मानस चर्चा ।। जलंधर और सती स्त्री का प्रभाव।।
मानस चर्चा ।। जलंधर और सती स्त्री का प्रभाव।।
एक कलप सुर देखि दुखारे । समर जलंधर सन सब
हारे ॥ संभु कीन्ह संग्राम अपारा।। दनुज महाबल मरै न मारा ॥ परम सती असुराधिप नारी । तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥ एक कल्पमें सब देवता जलन्धरसे हार गये। (याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि तब ) देवताओंको दुःखी
देखकर॥ शिवजीने बहुत भारी घोर युद्ध किया, पर वह दैत्य महाबलवान् था, मारे न मरता था ॥ उस दानवराज की स्त्री पतिव्रता थी। उसीके बल (प्रभाव) से त्रिपुरासुरके नाशक महादेवजी भी उस दानवको न जीतते थे।
जलन्धरने देवताओंको जीतकर उनके सब लोक छीन लिये थे,इसीसे देवता दुःखी हुए।तेहिं सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते ॥ ' 'सब हारे' अर्थात् तैंतीस कोटि देवता हार गये । 'सुर देखि दुखारे' का भाव कि भगवान् देवताओंका दुःख नहीं देख सकते; यथा- 'जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो । नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो ।'संभु कीन्ह संग्राम ' भाव कि जब सब देवता हार गये तब शिवजीने संग्राम किया। 'अपारा' कहकर जनाया कि देवता लोग शीघ्र हार गये थे और शिवजी बहुत दिनोंतक लड़ते रहे। संग्राम वर्षों जारी रहा। कोई पार न पाता था । 'महाबल मरै न मारा' अर्थात् महाबलवान् है, इससे मारे नहीं मरता । पुनः भाव कि शिवजी उसके वधके लिये उसे भारी शस्त्रास्त्रसे मारते हैं पर सब शस्त्रास्त्र
व्यर्थ जाते हैं, दानव मरता नहीं । 'परम सती असुराधिप नारी । ' अर्थात् इसी से असुर महाबली है। 'तेहि बल
ताहि न जितहिं पुरारी' उसी बलसे असुरको पुरारि नहीं जीतते । अर्थात् धर्मकी मर्यादाका नाश नहीं कर सकते। भाव यह कि वह असुर अपने शरीरके बलसे नहीं लड़ रहा है किन्तु अपनी स्त्रीके पातिव्रत्य धर्मके बलसे लड़ता है।
सती स्त्रियोंके पातिव्रत्य धर्मका बल बड़ा भारी होता है। जलन्धरकी कथामें प्रमाण देखिये । पुनः 'तेहि बल' से
जनाया कि वह दानव शंकरजी के सदृश बलवान् नहीं है, वह केवल सतीत्व धर्मकी रक्षासे बचता है, नहीं तो शिवजी
उसे जीत लेते। 'परम सती' तो गिरिजाजी भी हैं। जलन्धर की स्त्री वृन्दाकी जोड़में गिरिजाजीको क्यों न कहा? कारण कि उनका सामर्थ्य श्रीपार्वतीजी के सतीत्वसे नहीं है वे तो स्वयं सहज समर्थ भगवान् हैं और जलन्धरको केवल उसकी स्त्रीके पातिव्रत्यका बल और सामर्थ्य है, उसमें स्वयं यह सामर्थ्य न था कि त्रिपुरासुरके मारनेवालेका सामना कर सकता ।अतएव जलन्धरके साथ उसकी स्त्रीके पातिव्रत्यका बल भी कहा और शिवजीके साथ श्रीगिरिजाजीके पातिव्रत्य को न कहा।'पुरारी' का भाव कि यह असुर त्रिपुरासुरसे भी अधिक बलवान् है । त्रिपुरको तो शिवजीने एक ही बाणसे मार गिराया था, यथा- 'मारयो त्रिपुर एक ही बान' पर इसे नहीं जीतने पाते। अथवा, त्रिपुरनाशकको जलन्धरका मारना क्या कठिन था ? परन्तु उसका वध करनेसे पातिव्रत्यधर्मकी मर्यादा न रह जाती, इस धर्मसंकटमें पड़कर शिवजी उसे न मार सके। यहाँ एक ओर तो पातिव्रत्यका प्रभाव दिखाया और दूसरी ओर मर्यादाकी रक्षा दिखायी। आइए हम थोड़े में यहां जलंधर की कथा और सती के प्रभाव को समझते हैं।'जलंधर' - यह शिवजीकी कोपाग्निसे समुद्रमें उत्पन्न हुआ था। जन्मते ही यह इतने जोरसे रोने लगा कि सब देवता व्याकुल हो गये । ब्रह्माजीके पूछनेपर समुद्रने उसे अपना पुत्र बता उनको दे दिया । ब्रह्माजीने ज्यों ही उसे गोद लिया उसने उनकी दाढ़ी (ठुड्डी) इतने जोरसे खींची कि उनके आँसू निकल पड़े। इसीसे ब्रह्माने उसका नाम जलंधर रखा। इसने अमरावतीपर कब्जा कर लिया। इन्द्रादिक सभी देवता इससे हार गये ।
अन्ततोगत्वा श्रीशिवजीने इन्द्रका पक्ष ले उससे बड़ा घोर युद्ध किया । उसको न जीत पाते थे क्योंकि उसकी
स्त्री वृन्दा, जो कालनेमिकी कन्या थी, परम सती थी। सतीत्वका बल ऐसा ही है; यथा - 'यस्य पत्नी भवेत्साध्वी
पतिव्रतपरायणा । स जयी सर्वलोकेषु सुमुखी स धनी पुमान् ॥ कम्पते सर्वतेजांसि दृष्ट्वा पातिव्रतं महः । भर्त्ता सदा सुखं भुङ्क्ते रममाणो पतिव्रताम् ॥ धन्या सा जननी लोके धन्योऽसौ जनकः पुनः । धन्यः स च पतिः श्रीमान् येषां गेहे पतिव्रता ॥'
यह जानकर कि शिवजी उसके पतिसे लड़ रहे हैं वृन्दाने पतिके प्राण बचानेके लिये ब्रह्माकी पूजा प्रारम्भ
की। जब शिवजीने देखा कि जलंधर नहीं मर सकता तब उन्होंने भगवान्का स्मरण किया। भगवान् ने सहायता
की। वे वृन्दाके पास पहुँचे [ किस रूपसे ? इसमें मतभेद है। कहते हैं कि वृन्दाने पूर्व जन्ममें पति - रूपसे
भगवान्को वरण करनेके लिये तपस्या की थी और उन्होंने उसे वैसा वर भी दिया था। सो इस प्रकार सिद्ध
हुआ ] । - वृन्दाने उन्हें देखते ही पूजन छोड़ दिया । पूजन छोड़ते ही जलंधरके प्राण निकल गये ।
सतीत्वभंगके प्रसंगकी कथाएँ पुराणोंमें कई तरहकी हैं।
कि भगवान्ने यह छल किया कि वे तपस्वी यति बनकर उसके घरके पास विचरने लगे । वृन्दाने उनसे पूछा
हमारा पति कब जय पावेगा ? यति बोले कि वह तो मार डाला गया। तब वृन्दाने कहा कि तुम झूठ कहते हो। हमारा
पातिव्रत्य रहते हुए उसे कौन मार सकता है ? यतिने आकाशकी ओर दृष्टि की तो दो वानर जलंधरके शरीरको
विदीर्ण करते हुए देख पड़े। थोड़ी ही देरमें शरीरके टुकड़े वृन्दाके समीप आ गिरे। यह देख वह विलाप करने
लगी “तब यतिने कहा कि इसके अंगोंको तू जोड़ दे तेरे पातिव्रत्यधर्मसे वह जी उठेगा। उसने वैसा ही किया ।
अंगोंके स्पर्श करते ही भगवान्ने उसमें प्रवेशकर जलंधर रूप हो उसका व्रत भंग किया; तभी इधर जलंधरको
शिवजीने मारा। वृन्दाको यह बात तुरत मालूम हुई। जब उसने शाप दिया तब भगवान् ने अपने लिये पूर्व जन्मकी
तपस्याकी कथा कहकर उसका सन्तोष किया। शाप यह था कि जलंधर रावण होकर तुम्हारी पत्नी हरेगा, इत्यादि । जलंधरकी स्त्री वृन्दाकी कथासे हमें शिक्षा मिलती है कि - पातिव्रत्य एक महान् धर्म है।यह एक महान् तपके बराबर है। सती स्त्रीका पति बड़े-से-बड़े संग्रामको जीत सकता है। धोखा देनेवालेको दण्ड मिलता है । (यह भी कथा है कि वृन्दाके शापसे भगवान्को शालग्राम होना पड़ा और वृन्दा तुलसी हुई जो उनके मस्तकपर चढ़ती है। इसके अनुसार शिक्षा यह है कि सतीके साथ छल करनेवालेकी
दशा ऐसी होती है, उसे जड़-पत्थर बनना पड़ता है। वा, जब भगवान्को पाषाण बनना पड़ा तब साधारण मनुष्यको न जाने क्या होना पड़े । छल और कपटका परिणाम बहुत बुरा होता है। सज्जन वही हैं जो अपनी
हानि करके भी दूसरोंको लाभ पहुँचाते हैं ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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