मानस चर्चा।। राम जन्म कर हेतु।।
मानस चर्चा।। राम जन्म कर हेतु।।
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु ।
जग बिस्तारहिं बिसद जस रामजन्म कर हेतु ॥
असुरोंको मारकर देवताओंको स्थापित करते, अपने वेदोंकी मर्यादा रखते और जगत्में अपने निर्मल
उज्वल यशको फैलाते हैं । — यह श्रीरामजन्मका हेतु है ॥ मिलान कीजिये - 'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि
युगे युगे ॥ ' अर्थात् साधु पुरुषोंका उद्धार और दूषित कर्म करनेवालोंका नाश करने तथा धर्मस्थापन करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट होता हूँ । मानसके दोहेमें 'असुरोंका मारना' प्रथम कहा है; क्योंकि इनके नाशसे ही देवताओंकी तथा वेद- मर्यादाकी रक्षा हो जाती है और गीतामें 'परित्राणाय साधूनाम् ' प्रथम कहा है। तब दुष्टोंका नाश और धर्मसंस्थापन । हाँ, यदि हम 'हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा' जो पूर्व कहा है उसको भी यहाँ ले लें तो गीताका मानससे मिलान हो जाता है। जैसे गीतामें भगवान् ने अपने अवतारोंका उद्देश्य और प्रयोजन बतलाते हुए पहले ‘परित्राणाय साधूनाम्' कहा और तत्पश्चात् 'विनाशाय च दुष्कृताम्' कहा, वैसे ही यहाँ 'हरहिं सज्जन पीरा' कहकर 'असुर मारि' कहा। 'थापहिं' का भाव कि असुर देवताओंके अधिकार छीनकर स्वयं इन्द्र आदि बन बैठते हैं, उनके लोकोंको छीन लेते हैं इत्यादि । भगवान् अवतार लेकर उनको उनके पदोंपर स्थापित करते हैं। यथा—'आयसु भो लोकनि सिधारे लोकपाल सबै तुलसी निहाल कै कै दिये सरखतु हैं।' 'असुर मारि थापहिं सुरन्ह' का भाव यह है कि जैसे रोगीकी सड़ी हुई एक उँगलीके विषको सारे शरीरमें फैलनेसे रोकनेके लिये वैद्य उसे शस्त्रसे काटते हैं, इसी प्रकार दुष्टोंका संहार जगत्की रक्षाके लिये है । राजनीतिक्षेत्रमें इससे शिक्षा मिलती है कि प्रजाका पालन राजाका प्रधान कर्तव्य है ।
इस दोहेमें चार कार्य बताये । असुर पृथ्वीका भार हैं, उनको मारकर पृथ्वीका काम किया अर्थात् उसका भार उतारा। ' थापहिं सुरन्ह' अर्थात् देवताओंको अपने-अपने लोकोंमें बसाया, यह देवकार्य किया । 'राखहिं निज श्रुति सेतु' निजश्रुतिसेतुकी रक्षा करते हैं यह अपना काम करते हैं, और 'जग बिस्तारहिं बिसद जस' संसारमें यश फैलाते हैं, यह संतोंका कार्य करते हैं; क्योंकि 'सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं । कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं ॥', एक कल्प एहिं हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार। सुररंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुविभार ॥'
अवतार लेकर प्रभु ये चार कार्य करते है। 'असुर मारि' का कारण पूर्व कह आये कि 'बाढ़हिं असुर' असुर बढ़ गये हैं, अतः उनका नाश करते हैं। 'सीदहिं बिप्रधेनु सुर धरनी' के सम्बन्धसे 'थापहिं सुरन्ह' और 'जब जब होइ धरम कै हानी' के सम्बन्धसे 'राखहिं निज श्रुति सेतु' कहा। 'निज श्रुति सेतु' का भाव कि वेदकी मर्यादा भगवान्की बाँधी हुई है। श्रुतिसेतु का प्रमाण, यथा- 'कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू । छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू ॥ ब्रह्मचर्य व्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना ॥ सदाचार जपु जोग बिरागा । सभय बिबेक कटकु सब भागा।।' ( 'श्रुतिसेतु पालक राम तुम्ह जगदीश माया जानकी।'
'जग बिस्तारहि ।'भाव कि अपने निर्मल यशसे जगत्को पवित्र करते हैं। यथा- 'चरित पवित्र किये संसारा' यहाँ सब अवतारोंका हेतु संक्षेपसे कह दिया। आगे इसीको विस्तारसे कहेंगे !
'राम जन्म कर हेतु' । पूर्व में साधारणत: सब अवतारोंका हेतु कहा, अब दोहेमें केवल श्रीरामजन्मका हेतु कहते हैं । 'भूभारहरणादि हेतु तो सभी अवतारोंमें हैं, परंतु उज्ज्वल यश रामावतार ही में है । यथा-मच्छ, कच्छ, वराह में यश थोड़ा, स्वरूपता सामान्य, निषिद्ध कुल; नृसिंह भयंकर ऐसे कि देवगण भी उनके सम्मुख न जा सके; वामन स्वरूपता हीन, छली, वंचक; परशुराम अकारण क्रोधी; कृष्ण में चपलता, छलादि; बौद्ध वेद निन्दक इत्यादि सबके यशमें दाग है । अमल यश राम अवतार ही में है। यथा - 'सत्येन लोकाञ्जयति द्विजान् दानेन राघवः । गुरूञ्छुश्रूषया वीरान् धनुषा युधि शात्रवान्॥ सत्यं दानं तपस्त्यागो मित्रता शौचमार्जवम् । विद्या च गुरुशुश्रूषा ध्रुवाण्येतानि राघवे ॥' श्रीरामजी सत्यसे लोकोंको, दानसे ब्राह्मणोंको,सेवासे गुरुजनोंको और शस्त्रयुक्त वे धनुषसे युद्धमें वीरोंको जीत लेते हैं। सत्य, दान, तप, त्याग, मित्रता, शौच,सरलता, विद्या और गुरुशुश्रूषा श्रीरामजीमें दृढ़तासे रहते हैं। श्रीरामजीके जिस यशने सब दिशाओंको व्याप्त कर दिया, ऐसे पापका नाश करनेवाले, निर्मल, जिन ( श्रीरामजी) के यशको ऋषिलोग राजदरबारमें अद्यापि गाते हैं, उन (श्रीरामजी) के इन्द्र-कुबेरादिक जिसको नमन करते हैं ऐसे चरणकमलकी मैं शरण हूँ। हे श्रीमान् महाराज ! आपके यशसे सब (समस्त) जगत् श्वेतवर्ण हो जाता है, तब परमपुरुष भगवान् विष्णु ( अपने )।क्षीरसागरको खोजते हैं। तथा शिवजी कैलासको, इन्द्र ऐरावतको, राहु चन्द्रमाको और ब्रह्माजी हंसको खोजते हैं । तात्पर्य कि क्षीरसागर कैलासादि पदार्थ श्वेतवर्ण होनेसे आपके यश (के श्वेतवर्ण) में मिल जाते हैं, अतः।उनके स्वामियोंको खोजना पड़ता है। अर्थात् आपका यश सर्वत्र इतना फैला हुआ है। बालीवध पश्चात् तारा
श्रीरामजीसे कहती है कि आपको यथार्थ जानना और प्राप्त करना कठिन है, आप जितेन्द्रिय, अत्यन्त धार्मिक,
अविनाशी कीर्तिवाले, चतुर, पृथ्वीके समान क्षमावान्, आरक्तनेत्र, धनुर्बाण धारण किये हुए, अत्यन्त बलवान्,
सुन्दर देहवाले (अर्थात्) मनुष्य - शरीरमें होनेवाली उन्नतिकी अपेक्षा दिव्य देहमें होनेवाली उन्नति ( अर्थात्
सौन्दर्य, धैर्य, वीर्य, शील आदि सम्पूर्ण सद्गुणों) से युक्त है।कोई-कोई कहते हैं कि भारतकी दशा तो ऐसी ही है फिर अवतार क्यों नहीं होता ? 'सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी' और 'जब जब होई धरम कै हानी' ये शब्द विचार करने योग्य हैं। आज वह दशा भारतकी नहीं है, विप्र और धेनु अधिक-से-अधिक इन दो को नहीं, तो केवल 'धेनु' को ही पीड़ित कह सकते हैं । 'सुर' और 'विप्र' पर अभी हाथ नहीं लगा। जब देवमन्दिर अच्छी तरह उखाड़े जावेंगे तब वे पीड़ित कहे जा सकेंगे। जैसे किंचित् औरंगजेब आदिके समयमें हुआ, उसके साथ ही उनका राज्य चलता हुआ । धर्मका श्रीराम-नामसे अभी निर्वाह होता जाता है । अंग्रेजोंने जब भारतवर्षकी करोड़ों गायों, बैलों आदिकी (इस दूसरी जर्मन लड़ाईमें) हत्या कर डाली तब तुरन्त ही उनके हाथोंसे शासन निकल गया औरअब संसारमें उनका मान भी बहुत घट गया - यह तो प्रत्यक्ष हम सबोंने देख लिया। आगे भी जिस शासनमें धर्मकी ग्लानि होगी, वह अपने ही पापोंसे नष्ट हो जायगा ।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।
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