मानस चर्चा अहिल्या की कथा
मानस चर्चा अहिल्या की कथा
आश्रम एक दीख मग माहीं।खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी । सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ॥
मार्गमें एक आश्रम देखा। वहाँ पक्षी, पशु, जीव-जन्तु कुछ भी न थे।पत्थरकी शिलादेखकर प्रभुने मुनिसे पूछा तब मुनिने विस्तारपूर्वक अच्छी तरहसे सब कथा कही ॥ आइए हम जानने का प्रयास करते है कि गुरु विश्वामित्र ने कौन कौन सी सकल कथा आश्रम के बारे में प्रभु को सुनाया । मानसके मतसे यह आश्रम
गंगाजीके इसी तरफ था और यही मत अध्यात्म रामायण का भी है। यथा - ' इत्युक्त्वा मुनिभिस्ताभ्यां ययौ
गंगासमीपगम्॥ गौतमस्याश्रमं पुण्यं यत्राहल्यास्थिता तपः ॥ वहाँ भी अहल्योद्धारके पश्चात् गंगापार जानेके लिये तटपर गये हैं। वाल्मीकीयके मतानुसार यह आश्रम गंगाके उस पार मिथिला प्रान्तमें है । यथा - 'मिथिलोपवने तत्र
आश्रमं दृश्य राघवः । पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुंगवम् ॥'अर्थात् मिथिलाके उपवनमें एक पुराना निर्जन पर रमणीय आश्रम देखकर श्रीरामजीने मुनिश्रेष्ठसे पूछा । उनके मतानुसार यह आश्रम तिरहुतमें कमतोल स्टेशनके पास है, जहाँ श्रीरामपण्डितने अहल्या- आश्रम बनवाया है। परंतु गोस्वामीजीके मतसे यह आश्रम सिद्धाश्रमसे पूर्व अहिरौली ग्राममें या उसके निकट है, जहाँसे गंगाघाट उतरकर जनकपुर प्रान्त मिलता है। बाबा हरिहरप्रसादजी लिखते हैं कि भोजपुरमें यह बात प्रसिद्ध भी है कि कल्पभेद इसमें समझना चाहिये। 'पूछा मुनिहि शिला प्रभु देखी । ' 'सकल कथा मुनि कही बिसेषी' ।
मुनिकी इच्छा है कि प्रभु अहिल्या पर कृपा करें जैसा आगेके मुनिके वचनोंसे स्पष्ट है- 'चरन कमल रज चाहत
कृपा करहु रघुबीर।' इसीसे विस्तारसे अहल्याकी कथा कही, जैसे भगवान्ने गिरिजाकी करनी विस्तारसे
शिवजीसे कही थी, जिसमें शिवजी उनपर प्रसन्न होकर उनको ब्याह लावें । यथा - 'अति पुनीत गिरिजा
के करनी । बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी ॥'
'सकल कथा मुनि कही बिसेषी' । कथा यह कही कि इस आश्रम में जगद्विख्यात मुनिवर गौतमजी
तपस्याद्वारा भगवान्की उपासना करते थे। यह देवाश्रमके समान दिव्य था । देवता भी इसकी प्रशंसा करते थे ।
ब्रह्माजीने एक अत्यन्त रूपवती कन्या उत्पन्न की, जिनका नाम अहल्या रखा। समस्त देवगण उसके रूपपर मोहित थे। यह देख ब्रह्माजीने कहा कि सबसे पहले जो तीनों लोकोंकी परिक्रमा करके आवेगा उसको यह लोकसुन्दरी कन्या ब्याही जायगी । इन्द्रादि समस्त देवता अपने-अपने वाहनोंपर चले । गौतमजीकी अपने शालग्राममें अनन्य निष्ठा थी । इन्होंने अपने शालग्रामजीकी परिक्रमा कर ली और ब्रह्माके पास गये। इधर देवगण जहाँ जाते वहाँ आगे महर्षि गौतमको देखते थे। सबने इनका आगे होना स्वीकार किया । अतः वह कन्या गौतमजीको मिली।
दूसरी कथा इस प्रकार है कि ब्रह्माजीने इस कन्याको महर्षि गौतमके पास थाती ( धरोहर ) रखी ।
बहुत काल बीत जानेपर जब ब्रह्माजी पुन: इनके पास आये तो इनका परम वैराग्य देखकर उनके
ब्रह्मचर्य से सन्तुष्ट होकर वह लोकसुन्दरी सेवापरायण कन्या तापसप्रवर गौतमजीको ही दे दी । - ' तस्मै ब्रह्मा
ददौ कन्यामहल्यां लोकसुन्दरीम् । ब्रह्मचर्येण सन्तुष्टः शुश्रूषणपरायणाम् ॥' इन्द्रको बहुत बुरा लगा, क्योंकि वह तो उसे अपनी ही सोचे बैठा था, समझता था कि हमें छोड़ यह दूसरेको नहीं मिल सकती, हम देवराज हैं। उसके रूप- लावण्यपर मुग्ध होकर वह नित्यप्रति उसके साथ रमण करनेका अवसर ताकता रहा।
एक दिन मुनिवरके बाहर चले जानेपर वह गौतमजीका रूप धारणकर आश्रममें आया । अहल्याने समझ लिया कि यह मुनिके वेषमें इन्द्र है, फिर भी उस मूर्खाने देवराजके प्रति कुतूहल होनेके कारण उसने उनकी बात स्वीकार की । - ' मुनिवेषं सहस्राक्षं
विज्ञाय रघुनन्दन। मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलम् ॥' पुनः कृतार्थ मनसे उसने इन्द्रसे कहा-
हे देवराज! मैं कृतार्थ हुई। आप शीघ्र यहाँसे जाइये। गौतमसे अपनी और मेरी सब तरहसे रक्षा कीजियेगा ।
'कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो ।'
आश्रमसे शीघ्र बाहर निकल जानेकी चिन्तामें इन्द्र अपना रूप पुनः धारण करनेको भूल गया। इसी समय मुनि
भी वहाँ लौट आये। आश्रमसे अपना रूप धारण किये हुए पुरुषको बाहर निकलते देख मुनिने कुपित होकर
पूछा - 'रे दुष्टात्मन् ! रे अधम ! मेरे रूपको धारण करनेवाला तू कौन है ? 'पप्रच्छ कस्त्वं दुष्टात्मन्मम
रूपधरोऽधमः।' 'सच सच बता नहीं तो मैं तुझे अभी भस्म कर दूँगा ।' तब इन्द्रने कहा-'मैं कामके वशीभूत देवराज इन्द्र हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। मैंने बड़ा घृणित कार्य किया है।' तब महर्षिने क्रोधसे उसको शाप दिया कि 'हे दुष्टात्मन् ! तू योनिलम्पट है । इसलिये तेरे शरीरमें सहस्र भग हो जायँ ।' 'योनिलम्पट दुष्टात्मन् सहस्रभगवान्भव' - यही शाप मानसका मत है, जैसा- 'रामहि चितव सुरेस
सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना ॥ से स्पष्ट है। देवराजको शाप देकर मुनि आश्रममें आये । देखा कि अहल्या भयसे काँपती हुई हाथ जोड़े खड़ी है। महर्षिने उसको शाप दिया कि 'दुष्टे ! तू मेरे आश्रममें शिलामें निवास कर। यहाँ तू निराहार रहकर आतप, वर्षा और वायुको सहती हुई तपस्या कर और एकाग्रचित्तसे श्रीरामका ध्यान कर। यह आश्रम सब जीव-जन्तुओंसे रहित हो जायगा। हजारों वर्षोंके बाद श्रीराम जब आकर तेरी आश्रयभूत शिलापर अपने चरण रखेंगे तब तू पापमुक्त हो जायगी और उनकी पूजा, स्तुति आदि करनेपर तू शापसे मुक्त होकर फिर मेरी सेवा पायेगी । यथा - 'दुष्टे त्वं तिष्ठ दुर्वृत्ते शिलायामाश्रमे मम ॥ "यदा त्वदाश्रयशिलां पादाभ्यामाक्रमिष्यति। तदैव धूतपापा त्वं रामं संपूज्य भक्तितः। परिक्रम्य नमस्कृत्य स्तुत्वा
शापाद्विमोक्ष्यसे ।
शाप देकर मुनि हिमालयके उस शिखरपर चले गये जहाँ सिद्धऔर चारण निवास करते हैं । - ' इममाश्रममुत्सृज्य सिद्धचारणसेविते । हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे महातपाः ॥'अहल्या तबसे शिलामें निवास करती हुई तप कर रही है।अब आप इस पर कृपा करें जैसा कि गुरु वचन है- 'चरन कमल रज चाहत कृपा करहु रघुबीर।'
।।जय श्री राम जय हनुमान।।
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