वामाङ्के
वामाङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके,
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट् ।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा,
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशंकरः पातु माम् ॥
वामाङ्के च विभाति भूधरसुता पार्वतीजी वामांगमें विराजती हैं ही, यथा - ' बामभाग आसन हर दीन्हा' । शिवजीने पार्वतीजीको अपना आधा अंग ही बना लिया है, अतएव उनको 'अर्धनारीश्वर' कहते हैं, अर्थात् शिवजीका वह स्वरूप जिसमें आधा (दाहिना) अंग शिवजीका और आधा (वाम) अंग पार्वतीजीका है। इस आशय को बालकाण्ड में बाबा तुलसीदासजी ने लिखा हैं- ' हरषे हेतु हेरि हर ही को । किय भूषन तिय भूषन ती को॥' अर्थात् महादेवजी पार्वतीजी के हृदयका आशय समझ ऐसे प्रसन्न हुए कि वे पतिव्रताओं में शिरोमणि पार्वतीजी को अपने शरीरमें धारणकर 'अर्धनारीश्वर' बन बैठे। रसमंजरी में और भी कहा है'आत्मीयं चरणं दधाति पुरतो निम्नोन्नतायां भुवि स्वीयेनैव करेण कर्षति तरोः पुष्पं श्रमाशंकया। तल्पे किञ्च मृगत्वचा विरचिते निद्राति भागैर्निजै-रित्थं प्रेमभरालसां प्रियतमामङ्गे दधानो हरः ॥
अर्थात् भूमिके ऊँच-नीच होनेके भयसे अर्धनारीनटेश्वर श्रीशिवजी अपने पुरुष - स्वरूपका पाँव (दाहिना) पहले आगे रखते हैं तथा पार्वतीरूपी अपने बाएँ अंगको श्रम न हो इस हेतु अपने ही हाथसे (दाहिने हाथसे) वृक्षके फूल तोड़ते हैं और मृगछालाके विस्तरपर अपने ही अंगके बल (दाहिने करवट ) सोते हैं, इस भाँति परिपूर्ण प्रेमसे शिथिल अपनी प्राणप्यारी पार्वतीको पुरारिने अपने अंगहीमें धारण कर लिया। वामाङ्के के स्थान पर यस्याङ्के पद भी प्राप्त होता है। यस्याङ्के --जिनके अंक में भूधरसुता सुशोभित होती है ,सदा स्थिर रहती हैं यहां सदा स्थिर सूचित करनेके लिये ही बाबा ने सुंदर
'भूधरसुता' नाम दिया और शुद्धता दिखानेके लिये 'देवापगा' (देवताओं की नदी अतएव दिव्य ) कहा ।
इस प्रकार यहाँ गोस्वामीजीने दोनों शक्तियोंसहित श्रीशिवजीका मंगलाचरण किया। पार्वतीजी शक्ति ही हैं गंगाजी भी शिवजीकी शक्ति हैं, यथा - ' देहि रघुबीरपद प्रीतिनिर्भर मातु, दास तुलसी त्रासहरनि भवभामिनी । '
कोई-कोई महानुभाव यहाँ 'यस्याङ्के' और 'श्री शङ्कर' शब्दोंसे श्रीशिव और श्रीपार्वतीजी इन दोकी वन्दना भी
मानते हैं। भाले बालविधु:,बालविधुः-अमावस्याके पीछेका नया चन्द्रमा, शुक्लपक्षकी द्वितीयाका चन्द्रमा ललाट पर।
भाले बालविधुः ' चन्द्रमा द्विजराज है अथवा अमृतस्रावी है, इससे उसे मस्तकका तिलक बनाया। इससे दीन, हीन, क्षीणजनोंको आश्रय देनेवाला जनाया। स्कन्दपु०, माहेश्वर केदारखण्ड में लिखा है कि राहुका सिर कटनेपर वह चन्द्रमाको निगलनेको दौड़ा तब चन्द्रमा भागकर शंकरजीकी शरणमें गया। उन्होंने यह कहते हुए कि 'डरो मत' उसे जटाजूटमें रख लिया। तबसे चन्द्रमा उनके
मस्तकपर शोभित है। गले च गरलम्' - विषको कण्ठमें रखा; क्योंकि उदरमें जाय तो ताप उत्पन्न करे, उसे ऊपर (बाहर ) धारण करें तो सबकी मृत्यु करे, अतएव इस अवगुणीको कण्ठमें छिपा रखा है। (इससे जनाया कि बड़े परोपकारी हैं, सदा प्रजा और प्रजापतियोंके हितमें तत्पर रहते हैं, उनका दुःख टालनेके लिये स्वयं दुःख झेला करते हैं। पुनः हृदयमें इससे न रखा कि उसमें श्रीसीतारामजी विराजमान हैं, यथा - 'हर हृदि मानस बालमरालं ।' वहाँ रखनेसे अपने इष्टदेवको कष्ट पहुँचेगा। कण्ठमें रखने से सब बातें बन गयीं। यस्योरसि = (यस्य + उरसि ) जिसके वक्षःस्थल वा छातीपर व्यालराट्-व्याल+राट् सर्पराज, शेषजी। सोऽयम् - (सोऽयम्, सः+अयम्) वही ये ऐसे वे।भूतिविभूषण:-भस्म ही जिनका आभूषण (गहना) है, भस्मसे विभूषित अर्थात् जिनके शरीरपर श्मशानकी भस्म लगी हुई शोभा पा और दे रही है। ''भूतिविभूषणः' कहकर भगवान को पतित पावन भी जनाया गया है ; बाबा ने बाबा के बारे में कहा हैं कि'भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी'
सुरवरः अर्थात् देवताओं में सर्वश्रेष्ठ देवाधिदेव महादेव।
सर्वाधिपः- सबके राजा वा स्वामी अर्थात् पालनकर्ता । सर्वदा-सदैव, सर्वकालमें । सर्वदा सर्वाधिपः - तीनों कालोंमें, चराचरके अधिरक्षक ।शर्वः इति - शब्दकल्पद्रुममें इसका अर्थ यों लिखा है - 'शर्वः - पुं० शृणाति सर्वाः प्रजाः संहरति प्रलये संहारयति वा भक्तानां पापानि । अर्थात् जो प्रलयमें सब प्रजाओंका संहार करता है अथवा भक्तोंके पापोंका संहार करता है। सर्वः सब चराचरमात्र आपका ही रूप है । सब कुछ आप ही हैं। सर्वगतः -सर्वव्यापक, सबके अन्तर्यामी, सब कुछ जिसके अन्दर समाया हुआ है। शिवः - कल्याण स्वरूप। शशिनिभः - शशि + निभः कान्ति, प्रकाश, चमक-दमक, प्रभा, आभा - चन्द्रमाके सदृश गौरवर्ण; चन्द्रमें तेजः स्वरूप, यथा- ' यदादित्यगतं तेजो जगद् भासयते ऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ।। हम सब पाते हैं कि अयोध्या और अरण्यकाण्डोंके भी प्रारम्भ करनेवाले पहले श्लोक शिवजीकी वन्दनामें कहे गये हैं। इस विशेषतामें यह स्पष्ट व्यंजना दिखायी पड़ती है कि शिवजीको गुरु माननेके कारण ही कदाचित् आप से आप उनकी बाबा द्वारा वन्दना इन काण्डों में श्रीरामजीकी वन्दनासे भी पूर्व हो गयी हो। भारतीय भक्तोंने अपने सामने सदा यही सिद्धान्त रखा है- 'भक्ति भक्त भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक । ' इसी सिद्धान्तके अनुसार वे शिवजी को न केवल 'निर्गुणं निर्विकारं ' कहते है, वरं 'विष्णुविधिवन्द्यचरणारविन्दम् ' भी कहते हैं। अन्यत्र 'रामरूपीरुद्र' भी कहते हैं और एक अन्य स्तोत्रमें तो हरि और शिवकी एकत्र स्तुति भी की है और उसका नाम 'हरि-संकरी - मन्त्रावली' रखा है। जिन विशेषणोंसे श्रीशंकरजीकी वन्दना की गयी है वे सब सहेतुक हैं। । इन विशेषणोंको देकर बाबा श्रीशिवजीका विघ्ननिवारणमें सामर्थ्यवान् होना दर्शित करते हैं। कैसे समर्थ हैं कि अनेक सम-विषम, सुख-दुःखकारी, भले-बुरे, परस्पर विरोधी इत्यादि पदार्थोंको अंगमें सदैव धारण करते हुए भी आप सदैव सावधान हैं, किसीका वेग आपमें व्याप्त नहीं होने पाता।हम पाते हैं कि अयोध्या
काण्ड में बहुत-सी सम-विषम बातें और सुख-दुःखके प्रसंग ठौर - ठौर हैं जो चित्तको एकदम दहला देनेवाले हैं - जैसे राज्याभिषेककी तैयारी और हुआ वनवास, माता केकयीकी कठोरता और वरदान इत्यादि ।उनके वेगके वशीभूत हो जानेसे कथाकी निर्विघ्न समाप्ति असम्भव - सी जान पड़ती है। अतः इन विघ्नोंसे अपने चित्तकी रक्षा करानेके लिये विघ्नोंके उपस्थित रहते हुए भी उनके वशमें न होनेवाले और सदा सबका कल्याण करनेवाले श्रीशिवजीकी वन्दना इन विशेषणोंसे की है।
'इस श्लोक में शिवजीके सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूपोंका वर्णन है। 'यस्याङ्के भूतिविभूषणः सुरवर:' सगुणरूप है। 'सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः सर्वगतः--' निर्गुणरूप है। पुनः आधे श्लोक में शिवजीके आश्रितोंकी शोभा कही और आधेमें श्रीशिवजीकी। यह गुप्त भाव साधारणतया देख नहीं पड़ता । पर है ऐसा ही, आधेमें 'भूधरसुता विभाति', 'देवापगा विभाति', 'भाले बालविधुर्विभाति', 'गले गरलं विभाति', 'उरसि व्यालराड् विभाति' है। श्रीपार्वतीजी, गंगाजी, बालविधु, गरल और व्यालराट् सब आपके आश्रित हैं। इस तरह अर्धश्लोक में इनका ही वर्णन है। शेष अर्धमें केवल शिवजी की शोभा है । ऐसा करके सूचित करते हैं कि इस काण्डमें आधेमें श्रीरामचरित है और आधेमें भक्तशिरोमणि श्रीभरतजीका चरित कहा गया है। दोहा १५६ तक श्रीरामचरित है और दोहा १७० के आगे दोहा ३२६ तक १५६ दोहोंमें श्री भरतचरित है । बीचके १४ दोहे १५६ के आगे १७० तक भरतागमन और पितृक्रियासे सम्बन्ध रखते हैं। ये १४ दोहे श्लोकके 'सः शङ्करोऽयं सर्वदा मां पातु' में आ गये। 'पर्वत जड़ है, उसकी पुत्री बाएँ अंगमें और देवता चेतन हैं उनकी नदी शीशपर शोभित है। यह सम-विषम है, इनको स्वाभाविक लिये हैं। वा दो स्त्रियोंका संग महा उत्पातका कारण है सो दोनोंको धारण किये हुए भी सावधान हैं। चन्द्रकी शीतलता और गरलकी उष्णता नहीं व्यापती । भस्मसे त्याग, सुरवरसे ऐश्वर्य और सर्वाधिपसे पालक, तीनों होते हुए सावधान हैं। 'सर्वगतः ' से अगुणत्व और 'शशिनिभः' से सगुणत्व इत्यादि सम-विषमसहित हैं। - पृथ्वी परोपकारिणी और क्षमारूपा है, वैसे ही पर्वत भी यथा - 'संत बिटप सरिता गिरि धरनी । परहित हेतु सबन्ह कै करनी ।' ये पर्वतराजकी कन्या हैं, अतः अवश्य परोपकारिणी होंगी, इन्हींके द्वारा रामचरित प्रकट हुआ। गंगाजी भगवान्के नखसे निकलीं, अतः शीशपर धारण किया- ऐसे उपासक है महादेव । अल्पकलावाले चन्द्रको प्रतिष्ठा देनेके विचारसे माथेपर स्थान दिया- ऐसे दीनदयाल है महादेव। इस विचारसे भी कि अग्निनेत्रके तेजसे उपासकोंको कष्ट न पहुँचे, वहीं चन्द्रमाको स्थान दिया है । कण्ठमें विष धरकर संसारभरका उपकार किया। हृदयपर सर्पराजको धारणकर भजन- निष्ठता दिखायी कि सर्पराजको निरन्तर हरियश - गानमें तत्पर जान सदा हृदयसे लगाये रहते हैं। पुनः, विष और सर्पसे सामर्थ्य जनाया। 'श्रीशङ्करः' अर्थात् श्री और शं कल्याण - के करनेवाले हैं। महात्माओंके समीप भले और बुरे दोनोंका निर्वाह हो जाता है। जैसे श्रीशिवजीके
समीप पार्वतीजी और गंगाजी (दो सौतों), चन्द्रमा और सर्प किंवा अमृत और विष, भस्म और ऐश्वर्य, संहार और कल्याण इत्यादि सदा बने रहते हैं। ( इसी भावका एक दोहा है— 'धनुष बान धारे लखत दीनहिं होत उछाह । टेढ़े सूधे सबन्ह को है हरि हाथ निबाह।। - यह श्लोक 'शार्दूलविक्रीडित वृत्त' का है। इस छन्दमें मंगल करके जनाते हैं कि समस्त विघ्नोंके उद्वेगसे रक्षा करनेमें आपका पराक्रम शार्दूल - ( सिंह वा एक पक्षी जो हाथीतकको पंजेसे दबा लेता है) के समान है। आप मेरी रक्षा करें। पातु माम् ऐसे महादेव हमारी रक्षा करें।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ