शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

।।ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की अद्भुत करनी।।


।।ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की अद्भुत करनी।।
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की अद्भुत करनी ,जिनका वर्णन गुरुदेव वशिष्ठ ने प्रसन्न होकर अनेक प्रकार से किया ।बाबा लिखते है:-
मुनि मन अगम गाधिसुत करनी ।
मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी ॥ 
वाल्मीकीय रामायण में श्रीशतानन्दजी महाराजने श्रीरामचन्द्रजीसे श्रीविश्वामित्रजीकी कथा कही है। एक बार राजा विश्वामित्र अक्षौहिणी दल लेकर पृथ्वीका परिभ्रमण करने निकले। नगरों, नदियों, पर्वतों, जंगलों और आश्रमोंको देखते हुए वे वसिष्ठजीके आश्रम में पहुँचे । कुशलप्रश्न करनेके पश्चात् मुनिने राजाको अतिथि सत्कार ग्रहण करनेको निमन्त्रित किया और अपनी कपिला गऊको बुलाकर सबकी रुचिके अनुसार भोजनकी वस्तु एकत्र करके उनका सत्कार करनेकी आज्ञा दिया।सत्कृत होनेपर प्रसन्नतापूर्वक राजाने कोटि गऊ अलंकृत तथा और भी अनेक रत्न आदिका लालच देकर कहा कि यह कपिला गऊ हमको दे दो । मुनिने कहा कि मैं इसे किसी प्रकार न दूँगा, यह मेरा धन है, सर्वस्व है, जीवन है । - ' एतदेव हि मे रत्नमेतदेव हि मे धनम् । एतदेव हि सर्वस्वमेतदेव हि जीवितम् ॥' राजा उसे बलपूर्वक ले चले, वह छुड़ाकर मुनिके पास आ रोने लगी। मुनिने कहा कि यह राजा है, बलवान् है, क्षत्रिय है, मेरे बल नहीं। तब गऊ आशय समझकर बोली, मुझे आज्ञा हो - आज्ञा पाते ही भयंकर सेना उत्पन्न करके उसने सब सेना नष्ट कर दी। तब विश्वामित्रके सौ पुत्रोंने क्रोधमें भरकर वसिष्ठजीपर आक्रमण किया। मुनिकी एक हुंकारसे राजाके सौ पुत्र और घोड़े - रथ- सेना सब भस्म हो गये। राजा पंख कटे पक्षीके समान अकेला रह गया । उसको वैराग्य हुआ। राज्य एक पुत्रको देकर तप करके उसने शिवजीको प्रसन्न कर वर माँग लिया कि 'अंगोपांग मन्त्र तथा रहस्यके साथ धनुर्वेद आप मुझे दें । देव-दानव - महर्षि - गन्धर्वादि सभीके जो कुछ अस्त्र हों सब मुझे मालूम हो जायँ । इन्हें पाकर अभिमानसे राजाने मुनिके आश्रममें जा उसे क्षणभरमें ऊसरके समान शून्य कर दिया। ऋषियोंको भयभीत देख मुनिने अपना दण्ड उठाया कि इसे अभी भस्म किये देता हूँ और राजाको ललकारा। राजाकी समस्त विद्या ब्रह्मदण्डके सामने कुछ काम न दे सकी। समस्त अस्त्रोंके व्यर्थ हो जानेपर राजाने ब्रह्मास्त्र चलाया, उसे भी ब्राह्मतेज ब्रह्मदण्डसे मुनिने शान्त कर दिया । वसिष्ठजीके प्रत्येक रोमकूपसे किरणोंके समान अग्निकी ज्वालाएँ निकलने लगीं, ब्रह्मदण्ड उनके हाथमें कालाग्निके समान प्रज्वलित था। मुनियोंने उनकी स्तुतिकर विनय की कि आप अपना तेज अपने तेजसे शान्त करें और अपना अस्त्र हटाइये, प्राणिमात्र उससे पीड़ित हो रहे हैं। उनकी विनय सुनकर उन्होंने दण्डको शान्त किया । पराजित राजा लंबी साँस भरकर अपनेको धिक्कारने लगा 'धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलम् ।'एकेन ब्रह्म दण्डेन, सर्वस्त्राणि हतानि में” इसका मतलब है कि क्षत्रिय के बल को धिक्कार है, ब्राह्मण का तेज ही असली बल है. 
और ब्रह्मतेजकी प्राप्तिके लिये तपस्या करने चले । कठिन तपस्या की; ब्रह्माजीने आकर कहा कि आजसे तुम्हें हम सब राजर्षि समझने लगे। पर  इस बारकी तपस्या का फल त्रिशंकुने ले ली तब पुष्कर क्षेत्रमें जा पुनः तपस्या करने लगे। वहाँ ऋचीकके मँझले पुत्र शुनःशेपने अपने मामा विश्वामित्रको तप करते देख उनकी शरण ली कि अम्बरीषके यज्ञमें बलि दिये जानेसे बचाइये । यह  तपस्या इसमें  चली गयी। फिर एक हजार वर्ष तपस्या करनेपर ब्रह्माजीने आकर तपस्याका फलस्वरूप इनको 'ऋषि' पद दिया। फिर कठिन तप करने लगे। बहुत समय बीतनेपर मेनका पुष्कर क्षेत्रमें स्नान करने आयी, उसको देख ये काम वश हो गये। दस वर्ष उसके साथ रहे। फिर ग्लानि होनेपर उसका त्यागकर उत्तर पर्वतपर कौशिकीके तटपर जा कठोर तपस्या करने लगे। कठिन तप देख देवताओंकी प्रार्थनापर ब्रह्माजीने इनको 'महर्षि' पद दिया और कहा कि ब्रह्मर्षि पद पानेके लिये इन्द्रियोंको जीतो । तब महर्षि विश्वामित्रजी निरवलम्ब वायुका आधार ले कठिन तप करने लगे । इन्द्र डरा और रम्भाको बुला उसने विघ्न करने भेजा । महर्षि जान गये, पर क्रोध न रोक सके, रम्भाको शाप दिया कि पत्थर हो जा। क्रोधवश होनेसे तपस्या भंग हो गयी। इससे महर्षिका मन अशान्त हुआ। अब उन्होंने निश्चय किया कि मैं सौ वर्षतक श्वास ही न लूँगा, इन्द्रियोंको वशमें करके अपनेको सुखा डालूँगा''। ऐसा दृढ़ निश्चयकर वे पूर्व दिशामें जा एक हजार वर्षतक मौनकी प्रतिज्ञा कर घोर तप करने लगे- समस्त विघ्नोंको जीता। व्रत पूर्ण होनेपर ज्यों ही अन्न भोजन करना चाहा, इन्द्रने विप्ररूप धर उनके पास आ उस अन्नको माँग लिया, उन्होंने दे दिया और पुनः श्वास खींचकर तपस्या करने लगे । मस्तकसे धुआँ और फिर अग्निकी ज्वालाएँ निकलने लगीं। सब देवता डरकर ब्रह्माजीके पास दौड़े कि शीघ्र उनके मनोरथको पूर्ण कीजिये, अब उनमें कोई विकार नहीं है, उनके तेजके आगे लोगोंका तेज मन्द पड़ गया ब्रह्माजीने आकर उन्हें ब्रह्मर्षि पद दिया और फिर वसिष्ठजीसे भी उनकी मित्रता करा दी और उनसे भी उनको ब्रह्मर्षि कहला दिया। आजकलके अभिमानी संहारक विज्ञानियोंको विश्वामित्रके अस्त्र-शस्त्रोंको पढ़ना
चाहिये, जिससे ज्ञात होगा कि हमारा देश अस्त्र-शस्त्र - विद्यामें कितना बढ़ा चढ़ा था । बाबा ने लिखा =
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी।
बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥
     ।। जय श्री राम जय हनुमान।।

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