रविवार, 10 मार्च 2024

।।शिखरिणी छंद।।

शिखरिणी 
(सत्रह अक्षरों वाला समवृत्त) 
लक्षण - 
रसैः रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलागः 
शिखरिणी। 
परिभाषा=
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में 
एक यगण (।ऽऽ), एक मगण
 (ऽऽऽ), एक नगण (।।।), 
एक सगण (।।ऽ), एक भगण
 (ऽ।।), एक लघु (।) एवं एक
 गुरु (ऽ) होता है उसे
 शिखरिणी छंद कहते हैं।

अब प्रश्न उठता है श्वास का 
विराम कहाँ करें तो इसके 
उत्तर में आचार्य ने कहा है
कि- रसै: रुद्रैश्छिन्ना अर्थात्
 रस एवं रुद्र की संख्या पर
 श्वास का विराम अर्थात् यति
होगा। रसै अर्थात् यहाँ पर रस
 का प्रयोग पाकशाला में प्रयुक्त
 रसों तिक्त, कषाय,
लवण, मधुर, अम्ल एवं कटु
पर करते है। इस प्रकार छः 
वर्णों पर प्रथम यति ।
अब द्वितीय यति अर्थात् विराम 
'रुद्र' अर्थात् रुद्र भगवान शंकर
का नाम है जिनकी
संख्या 11 मानें गये हैं जो
अलग-अलग धर्मग्रंथों के
अनुसार अलग- अलग हैं ।
शिवपुराण के अनुसार 
निम्नलिखित एकादश रुद्र हैं..
कपाली,पिंगल,भीम,विरूपाक्ष,
विलोहित,शास्ता,अजपाद,
अहिर्बुध्न्य,शम्भु,चण्ड और भव।
इस प्रकार
द्वितीय यति पाद के अन्त 
17वें अक्षर पर होगा।
 इसका तात्पर्य यह है कि
शिखरिणी छन्द के प्रत्येक चरण
के प्रथम छठें अक्षर के बाद
 श्वास रुकती है अर्थात्
श्वास लेंगे और द्वितीय 11 
अक्षर के बाद अर्थात् चरण
 के अन्त में श्वास रुकती है।
इस प्रकार कुल मिलाकर 
शिखरिणी छन्द के में कुल 
17×4=68 वर्ण होते हैं।
शिखरिणी छन्द का प्रयोग
प्रायः बहुत ही धीर - गम्भीर
भावों को अभिव्यक्त करने के
लिये होता है। 

उदाहरण -  
। ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ।।। । । ऽ ऽ । । । ऽ
"न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो,
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा ।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं,
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ।।”


अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कररुहै 
रनाविद्धं रत्नं मधु नवमनास्वादितरसम् 
अखण्डं पुण्यानां फलमिह च तद्रूपमनघम् 
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः॥

 हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के
लक्षण एवं परिभाषा संस्कृत 
की तरह ही हैं।


उदाहरण=
  । ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ । । । । । ऽ ऽ ।।। ऽ
“अनूठी आभा से, सरस सुषमा से सुरस से।
बना जो देती थी, वह गुणमयी भू विपिन को।।
निराले फूलों की, विविध दल वाली अनुपम।
जड़ी-बूटी हो बहु फलवती थी विलसती।।”

    ।। धन्यवाद।।

।। पञ्चचामर छंद ।।

पञ्चचामर छंद 

अन्य नाम: नराच, नागराज 
पञ्चचामर एक सोलह अक्षरी छंद है।
इसमें 8/8 या 4/4 वर्णों पर यति
होती है।यह प्रमाणिका का दोगुना
होता है,जैसा कि कहा भी गया है...

प्रमाणिका- पदद्वयं वदन्ति पंचचामरम्'।
 
लक्षण:
जरौजरौततौजगौचपंचचामरंवदेत_।
परिभाषा=
जब किसी श्लोक या पद्य के प्रत्येक 
चरण में जगण(ISI), रगण(SIS), 
जगण(ISI), रगण(SIS), जगण(ISI)
और गुरु(S) के क्रम में 16×4=64,
वर्ण हों तब पञ्चचामर छंद होता है।
इस प्रकार हम पाते है कि इस छंद
के प्रत्येक चरणों में लघु गुरू लघु 
गुरू के क्रम में 16×4=64 वर्ण होते हैं।

उदाहरण:

रावण कृत शिवतांडव स्त्रोत्र इसका
सर्व श्रेष्ठ उदाहरण है।
आइए इसका प्रथम श्लोक देखते हैं..

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले,

गलेऽवलम्ब्यलम्बितांभुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं

चकारचण्डताण्डवंतनोतुनःशिवःशिवम्॥

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के
लक्षण एवं परिभाषा संस्कृत 
की तरह ही हैं।
उदाहरण=

 1.जु रोज रोज गोप तीय कृष्ण संग धावतीं। 

  सु गीति नाथ पाँव सों लगाय चित्त गावतीं।।

  कवौं खवाय दूध औ दही हरी रिझावतीं। 

 सुधन्य छाँड़ि लाज पंच चामरै डुलावतीं।। ' 
 

2.तजो न लाज शर्म ही, न माँगना दहेज़ रे,

करो सुकर्म धर्म ही, भविष्य लो सहेज रे। 

सुनो न बोल-बात ही, मिटे अँधेर रात भी,

करो न द्वेष घात ही, उगे नया प्रभात भी।।

   ।। धन्यवाद ।।




शनिवार, 9 मार्च 2024

✓।।प्रमाणिका छंद ।।

प्रमाणिका  छंद 
साधारण वार्णिक छंद का यह प्रथम 
भेद है। इसका अन्य नाम: प्रमाणी, 
निगालिका और नागस्वरूपिणी है। 
प्रमाणिका एक अष्टाक्षरी छंद है।
इसके बारे में कहा भी गया है..

अष्टाक्षरी प्रमाणिका,
छंद अकेला भाय।
गेय छंद यही अद्भुत,
लघु गुरु बना सुहाय।।

लक्षण=
ज़रा लगा प्रमाणिका। 
       या
प्रमाणिका जरौ लगौ।
व्याख्या..
जरा या जरौ का अर्थ है जगण और रगण 
अर्थात् I S I तथा  S I S और लगा या लगौ 
का अर्थ है लघु गुरू I S इस प्रकार प्रमाणिका 
छंद में I S I S I S I S के क्रम में प्रत्येक 
चरणों में 8-8 वर्ण होते हैं।

परिभाषा=

जब श्लोक या पद्य के प्रत्येक चरणों में जगण
रगण लघु गुरू के क्रम में 8×4=32 वर्ण हो
तब प्रमाणिका छंद होता है।
उदाहरण :
I S I   S I S I   S  I S I   S I S I   S
नमामि भक्तवत्सलं, कृपालुशीलकोमलम्।
I  S I   S  I S I  S     I S I S    I S I S
भजामि ते पदाम्बुजं, अकामिनां स्वधामदम्॥

यहाँ हम देखते हैं कि 
I S I S I S I S के  क्रम में प्रत्येक चरणों
में 8-8 वर्ण हैं। अतः यहाँ प्रमाणिका छंद है।

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं परिभाषा 
संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण=
   I S I   S I S I   S  I S I   S I S I   S
1.सही-सही उषा रहे , सही-सही दिशा रहे ।
   I S I   S I S I   S  I S I   S I S I   S
 नयी-नयी हवा बहे,  भली-भली कथा कहे।। 

2.जगो उठो चलो बढ़ो, सभी यहीं मिलो खिलो। 
 न गाँव को कभी तजो,  न देव गैर का भजो ।।

छायावादी कवि जय शंकर प्रसाद जी की
यह रचना प्रमाणिका छंद का अद्भुत उदाहरण है ..

3.हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
 स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती॥
 अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है,  बढ़े चलो बढ़े चलो॥
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ,विकीर्ण दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के,रुको न शूर साहसी॥
अराति सैन्य सिन्धु में, सुबाड़वाग्नि से जलो।
प्रवीर हो जयी बनो, बढ़े चलो बढ़े चलो॥
      ।।धन्यवाद।।

।।वसन्ततिलका।।




 वसन्ततिलका

   काव्य जगत में वसन्ततिलका वृत्त
बहुत ही प्रसिद्ध है प्रायः सभी कवि इस 
वृत्त से काव्य रचने की इच्छा करते हैं
क्योंकि यह सुनने में अत्यंत मधुर है 
जिससे काव्य सौन्दर्य बढ़ता है।
वसन्ततिलका के बहुत से नामान्तर
विद्यमान है जैसा कि इस कारिका से
प्राप्त होता है-

सिंहोन्नतेयमुदिता मुनि काश्यपेन । 
उद्धर्षिणीति गदिता मुनि सैतवेन ।
रामेण सेयमुदिता मधुमाधवीति।
 
अर्थात् वसन्ततिलका का काश्यप के 
मत में सिंहोन्नता नाम है, सैवत के मत
 में उद्धर्षिणी नाम और राम के मत
 में माधवी नाम है।यह शक्वरी परिवार
का छंद है।वसन्ततिलका छन्द को
प्रायः दो नामों से स्मरण किया जाता है। 
कुछ लोग इसे वसन्ततिलकम् तो कुछ
लोग इसे वसन्ततिलका कहते है।
दोनों ही नाम छन्द शास्त्र में प्रचलित है। 
केवल अन्तर इतना है कि वसन्ततिलकम् 
नंपुसकलिंग में है तथा वसन्ततिलका
स्त्रीलिंग में प्रयुक्त शब्द होता है । 

 इस छन्द का विशेष परिचय देने के
लिये एक छोटी सी ऐतिहासिक कहानी
बताता हूँ।
 
ग्यारहवीं शताब्दी के इतिहास में
मालवा के नरेश, भोजदेवजी थे।
वे बहुत बड़े पंडित एवं विद्वान थे।
उन्होंने 84 ग्रन्थों कीरचना किया था। 
उन्होंने एक नियम बना दिया था कि
हमारी राजधानी धारा नगरी में कोई
भी मूर्ख व्यक्ति न रहें। जो भी निवास 
करें वह पंडित विद्वान या कवि हो ।
संयोग वश एकदिन उनके सिपाहियों
ने एक जुलाहे को पकड़ कर उनके
समक्ष लाये और बोले कि
हे राजन! यह कुछ भी नहीं जानता है 
अर्थात् मूर्ख है इसलिए इसके दण्ड की
व्यवस्था की जाय । किन्तु राजा ने सोचा
कि बिना परीक्षा किये दण्ड की व्यवस्था 
नहीं करनी चाहिए। इसलिए उसने जुलाहे
से पूछा- हे जुलाहे ! जो सिपाही कह रहे हैं
वह ठीक है ?
तो जुलाहे ने काव्य में उत्तर
देते हुए कहा-

S S I. S I I. I S I I S I S S
"काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि
यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि।
भूपाल - मौलि-मणि- रंजित- पादपीठ:
हे साहसांक ! कवयामि वयामि यामि ।।"

इस प्रकार इन पक्तियों में 
वसन्ततिलका छंद का प्रयोग इतने
सुन्दर शब्दों के संयोजन के साथ
किया गया था। जिसको सुनकर
सभी दंग रह गये और राजा उसकी
शब्दयोजना को सुनकर इतना 
प्रसन्न हो गये कि उसको नगर में
रहने की सुन्दरतम् व्यवस्था करते
हुए पुरस्कृत किया ।

लक्षण- 
"उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः।
             या
ज्ञेया वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ।
अर्थात्..
जानो वसन्ततिलका तभजा जगागा।
इस प्रकार इस छंद की 
परिभाषा:
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमश:
तगण, भगण, जगण एवं दो गुरू वर्ण
के क्रम में 14 वर्ण हों, 
वह वसन्ततिलका छन्द कहलाता है। 

अब हम उदाहरणों को व्याख्या
सहित देखेगें लेकिन उससे पहले
हमें हमेशा याद रखना है कि इस
नियम के अनुसार अन्तिम वर्ण लघु
होते हुवे भी छंद की आवश्यकता
के अनुसार विकल्प से हमेशा 
गुरू माना जाता है।
वह नियम विधायक श्लोक है...

सानुस्वारश्च दीर्घश्च 
विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च 
तथा पादान्तगोऽपि वा ॥

उदाहरण - 
S S I S I I I S I I S I S S
1.लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तं
रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम् ।
उद्यद्दिवाकरकरोज्ज्वलकायकान्तं
विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि ।।

2.पापान्निवारयति योजयते हिताय 
गुह्यान् निगृहति गुणान् प्रकटीकरोति। 
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले 
सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः॥ 

3.फुल्लं वसन्त तिलकं तिलकं वनाल्याः,
लीलापरं पिककुलं कलमत्र, रौति।
वात्येष पुष्पसुरभिर्मलायाद्रि वातो,
याताहरिः समधुरां विधिना हताः स्मः ।।

4.नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये 
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे 
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ 

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण
एवं परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण:

“भू में रमी शरद की कमनीयता थी।
नीला अनंत नभ निर्मल हो गया था।।”

       ।। धन्यवाद ।।

।।मालिनी।।

मालिनी

   'मालिनी' शब्द का अर्थ 'माला धारण 
करने वाली कोई रमणी' है। इसी प्रकार
स्रग्विणी छंद का भी अर्थ 'सक' अर्थात् 
माला और माला को धारण करने वाली
हुई स्रग्विणी । इस प्रकार स्रग्विणी और 
मालिनी इन दोनों का एक ही अभिप्राय 
दिखाई पड़ता है।यह वृत्त अर्थात् छंद
"अतिशक्वती" परिवार का भाग है।

लक्षण-

 “ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोंकैः ।

व्याख्याः-
ननमयययुतेयं अर्थात् यह छंद दो
नगण, एक भगण,दो यगण से
युक्त होता है। दूसरे शब्दों में जिस
श्लोक/पद्य के प्रत्येक चरण में
क्रमश: नगण, नगण, मगण,यगण 
एवं यगण के क्रम में वर्ण हो उस 
श्लोक/पद्य में मालिनी छंद होता है।

अब प्रश्न उठता है कि विराम कब
तो उत्तर है
 'भोगिलोकैः' अर्थात् 
भोगि और लोकै: के बाद।

यहाँ भोगि बना है भोग से,भोग
कहते है साँप की कुण्डली को और
उस भोग से युक्त होने के कारण साँप 
का एक नाम है ‘भोगि' है । 
इस प्रकार भोगि शब्द का अर्थ
सर्प या नाग होता है। संस्कृत 
साहित्य में सर्पोंं अर्थात् नागों की
संख्या 8 मानी है। जो निम्न हैं:

अनंत(शेष),वासुकि,तक्षक,कर्कोटक,
पद्म,महापद्म,शंख और कुलिक
अतः स्पष्ट है पहला विराम 
भोगि अर्थात् आठवें अक्षर के 
बाद आयेगा।

इसके पश्चात् दूसरा विराम लोकै:
अर्थात् लोक के पश्चात् आयेगा 
विष्णु पुराण के अनुसार:

अतल, वितल, सुतल, रसातल,
तलातल, महातल और पाताल
नाम के 7 लोक हैं।
अतः स्पष्ट है कि दूसरा विराम 
सातवें अक्षर के बाद होगा।
अर्थात् इस वृत में आठवें एवं
सातवें अक्षर के बाद यति होती है। 
यह समवृत्त है अत: चारों चरणों में
समान लक्षण होते हैं। 
प्रत्येक चरण में 15 अक्षर होते हैं 
अतः चारों चरणों में 60 अक्षर हुवे।

अब हम उदाहरणों को व्याख्या
सहित देखेगें लेकिन उससे पहले
हमें हमेशा याद रखना है कि इस
नियम के अनुसार अन्तिम वर्ण लघु
होते हुवे भी छंद की आवश्यकता
के अनुसार विकल्प से हमेशा 
गुरू माना जाता है।
वह नियम विधायक श्लोक है...

सानुस्वारश्च दीर्घश्च 
विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च 
तथा पादान्तगोऽपि वा ॥ 

उदाहरण. 
 I I I I I I S S S I S S I S S
1.अतिविपुल ललाटं, पीवरोर: कपाटं,
पुरुष मशनि लेखाल क्ष्मणं वीरलक्ष्मी
सुघटितदश नोष्ठं व्याघ्रतुल्य प्रकोष्ठम् ।
रतिसुरभिय शोभिर्मालिनी वाभ्युपैति ॥

प्रस्तुत श्लोक के प्रत्येक चरण में प्रथम
चरण के अनुसार ही क्रमश: नगण, 
नगण, मगण, यगण एवं यगण के
क्रम में वर्ण विधान है इसमें प्रथम
यति आठ पर और द्वितीय यति सात
पर हैं अतः यहाँ मालिनी छन्द है। 
इसके प्रत्येक चरण में 15 अक्षर 
और चारों पादों में 60 वर्ण हैं।
समवृत्त होने से चारों पादों में 
समान लक्षण हैं।

2.असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुवीं।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।।

इस प्रसिद्ध श्री हनुमान वंदना को आप
जरूर देखें और याद करें...

3.अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
  दनुजवनकृशानं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
  सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
  रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।

हिन्दी...

हिन्दी में भी मालिनी छंद के लक्षण
एवं परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण-

प्रिय पति वह मेरा, प्राण प्यारा कहाँ है।
दुख-जलधि निमग्ना, का सहारा कहाँ है।
अब तक जिसको मैं, देख के जी सकी हूँ।
वह हृदय हमारा, नेत्र तारा कहाँ है।।

    ।। धन्यवाद।।

✓।। अनुष्टुप छंद।।

।। अनुष्टुप छंद।।
अनुष्टुप छंदआठ अक्षरों वाला समवृत्त छंद है।
लक्षण-----
पञ्चमं लघु सर्वत्र सप्तमं द्विचतुर्थयोः।
गुरु षष्ठं च पादानां शेषेष्वनियमो मतः।।
 या
श्लोके षष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् । 
द्विचतुष्पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥


यहाँ ध्यान रखें कि दूसरा लक्षण अधिक
प्रसिद्ध है लेकिन दोनों का हिन्दी अर्थ 
एक ही है जो निम्नलिखित है...और यही
अनुष्टुप छंद की परिभाषा भी है।

परिभाषा:-

       अनुष्टुप छंद में चार चरण होते हैं। 
इन चारों चरणों में पाँचवाँ अक्षर लघु और 
छठा अक्षर गुरु होता है। दूसरे और चौथे
इन दोनों सम चरणों में सातवाँ अक्षर लघु
तथा अन्य में अर्थात् पहले और तीसरे इन 
दोनों विषम चरणों में सातवाँ अक्षर गुरु
होता है । बाकी के अक्षरों के लिए 
लघु-गुरु का कोई नियम निश्चित नहीं है। 
इन लक्षणों से युक्त छंद अनुष्टुप् छन्द 
कहलाता है।

संस्कृत में इस छंद का नाम अनुष्टुभ् भी
है।लेकिन हिन्दी में यह केवल अनुष्टुप के
रूप में ही लिखा-पढ़ा जाता है। 

विशेषः-
उक्त दोनों लक्षण वाले श्लोक 
लक्षण के साथ ही साथ उदाहरण भी हैं।

अलग से भी उदाहरणों को देखते हैं...

उदाहरण –

1.उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
   षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देव सहायकृत्।।

अर्थात् उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और
पराक्रम जहाँ ये छः होते हैं, वहाँ देवता
सहायता करते हैं। यहाँ चार चरण हैं।
प्रत्येक में आठ-आठ अक्षर हैं।
प्रथम चरण का पाँचवाँ अक्षर ‘ह’ और
छठा अक्षर ‘सं’ क्रम से लघु और गुरु हैं।
इसी प्रकार बाकी के तीनों चरणों में
पाँचवाँ और छठा अक्षर क्रमशः लघु
और गुरु हैं। दूसरे और चौथे चरण में
सातवाँ अक्षर (क्र और य) लघु हैं
और पहले तथा तीसरे चरण के
सातवें वर्ण क्रमशः धै और तन् गुरु हैं। 
इस प्रकार उपर्युक्त श्लोक में अनुष्टुप
के सभी लक्षण बिलकुल सही हैं और 
इस श्लोक में अनुष्टुप छंद है।

इसी प्रकार का वर्ण संयोजन हम
सभी अनुष्टुप छंद के श्लोकों/पद्यों 
में पाते हैं।अन्य उदाहरण भी देखें 
और याद कर लेवें

2.पतितैः पतमानैश्च, पादपस्थैश्च मारुतः ।
  कुसुमैः पश्य सौमित्रे ! क्रीडन्निव समन्ततः ॥

3.संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
   देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥

4.ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
   तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥

5.वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
  मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।

6.मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
  यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।

श्रीमद्भगवद्गीता इन प्रसिद्ध श्लोकों को
आप जरूर देखें....और याद करें...
 
7.यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
  अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥ 

8.परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
    धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ 

मृत्युंजय मंत्र को भी जरूर देखें.

9.ॐ त्र्यम्बकं यजामहे 
 सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । 
 उर्वारुकमिव बन्धनान् 
 मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण
एवं परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण:

राष्ट्रधर्म कहावे क्या, पहले आप जानिये ।
 मेरा देश धरा मेरी, मन से आप मानिये ।।

यहाँ आप पायेंगे कि इस पद्य के सभी 
चरणों के पांचवें वर्ण लघु हैं और छठें वर्ण 
गुरु हैं। सम चरणों अर्थात् द्वितीय और
चतुर्थ चरणों के सातवें वर्ण लघु हैं और 
विषम चरणों अर्थात् प्रथम एवं तृतीय 
चरणों के सातवें वर्ण गुरु हैं। इसलिए 
इस पद्य में अनुष्टुप छंद है।

।। धन्यवाद ।।


रविवार, 11 फ़रवरी 2024

✓।।तालाब के पर्यायवाची शब्द।।

।।तालाब के पर्यायवाची शब्द।।
दो दोहों में बाईस पर्यायवाची शब्द:
तालाब तलैया ताल,वापिका वापी सर।
सरसी पोखरा पोखर,जलयोजन सरोवर।।1।।
तड़ाग गड़ही जलाशय,बावड़ी पद्माकर।
मानसरोवर जलवान,हृद जोहड़ दह पुकर (पुष्कर)।।2।।