद्रमें उत्पन्न हुआ था। जन्मते ही यह इतने जोरसे रोने लगा कि सब देवता व्याकुल हो गये । ब्रह्माजीके पूछनेपर समुद्रने उसे अपना पुत्र बता उनको दे दिया । ब्रह्माजीने ज्यों ही उसे गोद लिया उसने उनकी दाढ़ी (ठुड्डी) इतने जोरसे खींची कि उनके आँसू निकल पड़े। इसीसे ब्रह्माने उसका नाम जलंधर रखा। इसने अमरावतीपर कब्जा कर लिया। इन्द्रादिक सभी देवता इससे हार गये ।
अन्ततोगत्वा श्रीशिवजीने इन्द्रका पक्ष ले उससे बड़ा घोर युद्ध किया । उसको न जीत पाते थे क्योंकि उसकी
स्त्री वृन्दा, जो कालनेमिकी कन्या थी, परम सती थी। सतीत्वका बल ऐसा ही है; यथा - 'यस्य पत्नी भवेत्साध्वी
पतिव्रतपरायणा । स जयी सर्वलोकेषु सुमुखी स धनी पुमान् ॥ कम्पते सर्वतेजांसि दृष्ट्वा पातिव्रतं महः । भर्त्ता सदा सुखं भुङ्क्ते रममाणो पतिव्रताम् ॥ धन्या सा जननी लोके धन्योऽसौ जनकः पुनः । धन्यः स च पतिः श्रीमान् येषां गेहे पतिव्रता ॥' 
यह जानकर कि शिवजी उसके पतिसे लड़ रहे हैं वृन्दाने पतिके प्राण बचानेके लिये ब्रह्माकी पूजा प्रारम्भ
की। जब शिवजीने देखा कि जलंधर नहीं मर सकता तब उन्होंने भगवान्‌का स्मरण किया। भगवान् ने सहायता
की। वे वृन्दाके पास पहुँचे [ किस रूपसे ? इसमें मतभेद है। कहते हैं कि वृन्दाने पूर्व जन्ममें पति - रूपसे
भगवान्‌को वरण करनेके लिये तपस्या की थी और उन्होंने उसे वैसा वर भी दिया था। सो इस प्रकार सिद्ध
हुआ ] । - वृन्दाने उन्हें देखते ही पूजन छोड़ दिया । पूजन छोड़ते ही जलंधरके प्राण निकल गये ।
सतीत्वभंगके प्रसंगकी कथाएँ पुराणोंमें कई तरहकी हैं।
कि भगवान्ने यह छल किया कि वे तपस्वी यति बनकर उसके घरके पास विचरने लगे । वृन्दाने उनसे पूछा
हमारा पति कब जय पावेगा ? यति बोले कि वह तो मार डाला गया। तब वृन्दाने कहा कि तुम झूठ कहते हो। हमारा
पातिव्रत्य रहते हुए उसे कौन मार सकता है ? यतिने आकाशकी ओर दृष्टि की तो दो वानर जलंधरके शरीरको
विदीर्ण करते हुए देख पड़े। थोड़ी ही देरमें शरीरके टुकड़े वृन्दाके समीप आ गिरे। यह देख वह विलाप करने
लगी “तब यतिने कहा कि इसके अंगोंको तू जोड़ दे तेरे पातिव्रत्यधर्मसे वह जी उठेगा। उसने वैसा ही किया ।
अंगोंके स्पर्श करते ही भगवान्ने उसमें प्रवेशकर जलंधर रूप हो उसका व्रत भंग किया; तभी इधर जलंधरको
शिवजीने मारा। वृन्दाको यह बात तुरत मालूम हुई। जब उसने शाप दिया तब भगवान् ने अपने लिये पूर्व जन्मकी
तपस्याकी कथा कहकर उसका सन्तोष किया। शाप यह था कि जलंधर रावण होकर तुम्हारी पत्नी हरेगा, इत्यादि । जलंधरकी स्त्री वृन्दाकी कथासे हमें शिक्षा मिलती है कि - पातिव्रत्य एक महान् धर्म है।यह एक महान् तपके बराबर है।  सती स्त्रीका पति बड़े-से-बड़े संग्रामको जीत सकता है।  धोखा देनेवालेको दण्ड मिलता है । (यह भी कथा है कि वृन्दाके शापसे भगवान्‌को शालग्राम होना पड़ा और वृन्दा तुलसी हुई जो उनके मस्तकपर चढ़ती है। इसके अनुसार शिक्षा यह है कि सतीके साथ छल करनेवालेकी
दशा ऐसी होती है, उसे जड़-पत्थर बनना पड़ता है। वा, जब भगवान्‌को पाषाण बनना पड़ा तब साधारण मनुष्यको न जाने क्या होना पड़े । छल और कपटका परिणाम बहुत बुरा होता है।  सज्जन वही हैं जो अपनी
हानि करके भी दूसरोंको लाभ पहुँचाते हैं । 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा।। इन्द्र का स्वभाव कुत्ते जैसा कैसे।।

मानस चर्चा।। इन्द्र का स्वभाव कुत्ते जैसा कैसे।।
सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥
जैसे मूर्ख और दुष्ट कुत्ता सिंहको देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और जैसे वह मूर्ख यह समझता है कि कहीं सिंह उसे छीन न ले, वैसे ही देवराज इन्द्रको  यह सोचते हुए कि देवर्षि मेरा राज्य छीन न लें लज्जा नहीं लगी ॥ यहाँ इन्द्रपुरीका राज्य एवं भोग सूखा 'हाड़' है, इन्द्र श्वान है, नारद मृगराज हैं। देवर्षि एक तो भगवान्के निष्काम भक्त हैं, फिर वे ब्रह्मलोकके निवासी हैं जहाँका सुख और ऐश्वर्य इन्द्रलोकसे अनन्तगुण अधिक है, तब वे भला इन्द्रपुरीके सुखकी इच्छा क्यों करने लगे ? यह इन्द्रको न समझ पड़ा। इसीसे उसे 'जड़' कहा – 'छीनि लेइ जनि जान जड़ ।' इन्द्र सूखी हड्डीके समान भोगको लेकर भागा, इसीसे उसे निर्लज्ज कहा - 'तिमि सुरपतिहि न लाज ।' और महात्माके प्रति अविश्वास और प्रतिकूल कर्म करनेसे 'सठ' कहा- 'लै
भाग सठ।' भगवान्‌के भजनके आगे इन्द्रपुरीका सुख सूखी हड्डीके समान है। इस प्रसंगमें इन्द्रको दो उपमाएँ दी गयीं - 'कुटिल काक इव' और 'सठ स्वान।' डरनेमें एवं
कुटिलतामें काककी और सूखा हाड़ लेकर भागनेमें श्वानकी । भक्त लक्ष्मीके विलासको भी निषिद्ध समझते
हैं। यथा- 'रमा बिलासु राम अनुरागी । तजत बमन जिमि जन बड़भागी ॥'  इसीसे इन्द्रके ऐश्वर्यको 'सूख हाड़' की उपमा दी । श्वान सिंहके गुण और आहारको नहीं जानता और अपने 'सूखे हाड़' को बहुत बड़ी न्यामत, भगवान्‌की अपूर्व देन  मानता है, इसीसे उसे 'जड़' कहा । 'नारदजी समस्त संसार सुखको त्यागे हुए केवल एक मनरूपी मतवाले हाथीके मारनेवाले भगवद्दास हैं। उनको इन्द्रका राज्य क्या है ? अर्थात् संसार सुख सूखा 'हाड़' है, मन मतंग है और नारद सिंह हैं।जैसे कुत्ता सूखी हड्डीको बहुत बड़ा पदार्थ समझता है; वैसे ही इन्द्र नारदकी देवर्षि, भगवद्भक्त पदवीके आगे अपने एक मन्वन्तरके राज्यको बड़ा पदार्थ मानता है ।वैसे भी  देवेन्द्र किसीकी उत्कृष्टता नहीं सह सकते, इसी तरह नरेन्द्र भी । यह रजोगुणका स्वभाव है, खासियत है। इन्द्रको काक और श्वान दोनोंकी उपमाएँ अयोध्याकाण्डमें भी उसके शंकित - हृदय, छली,
कुटिल, मलिन, अविश्वासी और कपट- कुचालकी सीमा तथा पर- अकाज - प्रिय और स्वार्थी स्वभाव होनेमें दी
गयी हैं। यथा- 'कपट कुचालि सीवँ सुरराजू । पर अकाज प्रिय आपन काजू ॥ काक समान पाकरिपु रीती । छली
मलीन कतहुँ न प्रतीती ॥ लखि हिय हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुवानू॥'
सब बातें दिखानेके लिये यहाँ ये दोनों उपमाएँ दी गयीं। छल और कुमार्गकी वह सीमा है। अपना कार्य साधना,
पराया काज बिगाड़ना यही उसको प्रिय है। यही दिखलाना था । इस दोहे से मिलते-जुलते एवं उसपर प्रकाश डालनेवाले दो दोहे दोहावलीमें ये हैं-  'लखि गयंद लै
चलत भजि स्वान सुखानो हाड़। गज गुन मोल अहार बल महिमा जान कि राड़ ॥'  अर्थात् हाथीको देखकर कुत्ता सूखी हड्डी लेकर भाग चलता है कि कहीं वह उसके आहारको छीन न ले। क्या वह मूर्ख हाथीके गुण,
मूल्य, आहार, बल और महिमाको जान सकता है ? कदापि नहीं । 'कै निदरहु कै आदरहु सिंहहिं श्वान
सियार । हरष बिषाद न केसरिहि कुंजर-गंजनिहार ॥ 'अर्थात् सिंह तो हाथीका मस्तक विदीर्ण करके
खानेवाला है, वह दूसरेका मारा हुआ (शिकार) तो छूता ही नहीं; तब भला वह सूखी हड्डीकी तरफ दृष्टि
ही क्यों डालेगा ? जैसे कि कुत्तेके आदर वा निरादरसे सिंहको हर्ष वा विषाद नहीं होता, उसी तरह इन्द्र एवं कामदेवके आदर अथवा निरादरसे नारदजीके मनमें हर्ष या विषादसूचक कोई भी विकार न उठा । यथा- 'भयउ न नारद मन कछु रोषा । कहि प्रिय बचन काम परितोषा ।' 
महर्षि पाणिनिजीने श्वन्, मघवन् (इन्द्र) और युवन् इन तीनोंका तद्धितप्रकरणसे भिन्न प्रकरणोंमें एक - सरीखा रूप प्रदर्शित करनेके लिये अपने प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायीमें एक ही सूत्रमें तीनोंको लिखा है । यथा - 'श्वयुवमघोनामतद्धिते।' यह सूत्र इस प्रकरणमें देनेका भाव ही यह है कि इन्द्र और युवापुरुष दोनों प्रत्येक दशामें कुत्तेके समान ही हैं ।  कामपरवशता एवं लोलुपतामें इनकी उपमा कुत्ते से देना उचित ही है परंतु अन्य अवस्थामें नहीं । इसीलिये महर्षि पाणिनिजीने 'अतद्धिते' शब्द दिया है। पाणिनिके 'अतद्धिते' कहनेका भाव तद्धितप्रकरणके अतिरिक्त यह है कि जो जवान मनुष्य तत्
हिते अर्थात् तत् अर्थात् ब्रह्मकी प्राप्तिके साधनमें लगा है उसकी गणना श्वान और इन्द्रकी समान कोटिमें
नहीं करनी चाहिये। आचार्य भर्तृहरिजी ने भी लिखा है, 'कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् । सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते नहि गणयति क्षुद्रो जन्तुः
परिग्रहफल्गुताम् ॥'  अर्थात् कीड़ोंसे व्याप्त, लारसे भीगे, दुर्गन्ध, निन्दित, नीरस और मांसरहित मनुष्यकी हड्डीको निर्लज्ज कुत्ता प्रेमसे चबाता है तब अपने पास इन्द्रको भी खड़े देखकर शंका नहीं करता, वैसे ही नीच पुरुष जिस पदार्थको ग्रहण करता है उसकी निस्सारतापर ध्यान नहीं देता । - इस श्लोकके अनुसार दोहेका भाव यह निकलता है कि निर्लज्ज इन्द्र सूखी हड्डीके समान अपने राज्यको निस्सार नहीं समझता ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा ।।इन्द्र कामी और लालची दुष्ट कौवे जैसा।।

मानस चर्चा ।।इन्द्र कामी और लालची दुष्ट कौवे जैसा।।
सुनासीर मन महुँ असि * त्रासा । चहत देवरिषि मम पुर
बासा ॥ जे कामी लोलुप जग माहीं । कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ॥ 'सुनासीर' (शुनासीर) = इन्द्रका एक नाम। लोलुप-लोभवश चंचल; लोभी ।जब देवर्षि नारद को तप रत देख - इन्द्रके मनमें ऐसा (अर्थात् यह) डर हुआ कि देवर्षि नारद हमारे नगर (अमरावतीपुरी) में निवास
(अर्थात् अपना दखल अधिकार जमाना ) चाहते हैं ॥ तब गोस्वामीजी  कहते हैं कि संसारमें जो लोग कामी और लोभी हैं, वे कुटिल कौएकी तरह सबसे डरते ( शंकित रहते ) हैं ॥  'सुनासीर मन महुँ असि त्रासा' । कामदेवके चले जानेपर ऐसा कहकर जनाते हैं कि कामको भेजनेपर भी इन्द्रको शान्ति नहीं प्राप्त हुई । देवर्षिका भारी सामर्थ्य देखकर उन्हें विश्वास नहीं होता कि कामदेव नारदजीके मनमें विकार उत्पन्न कर सकेगा । अतएव वह चिन्ताग्रस्त है । इसीसे पुनः सोचने लगा ।अथवा यह कह सकते हैं कि पहले केवल डर कहकर उसे कामदेवके बुलानेका कारण बताया और अब बताते हैं कि इन्द्रको क्या डर था । यह भाव 'असि' से सूचित होता है। कुचालके कारण यहाँ सीधा-सीधा नाम न देकर शुनासीर रूढ़ि नाम दिया। अत्यन्त डर एवं देवर्षिका बड़ा भारी सामर्थ्य दिखानेके लिये पहले 'सुरेश' कहा था । रुद्रसंहितामें भी 'शुनासीर' ही नाम आया है। 'मन महुँ' का भाव कि वह अपना त्रास वचन और कर्मसे किसीपर प्रकट नहीं होने देता। मन-ही-मन संतप्त हो रहा है। वचनसे किसीसे कहता
नहीं और उपाय कुछ चलता या सूझता भी नहीं; इस तरह मन, वचन और कर्म तीनोंसे त्रास दिखाया। 'सुनासीर' नाम सहेतुक है। 'सुष्ठु नासीरं सेनामुखं यस्य सःसुनासीर:' 
भाव कि सुरेशके पास देवोंकी (३३ करोड़) अच्छी सेना है तो भी वह एक निष्काम ब्रह्मलोकनिवासी निर्मोह
हरिभक्तसे डर गया । भला ब्रह्मलोकनिवासी स्वर्गकी इच्छा क्यों करेगा! पर सुरेशके मनमें ऐसा विचार आया
कि यदि वे मेरी अमरावती आदि लेनेका विचार करेंगे तो मेरे पास देवोंकी बड़ी अच्छी सेना है इनके बलपर
मैं उन्हें सफल-मनोरथ न होने दूँगा  । इसीसे सुरपतिको कुटिल काक-समान कहा और आगे कुत्तेके समान
कादर, निर्लज्ज आदि कहते हैं।'नारदजी इन्द्रलोक की प्राप्तिकी वासनासे भजन नहीं कर रहे हैं तब इन्द्रको ऐसा भय क्यों प्राप्त हुआ, इस सम्भावित शंकाका समाधान आगे  हैं कि 'जे कामी ।' ' जे कामी लोलुप ' यहाँ 'कामी' को काककी उपमा दी। मानसमुखबंदमें भी कामीको काक कहा है। यथा- 'कामी काक बलाक बिचारे ।' इन्द्रकी रीति कौएकी-सी है, यथा-'काक समान पाकरिपु रीती । छली मलीन कतहुँ न प्रतीती ॥'  इसीसे उसके लिये काककी उपमा दी। इन्द्रपद वैषयिक सुखकी पराकाष्ठा है। इसलिये कामी, लोलुप और कुटिल कहा। काककी उपमा देकर छली आदि जनाया। छली, यथा- ' सहित सहाय जाहु मम हेतू ।' मलिन, यथा- 'चहत देवरिषि मम पुर बासा।' 'कतहुँ न प्रतीती' यथा 'मुनि गति देखि सुरेस डेराना।'  इस प्रकार यहां इंद्र के माध्यम से कामी और लालची मनुष्यों के बारे में भी गोस्वामीजी ने सुंदर ढंग से अपना विचार प्रगट किया है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।