रविवार, 17 नवंबर 2024

मानस चर्चा।। इन्द्र का स्वभाव कुत्ते जैसा कैसे।।

मानस चर्चा।। इन्द्र का स्वभाव कुत्ते जैसा कैसे।।
सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥
जैसे मूर्ख और दुष्ट कुत्ता सिंहको देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और जैसे वह मूर्ख यह समझता है कि कहीं सिंह उसे छीन न ले, वैसे ही देवराज इन्द्रको  यह सोचते हुए कि देवर्षि मेरा राज्य छीन न लें लज्जा नहीं लगी ॥ यहाँ इन्द्रपुरीका राज्य एवं भोग सूखा 'हाड़' है, इन्द्र श्वान है, नारद मृगराज हैं। देवर्षि एक तो भगवान्के निष्काम भक्त हैं, फिर वे ब्रह्मलोकके निवासी हैं जहाँका सुख और ऐश्वर्य इन्द्रलोकसे अनन्तगुण अधिक है, तब वे भला इन्द्रपुरीके सुखकी इच्छा क्यों करने लगे ? यह इन्द्रको न समझ पड़ा। इसीसे उसे 'जड़' कहा – 'छीनि लेइ जनि जान जड़ ।' इन्द्र सूखी हड्डीके समान भोगको लेकर भागा, इसीसे उसे निर्लज्ज कहा - 'तिमि सुरपतिहि न लाज ।' और महात्माके प्रति अविश्वास और प्रतिकूल कर्म करनेसे 'सठ' कहा- 'लै
भाग सठ।' भगवान्‌के भजनके आगे इन्द्रपुरीका सुख सूखी हड्डीके समान है। इस प्रसंगमें इन्द्रको दो उपमाएँ दी गयीं - 'कुटिल काक इव' और 'सठ स्वान।' डरनेमें एवं
कुटिलतामें काककी और सूखा हाड़ लेकर भागनेमें श्वानकी । भक्त लक्ष्मीके विलासको भी निषिद्ध समझते
हैं। यथा- 'रमा बिलासु राम अनुरागी । तजत बमन जिमि जन बड़भागी ॥'  इसीसे इन्द्रके ऐश्वर्यको 'सूख हाड़' की उपमा दी । श्वान सिंहके गुण और आहारको नहीं जानता और अपने 'सूखे हाड़' को बहुत बड़ी न्यामत, भगवान्‌की अपूर्व देन  मानता है, इसीसे उसे 'जड़' कहा । 'नारदजी समस्त संसार सुखको त्यागे हुए केवल एक मनरूपी मतवाले हाथीके मारनेवाले भगवद्दास हैं। उनको इन्द्रका राज्य क्या है ? अर्थात् संसार सुख सूखा 'हाड़' है, मन मतंग है और नारद सिंह हैं।जैसे कुत्ता सूखी हड्डीको बहुत बड़ा पदार्थ समझता है; वैसे ही इन्द्र नारदकी देवर्षि, भगवद्भक्त पदवीके आगे अपने एक मन्वन्तरके राज्यको बड़ा पदार्थ मानता है ।वैसे भी  देवेन्द्र किसीकी उत्कृष्टता नहीं सह सकते, इसी तरह नरेन्द्र भी । यह रजोगुणका स्वभाव है, खासियत है। इन्द्रको काक और श्वान दोनोंकी उपमाएँ अयोध्याकाण्डमें भी उसके शंकित - हृदय, छली,
कुटिल, मलिन, अविश्वासी और कपट- कुचालकी सीमा तथा पर- अकाज - प्रिय और स्वार्थी स्वभाव होनेमें दी
गयी हैं। यथा- 'कपट कुचालि सीवँ सुरराजू । पर अकाज प्रिय आपन काजू ॥ काक समान पाकरिपु रीती । छली
मलीन कतहुँ न प्रतीती ॥ लखि हिय हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुवानू॥'
सब बातें दिखानेके लिये यहाँ ये दोनों उपमाएँ दी गयीं। छल और कुमार्गकी वह सीमा है। अपना कार्य साधना,
पराया काज बिगाड़ना यही उसको प्रिय है। यही दिखलाना था । इस दोहे से मिलते-जुलते एवं उसपर प्रकाश डालनेवाले दो दोहे दोहावलीमें ये हैं-  'लखि गयंद लै
चलत भजि स्वान सुखानो हाड़। गज गुन मोल अहार बल महिमा जान कि राड़ ॥'  अर्थात् हाथीको देखकर कुत्ता सूखी हड्डी लेकर भाग चलता है कि कहीं वह उसके आहारको छीन न ले। क्या वह मूर्ख हाथीके गुण,
मूल्य, आहार, बल और महिमाको जान सकता है ? कदापि नहीं । 'कै निदरहु कै आदरहु सिंहहिं श्वान
सियार । हरष बिषाद न केसरिहि कुंजर-गंजनिहार ॥ 'अर्थात् सिंह तो हाथीका मस्तक विदीर्ण करके
खानेवाला है, वह दूसरेका मारा हुआ (शिकार) तो छूता ही नहीं; तब भला वह सूखी हड्डीकी तरफ दृष्टि
ही क्यों डालेगा ? जैसे कि कुत्तेके आदर वा निरादरसे सिंहको हर्ष वा विषाद नहीं होता, उसी तरह इन्द्र एवं कामदेवके आदर अथवा निरादरसे नारदजीके मनमें हर्ष या विषादसूचक कोई भी विकार न उठा । यथा- 'भयउ न नारद मन कछु रोषा । कहि प्रिय बचन काम परितोषा ।' 
महर्षि पाणिनिजीने श्वन्, मघवन् (इन्द्र) और युवन् इन तीनोंका तद्धितप्रकरणसे भिन्न प्रकरणोंमें एक - सरीखा रूप प्रदर्शित करनेके लिये अपने प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायीमें एक ही सूत्रमें तीनोंको लिखा है । यथा - 'श्वयुवमघोनामतद्धिते।' यह सूत्र इस प्रकरणमें देनेका भाव ही यह है कि इन्द्र और युवापुरुष दोनों प्रत्येक दशामें कुत्तेके समान ही हैं ।  कामपरवशता एवं लोलुपतामें इनकी उपमा कुत्ते से देना उचित ही है परंतु अन्य अवस्थामें नहीं । इसीलिये महर्षि पाणिनिजीने 'अतद्धिते' शब्द दिया है। पाणिनिके 'अतद्धिते' कहनेका भाव तद्धितप्रकरणके अतिरिक्त यह है कि जो जवान मनुष्य तत्
हिते अर्थात् तत् अर्थात् ब्रह्मकी प्राप्तिके साधनमें लगा है उसकी गणना श्वान और इन्द्रकी समान कोटिमें
नहीं करनी चाहिये। आचार्य भर्तृहरिजी ने भी लिखा है, 'कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् । सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते नहि गणयति क्षुद्रो जन्तुः
परिग्रहफल्गुताम् ॥'  अर्थात् कीड़ोंसे व्याप्त, लारसे भीगे, दुर्गन्ध, निन्दित, नीरस और मांसरहित मनुष्यकी हड्डीको निर्लज्ज कुत्ता प्रेमसे चबाता है तब अपने पास इन्द्रको भी खड़े देखकर शंका नहीं करता, वैसे ही नीच पुरुष जिस पदार्थको ग्रहण करता है उसकी निस्सारतापर ध्यान नहीं देता । - इस श्लोकके अनुसार दोहेका भाव यह निकलता है कि निर्लज्ज इन्द्र सूखी हड्डीके समान अपने राज्यको निस्सार नहीं समझता ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ