रविवार, 17 नवंबर 2024

मानस चर्चा।।प्रभु की दिव्य चिकित्सा।।

मानस चर्चा।।प्रभु की दिव्य चिकित्सा।।
बेगि सो मैं डारिहौं उखारी * । पन हमार सेवक हितकारी ॥ 
मुनि कर हित मम कौतुक होई । अवसि उपाय करबि मैं सोई ॥ ६ ॥
मैं उसे शीघ्र ही उखाड़ डालूँगा, क्योंकि सेवकका हित करना यह हमारी प्रतिज्ञा है (वा, हमारी प्रतिज्ञा सेवकके लिये हितकर है ) ॥  अवश्य मैं वही उपाय करूँगा जिससे मुनिका भला और मेरा खेल होगा (मेरी लीला होगी ) ॥ 
'बेगि सो मैं डारिहौं उखारी।' 'बेगि' क्योंकि अभी गर्व - तरु जमा है, उसके उखाड़नेमें कुछ भी परिश्रम नहीं है और नारदके हृदयमें बहुत दुःख अभी उखाड़नेसे न होगा। बड़ा वृक्ष उखाड़ने में पृथ्वी विदीर्ण हो जाती है। तात्पर्य कि बहुत दिन रह जानेसे उसका अभ्यास हो जाता है फिर वह हृदयसे नहीं जाता। अभी गर्व हृदयमें अंकुरित हुआ है, अभी उसका अभ्यास नहीं पड़ा है। 'पन हमार सेवक
हितकारी' कहनेका भाव कि गर्व अहितकारी है। पुनः, भाव कि 'भगवान् परायी विभूति नहीं देख सके, अपनी
बड़ाईकी ईर्ष्यावश होकर अथवा अवगुण देखकर क्रोधसे गर्व दूर करनेपर उद्यत हैं, ऐसा नहीं है किंतु वे
सेवकका हित करनेके लिये उसके गर्वका नाश किया करते हैं, यथा- 'जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीनबंधु
अति मृदुल सुभाऊ ॥', 'जेहिं जन पर ममता अति छोहू । जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू ।। ''अपने देखे दोष राम न कबहूँ उर धरे ।' भगवान् परायी विभूति, पराई बाढ़ देख नहीं सकते, इत्यादि संदेहोंके निवारणार्थ 'करुनानिधि', 'सेवक हितकारी', 'मुनि कर हित मम कौतुक ' आदि पद दिये हैं।  'मुनि कर हित मम कौतुक होई ।'  कौतुक - लीला। हमारा कौतुक होगा अर्थात् हम अवतार धारण करके लीला करेंगे। पूर्व जो कहा था कि 'भरद्वाज कौतुक सुनहु' उस 'कौतुक' का अर्थ यहाँ खोलते हैं कि 'भगवान्‌ का कौतुक सुनो।' यह बात भगवान् यहाँ अपने मुखसे ही कह रहे हैं। 'मम कौतुक होई'। प्रथम मुनिका हित होगा अर्थात् गर्व दूर होगा; वे क्रोध करके शाप देंगे तब भगवान्‌की लीला होगी, उसी क्रमसे यहाँ भगवान्‌के वचन हैं- 'मुनि कर हित' तब 'मम कौतुक ।' कौतुक - लीला 'बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई । लगे करन सिसु कौतुक तेई । 'अवसि उपाय करबि मैं सोई' इति । यहाँ भगवान् उपाय करनेको कहते हैं। भक्तका हित तो कृपादृष्टिसे ही कर सकते हैं तब उपाय करनेमें क्या भाव है? इस कथनमें तात्पर्य यह है कि कृपाकोरसे अभिमान दूर कर सकते हैं इसमें संदेह नहीं पर उसमें अवतारका हेतु न उत्पन्न होता। (और प्रभुकी इच्छा लीलाकी है) अतः 'उपाय करबि' कहा। उपायमें अवतारका हेतु होगा । लीला हेतु उपाय करना कहा गया। 'करुनानिधि मन दीख बिचारी' से यहाँतक मनका विचार है । अभिमानका यह नम्रतारूप रूपान्तर कितना विचित्र है । कविने किस सुन्दरतासे भगवान्‌ के विचारोंको व्यक्त किया है जिसे वे लोग विशेषतः समझ सकेंगे जिन्होंने शेक्सपियरके चरित्रोंकी स्वगत वार्ताओंका आनन्द उठाया है। मजा यह है कि प्रहसनके द्रष्टाओंपर सारा रहस्य खुल जाता है परंतु हास्यपात्रको पता नहीं चलता । भगवान् वस्तुतः बड़े ही कुशल नैतिक चिकित्सक के रूपमें दिखायी पड़ते हैं और अहंकारको जड़से उखाड़नेकी प्रतिज्ञा करते हैं, हास्य प्रयोग प्रारम्भ करते हैं। वाकई हास्यरसका उचित प्रयोग यही है कि हास्यपात्रका हित हो और साथ ही हम सबका 'कौतुक' भी हो जाय
पर घृणाकी मात्रा न बढ़ने पावे ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

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